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Banko ka Mayajaal : बैंक का सिस्टम इतना सिस्टमैटिक है कि आसानी से समझ में आता ही नहीं




जिन्हें लगता है कि यहां बात किसी विशेष चीज़ की आलोचना की है या उसके ख़िलाफ़त की है, उन सभी को उनका यह विशेष भ्रम मुबारक हो।

नोटबंदी के बाद आम आदमियों से पहली अपेक्षा यह रखी गई कि वे लोग अपना सारा पैसा बैंक में जमा करा दे। वैसे ऐसी अपेक्षा ख़ास आदमियों से नहीं रखी जाती। देशभक्ति के नाम पर जो उभार छाया रहता है या उम्मीदों का जो बोझ बनाया जाता है, उसमें भी देशभक्ति का सबूत आम आदमियों को ही दिखाना होता है। या तो कतारों में खड़ा रह कर, या फिर तकलीफों को सह सह कर। ये सबूत बड़े नामों से या बड़े आदमियों से नहीं मांगा जाता। वैसे मांगा गया होता तो वे दे ज़रूर देते। क्योंकि हमारे यहाँ देशभक्ति की कोई कमी नहीं है!

वैसे इस पूरे दौर में देशभक्ति या राष्ट्र और तिरंगे के बहाने जो भी उभार छाया रहा उसे लिखने की यहाँ ज़रूरत नहीं। और ना ही हमें उस विषय पर चर्चा करनी है। नोटबंदी का ज़िक्र होने से इसे नोटबंदी के संदर्भ में भी ना ले।

इसी दौर में उन 57 महानुभावों का ज़िक्र हुआ था, जिनके पास सरकारी बैंकों के 85,000 करोड़ बकाया थे। देश के तक़रीबन 30 उद्योग घराने ऐसे हैं जो 1,14,000 करोड़ बैंकों से उधार लेकर बेठे हैं। विजय माल्या कुछ लोगों के लिए वो प्रेरणादायी इंसान है जो लोगों के पसीने की कमाई उड़ाकर उड़ जाने की प्रेरणा देता रहेगा। वहीं किसान, जो कुछ रुपयों का उधार लेता है और चुका नहीं पाता तो उसे ख़ुदकुशी करनी पड़ती है। नोटबंदी के दिनों में ही नहीं, बल्कि इससे बहुत पहले से ही एक सवाल उठता रहा है कि आम लोगों के पैसों का बैंक क्या करता है? क्या ये पैसे बड़े बड़े उद्योगपतियों को ही दिये जाते हैं? इन सवालों का उठना भी लाज़मी है। क्योंकि ऊपर के आँकड़े सवाल उठा ही देते हैं।

आईआईटी दिल्ली के छात्र रवि कोहाड़ ने बैंकों के ऊपर एक हिन्दी पुस्तक लिखा है। इस पुस्तक को पढ़कर तो यही लगता है कि दुनिया में महंगाई, रोजगार संबंधित समस्याएँ, हिंसा आदी के लिए बैंक भी कम ज़िम्मेदार नहीं है। इन बैंकों का मायाजाल बड़ा लंबा और गहराई वाला है। कहा गया है कि ज्यादातर तो बैंकों की डोर अमेरिका के 13 लोगों के हाथों में हैं। ज्यादा चौंकाने वाला दावा तो यह है कि इनमें से ज्यादातर लोग तो 2 परिवारों से ही हैं। यानी कि चंद परिवारों के हाथों में इतने बड़े सिस्टम की डोर होगी? पहली नजर में आसानी से भरोसा नहीं हो सकता, लेकिन विवरण या अन्य चीजें बड़ी लंबी हैं।
एक सवाल यह भी है कि भारत में सैकड़ों लोग अपने पैसे भारतीय बैंकों में जमा कराते हैं, वो सारे एकाध सुबह बैंकों में चले जाए और बैंक से अपने पैसे मांगे तो? माना जाता है कि 10 फीसदी लोगों को भी बैंक पैसे नहीं दे पाएंगे। साफ है कि पूरा सिस्टम प्रभावित होगा। दरअसल, बैंकिग सिस्टम के अंदर जब भी सरकार या आवाम को कर्ज़ लेने के लिए पैसों की ज़रूरत आन पड़ती है तब वे ब्याज के साथ पैसा लौटाने का लिखित वादा लेकर बैंकों के पास पहुंचते हैं। बदले में बैंक वो रकम आप के खाते में लिख दिता है। देश के 90 फीसदी पैसे व्यावसायिक बैंकों ने खाली खातों में नोंध कर के ही पैदा किए हुए हैं। वो खाता खाली ही होता है, बस लिखा हुआ होता है। आरबीआई केवल 5 या 10 फीसदी पैसा दिखाता है, जिसे कागज के नोट के रूप में जाना जाता है।

