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Loksabha India : भारत के लोकसभा चुनावों का इतिहास, आँकड़े और अन्य जानकारियाँ



Last Update : 30 May 2019
लोकसभा भारतीय संसद का निचला सदन है। भारतीय संसद का ऊपरी सदन राज्यसभा है। लोकसभा सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के आधार पर लोगों द्वारा प्रत्यक्ष चुनाव द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों से गठित होती है। भारतीय संविधान के अनुसार सदन में सदस्यों की अधिकतम संख्या 552 तक हो सकती है, जिसमें से 530 सदस्य विभिन्न राज्यों का और 20 सदस्य तक केन्द्र शासित प्रदेशों का प्रतिनिधित्व कर सकते हैं। सदन में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं होने की स्थिति में, भारत का राष्ट्रपति यदि चाहे तो आंग्ल-भारतीय समुदाय के 2 प्रतिनिधियों को लोकसभा के लिए मनोनीत कर सकता है।

लोकसभा की कार्यावधि 5 वर्ष है, परंतु इसे समय से पूर्व भंग किया जा सकता है। भारत के प्रत्येक राज्य को उसकी जनसंख्या के आधार पर लोकसभा सदस्य मिलते हैं। वर्तमान में यह 1971 की जनसंख्या पर आधारित है। अगली बार लोकसभा के सदस्यों की संख्या वर्ष 2026 में निर्धारित की जाएगी। इससे पहले प्रत्येक दशक की जनगणना के आधार पर सदस्य स्थान निर्धारित होते थे। यह कार्य बाकायदा 84वें संविधान संशोधन (2001) से किया गया था, ताकि राज्य अपनी आबादी के आधार पर ज्यादा से ज्यादा स्थान प्राप्त करने का प्रयास नहीं करें।

प्रथम लोकसभा (1952)  आज़ाद भारत का पहला लोकसभा चुनाव
सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस
कांग्रेस की सीटें 364
प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू

अगस्त 1947 में स्वतंत्र होने और 26 जनवरी 1950 को अपना संविधान लागू करने के बाद 1951 में भारत का पहला आम चुनाव सम्पन्न हुआ। उस समय लोकसभा की 489 सीटों के लिए चुनाव हुए थे। तत्पश्चात देश में पहली बार 1952 में लोकसभा का गठन हुआ। इसमें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (कांग्रेस) 364 सीटों के साथ सत्ता में आई। जवाहरलाल नेहरू देश के पहले निर्वाचित प्रधानमंत्री बने। सीपीआई इस चुनाव में 16 सीटों के साथ दूसरे नंबर पर रही थी। पहली लोकसभा के अध्यक्ष श्री गणेश वासुदेव मावलंकर थे। पहली लोकसभा में 677 (3784 घंटे) बैठकें हुई। यह अब तक हुई बैठकों की उच्चतम संख्या है। इस लोकसभा ने 17 अप्रैल 1952 से 4 अप्रैल 1957 तक अपना कार्यकाल पूरा किया।

विशेष
प्रथम आम चुनाव से ठीक पहले नेहरू के दो पूर्व कैबिनेट सहयोगियों ने कांग्रेस के वर्चस्व को चुनौती देने के लिए अलग राजनीतिक दलों की स्थापना कर ली थी। जहां एक ओर श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने अक्टूबर 1951 में जनसंघ की स्थापना की, वहीं दूसरी ओर दलित नेता भीमराव अम्बेडकर ने अनुसूचित जाति महासंघ (जिसे बाद में रिपब्लिकन पार्टी का नाम दिया गया) को पुनर्जीवित किया। जो अन्य दल उस समय आगे आए उनमें आचार्य कृपलानी की किसान मजदूर प्रजा परिषद, राम मनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व वाली समाजवादी पार्टी और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी भी थी।

दूसरी लोकसभा (1957) नेहरू दोबारा बहुमत के साथ सत्ता में लौटे
सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस
कांग्रेस की सीटें 371
प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू

दूसरी लोकसभा में संसद के लिए सीटें 489 से बढ़कर 494 हो गईं थी। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस 1952 की अपनी सफलता की कहानी को 1957 में आयोजित हुए दूसरे लोकसभा चुनावों में भी दोहराने में कामयाब रही। कांग्रेस के 490 उम्मीदवारों में से 371 सीटें जीतने में कामयाब रहे। पार्टी ने 47.78 प्रतिशत बहुमत सुरक्षित रखा। जवाहरलाल नेहरू अच्छे बहुमत के साथ सत्ता में वापस लौटे। 11 मई 1957 को एम अनंतशयनम आयंगर को सर्वसम्मति से नई लोकसभा का अध्यक्ष चुना गया। सीपीआई ने दूसरे स्थान पर रहते हुए 27 सीटें जीती थी। दिलचस्प बात यह रही कि 1957 के चुनावों में एक भी महिला उम्मीदवार मैदान में नहीं थी। दूसरी लोकसभा ने 31 मार्च 1962 तक का अपना कार्यकाल पूरा किया।

तीसरी लोकसभा (1962) तीसरी बार नेहरू का जादू चला, छोटे कद के शास्त्री ने विराट कारनामा किया
सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस
कांग्रेस की सीटें 361
प्रधानमंत्री  जवाहरलाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, गुलजारीलाल नंदा (दो बार कार्यवाहक)

तीसरी लोकसभा में कांग्रेस ने लगातार तीसरी बार जीत दर्ज कर केंद्र में सरकार बनाई थी। हालांकि इन चुनावों में कांग्रेस को 10 सीटों का नुकसान हुआ था, जबकि सीपीआई को 2 सीटों का फायदा हुआ था। कांग्रेस को जहां 494 में से 361 सीटें मिली थीं, वहीं सीपीआई ने 29 सीटों पर जीत दर्ज की थी। हालांकि, अपना कार्यकाल पूरा करने से पहले ही 1964 में नेहरू की मौत हो गई। उनके स्थान पर लाल बहादुर शास्त्री को प्रधानमंत्री नियुक्त किया गया। लेकिन उनकी भी 1966 में मौत होने के कारण गुलजारीलाल नंदा को पीएम नियुक्त किया गया। वह दोनों बार कार्यवाहक पीएम ही रहे।

