शहीद-ए-आज़म भगत सिंह। हम भगत सिंह को एक क्रांतिकारी के चश्मे से ही देखा करते
हैं। लेकिन उनकी लेखनी, उनके विचार को पढ़कर दुनिया के कई बुद्धिजीवियों ने माना है कि 20-22 साल की उम्र
में भगत सिंह के पास जो वैचारिक शक्ति थी, वो किसी चमत्कार से कम नहीं थी। मैं नास्तिक
क्यों हूँ लेख लिखने वाले भगत सिंह अपनी वैचारिक प्रतिभा के बल पर आस्था और धर्म से
भी परे चले जाते हैं। क्रांति के विषय पर उनके द्वारा लिखा गया लेख क्रांति को लेकर
जनमानस में जो छवि है उसे पलट देता है। उनके लेख, उनकी किताबें तथा
उनके विचार उन्हें एक परिपक्व क्रांतिकारी के रूप में रेखांकित करते हैं।
भगत सिंह के ख़िलाफ़ अदालत में दो मामले ब्रितानी हुकूमत ने चलाए थे। इस ऐतिहासिक अवधि के दौरान जो घटनाचक्र
चला, इससे हमें भगत सिंह तथा उनकी क्रांति की परिभाषा को ज़्यादा सलीक़े से समझने का
मौक़ा मिलता है।
भगत
सिंह पर कोर्ट में चले थे ये दो मामले
भगत सिंह और उनके साथियों पर कोर्ट में दो मामलों को लेकर ट्रायल चला था। पहला था दिल्ली असेम्बली बम धमाके का
मामला, और दूसरा था सांडर्स हत्या का मामला। दिल्ली बम धमाके मामले में उन्हें आजीवन क़ैद की सज़ा सुनाई गई थी, जबकि सांडर्स हत्या मामले में उन्हें फांसी की सज़ा दी गई
थी।
दिल्ली
असेम्बली बम धमाके का मुक़दमा
8 अप्रैल 1929 को भगत सिंह और बटुकेश्वर
दत्त ने असेम्बली में बम फेंका था और वहीं अपनी गिरफ़्तारी दे दी थी। उनका मक़सद था अदालत
को मंच बनाकर अपने क्रांतिकारी विचारों का प्रसार करना। दस्तावेज़ बताते हैं कि
भगत सिंह ने असेंबली में बम फेंकने के बाद जो पर्चे फेंके थे उसमें लिखा था, “किसी आदमी को मारा जा सकता है, लेकिन विचार को नहीं।”
उन्होंने “बड़े साम्राज्यों का पतन हो जाता है, लेकिन विचार हमेशा जीवित रहते हैं” और “बहरे हो
चुके लोगों को सुनाने के लिए ऊँची आवाज़ ज़रूरी है” जैसी बातें भी
पर्चों में लिखी थीं।
इतिहासकार कहते हैं कि ये मुक़दमा इसलिए भी अभूतपर्व था क्योंकि इसमें क़ानूनी न्याय तो दूर की बात थी, किंतु न्याय के
प्राकृतिक सिद्धांत को भी तिलांजलि दे दी गई थी, जिसके तहत हर अभियुक्त को अपना पक्ष
रखने का अवसर दिया जाता है। बताते हैं कि सरकार ने एक अध्यादेश निकालकर ऐसे अधिकार
हासिल कर लिए थे, जिसकी मदद से वो गवाही के सामान्य नियमों और अपील के अधिकार के
बिना भगत सिंह और उनके साथियों पर मुक़दमा चला सकती थी। इसी नीति के तहत तमाम विरोधी
स्वरों और गाँधीजी के आग्रह के बावजूद 23 मार्च 1931 को तीनों को सांडर्स मामले
को लेकर फाँसी पर लटका दिया गया।
प्राथमिकी जाँच के पश्चात 7 मई,
1929 के दिन इसकी शुरुआत हुई। उन्हें सेशन जज के सामने पेश किया गया और उन पर
आईपीसी धारा 307 तथा विस्फोटक पदार्थ अधिनियम के तहत मामला शुरू हुआ। ये ट्रायल
