अस्पताल के बिस्तर पर गोरे रंग की एक बेहद कमज़ोर स्त्री, बिखरे हुए काले बालों वाला सिर, नाक में प्लास्टिक
की एक ट्यूब, दुबले और साफ़ हाथ, दृढ़ और बादामी आँखें और रुक-रुक कर आती हुई, कांपती हुई कर्तव्यों की बात
करती आवाज़। सत्ता या राजनीति जैसे क्रूर और ताक़तवर तंत्र के आगे इस महिला ने
अपनी ज़िंदगी के सबसे महत्वपूर्ण डेढ़ दशक गँवाए।
इरोम चानू शर्मिला। यह नाम किसी पहचान का मोहताज नहीं है। संसार का वो अद्भुत व
अकल्पनीय आंदोलन, जिसे अकेले ही एक महिला ने डेढ़ दशक तक लड़ा। तपस्या का वो इतिहास, जिसने इरोम शर्मिला
को मणिपुर की आयरन लेडी के तौर पर स्थापित कर दिया।
हमारे यहाँ हर विरोधी दल आंदोलन करते हैं, जिसमें हिंसा-तोड़फोड़-आगजनी
होती है, जनसंपत्ति का नुक़सान होता है। जो सत्ता में होता है वो अहिंसक और शांतिपूर्ण
आंदोलन का महत्व समझाता है, जबकि विपक्ष में होता है तब वो हिंसक आंदोलन कर ही चुका
होता है। लेकिन इरोम शर्मिला ने डेढ़ दशक तक केवल शांतिपूर्ण व अहिंसक आंदोलन ही नहीं
किया, बल्कि आंदोलन और मक़सद के लिए त्याग और तपस्या का भुला दिया गया तत्व भी लोकतंत्र
को दोबारा याद दिला दिया।
इसे आप आज़ाद हिंदुस्तान
का ऐसा इकलौता इतिहास ही कह सकते हैं, जिसमें उस इंसान ने केवल एक ही लाइन कही थी और फिर वो कभी बोली नहीं! उसने सन 2000 में केवल एक लाइन बोलकर अपना अनशन शुरू किया। उसने ना तो किसी को अपने साथ जुड़ने
की अपील की, ना किसी मीडिया का सहारा लिया। उसने ना किसी मीडिया चैनल को इंटरव्यू देने की
रणनीति अपनाई, ना सैकड़ों लोगों की भीड़ इकठ्ठा करके प्रदर्शन किया। उस इंसान ने यह एक महीने
नहीं, एक साल नहीं, दस साल नहीं, बल्कि सोलह सालों तक किया!!!
शायद संसार में यह
उन कुछेक घटनाओं में शुमार ऐसा अनशन होगा, जिसमें उस इंसान ने अपने लिए नहीं बल्कि औरों के लिए 16-16 साल तक अन्न का एक
दाना भी ग्रहण नहीं किया था!!! वो कभी बोली नहीं...
लेकिन आज़ाद हिंदुस्तान का यह इकलौता इतिहास है, जिसमें एक लफ़्ज़ बोले बिना ही उसने अपनी आवाज़ इतनी बुलंद
कर दी, की उनका नाम उसके मक़सद से ख़ुद-ब-ख़ुद जुड़ गया। एक दौर था जब कोई उनके या उनके
मक़सद के बारे में जानता तक नहीं था।
ये वाक़ई अद्भुत था, अकल्पनीय था, अविश्वसनीय था। ऐसा
त्याग, ऐसा धैर्य, ऐसी ज़िद शायद ही आज़ाद हिंदुस्तान में मुश्किल से देखने के लिए मिली हो। विश्लेषक
भी बताते हैं कि आज़ादी के पश्चात इरोम शर्मिला जैसा त्याग और तपस्या कुछेक लोगों में
ही देखने के लिए मिले।
उनके मक़सद से कई लोग
सहमत या असहमत हो सकते हैं, ख़ुश या नाराज़ हो सकते हैं। क्योंकि उनका मक़सद सेना और
अशांत इलाक़ों के क़ानून से संबंधित था।
14 मार्च 1972 को पैदा हुई इरोम
शर्मिला ने 4 नवंबर 2000 के दिन Armed Forces Special Powers Act (अफस्पा) के विरोध में अपना अनशन शुरू किया। यह एक्ट अशांत इलाक़ों में सेना
को विशेषाधिकार प्रदान करता है। यह एक्ट केवल इस संदेह के आधार पर कि कोई व्यक्ति अपराध
करने वाला है या कर चुका है, इस स्थिति में सेना
को बल-प्रयोग, गिरफ़्तारी और गोलियों
से भून देने की छूट देता है। यह एक्ट सेना के किसी भी व्यक्ति के ख़िलाफ़ केंद्र सरकार
की मर्जी के बगैर न्यायिक अपील की अनुमति भी नहीं देता।
भारत के पूर्वोत्तर
हिस्से में लंबे समय से व्याप्त अशांति, हिंसा, उग्रवाद और रक्तपात पर नकेल कसने