विशेष
तीसरी लोकसभा अप्रैल 1962 में बनाई गई थी। उस समय पाकिस्तान के साथ संबंध खराब बने हुए थे। चीन के साथ दोस्ताना संबंध भी अक्टूबर 1962 के सीमा युद्ध से एक मिथ्या ही साबित हुए। अपनी सरकार द्वारा सुरक्षा पर पर्याप्त ध्यान न देने के मुद्दे पर चारों ओर आलोचना होने के बाद नेहरू को तत्कालीन रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन को हटाने और अमेरिका की सैन्य सहायता लेने के लिए बाध्य होना पड़ा। चीन के साथ युद्ध में भारत को अपनी ही नीतियों की वजह से हार झेलनी पड़ी। नेहरू का स्वास्थ्य तेजी से बिगड़ने लगा और वह 1963 में स्वास्थ्य लाभ के लिए कश्मीर में कई महीने गुजारने के लिए बाध्य हो गए। मई 1964 में वो कश्मीर से लौट आए। कहा गया कि वो सदमे से पीड़ित हुए थे और बाद में दिल का दौरा पड़ने से 27 मई 1964 को उनका निधन हो गया। वयोवृद्ध कांग्रेसी नेता गुलजारीलाल नंदा ने नेहरू की मृत्यु के बाद दो सप्ताह के लिए उनकी जगह ली। कांग्रेस द्वारा लाल बहादुर शास्त्री को नया नेता चुने जाने तक उन्होंने कार्यवाहक प्रधानमंत्री के रूप में काम किया। अप्रत्याशित रूप से शास्त्री ने 1965 में पाकिस्तान पर जीत दिलाने में देश का नेतृत्व किया। पाकिस्तान को जंग में मुंह के बल गिराने वाले छोटे कद के शास्त्री आज भी ऊंचा स्थान प्राप्त किए हुवे है। पाकिस्तान के राष्ट्रपति मोहम्मद अयूब खान ने पूर्व सोवियत संघ के ताश्कंद में 10 जनवरी 1966 को एक शांति संधि पर हस्ताक्षर किए। हालांकि इसी बीच उनकी एक हवाई जहाज अकस्मात में मृत्यु हो गई, जो अब तक संदिग्ध मानी जाती रही है। शास्त्री की मृत्यु से उत्पन्न हुए रिक्त स्थान के कारण कांग्रेस एक बार पुनः नेता विहीन हो गई। नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री बनने से पहले एक बार फिर नंदा को एक महीने से कम समय के लिए कार्यवाहक प्रधानमंत्री बनाया गया। शास्त्री के मंत्रिमंडल में इंदिरा सूचना एवं प्रसारण मंत्री के रूप काम करती थीं। तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष के कामराज ने 1966 में इंदिरा को प्रधानमंत्री बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। पुराने कांग्रेसी नेता मोरारजी देसाई से कड़े विरोध के बावजूद इंदिरा गांधी 24 जनवरी 1966 को प्रधानमंत्री बनीं। कांग्रेस के लिए वास्तव में यह समय सबसे अच्छा नहीं था। पार्टी आंतरिक संकटों से जूझ रही थी और देश हाल में लड़े दो युद्धों के प्रभाव से उबर रहा था। अर्थव्यवस्था को नुकसान हुआ था और मनोबल काफी गिरा हुआ था। जिन अन्य मुद्दों ने लोकसभा को हिला कर रख दिया था उनमें मिजो आदिवासी बगावत, अकाल, श्रमिक अशांति और रुपया अवमूल्यन के मद्देनजर गरीबों की बदहाली शामिल थी। वहीं पंजाब में भी भाषाई और धार्मिक अलगाववाद के लिए आंदोलन चल रहा था।

चौथी लोकसभा (1967) नेहरू विहिन कांग्रेस, इंदिरा गांधी का उदयकाल
सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस
कांग्रेस की सीटें 283
प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी

चौथी लोकसभा में सीटों की संख्या 494 से बढ़कर 520 हो चुकी थी। कांग्रेस के आंतरिक संकट का असर 1967 के चुनाव के परिणामों में साफ दिखाई दिया। पहली बार कांग्रेस ने निचले सदन में करीब 60 सीटों को खो दिया। उसे 283 सीटें पर जीत प्राप्त हुई। 1967 तक कांग्रेस ने विधानसभा चुनावों में भी कभी 60 प्रतिशत से कम सीटें नहीं जीती थीं। यहाँ भी कांग्रेस को एक बड़ा झटका सहना पड़ा, क्योंकि बिहार, केरल, उड़ीसा, मद्रास, पंजाब और पश्चिम बंगाल में गैर कांग्रेसी सरकारें स्थापित हुईं। दूसरे स्थान पर स्वतंत्र पार्टी रही, जिसे 44 सीटें मिली। इस सबके साथ, इंदिरा गांधी को, जो रायबरेली निर्वाचन क्षेत्र से लोकसभा के लिए चुनी गई थी, 13 मार्च को प्रधानमंत्री के रूप में शपथ दिलाई गई।

विशेष
कांग्रेस के आंतरिक संकट का असर 1967 के चुनाव के परिणामों में साफ दिखाई दिया। असंतुष्ट आवाज़ों के शांत रखने के लिए इंदिरा ने मोरारजी देसाई को भारत का उप प्रधानमंत्री और भारत का वित्तमंत्री नियुक्त किया। मोरारजी देसाई ने नेहरू की मृत्यु के बाद इंदिरा को प्रधानमंत्री बनाए जाने का विरोध किया था। कांग्रेस पार्टी के भीतर मतभेद बढ़ते रहें। कांग्रेस ने 12 नवम्बर 1969 के दिन अनुशासनहीनता के आधार पर मोरारजी देसाई को निष्कासित कर दिया। इस घटना ने कांग्रेस को दो भागों में विभाजित कर दिया। कांग्रेस (ओ) - संगठन (ऑर्गेनाइजेशन), जिसका नेतृत्व मोरारजी देसाई ने किया और कांग्रेस (आई), जिसका नेतृत्व इंदिरा गांधी कर रही थीं। इंदिरा ने दिसंबर 1970 तक सीपीआई (एम) के समर्थन से एक अल्पमत वाली सरकार को चलाया।

पांचवी लोकसभा (1971) गरीबी हटाओ के नारे ने इंदिरा को जीत दिलाई
सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस (आई)
कांग्रेस की सीटें 352
प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी

पांचवी लोकसभा में सीटों की संख्या 520 से बढ़कर 545 हो चुकी थी। इंदिरा गांधी ने 1971 में कांग्रेस को भारी बहुमत से जीत दिलाई। गरीबी हटाओ के चुनावी नारे के साथ प्रचार करते हुए वह 352 सीटों के साथ संसद में वापस आई। इस बार सीपीआई ने बेहतर प्रदर्शन करते हुए 23 सीटों पर जीत दर्ज की। तमिलनाडु की क्षेत्रीय पार्टी डीएमके ने भी धमाकेदार प्रदर्शन करते हुए 23 सीटों पर जीत दर्ज की। यह वही दौर था जब भारत और पाकिस्तान के बीच भीषण युद्ध हुआ और बांग्लादेश का सृजन हुआ। चीन और संयुक्त राज्य अमेरिका के राजनयिक विरोधों का सामना करते हुए प्राप्त की गई इस विजय ने इंदिरा का विश्व के सामने रुतबा और बढ़ा दिया था। लेकिन इसके बाद इस युद्ध की आर्थिक लागत, दुनिया में तेल की कीमतों में वृद्धि और औद्योगिक उत्पादन में गिरावट ने आर्थिक कठिनाइयों को बढ़ा दिया। इसके बाद सबसे बड़ी घटना 12 जून 1975 को हुई, जब इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने चुनावी भ्रष्टाचार के आधार पर उनके 1971 के चुनाव को अवैध ठहरा दिया। उसके बाद इंदिरा द्वारा देश में लागू किया आपातकाल भारतीय लोकतंत्र का काला अध्याय बन गया। आपातकाल 1977 तक चला और इस फैसले ने कांग्रेस को अगले लोकसभा चुनावों में फर्स पर लाकर पटक दिया।

