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World of Fake News : फेक ख़बरों का जंगल, जिसकी बुनाई और कटाई होती रहती है

 
फ़ेक ख़बरों का जंगल... जंगल इसलिए, क्योंकि यहाँ कही पर भी, कभी भी, कैसी भी ख़बरों का बीज बोया जाता है और वो पौधे से विशालकाय पेड़ बनकर पूरे जंगल, या जंगल के ख़ास इलाक़े पर एक तरीक़े से राज करने लगता है। एक ऐसा जंगल, जहाँ कदम कदम पर, हर मोड़ पर, हर रास्ते पर फ़ेक ख़बरों का जाल बिछा हुआ है। एक से बचते हैं तो दूसरे में, दूसरे से बचते हैं तो तीसरे में आप फँस ही जाते हैं। वो पौधा भी हो सकता है या विशालकाय पेड़ भी।
 
आप धड़ल्ले से यह भी नहीं कह सकते कि फ़ेक ख़बरों का यह जंजाल किसी एक क्षेत्र में ही है। यह कॉर्पोरेट सेक्टर में भी है, जहाँ एक दूसरे के शेयर को गिराने के लिए एक दूसरे के ख़िलाफ़ कुछ ऐसी चीज़ें फैला दी जाती हैं। यह बॉलीवुड में भी दिख जाता है, जहाँ मूवी को चमकाने या कभी कभार मामला बिगाड़ने के लिए भी इस जादुई डंडे का इस्तेमाल किया जाता है। मीडिया घरानों में भी ये चीज़ है, जहाँ एक दूसरे के ख़िलाफ़ रपटें तैयार करके कुछ ख़ास उद्देश्यों को पार पाया जाता है। कॉर्पोरेट, मीडिया या बॉलीवुड तो छोड़ दीजिए, रोज़ाना ज़िंदगियों में भी ये चीज़ धड़ल्ले से इस्तेमाल होती है। परिवारों के बीच, दोस्तों के बीच यह जादुई डंडा अरसे से चलाया जाता है। बेचारी राजनीति तो खामखाँ बदनाम हो गई, क्योंकि फ़ेक वाला जादुई डंडा इन्हीं के हाथों में ज़्यादा रहता है ऐसी छवि बन चुकी हैं।
 
प्रोपेगेंडा, फ़ेक न्यूज़, पेड न्यूज़... न जाने कितने कितने नाम हैं इसके। प्लांट स्टोरी से लेकर हर रूप और रंग हैं इनके। वैसे तमाम में बड़ा अंतर भी है, और तमाम एक दूसरे से शायद ख़ून का रिश्ता भी रखते होंगे। एक दौर था, जब प्रोपेगेंडा राज्य या राष्ट्रीय स्तर पर इस्तेमाल होता था। इसका अपना एक इतिहास है और बड़ी लंबी चर्चा भी।
 
वक़्त रहते प्रोपेंगेंडा नाम का यह रहस्यमयी ताना-बाना स्टेट या नेशनल लेवल से डोमेस्टिक एडिशन में कब तब्दील हो गया, शायद पता ही नहीं चल पाया। शायद सोचा गया होगा कि अगर प्रोपेगेंडा दो राष्ट्रों को और उन दोनों राष्ट्रों के नागरिकों को एक दूसरे के ख़िलाफ़ खड़ा कर सकता है, तो दो राज्यों को, दो पार्टियों को, दो जातियों को, दो उपजातियों को या दो नागरिकों को एक दूसरे के ख़िलाफ़ क्यों खड़ा नहीं कर सकता। लिहाज़ा प्रोपेगेंडा, फ़ेक न्यूज़, प्लांट न्यूज़, पेड न्यूज़ जैसे तमाम नामों में कब कितना अंतर रहेगा ये ठीक से बता पाना फ़िलहाल तो मुमकिन नहीं रहता।
 
इंटरनेट और कंप्यूटर के आविष्कार तथा उसके व्यापक और बढ़ते इस्तेमाल के बाद ये सारे जादुई डंडे जमकर चले और समय समय पर अपना रंग और रूप बदलते भी रहे। एक दौर था, जब कहा जाता था कि तस्वीरें झूठ नहीं बोलती। तस्वीर न्यायालय में ठोस सबूत था। लेकिन वो दौर भी आया, जब तस्वीरों को जाँचने के लिए भी लैब में सुविधाएँ खड़ी करने की नौबत आन पड़ी। फ़ोटोशॉप और कम्प्यूटर तकनीक के दौर ने वीडियो को भी नहीं छोड़ा।
अब तो तस्वीरें तो छोड़ दीजिए, वीडियो भी सच बोला नहीं करते। मान लीजिए कि किसी क़िस्से में तस्वीरें और वीडियो दोनों सही हैं, तो ऐसे में उसके साथ जुड़ी कहानियाँ झूठी होती हैं। यानी कि एक हिस्सा सही और एक हिस्सा ग़लत। लेकिन ग़लत वाला मसला इतना ज़्यादा बुन दिया जाता है कि सही वाले हिस्से को आप देख ही नहीं पाते या फिर सोच ही नहीं पाते।
 
तस्वीरें झूठी बनायी जाती हैं, वीडियो तक झूठे बनाए जाते हैं, क्या पता ये दुनिया इतनी विकसित हो जाए कि आपके सामने खड़ा आदमी भी किसी की फ़ोटोकॉपी हो!!! क्या पता, बॉलीवुड का डबल रोल वाला पर्दे का दौर हक़ीक़त भी बन जाए।
 
अफ़वाह... इस बला का नाम किसी ने ना सुना हो ऐसा हो ही नहीं सकता। हर किसी को पता है कि अफ़वाह नाम की बला सदियों से मौजूद है। शायद जब मीडिया नहीं था, बल्कि मीडियम था तब अफ़वाह एक ख़ास हथियार रहा होगा। वैसे आजकल भी यह एक ख़ास हथियार ही है। कितना ख़ास वो तो नहीं पता। आज मीडिया के ज़रिए सब फैलाया जाता है, जबकि पहले किसी न किसी प्रकार के मीडियम हुआ करते थे, जिससे अफ़वाहों को फैलाया जाता।
 
अफ़वाहों का स्वरूप, उसे फैलाने का माध्यम तथा मक़सद, उस अफ़वाह को प्रचारित या प्रसारित करने का तरीक़ा, ये सब चीज़ें तय करती हैं कि अफ़वाह को प्रोपेगेंडा कहे, फ़ेक न्यूज़ कहे, पेड न्यूज़ कहे या कुछ और। यानी कि सब में भारी अंतर ज़रूर है, लेकिन रिश्ता ख़ून का है।
 
कमाने हेतु छोटे या बड़े व्यापारी अफ़वाहें फैला देते हैं। सब्ज़ी, फल, धान से लेकर रोज़ाना ज़रूरत की चीज़ों में अफ़वाहों से दाम बढ़ाना, कमी पैदा करना या कुछ और धारणाओं का निर्माण करना चलता रहता है। शेयर बाज़ार को देखकर तो लगता है कि अफ़वाहें ही इसका ऑक्सीजन होगा। दरअसल अफ़वाहें छोटा संस्करण माना जाता है और प्लांट स्टोरी, पेड न्यूज़, फ़ेक न्यूज़ या प्रोपेगेंडा बहुत बड़े संस्करण माने जाते हैं। यानी कि किसी में आप जूनियर केजी वाले हो सकते हैं, किसी में मैट्रिक पास, किसी में ग्रेजुएट, किसी में मास्टर डिग्री वाले या किसी में स्पेशल या किसी में उससे भी आगे!
जहाँ तक राजनीति और मीडिया वाले फ़ेक न्यूज़ की बात करें तो इसका कोई एक ही मक़सद है ये कहना ग़लत होगा। मौसम के हिसाब से, समय के हिसाब से, मौक़े के हिसाब से इसके मक़सद बदलते रहते हैं। लेकिन एक चीज़ अंत तक ले जाती है कि इसका एक मक़सद यह ज़रूर है कि नागरिक भीड़ का हिस्सा बने... यानी कि वो नागरिक ना रहे बल्कि "भीड़" बन जाए।
 
"भीड़" लफ़्ज़ का अपना एक मतलब है यह ज़रूर समजिएगा। ये भी ख़याल रखिएगा कि सैकड़ों लोग सड़क पर इकठ्ठा हो जाए उसे ही भीड़ नहीं कहते, बल्कि खाने की मेज़ पर लोग अजीब-अजीब सी धारणाएँ गढ़ते रहे वे भी भीड़ का हिस्सा ही हैं।
 
सड़क पर जमा हुई भीड़ और खाने की मेज़ पर बैठी एक नागरिक वाली भीड़, कौन सी भीड़ बड़ा गंभीर विषय है ये तय कर पाना वाक़ई मुश्किल है। क्योंकि सड़कों पर जमा हुए लोग शायद खाने की मेज़ पर धारणाएँ बनाकर ही सड़कों पर जमा हुए होंगे यह बहुत हद तक मुमकिन है। फ़ेक ख़बरों के सहारे खाने की मेज़ पर बैठे नागरिक को भ्रमित इंसान बनाकर उसे भीड़ का हिस्सा बनाने की ये रणनीति वाक़ई ख़तरनाक प्रवृत्ति है।
 
यह अपने आप में राजनीति के लिए आशीर्वाद है, क्योंकि भीड़ द्वारा की गई हिंसा का दोष ना ही सरकार पर आता है और ना ही राजनीति पर!
 
हम सभी को भली-भांति पता है कि फ़ेक ख़बरों के जंजाल का लंबा इतिहास रहा है। इसके ऊपर ढेरों ग्रंथ लिखे जा सकते हैं। एक निजी चैनल के शो प्राइम टाइम विद रवीश में एक शो था फ़ेक न्यूज़ को लेकर। उस शो में फ़ेक न्यूज़ के एक भूले-बिसरे चैप्टर को कुछ यूँ याद किया गया था। "31 दिसम्बर 1999 की रात पूरी दुनिया में उत्साह था कि नई सदी आ रही है। मिलेनियम... सन 2000... 21वीं सदी। उस सदी की शुरूआत होती है सबसे बड़े फ़ेक न्यूज़ से। बस तब उसका नाम फ़ेक न्यूज़ नहीं था जिस तरह से अब है। वाई टू के और मिलेनियम बग था उसका नाम।"
वाई टू के का मतलब होता था ईयर 2000। कह सकते हैं कि इंटरनेट के आने के बाद दुनिया की पहली ग्लोबल फ़ेक न्यूज़! सारी दुनिया नई सदी के आगमन से ज़्यादा इस बात से त्रस्त थी कि अब दुनिया का अंत होने वाला है! जैसे ही घड़ी में साल 2000 दस्तक देगा, दुनिया भर के कंप्यूटर बंद हो जाएँगे। द डे द अर्थ विल स्टैंड स्टील... द कंप्यूटर क्रैश ऑफ़ द मिलेनियम... जैसी हेडलाइन छपने लगी थीं। बैंक के फेल होने से लेकर बिजली की सप्लाई कटने तक की अफ़वाह फैल गई। अस्पतालों के आईसीयू में लोग मर जाएँगे, ऑक्सीजन की सप्लाई बंद हो जाएगी, शेयर बाज़ार क्रैश हो जाएगा, मिसाइलें अपने आप चलने लगेगी।
 
21वीं सदी आई और ऐसा कुछ नहीं हुआ जैसा बताया गया था। लेकिन इस पर दुनियाभर की सरकारों ने सवा तीन लाख करोड़ रुपये फूंक दिए!!! आप कह सकते हैं कि ये 21वीं सदी का सबसे बड़ा ग्लोबल घोटाला था।
 
ब्रिटेन के प्रतिष्ठित पत्रकार निक डेविस ने अपनी किताब में वाई टू के की यात्रा की खोज की है। उन्हें पता चला कि वाई टू की पहली स्टोरी टोरंटो से छपने वाले फाइनेंशियल पोस्ट के किसी कोने में सिंगल पैरा में छपी थी। किसी कंप्यूटर विशेषज्ञ ने यूँ ही चेतावनी दी थी। वहाँ से यह स्टोरी 1995 तक आते-आते अमेरीका, मैक्सिको, कनाडा, यूरोप, ऑस्ट्रेलिया और जापान तक फैल गई! 1997 तक मिलेनियम बग की स्टोरी पहले पन्ने पर जगह पाने लगी और 1998 तक इस स्टोरी ने तूफ़ान मचा दिया। पूरी दुनिया में मिलेनियम बग पर छपने वाली रिपोर्ट की संख्या दस हज़ार से भी ज़्यादा जा पहुंची थी।
 
एक लेखक ने तो वाई टू के से कैसे बचें लिखकर करोड़ों कमा लिए, अरबों कमा लिए। इसलिए जब कोई सफल कैसे हो, तनाव से कैसे बचें टाइप किताब लिखे तो सतर्क हो जाइए। लोगों को बेवकूफ़ बनाने वाली इन किताबों को पढ़कर न तो कोई सफल हुआ, और न ही किसी का तनाव कम हुआ है।
 
उस समय भारत में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी। (कृपया आप इसे किसी एक सरकार या किसी एक राजनीतिक दल के नज़रिए से मत सोचिएगा) 9 जनवरी 2000 को हिन्दू अख़बार ने वाई टू के फ़र्ज़ीवाड़े पर ख़बर छापी, जिसमें लिखा कि इससे निबटने के लिए 1998 के अंत में एक नोडल एजेंसी बनाई गई, जिसका नाम वाई टू के एक्शन फोर्स था। उसके प्रमुख बनाए गए थे मोंटेक सिंह अहलूवालिया, जो उस वक़्त योजना आयोग के सदस्य थे। तब इससे निपटने के लिए 700 करोड़ का फंड बना था। साथ ही सभी विभागों को कहा गया था कि वे अपने 1999 के सालाना बजट का तीन प्रतिशत वाई टू के की समस्या से निबटने के लिए ख़र्च कर सकते हैं! प्राइवेट कंपनियों से कहा गया कि वे अपना ख़र्च ख़ुद करें, जिसके लिए उन्हें 1999-2000 के बजट में कर छूट दी गई थी!
फ़ेक न्यूज़ ने ग़रीब देश भारत को भी चूना लगा दिया। पान कौन खाया और किसके होंठ लाल हुए पता नहीं। रूस, कोरिया जैसे देश भी थे, जो हँसे थे ऐसी ख़बरों पर और एक नया पैसा ख़र्च नहीं किया था।
 
वैसे इस मामले में हम दुनिया से सीनियर थे। सितंबर 1995 में ही भारत भर के कई हिस्सों में लोग गणेशजी को दूध पिला चुके थे! हम कितने समझदार हैं इसका अंदाज़ा इस बात से लगाइएगा कि ये ख़बर अफ़वाह थी यह साबित होने के बाद भी, आज भी इस अफ़वाह को बिना परेशानी के फैलाया जा सकता है! इसका एक कारण यह भी है कि नयी पीढ़ी या नये-नये व ताज़ा-ताज़ा राजनीतिक प्रेमी अमूमन 1947 या उससे पहले के फ़र्ज़ी इतिहास में ज़्यादा बिजी रहते हैं, लिहाज़ा मुमकिन है कि इन विशेषज्ञों को ताज़ा इतिहास पता भी ना हो।
 
मंकी मैन की कहानी उन सभी को पता होगी, जिन्होंने इसे झेला था। मंकी मैन न तो मंकी था, न ही मैन था। था या नहीं यह भी कन्फर्म नहीं था!!! मगर मैन, वूमेन, चिल्ड्रन, मंकी मैन के आने और काट लेने की कल्पनाओं में खो गए। रात भर जागते थे। किसी ने उसे देखा नहीं, मगर बताने वालों की कमी नहीं थी कि मंकी मैन कैसा है!!!
 
फ़ेक न्यूज़ हम सबका यही हाल करता है। हम लोग फ़ेक न्यूज़ को लेकर रातों को जागते हैं, समुदायों को लड़ते देखते हैं, किसी को पीटते देखते हैं। मंकी मैन वाले चैप्टर से हमने कुछ और भले ना सीखा हो, अफ़वाहों को हज़म करना ख़ूब सीखा! इसीलिए तो मंकी मैन के 16 साल बाद सन 2017 में चोटी काटने वाली चुड़ैल में हम फँस गए! गणेशजी को दूध पिलाना, मंकी मैन का उदाहरण और नमक की क़िल्लत या चोटी-काट जैसे ताज़ा उदाहरण इसलिए, ताकि यह साफ़ रहे कि फ़ेक न्यूज़ को पचाने की प्रैक्टिस हम आज से नहीं कर रहे हैं!
 