बैंकों ने 1933 में गोल्ड स्टैंडर्ड रद्द करवा के रुपये की कीमत कम कर दी थी। अब हम जिसे रुपया समझते हैं, दरअसल वो हुंडी या वचन चिठ्ठ हैं, जिसकी कीमत कागज से ज्यादा होती ही नहीं। उसके ऊपर लिखा होता है कि मैं धारक को पांच सौ रुपये अदा करने का वचन देता हूँ। आरबीआई की गारंटी सरकार के पास होती हैं। हमने देखा ही है कि एक रुपये के नोट के ऊपर भारत सरकार लिखा हुआ होता है और बाकी तमाम नोट पर रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया लिखा हुआ होता है। जितना सोना होता है, उतने कीमत के नोट छापे जाते हैं। लेकिन उससे भी ज्यादा गणना में कागज के नोट छापकर आरबीआई देश की अर्थव्यवस्था को वायदों के आधार पर चलाता है।

1933 के पहले हर नागरिक को भरोसा था कि जो कागज के नोट उसके हाथ में हैं उसे लेकर वो बैंक जाएगा, तो उसे उस मूल्य के आधार पर सोना या चांदी मिल जाएगा। कागज के नोट के पहले चांदी व सोने के सिक्के भी व्यवहार में थे, जिसके ऊपर उसका मूल्य लिखा हुआ होता था।

एक उदाहरण देखते हैं। आप जब बैंक में एक लाख रुपये जमा करते हैं तो बैंक उसमें से 10 फीसदी रखता है और बाकी के 90 फीसदी कर्ज़ पर दे देता है और ब्याज कमाता है। मान लो कि जो लोग कर्ज़ लेते हैं वो मालसामान ख़रीद कर उसका व्यापार करने वाला तबका है। वे दूसरों के जमा कराये पैसों का कर्ज़ लेते हैं, मालसामान ख़रीदने में ख़र्च करते हैं, उस सामान को बेच कर मुनाफ़ा कमाते हैं और कर्ज़ ब्याज समेत वापस करते हैं। ब्याज में से बैंक मूल रकम जमा करवाने वालों को थोड़ा हिस्सा देता है, बाकी का ख़ुद के ख़र्च या अन्य चीज़ या मुनाफ़े के तौर पर रखता है। यानी कि 90 हज़ार रुपये बाजारों में घूम कर फिर से बैंक में वापिस आते है। फिर बैंक 10 फीसदी रख कर, बाकी के 81 हज़ार रुपये कर्ज़ पर देता है। उस पर ब्याज कमाता है। ये चक्र चलता ही रहता है। एक ही रकम पर बैंक सभी का भला कर कर के ब्याज कमाता रहता है। एक दौर वो आता है कि बैंक आप के जमा कराए गए पैसों से भी ज्यादा संपत्ति कमा लेता है। वैसे जो बड़े लोग कर्ज़ जमा नहीं करवा पाते, उनकी बातें और उनके आँकड़े जगज़ाहिर है। लिहाज़ा उसे लिखने की आवश्यकता नहीं है।
कई लोग कहते हैं कि अब इस प्रक्रिया से मूल चीज़ यह होती है कि रुपये की कीमत घटती है। आप इस भ्रम में रहते हैं कि आप के पैसे बैंक में सुरक्षित हैं। दरअसल वो पैसा नहीं है, वो केवल बैंक का वचन है, जो नोट पर छपा हुआ है। लेकिन अगर आप नोट के बदले सोना, चांदी, जमीन, अनाज आदि चाहते हैं तब देश के 10 फीसदी लोगों को ही बैंक दे पाएंगे। बैंक कहेंगे कि अप्रत्यक्ष रूप से हमारे पास ये सब नहीं है। यानी की पूरा सिस्टम वायदों पर ही चलता है। हम जिन्हें नोट समझते हैं, दरअसल उसकी कीमत बेकार के कागज जितनी ही है।