विशेष
1971 के दौरान बांग्लादेश मुक्ति अभियान के तहत भारत और पाकिस्तान के बीच पूर्ण युद्ध आरंभ हुआ। इस युद्ध में और बांग्लादेश नाम के नये राष्ट्र के सृजन में इंदिरा गांधी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। युद्ध के दौरान उनके साहसिक फैसलों ने उनका रुतबा और बढ़ा दिया था। चीन और संयुक्त राज्य अमेरिका से राजनयिक विरोधों का सामना करते हुए इंदिरा ने इस युद्ध में फतेह हासिल की थी। उस समय तत्कालीन सोवियत संघ और पूर्वी ब्लॉक के देशों को छोड़कर शायद ही किसी अन्य देश ने भारत का अंतरराष्ट्रीय समर्थन किया था। लेकिन इस युद्ध के बाद आर्थिक समस्याएं, तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमतें, औद्यौगिक उत्पादन में गिरावट जैसी समस्याएं उठ खड़ी हुई। 1971 के चुनावों में सरकारी संसाधन वाला मामला इंदिरा के खिलाफ गया और उन्हें दोषी पाया गया। और उस घटना के पश्चात देश में आपातकाल लगा, जो लोकतंत्र का सबसे बुरा संस्करण माना जाता है। इस फैसले ने अगले चुनावों में कांग्रेस को जमीन पर लाकर पटक दिया। आज भी इंदिरा के राजनीतिक जीवन में तथा कांग्रेस के इतिहास में आपातकाल के दौर को भारतीय लोकतंत्र के सबसे बुरे दौर के रूप में याद किया जाता है।

छठी लोकसभा (1977) जब इंदिरा हारी चुनाव, पहली गैर-कांग्रेसी सरकार सत्ता तक पहुंची
सबसे बड़ी पार्टी जनता पार्टी
जनता पार्टी की सीटें 295
प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह

स्वतंत्र भारत में पहली बार कांग्रेस को चुनावों में हार का सामना करना पड़ा और जनता पार्टी ने 295 सीटें जीती। कांग्रेस 154 सीटों पर सिमटकर रह गई। मोरारजी देसाई 24 मार्च को भारत के पहले गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री बने। उन्हें चुनावों से दो महीने पहले ही जेल से रिहा किया गया था। आपातकाल के फैसले और उस दौरान हुए अत्याचारों ने इंदिरा को लोगों के बीच अप्रिय बना दिया था और इसका खामियाजा उन्हें इन चुनावों में भुगतना पड़ा। कांग्रेस की लगभग 200 सीटों पर हार हुई। इंदिरा गांधी और उनके बेटे संजय गांधी भी चुनाव हार गए। हालांकि, सरकार के अंदर खींचतान के चलते वह तीन साल के अंदर ही गिर गई।

विशेष
23 जनवरी को इंदिरा गांधी ने मार्च में चुनाव कराने की घोषणा की और सभी राजनीतिक कैदियों को रिहा कर दिया। चार विपक्षी दलों, कांग्रेस(ओ), जनसंघ, भारतीय लोकदल और समाजवादी पार्टी ने 'जनता पार्टी' के रूप में मिलकर चुनाव लड़ने का फैसला किया। इन चुनावों में आपातकाल, नागरिकी स्वतंत्रताओं का हनन और भ्रष्टाचार मुख्य मुद्दा रहा। जनता पार्टी ने मतदाताओं को आपातकाल के दौरान हुई ज्यादतियों और मानव अधिकारों के उल्लंघन की याद दिलाई। अनिवार्य बंध्याकरण और राजनेताओं को जेल में डालने जैसे विषय प्रचार में छाये रहे। कृषि और सिंचाई मंत्री बाबू जगजीवन राम ने पार्टी छोड़ दी और ऐसा करने वाले कई लोगों में से वे एक थे।

जनता पार्टी आपातकाल के संदर्भ में जनता के गुस्से पर सवार होकर सत्ता में आई थी। गठबंधन ने पिछले चुनावों में कांग्रेस को जबरदस्त पटखनी दी थी। बावजूद इसके सत्ता पर जनता पार्टी की पकड़ मजबूत नहीं थी। कांग्रेस छोड़कर आने वाले कई बड़े नेता मोरारजी देसाई से खुश नहीं थे। आपातकाल के दौरान मानवाधिकार हनन की जांच के लिए जो अदालतें गठित की गई थी उसे भी कई राजनितीक विरोधों का सामना करना पड़ रहा था। इंदिरा ख़ुद को एक परेशान महिला के रूप में रेखांकित करती जा रही थी। 1979 में समाजवादियों और हिंदू राष्ट्रवादियों के मिश्रण के फलस्वरूप जनता पार्टी विभाजित हो गई, जब भारतीय जनसंघ (बीजेएस) के नेता अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी ने पार्टी को छोड़ दिया और बीजेएस ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया। मोरारजी देसाई ने संसद में विश्वास मत खो दिया और इस्तीफ़ा दे दिया। चरण सिंह, जिन्होंने जनता गठबंधन के कुछ भागीदारों को बरकरार रखा था, उन्होंने प्रधानमंत्री के रूप में जून 1979 में शपथ ली। कांग्रेस ने संसद में चौधरी चरण सिंह के समर्थन का वादा किया, लेकिन बाद में पीछे हट गई। उन्होंने जनवरी 1980 में चुनाव की घोषणा कर दी और वे अकेले प्रधानमंत्री थे, जो कभी संसद नहीं गए। जनता पार्टी के नेताओं के बीच की लड़ाई और देश में फैली राजनीतिक अस्थिरता ने कांग्रेस (आई) के पक्ष में काम किया, जिसने मतदाताओं इंदिरा गांधी की मजबूत सरकार की याद दिला दी। जनता पार्टी का साल दर साल विभाजन होता रहा, लेकिन ये देश के राजनीतिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर साबित हुआ। यह एक गठबंधन था और इसने यह साबित कर दिया कि कांग्रेस को हराया जा सकता है।

सातवीं लोकसभा (1980) इंदिरा ने बहुमत के साथ की वापसी
सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस
कांग्रेस की सीटें 353
प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, राजीव गांधी (अंतरिम)

आश्चर्यजनक रूप से कांग्रेस और इंदिरा ने इन चुनावों में सबको चौंकाते हुए वापसी की। कांग्रेस ने लोकसभा में 545 सीटों में से 353 सीटें जीतीं और जनता पार्टी या बचे हुए गठबंधन को 41 सीटें मिलीं।

विशेष –
इंदिरा तीसरी बार भारत की प्रधानमंत्री बनी। आपातकाल की त्रासदी के लिए जिम्मेदार व्यक्ति ने अप्रत्याशित रूप से वापसी की थी। सन् 1980 में सत्ता में लौटने के बाद वह अधिकतर पंजाब के अलगाववादियों के साथ बढ़ते हुए द्वंद्व में उलझी रहीं। भिंडरांवाले का संस्करण तथा मनपंसद राष्ट्रपति चुनना समेत कई सारे आरोप उन पर लगे। आतंकवाद पंजाब को झकझोर रहा था। ऑपरेशन ब्लू स्टार ने पंजाब को आतंक से मुक्ति जरूर दिलाई, लेकिन सामाजिक और धार्मिक रूप से प्रदेश को झकझोर कर रख दिया। स्थितियां यह हुई कि 1984 में इंदिरा के ही अंगरक्षकों ने उनकी हत्या कर दी। उसके बाद राजीव गांधी को अंतरिम प्रधानमंत्री बनाया गया। इंदिरा की हत्या के पश्चात सिखों के नरसंहार की घटना ने भारत के तानेबाने को बुरी तरह से प्रभावित किया।