जून में शुरू हुआ। भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने 6 जून के दिन ऐतिहासिक बयान दर्ज
करवाया था। मई के महीने में जाँच के बाद जून के पहले हफ़्ते में उन पर केस चला। बटुकेश्वर
दत्त की तरफ़ से आसफ अली वकील थे। जबकि
भगत सिंह ने एक क़ानूनी सलाहकार की मदद से अपनी बात ख़ुद रखी। 12 जून के दिन, यानी की एक सप्ताह के
भीतर, भगत सिंह और दत्त दोनों को अपराधी माना गया और आजीवन क़ैद की सज़ा सुनाई गई।
सांडर्स हत्या
का मुक़दमा (लाहौर षड्यंत्र केस / ट्रायल ऑफ़ भगत
सिंह)
दिल्ली असेम्बली बम धमाके मामले
के साथ साथ उन पर सहायक पुलिस अधीक्षक जॉन पी
सांडर्स हत्या का मुक़दमा चल रहा था। हालाँकि उन पर सांडर्स
हत्या का शक दिल्ली बम धमाके के पहले से ही था। बाद में उन पर आरोप तय किए गए।
कुछ लेख कहते हैं कि इसी मामले को लेकर चन्द्रशेखर आज़ाद ने भगत सिंह को असेम्बली में बम फेकने से रोका था,
क्योंकि उन्हें डर था कि सांडर्स की हत्या के इल्ज़ाम में भगत सिंह को फांसी भी हो सकती
है।
इस बीच दिल्ली बम असेम्बली धमाके
मामले में भगत सिंह को आजीवन क़ैद की सज़ा सुनाई गई। भगत सिंह की इस सज़ा पर सांडर्स और हवलदार
चानन सिंह की हत्या का ट्रायल चलने तक रोक लगा दी गई, और उन्हें दिल्ली से लाहौर की मियानवाली
जेल में ट्रांसफर कर दिया गया। मियानवाली जेल में क़ैदियों के प्रति अमानवीय व्यवहार
को लेकर भगत सिंह ने भूख हड़ताल शुरू कर दी। उनका वजन 6.4 किलो तक कम हो गया।
असेम्बली में ये मुद्दा उठा। नेहरू और जिन्ना ने भी आवाज़ उठाई।
भगत सिंह को लाहौर की ही बोर्स्टल
जेल भेज दिया गया और सांडर्स की हत्या केस का ट्रायल 10 जुलाई 1929 को शुरू हुआ। हालाँकि
भगत सिंह ने अपनी भूख हड़ताल 116 दिन के बाद 5 अक्टूबर 1929 को तोड़ी थी। उनके ख़िलाफ़ गवाही देने वाले जय गोपाल पर जब भगत सिंह के साथी प्रेम दत्त वर्मा ने कोर्ट में चप्पल
फेंक दी तो जज ने आदेश दिया कि कोर्ट में सबके हाथों में हथकड़ियाँ होनी चाहिए।
क्रांतिकारियों ने हथकड़ियाँ पहनने
से मना कर दिया तो उन्हें पीटा गया। जज ने कहा कि आरोपियों को बिना कोर्ट में लाए भी
केस चलेगा। बाद में ये केस लाहौर षड्यंत्र केस भी उस जज से लेकर तीन सीनियर जजों के
ट्रिब्यूनल को सौंप दिया गया। 5 मई 1930 से शुरू हुआ ये ट्रायल 30 सितम्बर 1930 को
ख़त्म हुआ। जल्दी इसलिए भी थी, क्योंकि ये ट्रिब्यूनल, जो वायसराय के अध्यादेश से बना
था, इसको ना तो सेंट्रल असेम्बली की मंजूरी मिली थी और ना ही ब्रिटिश पार्लियामेंट
ने पास किया था।
7 अक्टूबर 1930 वो तारीख़ थी, जिस दिन इस ट्रिब्यूनल ने भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को सांडर्स और चानन की
हत्या का दोषी ठहराते हुए फांसी की सज़ा का एलान किया था। अजय घोष, जतिन्द्रनाथ सान्याल