उस वक़्त मीडिया भी मंकी मैन को ख़ूब कवर करता था। मंकी मैन को लेकर कल्पनाएँ हवा में उड़ने लगीं। सबने मंकी मैन के बारे में इस तरह से बयान किया था कि आज सोचकर हँसी आ जाती है। फिर ख़याल आता है कि आज भी मंकी मैन टाइप फ़ेक न्यूज़ हमारी ऐसी ही हालत कर रहा है।
मंकी मैन का ऐसा बवाल उठा था कि पुलिस और सरकार भी उसमें व्यस्त हो गई थी। कभी पुलिस ने कहा कि असामाजिक तत्वों का काम है। पुलिस तो यह भी कह रही थी कि चश्मदीदों के अनुसार कम से कम दो लोग हैं, जो मिलकर अंजाम दे रहे हैं। बताइए, चश्मदीद को यही पता नहीं कि मंकी मैन कैसा दिखता है, सभी के अलग अलग विवरण थे, मगर उनके आधार पर पुलिस मानने लगी कि दो लोग हैं!!! ये भी कमाल का इन्वेस्टिगेशन ही था। दिल्ली पुलिस से उस वक़्त उम्मीद की जाने लगी कि वो मंकी मैन का पोट्रेट बनाए, जैसे आतंकी हमलों के बाद आतंकवादियों का बनता है। एक बार तो पुलिस ने कह दिया कि न तो वो इंसान है न ही बंदर है, वो कोई और ही जानवर है।
 
वैसे पुलिस भी क्या करती? रात भर लोग आतंकित रहते, कोई कहीं से गिरता या कोई अपनी ही छाया देखकर मंकी मैन मंकी मैन चिल्लाने लगता। अंत में हार कर दिल्ली पुलिस ने 50 हज़ार का इनाम रख दिया। गृह मंत्रालय से रैपिड पुलिस फोर्स मांगी गई। इस मामले की "गंभीरता" को देखते हुए एक विशेष टीम बना दी गई, जिसका काम था मंकी मैन की जाँच करना। विशेष टीम की जाँच-वांच का सही सही अंजाम आप मत पूछिएगा, इससे अच्छा है कि क्रिकेट टीम की जीत-हार के न्यूज़ देख लें।
 
मंकी मैन वाली अफ़वाह का आतंक देख लीजिए। 20 जून 2001 को लेखक व पत्रकार बशारत पीर की एक स्टोरी छपती है। उनकी स्टोरी बताती थी कि दिल्ली पुलिस ने मंकी मैन के रहस्य से पर्दा उठा दिया है। एक्सपर्ट कमेटी की रिपोर्ट में कहा गया कि मंकी मैन था ही नहीं। इस स्टोरी में उस वक़्त के ज्वाइंट कमिश्नर सुरेश राय ने कहा कि मंकी मैन में बंदर या कोई भी जानवर शामिल नहीं है। एक्सपर्ट कमेटी में इंस्टीट्यूट ऑफ़ ह्यूमन बिहेवियर तथा सेंट्रल फोरेंसिक लेबोरेटरी के सदस्य भी थे। पुलिस ने यह भी कहा कि मंकी मैन के पीछे पाकिस्तान के आईएसआई का हाथ नहीं है, न ही किसी गुंडा गिरोह का हाथ है।

 
साल 2001 का मई और जून महीना मंकी मैन में ही बीत गया। पुलिस को 379 फ़ोन कॉल्स मिले थे। 303 बोगस निकले। 70 लोग घायल हो गए थे। एक केस में उत्तर पूर्व दिल्ली के रघुनाथ पाठक को उनके भाई ने ही मारा था। लोग तरह तरह की कल्पना करने लगे थे। पुलिस ने माना कि मीडिया के कवरेज ने इस पागलपन को और बढ़ा दिया था। आपको बता दें कि उस वक़्त कई चैनलों ने मंकी मैन की बाइट के लिए पाँच पाँच रिपोर्टरों की टीम बनाई थी, जो रातभर दिल्ली में घूमा करते थे।
 
2001 का मंकी मैन का दौर 2017 में चोटी वाली चुड़ैल के रूप में ख़ुद को छोटे से अवतार में दोहरा गया। इसी साल जुलाई-अगस्त के दौर में एक ऐसी ही घटना ने फिर से लोगों को परेशान किया। वैसे अब तक इसे ज़्यादातर तो अफ़वाह मान लिया गया था, लेकिन दहशत अब भी ज़िंदा थी। लोगों में एक बात फैल गई कि कोई महिलाओं की चोटी काट रहा है। मीडिया के ज़रिए ये बात जंगल में आग की तरह फैल गई। फिर तो चुड़ैल वाला एंगल भी सामने आया। बात यहाँ तक पहुंची कि आगरा के फतेहाबाद में एक बुज़ुर्ग महिला को चुड़ैल कह कर पीट-पीट कर मार दिया गया!
इस घटना के बाद यूपी के डीजीपी ने पूरे राज्य में अलर्ट जारी कर दिया और ऐसी अफ़वाह फैलाने वालों को जेल भेजने के आदेश देने पड़े। बताया गया कि इसके बावजूद मथुरा, हापुड़, अलीगढ और फैजाबाद वगैरह में कई लड़कियों की चोटियाँ कट गईं। एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक़ मथुरा में ही 21 महिलाओं की चोटी काट ली गईं। यूपी के तमाम गाँवों में लोग चोटी काटने वाली चुड़ैल के डर से टोटकों में बिजी हो गए।
 
21वीं सदी के आधुनिक भारत में चु़ड़ैल और टोटके फिर एक बार रेस में आगे निकल गए! यूपी पुलिस ने ट्वीट कर एडवाइज़री जारी की। पुलिस ने कहा कि यह एक अफ़वाह है, इस पर क़तई ध्यान न दें, इस प्रकार की अफ़वाह फैलाने वालों के बारे में तत्काल पुलिस को सूचना दें एवं क़ानून को अपने हाथ में न ले। पुलिस ने कहा कि इस कृत्य में कोई संगठित गैंग संलिप्त नहीं है।
 
बताइए, पुलिस ट्वीट नामक आधुनिक मंच से एडवाइज़री जारी कर रही थी, जबकि लोग चुड़ैल और टोटकों में बिजी थे!!! पुलिस 21वीं सदी में थी, तो हम लोग राजा बबूसा के जमाने में पहुंच चुके थे!!! ऐसे में दोनों के बीच सामंज्सय कहाँ से होता? इन मामलों की जाँच कर रही पुलिस का कहना था कि घटना स्थलों पर कोई सुराग नहीं मिल रहे हैं। पीड़ितों के मेडिकल टेस्ट में भी कोई असामान्य बात नहीं दिखी। ज़्यादातर पीड़ितों के साथ रहने वालों ने किसी कथित हमलावर को नहीं देखा। केवल पीड़ित ने ही हमलावर की उपस्थिति को देखने या महसूस करने की बात कही थी।
 
पुलिस की बात तो सुन ली, अब तो मनोचिकिस्तक भी मीडिया पैनलों में कूद पड़े थे! चोटी काट की घटनाएँ मीडिया वाले ख़ूब दिखा रहे थे या छाप रहे थे, बिलकुल वैसे जैसे मंकी मैन की दिखाते थे। सनसनी टाइप बता कर... ना कि लोगों को जानकारी देने या समस्याएँ सुलझाने। मनोचिकित्सक मास हिस्टरिया की बात करने लगे।
 
5 अलग अलग राज्य और 100 से ज़्यादा घटनाएँ...। सोचिए, चोटी-काट का यह मंज़र किस हद तक फैल चुका होगा? दिल्ली, उत्तर प्रदेश, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, एनसीआर... हर जगह इसी ख़ौफ़ के तले लोग जीने लगे थे। 100 से ज़्यादा ऐसे क़िस्से सामने आ चुके थे। मुमकिन है कि ऐसे क़िस्सों की तादाद उससे भी ज़्यादा होगी, जो मीडिया में जगह ना बना पाई हो।
वैसे इन दिनों देश में चीन से सटी सरहदों का बखेड़ा चल रहा था, कश्मीर में हिंसा और आतंक, पाकिस्तान से सटी सरहदों पर तनाव, राष्ट्रपति और उप राष्ट्रपति के चुनाव का दौर, बिहार-गुजरात में राजनीतिक उथल पुथल का दौर.... कई सारी प्रमुख घटनाएँ इन दिनों चल रही थीं। कहने का मतलब यह है कि इतनी बड़ी बड़ी चीज़ों के बीच भी चोटी-काट का यह चैप्टर इतना चला। सोचिए, देश में इन प्रमुख घटनाओं का दौर उन दिनों नहीं होता, तो मीडिया में यही प्रमुख मुद्दा दिन भर चलता रहता और फिर मीडिया की कृपा से 5 राज्यों का यह दौर बहुत ज़ल्दी दूसरे राज्यों तक जा पहुंचता।
 
फ़रीदाबाद की एक महिला ने कहा, "मैं फैक्ट्री में काम करने के लिए गई थीं। शाम चार बजे शौचालय गई। इसी दौरान लाइट चली गई और मेरी चोटी कट गई।" पंजाब से एक महिला का बयान था, "मैं सुबह नहाने जा रही थीं। उसी वक़्त एक काला सांया दिखा। मैं बेहोश हो गई। होश में आयी तब मेरी चोटी कट चुकी थी।" गाज़ियाबाद के लोनी से एक युवा लड़की ने बताया, "मैं रात को सो रही थी और एक बिल्ली आई। वो मेरे बाल काट गई।" ऐसे तो अनगिनत बयान थे, जिसे आप किस तरह से लेंगे ये आप पर निर्भर है। और पुलिस इन्हें ट्वीट करके बता रही थी कि यह एक अफ़वाह है, इस पर ध्यान न दें!
 

पहले तो कुछ दिनों तक यही ख़बरें चलीं कि कोई महिलाओं की चोटी काटे जा रहा है, लेकिन फिर तो एक-दो जगहों से पुरुषों के बाल-काट की भी ख़बरें आई थीं! इस बीच एक घटना में फ़रीदाबाद की एक महिला ने पुलिस से लिखित माफ़ी मांगते हुए पत्र लिखा कि उसके शरारती भांजे ने उसकी चोटी काट दी थी और उसने पुलिस को गुमराह किया इसके लिए वो माफ़ी मांगती है। यानी कि कुछ घटनाएँ ऐसी भी थीं, जो माफ़ी वाले पत्र में दर्ज थी।
 
कहने की ज़रूरत नहीं कि अंधविश्वास का बाज़ार इतना गर्म हो गया कि लोग टोटकों के सहारे कथित चुड़ैल को भगाने के जुगाड़ में लग गए। घरों के बाहर नीम के पत्ते लगाए जाने लगे, नींबू-मिर्च वाला ऑल टाइम हिट फॉर्मूला भी चला, घर के मुख्य दरवाज़े के बाहर हल्दी वाले हाथों के निशान लगने लगे! जैसे कि चुड़ैल मुख्य दरवाज़े से ही आने वाली थी, खिड़की या दीवार को चीरकर नहीं!
 
मंकी मैन वाला इतिहास ख़ुद को दोहरा रहा था। लोग जगराता करने लगे। रातभर जागने का दौर फिर चला। गाँवों-कस्बों में तो आज भी घर के बाहर लाल-पीले-नीले रंग का प्रवाही बोतलों में लोग बाहर रखते हैं। कोई कुत्ते को भगाने, तो कोई किसी दूसरी चीज़ों को भगाने!
नवंबर 2016 में देश के कई राज्यों के लोग दुकानों के आगे लाइन में लग गए कि चीनी और नमक की क़िल्लत होने वाली है। बताइए, उस दिन दोपहर तक सब ठीक था और शाम होते होते तो क़िल्लत का ख़ौफ़ इतना पसरा कि हर जगह कतारें ही कतारें थीं। इस मामले में दिल्ली, कोलकाता, मुंबई और हैदराबाद के लोगों ने भी छोटे शहरों के साथ अच्छा प्रदर्शन किया था।
 
व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी से मैसेज आया था कि चीनी और नमक की क़िल्लत होने वाली है। यूपी के तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव इसे अफ़वाह बताते रहे और ज़िलाधिकारी को निर्देश देने लगे कि अफ़वाह फैलाने वालों पर सख़्त कार्रवाई करें। निर्देशों के बाद क्या कार्रवाई हुई, यह पूछने का या बताने का चलन हमारे यहाँ नहीं है ये नोट कर लें। दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल और केंद्रीय मंत्री राम विलास पासवान को भी बयान देना पड़ा कि नमक की कोई कमी नहीं है।
 
अफ़वाहों का क्या, वो उड़ते उड़ते मुंबई पहुंची कि नमक 200 रुपये किलो हो गया है। मुंबई पुलिस को ट्वीट करना पड़ा कि ये अफ़वाह है। हैदराबाद पुलिस भी इस अफ़वाह यज्ञ को रोकने में काफ़ी मेहनत कर रही थी। सोचिए, एक अफ़वाह ने कितने राज्यों में क़हर बरपाया होगा?
 
वैसे हमारे चैनलों ने 2012 से पहले के साल में यह भी ख़ूब चलाया कि दुनिया ख़त्म होने वाली है। ग़नीमत है कि लोगों ने भी समझ लिया कि सब बकवास है। बगदादी को तो हम न जाने कितनी बार मार चुके होंगे!!! नोटबंदी के दौरान 2000 के नोट में किसी चिप के लगे होने की ख़बर दिखा दी गई। वो भी जी न्यूज़ जैसे राष्ट्रीय स्तर के चैनल पर!!! वैसे नोटबंदी के कारण आतंकवाद और नक्सलवाद के मिट जाने या रुक जाने का दावा भी कर दिया गया था! पहली बार आतंकवाद और नक्सलवाद को मिटाने के लिए दुनिया में नोटबंदी का सहारा लिया गया था!!!
 
कुछ लोग आज भी 2000 के नोट में चिप खोज रहे हैं, जो है ही नहीं। जबकि उसी वक़्त रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया ने मना कर दिया था कि नोट में इस तरह का कोई चिप नहीं है। उसके पास पैसे गिनने के लिए मशीनें नहीं हैं, चीप कहाँ से लगाएगा!!! ग़नीमत है कि 200 का नया नोट आया तो ऐसी कोई ख़बर नहीं चली कि 200 के नोट में 15 मेगापिक्सल कैमरा विद एलईडी फ्लैश इनबिल्ट है और अगर आधार कार्ड लिंक कर दिया तो एफबी, ट्विटर या इंस्टाग्राम भी मिलेगा!!!
गणेशजी और मंकी मैन के समय में हम मैच्योर नहीं हुए थे, जबकि चोटी काट के दौर वाले फ़ेक न्यूज़ के समय हम परिपक्व हो चुके हैं! जो मिलता है चुपचाप गटक जाते हैं और धारणाओं में जीने लगते हैं! फ़ेक न्यूज़ को पचाने की हमारी क्षमता में सुधार भी हुआ है और विकास भी! यह बदलाव भारत में भी आया है और दुनिया में भी। अब लोग कई मामलों में इसके आधार पर राजनीतिक फ़ैसले लेकर ख़ुद को गर्व से जागरूक मतदाता भी कहने से नहीं चुकते हैं। हिलेरी क्लिंटन का दर्द कोई नहीं समझ सकता, और न ही आप डोनाल्ड ट्रंप की ख़ुशी समझ सकते हैं। एक फ़ेक न्यूज़ का मारा है और एक फ़ेक न्यूज़ का बादशाह।
 
फ़ेक न्यूज़ से लड़ने के लिए दुनियाभर में प्रयास हो रहे हैं। झूठ की बोलबाला के बीच सच का मुँह धुलता है या काला होता है, ये हमें नहीं पता। लेकिन फ़ेक न्यूज़ से जो लड़ेगा, सरकारें उसे ही फ़ेक घोषित कर देगी, ये भी एक सच है!!!
 