आठवीं लोकसभा (1984-85) भावनाओं का चुनाव, राजीव सत्ता पर पहुंचे
सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस
कांग्रेस की सीटें 404
प्रधानमंत्री राजीव गांधी

31 अक्टूबर 1984 को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद लोकसभा को भंग कर दिया गया और राजीव गांधी ने अंतरिम प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली। नवंबर 1984 के लिए चुनाव की घोषणा कर दी गई। कांग्रेस ने भारी बहुमत से जीत हासिल की। कांग्रेस ने 404 लोकसभा सीटें और लोकप्रिय मतों का 50 फीसदी अपने नाम किया। यह पार्टी का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन था। संसद की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी तेलुगू देशम थी, जिन्हें महज 30 सीटें मिल पाई थी। वैसे यह भारतीय संसद के इतिहास के उन दुर्लभ रिकॉर्डों में एक है जिसमें कोई क्षेत्रीय पार्टी मुख्य विपक्षी दल के रूप में उभरी हो।

विशेष –
इंदिरा की हत्या के बाद कांग्रेस को जनभावना का साथ मिला और रिकॉर्डतोड़ जीत दर्ज की। राजीव नये प्रधानमंत्री बन चुके थे। प्रधानमंत्री बनने के बाद राजीव गांधी अनिर्णय की स्थिति में रहे। उनकी अनुभव शून्यता और मां के आकस्मिक निधन ने देश में सिखों की हत्याओं का खेल शुरू करा दिया। राजीव सक्षम कार्रवाई नहीं कर पाए। हालांकि प्रधानमंत्री बनने पर पंजाब समझौता किया, उसके पश्चात असम समझौता। इन दोनों समझौतों से पंजाब व पूर्वोत्तर की हिंसक गतिविधियों में रुकावट आई। राजीव गांधी ने नये तकनीकी प्रयोगों को भारत में जगह दी और आधुनिक भारत का सपना देखा। लेकिन अपने ही मंत्री वीपी सिंह के साथ उनका टकराव आखिरकार बोफोर्स के रूप में बाहर निकला। बोफोर्स घोटाले ने कांग्रेस की और राजीव की स्थिति दुर्बल कर दी। उपरांत राम मंदिर और शाहबानो मामले में राजीव पर राजनीतिक फायदे के अनुरूप सरकार को काम करवाते रहने के इल्ज़ाम लगते रहे। इससे पहले श्रीलंका में इन्होंने भारतीय सेना भेजी, जिससे खफा लोगों ने 1991 में उनकी हत्या कर दी।

नौंवी लोकसभा (1989) बोफोर्स के बाद कांग्रेस ने गंवाई सत्ता, वीपी सिंह बने प्रधानमंत्री
सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस (हालांकि सरकार जनता दल ने बनाई थी)
कांग्रेस की सीटें 197    जनता दल की सीटें - 143
प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंघ, चंद्रशेखर

लोकसभा में 545 सीटों के लिए यह चुनाव 22 नवम्बर और 26 नवम्बर 1989 को दो चरणों में आयोजित हुए। नेशनल फ्रंट को लोकसभा में आसान बहुमत प्राप्त हुआ और उसने वाम मोर्चे और भारतीय जनता पार्टी के बाहरी समर्थन से सरकार बनाई। राष्ट्रीय मोर्चे के सबसे बड़े घटक जनता दल ने 143 सीटें जीतीं। इसके अलावा माकपा और भाकपा ने क्रमशः 33 और 85 सीटें हासिल की। निर्दलीय और अन्य छोटे दल 59 सीटें जीतने में कामयाब रहे। हालांकि, कांग्रेस अभी भी 197 सांसदों के साथ लोकसभा में अकेली सबसे बड़ी पार्टी थी। भाजपा 1984 के चुनावों में 2 सीटों के मुकाबले इस बार के चुनावों में 85 सांसदों के साथ सबसे ज्यादा फायदे में रही। विश्वनाथ प्रताप सिंह भारत के 10वें प्रधानमंत्री बने और देवीलाल उप प्रधानमंत्री बने।

विशेष -
नौंवी लोकसभा के चुनाव भारतीय चुनावी राजनीति में कई मायनों में ऐतिहासिक रहे। इन चुनावों ने राजनेताओं के मतदाता से वोट मांगने के तरीके को बदल दिया। अब जाति और धर्म के आधार पर वोट मांगना केंद्र बिंदु बन गया। 1989 के आम चुनाव कई संकटों से झूज रहे युवा राजीव के साथ लड़े गए, किन्तु कांग्रेस सरकार अपनी विश्वसनीयता और लोकप्रियता खो रही थी। बोफोर्स कांड, पंजाब में बढ़ता आतंकवाद, एलटीटीई और श्रीलंका सरकार के बीच गृह युद्ध उन समस्याओं में से कुछ थी, जो राजीव गांधी की सरकार के सामने थीं। राजीव के सबसे बड़े आलोचक विश्वनाथ प्रताप सिंह थे, जिन्होंने सरकार में वित्त मंत्रालय और रक्षा मंत्रालय का कामकाज संभाले रखा था। रक्षा मंत्री के रूप में सिंह के कार्यकाल के दौरान यह अफवाह थी कि उनके पास बोफोर्स रक्षा सौदे से संबंधित ऐसी जानकारी थी, जो राजीव गांधी की प्रतिष्ठा को बर्बाद कर सकती थी। लेकिन सिंह को शीघ्र ही मंत्रिमंडल से बर्खास्त कर दिया गया और फिर उन्होंने कांग्रेस और लोकसभा में अपनी सदस्यता से इस्तीफ़ा दे दिया। उन्होंने अरुण नेहरू और आरिफ मोहम्मद खान के साथ जन मोर्चा का गठन किया और इलाहाबाद से लोकसभा में प्रवेश किया।

11 अक्टूबर 1988 को जन मोर्चा, जनता पार्टी, लोकदल और कांग्रेस (एस) के विलय से जनता दल की स्थापना हुई, ताकि सभी दल एक साथ मिलकर राजीव गांधी सरकार का विरोध करें। जल्द ही द्रमुक, तेदेपा और अगप सहित कई क्षेत्रीय दल जनता दल से मिल गए और नेशनल फ्रंट की स्थापना की। पांच पार्टियों वाला नेशनल फ्रंट, भारतीय जनता पार्टी और दो कम्युनिस्ट पार्टिया, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी - मार्क्सवादी (सीपीआई-एम) और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) के साथ मिलकर 1989 के चुनावी मैदान में उतरा।