और देश राज को बरी कर दिया गया। कुंदनलाल को 7 साल का सश्रम कारावास और प्रेम दत्त
को पाँच साल की सज़ा मिली। जबकि बाकी सातों किशोरी लाल, महावीर सिंह, बिजॉय कुमार सिन्हा, शिव वर्मा, गया प्रसाद, जय देव और कमलनाथ तिवारी को आजीवन कारावास
की सज़ा दी गई।
14 फ़रवरी 1931 को मदन मोहन मालवीय
ने फांसी से ठीक 41 दिन पहले एक मर्सी पिटीशन ब्रिटिश भारत के वायसराय लॉर्ड इरविन
के दफ़्तर में डाली, जिसको इरविन
ने ख़ारिज कर दिया। भगत सिंह की फांसी को लेकर 14 फ़रवरी का ज़िक्र कई समूहों द्वारा
किया जाता है, जबकि 14 फ़रवरी का महत्व इतना ही था कि उस दिन कांग्रेस अध्यक्ष का
मर्सी पिटीशन ख़ारिज कर दिया गया था।
भगत
सिंह को फांसी
भगत सिंह और उनके साथियों को
फांसी की सज़ा तथा सज़ा की सुनवाई को लेकर काफ़ी विवाद रहे हैं। जैसे कि उन्हें फांसी की सज़ा 14 फ़रवरी को सुनाई गई थी वगैरह वगैरह। या फिर कभी उनकी फांसी की
रस्सी को लेकर चित्र-विचित्र बातें कह दी जाती हैं। कभी आप कह सकते हैं कि मनगढ़ंत इतिहास भी बना दिए गए हैं। लेकिन जितने भी आधिकारिक और ऐतिहासिक तथ्य हैं, जिसमें
भगत सिंह के कोर्ट में चले मामले की तारीखें, फ़ैसले, दस्तावेज़ तथा उनके साथियों के
द्वारा की गई बातें, कथन, पत्र या लिखी गई पुस्तकें, सारी चीज़ों को मिला ले तो कहानी
वही लगती है, जो प्रचलित रही है।
दिनांक 26 अगस्त, 1930 को
अदालत ने भगत सिंह को भारतीय दंड संहिता की धारा 129, 302 तथा
विस्फोटक पदार्थ अधिनियम की धारा 4 और 6एफ तथा आईपीसी की धारा 120 के अंतर्गत अपराधी
सिद्ध किया था। 7 अक्टूबर, 1930 को अदालत के द्वारा 68 पृष्ठों का निर्णय
दिया गया था, जिसमें भगत सिंह, सुखदेव
तथा राजगुरु को फांसी की सज़ा सुनाई गई। तीन शहीदों के अलावा उनके 12 साथियों को उम्रक़ैद की सज़ा दी गई। फांसी की सज़ा सुनाए जाने के साथ ही लाहौर में धारा 144 लगा दी गई। इसके
बाद भगत सिंह की फांसी की माफ़ी के लिए प्रिवी परिषद में अपील दायर की गई। परन्तु यह
अपील 10 जनवरी, 1931 को रद्द कर दी गई। इसके बाद तत्कालीन
कांग्रेस अध्यक्ष पं. मदन मोहन मालवीय ने वायसराय के सामने सज़ा माफ़ी के लिए 14 फ़रवरी, 1931 को
अपील दायर की कि वह अपने विशेषाधिकार का प्रयोग करते हुए मानवता के आधार पर फांसी की
सज़ा माफ़ कर दें। महात्मा गाँधी ने इस विषय को लेकर 17 फ़रवरी 1931 को वायसराय से बात
की। फिर 18 फ़रवरी, 1931 को आम जनता की ओर से भी वायसराय के
सामने विभिन्न तर्कों के साथ सज़ा माफ़ी के लिए अपील दायर की। हालाँकि यह सब कुछ भगत सिंह
की इच्छा के ख़िलाफ़ हो रहा था, क्योंकि भगत सिंह नहीं चाहते थे कि उनकी सज़ा माफ़ की जाए।
23 मार्च 1931 को शाम क़रीब 7
बजकर 33 मिनट पर भगत सिंह तथा इनके दो साथियों सुखदेव व राजगुरु को फाँसी दे दी गई।
