गधे ही हैं जो आम नहीं खाते – आम के स्वादिष्ट संसार के साथ यह फ़िक़रा जुड़ा हुआ है। पोषण का धनी यह फल जब
बाज़ार में आता है तो अपनी तमाम क़िस्मों और स्वादों से जी को ललचाने लगता है। इसका
शाही पीलापन बाकी सभी फलों को फीका कर देता है। बस इसका नाम ही 'आम' है, किंतु यह इतना ख़ास
है कि इसका वास्ता खान-पान और स्वाद से लेकर इतिहास, राजनीति, रिश्ते, संस्कृति, शेर-ओ-शायरी तक से
है।
गर्मियों के मौसम में 'आम' का नाम हर किसीके मुँह से निकलना आम है। आम के दीवाने हर जगह पाए जाते हैं और
इन दीवानों के लिए कुछ आम ख़ास होते हैं, बाकी सब बस आम होते हैं। कोई 'केसर' के लिए यहाँ से वहाँ
भटकता है, कोई 'लंगड़ा' के लिए मरने-मारने को तैयार हो जाता है, कोई 'चौसा' के क़सीदे पढ़ता है, तो कोई 'दशहरी' के आगे किसी और आम को कुछ ख़ास नहीं समझता और इसी तरह अलफ़ांसो, यानी 'हापुस' के दीवाने भी कम नहीं
हैं।
भारत तरह-तरह की जातियों वाला समाज है। वहीं कहा जाता है कि इस देश में जितनी जातियाँ
हैं, आम की क़िस्में उससे कहीं ज़्यादा हैं। आम की 1500 से ज़्यादा क़िस्में
किताबों में दर्ज हैं, और यह भी माना जाता है कि बहुत सी क़िस्में इनके अलावा भी हैं, जो इन किताबों में
जगह नहीं बना पाई हैं।
इसके बावजूद अगर आप
आम के शौक़ीन किसी ख़रीदार से पूछें तो वह आम की चार-पाँच क़िस्मों से ज़्यादा के नाम
भी नहीं जानता, ख़ुशबू, स्वाद, रंगत, आकार से पहचानने की
तो बात ही छोड़ दीजिए।
गुजरात में एक केसर
होता है और बाकी आम होते हैं। महाराष्ट्र और गोवा वगैरह में माना जाता है कि एक आम
होता है और एक अलफ़ांसो होता है। बिहार और पश्चिम बंगाल जाएँ तो तक़रीबन अलफ़ांसो जैसी
ही तारीफ़ मालदा की भी सुनाई देती है, जबकि वाराणसी वाले मानते हैं कि स्वाद की रेस में सबसे आख़िर में जीतेगा तो लंगड़ा
ही। उधर लखनऊ वालों के लिए दशहरी ही सब कुछ है।
इसमें कोई नई बात नहीं
है कि आम की पसंद और नापसंद क्षेत्रीय आधार पर होती है। यह इस पर भी निर्भर करता है
कि बचपन में कौन-सा स्वाद आपकी ज़बान पर चढ़ गया।
फलों का राजा आम है, और आम का राजा अलफ़ांसो।
माना जाता है कि पुर्तगाली जनरल अलफ़ांसो डि अलबुक़र्की ने हापुस की खेती को बहुत बढ़ावा
दिया, और उनके नाम पर आम की नस्ल अलफ़ांसो कहलाई। गोवा से लेकर महाराष्ट्र के तटवर्ती
रत्नागिरी इलाक़े तक में इसकी भरपूर उपज होती है। रायगढ़ व कोंकण क्षेत्र में यह पाए
जाते हैं।
आम की जितनी क़िस्में
हैं, उसमें सबसे उन्नत एवं महंगी क़िस्मों में से अलफ़ांसो एक है। यह सुनहरे रंग का
बहुत ही मीठा एवं पौष्टिक आम होता है, जिसे 'हापुस' या 'हाफूस' के नाम से जाना जाता