वीपी सिंह ने 2 दिसम्बर 1989 से 10 नवम्बर 1990 तक कार्यालय संभाला। भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी द्वारा राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद मुद्दे पर रथ यात्रा शुरू किए जाने और बिहार के मुख्यमंत्री लालू यादव द्वारा बिहार में गिरफ्तार किए जाने के बाद पार्टी ने वीपी सिंह सरकार से समर्थन वापस ले लिया। वीपी सिंह ने विश्वास मत हारने के बाद इस्तीफ़ा दे दिया। चंद्रशेखर 64 सांसदों के साथ जनता दल से अलग हो गए और उन्होंने समाजवादी जनता पार्टी बनाई। उन्हें बाहर से कांग्रेस का समर्थन मिला और वे भारत के 11वें प्रधानमंत्री बने। उन्होंने आखिरकार 6 मार्च 1991 को इस्तीफ़ा दे दिया, जब कांग्रेस ने आरोप लगाया कि सरकार राजीव गांधी पर जासूसी कर रही है।

दसवीं लोकसभा (1991) राजीव गांधी की हत्या, फिर एक बार कांग्रेस सत्ता की चौखट तक पहुंची
सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस
कांग्रेस की सीटें 232
प्रधानमंत्री पी वी नरसिंहराव

चुनाव तीन चरणों में 20 मई, 12 जून और 15 जून 1991 को आयोजित किए गए। यह कांग्रेस, भाजपा और राष्ट्रीय मोर्चा-जनता दल (एस)- वामपंथी मोर्चे के गठबंधन के बीच एक त्रिकोणीय मुकाबला था। मतदान के पहले दौर के एक दिन बाद 20 मई को पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी की लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम द्वारा श्रीपेरंबदूर में चुनाव प्रचार करते हुए हत्या कर दी गई। चुनाव के शेष दिनों को जून के मध्य तक के लिए स्थगित कर दिया गया और अंत में मतदान 12 जून और 15 जून को हुआ। इस बार के संसदीय चुनावों में अब तक का सबसे कम मतदान हुआ। इसमें केवल 53 प्रतिशत मतदाताओं ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया। इन चुनावों के परिणामों से एक त्रिशंकु संसद बनी। 232 सीटों के साथ कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी और 120 सीटों के साथ भाजपा दूसरे स्थान पर रही। जनता दल सिर्फ 59 सीटों के साथ तीसरे स्थान पर रहा। 21 जून को कांग्रेस के पीवी नरसिंहराव ने प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली।

विशेष
10वीं लोकसभा के चुनाव मध्यावधि चुनाव थे। क्योंकि पिछली लोकसभा को सरकार के गठन के सिर्फ 16 महीने बाद भंग कर दिया गया था। यह चुनाव विपरीत वातावरण में हुए और दो सबसे महत्वपूर्ण चुनावी मुद्दों, मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करने और राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद विवाद के चलते इन्हें 'मंडल-मंदिर' चुनाव भी कहा जाता है।

जहां एक ओर वीपी सिंह सरकार द्वारा लागू मंडल आयोग की रिपोर्ट में सरकारी नौकरियों में अन्य पिछड़ी जातियों (ओबीसी) को 27 प्रतिशत आरक्षण दिया गया था, जिसके कारण बड़े पैमाने पर हिंसा हुई और सामान्य जातियों ने देश भर में इसका विरोध किया। वहीं दूसरी ओर दो तबके उभरे जो अयोध्या मंदिर और विवादित बाबरी मस्जिद ढांचे का प्रतिनिधित्व करता था, जिसे भारतीय जनता पार्टी अपने प्रमुख चुनावी मुद्दे के रूप में उपयोग कर रही थी। मंदिर मुद्दे के फलस्वरुप देश के कई हिस्सों में दंगे हुए और मतदाताओं का जाति और धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण हो गया। राष्ट्रीय मोर्चे में फैली अव्यवस्था ने कांग्रेस की वापसी के संकेत दे दिए थे। 21 जून को कांग्रेस के पीवी नरसिंह राव ने प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली। वे नेहरू-गांधी परिवार के बाहर दूसरे कांग्रेसी प्रधानमंत्री थे। नेहरू-गांधी परिवार के बाहर पहले कांग्रेसी प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री थे। पीवी नरसिंह राव की सरकार में बतौर वित्तमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा लागू किए गए आर्थिक सुधार अर्थतंत्र के लिए अब तक का सबसे बड़ा बदलाव माना जाता है।

ग्याहरवीं लोकसभा (1996) भाजपा ने मारी बाजी
सबसे बड़ी पार्टी भाजपा  
भाजपा की सीटें 161
प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, एचडी देवेगौड़ा, इंदर कुमार गुजराल

11वीं लोकसभा के लिए हुए चुनाव के परिणामों से एक त्रिशंकु संसद का गठन हुआ और दो वर्ष तक राजनीतिक अस्थिरता रही, जिस दौरान देश में 3 प्रधानमंत्री बने। तीन सप्ताह के अभियान के दौरान, राव ने अपने द्वारा लागू किए गए आर्थिक सुधारों को मुद्दा बनाकर मतदाताओं को आकर्षित किया और भाजपा ने हिंदुत्व और राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दों पर मतदाताओं को रिझाया। मतदाता किसी भी पार्टी से प्रभावित नहीं लगते थे। भाजपा ने 161 सीटें जीती और कांग्रेस ने 140 सीटें प्राप्त की। राष्ट्रपति ने भाजपा नेता अटल बिहारी वाजपेयी को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया, चूंकि वे संसद में सबसे बड़ी पार्टी के मुखिया थे। वाजपेयी ने 16 मई को प्रधानमंत्री के रूप में पदभार संभाला और संसद में क्षेत्रीय दलों से समर्थन पाने की कोशिश की। वह इस काम में विफल रहे और 13 दिनों के बाद उन्होंने इस्तीफ़ा दे दिया। उसके बाद जनता दल के नेता एचडी देवेगौड़ा ने 1 जून को एक संयुक्त मोर्चा गठबंधन सरकार का गठन किया। उनकी सरकार 18 महीने चली। तत्पश्चात देवेगौड़ा के विदेश मंत्री इंदर कुमार गुजराल ने प्रधानमंत्री के रूप में अप्रैल 1997 में पदभार संभाला, जब कांग्रेस बाहर से एक नई संयुक्त मोर्चा सरकार का समर्थन करने के लिए सहमत हो गई। लेकिन गुजराल केवल एक कामचलाऊ व्यवस्था के रूप में थे। देश में 1998 में फिर से चुनाव होना तय था।

विशेष
पिछली लोकसभा के दौरान प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव की कांग्रेस (आई) सरकार ने सुधारों की एक श्रृंखला को लागू किया, जिसने विदेशी निवेशकों के लिए देश की अर्थव्यवस्था को खोल दिया। डॉ. मनमोहन सिंह इसके सूत्रधार रहे। इसे ग्लोबलाइजेशन पॉलिसी के तहत जाना जाता है। राव के समर्थकों ने उन्हें देश की अर्थव्यवस्था को बचाने और देश की विदेश नीति को स्फूर्ति देने का श्रेय दिया, लेकिन उनकी सरकार अप्रैल से मई में चुनाव से पहले अनिश्चित और कमजोर थी। मई 1995 में वरिष्ठ नेता अर्जुन सिंह और नारायण दत्त तिवारी ने कांग्रेस छोड़ दी और अपनी पार्टी का गठन किया। हर्षद मेहता घोटाला, सुखराम दूरसंचार घोटाला, राजनीति के अपराधीकरण पर वोहरा की रिपोर्ट, जैन हवाला कांड और तंदूर हत्याकांड मामले ने राव सरकार की विश्वसनीयता को क्षतिग्रस्त किया था।