अब ये मत सोचिएगा कि हम ये कह रहे हैं कि बैंकों को ब्याज पर पैसे घूमाने नहीं चाहिए। हम ये नहीं कह रहे कि बैंकों को लोगों के पैसे स्ट्रॉन्ग रुम में संभाल कर रखने चाहिए। बैंकों को बचत खातों का ब्याज भी अदा करना होता है। पूरे सिस्टम को चलाने के लिए उसे भी कई प्रकार के ख़र्चें करने होते हैं। बैंक पैसे ब्याज पर घूमाना बंद कर देंगे तब तो आप को पैसे घर में गड्ढे के अंदर संभालकर रखने पड़ेंगे। जिसमें ना आपको इज़ाफ़ा मिलेगा और ना ही आप के पैसों से दूसरों को फायदा पहुंचेगा। पूरा सिस्टम फिर तो ठहर जाएगा। बैंकों को लोन देने ही पड़ते हैं। इसके अपने फायदे भी हैं। बैंकों को भी और दूसरों को भी। जिसके ऊपर अलग से चर्चा हो सकती हैं। बुरी चीज़ नहीं है ये।

लेकिन ये लोन जब एनपीए बनते हैं तब पूरा सिस्टम चरमराने लगता है। नेशनलाइज्ड बैंक हो, को-ऑपरेटिव हो या प्राइवेट हो, तीनों के लिए एनपीए बड़ी समस्या है। एनपीए क्या है, उस बला का सृजन कैसे होता है, इसमें किसका दोष होता है, उससे निपटने के रास्ते या गलियारे, कैसे निपटा जाता है और क्यों निपटा नहीं जाता जैसी तमाम चीजें जगजाहिर हैं। एनपीए का चैप्टर बड़ा ज़रूरी, लंबा और जगजाहिर सा भी है।

ये पूरा मायाजाल ऐसे फैला हुआ है कि अर्थशास्त्री, विद्वान, वकील, पत्रकार, अधिकारी या नेता इन सभी में इसे लेकर कई भिन्न विचार हैं, मतभेद हैं या विरोधाभासी दलीलें हैं। वो इसे लेकर हंसते हैं, दलीलें करते हैं, तर्क करते हैं। इस पर बहस चलती रहती है, चलती रहती है और तब जाकर शायद क़रीब पहुंचते है। दरअसल, बैंकों के इस मायाजाल को दुनिया के कई बड़े बड़े देश या शासक किसी रहस्यमयी गुलाम की भांति पर्दे के अंदर रखते है। दुनिया के कई दावे और बातें या रिपोर्ट बताते हैं कि आखिरी 70 सालों में जिन राष्ट्रों के राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री या शासकों ने बैंकों के इस मायाजाल को खोलना चाहा, उनका हाल बुरा ही हुआ था। उनका हाल क्या हुआ था, कैसे हुआ, किन तरीकों से हुआ या क्यों हुआ, इसके लिए एक अलग संस्करण पर जाना पड़ेगा। और ये चीजें आसानी से हलक के नीचे उतरती भी नहीं हैं। चौंकाती हैं, विरोधाभासी दलीलें आती हैं और उलझती रहती हैं।
खैर... पर ये बात बैंकों के रहस्मयी मायाजाल की थी। सैकड़ों पन्नों में सिमटने वाली बात को दो पन्नों में समझाया भी नहीं जा सकता या समझा भी नहीं जा सकता। पुस्तकों में जो दावे या विश्लेषण हैं, अन्य जो बातें कही या लिखी जाती हैं या अन्य अभ्यासों के जो सैकड़ों विश्लेषण हैं उसके बावजूद सवाल उठते रहेंगे कि ये कितना सच है, कैसे सच है। इसके लिए जो ढेर सारे पुस्तक हैं, सैकड़ों अभ्यास हैं, कई दावे हैं, कई बचाव हैं, इन सब चीजों को स्वयं अभ्यास करके आगे बढ़ा जा सकता है। सच और झूठ का फैसला अक्सर हमारा दिमाग करता है।