है। इसका बहुत बड़ा हिस्सा भारत से निर्यात हो जाता है, जिसकी यूरोपीय बाज़ार
में काफ़ी माँग रहती है।
'दशहरी' आम को 18वीं शताब्दी में लखनऊ के नवाब के बाग़ में सर्वप्रथम देखा गया। माना जाता है कि
उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गाँव दशहरी में इस आम का मूल पौधा है। 'चौसा', जो बहुत मीठा और सुनहरे
पीले रंग का होता है, दिल्ली वालों का पसंदीदा है। वैसे इसकी उत्पत्ति उत्तर प्रदेश के हरदोई ज़िले
में हुई थी।
'बादामी', इसे कर्नाटक का अलफ़ांसो
भी कहा जाता है। 'लंगड़ा', जो पीले-हरे रंग का और अंडाकार होता है, की पैदावार मुख्यत: उत्तर प्रदेश के बनारस ज़िले में होती है। 'तोतापरी', जिसकी टिप तोते की चोंच जैसी होने के कारण
इसे आसानी से पहचाना जा सकता है, स्वाद में बहुत मीठा नहीं होता, किंतु यह सलाद, अचार व कोल्ड ड्रिंक के लिए काफ़ी इस्तेमाल होता है।
'केसर', जो अपने लज़ीज़ स्वाद और केसर जैसी ख़ुशबू के लिए जाना जाता है, गुजरात के जूनागढ़ इलाक़े से आता है और आमरस
के शौक़ीनों के लिए केसर का रस सबसे पसंदीदा है। 'हिमसागर', जो पीले रंग का फ़ाइबर रहित क्रीमी आम होता है और मिठाइयाँ व ड्रिंक्स बनाने के
लिए बहुत उपयुक्त है, की पैदावार मुख्यत: बंगाल के मुर्शिदाबाद क्षेत्र में होती है।
'बंगनपल्ली' या 'सफ़ेदा', जो फ़ाइबर रहित, तिरछे ओवल शेप का पीले रंग का आम है, की पैदावार मुख्य रूप से आंध्र प्रदेश में
होती है। इसका छिलका काफ़ी पतला होता है और यह स्वाद में हल्का खट्टा भी होता है। 'नीलम', अपनी अलग-सी और बेहतरीन ख़ुशबू के कारण आसानी
से पहचाना जाता है, और दूसरे आमों की तुलना में छोटा होता है। इसका रंग नारंगी होता
है और यह हैदराबाद और गोवा में प्रचलित है।
'बंगनपल्ली', आंध्र के कुरनूर ज़िले
में बंगनपल्ली के शाही परिवार ने इस आम का परिचय कराया था और इसी नाम से जाना गया, जिसे जीआई टैग प्राप्त है। इस आम से तमिल
स्टाइल कढ़ी भी बनाई जाती है। इस आम के दीवाने इसके छिलके के स्वाद को भी पसंद करते
हैं।
'जर्दालू' बिहार के भागलपुर में होने वाला आम है, जो ख़ास लोगों तक को लुभाता है। इसका स्वाद
बेहद लज़ीज़ होता है। 'मनकुरद', 'मुसरद', 'बाल आंबू' जैसे आम गोवा में लोकप्रिय हैं। मनकुरद आम से यहाँ के लोग चटनी, हलवा, जैम के साथ अमेलची
उद्दामेथी जैसी डिशेज़ भी बनाते हैं। पटना के दीघा घाट के 'मालदा' आम की ख़ुशबू और मिठास
के दीवानें देश-विदेश तक फैले हैं।
'नूरजहाँ', अफ़ग़ानिस्तान का यह
आम अलफ़ांसो जितना या उससे भी अधिक महंगा है, जो मध्य प्रदेश के कठवाड़ा इलाक़े में थोड़े बहुत पाए जाने लगे हैं। 2019 में इसके एक आम की
क़ीमत एक हज़ार के पार जा पहुंची थी।
आमों की विविधता का
