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Field Marshal Cariappa: पहले कमांडर इन चीफ और दूसरे फील्ड मार्शल करिअप्पा, जिन्हें पाकिस्तानी सैनिक भी करते थे सलाम

 
फ़ील्ड मार्शल के एम करिअप्पा। पूरा नाम कोडंडेरा मडप्पा करिअप्पा। भारत के पहले कमांडर इन चीफ़। 15 जनवरी 1949 से 14 जनवरी 1953 तक इन्होंने भारतीय सेना का नेतृत्व किया। उन दिनों सेना का नेतृत्व करने वाले के लिए कमांडर इन चीफ़ पद था, जिसे 1955 में बदलकर सेनाध्यक्ष किया गया।
 
सन 1986 में इन्हें फ़ील्ड मार्शल के पद से अलंकृत किया गया और इस तरह वे फ़ील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ के बाद भारतीय सेना के दूसरे अधिकारी हैं, जिन्हें इस पद से सम्मानित किया गया हो। भारतीय सेना के इतिहास में अब तक सिर्फ़ इन दो अधिकारियों को ही फ़ील्ड मार्शल का सम्मान हासिल है।
 
करिअप्पा भारतीय सेना के पहले कमांडर इन चीफ़ थे। उनको 'किपर' के नाम से भी पुकारा जाता रहा। कहा जाता है कि जब वो फ़तेहगढ़ में तैनात थे तो एक ब्रिटिश अफ़सर की पत्नी को उनका नाम लेने में बहुत दिक्कत होती थी, इसलिए उन्होंने इन्हें 'किपर' पुकारना शुरू कर दिया। और बाद में यही नाम से सभी इन्हें बुलाने लगे।
 
28 जनवरी 1899 के दिन कर्नाटक के कोडागु ज़िले के कूर्ग प्रांत में इनका जन्म हुआ। आर्मी ट्रेनिंग स्कूल से ट्रेनिंग पूरी होने के बाद साल 1919 में इन्हें सेना में कमीशन मिला और भारतीय-ब्रिटिश सेना की राजपूत रेजिमेंट में सेकेंड लेफ़्टिनेंट के तौर पर इनकी तैनाती की गई।
 
वे 1953 में सेवानिवृत्त हुए, फिर भी किसी न किसी रूप में भारतीय सेना को सहयोग देते रहे। 1986 में इन्हें फ़ील्ड मार्शल से सम्मानित किया गया और फ़ील्ड मार्शल उपाधि का व्यक्ति कभी रिटायर नहीं होता।
 
गाँव की औरतें दूर दूर से पानी लेकर आती दिखीं, तो तत्काल वहीं रूक कर कुआँ खुदवा दिया
करिअप्पा सैन्य अधिकारी थे, किंतु इन्हें पता था कि दुश्मनों के साथ बल का इस्तेमाल होता है, अपनों के साथ दिल का। वे सामाजिक सरोकार के पक्षधर थे।
 
1942 में करिअप्पा लेफ़्टिनेंट कर्नल का पद पाने वाले पहले भारतीय अफ़सर थे। 1944 में इन्हें ब्रिगेडियर बनाया गया और नवम्बर 1945 में इन्हें वज़ीरिस्तान में बन्नू फ़्रंटियर ब्रिगेड के कमांडर के तौर पर तैनात किया गया। यह पठान आदिवासियों का इलाक़ा था।
 
फ़ील्ड मार्शल करिअप्पा की जीवनी लिखने वाले मेजर जनरल वी के सिंह के मुताबिक़, "उन दिनों एक गाँव से गुज़रते हुए करिअप्पा ने देखा कि कुछ पठान औरतें अपने सिर पर पानी से भरे बड़े बड़े बर्तन ले कर जा रही हैं।"
 
"पूछताछ के बाद पता चला कि उन्हें रोज़ चार मील दूर दूसरे गाँव से पानी लेने जाना पड़ता है। करिअप्पा ने तुरंत उनके गाँव में कुआँ खुदवाने का आदेश दिया। पठान उनके इस काम से इतना ख़ुश हुए कि उन्होंने उन्हें 'ख़लीफ़ा' कहना शुरू कर दिया।"
 