जो भी हो, लेकिन बैंक का मतलब सिर्फ खाता खोलना या पैसा जमा करना नहीं है। हम सबको बैंकों के बारे में अधिक से अधिक जानना चाहिए। कैसे बैंक गरीब आदमी से दो लाख वसूलने के लिए पीछे पड़ जाते हैं। बड़े उद्योगपतियों का लाखों करोड़ का कर्ज़ा नॉन प्रॉफिट एसेट बनकर पड़ा रह जाता है। उन्हें अलग-अलग खातों में डाला जाता रहता है। इस पूरे मसले को भावना से नहीं, तथ्यों से समझना चाहिए। ऐसा भी नहीं है कि हम और आप इलेक्ट्रॉनिक तरीके से लेन-देन नहीं करते हैं। सारी आबादी न करती हो, मगर लाखों की आबादी तो करती ही हैं।

हमारे यहां भारत गांव और शहर, इन दो हिस्सों में बंटा हुआ है। कभी कभार इसे भारत और इंडिया के नाम से जाना जाता है। मार्च 2016 में राज्य स्तर के वित्तमंत्री ने राज्यसभा में कुछ आँकड़े कहे थे। इन आँकड़ों के मुताबिक देश में 1,32,700 शेड्यूल कमर्शियल ब्रांच है। इनमें से 86,425 ब्रांच सेमी अर्बन तथा ग्राम्य इलाकों में है। घर की बात करे तो, गुजरात में 18,800 गांवों के बीच 9,088 ब्रांच है। आधे ब्रांच, यानी कि 5,858 शाखाएँ सेमी अर्बन तथा ग्राम्य इलाकों में है। देश में ग्राम्य इलाकों में 93,550 को-ऑपरेटिव बैंक ब्रांच है। हालांकि आरबीआई की मार्गदर्शिकाएँ उन्हें रोक देती हैं। निजी बैंकों के आँकड़े मौजूद नहीं है। 2013 के दौरान जो सरकारी आँकड़े आए थे उसके मुताबिक, भारत में एक हज़ार चोरस किमी में 30 ब्रांच तथा 25 एटीएम थे।

2015 में आरबीआई ने गाइडलाइन जारी की थी। जिसमें कहा गया था कि मार्च 2017 तक 394 नयी शाखाएँ खोली जाए। लेकिन गाइडलाइन के बावजूद 1 जनवरी 2017 तक केवल 36 शाखाएँ ही खुल पाई थी। हालाँकि इसके पीछे वजह जो वजहें बताई गई वो स्वाभाविक थी। जिसमें किराये के मकान से लेकर अन्य तमाम ख़र्चें और उसके सामने उस शाखा को मिलने वाले संभवित ब्याज की आय वगैरह तर्क भी थे। लेकिन फिर सवाल उठा कि ऐसे में लक्ष्य निर्धारित करने का पैमाना क्या रहा होगा?
उद्योगगृहों द्वारा संपादित की गई जमीनें और उससे जुड़े विवाद हमारे यहां लगभग तमाम राज्यों में चलते रहे हैं। इसकी चर्चा अलग से की जा सकती है। फिलहाल उससे जुड़े बैंक पहलू पर संज्ञान ज़रूर लिया जा सकता है। इन जमीनों को संपादित तो किया गया, लेकिन जिन मकसदों से संपादित किया गया था वो मकसद शुरू होते हुए ही नहीं दिखे और उद्योगगृह लाखों-करोड़ों के बैंक लोन दबाकर बैठ गए। 9 जनवरी 2017 के दिन ही एक ऐसे मामले को लेकर चीफ जस्टिस जेएस खेहर की अध्यक्षता वाले बेंच ने सरकार को नोटिस भेजा था। कई राज्यों में भी ऐसे मामले सामने आते रहे हैं। एक याचिकाकर्ता ने तो दावा किया था कि ये सारा माजरा बैंक लोन को लेकर भी है।