चित्र इसकी अनगिनत क़िस्में, इसके अलबेले और विविध स्वाद-ख़ुशबू और इसके अलग अलग गुणों और इस्तेमाल को लेकर
इतनी दिलचस्प है कि भारत की सामाजिक विविधता भी कम पड़ जाए। तभी तो इसे फलों में सिरमौर
माना गया होगा।
लखनऊ के पास मलिहाबाद
के हाजी कलीमुल्लाह ख़ान के बारे में अनेक जगहों पर लिखा हुआ मिला है। इन्हें 'मैंगो मैन' के नाम से भी जाना जाता है। वरिष्ठ पत्रकार
हरजिंदर लिखते हैं कि यह साहब हर साल आम की दो-चार नई क़िस्में पेश कर देते हैं, और ख़ुद उनके ही बाग़ान
में 300 से ज़्यादा क़िस्मों के आम होते हैं। वे एक ही पेड़ की अलग-अलग शाखों पर बीसियों
तरह के आम के उगाते हैं, और उनके तरह-तरह के नाम रखते हैं और सबकी ख़ासियत औऱ पहचान
भी बताते हैं।
मिर्ज़ा ग़ालिब ने एक
बार कहा था कि आमों में बस दो ख़ूबियाँ होनी चाहिए; एक तो वो मीठे हों और ढेर सारे हों। लेकिन कलीमुल्लाह ख़ान इसमें
इस जुमले का इज़ाफ़ा करते हैं, "इसकी बहुत सारी क़िस्में भी होनी चाहिए।"
वे कहते हैं, "चौसा, दसहरी और लंगड़ा जैसे
आमों के आगे भी दुनिया है।" इसके बाद वे नाम गिनाने शुरू कर देते हैं, "ख़ासुलख़ास, गुलाबख़ास, शम्सुल अस्मार, बदरुल अस्मार, महमूदुल अस्मार, अमीन कलां, अमीन ख़ुर्द, सोरख़ा ख़ालिसपुर, सोरख़ा मुर्शिदाबाद, सोरख़ा शाहाबाद, कच्चा मीठा, गोल भदैयां, रामकेला, फ़जरी, हुस्नआरा, रटौल, जर्दालु, बेगमपसंद, गुलाबजामुन…"
बकौल कलीमुल्लाह ख़ान, "1919 में मलीहाबाद में
आम की 1300 क़िस्में थीं, लेकिन अब पूरे उत्तर प्रदेश राज्य में शायद 600 क़िस्में भी नहीं बची
हैं, और यह नंबर हर दिन कम हो रहा है।"
आज के हालात यह है
कि भारत में आमों की कुछ क़िस्मों को बेहतरीन मान लिया गया है और बाज़ारों और बागानों
में उन्हीं को प्राथमिकता मिल रही है, बाकी क़िस्में नज़रअंदाज़ हो रही हैं। हापुस, चौसा, मालदा, लंगड़ा और दशहरी जैसे आम अगर अपने स्टार स्टेटस की वजह से हिट हैं, तो सफ़ेदा और तोतापरी
जैसे आम इसीलिए ख़ूब बिकते हैं कि एक तो आम का सीज़न आने पर ये बाज़ार में सबसे पहले
दस्तक देते हैं, और दूसरे शैल्फ लाइफ लंबी होने की वजह से इन्हें दूर-दूर तक भेजना
आसान होता है।
आम के बाग़ों के मालिक
तीन तरह के आमों पर ही सारा जोर दे रहे होते हैं। एक वे जिनकी माँग काफ़ी ज़्यादा होती
है, दूसरे वे जिनकी उत्पादकता
काफ़ी ज़्यादा हो, और तीसरे वे जो टिकाऊ होने की वजह से ज़्यादा बड़े भूगोल तक अपनी पहुँच बना पाएँ।
आमों के अनेक क़िस्मों
की उपस्थिति कम हो रही है, अनेक क़िस्म अपनी पहचान
भी खोते जा रहे हैं। बहुत सारी फ़सलों की तरह ही बाज़ार के दबाव में आमों की बायोडायवर्सिटी
भी कम होती जा रही है। वैसे भी बहुत कम आम हैं, जो पूरे देश में मिलते हैं। हर आम एक