फाँसी पर जाने से पहले वे लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे, और जब उनसे उनकी आख़िरी इच्छा पूछी
गई तो उन्होंने कहा कि वह लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे और उन्हें वह पूरी करने का समय
दिया जाए। कहा जाता है कि जेल के अधिकारियों ने जब उन्हें यह सूचना दी कि उनके फाँसी
का वक्त आ गया है तो उन्होंने कहा था- "ठहरिये! पहले एक क्रांतिकारी दूसरे से
मिल तो ले।" फिर एक मिनट बाद किताब छत की ओर उछाल कर बोले - "ठीक है अब चलो।"
फांसी के समय जो कुछ आधिकारिक लोग
शामिल थें, उनमें यूरोप के डिप्टी कमिश्नर भी थे। जितेंदर सान्याल की लिखी किताब
'भगत सिंह' के मुताबिक़ ठीक
फांसी पर चढ़ने के पहले के वक्त भगत सिंह ने उनसे कहा, “मिस्टर मजिस्ट्रेट
आप बेहद भाग्यशाली हैं कि आपको यह देखने को मिल रहा है कि भारत के क्रांतिकारी किस तरह
अपने आदर्शों के लिए फांसी पर भी झूल जाते हैं।”
फांसी से पहले साथियों को भगत
सिंह का अंतिम पत्र
फांसी से पहले साथियों को भगत सिंह
का अंतिम पत्र भी वेबसाइट पर उपलब्ध है, जो 22 मार्च 1931 के दिन लिखा गया था।
यानी की 14 फ़रवरी 1931 के दिन उन्हें फांसी दी गई थी ये तथ्य भी ख़ुद-ब-ख़ुद कमज़ोर या झूठा साबित होता है। 22 मार्च 1931 के दिन भगत सिंह द्वारा लिखा गया अंतिम पत्र सार्वजनिक है। हालाँकि कई लोग इस पत्र के बारे में कहते हैं कि पत्र सच्चा है, लेकिन उसकी
तारीख़ गढ़ी गई है। लेकिन कम से कम तथ्यों और संदर्भों के आधार पर इस पत्र की तारीख़ 22
मार्च, 1931 ही सिद्ध होती रही है।
ऐसे
भारत पहुंचे थे दस्तावेज़
9 अगस्त, 2009 को आर्य समाज की परंपरा से जुड़े पाकिस्तान
सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त जज खलीलुर्रहमान रमदे अपने अन्य साथियों के साथ शहीद-ए-आज़म
भगत सिंह के गुरु जयचंद विद्यालंकार के स्मृति अवशेष देखने गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय
आए थे। तब आर्य समाज की इंडिया सोसायटी ने उनसे भगत सिंह व उनके साथियों के ट्रायल से
जुड़े दस्तावेज़ उपलब्ध कराने का आग्रह किया था। खलीलुर्रहमान के प्रयासों से ही कुछ
समय बाद 1659 प्रतियों का यह दस्तावेज़ विश्वविद्यालय को प्राप्त हुआ था, जो अब विवि
के पुरातत्व संग्रहालय में सुरक्षित है।
बताया जाता है कि दस्तावेज़ में
जजों के फ़ैसले सहित कई सारी चीज़ें फारसी में लिखी गई थीं, जबकि अन्य बातें अंग्रेज़ी भाषा में थीं। गुरुकुल प्रशासन की ओर से ट्रायल का हिंदी अनुवाद कराने की शुरुवात भी
की गई थी, लेकिन बाद में पूरी प्रक्रिया पर ब्रेक लग गया। वर्ष 2009 में लाहौर हाईकोर्ट
में याचिका दायर कर ट्रायल की सत्यापित प्रतिलिपि हासिल की गई थी। वर्ष 2012 में गुरुकुल
कांगड़ी विश्वविद्यालय की ओर से उर्दू और अंग्रेज़ी में उपलब्ध कोर्ट ट्रायल का हिंदी