नोटबंदी हो या उससे पहले का दौर हो, कितना आसान है कि कई सारे बैंक खाते खोल दिए जाए और पैसों की हेरफेर की जाए। सरकारें बदलती रहती हैं, सरकारें आती रहती हैं-जाती रहती हैं, लेकिन बैंकों की कई घटनाएँ ख़ुद को दोहराती रहती हैं। नेट बैकिंग वाले विषय पर हम पहले ही बैंक, कंपनी और उपभोक्ता संबंधी पहलूओं पर बात कर चुके हैं।

फरवरी 2017 में तो गजब का वाक़या खबरों में छाया रहा था। 18 फरवरी 2017 के दिन ये खबर अखबारों में छपी। खबरों के मुताबिक हवामान की जानकारी देने के नाम पर एसबीआई ने किसानों के खातों से उन्हें पूछे बिना ही प्रति खाते 990 रुपये काट लिए। एक करोड़ केसी धारक किसानों के खातों से 990 करोड़ रुपये काट लिए गए। रिपोर्ट के मुताबिक मध्यप्रदेश के 6 लाख किसानों के खातों से 60 करोड़ काट लिए गए। एसबीआई ने इसे सर्विस चार्ज बताया, जबकि केंद्र सरकार हवामान संबंधित जानकारियां टोल फ्री नंबर पर दे रही थी!!! अब पूरा माजरा नियमों के जरिये उपभोक्ताओं के गले उतारा जाएगा और नियमों के जरिये समझाया जाएगा कि नियम नहीं तोड़े गए हैं!!! रेस्तरांवाले सर्विस चार्ज और सर्विस टैक्स में लोगों को उलझाए हुए थे, इधर अब किसानों को नियमों में उलझना था।

बैलेंस की तय सीमा से लेकर अन्य सेवाएँ भी विवादों में रहती हैं। फाइनेंशियल ट्रांजेक्शन पर चार्ज लग जाए तब भी ठीक है, यहां तो स्टेटमेंट निकालने में या बैलेंस इंक्वायरी के लिए भी चार्ज लगा दिए जाते हैं। पता नहीं चलता कि बैंक है या मोबाइल सर्विस मुहैया करवाने वाली कंपनी! इतने सारे चार्ज लगते हैं कि लोग कहते हैं कि अब तो बैंक के अंदर जाना और बाहर निकलना फ्री है, इसके सिवां तमाम सेवाओं के लिए चार्ज है।
60 के दौर में बैंकों की सेवाएँ लगभग लगभग मुफ्त सरीखी थी। कुछ सेवाएँ ऐसी थी जहां चार्ज लगता था। लगने वाला चार्ज भी 1 रुपये से लेकर 10 रुपये तक का था। वैसे उस दौर में जब ये चार्ज लगा तब व्यापारी संगठनों ने इसका काफी विरोध भी किया था। 60 के दशक के अंतिम दौर में आरबीआई ने उपभोक्ता सेवा के ऊपर लगने वाले चार्ज को लेकर तलवार समिति बनाई थी। कहते हैं कि तलवार समिति द्वारा किए गए सूचन भी लगभग लगभग मुफ्त सेवा की तरफ जाते थे। कहते हैं कि निजी कंपनियां बैंकिग सेक्टर में आने लगी और उसके बाद चार्ज 440 वोल्ट के झटके के माफिक होते चले गए।