बाद में जब यह क्षेत्र सांप्रदायिक संघर्ष से तबाह हो गया, तो करिअप्पा द्वारा उत्पन्न सद्भावना के कारण बन्नू शांति का आश्रय बना रहा। जब 1945 में अंतरिम सरकार के प्रमुख के रूप में जवाहरलाल नेहरू ने बन्नू का दौरा किया, तो करिअप्पा ने एक सार्वजनिक बैठक आयोजित की, जिसमें सभी आदिवासी नेताओं ने भाग लिया था।
 
जब ऊपरी आदेशों की अवहेलना कर लेह को भारत का हिस्सा बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई
नवम्बर
1947 में करिअप्पा को सेना के पूर्वी कमान का प्रमुख बना कर राँची में तैनात किया गया। इस बीच दो महीने के भीतर ही जैसे ही कश्मीर में हालत ख़राब हुए,न्हें लेफ़्टिनेंट जनरल डडली रसेल के स्थान पर दिल्ली और पूर्वी पंजाब का जीओसी इन चीफ़ बनाया गया।
 
वे करिअप्पा ही थे, जिन्होंने इस कमान का नाम 'पश्चिमी कमान' रखा। इन्होंने तुरंत कलवंत सिंह के स्थान पर जनरल थिमैया को जम्मू कश्मीर फ़ोर्स का प्रमुख नियुक्त किया। लेह जाने वाली सड़क तब तक नहीं खोली जा सकती थी, जब तक भारतीय सेना का जोज़ीला, द्रास और कारगिल पर कब्ज़ा नहीं हो जाता।
 
इन्होंने नौशेरा, झंगर, पुँछ, जोज़ीला, द्रास और कारगिल क्षेत्रों पर कब्ज़ा करने के लिए ऑपरेशन किपर, ईज़ी और बाइसन, शुरू किए। कश्मीर से पाकिस्तानी सेना को पूरी तरह से बाहर निकालने की योजनाएँ बनाई गईं, लेकिन अमेरिका के हस्तक्षेप से बाधाएँ उत्पन्न होने लगीं। 6 जुलाई 1948 को सेना मुख्यालय ने कोई भी बड़ा ऑपरेशन नहीं करने के लिए सख़्त निर्देश जारी किए।

 
करिअप्पा ने इसका विरोध करते हुए कहा कि इस नीति से लेह, कारगिल और अंततः कश्मीर घाटी को ख़तरा होगा, जिससे देश की सुरक्षा ख़तरे में पड़ जाएगी। करिअप्पा ने आक्रामक हमले जारी रखने के लिए दो ब्रिगेड की मांग की, लेकिन उन्हें केवल एक ब्रिगेड प्रदान की गई और कारगिल की तरफ़ बढ़ने की अनुमति दी गई। इन्होंने आदेशों की अवज्ञा की और लद्दाख क्षेत्र में हमले शुरू कर दिए, जिससे भारत इस क्षेत्र पर नियंत्रण स्थापित कर सका।
 
अगर इन्होंने ऐसा नहीं किया होता तो शायद आज लेह भारत का हिस्सा नहीं बना होता। उनकी बनाई गई योजना के तहत भारतीय सेना ने पहले नौशेरा और झंगर पर कब्ज़ा किया, और फिर जोज़ीला, द्रास और कारगिल से भी हमलावरों को पीछे धकेल दिया।
 
हमले का अंदेशा था फिर भी सैनिकों का मनोबल न टूटे इसलिए अपनी जीप से पदचिह्न हटाने से किया था इनकार
कमांडर का पद संभालने के बाद करिअप्पा ने नौशेरा का दौरा किया। यहाँ उस वक़्त 
50 पैराशूट ब्रिगेड का नियंत्रण था।
 
इन्होंने ब्रिगेड के कमांडर ब्रिगेडियर उस्मान से कहा, "वो उनसे एक तोहफ़ा चाहते हैं।"
 
उस्मान ने पूछा, "आप तोहफ़े में क्या लेना चाहेंगे?"
 