2008 में ब्रिटेन के प्रतिष्ठित पत्रकार निक डेविस ने एक किताब लिखी, जिसका नाम था फ्लेट अर्थ न्यूज़। इसके कवर पर लिखा है – An Award-winning Reporter Exposes Falsehood, Distortion and Propaganda in the Global Media. मतलब एक रिपोर्टर ने ग्लोबल मीडिया में झूठी ख़बरों, तथ्यों को तोड़ने मरोड़ने और प्रोपेगेंडा के खेल को उजागर कर दिया है। निक डेविस की तरह भारत में प्रतीक सिन्हा, जो altnews.in चलाते हैं, रोज़ फ़ेक न्यूज़ पकड़ते रहते हैं। उनके साथ और भी लोग हैं, जैसे पंकज जैन, जो SM Hoax Slayer पर फ़ेक न्यूज़ को पकड़ते रहते हैं। भारत में अंग्रेज़ी के कुछ वेबसाइट ने फ़ेक न्यूज़ से लड़ने का प्रयास शुरू किया है। altnews.in, india spend, boom, hoax slayer, हिन्दी में media vigil आदि हैं। हिन्दी में बहुत कम प्रयास है।
 
मार्च 2017 में अमेरीका में विपक्षी दल डेमोक्रेट के सांसदों ने फ़ेक न्यूज़ के विरोध में एक बिल पेश किया। जिसमें कहा गया कि हालात यह हो गए हैं कि अब जनता को राष्ट्रपति और उनके प्रवक्ताओं से ही फ़ेक न्यूज़ मिल रही है! ट्रंप के शपथ के समय व्हाइट हाउस के प्रवक्ता स्पाइसर ने बयान दिया था कि इससे पहले कभी नहीं हुआ कि किसी शपथ ग्रहण समारोह में चलकर इतने लोग आए और पूरी दुनिया में देखा गया। स्पाईसर के इस बयान को फ़ेक न्यूज़ वाली कैटेगरी में गिना जाता है।
फ़ेक न्यूज़ के विरोध में बिल पेश करते समय कहा गया कि स्पाईसर के बयान में कोई तथ्य ही नहीं था। ट्रंप ने कहा कि कोई दस, साढ़े दस लाख लोग की भीड़ नज़र आ रही थी। भारत में तो नेता कब से एक लाख की रैली को दस लाख बताते रहे, लेकिन हमारे यहाँ फ़ेक दावों को लोग हज़म करने की क्षमता रखते हैं शायद। (और ये गौरव करने लायक चीज़ भी नहीं है) मगर अमेरीका में लोगों ने चुनौती दे दी कि प्रवक्ता और राष्ट्रपति ने भीड़ की गिनती कैसे कर ली। इसलिए सदन से प्रस्ताव पास करने का अनुरोध किया गया कि व्हाइट हाउस के प्रवक्ता फ़ेक न्यूज़ जारी न करें। यह बिल वहाँ की कमेटी ऑफ़ ज्यूडिशियरी में भेज दिया गया।
 
अमेरिकन मीडिया ने तो डोनाल्ड ट्रंप के झूठ को हज़ारों तक गिन लिया, हमारे यहाँ सरकार कांग्रेस की हो या बीजेपी की, मीडिया में इतनी हिम्मत नहीं है कि एकाध झूठ को भी गिन पाए। मीडिया भी क्या करे, क्योंकि एक नागरिक के तौर पर झूठ को पचाने की क्षमता में हम सुधार करते जा रहे हैं!
 
फ़िलीपीन्स में फ़ेक न्यूज़ बहुत बड़ी समस्या बन गई है। वहाँ के राष्ट्रपति पर आरोप है कि वो सत्ता पर पकड़ बनाए रखने के लिए फ़ेक न्यूज़ को ख़ूब प्रोत्साहित कर रहे हैं! 22 जून 2017 के philstar.com पर छपी ख़बर के मुताबिक़ फ़िलीपीन्स के सिनेटर जोयल विलानुएवा ने एक बिल पेश किया कि नकली ख़बरों के फैलते संसार से चिंता हो रही है। मीडिया के अलग-अलग माध्यमों में फ़ेक न्यूज़ छप रहे हैं और उन्हें फैलाया जा रहा है। इसलिए उन पर ज़ुर्माना होना चाहिए। Senate Bill 1492, or An Act Penalizing the Malicious Distribution of False News and Other Related Violations, यह नाम था उस बिल का। इस बिल में फ़ेक न्यूज़ फैलाने वाले सरकारी अधिकारियों पर भी भारी ज़ुर्माने या सज़ा की वकालत की गई। एक से पाँच साल की सज़ा का भी प्रावधान किया गया। प्रावधान था कि अगर कोई मीडिया हाउस फ़ेक न्यूज़ फैलाता है तो उसे बीस साल की सज़ा हो।
 
फ़िलीपीन्स में 24 नवंबर 2016 को University of the Philippines ने फ़ेक न्यूज़ से लड़ने के लिए एक ऑनलाइन चैनल TVUP ही लॉन्च कर दिया। यूनिवर्सिटी के कार्यकारी निदेशक ने बयान दिया था कि इसके ज़रिए वे उम्मीद करते हैं कि ऑनलाइन में फैले ख़बरों के कबाड़ का विकल्प तैयार हो सकेगा, ताकि नागरिकों के पास असली लेख, असली ख़बर जानने के अवसर उपलब्ध रहे।
मार्च 2017 में वाशिंगटन में Reporters Without Borders (RSF) ने दुनियाभर में प्रेस की आज़ादी पर अपनी रिपोर्ट जारी की, जिसमें भारत की स्थिति बहुत ख़राब पायी गई। साथ में उसने फ़ेक न्यूज़ से लड़ने के नाम पर सरकारों की हरकत पर भी चिंता ज़ाहिर की। संस्था का मानना था कि फ़ेक न्यूज़ तानाशाहों के लिए वरदान है।
 
4 मार्च 2017 को संयुक्त राष्ट्र संघ की एक समिति ने बयान जारी कर कहा था कि, "संवैधानिक पदों पर बैठे लोग मीडिया को झूठा बता रहे हैं या फिर उसे विपक्ष करार दे रहे हैं, जबकि सरकारों का काम है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के माहौल को बनाए रखे। फ़ेक न्यूज़ के बहाने एक नए किस्म का सेंसरशिप आ रहा है। आलोचनात्मक चिंतन को दबाया जा रहा है।" यह यूएन की एक समिति का बयान था।

 
जब ट्रंप ने सीएनएन को फ़ेक न्यूज़ कहा, दुनिया के कई राष्ट्र प्रमुखों को मीडिया पर लगाम कसने का बहाना मिल गया। तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोगन ने फ़ेक न्यूज़ से लड़ने के नाम पर कई पत्रकारों को जेल भेज दिया। कंबोडिया के प्रधानमंत्री ने भी कहा कि ट्रंप ठीक कहते हैं कि मीडिया अराजकतावादी है। कंबोडिया में काम कर रहे विदेशी मीडिया को शांति और स्थायित्व के लिए ख़तरा बता दिया। रूस में भी फ़ेक न्यूज़ से लड़ने के लिए क़ानून बनाने की तैयारी दिखाई दी। ब्रिटेन की संसद की खेल मीडिया और संस्कृति कमेटी जाँच कर रही थी कि लोकतंत्र पर फ़ेक न्यूज़ का क्या असर पड़ता है।
 
जुलाई 2017 में जर्मनी की संसद ने एक क़ानून पास किया, जिसके अनुसार अगर किसी सोशल मीडिया नेटवर्क ने नफ़रत फैलाने वाली सामग्री 24 घंटे के भीतर नहीं हटाई तो 50 मिलियन यूरो तक का ज़ुर्माना लग सकता है। जर्मन जस्टिस मिनिस्टर ने कहा कि इंटरनेट पर जंगल का क़ानून चल रहा है, उसीको समाप्त करने के लिए यह क़ानून लाया गया है। रॉयटर की इस ख़बर में ये भी था कि फ़ेसबुक जैसे सोशल मीडिया नेटवर्क ने इस क़ानून पर चिंता जताते हुए कहा था कि ऐसी संदिग्ध सामग्री को हटाने के लिए दुनियाभर में 3000 लोगों की टीम बनाएँगे, अभी 4500 लोगों की टीम पोस्ट की समीक्षा कर रही हैं।
आप सोच सकते हैं कि जब एक नेटवर्क को नफ़रत फैलाने वाली सामग्री पकड़ने में हज़ारों लोग तैनात करने पड़ रहे हैं, तो इस वक़्त दुनिया में फ़ेक न्यूज़ कितनी बड़ी समस्या होगा। वैसे फ़ेसबुक का दुनियाभर में कामकाज है और वे लोग हम टीम बनाएँगे वाली घोषणा करके फ़ेक न्यूज़ के सामने लड़ाई का दावा ठोक रहे है, ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि भविष्य में फ़ेसबुक दुनिया के 'सिरफ़िरे' राजनेताओं के सामने कितना साफ़-सुथरा रह पाता है।
 
नवम्बर 2017 के दौरान भारत में भी ऐसी ख़बरें चली कि केंद्र सरकार फ़ेक न्यूज़ छापने वाले अख़बारों के ख़िलाफ़ कोई कदम उठाने जा रही है। ख़बरों की माने तो ऐसे अख़बारों को सरकारी विज्ञापन नहीं मिलेंगे। बताइए, सरकारी विज्ञापन भ्रष्टाचार का एक सार्वजनिक ज़रिया बन गए हैं ये सभी जानने और मानने लगे हैं, भले इसे साबित ना किया जा सकता हो। और अब विज्ञापन रूकवाने का तरीक़ा कितना जायज़ हो सकता है ये तो अपने अपने तौर पर सोचा ही जा सकता है।
 
ख़बरें तो छपीं, किंतु किसे फ़ेक न्यूज़ माना जाएगा इसकी कोई ख़बर तक नहीं थी!!! वैसे अख़बार के ज़रिए फ़ेक न्यूज़ कौन फैलाते हैं तथा अख़बारों के अलावा दूसरे कौन से प्लेटफॉर्म से फ़ेक न्यूज़ फैलता है इसका सिरा छूने की कोशिशें की गई हो ऐसा भी नहीं लगा था।
 
वैसे इस पेंच में सरकारों के दोनों हाथों में लड्डू है। एक तरफ़ वे फ़ेक न्यूज़ फैलाते हैं, तो दूसरी ओर फ़ेक न्यूज़ से लड़ने के नाम पर प्रेस का गला भी घोंटते हैं। एक तरफ़ फ़ेक न्यूज़ फैलाने वाले प्लेटफॉर्म धड़ल्ले से चलते रहते हैं, दूसरी ओर मामूली चूक के नाम पर मीडिया हाउस या पत्रकारों को लताड़ा जाता है।
 
फ़ेक न्यूज़ या प्लांट स्टोरी की तरह टीवी में फ़ेक डिबेट या प्लांट डिबेट भी ख़ूब हो रहा है। आतंकवादी हमला होता है तो डिबेट में सवाल यह नहीं होता कि सुरक्षा में चूक कैसे हो गई, इसकी जगह कई और दूसरे सवाल पैदा कर दिए जाते हैं। इस तरह सवाल को शिफ्ट कर देना फ़ेक डिबेट का काम होता है। ऐसी डिबेट को लेकर भारत के व्यंग कवि संपत सरल ने जो कहा था वही सबसे ठीक उदाहरण है। बिना उनकी परमीशन के उनके द्वारा कहा गया एक फिकरा यहाँ लिखते हैं। उन्होंने बड़े चोटील अंदाज़ में कहा था कि - टीवी में डिबेट ऐसे करवाई जाती है, जैसे अवध का नवाब मुर्गे लड़ा रहा हो!
मीडिया एक तरीक़े से भेडिया सरीखा काम कर रहा है। हालात यहाँ तक पहुंचे कि गुरमीत रामरहीम मामले में फ़ैसले के बाद मीडिया ने ऐसी रपटें छाप दीं कि पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट ने 26 अगस्त 2017 के दिन पीएम मोदी पर टिप्पणी कर दी थी कि वो देश के पीएम हैं, नाकि बीजेपी के। इस टिप्पणी को लेकर सोशल मीडिया दिनों तक उबलता रहा। 30 अगस्त 2017 को सुनवाई के दौरान हाईकोर्ट ने इस बात पर टिप्पणी करते हुए मीडिया को कड़ी फटकार लगाई थी। हाईकोर्ट ने ग़लत रिपोर्टिंग के लिए मीडिया संस्थानों को फटकार लगाते हुए कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बीजेपी के नहीं बल्कि देश के प्रधानमंत्री हैं, ऐसी कोई टिप्पणी हमने नहीं की फिर भी कुछ मीडिया संस्थानों ने इसे प्रकाशित कर दिया।
 
फ़ेक न्यूज़ को लेकर हम "फ़ेक न्यूज़ की दुनिया" टैग के अंतगर्त कई लेख प्रकाशित कर चुके हैं। राजनीति के फ़ेक न्यूज़ से लेकर मीडिया के फ़ेक न्यूज़ हमने इस टैग के अंतर्गत प्रकाशित किए हैं। उन तमाम लेखों में शामिल फ़ेक न्यूज़ को पढ़ना-समझना ज़रूरी है।
 

मीडिया और राजनीति धड़ल्ले से अजब-ग़ज़ब के दावे कर फ़ेक न्यूज़ और झूठी जानकारियाँ परोसते जा रहे हैं। लोगों को यह भी समझना होगा कि फ़ेक न्यूज़ आपके जानने के अधिकार पर हमला है। आप हर महीने न्यूज़ पेपर, न्यूज़ चैनल वगैरह के लिए न जाने कितना ख़र्चा करते होंगे। इसमें आजकल सोशल मीडिया के लिए डाटा पेक का ख़र्चा भी शामिल कर लीजिए। सोचना होगा कि क्या हम फ़ेक न्यूज़ के लिए भी पैसा दे रहे हैं?
 
प्रिंट मीडिया या इलेक्ट्रोनिक मीडिया फ़ेक न्यूज़ या प्रोपेगेंडा के हथियार के रूप में लंबे समय तक इस्तेमाल किए जाते रहे। यूँ कह लीजिए कि लंबे समय तक किए भी जाते रहेंगे। किंतु आजकल सोशल मीडिया का भी राजनीतिक दल जमकर इस्तेमाल किए जा रहे हैं। रोजगारी, महंगाई, नीतियाँ, योजनाएँ, सवाल, जवाब आदि से दूर ले जाने के लिए सोशल मीडिया कारगर हथियार बन चुका है। मुमकिन है कि इस्तेमाल ज़्यादा व्यापक रूप से भी किया जा रहा हो।
 
2017 में दुनिया के 9 देशों में एक सर्वे किया गया था। सर्वे के बाद रिपोर्ट में बताया गया कि दुनियाभर की सरकारें सोशल मीडिया के ज़रिए झूठी और मनगढ़ंत बातें फैलाती हैं। रिपोर्ट की माने तो, ज़्यादातर फ़ेक अकाउंट के ज़रिए ऐसी ख़बरें फैलायी गई थीं और असली मुद्दे गाड़ दिए गए। बताइए, फ़ेक न्यूज़ से परेशान दुनिया को ये लोग फ़ेक अकाउंट का तोहफ़ा दिए जा रहे थे!
ऐसी झूठी और मनगढ़ंत ख़बरों को फैलाने के लिए फ़ेक अकाउंट के ज़रिए फ़ेक तरीक़े से लाइक्स और शेयर बटोरे जाते हैं। यानी कि फ़ेक ख़बर, फ़ेक अकाउंट और फ़ेक प्रशंसा!!! फिर जब कोई देखता है कि इसे तो हज़ारों-लाखों लाइक्स मिले हैं, तो इसी फ़ेक ख़बर को लोग सच या सच के क़रीब मानने लगते हैं। क्या कमाल का मनोविज्ञान है यह! राजनीतिक दलों के लिए कथित रूप से मीडिया हाउस ख़रीदने के महंगे सौदे की जगह सस्ता सा रास्ता भी कह लीजिए।
 
ताइवान, चीन, ब्राजिल, कनाडा, जर्मनी, पोलैंड, युक्रेन तथा अमेरिका में जो सर्वे किया गया उसका रिपोर्ट गार्डियन ने छापा था। रिपोर्ट में ऑक्सफर्ड विश्वविद्यालय के फिलिप हॉवर्ड ने कहा था कि सोशल मीडिया में फ़ेसबुक, व्हाट्सएप, ट्विटर आदि प्लेटफॉर्म पर कंप्यूटर आधारित प्रोग्रामिंग के ज़रिए झूठी ख़बरें फैलायी जा रही हैं। उन्होंने लिखा कि सोशल मीडिया में फ़ेक अकाउंट के ज़रिए फ़ेक ख़बरें डालकर लोगों के दिमाग़ को बदला जा सकता है।
 
ऑक्सफर्ड विश्वविद्यालय ने कम्प्यूटेशनल प्रोपेगेंडा रिसर्च प्रोजेक्ट रिपोर्ट में कहा कि रूस जैसे देशों में 45 फ़ीसदी ट्विटर अकाउंट बोट्स हैं। बोट्स, यानी कि ऑटोमेटिक कंप्यूटर स्क्रिप्ट, जो एक साथ लाखों अकाउंट तक पहुंच सकता है। इस स्क्रिप्ट को लाखों लाइक्स मिले हैं ऐसा भी दिखाया जाता है। यानी कि झूठी ख़बर और झूठे लाइक्स का भ्रम। रिपोर्ट में लिखा गया था कि बोट्स के ज़रिए सरकारें गंदी राजनीति के खेल खेलती हैं।
 