करंट खातों में लगने वाले चार्ज को छोड़ दे तो सेविंग खाता खोलने के बाद न्यूनतम बैलेंस से कम बैलेंस रहता है तो चार्ज, स्टेटमेंट के लिए चार्ज, डुप्लीकेट पासबुक चार्ज, चेक बुक चार्ज, चेक रिटर्न होता है तो चार्ज, तय सीमा से ज्यादा के व्यवहार होते हैंं तो चार्ज... और ये सूची बड़ी लंबी हैं। एटीएम से नकदी निकालने का चार्ज, तय किए गए ट्रांजेक्शन से ज्यादा बार निकाले तो चार्ज, क्रेडिट या डेबिट कार्ड के सालाना चार्ज, इस्तेमाल करने पर चार्ज, ब्याज, ईसीएस (इलेक्ट्रॉनिक फंड ट्रांसफर) चार्ज, एनईएफटी या आरटीजीएस चार्ज, बैंक बैलेंस एसएमएस अलर्ट चार्ज, रेमिटन्स भेजने का चार्ज, डिमांड ड्राफ्ट निकलवाने का चार्ज, उसे कैंसिल करवाने के लिए चार्ज, डुप्लीकेट डीडी चार्ज, बाहरगांव के चेक खाते में जमा करवाने का चार्ज, एवरेज बैलेंस चार्ज, स्टॉप पेमेंट करवाने का चार्ज... इतनी लंबी सूची है कि एकाध संस्करण चार्ज गाथा का ही हो जाएगा।

लोन खाते में भी नये नये चार्ज हैं। पहले लोन मंजूर होता तो ब्याज अदा करना होता था। लेकिन अब तो लोन की अर्जी डाले तब से लेकर लोन मिले तब तक के कामों के लिए किसी से निजी लोन लेना पड़ जाता है!!! चार्ज से बात खत्म होती तो चलता, बात सर्विस सेस तक जा पहुंची हैं।  

उपरांत अरसे से कहा जाता रहा है कि नकली नोट बाजार में ठेलने का व्यापक जरिया बैंकिंग सिस्टम है। लेकिन कोई इससे इनकार करता है, तो कोई स्वीकार। इलेक्ट्रॉनिक होने से घपले रुक जाते हैं ऐसा कहा जाता है। लेकिन पहले से ही इलेक्ट्रॉनिक हो चुके बैंकों का बड़ा विवाद दिसंबर 2016 के दौरान ही हो गया। हम सभी तो आम नागरिक है। हमारे लिए तो ये अप्रत्याशित ही है कि बैंकों के जरिये लाखों या करोड़ों रुपये बदल दिये जाए या किसी को इतने सारे नये नोट दे दिये जाए। लेकिन इस सिस्टम को समझने वाले, इस सिस्टम को चलाने वाले, सिस्टम को देखने वाले विभाग या जवाबदेह संस्थान या व्यक्ति इतने नासमझ होंगे ये मानना भी दूर की कौड़ी है। देखिए न, इसे लेकर भी कितना असमंजस या मतभेद पसरा रहा। इतनी बड़ी हैरफेर कैसे हो पाई उसे लेकर सभी के अपने अलग अलग मत हैं। सभी अपने अपने हिसाब से अपने अपने नजरिये को सही मानते हैं। कोई मानता है कि इसकी वजह से हुआ, कोई कुछ दूसरा मानता है तो कोई कुछ तीसरा तथ्य समझता है। कुल मिलाकर, हुआ कैसे उस पर तक़रीबन एक राय नहीं। हम सभी तो अज्ञानी नागरिक है। लेकिन इतनी समझ तो है कि ज्यादातर ऐसे मामलों में राय इतनी ज्यादा भिन्न हो तब समझ आ ही जाता है कि मामला इतना आसान तो नहीं जितना दिखता या बताया जाता है। वर्ना अलग अलग दलीलों में कुछ तो एक जैसा होना चाहिए था।
सोचिए, ये सब हुआ उससे पहले, यानी कि कुछ दिनों पहले ही देश में कितने लोग ये खतरा देख रहे थे? कितनों ने इस संभावना पर उंगली उठाई थी? गिने-चुने उदाहरण मिल जाएंगे। अब गिने-चुने उदाहरणों को लेकर आप ये दावा तो नहीं कर सकते न कि व्यापक रूप से इस खतरनाक प्रवृत्ति के बारे में सोचा जा रहा था। लेकिन चंद दिनों में देश इस प्रवृत्ति पर चर्चा करने लगा और लोग अपने अपने ज्ञान को बिखेरने लगे। ये कैसे हो गया, क्यों हो गया, क्यों नहीं होना चाहिए था से लेकर बिना जांच रिपोर्ट आये लोग जवाबदेही भी तय करने लगे। दरअसल ये सबूत था कि कम से कम हम नागरिक इस मायाजाल को उतना नहीं समझते, जितना हम मानते हैं। अब ये स्वाभाविक है। लेकिन फिर उसे दुरुस्त करने के प्रयत्न या उस कमजोरी को सिरे से नियंत्रित करने के प्रयत्न हर स्तर पर कम हो ये स्वाभाविक नहीं होता।