में अनुवाद कराने का काम शुरू कर दिया गया था।
विश्वविद्यालय की योजना इसे तीन खंडों
में प्रकाशित करने की थी। तब उम्मीद बंधी थी कि शहीद-ए-आज़म सरदार भगत सिंह पर लाहौर
कोर्ट में चले केस की कार्यवाही देशवासियों को हिंदी में पढ़ने को मिलेगी। प्रतिलिपि
के हिंदी अनुवाद के लिए पाकिस्तान के एक विद्वान की मदद ली गई। उन्होंने क़रीब दो साल
तक विश्वविद्यालय में रहकर प्रतिलिपि के हिंदी अनुवाद का काम भी किया।
गुरुकुल कांगड़ी विवि के कुलपति डॉ.
सुरेंद्र कुमार की ओर से कोर्ट ट्रायल के हिंदी अनुवाद और प्रकाशन की औपचारिकताओं पर
विश्वविद्यालय के संबंधित अधिकारियों से जानकारी ली गई। रिकार्ड खंगाला गया तो पता
चला कि लाहौर हाईकोर्ट की ओर से लगाई गई शर्त के चलते इसका अनुवाद और प्रकाशन नहीं
हो सकता है। वर्तमान में कोर्ट ट्रायल की प्रतिलिपि
को गुरुकुल कांगड़ी विवि की ओर से पुरातत्व संग्रहालय में रखा गया है। विवि परिसर स्थित
संग्रहालय में किसी भी कार्यदिवस में प्रतिलिपि को देखा जा सकता है।
भारत
के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जारी किए गए दस्तावेज़ की बातें
जब भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने
भारत की न्यायिक व्यवस्था के इतिहास के नींव के पत्थरों को प्रदर्शित करने के लिए एक संग्रहालय शुरू किया, उसी वक्त कोर्ट ट्रायल के कुछ ऐतिहासिक रेकर्ड भी
प्रदर्शित किए गए थे। सबसे पहली प्रदर्शनी हुई थी, जिसका नाम था - ट्रायल ऑफ़ भगत सिंह। 28 सितम्बर 2007 के दिन ये प्रदर्शनी शुरू हुई। ये वही दिन था जब 28
सितम्बर 1907 में पंजाब के जिला लायलपुर में बंगा गाँव (जो अब पाकिस्तान में है) में
भगत सिंह का जन्म हुआ था।
इस प्रदर्शनी के लिए म्यूजियम
के क्यूरेटर नुरुल हुडा और नेशनल अर्चिव ऑफ़ इंडिया के राजामानी श्रीवास्तव ने मिलकर
दस्तावेज़ जुटाए थे, जिनमें काग़ज़ी दस्तावेज़ों के अलावा बम सेल, फ़ोटो और कुछ प्रकाशन
भी शामिल थे। सन 2008 में सर्वोच्च न्यायालय ने इस प्रदर्शनी को डिजिटल किया। इस
वजह से भगत सिंह के कई अनछुए लेख प्रदर्शनी में आए। ये लेख 23 मार्च, 1931 के दिन
तक के थे, जब भगत सिंह लाहौर सेंट्रल जेल में राजगुरु व सुखदेव के साथ थे। दोनों मामलों में ऊपर लिखी गई बातें इन्हीं दस्तावेज़ों में दर्ज तथ्यों पर आधारित हैं।
अब तक भगत सिंह और उनके साथियों
से संबंधित जितने भी आधिकारिक दस्तावेज़ हैं, कोर्ट ट्रायल के जो तथ्य हैं, और इसके
अलावा भगत सिंह या उनके साथियों द्वारा लिखे गए लेख या किताबें हैं, उसे आधार माना
जाए तो 14 फ़रवरी के दिन भगत सिंह की फांसी की बात या फिर भगत सिंह की फांसी की
रस्सी और गाँधीजी की बकरी की रस्सी को लेकर की जा रही बातें आधारहिन ही साबित होती
हैं।
पाकिस्तान
ने दबा रखे हैं असेंबली बम कांड के दस्तावेज़?