करिअप्पा का जवाब था, "मैं चाहता हूँ कि आप कोट पर कब्ज़ा करें।"
 
और उस्मान ने इस काम को सफलतापूर्वक अंजाम दिया। बाद में जब कबाइलियों ने नौशेरा पर हमला किया तो उसी रक्षा में कोट पर भारतीय सैनिकों के नियंत्रण ने बहुत बड़ी भूमिका निभाई।
 
उसी दौरान जीप से श्रीनगर से उरी जाते समय ब्रिगेडियर बोगी सेन ने करिअप्पा को सलाह दी कि जीप से झंडे और स्टार प्लेट हटा लिए जाएँ, ताकि दुश्मन उनकी जीप को पहचान कर स्नाइपर फ़ायर न कर सके।
 
मेजर जनरल वी के सिंह के मुताबिक़, "करिअप्पा ने ये कहते हुए इस सलाह को मानने से इनकार कर दिया कि इसका उनके सैनिकों के मनोबल पर बुरा असर पड़ेगा, जब वो देखेंगे कि उनके कमांडर ने डर की वजह से अपनी जीप से झंडे हटा लिए हैं।"
 
"बोगी सेन का अंदेशा सही निकला। उनकी जीप पर फ़ायर आया, लेकिन सौभाग्य से किसी को चोट नहीं लगी। लौटते समय भी उनकी जीप पर फिर फ़ायर किया गया, जिससे उसका एक टायर फट गया, लेकिन करिअप्पा पर इसका कोई असर नहीं हुआ।"
 
तोप का गोला आकर गिरा तो बोले- दुश्मन के गोले भी जनरल का सम्मान करते हैं, जब वायु सेना के अधिकारी मेहर सिंह को महावीर चक्र दिलवाया
एक और अवसर पर टिथवाल के दौरे के दौरान करिअप्पा अपनी सुरक्षा की परवाह किए बिना एक पहाड़ी पर चढ़ गए
, जिस पर कबाइली नज़र रखे हुए थे। उनके वहाँ से हटने के कुछ मिनटों के भीतर ही जहाँ वो खड़े हुए थे, उस स्थान पर तोप का एक गोला आकर गिरा।
 
बाद में करिअप्पा ने हँसते हुए कहा, "दुश्मन के गोले भी जनरल का सम्मान करते हैं।"
 
इसी अभियान के दौरान ही एयर कॉमोडोर मेहर सिंह पुँछ में हथियारों समेत डकोटा विमान उतारने में सफ़ल हो गए, वो भी रात में। कुछ समय बाद उन्होंने लेह में भी डकोटा उतारा, जिस पर जनरल थिमैया सवार थे।
 
मेहर सिंह जम्मू-कश्मीर ऑपरेशन (1947-1948) के दौरान आरआईएएफ के एयर कमांडिंग ऑफ़िसर थे। ऑपरेशन के दौरान मेहर सिंह ने हिमालय के ख़तरनाक और अज्ञात पहाड़ी मार्गों पर असाधारण प्रदर्शन दिखाया, साथ ही पुँछ में आपातकालीन स्थिति में बनाई गई हवाई पट्टी पर उतरने वाले और एयरलिफ्ट संचालन को आगे बढ़ाने वाले पहले अफ़सर बने, जिसके चलते हज़ारों शरणार्थियों को सुरक्षित निकाला जा सका।
 
करिअप्पा ने न सिर्फ़ मेहर सिंह को महावीर चक्र देने की सिफ़ारिश की, बल्कि ये भी सुनिश्चित किया कि ये सम्मान उन्हें मिले भी। मेहर सिंह के सम्मान में वर्तमान में वायु सेना द्वारा बचाव कार्यों के संबंध में मेहर बाबा पुरस्कार का आयोजन भी होता है।
 
पहले भारतीय कमांडर इन चीफ़, दो अधिकारियों को इस पद के लिए पेशकश हुई थी, दोनों ने करिअप्पा के प्रति सम्मान जताते हुए किया था इनकार, प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू के साथ रहे मतभेद
1946
में अंतरिम सरकार में रक्षा मंत्री रहे बलदेव सिंह ने उस समय ब्रिगेडियर के पद पर काम कर रहे नाथू सिंह राठौड़ को भारत का पहला कमांडर इन चीफ़ बनाने की पेशकश की थी।
 