अक्बटूर 2017 के आख़िरी सप्ताह में फ़ेसबुक ने कहा कि पिछले दो सालों में रूस के यूज़र्स की ओर से पोस्ट की गई सामग्रियाँ 12.6 करोड़ अमेरिकियों तक पहुंची हैं। सोशल नेटवर्किंग साइट के अनुसार, 2016 के राष्ट्रपति चुनावों से पहले और बाद में इस तरह की 80,000 पोस्ट जारी की गई। इनमें अधिकांश पोस्ट विभाजनकारी सामाजिक और राजनीतिक संदेशों वाली थीं। फ़ेसबुक पर ऐसे समय आँकड़े जारी किए जब सीनेट में इस बात पर सुनवाई होने जा रही थी की इन लोकप्रिय वेबसाइटों पर रूस ने कितना प्रभाव डाला है। रूस लगातार इन आरोपों से इनकार करता रहा था कि उसने पिछले अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव को प्रभावित करने की कोशिश की, जिसमें हिलेरी क्लिंटन को हरा कर डोनाल्ड ट्रंप राष्ट्रपति बने। फ़ेसबुक के ताजे आँकड़ों की पुष्टि समाचार एजेंसी रॉयटर्स और वॉशिंगटन पोस्ट अख़बार ने की।
इसके अनुसार, जून 2015 से अगस्त 2017 के बीच 80 हज़ार पोस्ट प्रकाशित हुईं। फ़ेसबुक ने कहा कि क्रेमलिन से जुड़ी रूसी कंपनी ने ये पोस्ट डाले थे। रॉयटर्स के मुताबिक़, फ़ेसबुक के प्रतिनिधि कॉलिन स्ट्रेच ने लिखा, "ये कार्रवाईयाँ फ़ेसबुक के कम्यूनिटी बनाने के मिशन के विरोध में की गई थीं। और हम इस नए ख़तरे से निपटने के लिए प्रतिबद्ध हैं।" वॉशिंगटन पोस्ट के अनुसार, 30 अक्बटूर को गूगल ने भी जानकारी दी  कि रूसी ट्रोल्स ने 18 अलग अलग चैनलों पर 1,000 वीडियो अपलोड किए। रॉयटर्स के अनुसार, इस बीच ट्विटर ने उन सभी संदिग्ध 2,752 खातों को निलंबित कर दिया, जिनके संबंध रूस के इंटरनेट रिसर्च एजेंसी से जुड़े होने का संदेह था।
 
हमारे यहाँ भारत में चुनावी मौसम फ़ेक न्यूज़ या पेड न्यूज़ का मौसम बन जाता है। भारत की राजनीति के हिसाब से दो शैलियाँ खुलकर उभरी हैं। किसी प्रदेश में सत्ताविहिन पार्टी सत्ता पाने हेतु चुनाव के दौरान जमकर फ़ेक न्यूज़ फैलाती है, पेड न्यूज़ का इस्तेमाल होता है, सत्ताधारी दल के ख़िलाफ़ अनर्गल ख़बरें फैलायी जाती हैं, बदनामी का ओवरडोज़ पिलाया जाता है और अगर वहाँ सत्ता मिल जाए तो फिर सारी चीज़ें ग़ायब हो जाती हैं! दूसरी और सत्ताधारी पार्टी कुर्सी गंवा दे तो फिर वे जिसे सत्ता मिलती है उसके ख़िलाफ़ यही प्रक्रिया शुरू कर देती है और रोज़ाना सरकार ने या मंत्रियों ने ये कर दिया, वो कर दिया टाइप ख़बरों की बारिश शुरू हो जाती है!
 
पैसे लेने का तत्व पेड न्यूज़ में भी है और फ़ेक न्यूज़ में भी। चुनावों में पेड न्यूज़ का क्या आतंक है आप किसी भी दल के उम्मीदवार से गुप्त रूप से पूछ लीजिएगा। अब पेड न्यूज़ के कई तरीक़े आ गए हैं। चुनाव आते ही विपक्षी दलों के ख़िलाफ़ स्टिंग ऑपरेशनों की बाढ़ आ जाती है। सर्वे में विपक्ष को कमज़ोर बताया जाने लगता है। आप ख़ुद ही देख लीजिएगा, सर्वे में वही दल कमज़ोर बताए जाते हैं जो सत्ता में नहीं होते! अगर सर्वे इतने वैज्ञानिक ढंग से किए जाते तो फिर सत्तादल कभी नहीं बदलता। पेड न्यूज़ में होता यह है कि पैसा लेकर उम्मीदवार के बारे में ख़बर छपती है कि जनसैलाब उमड़ा, फलां ढिमकाना की चल रही है लहर। इसीकी नई पीढ़ी है फ़ेक न्यूज़।
 
हर चुनाव में पेड न्यूज़ पकड़ने के लिए राज्य स्तर और ज़िला स्तर पर चुनाव आयोग मीडिया सर्टिफिकेशन एंड मॉनिटरिंग कमिटिज़ (एमसीएमसी) बनाता है। 2013 में चुनाव आयोग की एक रिपोर्ट आई थी, जिसके मुताबिक़ 17 राज्यों के विधानसभा चुनावों में पेड न्यूज़ के 1400 मामले सामने आए थे। ये सभी चुनाव 2010 से 2013 के बीच हुए थे। 2012 के पंजाब के विधानसभा चुनाव में पेड न्यूज़ के 523 मामले सामने आए थे। 2012 के गुजरात विधानसभा चुनाव में पेड न्यूज़ के 414 मामले सामने आए। 2012 के हिमाचल प्रदेश के चुनाव में 104 मामले सामने आए। 2013 के कर्नाटक विधानसभा चुनाव में पेड न्यूज़ के 93 मामले सामने आए थे।
2014 के लोकसभा चुनाव में मीडिया का जो रूप था वो अभूतपूर्व था। यह चुनाव भी पेड न्यूज़ से बच नहीं सका। कई बार पेड न्यूज़ के मामले रिपोर्ट भी नहीं होते हैं। उनके तरीक़े इतने बदल गए हैं कि पकड़ना भी मुश्किल होता है और अभी तक पेड न्यूज़ को अलग से परिभाषित नहीं किया गया है और ना ही इसके लिए सज़ा का प्रावधान किया गया है। 2014 के लोकसभा चुनाव में पेड न्यूज़ के 787 केस सामने आए थे। सबसे अधिक 223 मामले राजस्थान से और 152 मामले पंजाब से दर्ज हुए थे। आंध्रप्रदेश में 116 और उत्तरप्रदेश में 86 मामले दर्ज हुए। आंध्र में 116 कंफर्म केस थे, लेकिन 2168 नोटिस जारी हुए थे पेड न्यूज़ के संबंध में। 2014 के चुनाव में पेड न्यूज़ के मामले में उम्मीदवारों को 3100 नोटिस जारी किए गए थे।
 
पेड न्यूज़ नहीं रुक रहा है और फ़ेक न्यूज़ भी आ गया है! 2017 के पंजाब और यूपी के विधानसभा चुनावों में भी पेड न्यूज़ के मामले दर्ज किए गए। हम अभी तक अपने चुनावों को हिंसा और बूथ कैप्चरिंग के अलावा इन दुर्गुणों से भी मुक्त नहीं कर पाए हैं। पैसे अब भी पकड़े जाते हैं मगर पैसे का इस्तेमाल अभी तक नहीं रुका है। अक्टूबर 2011 में पेड न्यूज़ के आरोप में यूपी की एक विधायक उमलेश यादव की सदस्यता खारिज़ कर दी गई थी, जो राष्ट्रीय परिवर्तन दल की विधायक थीं। किसी बड़े दल का उम्मीदवार पेड न्यूज़ करता हुआ बर्खास्त नहीं हुआ है।
 
इस क्रम में 2017 के दौरान मध्य प्रदेश सरकार के नेता नरोत्तम मिश्रा पकड़े गए और उन पर मामला साबित भी हो गया। आयोग ने मिश्रा से चुनाव के दौरान पेड न्यूज़ पर ख़र्च की गई रकम का ब्यौरा मांगा था, जिसे उन्होंने उपलब्ध नहीं कराया था। जून 2017 के दौरान चुनाव आयोग ने इनकी विधायकी ख़त्म कर दी तथा 3 साल तक चुनाव लड़ने पर पाबंदी लगा दी। विधानसभा चुनाव के दौरान मिश्रा पर पेड न्यूज़ के आरोप लगे थे। जब इन पर आरोप सिद्ध हुए तब वे मध्य प्रदेश की शिवराज सिंह सरकार में जल संसाधन, जनसंपर्क एवं संसदीय कार्य मंत्री थे। 2008 के विधानसभा चुनाव के दौरान उन पर पेड न्यूज़ और करप्ट प्रैक्टिस की शिकायत आयोग से की गई थी। कांग्रेस के पूर्व विधायक राजेंद्र भारती ने अप्रैल 2009 में आयोग से इस संबंध में शिकायत की थी। उन पर 42 बार पेड न्यूज़ छपवाने के आरोप लगे। इसके बाद चुनाव आयोग ने जनवरी 2013 में मिश्रा से जवाब तलब किया था। उन्होंने इस मामले को हाइकोर्ट में चुनौती भी दी थी, जिस पर शुरू में उन्हें स्टे मिल गया था। बाद में आयोग की दलील पर स्टे ऑर्डर वापस ले लिया गया था।
 
इसके बाद मिश्रा ने सुप्रीम कोर्ट की शरण ली। मिश्रा ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका लगाई और राष्ट्रपति चुनाव में वोट डालने की इजाज़त मांगी। जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने इस याचिका को दिल्ली हाईकोर्ट में ट्रांसफर कर दिया। हालाँकि उन्हें वहाँ से भी कोई राहत नहीं मिली। हाईकोर्ट ने मिश्रा की याचिका खारिज़ कर दी। साथ ही चुनाव आयोग के फ़ैसले पर मुहर लगा दी। आगे इस मामले में क्या हुआ यह पता नहीं है।
वैसे यह भी अजीब है, ग़लत तरीक़े से राज्यपाल शासन लगाया जाए, पेड न्यूज़ के मामले सिद्ध हो या कुछ भी हो, क़ानून बड़ी मुहब्बत से इजाज़त देता है कि दोषित नेता या मंत्री बोरिया-बिस्तर बांधकर बंगला खाली कर चलते बने! ना कोई जेल और ना ही कोई सख़्त सज़ा! सज़ा के नाम पर चुनाव लड़ना प्रतिबंधित ज़रूर किया जाता है। लेकिन वो तो लालू यादव के मामले भी हुआ। प्रतिबंधित होने के बाद भी इन्होंने बिहार में सरकार बना ली थी और अपने बेटे को डिप्टी सीएम तक बना लिया था! खैर, वो एक अलग सड़क है।
 
जून-जुलाई 2017 के दौरान पश्चिम बंगाल हिंसा की आग में झुलस रहा था। वैसे दंगे के बारे में हमारे यहाँ एक बात गंभीरता से कही या लिखी जाती है कि - दंगे कभी होते नहीं... बल्कि करवाए जाते हैं। खैर, किंतु बंगाल की इस हिंसा के दौरान बशीरहाट में भी सांप्रदायिक हिंसा की घटना हुई थी। वहाँ एक तस्वीर फैलाई जाने लगी कि बदुरिया में हिंदू औरतों के साथ ऐसा हो रहा है। बांग्ला में लिखा था – "टीएमसी को समर्थन करने वाले हिंदू, बताओ क्या तुम हिंदू हो?" इस तस्वीर के सहारे एक समुदाय विशेष के ख़िलाफ़ एक समुदाय को भड़काया जा रहा था। इसे एक्सपोज़ करते हुए altnews.in ने बताया कि इस तस्वीर को बीजेपी हरियाणा की एक सदस्य ने हिंदी में लिखकर शेयर कर दिया। लिख दिया कि बंगाल में जो हालात है, हिंदुओं के लिए चिंता का विषय है।
 

बाद में पता चला कि यह तस्वीर बंगाल की नहीं, बल्कि 2014 में रिलीज़ हुई भोजपुरी फ़िल्म के एक सीन की है!!! आप सोच सकते हैं कि भोजपुरी फ़िल्म के एक सीन का इस्तेमाल बंगाल और बंगाल से बाहर धार्मिक भावना को भड़काने के लिए हो रहा था!!! यही नहीं, स्क्रॉल डॉट इन ने इस पर पूरी ख़बर छापते हुए लिखा कि बीजेपी की प्रवक्ता नुपूर शर्मा ने 2002 के गुजरात दंगों की तस्वीर साझा कर दीं, यह लिखते हुए कि यह बंगाल में हो रही सांप्रदायिक हिंसा की है! स्क्रॉल ने लिखा था कि बताने-कहने के बाद भी इन ट्वीट को डिलीट नहीं किया गया!
 
इन्हीं दिनों पश्चिम बंगाल में आसनसोल के बीजेपी आईटी सेल के सचिव तरुण सेनगुप्ता को कथित रूप से फ़ेक फ़ोटो पोस्ट करने के आरोप में गिरफ़्तार किया गया। उन पर आरोप लगा कि उन्होंने राम नवमी के दौरान एक फ़ेक वीडियो अपलोड किया था कि एक मुस्लिम पुलिस अफ़सर हिंदू आदमी को मार रहा है। इस वीडियो के साथ आपत्तिजनक और सांप्रदायिक टिप्पणी की गई थी। गिरफ़्तारी के बाद गिरफ़्तार होने वाले और गिरफ़्तार करने वाले, दोनों एक दूसरे पर आरोप लगाने लगे। इन आरोपों के बीच चर्चा यह होनी चाहिए थी कि हमारे नेता ऐसी चीज़ें क्यों कर रहे हैं? ये कौन सी रणनीति का हिस्सा है?
इन्हीं दिनों केंद्रीय गृह मंत्रालय की रिपोर्ट में स्पेन की सीमा की चमकदार तस्वीर छप गई थी! भारत के गृह मंत्रालय की 2016-17 की सालाना रिपोर्ट के पेज नंबर 40 पर यह जानकारी दी गई कि अंतरराष्ट्रीय सीमा है, वहाँ पर 2043 किमी तक तेज़ रोशनी की व्यवस्था करने की मंज़ूरी प्रदान की है, सिर्फ़ 100 किमी ही काम बाकी रह गया है और बाकी हो गया है। इसे दिखाने के लिए गृह मंत्रालय की रिपोर्ट में एक तस्वीर लगाई गई, जिसके नीचे लिखा हुआ था सीमा पर तेज़ रोशनी की व्यवस्था। गृह मंत्रालय की रिपोर्ट को कौन झूठ बता सकता था भला? जिसने देखा चकाचौंध रह गया। पिछले साल इतने तालाब ख़ुद गए थे किसी को पता नहीं चला था और अब 1900 किमी से ज़्यादा इलाक़े में सरहद पर तेज़ रोशनी का भी किसी को पता नहीं चला।
 
लेकिन 14 जून 2017 को ऑल्ट न्यूज़ ने इसे झूठ बताते हुए सबूतों या तथ्यों के साथ एक रिपोर्ट छापी। ऑल्ट न्यूज़ ने जब पकड़ा तो गृह मंत्रालय ने माफ़ी मांगी!!! सोचिए, ऑल्ट न्यूज़ ने सच या झूठ का पर्दाफ़ाश नहीं किया होता तो आप एक नागरिक के रूप में यही सोचते रहते कि वाह क्या काम हुआ है। लेकिन यहाँ पेंच तो यही है कि किसी देश का गृह मंत्रालय ग़लत तस्वीर छाप देता है, वो भी सरहद की। ऐसा भी नहीं कि पंजाब की सरहद लिखा हो और तस्वीर राजस्थान इलाक़े की हो। लोगों को लाखों तालाब खुद गए थे यह नहीं पता था, इधर गृह मंत्रालय को पता नहीं था कि भारत की सरहद कौन सी है और स्पेन की कौन सी!
 