हेतु अफस्पा लागू किया गया था। किंतु अरसे से आरोप लगते रहे कि इस विशेषाधिकार का
जमकर दुरुपयोग होता है। निर्दोषो की हत्याएँ और अन्य अमानवीय कृत्यों के आरोप लगते
रहे। इन कथित घटनाओं ने इरोम को बहुत वक़्त तक बेचैन किए रखा। अंतत: 28 बरस की उम्र में, जब संसार और समाज में एक इंसान के स्वप्न, संघर्ष और प्राथमिकताएँ, सब परस्पर गुंथ कर एक बहुत स्वीकार्य स्वभाव और आकांक्षा
ग्रहण करते हैं, इरोम ने सत्याग्रह, त्याग और प्रतिरोध को चुन लिया।
इरोम शर्मिला ने जब
सन 2000 में अपना अनशन शुरू किया, वहाँ से लेकर आज तक, यानी कि सन 2016 तक, वह ज़्यादातर सरकारी निगरानी में ही रही हैं। वह जहाँ रहती हैं, उस इलाक़े में मुश्किल
से लोगों को इक्ठ्ठा होने की इजाज़त मिलती थी। उनका अनशन हमारे प्रचलित आंदोलनों जैसा
नहीं था। ऐसा नहीं था कि उनके आसपास सैकड़ों लोगों की भीड़ लगी रहती हो। ऐसा भी नहीं
था कि उनकी रोज़ाना मुलाक़ातें सैकड़ों लोग या संस्थाएँ लेती रहती हो।
इरोम के आंदोलन का
तौर-तरीक़ा हमारे उन प्रचलित आंदोलनों जैसा नहीं था। एक युवा लड़की ने अपनी ज़िंदगी
के वो सुनहरे दिन किसी सार्वजनिक मक़सद को दे दिए और अनशन पर बैठ गईं। उन पर आत्महत्या
के प्रयास तक के केस दर्ज़ होते गए। उन पर सरकारी निगरानी लगाई गई। नज़रबंद अवस्था
में तथा अन्य तमाम संघर्षों के बीच इरोम ने अपनी ज़िद नहीं छोड़ी।
अपनी माँ को अपना प्रेरणास्रोत
मानने वाली इरोम शर्मिला की इस संघर्ष की वजह से अगर जान चली जाती, तो यह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के लिए कई परेशानियाँ पैदा करने वाली बात होती।
इसलिए डरा हुआ राज्य 16 साल तक इरोम की नाक में एक ड्रिप लगा कर उन्हें जबरन रसाहार
देकर जीवित रखे रहा।
वक़्त गुज़रा और...
इरोम शर्मिला, एक नाम बनकर उभरा। यह नाम अपने आप में एक ऐसा आंदोलन बन कर उभरा कि देश
के कई हिस्सों में उनके चेहरे के साथ कई संगठन या गुट बनने लगें। कई संस्थाएँ अपने
अपने तौर पर उनके ही चेहरे और नाम के दम पर अपने अपने इलाक़े से आवाज़ उठाती रहीं।
जो लोग सचमुच लोकतंत्र में यक़ीन रखते थें, उन सभी के दिल-ओ-दिमाग़ को इस 16 साल लंबे अनशन ने
झकझोर दिया। इरोम ने एक ऐसे मक़सद के लिए लड़ाई लड़ी, जो निजी नहीं थी, सार्वजनिक
थी।
उनके मक़सद या उनके
आंदोलन को साथ देने के लिए जो भी अन्य गुट या संगठन बने, उन्होंने किस तरह से आंदोलन
किए यह विषय अलग है। क्योंकि पाया गया है कि ऐसे गुट या संगठनों के कार्य या तौर तरीक़ों
से इरोम शर्मिला का कभी नज़दीक़ी सरोकार नहीं रहा था।
लोकतंत्र का गाना गाने
वाले आम नागरिक यह सोच कर आहत होते रहे कि इस देश में यह कैसी व्यवस्था है कि एक लड़की
अपनी ज़िंदगी के 16 अनमोल साल एक मक़सद को दे देती है। लेकिन कोई भी पार्टी, कोई भी नेता, कोई भी अभिनेता या
कोई भी सितारा उसके साथ ठीक से खड़ा नहीं होता।
वक़्त गुज़रता जा रहा
था और चुप रहकर, मीडिया या लोगों की नज़रों में आये बिना, सरकारी निगाहों के तले, अपने तरीक़े से अनशन पर क़ायम रहने वाली इरोम शर्मिला
धीरे धीरे एक आवाज़ बनती गईं। अपने मक़सद में उन्हें कामयाबी तो नहीं मिली। क्योंकि
हमारी "सरकारी-सामाजिक व्यवस्था" ही ऐसी है कि उनको सफलता मिलेगी ऐसी उम्मीद औरों को कम ही थी।
लेकिन उनकी इस लंबी
तपस्या ने उनके मक़सद और मुद्दे को जनजन तक पहुंचा दिया। और वो भी 16 साल तक चुप रह कर!!!