आज़ादी की जंग में ब्रिटिश हुकूमत
की चूलें हिला देने वाले शहीद-ए-आज़म भगत सिंह व उनके दो अन्य साथियों पर लाहौर हाईकोर्ट
में चले ट्रायल से जुड़ी 1,659 प्रतियों को एक पाकिस्तानी दल के लंबे प्रयासों के बाद
वर्ष 2009 में हरिद्वार के गुरुकुल कांगड़ी विवि के पुरातत्व संग्रहालय में सुरक्षित
कर लिया गया था। लेकिन अध्ययन के दौरान दावा किया गया कि इनके अलावा भी 50 प्रतियाँ और उपलब्ध कराई जानी थीं, जिन्हें पाक सरकार ने जानबूझकर छिपा दिया। हालाँकि बताया गया
कि इंडिया सोसायटी विवि पुरातत्व संग्रहालय और सरकार की ओर से इन प्रतियों को भारत
लाने को प्रयास किए जा रहे हैं।
कहा जाता है कि लाहौर हाईकोर्ट में
चले ट्रायल से संबंधित इन 50 प्रतियों में उन तीन गवाहों के भी नाम हैं, जिन्होंने भगत सिंह समेत दो अन्य साथियों
के ख़िलाफ़ गवाही दी थी। इनके रिश्तेदार अब पाकिस्तान में महत्वूपर्ण पदों पर क़ाबिज़ हैं। यही
वजह है कि पाक सरकार इन प्रतियों को उपलब्ध कराने में आनाकानी कर रही है। बता दे
कि इन 50 प्रतियों के लिए जो चीज़ें कही जाती हैं वो सब बातें दावे हैं। हो सकता है कि
ये दावे सच भी हो। लेकिन वो प्रति फ़िलहाल भारत से बाहर है।
भगत
सिंह... क्रांति की नयी परिभाषा लिखने वाले शहीद-ए-आज़म
दिल्ली असेम्बली बम धमाके मामले
में 6 जून 1929 के बयान से उनके कॉमरेड को लिखे गए आख़िरी पत्र तक भगत सिंह ने जेल
में काफ़ी कुछ पढ़ा और लिखा था। भगत सिंह ने अपना आख़िरी पत्र 22 मार्च 1931 के दिन
लिखा था।
असेम्बली बम धमाके में कोर्ट का
फ़ैसला आ चुका था और उन्हें आजीवन क़ैद की सज़ा सुनाई गई थी। अभी सांडर्स हत्या
मामला उन पर चल रहा था। असेम्बली मामले में कोर्ट के फ़ैसले के बाद 14 जून के दिन
भगत सिंह को मियानवाली ले जाया गया, जबकि दत्त को लाहौर जेल भेजा गया। यह जेल में
उनके संघर्ष की शुरुआत थी। ये संघर्ष हिंसक नहीं, बल्कि वैचारिक था। अपनी बात को
भारत के जनजन तक पहुंचाने के लिए इस क्रांतिकारी ने क्रांति के सही मायने को छू
लिया था। 15 जून के दिन भगत सिंह और दत्त दोनों ने भूख हड़ताल शुरू की। उनकी मांग थी
कि उन्हें राजनीतिक क़ैदी के तौर पर देखा जाए। कुछ दिनों बाद मियानवाली से भगत सिंह
को भी लाहौर जेल में भेज दिया गया। वहाँ उन्हें और दत्त को सुखदेव और अन्य क़ैदियों से
अलग रखा गया था। उनकी भूख हड़ताल के बारे में अन्य क़ैदियों को सूचना तक नहीं मिली थी।