करिअप्पा की जीवनी लिखने वाले ब्रिगेडियर चंद्र बी खंडूरी अपनी किताब Field Marshal KM Cariappa: His Life and Times में लिखते हैं, "नाथू सिंह ने विनम्रतापूर्व इस पेशकश को स्वीकार नहीं किया, क्योंकि उनका मानना था कि वरिष्ठ होने के कारण करिअप्पा का उस पद पर दावा अधिक बनता था।"
 
"नाथू सिंह के बाद राजेंद्र सिंहजी को भी ये पद देने की पेशकश हुई, लेकिन उन्होंने भी करिअप्पा के सम्मान में उस पद को स्वीकार नहीं किया। तब जा कर 4 दिसंबर, 1948 को करिअप्पा को सेना का पहला भारतीय कमांडर इन चीफ़ बनाया गया।"
 
उस समय करिअप्पा की उम्र थी 49 साल। ब्रिटिश शासन के 200 साल बाद पहली बार किसी भारतीय को भारतीय सेना की बागडोर दी गई थी। 15 जनवरी, 1949 को करिअप्पा ने इस पद को गृहण किया। तब से लेकर आज तक इस दिन को 'आर्मी डे' के रूप में मनाया जाता है।

 
करिअप्पा और प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू के बीच मतभेद के ऐतिहासिक क़िस्से जगज़ाहिर हैं। कहते हैं कि करिअप्पा नेहरू की पहली पसंद नहीं थे। वरिष्ठ होने के बावजूद करिअप्पा को नज़रअंदाज़ कर नाथू सिंह और फिर राजेंद्र सिंह को इस पद के लिए चुना गया, किंतु दोनों अधिकारियों ने ससम्मान करिअप्पा का नाम पेश कर प्रस्ताव को ठुकरा दिया।
 
श्रीनाथ राघवन अपनी किताब War and Peace in Modern India में लिखते हैं कि कुछ घटनाओं की वजह से ही मंत्रिमडल की रक्षा समिति बनाई गई थी, ताकि रणनीति के मामले में सिविल-मिलिट्री संबंधों को औपचारिक स्वरूप दिया जा सके।
 
इस विवाद पर किताबों को उड़ेलने के बाद मोटे तौर पर एक सर्वसामान्य जानकारी यही मिलती है कि आज़ादी के कुछ सालों बाद भारत के पहले सेना प्रमुख जनरल केएम करिअप्पा ने कई नीतिगत मामलों पर अपने विचार व्यक्त करना शुरू कर दिए थे। नेहरू ने तब उन्हें बुलाकर ऐसा करने के लिए टोका भी था।
 
करिअप्पा के बेटे की किताब तथा दूसरी कुछ किताबों के हवाले से, विशेषज्ञों के मीडिया वार्तालापों से एक बड़ा दावा यह मिलता है कि इस संभावना को दूर करने के लिए कि करिअप्पा रिटायर होने के बाद कहीं राजनीति में न उतर जाएँ, नेहरू ने उन्हें ऑस्ट्रेलिया में भारत का उच्चायुक्त बना कर भेज दिया था।
 
करिअप्पा फिर भी राजनीति में उतरे भी। यह कहा नहीं जा सकता कि वे नाराज़गी के चलते राजनीति की पारी खेल गए थे, या फिर उनकी निजी इच्छा थी। दरअसल इसके बाद करिअप्पा ने एक निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा था, जिसमें वो तीसरे क्रम पर आए थे।
 
अनुशासन प्रिय करिअप्पा, अपने बच्चों को भी नहीं करने दिया था ऑफ़िसर्स मेस में प्रवेश, भारतीय सेना को राजनीति से दूर रखा, हालाँकि विचार खुलकर व्यक्त करते रहे
करिअप्पा का सबसे बड़ा योगदान था कि उन्होंने भारतीय सेना को राजनीति से दूर रखा। हालाँकि वे ख़ुद नीतिगत मामलों में अपने विचार को व्यक्त कर देते थे। नीतिगत मामलों में खुलकर बोलने की करिअप्पा की आदत को लेकर प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू और इनके बीच मतभेद बने रहे। हालाँकि कहा जाता है कि करिअप्पा और नेहरू के बीच मतभेद पहले से रहे होंगे, क्योंकि इन्हें कमांडर इन चीफ़ बनने से रोकने के प्रयत्न भी हुए थे।
 