इतना ही नहीं, जाली नोट, जो अब चूरन छाप नोट तक पहुंच चुके हैं उसके मामले भी अजब-गजब के हैं। कोई उपभोक्ता बैंक में पैसे जमा करवाता है और गलती से अगर उसमें जाली नोट है, तब क्या क्या होता है वो सभी को पता है। लेकिन आजकल तो बैंक के एटीएम ही उपभोक्ताओं को जाली या चूरन छाप नोट देने लगे हैं, लेकिन यहां बैंकों को कुछ नहीं होता!!! यानी कि अगर आपने बैंक में गलती से जाली व चूरन छाप नोट जमा कर दिये तो नियम लागू होंगे, आपके उतने पैसे भी गए और दूसरे लफड़े अलग से झेलने पड़ेंगे। लेकिन बैंक ने आपको ऐसे नोट दिये तो उसे गलती मानी जाएगी!!!

खैर, लेकिन लगभग लगभग कहा जा सकता है कि बैंक इलेक्ट्रॉनिक बन चुके हैं। कागजों में सारा डाटा रखने का दौर बैंकों से बिदा ले चुका है। लेकिन भारत में नेट की कम स्पीड शायद एक बड़ी बाधा हैं। उसकी चर्चा हम अलग से कर लेंगे। फिलहाल इतना दर्ज कर लेते हैं कि उपलब्ध औसत बैंडविथ के हिसाब से डाउनलोड स्पीड के मामले में भारत 105 देशों की सूची में 96वें नंबर पर है। नेट को हिंदी में जाल कहा जाता है। बैंकों को मायाजाल कहते हैं। लेकिन उन्हें भी इस जाल की गति (नेट स्पीड) को लेकर रुबरु होना पड़ रहा है।