बारहवीं लोकसभा (1997-98) फिर एक बार भाजपा की सरकार
सबसे बड़ी पार्टी भाजपा (सरकार एनडीए गठबंधन)
भाजपा की सीटें 182
प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी

11वीं लोकसभा का जीवन छोटा था। यह मुश्किल से डेढ़ साल चली। अल्पमत वाली इंदर कुमार गुजराल की सरकार 28 नवम्बर 1997 को गिर गई, जब सीताराम केसरी के नेतृत्व वाली कांग्रेस ने राजीव गांधी की हत्या में द्रमुक नेताओं के शामिल होने के विवाद के चलते सरकार से समर्थन वापस ले लिया। नए चुनावों की घोषणा की गई। इस बार भी किसी दल को पूर्ण बहुमत नहीं मिला। लेकिन 182 सीटें जीतकर भाजपा सबसे बड़े दल के रूप में उभरी। कांग्रेस 141 सीटें जीतकर दूसरे स्थान पर रही। 10 मार्च 1998 को 12वीं लोकसभा का गठन हुआ और वरिष्ठ भाजपा नेता अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाले गठबंधन को 9 दिन बाद शपथ दिलाई गई। 12वीं लोकसभा केवल 413 दिन चली, जो उस तिथि तक का सबसे कम समय था।

एक व्यवहार्य विकल्प के अभाव के कारण तब विघटन हो गया जब 13 महीने पुरानी भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार को 17 अप्रैल को केवल 1 मत से बेदखल कर दिया गया। ऐसा पांचवीं बार हुआ था जब लोकसभा को अपना कार्यकाल पूरा करने से पहले भंग कर दिया गया हो। 4 दिसम्बर 1997 को लोकसभा के विघटन के बाद समय से पहले ही सभी लोकसभा सीटों के लिए चुनाव हुए। चुनाव पश्चात गठबंधन की रणनीति ने भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन को 265 सीटों का कार्यकारी बहुमत प्रदान किया। इस संदर्भ में 15 मार्च को, राष्ट्रपति के आर नारायणन ने वाजपेयी को अगली सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया। 19 मार्च को वाजपेयी ने प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली। 17 अप्रैल 1999 को वाजपेयी ने लोकसभा में विश्वास मत खो दिया और इसके फलस्वरूप उनकी गठबंधन सरकार ने इस्तीफ़ा दे दिया।

तेरहवीं लोकसभा (1999) तीसरी बार भी भाजपा बड़ी पार्टी बनी, वाजपेयी ने फिर एक बार संभाला ताज़
सबसे बड़ी पार्टी भाजपा (सरकार एनडीए गठबंधन)
भाजपा की सीटें 182     
प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी

6 अक्टूबर को आए परिणाम में एनडीए को 298 सीटें मिलीं। कांग्रेस और उसके सहयोगियों को 136 सीटों पर विजय प्राप्त हुई। वाजपेयी ने 13 अक्टूबर को प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली। यह पहली गैर कांग्रेसी सरकार थी जो पूरे पांच साल सत्ता में रही।

विशेष
17 अप्रैल 1999 को वाजपेयी ने लोकसभा में विश्वास मत खो दिया और इसके फलस्वरूप उनकी गठबंधन सरकार ने इस्तीफ़ा दे दिया। उन्होंने इसका कारण अपने 24 पार्टी वाले एनडीए गठबंधन में सामंजस्य की कमी होना बताया। गठबंधन की सहयोगी जयललिता के नेतृत्व वाली अन्नाद्रमुक के पीछे हटने के कारण, बसपा से मायावती की वजह से तथा ओडिशा के तत्कालीन मुख्यमंत्री गिरिधर गमांग के खिलाफ हो जाने से मतदान में वाजपेयी सरकार एक वोट से हार गई थी। जयललिता अपनी मांगे पूरी ना होने पर लगातार समर्थन वापस लेने की धमकी दे रही थीं। इन मांगों में विशेष रूप से तमिलनाडु सरकार को बर्खास्त करना शामिल था, जिसका नियंत्रण वे तीन साल पहले खो चुकी थीं। भाजपा ने आरोप लगाया कि जयललिता भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच से बचने की मांग कर रहीं थीं और पार्टियों के बीच कोई समझौता नहीं किया जा सका, जिससे सरकार की हार हुई।

मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस क्षेत्रीय और वामपंथी समूहों के साथ मिलकर बहुमत वाली सरकार बनाने के लिए पर्याप्त समर्थन नहीं पा सकी। 26 अप्रैल को भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति के आर नारायणन ने लोकसभा भंग कर दी और जल्दी चुनाव करने की घोषणा कर दी। भाजपा ने मतदान होने तक एक अंतरिम प्रशासन के रूप में शासन करना जारी रखा। चुनाव आयोग द्वारा चुनावों की तिथि 4 मई घोषित की गई थी। चूंकि पिछले चुनाव 1996 और 1998 में आयोजित हुए थे, इसलिए 1999 के चुनाव 40 महीने में तीसरी बार हो रहे थे। चुनावी धोखाधड़ी और हिंसा को रोकने के लिए देश के 31 राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों में सुरक्षा बलों को तैनात करने हेतु ये चुनाव 5 सप्ताह तक चले थे। कुल मिलाकर 45 पार्टियों ने (6 राष्ट्रीय, शेष क्षेत्रीय) 543 लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ा। लंबे चुनाव अभियान के दौरान, भाजपा और कांग्रेस ने आम तौर पर आर्थिक और विदेश नीति के मुद्दों पर सहमति व्यक्त की, इसमें पाकिस्तान के साथ कश्मीर सीमा विवाद का निपटारा भी शामिल था। उनकी प्रतिद्वंद्विता केवल कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी और वाजपेयी के बीच के व्यक्तिगत टकराव के रूप में ही अधिक प्रकट हुई।

सोनिया गांधी को 1998 में काफी कम उम्र में पार्टी के अध्यक्ष पद के लिए निर्वाचित किया गया था। सोनिया की जन्मभूमि इटली होने की बात को मुद्दा बनाकर महाराष्ट्र के कांग्रेसी नेता शरद पवार ने सोनिया के चयन को चुनौती दी। इस कारण से कांग्रेस में आतंरिक संकट पैदा हो गए और भाजपा ने प्रभावी रूप से एक चुनावी मुद्दे के रूप में इसका प्रयोग किया। वाजपेयी द्वारा कारगिल युद्ध से निपटने का सकारात्मक दृष्टिकोण भी एक मुद्दा था, जो भाजपा के पक्ष में काम कर रहा था। यह युद्ध चुनावों से कुछ महीने पहले ही समाप्त हुआ था और इसने कश्मीर में भारत की स्थिति को मजबूत किया था। इसके अलावा, पिछले दो वर्षों में भारत ने आर्थिक उदारीकरण और वित्तीय सुधारों के चलते आर्थिक रूप से काफी वृद्धि तैनात की थी, इसके साथ-साथ मुद्रास्फीति की दर कम और औद्योगिक विकास की दर भी उच्च थीं।