सोचिए, मंत्रालय तक ग़लत ख़बरें प्रसारित कर देते हैं और फिर कहते हैं कि ग़लती से हो गया, माफ़ी भी मांग ली जाती है!!! क्या ये सब इतना स्वाभाविक है ये ख़ुद से पूछ लीजिएगा। पिछले साल तो बीजेपी के आधिकारिक ट्विटर हैंडल पर एक निजी न्यूज़ चैनल की ख़बर को ट्वीट किया गया। दावा किया गया कि दाऊद की संपत्तियाँ ज़ब्त की जा रही हैं। निजी न्यूज़ चैनल के हवाले से बीजेपी के आधिकारिक ट्विटर हैंडल पर ये ट्वीट आया। लोगों ने सोचा कि न्यूज़ चैनल बिकाऊ हो सकते हैं, पार्टी थोड़ी न बिक जाएगी। लेकिन कुछ ही दिनों बाद जिस देश में दाऊद की संपत्ति ज़ब्त होने की बात हो रही थी, उसी देश की संस्थाओं ने इसे ग़लत ख़बर बता दिया! बाद में भारत में भी अनौपचारिक रूप से इसे ग़लत ख़बर बताया गया! बताइए, मीडिया वाले नेताओं के ट्वीट को सोर्स बताकर ख़बरें चलाते हैं और नेता मीडिया के सोर्स को!!! लेकिन सारे सोर्स तो टोमेटो सॉस ही निकलते हैं।
 
जुलाई 2017 के दौरान बीजेपी के बड़े नेता, सांसद और अभिनेता परेश रावल ने एक ट्वीट किया। 3 जुलाई को ट्वीट आया, जिसमें सांसद परेश रावल ने एक वाक्य लिखा था, जिसे वे पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम का बता रहे थे। ट्वीट में लिखा था, "मुझे पाकिस्तान ने इस्लाम का हवाला देकर मिलाने का प्रयास किया लेकिन मैंने मातृभूमि के साथ गद्दारी नहीं की।" परेश रावल ने साथ ही लिखा कि ये छद्म लिबरल लोगों के लिए है। बाद में पता चला कि वो बयान कलाम का था ही नहीं! जब हंगामा हुआ तो परेश रावल ने कहा कि मुझे पता नहीं था कि यह फ़ेक है। अगर इनकी जगह कोई और होता तो मैं इसे दो बार चेक करता, मगर कलाम की वजह से मुझे यह सही लगा। सोचिए, इतने बड़े बड़े सांसद आम सोशल मीडिया यूज़र्स सरीखी शैली लेकर चलने लगे तो फिर इनके ज्ञान को किस लेवल पर रखेंगे आप?
हमारे यहाँ कुछ भी मन में आए वो लिख दो, पूरी तरह छूट है और उसे प्रचारित या प्रसारित करने के लिए किसी बड़े आदमी का चेहरा चिपका दो। नीचे लिख दो कि ये वाक्य इस बड़े आदमी ने कहा था। सोशल मीडिया में ज़्यादातर तो यही चलता रहता है। चाणक्य ने अपने जीवन में जो नहीं कहा होगा, इतना तो उनके हवाले से सोशल मीडिया में लोग कह देते हैं!!! कलाम, गाँधीजी, विवेकानंदजी, रतन टाटा समेत कई बड़े लोगों की तस्वीरें और मनगढ़ंत बयानों को ऐसे ही प्रचारित-प्रसारित किया जाता है। ऐसे में कोई सांसद ख़ुद को फ़ेसबुकियाँ या व्हाट्सएपियाँ बना लें तो फिर आप क्या उम्मीद करेंगे?
 
परेश रावल ऐसा पहले भी कर चुके थे। 17 मई 2017 को परेश रावल ने ट्वीट किया कि अरुंधति रॉय ने इंटरव्यू दिया है कि 17 लाख भारतीय सेना कश्मीर के आज़ादी गैंग को हरा नहीं सकती। इसके साथ उन्होंने अरुंधति रॉय की तस्वीर लगा दी, जिसमें वो सेना की जीप के आगे बंधक स्थिति में बिठाई गईं थीं। अरुंधती रॉय के तरीक़ों से आपको नफ़रत हो तो आप उसे गाली दें। लेकिन तब आप नागरिक होने चाहिए, नेता नहीं। सार्वजनिक जीवन जी रहे लोगों का अपना एक दायरा होता है। परेश रावल ने तो फ़ेसबुकियाँ टाइप वो फ़ेक तस्वीर ही इस्तेमाल कर ली। वैसे तस्वीर फ़ेक थी ये सभी को पता था, परेश रावल को भी। लेकिन अरुंधती रॉय के इंटरव्यू वाला बयान बवाल मचा गया।

 
इसे लेकर कई बड़े न्यूज़ चैनलों पर बाक़ायदा बहस हो गई। बहस का तेवर ऐसा था कि अरुंधति रॉय का देशनिकाला ही हो जाएगा। ताज्जुब यह था कि ये सब कुछ परेश रावल के उस ट्वीट के बाद हुआ था और बाद में पता चला कि ट्वीट का दावा तो पूरी तरह निराधार ही था! सोचिए, टीवी चैनल-विशेषज्ञ-नेता-समर्थक... सारे के सारे उस चीज़ पर अपने फेफड़े फाड़ गए जो चीज़ हुई ही नहीं थी!!! पता चला कि अरुंधति रॉय न तो हाल में श्रीनगर गईं थीं, और न ही ऐसा कोई इंटरव्यू किसी को दिया था। अरुंधति रॉय ने एक साल पहले आउटलुक पत्रिका को ज़रूर इंटरव्यू दिया था। मगर परेश रावल का ट्वीट उस इंटरव्यू को लेकर नहीं था।
 
24 मई को दवायर.इन ने जब यह पता लगाया कि परेश रावल तक जानकारी कैसे पहुंची, तो फ़ेक न्यूज़ का एक और ख़तरनाक पहलू सामने आया। इस पूरे खेल को समझना बड़ा दिलचस्प है। परेश रावल ने अरुंधति रॉय का यह फ़ेक इंटरव्यू द नेशनालिस्ट नाम के फ़ेसबुक पेज से उठाकर ट्वीट कर दिया था! बताइए, किसी फ़ेसबुक पेज पर लिखा हो उसे जाँचना या परखना चाहिए ये नागरिकों तक की कॉमन सेंस में है, लेकिन एक सांसद को यह ठीक नहीं लगा था! खैर... हम आगे चलते हैं। इस पेज पर ख़बर पहुंची थी पोस्टकार्ड.न्यूज़ से। गौरतलब है कि इन दिनों तक कई ऐसे साइट लोगों की नज़रों में आ चुके थे, जो फ़ेक ख़बरों के लिए पूरी तरह बदनाम थे। पोस्टकार्ड.न्यूज़ भी इसी सिलसिले में विवादित हो चुका था। इस पर लिखा था कि अरुंधति रॉय ने यह इंटरव्यू द टाइम्स ऑफ़ इस्लामाबाद को दिया था कि 17 लाख भारतीय सेना कश्मीर के आज़ादी गैंग को हरा नहीं सकती। पोस्टकार्डन्यूज़ ने अपना सोर्स भी नहीं बताया था! वायर.इन ने पाया कि रेडियो पाकिस्तान ने सबसे पहले यह प्रसारित किया था। जिस द टाइम्स ऑफ़ इस्लामाबाद को पाकिस्तानी अख़बार बताया जा रहा था, दरअसल वो वेबसाइट था, अख़बार नहीं! पोस्टकार्ड.न्यूज़ ने जिस दिन ये फ़ेक इंटरव्यू छापा था, उसी दिन इसे सत्यविजयी.कोम ने भी छापा और चार-पाँच वेबसाइट ने भी इसे अपने यहाँ जगह दी। इन सभी का नाम भी फ़ेक न्यूज़ के सिलसिले में आ चुका था। दवायर.इन ने पकड़ा कि दइंटरनेटहिंदू.इन ने अपनी स्टोरी में टाइम्स ऑफ़ इस्लामाबाद का लिंक दिया था।
देखिए, सोचिए और साथ में समझिएगा भी कि किस तरह पाकिस्तानी साइट से चलते हुए कोई फ़ेक न्यूज़ या फ़ेक इंटरव्यू भारत के सांसद के ट्विटर हैंडल पर पहुंचता है और वहाँ से भारत के चैनलों पर अरुंधति रॉय के ख़िलाफ़ ज़ोरदार बहस छिड़ जाती है! परेश रावल ने ट्वीट डिलीट कर दिया, लेकिन महीनों बाद भी यह फ़ेक इंटरव्यू रेडियो पाकिस्तान की वेबसाइट और भारत के पोस्टकार्ड.न्यूज़ पर तस्वीर के साथ था! यह भी एक रणनीति है। जब विवाद थम जाएगा तो फिर से इस फ़ेक इंटरव्यू को घुमाया जाने लगेगा। क्या पता व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी में घुमाया ही जा रहा हो।
 
सोचिए, भारत और पाकिस्तान के वेबसाइट फ़ेक न्यूज़ के मामले में एक दूसरे को मदद कर रहे हैं! कोई आपके नाम से पाकिस्तान में फ़ेक इंटरव्यू छपवा दें, जब तक आप सफ़ाई देंगे, टीवी चैनल, नेता और ये वेबसाइट मिलकर आपका भयंकर नुक़सान कर चुके होंगे। 1950 के दौर में भारत-पाक मीडिया को लेकर एक पुस्तक आई थी। लेखक ने आज से क़रीब 70 साल पहले ही लिख दिया था कि भारत और पाकिस्तान का मीडिया पत्रकारिता कम करता है और एकदूसरे के लोगों को भड़काने का काम ज़्यादा करता है। अपनी इस बात को साबित करने के लिए लेखक ने अपने पुस्तक में ऐसे अनेक प्रसंगों का ज़िक्र किया, जो इन दोनों देशों के मीडिया से जुड़े हुए थे।
 
जब गृह मंत्रालय ही ग़लती से ग़लती करने लगे तो लालू प्रसाद यादव थोड़ी न पीछे रहते। 28 अगस्त 2017 को लालू ने भाजपा भगाओ देश बचाओ रैली का आयोजन किया, जिसमें विपक्षों का जमघट लगा। हालाँकि एक दर्जन से ज़्यादा विपक्ष पार्टियाँ मिलकर भी पटना का गांधी मैदान पूरा नहीं भर पाई। फिर क्या था। लालूजी ने तो फ़ेक तस्वीर का ही इस्तेमाल कर लिया! लालू ने इस रैली की एक तस्वीर ट्विटर पर शेयर की। तस्वीर में पूरा मैदान लोगों से खचाखच भरा हुआ दिखाई दे रहा था। लालू ने लिखा, "कोई भी चेहरा लालू के आधार के आगे नहीं झुक सकता। आओ और गिनो, जितना गिन सकते हो।" लेकिन ज़ल्द ही रैली की असली तस्वीर कहीं से सामने आ गई। लालू ने जो तस्वीर डाली थी वो वास्तविक तस्वीर से उलट थी, जिसे कंप्यूटर तकनीक के ज़रिए बनाया गया था! फिर तो ऐसी अनेक फ़ेक तस्वीर बनाकर विरोधियों ने जमकर लालू की खिंचाई की। आरजेडी के प्रवक्ता ने कहा कि ग़लती हुई है, हम इसे सुधार लेंगे।
 
स्पेन बॉर्डर की तस्वीर, फिर लालू यादव की गांधी मैदान की तस्वीर... अब ऊर्जा मंत्री पीयूष गोयल ने सोचा कि मैं भी हाथ आजमा लूँ। 27 अगस्त 2017 के दिन केंद्रीय ऊर्जा मंत्री पीयूष गोयल ने एक तस्वीर पोस्ट कर दावा किया कि केंद्र की मोदी सरकार की बदौलत हम भारतीय सड़कों को जगमगाने में सफल हो पाए हैं। लेकिन ज़ल्द ही पीयूष गोयल का भी बंटाधार हो गया। इन्होंने अपने दावे में जिस तस्वीर का इस्तेमाल किया, वो भारत की नहीं बल्कि रूस की थी!!! पीयूष गोयल ने रूस की इस तस्वीर को भारत का बताकर अपने ट्वीट में लिखा- सरकार ने 50 हज़ार किलोमीटर की सड़कों को 30 लाख एलईडी लाइट्स से चमकाने का काम कर दिखाया है।
पीयूष गोयल द्वारा इस्तेमाल की गई यह फ़ेक तस्वीर सोशल मीडिया यूज़र्स की निगाहों से बच नहीं पाई। जॉय दास नाम के एक यूज़र ने इस तस्वीर को पकड़ लिया कि ये तो रूस की तस्वीर है। जॉय दास ने इस तस्वीर की सच्चाई बयान करते हुए सरकार पर तंज कसा और ट्वीट किया। देखते ही देखते जॉय दास का ये ट्वीट वायरल होने लगा। फ़ेक तस्वीर के इस्तेमाल की ख़बर केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल तक भी पहुंची। गोयल को अपनी ग़लती का अहसास हुआ और उन्होंने तत्काल इस तस्वीर को हटा दिया। पीयूष गोयल ने अपनी ग़लती मानते हुए उन्हें तस्वीर की हक़ीक़त बताने वाले लोगों का शुक्रिया करते हुए एक और ट्वीट किया। केंद्रीय मंत्री ने अपने इस ट्वीट में लिखा कि जिस तरह से हम सड़कों को रोशन कर रहे हैं उसी तरह सोशल मीडिया तथ्यों को उजागर कर हमें रोशनी दे रहा है।
 
सितम्बर 2017 का महीना था। कर्णाटक में भी गणेश चतुर्थी के त्यौहार का माहौल बना हुआ था। तभी सोशल मीडिया में इसे लेकर एक ख़बर फैली। ख़बर यह थी कि कर्णाटक सरकार जहाँ बोलेगी वहीं गणेशजी की प्रतिमा स्थापित करनी हैं, प्रतिमा स्थापित करने से पहले दस लाख का डिपॉजिट करना होगा, मूर्ति की ऊंचाई कितनी होगी इसकी इजाज़त सरकार से लेनी पड़ेगी, दूसरे धर्म के लोग जहाँ रहते हैं वहाँ से विसर्जन के लिए नहीं जा सकेंगे, पटाखे नहीं जला सकते। मैट्रिक पास तक आदमी दिमाग़ से सोचता तो पहली नज़र में ही इस ख़बर में कितनी नकली हवा है यह पता चल जाता। यह झूठ इतना ज़ोर से फैल गया कि अंत में कर्णाटक के पुलिस प्रमुख आरके दत्ता को प्रेस बुलानी पड़ी और सफ़ाई देनी पड़ी कि सरकार ने ऐसा कोई नियम नहीं बनाया है और ये सब झूठ है।
 
इस झूठ के सोर्स का जब पता लगाया गया तो फिर एक बार पोस्टकार्ड.न्यूज़ वेबसाइट का नाम सामने आया। कई पत्रकारों ने इस साइट के बारे में आलोचनात्मक लेख में कहा है कि इसका काम ही हर दिन फ़ेक न्यूज़ बनाकर सोशल मीडिया में फैलाना है। 11 अगस्त 2017 को पोस्टकार्ड.न्यूज़ ने एक आर्टिकल छापा था, जिसका शीर्षक था - कर्णाटक में तालिबान सरकार। फिर इस लिंक के ज़रिए सोशल मीडिया में गणेश चतुर्थी के नियमों का झूठ जमकर फैला और अंत में पुलिस प्रमुख को सफ़ाई देनी पड़ी।
नोटबंदी (या नोटबदली) जितना बड़ा आर्थिक-राजनीतिक सुधार का प्रसंग था, फ़ेक न्यूज़ के क़ारोबार के लिए भी कम छोटा मौक़ा नहीं था। नोटबंदी के दौरान जमकर फ़ेक न्यूज़ का क़ारोबार चला। 2000 के नोट में चीप से लेकर न जाने क्या क्या ख़बरें फैली! हर दिन नयी नयी ख़बरें आतीं, जो शाम तक झूठ साबित हो जाती। इतना ही नहीं, आरबीआई या केंद्रीय नेताओं तक ने अपने बयानों से पुरे मामले को उलझाए रखा। नोटबंदी के बाद सबसे बड़ा मुद्दा यही सामने आ रहा था कि तमाम प्रकार के आँकड़ों में बहुत बड़ी ऊंचनीच थी। आरबीआई से लेकर सरकार के मंत्रालयों तक के बयानों में अंतर था! इनकम टैक्स रिटर्न फ़ाइल करने वालों की संख्या को लेकर भी यही मंज़र पसरा रहा। एक आकलन में कहा गया कि नोटबंदी के बाद आईटी रिटर्न फ़ाइल करने वालों की संख्या 25 फ़ीसदी बढ़ी है। उसमें क़रीब 56 लाख नये रिटर्न फ़ाइल किए गए थे ऐसी जानकारी देश को दी गई। जबकि 2016-17 का आर्थिक सर्वेक्षण पेश करते समय अरविंद सुब्रमण्यम ने कहा कि 5.4 लाख नये टेक्स पेयर दर्ज हुए हैं। 56 लाख और 5.4 लाख.... अच्छा था कि किसीने यह नहीं कहा कि पहले वाले आकलन में बीच में पॉईंट लगाना भूल गए थे, या फिर अरविंदजी ने ग़लती से पॉईंट लगा दिया था!
 
इसके अलावा दो और बयान भी थे, जो वित्त मंत्री और प्रधानमंत्री के थे। एक लोकसभा में दिया गया बयान था, तो दूसरा लाल किले से। चौंकाने वाली बात तो यह थी कि दोनों के बयानों में अंतर था!!! 16 मई 2017 को वित्त मंत्री ने कहा था कि 91 लाख नये टैक्स पेयर दर्ज हुए हैं। लाल किले से पीएम मोदी ने 56 लाख का आँकड़ा दिया, जो एक आकलन में पहले भी देखा गया था। सोचिए, टैक्स पेयर के आँकड़े निश्चित ही नहीं थे और अब तो आपको इसमें भी बहुमत वाला टोटका ही आजमाना था! दो जगह 56 लाख का आँकड़ा, एक जगह 5.4 लाख का और एक जगह 91 लाख का! पीएम का आँकड़ा सच माने, देश के दस्तावेज़ आर्थिक सर्वेक्षण का आँकड़ा सच माने या फिर देश के वित्तमंत्री का? लेकिन रूकिए, अभी एक और ट्विस्ट बाकी था। सरकारी डाटा ये आँकड़ा 33 लाख का बता रहा था! सरकारी डाटा वाला यह आँकड़ा पहले भी सरकार के हवाले से मीडिया में छप चुका था।
 
फ़ेक न्यूज़ के बारे में सिर्फ़ राजनीतिक दलों और उनके संगठनों को दोषी न माने। इसमें आजकल मीडिया भी अपना रोल बख़ूबी निभा रहा है। हमारे यहाँ राष्ट्रीय स्तर के न्यूज़ चैनल 2000 के नोट में चीप को लगा देते हैं, दो साल पुराने युद्धाभ्यास का वीडियो हालिया घटना बताकर लोगों को परोस देते हैं, अपनी ही चौकियों को दुश्मन की चौकियाँ बताकर जंग का माहौल तैयार करने में मदद करते हैं!
 