वैसे बैंक की सेवाओं का हम सभी इस्तेमाल करते हैं। लेकिन बैंकिंग सिस्टम से उतना हम नहीं जुड़ते। वैसे हम ये मानते हैं कि हम बैंकिंग सिस्टम से जुड़ चुके हैं। लेकिन कुछ चीजों के सामने आते ही समझ आता है कि हमारी समझ कितनी नासमझ थी! पचास हज़ार का लोन आप को देते वक्त बैंक आप को दूसरे बैंकों से सर्टिफिकेट लाने को कहता है। इसे नो-ड्यू सर्टिफिकेट कहा जाता है। मसलन आप अहमदाबाद के किसी बैंक से लोन मांग रहे हो और आप का दिल्ली के दूसरे बैंक में बकाया है तब भी मामला रुक सकता है या लंबित हो सकता है। सुनने में आया है कि पहले से ही इलेक्ट्रॉनिक बन चुके हमारे बैंकों के पास एक ऐसा सॉफ्टवेयर होता है, जिसमें ग्राहक के डाटा डाल दिए जाते हैं, जिससे किसी भी बैंक को पता लगे कि लोन मांगने वाले का कहा कितना बकाया है या उसकी संपत्ति का माजरा क्या है। अब कितने बैंक इस सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल नहीं करते वोह एक दूसरा मामला है। लोन लेने के जो अनेकों अनेक सिस्टम हैं, उसमें शुमार ये एक सिस्टम है।
हमें यह सिस्टम पता है। लेकिन करोड़ों का लोन न चुका कर भाग जाने वालों के किस्से में हम सोचने पर मजबूर हो जाते हैं कि उस सिस्टम से इन्होंने कैसे पार पाया होगा? हम सुना करते हैं कि जिनका लाखों या करोड़ों बकाया हो उसे भी बैंक की तरफ से लोन मिल जाया करते हैं! अब नियमों को तोड़ा नहीं गया है ये साबित करने के लिए भी ढेर सारे विकल्प मौजूद हैं। नियमों को विस्तृत रूप से समझा कर बताया जाता है कि नियम तोड़े नहीं गए हैं!!! हम ये भी जानते हैं कि आप पचास हज़ार का लोन चुका नहीं पाते, तो आप के सरकारी लाभ (जो बैंक के माध्यम से आते हो) से बैंक आप को बिना बताए पैसे काट सकता हैं। लेकिन समझ नहीं आता कि करोड़ों का लोन न चुका कर भी कोई नियमों को कैसे काट लेता होगा!!!

स्विस बैंक का तो बड़ा अजीब सा फंडा है। कैसे भी कमाया धन हो, स्विस बैंक में रखो और फिर बैंक दुनिया के किसी देश को आसानी से नहीं बताएगा कि आप का कितना धन वहां है। कितना तो छोड़ो, आप का धन वहां पर है या नहीं वो भी नहीं बताया जाएगा। स्विस बैंक तो दूसरे देश में है। स्विस बैंक को छोड़ दे तो, हमारे यहां तो जो बड़े नाम हैं, जिनके पैसे बकाया हैं उनके नाम भी हमारे बैंक बताने से कतराते हैं!!! कुछ किस्सों में तो आधिकारिक मनाही आ चुकी है कि ये जानकारी लोगों से साझा नहीं कर सकते। अब सोचे कि ये किस प्रकार का सिस्टम है, जिनके बारे में हमें भ्रम होता है कि हम जानते हैं। लेकिन मामले या असमंजस स्थिति में हम गूगल करते हैं कि नियम क्या है या सिस्टम क्या है। और इसीलिए लिखा कि कुछ चीजों के सामने आते ही समझ आता है कि हमारी समझ कितनी नासमझ थी।

यहाँ मूल मकसद एक ही हैं। हम इलेक्ट्रॉनिक और बैकिंग दोनों सेवाओं के बारे में ठीक से जानें। उसे ठीक से समझें। अब वही बच्चों वाला कुतर्क मत करना कि भाई आप ही लिख दें कि ये सिस्टम क्या है। सोशल मीडिया पर टैग या मेंशन कैसे किया जाता है, जल्दी से मैसेज का रिप्लाय कैसे दिया जाता है, सोशल मीडिया का अकाउंट कैसे सुरक्षित रखा जाता है इन सबमें निष्णांत बनने में कोई बुराई नहीं है। लेकिन जिन सेवाओं को हम इस्तेमाल करते हैं उसको ठीक से समझने में, समय समय पर उसे लेकर जो कमज़ोरियाँ आती रहती हैं उसे देखने में भी कोई बुराई नहीं है। दरअसल, इससे फ़ायदा ही होगा। वर्ना... आप अलग अलग सरकारों के दौर में ये कैसे कह पाएंगे कि सब कुछ सरकार के ज़िम्में नहीं होता?

(इनसाइड इंडिया, एम वाला)