ख़ास दायरे में मिलता है। मिसाल के तौर पर कर्नाटक का बादामी, या तमिलनाडु का मलगोबा
दिल्ली में मिलना मुश्किल है, लेकिन लंबी शेल्फ़ लाइफ़ की वजह से आंध्र प्रदेश के सफ़ेदा, बेगमपल्ली और तोतापरी
पूरे देश में बिकते दिख जाते हैं।
जर्दालु, गुलाबख़ास, रसप्रिया, मल्लिका और वनराज
जैसी क़िस्में, जो दसेक साल पहले तक दिख जाती थीं, अब आसानी से नज़र नहीं आतीं। ये कोई बुरे आम नहीं थे, लेकिन किसी वजह से
ये दूसरे आमों की तरह सुपरहिट नहीं हो सके।
हर आम की पहचान अपने ख़ास रंग-रूप-आकार, गंध-स्वाद और मिठास
से बनती है। गंध और स्वाद को मिलाकर आम का जो ज़ायका बनता है, उसके ज़ायके को इसके
विशेषज्ञ कुछ यूँ समझाते हैं। आम के ज़ायके में एक साथ दो चीज़ें होती हैं। एक तो आम
में एक आमपन होता है, यानी एक ख़ास स्वाद, जो उसे दूसरे फलों से अलग करता है। और दूसरा होता है आम की
क़िस्म का वह विशेष स्वाद, जो उसे बाकी क़िस्मों से अलग करता है। इनके साथ ही आम की एक मिठास होती है, जो हर क़िस्म के साथ
बदलती है।
आम के पूरे मौसम में
आप इस ज़ायके और मिठास में एक निश्चित लय देख सकते हैं। यह मौसम शुरू होता है तोतापरी
और सफ़ेदा के साथ, जो दक्षिण भारत, मुख्य तौर पर आंध्र और तेलंगाना से आते हैं। थोड़ा सा खट्टापन लिए 'सिंदूरी' को भी आप इसी श्रेणी में रख सकते हैं। आम
की शुरुआती क़िस्मों की ख़ासियत यह होती है कि उनमें ज़ायका और मिठास दोनों थोड़े हल्के
होते हैं।
लेकिन सिर्फ़ इसी से
इन आमों को महत्व कम नहीं हो जाता। सबसे बड़ी बात यह है कि ये आम का मौसम शुरू होने
की पूर्वसूचना की तरह बाज़ार में आते हैं। इसके बाद हापुस, दशहरी, लंगड़ा, मालदा, तक़रीबन इसी
क्रम में जून के महीने में बाज़ार में आते हैं। ये स्वाद, गंध और मिठास, तीनों में
भरपूर होते हैं। आम के पूरे बाज़ार पर सबसे ज़्यादा बोलबाला भी इन्हीं आमों का होता
है।
कुछ लोग 15 जून से जुलाई के अंत
को आम का मुख्य मौसम मानते हैं। सावन के ख़ात्मे के साथ-साथ आमों का भी ख़ात्मा हो
जाता है। सबसे आख़िर में जब मानसून लगभग पूरे देश को भिगोना शुरू कर चुका होता है, तब बाज़ार में वे
आम आते हैं, जो ज़ायके और मिठास में सबसे बढ़कर होते हैं।
अगर अचार, चटनी, आमपापड़, खटाई, अमचूर, गलका, गुलम्मा वगैरह में
इस्तेमाल होने वाली ढेर सारी क़िस्मों को छोड़ दिया जाए, तो सीधे खाए जाने वाले आम
इस पूरे स्पैक्ट्रम के बीच ही अपनी जगह बनाने के लिए एक-दूसरे से मुक़ाबला करते हैं।
इसमें 'देसी आम' हालिया समय में भूला
बिसरा आम है। देसी या तुकमी आम, ये हर क्षेत्र में अलग तरह से दिखाई देते हैं। बाज़ार में ज़्यादा सफल होने वाले