मीडिया और राजनीति का यह खेल भारत में ही नहीं, दुनियाभर में अपना रंग बिखेर रहा है। कहा जाता है कि आज का मेनस्ट्रीम मीडिया सरकारों द्वारा दिए आँकड़ों को या जानकारी को जस का तस वेद वाक्य की तरह फैला देता है। सरकारों में आप केंद्र से लेकर अलग अलग राज्यों की सरकारों को शामिल कर लीजिएगा। मेनस्ट्रीम मीडिया के लिए सरकारों का बोला हुआ वाक्य वेद वाक्य हो गया है! कुछ न्यूज़ चैनल तो इस प्रवृत्ति में ख़ुद को सबसे बड़ा चापलूस साबित करने पर तुले हुए हैं।
जब रामनाथ कोविंद ने राष्ट्रपति पद की शपथ ली तो उस दिन बहुत सारे अंग्रेज़ी टीवी चैनलों ने ख़बर चलाई कि सिर्फ़ एक घंटे में ट्विटर पर राष्ट्रपति कोविंद के फ़ॉलोअर्स की संख्या 30 लाख हो गई है। वे चिल्लाते रहे कि 30 लाख बढ़ गया, 30 लाख बढ़ गया। उनका मक़सद यह बताना था कि कितने लोग कोविंद को सपोर्ट कर रहे हैं। जबकि सच ये था कि उस दिन पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का सरकारी अकाउंट नए राष्ट्रपति के नाम हो गया था। जब ये बदलाव हुआ तब राष्ट्रपति भवन के फ़ॉलोअर्स अब कोविंद के फ़ॉलोअर्स हो गए थे। अब आप यह भी कह सकते हैं कि प्रणब मुखर्जी को भी तीस लाख से भी ज़्यादा लोग ट्विटर पर फ़ॉलो करते थे। लेकिन यह राष्ट्रपति का ट्विटर अकाउंट था, ना कि प्रणब मुखर्जी या कोविंद का।
 
अगस्त 2017 में केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने एक फ़ोटो शेयर किया था, जिसमें कुछ लोग तिरंगे में आग लगा रहे थे। फ़ोटो के कैप्शन पर लिखा था - गणतंत्र के दिवस पर हैदराबाद में तिरंगे को आग लगाई जा रही है। गूगल इमेज़ सर्च एक नया एप्लीकेशन आया है, उसमें आप किसी भी तस्वीर को डालकर जान सकते हैं कि ये कहाँ की और कब की है। प्रतीक सिन्हा ने यही काम किया और उस एप्लीकेशन के ज़रिए गडकरी के शेयर किए गए फ़ोटो की सच्चाई उजागर कर दी। पता चला कि ये फ़ोटो हैदराबाद का नहीं है, बल्कि पाकिस्तान का है, जहाँ एक प्रतिबंधित कट्टरपंथी संगठन भारत के विरोध में तिरंगे को जला रहा है।
 
इसी तरह एक टीवी पैनल के डिस्कशन में बीजेपी के प्रवक्ता संबित पात्रा ने कहा कि सरहद पर सैनिकों को तिरंगा लहराने में कितनी मुश्किलें आती हैं, फिर जेएनयू जैसे विश्वविद्यालयों में तिरंगा लहराने में क्या समस्या है? यह सवाल पूछकर संबित ने एक तस्वीर दिखाई, जिसमें एक सैनिक झंडा लहरा रहा था। बाद में पता चला कि यह एक मशहूर तस्वीर है, मगर इसमें भारतीय नहीं, अमेरीकी सैनिक हैं! दूसरे विश्व युद्ध के दौरान अमेरीकी सैनिकों ने जब जापान के एक द्वीप पर क़ब्ज़ा किया तब उन्होंने अपना झंडा लहराया था। मगर फ़ोटोशॉप के ज़रिए संबित पात्रा लोगों को चकमा दे रहे थे, या कोई उन्हें चकमा दे गया था, यह पता नहीं चला। लेकिन ट्विटर पर लोगों ने इनका बहुत मज़ाक उड़ाया।
 
बताइए, केंद्रीय मंत्री से लेकर राष्ट्रीय प्रवक्ता तक फ़ेक तस्वीरें इस्तेमाल करते हो, मंत्रालय तक ग़लत तस्वीरें चिपका देता हो, घोटाले के बाद तस्वीरों में भी घोटाले किए जाते हो, तो फिर इन तमाम दलों के (भाजपा हो, कांग्रेस हो या कोई और हो) चैले-चपाटे या भक्त-भक्तानियाँ किस लेवल को छू जाते होंगे!
 
सोचिए, कितनी आसानी से हमारे नेता और हमारे मंत्रालय फ़ेक तस्वीरें डालते हैं और फिर जब पकड़े जाते हैं तो बेशर्मी से माफ़ी मांग कर छाती फूलाते हैं! अब ऐसे में किसी भी नेता या किसी भी मंत्रालय द्वारा कोई आधिकारिक ख़बर आती है तो उसे महज़ एक दावा कहे या पुष्ट ख़बर, यह तय करने का भी कोई नया मंत्रालय आना चाहिए।
कर्णाटक से भाजपा नेता और सांसद प्रताप सिंहा भी फ़ेक तस्वीर के इस्तेमाल को लेकर अपना नाम दर्ज करवा चुके हैं। उन्होंने एक रिपोर्ट को शेयर किया था, जो कथित रूप से टाइम्स ऑफ़ इंडिया से आया था। इस रिपोर्ट का शीर्षका था - हिंदू लड़की की मुसलमान ने चाकू मारकर हत्या कर दी। फ़ेक न्यूज़ को लेकर कुछ लिंक या कुछ राजनीतिक साइट आजकल काफ़ी मशहूर हैं। उनके लिंक से ही पता चल जाता है कि फ़ेक न्यूज़ फैकट्री का उत्पादन है यह। लेकिन टाइम्स ऑफ़ इंडिया का रिपोर्ट शेयर किया जाए तो फिर कौन शक करता था? लेकिन रिपोर्ट का शीर्षक ही लोगों के दिमाग़ में शक पैदा करने लगा। कॉमन सेंस की बात थी कि टाइम्स ऑफ़ इंडिया जैसा मशहूर अख़बार किसी रिपोर्ट का शीर्षक सांप्रदायिकता वाले लफ़्ज़ों से कैसे बुन सकता था? जब शक पैदा हुआ तो कुछ ने इसकी जाँच की।
 
पहले तो पता चला कि कमाल की बात यह थी कि भारत के किसी भी दूसरे अख़बार ने ऐसी कोई रिपोर्ट नहीं छापी थी। सबको कॉमन सेंस थी, लेकिन सांसद को नहीं थी ये भी कमाल की ख़बर ही मान ले! खैर, तभी तो सांसद बनते होंगे लोग। बाद में पता चला कि यह एक फ़ोटोशॉप था, जिसमें किसी दूसरे न्यूज़ में हेडलाइन लगा दिया था और सांप्रदायिकता का रंग दिया गया था। पता तो यह भी चला कि ऐसा कोई रिपोर्ट टाइम्स ऑफ़ इंडिया ने भी नहीं छापा था! हंगामा हुआ तो सांसद ने पोस्ट डिलीट कर दिया। हालाँकि उन्होंने ना ही माफ़ी मांगी और ना ही पछतावा ज़ाहिर किया।
 
5 सितम्बर 2017 के दिन पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या के बाद कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह ने अपने वेरिफ़ाइड ट्विटर अकाउंट से एक पोस्ट किया। इस पोस्ट में यूट्यूब वीडियो का लिंक भी दिया गया था और दावा किया गया था कि एनडीटीवी के एग्जीक्यूटिव एडिटर रवीश कुमार ने प्रधानमंत्री मोदी को "गुंडा" कहा है। हालाँकि दिग्गी का यह झूठ कुछ घंटे तक ही चल पाया और जब सारा मामला झूठ साबित होने लगा तो दिग्गी ने बाक़ायदा ये लिखकर माफ़ी भी मांग ली कि, "रवीश ने प्रधानमंत्री के प्रति कोई अपशब्द का उपयोग नहीं किया। यूट्यूब पर जो रवीश का भाषण था, वह मैंने ट्वीट किया था। रवीशजी क्षमा करें।"
 
हमारे नेता आज-कल से नहीं बल्के अरसे से एक और काम करते आए हैं। अपनी पसंद का मीडिया खड़ा करते हैं, और जो उनकी पसंद का नहीं है, उसे ही फ़ेक बताने लगते हैं। ये अरसे पुरानी परंपरा है। आप कह सकते हैं कि फलां फलां वक़्त में उसका इस्तेमाल ज़्यादा हुआ था। लेकिन ये अरसे पुरानी प्रक्रिया ज़रूर है। मीडिया और राजनीती के बीच का साम्य हम पहले ही अलग संस्करण में देख चुके हैं। ये बात भी सच है कि नेता आज-कल पहले से ज़्यादा तिकड़म करने लगे हैं!
2016 तथा 2017 के दौरान अमेरीका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप सीएनएन न्यूयॉर्क टाइम्स को फ़ेक न्यूज़ कहने लगे थे! फिर तो वे फ़ेक न्यूज़ से बोर होकर फ्रॉड न्यूज़ कहने लगे! 2018 में तो ट्रंप सबसे भ्रष्ट मीडिया अवॉर्ड की शुरूआत करने की तैयारियों में लग गए थे! जनवरी 2018 के मध्यकाल में ट्रंप ने अपने पसंदीदा मंच ट्विटर पर 10 विजेताओं की सूची रख दी। उस सूची में सीएनएन, न्यूयॉर्क टाइम्स तथा वॉशिंग्टन पोस्ट जैसे बड़े बड़े नाम शामिल थे। रिपब्लिकन पार्टी की आधिकारिक साइट पर भी सूची अपलोड की गई थी!
 
नेताओं की बात निकली है तो साल 2017 में, एक ऐसा वाक़या भी हुआ जहाँ एक राष्ट्र ने फ़ेक तस्वीर का इस्तेमाल कर लिया था! और वो भी यूएन जैसे मंच पर!!! पाकिस्तान ने सचमुच हदें पार ही कर दी थीं। यूएन जैसे अंतरराष्ट्रीय मंच पर पाकिस्तान ने फ़ेक न्यूज़ वाले तत्व का सहारा लिया! भारत की विदेशमंत्री सुषमा स्वराज के 23 सितम्बर 2017 के दिन यूएन में दिए गए भाषण के बाद पाकिस्तान के राजनयिक मलीहा लोधी ने एक तस्वीर पेश की। तस्वीर में दिख रही लड़की का चेहरा घावों से भरा था। लोधी ने इस तस्वीर को कश्मीर की तस्वीर बताया और कहा कि यह भारत की लोकशाही का चेहरा है।
 
लेकिन उसी दिन साफ़ हो गया कि पाकिस्तान ने यूएन जैसे मंच पर व्हाटस्एप यूनिवर्सिटी टाइप घिनौनी हरकत कर दी थी। दरअसल ये तस्वीर भारत की नहीं बल्कि फिलिस्तीन की थी! गाज़ा की अबु जोमा नाम की लड़की की तस्वीर थी यह, जिसे पाकिस्तान ने कश्मीर की लड़की बताया था! सन 2014 में इज़राइल ने गाज़ा शहर पर हवाई हमला किया था, इसी दौरान यह लड़की ज़ख़्मी हुई थीं। यरूशलेम के फ़ोटो जर्नलिस्ट हिदी लिवाइन ने इस तस्वीर को 22 जुलाई 2014 के दिन खींचा था। 27 मार्च 2015 के दिन डॉ. रामी अब्दु ने इस तस्वीर को ट्विटर पर इस्तेमाल किया था।
 
नेता के उदाहरणों के बीच पत्रकार भी पीछे नहीं रहना चाहते! कुछ पत्रकार तो इसी 'धंधे' के चलते काफ़ी प्रसिद्ध हो चुके हैं। ग़लती से नहीं बल्कि जानबूझकर ही प्रसिद्ध लिखा है, क्योंकि इसे अगर वे बदनामी मानते तो वे ऐसा करते ही नहीं।
सितम्बर 2017 के दौरान तो ग़ज़ब का वाक़या हो गया, जहाँ एक प्रसिद्ध पत्रकार ने एक दावा किया और दूसरे प्रसिद्ध पत्रकार ने उस दावे को सीधे खारिज़ कर दिया। 2017 के सितम्बर माह में अर्नब गोस्वामी ने कहा कि उन्हें राजदीप सरदेसाई जैसा ही अनुभव हुआ था। इन्होंने दावा कर दिया कि सन 2002 के गुजरात दंगे के दौरान वे रिपोर्टिंग कर रहे थे और तभी मुख्यमंत्री आवास के पास ही उन पर तथा उनकी टीम पर भीड़ ने हमला कर दिया था। यानी कि उन्होंने दावा किया कि वे रिपोर्टिंग के दौरान दंगाइयों का शिकार बन चुके हैं।
 
राजदीप सरदेसाई के नाम के सहारे उन्होंने दावा तो किया, लेकिन ज़ल्द ही सरदेसाई ने ही उनकी पोल खोल दी। सरदेसाई ने ट्वीट कर कहा, "मेरा मित्र अर्नब दावा कर रहा है कि गुजरात दंगों के दौरान मुख्यमंत्री आवास के पास उसकी कार पर हमला हुआ था। सच- वो दंगों का कवरेज कर ही नहीं रहा था। फेंकने की भी एक हद होती है। यह देखकर मुझे मेरे व्यवसाय के प्रति निराशा हो रही है।"
 
बताइए, जो मीडिया ख़बरों के लिए देखा जाता है वो मीडिया अब ख़ुद ही ख़बरें बना रहा था, और फिर ख़ुद ही ख़बरें बने जा रहा था! मीडिया के फ़ेक न्यूज़ वाली हमारी सीरीज़ पढ़ लीजिए, मैट्रिक पास हैं तो समझ आ जाएगा कि न्यूज़ पेपर या न्यूज़ चैनलों पर सब कुछ होता है, सिवा न्यूज़ के!
 
कहीं भी चुनाव आते ही फ़ेक न्यूज़ की भरमार हो जाती है। 2016 के दौरान इटली में जनमत संग्रह हुआ तो वहाँ फ़ेसबुक पर जो स्टोरी शेयर हुई, उसमें से आधी नकली थी! यूरोपियन यूनियन ने तो रूस से आने वाले फ़ेक न्यूज़ का सामना करने के लिए एक टास्क फोर्स बनाया है, जिसका नाम East Startcom Task Force है। फ्रांस और नीदरलैंड में हुए चुनाव के लिए इस टास्क फोर्स को काफ़ी पैसा और संसाधन दिया गया, ताकि वह रूस के प्रोपेगेंडा को रोक सकें! रूस पर आरोप है कि वह फ़ेक न्यूज़ पर काफ़ी पैसा ख़र्च करता है।
 
दुनियाभर में अनेक विशेषज्ञ मानते हैं कि फ़ेक न्यूज़ लोकतंत्र का गला घोंटने का काम कर रहा है। फ़ेक न्यूज़ तानाशाहों की मौज का ज़रिया बन चुका है। राजधानी से लेकर ज़िला स्तर तक फ़ेक न्यूज़ गढ़ने और फैलाने में एक पूरा तंत्र विकसित हो चुका है। यही नहीं, संवैधानिक पदों पर बैठे लोग भी फ़ेक न्यूज़ दे रहे हैं! कमज़ोर हो चुका मीडिया उनके सामने सही तथ्यों को रखने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा। कुछ ने हिम्मत जुटा ली तो अब राजनीति फ़ेक न्यूज़ को रोकने के नाम पर सेंसरशीप की तरफ़ आगे बढ़ रही है।
पहले पन्ने पर राष्ट्र प्रमुख का बयान छपता है, जिसमें फ़ेक जानकारी होती है और जब ग़लती पकड़ी जाती है, तो फिर वही अख़बार अगले दिन उसी स्पेस में छापने की हिम्मत नहीं जुटा पाता है कि राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री ने झूठा बयान दिया है। मीडिया, पत्रकार और पाठक व दर्शक के लिए पता लगाना बहुत जोख़िम का काम हो गया है कि न्यूज़ असली है या नकली!
 