यह वाक़ई आज़ाद हिंदुस्तान
की एकमात्र घटना होगी। यह इरोम शर्मिला की 16 साल की तपस्या का ही नतीज़ा था कि अफस्पा क़ानून को लेकर गूंज संसद, बुद्धिजीवियों, किताबों, समर्थकों, विरोधियों से लेकर
सुप्रीम कोर्ट तक गूंजती रही।
उनके इतने लंबे अनशन
का कोई नतीज़ा तो नहीं निकला, लेकिन अफस्पा को भारत के सामाजिक पटल पर रखने का श्रेय इन्हें ही गया। यह इनकी
'मौन रही बुलंद आवाज़' का ही नतीज़ा था कि सन 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने जस्टिस संतोष हेगड़े की अगुवाई में कई मुठभेड़ों की जाँच
के लिए तीन जजों की एक विशेष समिति का गठन किया। सुप्रीम कोर्ट ने सन 2016 में 1,528 मामलों की जाँच के
आदेश भी दिए। ये भले इरोम के मक़सद से दूर था, ये भले उनकी माँग नहीं थी, लेकिन यह कोई छोटी घटना भी नहीं थी।
फ़िलहाल तो हम ना ही
अफस्पा क़ानून की बात कर रहे हैं, और ना ही उसके प्रावधानों की। हम बात कर रहे हैं
एक ऐसे भारतीय नागरिक की, जिसने लोकतांत्रिक मूल्यों के तथाकथित रक्षकों को सबक सिखा दिया है। इस लेख का
मूल मक़सद इरोम शर्मिला से ही नहीं जुड़ा है, ना ही अफस्पा को लेकर है, बल्कि सार्वजनिक मांगों के लिए सार्वजनिक आंदोलनों के सार्वजनिक तौर-तरीक़ों से
ज़रूर ताल्लुक़ रखता है।
कई लोग कह सकते हैं
कि उन्हें ऐसा करना चाहिए था, वैसा करना चाहिए था। ये नहीं करना चाहिए था, वो नहीं करना चाहिए था वगैरह वगैरह। हमारे यहाँ ऐसे लोगों की
कोई कमी नहीं है। लिहाज़ा ऐसे छिटपुटिये तर्कों को तवज्जो भी क्यों दें?
आजकल के आंदोलन, जो चलते हैं मुश्किल
से आधा घंटा, लेकिन शहर को परेशान करके रख देते हैं। कही कोई मरीज़ फँसता है, कही कोई चिकित्सक
फँसता है, कही छात्र फँसते हैं। धारा 144 लगानी पड़ती है, कर्फ़्यू लगाया जाता है, संपत्तियाँ जलाई जाती हैं। ऐसे आंदोलन करने वालों की मांगें भी समाज या प्रदेश
के लिए नहीं होती। वो तो अपने लिए होती हैं! लेकिन वे पूरे शहर या प्रदेश तक को परेशान कर देते हैं।
हो सकता है कि प्रिंट
मीडिया या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में कुछ तथाकथित लेखक या विशेषज्ञ इरोम को सलाह झाड़ते
भी नज़र आए। उनके मक़सद या उनके तरीक़ों पर टिप्पणियाँ करते भी नज़र आए। यहाँ लोग गाँधीजी, भगत सिंह या सरदार
पटेल जैसों को नहीं छोड़ते, तब इरोम शर्मिला पर कई ऐसे लेख स्वाभाविक भी होंगे। वैसे भी "हमारे देश का एक अघोषित
इतिहास रहा है कि जिन्होंने राष्ट्र या समाज के लिए कुछ किया ही नहीं होता, वही लोग उन शख़्सियतों
के ऊपर टिप्पणियाँ करते हैं, जिन्होंने अपना जीवन राष्ट्र व समाज के प्रति समर्पित किया हो।"
इरोम शर्मिला के
आंदोलन का घटनाक्रम, यह वाक़ई हमारी लोकतांत्रिक और नागरिकी व्यवस्था के लिए एक बड़ा
सबक है। 16 साल का लंबा अनशन... अपनी ज़िंदगी के सुनहरे दिन किसी मक़सद के लिए दे देना...