दूसरी तरफ़ करिअप्पा ने भारतीय सेना को राजनीति से दूर रखने की अपनी नीति को हमेशा अग्रीमता दी। शायद यही कारण था कि इन्होंने Indian National Army के सैनिकों को भारतीय सेना में लेने से इनकार कर दिया था। करिअप्पा का मानना था कि अगर वो ऐसा करते हैं, तो भारतीय सेना राजनीति से अछूती नहीं रह सकेगी।
 
अनुशासन का पालन करने में करिअप्पा का कोई सानी नहीं था। यही कारण था कि उनके नज़दीक़ी दोस्त भी उनसे आज़ादी लेने में थोड़े झिझकते थे। जब सशस्त्र बलों का नेतृत्व करने की बात आती थी, तो वह एक बहुत ही सख़्त जनरल थे, जैसा कि सैन्य नैतिकता के लिए आवश्यक था, और उन्होंने अपने इस सिद्धांत से समझौता नहीं किया।

 
मेजर जनरल वी के सिंह अपनी किताब Leadership in the Indian Army में लिखते हैं, "एक बार श्रीनगर में जनरल थिमैया, जो उनके साथ दूसरे विश्व युद्ध और कश्मीर में साथ काम कर चुके थे, उनके साथ एक ही कार में बैठ कर जा रहे थे। थिमैया ने सिगरेट जला कर पहला कश ही लिया था कि करिअप्पा ने उन्हें टोका कि सैनिक वाहन में धूम्रपान करना वर्जित है।"
 
"थोड़ी देर बाद आदतन जनरल थिमैया ने एक और सिगरेट निकाल ली, लेकिन फिर करिअप्पा की बात को याद करते हुए वापस पैकेट में रख दिया। करिअप्पा ने इसको नोट किया और ड्राइवर को आदेश दिया कि वो कार रोकें, ताकि थिमैया सिगरेट पी सकें।"
 
अपने रिटायरमेंट के पहले जनरल करिअप्पा ने राजपूत रेजीमेंटल सेंटर विज़िट किया। उनके साथ उनके दोनों बच्चे भी थे। लेकिन उन्होंने बच्चों को एक प्राइवेट कार में कमांडेट के घर पर भेज दिया। कारण था कि ऑफ़िसर्स मेस में बच्चों को जाने की अनुमति नहीं थी, और करिअप्पा नियम को तोड़ना नहीं चाहते थे। हालाँकि वह उस समय आर्मी चीफ़ थे।
 
जब सरकारी कार के निजी इस्तेमाल का पता लगा तो अपने वेतन से उसका बिल चुकाया
अपने अपने क्षेत्र में आइकॉन बने हर किसी व्यक्ति के जीवन में ऐसे क़िस्से मिलते हैं, जो आज के ज़माने में बिलकुल देखने नहीं मिलते।
 
फ़ील्ड मार्शल करिअप्पा के बेटे एयर मार्शल नंदू करिअप्पा (के सी करिअप्पा) अपने पिता की जीवनी में लिखते हैं, "एक बार जब मैं दिल्ली के नवीन भारत हाई स्कूल में पढ़ रहा था, एक दिन हमें लेने सेना का ट्रक स्कूल नहीं आ पाया। मेरे पिता के एडीसी ने मुझे स्कूल से वापस लेने के लिए स्टाफ़ कार भेज दी। मैं बहुत ख़ुश हो गया।"
 
"कुछ दिन बाद जब मेरे पिता नाश्ता कर रहे थे तो इस घटना का ज़िक्र हुआ। ये सुनते ही मेरे पिता आगबबूला हो गए और उन्होंने अपने एडीसी को लताड़ते हुए कहा कि सरकारी कार का किसी भी हाल में निजी इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए। उन्होंने फ़ौरन उसका बिल बनवाया और एडीसी से कहा कि इसे उनके वेतन से काट लिया जाए।"
 