अन्य दलों के साथ मजबूत और व्यापक गठजोड़ के माध्यम से राजनीतिक विस्तार के आधार पर 1991, 1996 और 1998 के चुनावों में भाजपा और उसके सहयोगियों ने लगातार विकास किया था और क्षेत्रीय विस्तार के कारण एनडीए मुख्य प्रतिस्पर्धी बन गया और यहां तक कि उसने कांग्रेस की बहुलता वाले क्षेत्रों जैसे उड़ीसा, आंध्रप्रदेश और असम में भी सबसे ज्यादा वोट प्राप्त किए थे। ये कारक 1999 के चुनाव परिणामों में निर्णायक साबित हुए।

चौदहवीं लोकसभा (2004) कांग्रेस ने सबको चौंकाया, सोनिया ने मनमोहन को थमाया ताज़
सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस (सरकार यूपीए गठबंधन)
कांग्रेस की सीटें 145
प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह

काफी समय सत्ता से बाहर रहने के बाद कांग्रेस चुनावों में आश्चर्यजनक प्रदर्शन करते हुए पुन: सत्ता में लौट आई। हालांकि कांग्रेस को महज 145 सीटें मिली थी, लेकिन उसने अपने सहयोगियों की मदद से 543 में से 335 सदस्यों (बसपा, सपा, एमडीएमके और वाम मोर्चा के बाहरी समर्थन सहित) का बहुमत प्राप्त करने में सफल रही। भाजपा 138 सीटें जीतकर दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। चुनाव के बाद हुए इस गठबंधन को यूपीए गठबंधन कहा गया। डॉ. मनमोहन सिंह भारत के प्रधानमंत्री बने।

विशेष
भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने 2004 में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की देखरेख में अपने शासन के पांच साल पूरे किये और 20 अप्रैल से 10 मई 2004 के बीच चार चरणों में चुनाव हुए। अधिकांश विश्लेषकों का मानना था कि एनडीए 'फील गुड फैक्टर' और अपने प्रचार अभियान 'इंडिया शाइनिंग' की मदद से सत्ता विरोधी लहर से पार पा लेगी और स्पष्ट बहुमत प्राप्त करेगी। भाजपा शासन के दौरान अर्थव्यवस्था में लगातार वृद्धि दिखाई दी थी और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के विनिवेश को पटरी पर लगाया गया था। भारत के विदेशी मुद्रा भंडार में 100 अरब डॉलर से अधिक राशि जमा थी (दुनिया में सातवां सबसे बड़ा और भारत के लिए एक रिकॉर्ड)। सेवा क्षेत्र ने भी ढेरों नौकरियां उत्पन्न हुई थीं।

कांग्रेस के नेतृत्व में राष्ट्रीय स्तर का विपक्षी मोर्चा बनाने की कोशिश भी हुई। अंत में कोई समझौता नहीं हो पाया, लेकिन क्षेत्रीय स्तर पर कई राज्यों में कांग्रेस और क्षेत्रीय पार्टियों के बीच गठबंधन हो गया। यह पहली बार था कि कांग्रेस ने संसदीय चुनावों में इस तरह के गठबंधन के साथ चुनाव लड़ा था। भाजपा ने भी एनडीए गठबंधन के तौर पर चुनाव लड़ा। बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी ने कांग्रेस या भाजपा दोनों में से किसी के साथ भी जाने से इनकार कर दिया।

हालांकि चुनाव पूर्व भविष्यवाणियों में भाजपा के लिए भारी बहुमत की बात कही गई थी, लेकिन एग्जिट पॉल में त्रिशंकु संसद की भविष्यवाणी हुई। यह भी आम धारणा है कि जैसे ही भाजपा ने यह मानना आरंभ किया कि चुनाव पूरी तरह से उसके पक्ष में नहीं हुए हैं, इसने भाजपा के अभियान का ध्यान इंडिया शाइनिंग से हटाकर स्थिरता के मुद्दों पर केंद्रित कर दिया। जिस कांग्रेस को भाजपा ने "पुराने ढ़ंग वाली" का नाम दिया था, उसे मुख्यतः गरीबों, ग्रामीणों, निचली जातियों और अल्पसंख्यक मतदाताओं का भारी समर्थन मिला, जिससे कांग्रेस ने बड़ी जीत हासिल की। इन लोगों को एक विशालकाय मध्यमवर्ग को जन्म देने वाली विगत वर्षों की आर्थिक वृद्धि का कोई विशेष लाभ प्राप्त नहीं हुआ था। चुनाव पूर्व भविष्यवाणियों में पराजय के लिए विभिन्न कारणों को जिम्मेदार माना जाता है। राष्ट्रीय मुद्दों के बजाय लोग अपने आसपास के मुद्दों, जैसे पानी की कमी, सूखा, आदि, के बारे में ज्यादा चिंतित थे और भाजपा के सहयोगी सत्ता विरोधी भावनाओं का सामना कर रहे थे।

यूपीए की जीत के बाद कांग्रेस शासित गठबंधन सरकार बन रही थी। भारत की प्रधानमंत्री के पद पर सोनिया गांधी बैठने वाली थी। हालांकि सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री बनने से इनकार कर लगभग सभी को हैरान कर दिया। इसके बजाय पूर्व वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह से यह दायित्व उठाने के लिए कहा गया। डॉ. सिंह इससे पहले नरसिंह राव की सरकार में 1990 के दशक की शुरूआत में अपनी सेवाएँ दे चुके थे, जहाँ उन्हें भारत की ऐसी पहली आर्थिक उदारीकरण नीति के रचयिताओं में से एक माना जाता था, जिसने आसन्न राष्ट्रीय मौद्रिक संकट से उबरने में मदद की थी।

पंद्रहवीं लोकसभा (2009) कांग्रेस ने फिर मारी बाजी, मनमोहन दोबारा सत्ता में लौटे
सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस (सरकार यूपीए गठबंधन)
कांग्रेस की सीटें 206
प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह

मई 2009 में 15वीं लोकसभा के चुनाव के परिणामों की घोषणा की गई। इन चुनावों में लग रहा था कि कांग्रेस सत्ता में दोबारा नहीं लौट पाएगी, लेकिन पुनः कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए की सरकार बनी। भाजपा 116 सीटें जीतकर दूसरे स्थान पर रही।

विशेष –
यूपीए सरकार का दूसरा कार्यकाल पहले कार्यकाल की तुलना में काफी विवादास्पद रहा। यूपीए-2 को घोटालों के दौर को लेकर याद किया जाता है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर आरोप लगते रहे कि वे सोनिया गांधी के आदेश पर चलनेवाले पीएम है। भारत के आर्थिक प्रणेता के रूप में पहचाने जाने वाले मनमोहन अपनी कार्यशैली से लोगों की नाराजगी का शिकार होते रहे। अपने दल के कुछ नेताओं के द्वारा दबाव में काम करने के आरोप तथा बाद में उनके मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के आरोप ने उनकी सरकार को घेर लिया। एक के बाद एक घोटालों ने सुषुप्त अवस्था में पड़े हुए विपक्ष को मौका दिया। विपक्ष ने इस मौके का सफल राजनीतिक इस्तेमाल किया। सत्ता के अहंकार में यूपीए-2 के मंत्री अब भी संभल नहीं रहे थे। करोड़ों रुपये के भ्रष्टाचार ने दिल्ली में अन्ना हजारे और बाबा रामदेव जैसे लोकप्रिय चेहरों को बड़ा प्रदर्शन करने का अवसर दे दिया। हालात यह बने कि उदारीकरण की भेंट देनेवाले मनमोहन सिंह को एक बदनाम प्रधानमंत्री के रूप में सत्ता से बिदाई लेनी पड़ी। अगले लोकसभा चुनावों में कांग्रेस अपने इतिहास के सबसे बुरे दौर में पहुंच गई।