वाक़ई मुश्किल तपस्या ही रही होगी।
वो जब अनशन पर बैठीं,
तब युवा लड़की थीं, और 16 साल बाद कमज़ोरी और भूख, शारीरिक समस्याएँ, मानसिक तनाव और वक़्त का गुज़रना... इन सभी चीज़ों ने उन्हें बिलकुल बदल ही दिया।
उनकी 16 साल पहले की तस्वीर देखे और आज की तस्वीर देखे... जो फ़र्क़ दिखेगा वो उनके चेहरे
का फ़र्क़ नहीं है। वो फ़र्क़ है हमारी खोखली लोकतांत्रिक भक्ति का। वो फ़र्क़ है हमारी
खोखली नैतिकता का।
16 साल... सोचिए, ज़िंदगी के लिए 16 साल क्या मायने रखते हैं। 2000 से 2016 तक का वो सफ़र। इस दौरान भारत में कई दौर आए और कई दौर चले गए।
सरकारें बदलती रही, देश ख़ुशियाँ मनाता
रहा, देश ग़म मनाता रहा। भारत की गलियाँ कभी क्रिकेट कप जीतने का जश्न मनाती, कभी हारने का मलाल
सड़कों पर छाया रहता। फ़िल्में आती रही-जाती रही, लोग घरों से बाहर निकल कर अपने परिवार
के साथ अपनी अपनी ज़िंदगी जीते रहे। कईं अभिनेता आए और कईं चले गए, हम लोग क्रिकेट, फ़िल्म, राजनीति, खेल, तमाम ज़रिए से मौज मनाते रहे। कभी देश चांद पर पहुंचा, कभी कही ओर। कई बच्चे
पैदा हुए, वे बड़े हुए और अपना भविष्य संवारने भी लग गए। लोग, या यूँ कहिए कि देश, खाना खाने रेस्तरा
में जाता रहा, वीकेंड मनाता रहा, टूर करता रहा। देश शादियाँ मनाता रहा, बच्चों की ख़ुशियों के जश्न मनाता रहा। क्या क्या नहीं बदला देश में इस दौरान?
इस देश ने इन 16 सालों तक अपनी ज़िंदगी
को जिया। बेफ़िक्र और बेख़बर होकर जिया। लोकतंत्र को कोसकर जिया, देश को बदलने की सलाहें
झाड़ कर जिया। और दूसरी तरफ़ इरोम शर्मिला किसी मक़सद के लिए अपनी ज़िंदगी, अपने सपने कुर्बान
करती रहीं!
सैकड़ों लोग इरोम के
मक़सद को लेकर उनसे नाराज़ रहे। कई ऐसे भी थे, जो आज भी इरोम को सेनाद्रोही मानते हैं।
लेकिन फ़िलहाल तो हम ना ही अफस्पा क़ानून की बात कर रहे हैं, और ना ही उसके प्रावधानों
की। हम बात कर रहे हैं एक ऐसे भारतीय नागरिक की, जिसने लोकतंत्र के तथाकथित रक्षकों को एक सबक सिखा दिया है।
यहाँ मक़सद हमारे सैकड़ों
सामाजिक आंदोलनों को लेकर चर्चा का है। और हमारे प्रचलित आंदोलन तथा इस मुहिम के तौर-तरीक़ों
का अंतर समझने में बुराई नहीं है। यूँ तो जिस देश में इरोम शर्मिला से ज़्यादा चर्चे
बॉलीवुड के हीरो-हीरोइन के होते हो, वहाँ सरकारें बदलने से भी स्थितियाँ उतनी जल्दी नहीं बदलती।
हो सकता है कि इरोम
का मक़सद या उनकी माँग ग़लत भी हो, या फिर सही भी हो। यहाँ मक़सद ऐसी चीज़ों पर चर्चा
करने का नहीं है। अब जबकि इरोम अपना 16 साल लंबा अनशन समाप्त कर रही हैं, और राजनीति में जाना चाहती हैं, शादी करना चाहती हैं, आगे की चीज़ों पर
धारणाओं के पहाड़ खड़े करके लिखने का फ़ायदा नहीं होगा। क्योंकि चर्चा का मक़सद ऐसा
नहीं है। जय हिन्द...
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)
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