जब करिअप्पा का बेटा युद्ध बंदी बना लिया गया, अयूब ख़ाँ ने तुरंत वापस भेजने का प्रस्ताव रखा तो तुरंत कर दिया था इनकार, कहा था- सभी युद्ध बंदी मेरे बेटे हैं
बात 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध की है। करिअप्पा रिटायर हो चुके थे। कर्नाटक के अपने गृहनगर मेरकारा में रह रहे थे। उनके बेटे के सी करिअप्पा (नंदू करिअप्पा) भारतीय वायुसेना में फ्लाइट लेफ़्टिनेंट थे, और इस युद्ध में लड़ रहे थे।
 
इस युद्ध में करिअप्पा के बेटे नंदू करिअप्पा का युद्धक विमान पाकिस्तान में मार गिराया गया। उन्हें युद्ध बंदी बना लिया गया।
 
एयर मार्शल नंदू करिअप्पा बीबीसी को बताते हैं, "पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल अयूब ख़ाँ और मेरे पिता के बीच बहुत दोस्ती थी, क्योंकि 40 के दशक में अयूब उनके अंडर में काम कर चुके थे। मेरे पकड़े जाने के बाद रेडियो पाकिस्तान से ख़ास तौर से ऐलान करवाया गया कि मैं सुरक्षित हूँ और ठीक ठाक हूँ।"
 
"एक घंटे के अंदर दिल्ली में पाकिस्तान के उच्चायुक्त ने मेरे पिता से टेलिफ़ोन पर बात की और कहा अयूब ख़ाँ ने उन्हें संदेश भिजवाया है कि अगर आप चाहें तो वो आपके बेटे को तुरंत भारत वापस भेज सकते हैं। तब मेरे पिता ने जवाब दिया था, 'सभी भारतीय युद्धबंदी मेरे बेटे हैं। आप मेरे बेटे को उनके साथ ही छोड़िए।' यही नहीं, जब मैं रावलपिंडी की जेल में बंद था, तो बेगम अयूब मुझसे मिलने आईं और मेरे लिए स्टेट एक्सप्रेस सिगरेट का एक कार्टन और पी जी वोडहाउज़ का एक उपन्यास ले कर आईं।"
 
यह उस भारत की कहानी है, जहाँ ऐसे उदाहरण अधिकारियों ने पेश किए हो। और दूसरी तरफ़ राजनीति ने अपने बेटे-बेटियों की रिहाई के लिए उन आतंकवादियों तक को छोड़ दिया था, जिन्होंने बाद में अनेकों की जानें लीं।
 
जब पाकिस्तानी सैनिकों ने करिअप्पा का नाम सुनकर अपने हथियार कर दिए थे नीचे, पाकिस्तानी अफ़सर ने करिअप्पा को किया था सैल्यूट
भारत-पाकिस्तान युद्ध ख़्तम होने के बाद करिअप्पा भारतीय जवानों का मनोबल बढ़ाने भारत-पाकिस्तान सीमा पर गए थे। इस दौरान उन्होंने सीमा पार कर 'नो मैंस लैंड' में प्रवेश कर लिया।
 
नंदू करिअप्पा अपने पिता की जीवनी में लिखते हैं, "उन्हें देखते ही पाकिस्तानी कमांडर ने आदेश दिया कि वो वहीं रुक जाएं, वरना उन्हें गोली मार दी जाएगी। भारतीय सीमा से किसी ने चिल्ला कर कहा ये जनरल करिअप्पा हैं। ये सुनते ही पाकिस्तानी सिपाहियों ने अपने हथियार नीचे कर लिए।"
 
"उनके अफ़सर ने आ कर जनरल करिअप्पा को सैल्यूट किया। करिअप्पा ने पाकिस्तानी सैनिकों से उनका हालचाल पूछा और ये भी पूछा कि उन्हें अपने घर से चिट्ठियाँ मिल रही हैं या नहीं?"
 