आमों की ख़ासियत यह होती है कि उनके स्वाद में एकरसता, और देखने में एकरूपता
होती है। किसी एक पेड़ या बाग़ के सारे आमों का रंग-रूप ज़ायका एक सा होता है, जैसे वे किसी फैक्ट्री
में बने हों। लेकिन तुकमी आम के साथ ऐसा नहीं होता। एक पेड़ के तो छोड़िये, अगर एक डाल के चार
आम होंगे तो चारों का स्वाद अलग होगा। कोई कम मीठा, तो कोई बहुत ज़्यादा मीठा, कोई खट्टा, तो कोई बेहद खट्टा।
कुछ सालों पहले गाँवों-कस्बों
के माहौल में इन आमों की ख़ासी माँग होती थी। ये सैकड़ा के हिसाब से बिकते थे। लोग
इन्हें बाल्टी में भर-भर के खाते थे, और इन्हें खाने की बाक़ायदा स्पर्धाएँ होती थीं।
लेकिन अब इन देसी आमों का ज़माना नहीं रहा। बाज़ार और घरों में ये देसी आम जिस तरह
गायब हो रहे हैं, जल्द ही ये भूले बिसरे आमों की सूची में शामिल हो जाएँगे।
ऐसी कईं और क़िस्में
हैं। मसलन, एक आम है लखनऊ सफ़ेदा। आंध्र प्रदेश से आने वाले सफ़ेदा आम के मुक़ाबले यह भले
ही आकार में बहुत छोटा होता है, लेकिन इसके मुक़ाबले यह रेशेदार आम कहीं ज़्यादा गहरे और मीठे ज़ायके वाला होता
है। दशहरी के मौसम के अंत में आने वाले इस आम का मुक़ाबला अगर किसी से होता है तो वह
है मलिहाबादी सफ़ेदा, जो आकार में उससे थोड़ा बड़ा होता है।
नोट करें कि मलिहाबाद
लखनऊ ज़िले का ही एक कस्बा है। मलिहाबादी सफ़ेदा आम दर्शाता है कि छोटे से भूगोल में
ही आम की कितनी सारी क़िस्में बनती और निखरती होगी। ऐसे बहुत सारे आम हैं, जो अपनी कम
शेल्फ लाइफ के कारण अपनी बहुत बड़ी पहचान नहीं बना सके और अब स्थानीय स्तर पर भी भुलाए
जा रहे हैं।
आख़िर में जिस आम का
ज़िक्र सबसे ज़्यादा जरूरी है वह है फज़ली। मौसम के सबसे आख़िर में आने वाला यह भारी-भरकम
आम अपने मैले-कुचैले रूप-रंग के कारण किसी को आकर्षित नहीं करता। इसका ज़ायका और मीठापन, दोनों कड़क होते हैं।
सच तो यह है कि हम
भारत में उगने वाले उत्कृष्ट आमों की कोई अंतिम सूची बना ही नहीं सकते हैं। कोई न कोई
नाम हर बार छूट जाएगा। आम्रपाली, बम्बइया, जमादार, पैरी, मुलगाँव, चुस्की, कलमी, सुवर्णरेखा, मधुदूत, मल्लिका, कामांग, कोकिलवास, कामवल्लभा... कोई न कोई तो छूट ही जाएगा।
पहले-पहल आम कब अस्तित्व
में आया यह तो पता नहीं, लेकिन वैज्ञानिकों ने आम के होने का प्रमाण 2000 ईसा पूर्व तक खोजा है। यानी आम के भारत में विकसित होने और
फूलने-फलने का इतिहास कम-से-कम चार हज़ार साल से ज़्यादा पुराना तो है ही। इस लंबे
इतिहास में आम ने देश के हर भूगोल के साथ ख़ुद को ढाला और निखारा है। इसी से हमें आमों
की सैकड़ों क़िस्में मिली हैं, जिनसे फिर आगे कईं संकर क़िस्में निकली हैं।
संस्कृत साहित्य में