दरअसल न्यूज़ के बारे में जो बेसिक है उसे ही भुलाया जा चुका है। आपके पास कोई जानकारी आती है और आप उसे सही तरीक़ों और सही पद्धति से जाँचते हैं और फिर लोगों के सामने रखते हैं। इसे ही तो न्यूज़ कहा जाता था। लेकिन आजकल ऐसा होता ही नहीं। जानकारी कहीं से आती है और उसे ब्रेकिंग न्यूज़ बना दिया जाता है। जानकारी सही है या ग़लत उसे जाँचने या परखने का काम शायद ही होता हो। मीडिया के लिए शर्म की बात यह है कि ब्रेकिंग न्यूज़ एक धंधा बन चुका है यह इल्ज़ाम खुलकर लगने लगा है अब।
 
फ़ेक न्यूज़ को हम जितना हल्का मानते हैं, उसके मक़सद इतने हल्के होते नहीं हैं। फ़ेक न्यूज़ का मक़सद क्या है। कुछ कहते हैं कि लोगों को दंगाई बनाना, कुछ कहते हैं लोगों को पागल बनाना वगैरह वगैरह। लेकिन कुछ विशेषज्ञों की इसके ऊपर सीधी सी राय है। उनका कहना है कि फ़ेक न्यूज़ का मक़सद है - "भावनाप्रधान" और "विचारशून्य" लोगों का निर्माण करना। नागरिकों को ऐसे लोग बना देना, जो अपने दिमाग़ से सोच ही ना पाए और वे विचारशून्य हो जाएँ, ताकि आप जो मनवाना चाहे वही वे मानते चलें, आप जो चाहे वैसा ही वे सोचते रहें, आप जो चाहे वैसा ही वे देखते रहें। उनके पास अपने दिमाग़ हो, लेकिन उसमें विचार उनके नहीं आपके हो।
 
विचारशून्य सभ्यता राजनीति के लिए वरदान है, जबकि उस राष्ट्र के लिए बहुत बड़ा ख़तरा। हिटलर का साया बने रहे गोबेल्स ने कहा था - वो सरकारें कितनी ख़ुशनसीब होगी जिसकी जनता सोचना ही बंद कर दें।
 
विचारशून्य नागरिक बनाने के साथ साथ वे भावनाप्रधान समाज का निर्माण करना चाहते हैं। हर चीज़ को, हर न्यूज़ को आप भावना में बहकर सोचे। हम हमेशा कहते हैं कि दिल से रिश्ता वतन के साथ होना चाहिए, राजनीति से नहीं। लेकिन राजनीति देश, राष्ट्र, झंडा जैसी आपकी जो प्रबल भावनाएँ हैं उसीका इस्तेमाल करके आपको चुपके चुपके भावनाप्रधान सभ्यता बना देती है। ताकि आप हर चीज़ को भावनाओं में बहकर सोचे। "विचारशून्य" और "भावनाप्रधान सभ्यताओं" का निर्माण करना फ़ेक न्यूज़ का मुख्य मक़सद है। इसका मक़सद केवल दंगा करना या सत्ता पाना ही नहीं है।
बहुत ठोस तरीक़े से लिखा जा सकता है कि हमारे यहाँ गाँधीजी और नेहरू को लेकर अजब-ग़ज़ब के फ़ेक न्यूज़ फैलाए जाते रहे हैं। वैसे गाँधीजी या नेहरू ही नहीं, इतिहास के राजा, इतिहास की घटनाएँ, स्वातंत्र संग्राम का दौर, उससे पहले का भी दौर... यहाँ तक कि कुरान या गीता, महाभारत- रामायण- मनुस्मृति या दूसरे धर्मों के ग्रंथ, कुछ भी फ़ेक न्यूज़ की जंजाल से नहीं बचा है!
 
गाँधीजी और नेहरू को लेकर निरंतर प्रोपेगेंडा चलता रहता है। जवाहरलाल नेहरू का असली नाम क्या था, जवाहर एक अरबी शब्द का नाम है, कोई कश्मीरी ब्राह्मण अपने बच्चे का नाम अरबी नाम रख ही नहीं सकता, नेहरू के दादा गयासुद्दीन गाजी थे, मुग़लों के कोतवाल थे जिन्होंने अपना नाम गंगाधर नेहरू रख लिया था, नेहरू का जन्म इलाहाबाद की वैश्याटोली में हुआ था, नेहरू ने एक कैथलिक नन को गर्भवती कर दिया था, चर्च ने उस नन को भारत से बाहर भेज दिया जिसके लिए नेहरू आजीवन चर्च के आभारी रहें... न जाने क्या क्या कहानियाँ बताई गई हैं।
 
15 मई 2016 को टाइम्स ऑफ़ इंडिया की अमूल्या गोपालकृष्णन ने नेहरू के बारे में फैलाए जा रहे झूठ को लेकर एक रिपोर्ट छापी। रिपोर्ट ने जाँच की और पाया कि नेहरू के बारे में लगभग तमाम ख़बरें झूठी साबित हुई थीं। पुराने कांग्रेसी समर्थक नेहरू के कपड़े पेरिस से घुल कर आते थे, इस बात को बहुत बार कहते रहे हैं। कुछ समर्थक इसे शर्म से कहते हैं, तो कुछ गर्व से। नेहरू के कपड़े पेरिस से धुल कर आते थे से लेकर भारत के शिल्पी सरदार पटेल तक के बारे में कई ऐसे क़िस्से-कहानियाँ हैं, जो दशकों से भद्र समाज तक को ग़लत सामग्री परोसते रहे।
 
नेहरू तथा भारत के आख़िरी वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन की पत्नी एडविना को लेकर कई सारी अफ़वाहें सालों तक भारत की सड़कों पर घूमती रहीं। नेहरू और एडविना के कथित संबंधों को लेकर उनकी छवि को ख़राब करने की कोशिशें हमेशा होती रही थीं। दोनों के बीच प्रेमसंबंधों के दावे तो हुए, लेकिन कुछ दावे उन दोनों के बीच शारीरिक रिश्तों को लेकर भी होते थे। 2017 के मध्य में यह तमाम दावे आख़िरकार महज़ मिथक साबित हुए और खारिज़ हो गए। एडविना की पुत्री पामेला ने एक पुस्तक लिखी, जिसमें नेहरू तथा एडविना के बीच के रिश्ते तथा अरसे से किए जा रहे दावों के बारे में खुलकर लिखा और कई बातें बड़ी बेबाकी के साथ स्पष्ट की।
एडविना ने अपनी पुस्तक Daughter of Empire: My Life as a Mountbatten में लिखा कि दोनों (नेहरू तथा एडविना) एकदूसरे को पसंद करते थे, लेकिन उन दोनों के बीच कभी शारीरिक संबंध नहीं रहें। इसके बारे में पामेला ने लिखा कि वो इसलिए क्योंकि दोनों कभी भी एकदूसरे को अकेले मिले ही नहीं थे और दोनों एकदूसरे का सम्मान किया करते थे। उन्होंने बड़ी बेबाकी से लिखा है, "मेरी माता तथा पंडितजी के पास ऐसे संबंधों के लिए वक़्त ही नहीं था। दोनों कभी अकेले मिले ही नहीं। दोनों सदैव अनेक अधिकारी, पुलिस तथा दूसरे लोगों के बीच घेरे में होते थे।" पामेला का यह पुस्तक 2012 में ब्रिटेन में प्रकाशित हुआ था, जिसके बाद 2017 में उसका एक एडिशन भारत में प्रकाशित हुआ। नेहरू तथा एडविना के बीच शारीरिक संबंधों की ख़बरें एडविना की पुत्री पामेला ने लिखित रूप से महज़ कोरी अफ़वाहें ज़ाहिर कर दी, हालाँकि उन्होंने दोनों के बीच आत्मीय संबंधों की बातों को बेबाकी से स्वीकार किया था।
 
नेहरू की कुछ नीतियों के विरोधी तो हम भी रहे हैं। लेकिन नीतियाँ आधारित आलोचना स्वस्थ लोकतंत्र के विकास का ऑक्सीजन है, जबकि दूसरी प्रचलित चीज़ें राष्ट्र को ही क्या, ख़ुद को भी आजीवन बीमार बनाने का इंजेक्शन है।
 
आज नेहरू जीवित नहीं हैं। ऐसा भी नहीं है कि वे किसी के सामने चुनाव लड़ेंगे और पीएम बनेंगे। ऐसा भी नहीं है कि वे किसी के लिए प्रचार में उतरेंगे। फिर भी नेहरू को लेकर एक ख़ास समुदाय अरसे से इसी प्रयास में क्यों लगा रहा यह भी समझने का विषय है। यूँ तो कंप्यूटर और इंटरनेट के आगमन के बाद ऐसी ख़बरों में इज़ाफ़ा भी हुआ, साथ ही ऐसी ख़बरों का ठोस खंडन भी मुमकिन होने लगा था। शायद हो सकता है कि नेहरू भले चुनाव ना लड़े, वो भले किसी के लिए प्रचार ना करें, लेकिन उनके सहारे कुछ लोग चुनाव लड़ते हैं और जीतते हैं उसे ही रोक दिया जाए। मक़सद ये भी हो सकता है कि नेहरू की छवि को इतना धूमिल कर दिया जाए कि उस दौर को पूरी तरह कटघरे में खड़ा किया जा सके। मक़सद था नेहरू की साख को ख़त्म कर देना। बड़ा मक़सद यह भी हो सकता है कि नेहरू, नेहरू से संबंधित इतिहास, उस इतिहास और उन प्रयासों और सपनों पर आधारित संविधान, आदि तमाम चीज़ों की साख कम कर दी जाएँ और इस साख को घूमिल करने के पीछे का मक़सद मत पूछिएगा, क्योंकि कोई मैट्रिक पास भी यह समझ सकता है।
 
नेहरू के बारे में तो एक बार विकिपीडिया तक में जानकारियाँ बदल दी गई थीं! उनके पिता को लेकर, उनके दूसरे स्वजनों को लेकर कई झूठी कहानियाँ डाली गई थीं! टाइम्स ऑफ़ इंडिया ने Centre for Internet and Society के प्राणेश प्रकाश के हवाले से लिखा था कि सरकार के आईपी एड्रेस से यह बदलाव किया गया था!!! यह पुख़्ता ख़बर होगी, तभी तो सरकार ने अख़बार के ख़िलाफ़ मानहानि का दावा करने का साहस नहीं किया था। वर्ना कार्टून बनाने के नाम पर भी मानहानि वाला हथियार उठने लगता है।
2016 में जब नेताजी के पेपर सार्वजनिक किए गए तो उनमें से कुछ भी ख़ास नहीं निकला, मगर उसके हवाले से नेहरू के नकली पत्र बनाकर व्हाट्सएप के ज़रिए बाँटा जाने लगा। जिसके झाँसे में पत्रकार तक आ गए। जब पता चला तो सबने डिलीट करना शुरू कर दिया और माफ़ी मांगनी शुरू कर दी। जबकि इस तरह का कोई पत्र ही नहीं था!
 
ठीक ऐसे ही गाँधीजी के बारे में भी अरसे से कई चीज़ें फैलाई जाती रही हैं। कई शोधकर्ताओं ने जब शोध किया तो पाया कि गाँधीजी के बारे में जितनी विवादित ख़बरें फैलाई गई, उसमें से तक़रीबन तमाम ख़बरें झूठी ही थीं। कहानियाँ गढ़ी गई, किरदार गढ़े गए, किरदारों के नाम बदले गए, और भी बहुत कुछ किया गया! लेकिन जब अभ्यास किया गया तो मालूम हुआ कि लगभग लगभग तमाम कहानियाँ, जो गाँधीजी के बारे में फैलाई गई, झूठी ही थीं!
 
फ़ेक वीडियो, फ़ेक ख़बरें, फ़ोटोशॉप, आधी झूठी-आधी सच्ची कहानियाँ, मनगढ़ंत किरदार, किरदारों के बारे में ग़लत धारणाएँ, इतिहास को तोड़ना-मरोड़ना... गाँधीजी के बारे में जो हुआ है, शायद ही भारत में किसी दूसरे व्यक्ति के बारे में हुआ होगा। यहाँ तक कि कुछ तस्वीरें और कहानियाँ तो ऐसे फैलाई गई, जो दशकों तक चलती रहीं। गाँधीजी के अनुयायिओं के पास भी उसका जवाब नहीं था। तस्वीरें और फिर वीडीयो और उससे जुड़ी कहानियाँ। दशकों तक गाँधीजी के अनुयायी भी चुप से रहे। लेकिन जब तकनीक और जानकारियों का नया युग आया, इसके जवाब मिले और पता चला कि सच क्या था।
 
सन 2000 में गाँधीजी के कार्यों का संशोधित संस्करण विवादों के घेरे में आ गया था, क्योंकि गाँधीजी के अनुयायियों ने सरकार पर राजनीतिक उदेश्यों के लिए परिवर्तन शामिल करने का आरोप लगाया था।
 
सालों के रियाज़ के बाद, दशकों के ज्ञान के बाद आपने जो पाया है, जो सँजोया है, उसे धीरे धीरे ख़त्म कर देना फ़ेक न्यूज़ का मक़सद है। इतिहास हो, भूगोल हो, विज्ञान हो, धर्म हो, नीतियाँ हो, हर मसले को आप उसी चश्मे से देखेंगे, जिस चश्मे से वे दिखाना चाहेंगे! अगर सरकार को लगेगा कि नीतियाँ फ़ेल हो रही हैं और समाज नीतियों पे चर्चा करके सरकार को दोष देना शुरू करेगा, तो ऐसे में वे आपको इतिहास, धर्म और राष्ट्र की गलियों में ले जाते हैं!
"विचारशून्य" और "भावनाप्रधान" सभ्यता को कही पर भी ले जाना बहुत आसान है। हमारी सरकारें इतिहास में ले जाकर आपको उज्जल भविष्य के सपने दिखाती हैं! हम कहते हैं कि जो सरकारें या स्वयं नागरिक इतिहास में ही भविष्य ढूंढने की प्रवृत्ति में लग जाएँ उनके लिए भविष्य उज्जवल होने की संभावना ना के बराबर होती है। दरअसल वर्तमान पे लोग सवाल न करने लगे, इसीलिए लोगों को इतिहास में ले जाया जाता है!
 
विचारशून्य और भावनाप्रधान सभ्यता को किसी भी अंधेरी गली में ले जाना बहुत आसान है। इसका उदाहरण आज़ादी के बाद का भारत है। राजनीति ने एक ऐसी विचारधारा को प्रस्तुत किया, जिसमें लोग गाँधी और भगत सिंह में से किसी एक को चुने! दरअसल, जो राजनीति आपको गाँधी या भगत सिंह में से किसी एक को चुनना सिखाती है, वो आख़िरकार आपको गोडसे बनाकर ही छोड़ती है। गाँधी और भगत सिंह में से किसी एक को चुनने की राजनीति यहीं ख़त्म नहीं होती। हालात यहाँ तक पहुंचे कि फिर तो भगत सिंह और सावरकर, दोनों में से किसी एक के हिंदुत्व को चुनने की तरफ़ लोगों को पहुंचाया जाने लगा। जबकि भगत सिंह तो मैं नास्तिक क्यों हूँ, जैसा संजीदगीपूर्ण लेखन लिखकर कई तथ्यों को समझाने की कोशिशें कर चुके थे।
 
एक तथ्यात्मक सत्य कथा दस्तावेज़ सरीखी अनेक किताबों में दर्ज है। पेशेवर नर्तकी अज़ीज़न बाई ने प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अनेक देशभक्तों का साथ दिया था और अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ जाकर उन वीरों की मदद की थी। आख़िरकार एक समय अज़ीज़न बाई पकड़ी गईं। ब्रितानी सरकार ने उनके विरुद्ध मुकदमा चलाया। जनरल हैवलॉक ने अज़ीज़न बाई से कहा कि यदि वह माफ़ी मांगती हैं तो उसे राहत दी जा सकती है। अज़ीज़न बाई ने बड़े ताव से कहा था, "माफ़ी तो अंग्रेज़ों को मांगनी चाहिए, जिन्होंने भारतवासियों पर इतने ज़ुल्म किए हैं। आपके इस अमानवीय कृत्य के लिए मैं जीते जी आप लोगों को कभी माफ़ नहीं करूंगी।" इतिहास ने इस वीरांगना के लिए लिखा है, "बग़ावत की सज़ा हँस कर सह ली अज़ीज़न ने, लहू देकर वतन को।"
 
इस तथ्यात्मक कथा की यह वीरांगना आज भूले बिसरे इतिहास की नायिका भर हैं, जिसने अंग्रेज़ों से दया की भीख़ मांगने की जगह मौत को पसंद किया था। जिन्होंने अंग्रेज़ों से माफ़ी मांगी वे नये इतिहास के नायक हैं! जिन्होंने भगत सिंह के ख़िलाफ़ गवाही दी थी वे नहीं, लेकिन जिसने भगत सिंह की सज़ा माफ़ कराने हेतु वायसराय को पत्र लिखा था वह अपराधी है! फ़ेक न्यूज़ ने एक विशेष सभ्यता को तथ्यों और सत्य दर्शन को नकारकर मिथकों और असत्य दर्शन का आदती बना दिया है।
वैसे इतिहास भी फ़ेक न्यूज़ के जंगल से बच नहीं पाया है! मन में आया सो लिख दिया, मन में आया सो छाप दिया... यही आजकल का वर्तमान है! और ऐसा वर्तमान आपको इतिहास का ज्ञान देने लगे तो उससे बड़ा मजाक क्या हो सकता है? जो मीडिया या जो राजनीति वर्तमान को सँवार नहीं सकती, वो आपको इतिहास का ज्ञान देती है! और ऐसा क्यों किया जाता है यह अब तक तो समझ आ गया होगा।
 
आप किसी एक किरदार को नफ़रत करते हैं तब भी आपको यह सोचना होगा कि कल आपका बच्चा अपने प्रोजेक्ट के लिए इंटरनेट पर सर्च करेगा तो उसे सही जानकारी मिलेगी या ग़लत? इतिहास के तथ्य ही बदल दिए जाते हैं! अभ्यासक्रम से लेकर इंटरनेट साइट्स पर, सदियों पुराना इतिहास ही मरोड़ दिया जाता है!
 