15 जून से भूख हड़ताल पर बैठे भगत सिंह को कोर्ट में स्ट्रेचर पर ले जाया गया। यह वो
ही दिन था जब उनके अन्य साथियों को इस बात की जानकारी मिली और वो भी उनके इस अनशन
में जुड़ गए।
भगत सिंह और उनके साथियों द्वारा
किया गया ये अनशन 64 दिनों तक जारी रहा। इस असह्य पीड़ा और संधर्ष के दौरान 13
सितम्बर, 1929 के दिन उनके साथी यतीन्द्र दास का निधन हो गया। कहते हैं कि भगत और
उनके साथियों ने 2 सितम्बर, 1929 के दिन कांग्रेस पार्टी के दल और ब्रिटिश
अधिकारियों की ओर से उनकी मांगपूर्ति के बारे में ठोस आश्वासन मिलने के बाद अपना
अनशन समाप्त कर दिया था। लेकिन जब उन्हें पता लगा कि ब्रिटिश अधिकारी अपने आश्वासन
पर क़ायम नहीं रहना चाहते, तो 4 सितम्बर 1929 के दिन इन लोगों ने अपना अनशन फिर शुरू कर दिया था। 116 दिन लंबे अनशन का अंत 4 अक्टूबर, 1929 के दिन हुआ। हालाँकि उन्हें राजनीतिक क़ैदी नहीं माना गया था, लेकिन अन्य मांगें पूरी की गई थीं।
लाहौर मामले (सांडर्स हत्या) का
ट्रायल, जिसे स्पेशल मजिस्ट्रेट राव साहिब पंडित किशन चंद संभाल रहे थे, के
दौरान 21 अक्टूबर 1929 के दिन एक वाक़या हुआ। जय गोपाल और प्रेम दत्त नाम के दो
युवा साथियों ने मजिस्ट्रेट के सामने चप्पल फेंकी। इन दोनों के इस गुस्से की सज़ा सभी साथियों को मिली। मजिस्ट्रेट ने सभी के हाथ बांध देने का आदेश सुना दिया।
भगत सिंह, शिव वर्मा, बटुकेश्वर दत्त, बिजोय कुमार सिंहा, अजोय घोष, प्रेम दत्त और
अन्य साथियों ने जब इस आदेश का विरोध किया तो उन्हें बुरी तरह से पीटा गया।
दस्तावेज़ों के मुताबिक़ उसके बाद उन्हें जेल में ख़ूब यातनाएँ दी गई। अजोय घोष और शिव
वर्मा गंभीर रूप से ज़ख़्मी हुए।
पुलिस की इस यातना को बिजोय
कुमार सिंहा ने लिखा है। फ़रवरी 1930 के दौरान भगत सिंह ने 15 दिनों तक एक और अनशन
किया। क्योंकि ब्रिटिश अधिकारियों ने उनसे जो वादे किए थे, या उनकी मांगपूर्ति
के जो आश्वासन दिए थे, उन्हें पूरा नहीं किया जा रहा था।
हम सोचेंगे कि ये सब जेल में गोपनीय तरीक़े से चल
रहा था, लेकिन ऐसा धड़ल्ले से कहना बेईमानी होगी। भगत सिंह मामले को लेकर देश का एक
बड़ा तबका इस ट्रायल की पलपल की ख़बरें ले रहा था। हालाँकि कई चीज़ें और कई विषय लोगों से छुपाए जा रहे थे। लेकिन भगत सिंह और उनके साथियों द्वारा किया गया लंबा अनशन, कोर्ट में
उनके बयान से लेकर अन्य कई चीज़ों ने ब्रिटिशरों के ख़िलाफ़ लोगों का गुस्सा और भड़का
दिया था। क्रांति की चिनगारी भारत में ज्वाला बनकर धधकने लगी थी। ऐतिहासिक दस्तावेज़