इसका ज़िक्र आम्र के नाम से होता है। पौराणिक कथाओं और काव्यों में भी इसका ज़िक्र
होता है। आम ही नहीं, इसके पेड़ का भी जगह जगह वर्णन मिल जाता है और मिथक तथा मान्यताएँ भी। हिन्दू
कथाओं से लेकर बौद्ध कलाकृतियों में इसकी भरमार है।
टैगोर को भी आम बेहद
पसंद थे और उन्होंने आम के बौर पर एक कविता लिखी है- आमेर मंजरी। सूफ़ी कवि अमिर ख़ुसरो
ने फ़ारसी काव्य में आम की ख़ूब तारीफ़ की थी और इसे फ़क्र-ए-गुलशन नाम दिया था। राजाओं
और बादशाहों के ये पसंदीदा फल हुआ करते थे।
महान शायर मिर्ज़ा
ग़ालिब के एक दोस्त और साथी शायर आम के प्रति उनके झुकाव के बारे में नहीं जानते थे।
सब बैठे थे, तभी एक गधा आम के ढेर तक गया और सूंघ कर वापस लौट आया।
दोस्त ने कहा, "देखा, गधे भी आम नहीं खाते।"
ग़ालिब को अपने पसंदीदा
फल के बारे में यह सुनकर बुरा लगा। उन्होंने तपाक से कहा, "बिलकुल, केवल गधे ही हैं जो आम नहीं खाते।"
आम की जड़े भारत की
ज़मीन में ही नहीं, बल्कि उसकी संस्कृति में भी काफ़ी गहराई तक हैं। भारतीय समाज में
आम की अमीरी का अपना ही महत्व है। बहुत सारे यज्ञ और पूजा में आम के पत्ते सबसे महत्वपूर्ण
सामग्री होते हैं। कुछ देवों का निवास आम के नीचे माना जाता है।
दिल्ली में जुलाई के
महीने में अंतरराष्ट्रीय मैंगो फ़ैस्टिवल का आयोजन किया जाता है। आम का शेर-ओ-शायरी, रिश्ते, मोहब्बत, यारी-दोस्ती, संस्कृति, राजनीति सभी से लेना-देना
है। एक ज़माने में जिनके घर आम होते थे, वे दूसरों के घर इसे
भेजा करते थे। दशहरी वाले चौसा भेजते, चौसा वाले दशहरी। दूरियाँ
मायने नहीं रखती थी।
लखनऊ वाले एक दूसरे
को आम भेजते हैं तब एक शेर अक्सर सुनाया जाता है –
उठाएं लुत्फ़ वो बरसात में मसहरी के,
जिन्होंने आम खिलाये हमें दशहरी के।
क़िस्सा है कि अकबर
इलाहाबादी ने अल्लामा इक़बाल के लिए आम भिजवाए। आम सलामत पहुंचे तो चचा ने शेर लिखा
–
असर ये तेरे अन्फ़ासे मसीहाई का है अकबर,
इलाहाबाद से लंगड़ा चला लाहौर तक पहुंचा।
शायरों के बीच आम ने
ख़ूब जगह बनाई। साग़र ख़य्यामी ने कहा –
आम तेरी ये ख़ुश-नसीबी है,
वर्ना लंगड़ों पे कौन मरता है।
तैमूर लंग ने अपने
स्वास्थ्य को लेकर आम को अपने महल में कभी आने नहीं दिया। किसी शायर ने इसे यूँ दर्ज
किया –
तैमूर ने कस्दन कभी लंगड़ा न मंगाया,
लंगड़े के कभी सामने लंगड़ा नहीं आया।
आम भारत से ही निकल
कर पूरी दुनिया के बहुत से देशों में फैला है, ख़ासकर एशिया के कईं
देशों तक। वैसे पहुँचा तो यह ब्राज़ील तक है, लेकिन वे एशियाई देश ही हैं, जो आम के विश्व बाज़ार में भारत को कड़ी टक्कर देते
हैं। आम को ऐसा ज़्यादातर विस्तार 14वीं और 15वीं सदी के बाद ही मिलना शुरू हुआ, और चीन में तो यह 20वीं सदी के उत्तरार्ध में पहुँचा। यानी 1965 के बाद ही।