सदियों से इतिहासकारों ने कहा कि महाराणा प्रताप अकबर के सामने लड़ते रहे। युद्ध भले ही प्रताप हारे, लेकिन महाराणा प्रताप ने अकबर का स्वामित्व स्वीकार नहीं किया था। महाराणा प्रताप की कहानियाँ भारत के बच्चों को मुँह-ज़बानी है। अकबरनामा के तथ्य भी बताते हैं कि अकबर ने भी प्रताप के स्वाभिमान का सम्मान किया था। किंतु समूचे इतिहास को बदलकर एक बार तो यह भी पढ़ाया जाने लगा कि प्रताप ने अकबर को हराया था। हल्दीघाटी का पुराना इतिहास बदल कर गौरव को एवरेस्ट से ऊंचा करने का प्रयास, दरअसल ये इतिहास के साथ खिलवाड़ का गुनाह भी है तथा महाराणा प्रताप के गौरव को लांछित करने का भद्दा प्रयास भी। ये तो एक उदाहरण है, आपको ऐसे सैकड़ों मामलें मिल जाएँगे।
 
महाराणा प्रताप का कद, उनका भाला-तलवार-कवच का वजन कितना बढ़ चढ़ कर कहा-दिखाया जाता है, यह तो आपको ज्ञात ही होगा। जबकि हल्दीघाटी के म्यूज़ियम में पट्टिका के ऊपर उनके कवच सहित उनके निजी अस्त्र-शस्त्रों का कुल वजन 35 किलोग्राम बताया गया है। महाराणा प्रताप भारत वर्ष के महान योद्धा थे और उन्हें अपनी यशगाथा के लिए किसी अतिशयोक्ति की ज़रूरत नहीं हो सकती।
 
फ़ेक न्यूज़ इतिहास को नहीं छोड़ रहा, तो फिर इंटरनेट से किया जा रहा रिसर्च कहाँ पहुंचेगा, यह भी सोचने की ज़रूरत है।
जैसे कि इन्हीं दिनों सीबीएसई की किताबों में भारत-चीन का एक नया-नवेला इतिहास ही सामने आया था। संस्कृत की एक किताब में बताया गया कि 1962 में हुए भारत-चीन युद्ध में भारत ने चीन को हराया था। यह किताब मध्य प्रदेश में सीबीएसई के कई स्कूलों में पढ़ाई जा रही थी। किताब में बताया गया था कि 1962 की जंग भारत ने जीत ली थी। संस्कृत की किताब सुकृतिका भाग-3, जो 8वीं के बच्चों को पढ़ाई जा रही थी, में कहा गया था कि 1962 की साइनो-इंडिया जंग में भारत ने चीन का हरा दिया था। यह किताब लखनऊ के कृति प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड द्वारा प्रकाशित की गई थी, जिसे पाँच लेखकों ने लिखा था।
 
इस किताब को लिखने वालों में प्रो. उमेश प्रसाद रस्तोगी और व्याकरण विशेषज्ञ सोमदत शुक्ला का नाम भी शामिल था, जिनकी मौत हो चुकी थी। दूसरे लेखकों में मधु सिंह, ललिता सेंगर और निशा गुप्ता का नाम था। युद्ध की यह जानकारी किताब के 8वें अध्याय में दी गई थी, जिसका शिर्षक श्री जवाहरलाल नेहरू था। किताब में कहा गया था कि चीन ने भारत के ख़िलाफ़ 1962 में युद्ध छेड़ा था, उस वक़्त तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने कड़े कदम उठाए और चीन को हार का सामना करना पड़ा! स्वयं जवाहरलाल नेहरू सरकार, उस दौर के सरकारी दस्तावेज़ तथा प्रमाणित इतिहास में इस किताब से उल्टी बात दर्ज है, जबकि यहाँ कुछ और ही इतिहास पढ़ाया जा रहा था!
 
अब इससे होता यह है कि आप या आपके बच्चे न आज के बारे में सही जान पाते हैं, और ना ही बीते हुए कल के बारे में। क्योंकि इतिहास की सच के क़रीब जानकारियों की नींव ही कमज़ोर होती है। बच्चा जब किसी प्रोजेक्ट के लिए जानकारी इंटरनेट से डाउनलोड करेगा तो उसे झूठी जानकारी मिलने की संभावनाएँ बहुत ज़्यादा हैं। क्योंकि जैसे पहले देखा वैसे, प्रशासन या सरकार के आईपी एड्रेस से ही विकिपीडिया का डाटा बदल दिया जाता है!
 
ग़लत जानकारियों के साथ लोग इसी भ्रम में ज़िंदगी बिता देंगे कि वे सच जानते हैं, जोकि दरअसल झूठ का जाल मात्र होता है! फ़ेक न्यूज़ के कारण सांप्रदायिक हिंसा होती है, राजनीतिक उथल-पुथल होती है। लेकिन ये सब छिटपुट चीज़ें हैं, अगर इतिहास वाले द्दष्टिकोण से सोचे तो। क्योंकि इतिहास में उथल-पुथल करने के प्रयास इतिहास के साथ हिंसा का प्रयास है, इतिहास की हत्या का प्रयास है।
 
आप ये मत सोचिए कि ऐसा सिर्फ़ भारत में ही होता है। जुलाई 2017 के दौरान भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री मोदी इज़राइल दौरे पर होलोकॉस्ट मेमोरियल गए थे। जहाँ उन्होंने होलोकॉस्ट को इतिहास का एक क्रूरतम अध्याय बताया था। लेकिन गार्डियन अख़बार की कैरोल कैडवॉलडर ने नोटिस किया कि गूगल के सर्च में यह डालने पर कि Did the Holocaust really happen?, तो जवाब आता है कि होलोकॉस्ट हुआ ही नहीं था! इतना ही नहीं, ये सर्च रिज़ल्ट एक नव नात्ज़ी वेबसाइट stormfront.org पर ले जाता है, जहाँ इस तरह की बातें लिखी हैं कि चोटी के दस कारण कि होलोकॉस्ट हुआ ही नहीं था!
11 दिसंबर 2016 के अपने लेख में कैरोल ने इस पर विस्तार से बात की थी, जो गार्डियन अख़बार में छपा। उन्होंने बताया है कि यू ट्यूब पर भी इस तरह के कई वीडियो हैं कि होलोकॉस्ट हुआ ही नहीं था! जबकि किताबों और ऐतिहासिक दस्तावेज़ों में यह बात दर्ज़ है कि हिटलर ने साठ लाख लोगों को मरवा दिया था। कैरोल ने जब यह सवाल उठाया तो उसके बाद गूगल ने सुधार कर दिया! सोचिए, इंटरनेट पर ऐसे कितने ऐतिहासिक साक्ष्यों को बदल दिया गया होगा? सोचिए, इतनी बड़ी वैश्विक और पुख़्ता घटना तक को बदल दिया जाता है, तो फिर छोटे-मोटे इतिहास का तो क्या हाल हुआ होगा? उसी तरह जैसे सरकारें इतिहास की किताबों को बदल देती हैं।
 
अगर आप इन चीज़ों को गंभीर नहीं मानते तो फिर आपको यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि आप इतने समझदार माता-पिता हैं कि आप अपने बच्चों को फ़ेक न्यूज़ और फ़ेक हिस्ट्री की विरासत देने का गौरव ले रहे हैं।
 
गूगल, विकिपीडिया से लेकर तमाम ऐसी जगहों पर ऐसी अनेक घटनाएँ मौजूद हैं। गूगल सर्च में तो अल्गोरिदम का खेल भी ख़ूब चल रहा है, जिसमें तथ्यों को बदलकर गूगल सर्च में सबसे ऊपर कर दिया जाता है, ताकि ये ग़लत ख़बरें ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुंच जाएं!
 
दुनियाभर में फ़ेक न्यूज़ का खेल ख़ूब चल रहा है। 2016 में बजफ़ीड नाम के वेबसाइट ने दुनिया में फैलाई गई प्रमुख फ़ेक ख़बरों की एक सूची बनाई थी। पुरी सूची नहीं मालुम, लेकिन इस सूची में, ओबामा ने देश के सभी स्कूलों में निष्ठा की शपथ लेने पर रोक लगाने के आदेश दे दिए हैं तथा पोप फ्रांसिस ने डोनाल्ड ट्रंप की उम्मीदवारी का समर्थन किया है, जैसी फ़ेक ख़बरें भी शामिल थीं। यानी कि बड़े से बड़े लोगों के बारे में आसानी से झूठी ख़बरें प्रसारित कर दी जाती हैं! यह भी कड़वा सच है कि बड़े से बड़े लोग भी ख़ुद ही फ़ेक न्यूज़ फेला देते हैं! उनके द्वारा और उनके बारे में, दोनों व्यापार जमकर हो रहा है।
 
अमेरीकी अख़बार The Sun Chronicle के Tom Reilly ने 29 जून, 2017 को अपने एक संपादकीय में लिखा कि एसोसिएटेड प्रेस जैसी बड़ी संस्था भी फ़ेक न्यूज़़ का शिकार हुई थी। जबकि यह संस्था 171 साल पुरानी है। दुनियाभर के 1700 अख़बारों, 5000 टीवी और रेडियो ब्रॉडकास्ट में एपी की स्टोरी छपती है। सोचिए, कहाँ कहाँ फ़ेक न्यूज़ पहुंच जाता होगा! ये उस संस्था का हाल है जिसके 120 देशों में 243 न्यूज़ ब्यूरो हैं। भारत के आठ दस टीवी चैनल मिला देंगे तब भी इतने रिपोर्टर नहीं होंगे।
एसोसिएटेड प्रेस ने यह बात स्वीकार भी की थी कि उसकी कुछ ऐसी ख़बरें भी थीं, जो न्यूज़ नहीं थीं। इसलिए एपी ने एक नया न्यूज़ फ़ीचर शुरू किया, जिसका नाम Not Real News था। इसके तहत ऐसी फ़ेक न्यूज़ का पर्दाफ़ाश किया जाएगा, जो ट्विटर या दूसरे प्लेटफॉर्म पर वायरल हुईं हो। फिर भी यह काम किसी बड़ी झील को छलनी से साफ़ करने जैसा है।
 
आई फ़ोन और आईपैड बनाने वाली एप्पल कंपनी के प्रमुख टिम कुक ने एक ब्रिटिश अख़बार से कहा था कि फ़ेक न्यूज़ लोगों के दिमाग़ की हत्या कर रहा है। उनके जैसी कंपनी को ऐसा कोई ज़रिया विकसित करना होगा, जिससे नकली ख़बरों को छांटा जा सके और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी प्रभावित न हो। ब्रिटिश अख़बार को दिए इंटरव्यू में टिम कुक ने सरकारों से भी कहा कि वे फ़ेक न्यूज़ से लड़ने के लिए सूचना अभियान चलाएँ। वैसे सरकारें स्वयं फ़ेक न्यूज़ फैलाती हैं ऐसे आरोपों के बीच उनसे फ़ेक न्यूज़ से लड़ने की उम्मीद रखना बादल फटने के बीच दिया जलाना जैसा ही होगा।
 
इंटरनेट की दुनिया के प्रचार-प्रसार के चलते आजकल तो कुछ पोर्टल इसलिए ही बने हैं, ताकि उस पर ग़लत ख़बरें फैलाई जा सकें! ये पोर्टल दिनभर ही नहीं, बल्कि पूरी रात फ़ेक न्यूज़ फैलाते रहते हैं। इनके नाम भी अब तो बड़े मशहूर हो चुके हैं। ये पोर्टल इतिहास, वर्तमान, भविष्य, राजनीति, अर्थतंत्र, रक्षा, विदेशनीति से लेकर हर नीति-अनीति तक मनगढ़ंत ख़बरें ही गढ़ते रहते हैं।
 
राजनीतिक विचारधारा से प्रेरित होकर अनेक वेबसाइट आज मौजूद हैं, जो ग़लत ख़बरें प्रसारित करते रहते हैं। कुछ वेबसाइट तो ख़ुद को न्यूज़ पोर्टल या मीडिया हाउस बताकर यह काम करते हैं! मीडिया का काम किसी विचारधारा से प्रेरित होना नहीं है, लेकिन अब तो सभी को पता है कि वहाँ क्या हाल है। कहीं सांप्रदायिक तनाव पैदा किया जाता है, कहीं कोई विशेष पार्टी या विशेष नेता को नाम देने या बदनाम करने का कार्यक्रम निरंतर चलता रहता है। आप सोचते नहीं, लेकिन यह योजनाबद्ध तरीक़ों से किया जाता है। सूचनाओं को पहले न्यूज़ की शक्ल में भेजा जाता हैं। कई महीनों तक फैलाने के बाद उसी सूचना का चुटकुला बनाकर फिर से भेजा जाता है, ताकि आप बार बार देखते रहें। न्यूज़ फ़ेक साबित हो चुका होता है, फिर भी महीनों बाद उसे फिर चलाया या फैलाया जाता है!
अब तो न्यूज़ हाउसिंग सोसायटी के व्हाट्सएप ग्रुप से भी आने लगे हैं!!! नेताओं के अपने ट्विटर हैंडल हैं, यूट्यूब चैनल हैं। वही झूठ बोल रहे हो तो आप क्या करेंगे? राजनीतिक दलों ने व्हाट्सएप ग्रुप में मोहल्ले तक के लोगों को घेर लिया है! ग्रुप का मेंबर बनाकर सियासी कचरा ठेलते रहते हैं, जिसमें से ज़्यादातर फ़ेक न्यूज़ ही होता है।
 
लगता है कि जैसे अफ़वाहों से राजनयिक गलियारों ने प्रोपेगेंडा का हथियार बनाया। फिर फ़ेक न्यूज़ या पेड न्यूज़ आया, अब आगे कोई और नया संस्करण आएगा। आजकल तो मीडिया में (चाहे प्रिंट मीडिया हो, इलेक्ट्रॉनिक हो या सोशल हो) हेडलाइन अलग होती है, और उसके अंदर न्यूज़ अलग होते हैं! मीडिया को क्या कहे, जब आजकल दुनिया में संवैधानिक पदों पर बैठे लोग ही फ़ेक न्यूज़ दे रहे हैं! संवैधानिक पदों पर बैठे लोग मीडिया के सामने या किसी कार्यक्रमों में फ़ेक बयान दे देते हैं। ग़लती पकड़ी जाती है, लेकिन कोई उसे उसी स्पेस में दिखाने की हिम्मत नहीं कर पाता, जैसे पहले वाला (फ़ेक) बयान दिखाया गया था। कौन कहेगा कि राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री ने झूठा बयान दिया है।
 
फ़ेक न्यूज़ का जंगल ऐसा हो चुका है कि अब तो जो ख़बरें पसंद ना हो उसे भी सीधा फ़ेक न्यूज़ ही कह दिया जाता है! और यह चीज़ राजनीती के लिए वरदान भी है। जो फ़ेक न्यूज़ है उसे फ़ेक न्यूज़ कहा नहीं जाता, बल्कि जो पसंद नहीं है उसे ही फ़ेक न्यूज़ कहा जाता है!!! लोग मीडिया को बिकाऊ कहते हैं, लेकिन ख़रीदार के बारे में कोई नहीं सोचता! पत्रकारों से उम्मीद की जाती थी कि ख़बर छापने से पहले तीन चार बार पुष्टि कर लें, लेकिन अब आपसे उम्मीद की जाती है कि ख़बर पर यक़ीन करने से पहले कई सोर्स से कन्फर्म कर लें!!!
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)