सूट-बूट के शौकीन
फ़ील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ की तरह ही फ़ील्ड मार्शल करिअप्पा भी हमेशा अच्छे कपड़े पहनते थे। डिनर में वो हमेशा काले रंग के सूट या बंदगले में दिखाई देते थे। वो हमेशा डिनर के समय कपड़े बदलते थे, चाहे वो अपने घर में अकेले डिनर कर रहे हों।
 
उनकी बेटी नलिनी के मुताबिक़, "एक बार उन्होंने एक अमेरिकी डिप्लोमेट को रात्रि भोजन पर बुलाया। उस मेहमान को करिअप्पा के ड्रेस कोड का पता नहीं था। वो सादी कमीज़ पहनकर घर पहुंच गए। मेरे पिता ने मडिकेरी के ठंडे मौसम का बहाना दे कर उन्हें अपना कोट पहनने के लिए मजबूर किया। तब जा कर वो खाने की मेज़ पर बैठे।"
 
"एक बार मेरे मंगेतर एक पारिवारिक लंच पर सिर्फ़ कोट पहनकर बिना टाई लगाए आए। मेरे पापा ने मुझसे कहा कि अपने होने वाले पति को बता दो कि उनके दामाद और सेना के एक अधिकारी के तौर पर उन्हें ढ़ंग के कपड़े पहनकर भोजन की मेज़ पर आना चाहिए।"
 
नंदू करिअप्पा बताते हैं, "मुझे नहीं याद पड़ता कि मैंने उन्हें कभी आधी आस्तीन की कमीज़ या बुशर्ट में देखा हो। बुशर्ट को बहुत हिकारत से 'मैटरनिटी जैकेट' कहा करते थे। कोई खेल खेलते समय भी उनकी गर्दन में हमेशा एक स्कार्फ़ बँधा होता था। हमारे यहाँ खाने पर आने वाले हर शख़्स से अपेक्षा की जाती थी कि वो सूट पहन कर आए। अगर किसी ने अपने कोट के बटन खोल रखे हैं, तब भी वो बुरा मान जाते थे।"
 
करिअप्पा ने कहा था- देश को अस्थायी मिलिट्री शासन की ज़रूरत है
करिअप्पा ने यह लिखित रूप से कहा था और उनकी उस नोट को लेकर कुछेक बार राजनीति भी हुई है। उनके द्वारा ऐसा कहने के पीछे उन्होंने अपनी सोच और समझ को भी सार्वजनिक किया था, हालाँकि उनके उद्देश्य से सहमती थी, किंतु तरीक़ा ज़्यादातर विशेषज्ञों के लिए अस्वीकार्य था।
 
लोकसभा चुनाव 1971 के नतीजे आने के बाद करिअप्पा ने साफ़ तौर पर कहा था कि वे मिलिट्री शासन के पक्ष में हैं। 'इंडियन एक्सप्रेस' में 20 जनवरी 2020 के दिन छपी ख़बर के मुताबिक़, करिअप्पा का मानना था कि देश में चीजों को सही करने के लिए मिलिट्री शासन एक अस्थायी उपाय है। भारतीयों को जगाने और आवाज उठाने के लिए प्रोत्साहित करते हुए उन्होंने मिलिट्री शासन के लिए जनता से मतदान करा कर आगे बढ़ने की नसीहत भी दी थी।

 
करिअप्पा ने अपने कमेंट पर संसदीय बहस कराने को लेकर तत्कालीन पीएम, गृहमंत्री और लोकसभा अध्यक्ष से मुलाक़ात की थी। मार्च, 1970 में धनबाद में प्रेस से अनौपचारिक बातचीत भी की थी। उस वक़्त संसद में करिअप्पा के उस कमेंट की ख़ूब आलोचना की गई थी। करिअप्पा ने उसके बाद भी कहा था कि वे अपने विचार से एक इंच भी पीछे नहीं हटे हैं। इसके बाद इन्होंने यह नोट जनता के लिए सार्वजनिक किया था।
 