चीन में आम के पहुँचने
की कहानी बहुत दिलचस्प है। पाकिस्तान को लगा कि चीन से रिश्ते गांठने चाहिए, क्योंकि तब तक भारत-चीन के बीच 1962 का युद्ध हो चुका
था। वह 1968 की गर्मियाँ थीं, जब माओ से मिलने पाकिस्तान के विदेश मंत्री सैय्यद शरीफ़ुद्दीन पीरज़ादा एक विशेष
विमान से बीजिंग पहुँचे। उपहार के तौर पर वे अपने साथ उम्दा क़िस्म के 40 पेटी आम ले गए। उस
समय तक यह एक ऐसा फल था, जिससे चीन के ज़्यादातर लोग अनजान थे।
माओ ने सारे आम उन
मजदूर नेताओं को भेज दिए, जो उस समय सिन्हुआ विश्वविद्यालय में कब्ज़ा किए बैठे थे। आम मिलने पर उन नेताओं
ने तय किया कि क्योंकि यह कॉमरेड माओ से मिला अनमोल उपहार है, इसलिए इनमें से एक-एक
आम बीजिंग की सभी फैक्ट्रियों में भेज दिया जाए। आम का स्वाद तो हर किसी को नहीं मिल
सका, लेकिन यह कहानी पूरे चीन में फैल गई और आम मजदूरों के प्रति माओ के प्रेम का प्रतीक
बन गए।
एक बार आम जब लोगों
के क़िस्सों और उनकी लोकोकत्तियों में पहुँचा, तो जल्द ही उनके खेतों में भी पहुँच गया। अब चीन के कईं इलाक़ों में आम की उपज
होती है। भारत भले ही आम का सबसे बड़ा उत्पादक देश हो, लेकिन दूसरे नंबर
पर अब चीन ही है।
चीन के अलावा फ़िलीपींस, थाईलैंड, इंडोनेशिया, मैक्सिको जैसे देश
भी इस बाज़ार में भारत को मात देने की कोशिश में जुटे रहते हैं। वैसे आज भी दुनिया
में हर दस आम में से चार भारत के होते हैं। अमेरिका आम का सबसे बड़ा आयातक है। भौगोलिक
निकटता की वजह से वहाँ सबसे ज़्यादा आम ब्राज़ील से पहुँचता है, उसके बाद भारत का
नंबर आता है।
डेढ़ दशक पहले तक अमेरिका
ने भारत से आम के आयात पर पाबंदी लगा दी थी। वजह थी कीटनाशकों का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल।
हालाँकि यह मामला अब सुलझ गया है। इतने बड़े बाज़ार, इतनी संभावनाओं और गहरी सांस्कृतिक जड़ों के बावजूद आम पर भारत
में बहुत ज़्यादा शोध नहीं होता और जितने रिसर्च सेंटर हैं, उसके पास भी गिनाने
लायक बहुत ज़्यादा उपलब्धियाँ नहीं हैं। देसी क़िस्में लुप्त हो रही हैं।
आम की क़िस्में हमें बायोडायवर्सिटी को समझाती हैं, और बायोडायवर्सिटी प्रकृति
का मूल है, और यह मूल हर मामले में नष्ट हो रहा है। आज जो हमारे सामने आम हैं, वे सिर्फ़ फल नहीं
बल्कि भारतीय जैव संपदा की कहानी भी कहते हैं और उसका इतिहास भी बताते हैं। इसलिए आम
की किसी क़िस्म का लुप्त हो जाना एक महत्वपूर्ण जैव संपदा का लुप्त हो जाना भी है, साथ ही इतिहास के
एक पन्ने का गुम हो जाना भी है।
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)
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