सोलहवीं लोकसभा (2014) चली मोदी की लहर, कांग्रेस अपने इतिहास के सबसे बुरे दौर में पहुंची
सबसे बड़ी पार्टी  भारतीय जनता पार्टी
भाजपा की सीटें 282
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी

अप्रैलमई 2014 में भारत में 16वीं लोकसभा के चुनाव हुए। इन चुनावों में भारतीय जनता पार्टी को नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में पूर्ण बहुमत प्राप्त हुआ। एनडीए गठबंधन को कुल 336 सीटें प्राप्त हुईं। भारतीय जनता पार्टी को अकेले 282 सीटें प्राप्त हुईं, जो साधारण बहुमत के लिये आवश्यक 272 सीटों से 10 अधिक थी। कांग्रेस को मात्र 44 सीटें ही मिल सकीं, जो इस पार्टी का आज तक का सबसे खराब प्रदर्शन था।

विशेष
पिछले 10 सालों से कांग्रेस शासित यूपीए गठबंधन सत्ता की बागडोर संभाले हुए था। लेकिन यूपीए का दूसरा कार्यकाल विवादों और भ्रष्टाचार से सना हुआ रहा। भारी भरखम घोटाले और भ्रष्टाचार के बड़े बड़े आंकड़ों ने यूपीए सरकार की विश्वसनीयता को कटघरे में खड़ा कर दिया। एक के बाद एक घोटाले बाहर आने लगे थे। कांग्रेस के कई नेता और मंत्री भ्रष्टाचार में लिप्त होने के आरोप लगते गए। आदर्श घोटाला, कोयला घोटाला से लेकर कॉमनवेल्थ घोटाला और टूजी घोटाले के कारण मनमोहन सरकार संसद से लेकर सड़क तक घिरती दिखाई दे रही थी। उधर पिछले 10 सालों से कमजोर और बेबस विपक्ष के रूप में बैठी भाजपा को नरेन्द्र मोदी नाम का नया चेहरा मिला, जिन्होंने अपनी आक्रमकता से मूल रूप से सोनिया गांधी और राहुल गांधी को सदैव निशाने पर रखा। 2011 में अन्ना हजारे और उनके लोगों ने जनलोकपाल की मांग को लेकर बड़ा आंदोलन किया। इसी दौर में बाबा रामदेव ने काला धन को लेकर आंदोलन खड़ा कर दिया। आरोप लगते रहे कि यह सब विपक्ष (बीजेपी और आरएसएस) की मदद से हो रहा था। जो भी हो, लेकिन जनलोकपाल आंदोलन और अन्ना ने भारत के ज्यादातर वर्गों को सड़कों पर लाकर विरोध करने के लिए प्रेरित कर दिया था। कांग्रेस के बड़े बड़े घोटाले, भ्रष्टाचार के आरोप, काला धन और जनलोकपाल जैसे आंदोलन, भाजपा का आक्रमक विपक्ष के तौर पर मैदान में उतरना और नरेन्द्र मोदी का राष्ट्रीय स्तर पर पहुंचना, जैसे कई मुद्दों ने लोगों को एक विकल्प दे दिया।

2014 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को इसका भारी खामियाजा भुगतना पड़ा और कांग्रेस 44 सीटों पर सिमट कर रह गई। नरेन्द्र मोदी बहुमत के साथ भारत के प्रधानमंत्री बने और शायद पहली बार था, जब किसी गैर कांग्रेसी सरकार को इतनी सीटों के साथ सत्ता में आने का मौका मिला हो।

सत्रहवीं लोकसभा (2019) नरेन्द्र मोदी ने इतिहास को तीसरी बार दोहराया, कांग्रेस समेत सारे विपक्षी दलों ने मुंह की खाई
सबसे बड़ी पार्टी भारतीय जनता पार्टी 
भाजपा की सीटें 303
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी

अप्रैलमई 2019 में भारत में 17वीं लोकसभा के चुनाव हुए। इन चुनावों में भारतीय जनता पार्टी को नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में पूर्ण बहुमत प्राप्त हुआ। पंडित नेहरू और इंदिरा गांधी के बाद यह तीसरा मौका था जब सत्ता पक्ष दोबारा बहुमत के साथ लौटा हो। एनडीए गठबंधन को कुल 352 सीटें प्राप्त हुईं। भारतीय जनता पार्टी को अकेले 303 सीटें प्राप्त हुईं, जो साधारण बहुमत के लिए आवश्यक 272 सीटों से 31 अधिक थी। कांग्रेस को मात्र 52 सीटें ही मिल सकीं। लगातार दूसरी बार था जब कांग्रेस सदन में विपक्ष के लायक सीटें भी प्राप्त नहीं कर पाई।

विशेष – 
2019 के लोकसभा चुनावों में मोदी लहर मोदी सुनामी बन गई। उत्तर प्रदेश, गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश, बिहार, दिल्ली... हर जगह मोदी की अगुवाई में बीजेपी ने झंडे गाड़ दिए। तमाम गठबंधनों के अंकगणित मोदी-शाह की केमिस्ट्री के आगे बौने साबित हुए। उत्तर प्रदेश में राहुल गांधी अपनी पुश्तैनी सीट अमेठी को गंवा बैठे। समूचे यूपी में एकमात्र सोनिया की रायबरेली सीट ही कांग्रेस बचा पाई। सबसे बड़ा चमत्कार पश्चिम बंगाल में हुआ, जहां ममता के किले में बीजेपी ने सेंध लगा दी। यहां बीजेपी ने 18 सीटें जीत ली। आंध्र, तमिलनाडु और केरल को छोड़ दे तो, कोई भी राज्य हो, विपक्षों को मुंह की खानी पड़ी। ऐसा नहीं था कि 2014 की मोदी सरकार तमाम मोर्चों पर सफल रही थी। महंगाई, बेरोजगारी, नोटबंदी, जीएसटी, संस्थाओं पर एकाधिकार, रफाल, सीबीआई विवाद, सुप्रीम कोर्ट का विवाद, एनपीए, नीतियां, योजनाएं समेत कई मुद्दे सरकार के सामने समस्या बनकर खड़े थे। लेकिन पाकिस्तान, सर्जिकल स्ट्राइक, आतंकवाद, हिंदुत्व, राष्ट्रवाद के आगे सारी विफलताएँ बौनी साबित हुई। मोदी-शाह की जोड़ी पिछले लोकसभा चुनावों की तुलना में इस बार ज्यादा ताकतवर बनकर उभरी। कहा जा सकता है कि इस चुनाव में कुछ नहीं चला, बस मोदी ही चले।
 
(इंडिया इनसाइड, एम वाला) Last Update on May 30 2019