बताते हैं कि यह मामला भारत की सरहदों को लांधता हुआ दुनिया में पहुंच चुका था।
दिल्ली बम धमाके के फ़ैसले के ख़िलाफ़ भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त की अर्जी ख़ारिज की जा चुकी थी, वहीं लाहौर की
पंजाब हाईकोर्ट ने भगत सिंह को ‘प्रमाणिक क्रांतिकारी’ के
रूप में रेखांकित किया था। भावना, उत्साह या आवेश से भी आगे निकलकर ये शहीद-ए-आज़म
दरअसल क्रांति की परिपक्व भाषा लिखने वाला वो हिंदुस्तानी है, जो हमेशा सभी के दिल-ओ-दिमाग़ को भारत की मिट्टी से जोड़ता रहा।
हम भगत सिंह को एक क्रांतिकारी के
चश्मे से ही देखा करते हैं। लेकिन उनकी लेखनी, उनके विचार को पढ़कर दुनिया के कई
बुद्धिजीवियों ने माना है कि 20-22 साल की उम्र में भगत सिंह के पास जो वैचारिक शक्ति
थी, वो किसी चमत्कार से कम नहीं थी। भगत सिंह ने अपने स्वजनों, मित्रों, जेल और कोर्ट
के कर्मी को कई पत्र लिखे थे।
नेहरू और बोस के बारे में भी उन्होंने तुलनात्मक लेख लिखा था। युवा राजकीय कार्यकर्ताओं के प्रति लिखा गया उनका
सबसे प्रचलित लेख “मैं नास्तिक क्यों हूँ” तथा
जेल में लिखे गए कई लेख उनके उच्च वैचारिक प्रतिभा के सबूत हैं। भगत सिंह द्वारा
क्रांति के विषय में लिखा गया लेख क्रांति और हिंसा को लेकर जनमानस में जो छवि है
उसे पलट देता है। असेम्बली में उस जगह बम फेंकना जहाँ किसी को हानि ना पहुंचे और
बिना किसी विरोध के अपनी गिरफ़्तारी देना, बाद में बम फेंकने को बेहरी अंग्रेज़ सरकार
के कान खोलने से जोड़ना और इंक़लाब की नयी परिभाषा, या यूँ कहे कि बेहतर समझ लोगों के
ज़ेहन में डालना, काफ़ी कुछ चीज़ें ऐसी थीं, जो भगत सिंह को उच्च वैचारिक शख़्सियतों की
अग्रीम पंक्ति में शुमार करती हैं।
उनके द्वारा लिखी गई किताबें, लेख
तथा उसके विषय व विषयों के विचार युवा भगत सिंह को एक परिपक्व क्रांतिकारी के रूप
में रेखांकित करते हैं। उन्होंने सदैव प्रयत्न किए कि क्रांति को केवल और केवल हिंसा
की परिभाषा से दूर रखा जाए। ये वाक़ई संयोग था कि हम ज़्यादातर गाँधी की अंहिसा और
भगत सिंह की क्रांति को केवल एक ही चश्मे से देखते हैं। उस दौर के दोनों महान नायकों ने अपने अपने तरीक़े से हिंसा और अंहिसा के वो उच्चतम मानदंड तय किए थे कि आज
लगता है कि हमने इन नायकों को समझने में अन्याय ही किया है।
(इनक्रेडिबल इंडिया, 5 मार्च
2014, एम वाला)
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