चार पन्नों के टाइप किए गए नोट में करिअप्पा ने संविधान, सभी राजनीतिक दल और भाषाई राज्यों को ख़त्म करने की वकालत की थी। इन्होंने मतदान प्रक्रिया और अनगिनत राजनीतिक दलों के कुनबे को लेकर अपनी राय भी रखी थी। उनका कहना था कि लोगों से इस विषय में मतदान ले कर जानना चाहिए और यदि लोग चाहते हैं तो मिलिट्री शासन लगा कर व्यवस्था बहाल करनी चाहिए और इसके बाद नए सिरे से लोकसभा चुनाव हों और नया संविधान बने।
 
उनका मानना था कि नया संविधान बनने के बाद राष्ट्रपति और मिलिट्री शासन ख़त्म हो जाएगा और लोकतंत्र फिर से अपने पवित्र रूप में आएगा। उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि राष्ट्रपति और मिलिट्री शासन का उनका प्रस्ताव स्थायी नहीं है।
 
87 साल की उम्र में बने फ़ील्ड मार्शल
1986 वह साल था, जब इन्हें देश के दूसरे फ़ील्ड मार्शल से सम्मानित किया गया। तारीख़ थी 15 जनवरी 1986, सेना दिवस। वह दिन, जब वे देश के पहले कमांडर इन चीफ़ बने थे।
 
करिअप्पा सेना दिवस की परेड के लिए दिल्ली आए हुए थे। परेड के बाद उस समय के सेनाध्यक्ष जनरल के सुंदरजी ने घोषणा की कि सरकार ने जनरल करिअप्पा को फ़ील्ड मार्शल बनाने का फ़ैसला किया है।
 
उनके बेटे एयर मार्शल नंदू करिअप्पा बताते हैं, "जिस दिन ये कार्यक्रम होना था उस दिन उनके दाहिने पैर की छोटी उंगली में बहुत दर्द था। उन दिनों घर पर वो बाएं पैर में जूता और दाहिने पैर पर चप्पल पहना करते थे। हम सबने उन्हें सलाह दी राष्ट्रपति भवन के समारोह में वो जूते न पहने, लेकिन वो हमारी कहाँ सुनने वाले थे। उन्होंने हमेशा की तरह अपने नोकदार जूते पहने। और तो और, जब वो राष्ट्पति से अपना फ़ील्ड मार्शल का बेटन लेने गए, तो उन्होंने वॉकिंग स्टिक का भी इस्तेमाल नहीं किया।"
 
"राष्ट्रपति के एडीसी ने उन्हें सहारा देने की पेशकश की, लेकिन उन्होंने उसे भी स्वीकार नहीं किया।"
 
"उस समय उनकी उम्र थी 87 साल। ये पूरा समारोह क़रीब 10 मिनट चला। लेकिन इस दौरान करिअप्पा खड़े रहे, हाँलाकि उनके पैर में बहुत तेज़ दर्द हो रहा था।"
 
लेफ़्टिनेंट जनरल सेन ने अपनी पुस्तक, Slender was the Thread- Kashmir Confrontation, 1947-48 में, करिअप्पा की व्यापक सोच को लेकर लिखा है, "उन्होंने सभी सैनिकों के साथ एक जैसा व्यवहार किया और किसी भी संकीर्ण भावना से पूरी तरह मुक्त थे। वह भारतीय सैनिकों के प्रति अपने प्रेम के लिए जाने जाते थे। सैनिक न केवल उनसे प्रेम करते थे, बल्कि उनकी पूजा भी करते थे। लेकिन फिर भी अगर कोई अपराध में लिप्त हो गया, तो उन्होंने उसे कभी माफ़ नहीं किया।"
 
करिअप्पा का सैन्य करियर लगभग तीन दशकों तक चला। इन्होंने हमेशा पूर्व सैनिकों के कल्याण की वकालत की। 1964 में भारतीय पूर्व सैनिक लीग (आईईएसएल) की स्थापना की और पुनर्वास पहल में महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाई। राष्ट्रीय सुरक्षा और सैनिकों के कल्याण के प्रति उनकी प्रतिबद्धता जीवन भर अटल रही। 94 साल की उम्र में 15 मई 1993 को बेंगलुरू में फ़ील्ड मार्शल करिअप्पा ने आख़िरी सांस ली।
(इनक्रेडिबल इंडिया, एम वाला)