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Prime Ministers of India: भारत के प्रधानमंत्रियों की सूची और उनके कार्यकाल के बारे में संक्षिप्त जानकारी (पार्ट 1)

 
भारत की स्वतंत्रता से अब तक 14 व्यक्ति बतौर प्रधानमंत्री सेवा दे चुके हैं, जबकि 1 व्यक्ति बतौर कार्यकारी प्रधानमंत्री के रूप में दो बार उत्तरदायित्व निभा चुका है। प्रधानमंत्री देश का प्रतिनिधि और भारतीय सरकार का मुख्य कार्यकारी अधिकारी होता है। प्रधानमंत्री संसद में बहुमत प्राप्त पार्टी का नेता होता है। ये देश के राष्ट्रपति का मुख्य सलाहकार होने के साथ ही मंत्रीपरिषद का मुखिया भी होता है। भारत का प्रधानमंत्री कार्मिक, लोक शिकायत, पेंशन, आणविक ऊर्जा विभाग, अंतरिक्ष विभाग, नियोजन मंत्री और कैबिनेट की नियुक्ति कमेटी का प्रभारी आदि होता है। वो मंत्रीपरिषद का निर्माण, विभागों का बँटवारा, कैबिनेट कमेटी के अध्यक्ष, मुख्य नीति संयोजक तथा राष्ट्रपति के सलाहकार का कार्य करता है।

भारत में अब तक 2 कार्यकारी प्रधानमंत्री बने हैं। दोनों बार गुलज़ारी लाल नंदा ही कार्यकारी प्रधानमंत्री बने। सबसे लंबे समय तक प्रधानमंत्री रहने का रिकॉर्ड जवाहरलाल नेहरू के नाम हैं, जो 16 साल और 286 दिनों तक भारत के प्रधानमंत्री पद पर आसीन रहे। इंदिरा गांधी 15 साल और 354 दिनों के लिए इस पद पर बनी रहीं। डॉ. मनमोहन सिंह 10 साल तक इस पद पर रहे।

सबसे वयोवृद्ध प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई (81 साल की उम्र में) थे। राजीव गांधी सबसे कम उम्र में (41 वर्ष की आयु में) प्रधानमंत्री बने। नरेंद्र मोदी एकमात्र और पहले प्रधानमंत्री हैं, जो स्वतंत्रता के बाद जन्मे हो। अब तक 7 प्रधानमंत्री भारत रत्न से सम्मानित हो चुके हैं। इंदिरा गांधी भारत की पहली और अब तक की एक मात्र महिला प्रधानमंत्री हैं। वे 3 बार (देखा जाए तो 4 बार) देश की प्रधानमंत्री बनीं।
 
पंडित जवाहरलाल नेहरू
15 अगस्त, 1947 - 27 मई, 1964 (कांग्रेस), फूलपुर लोकसभा सीट
चाचा नेहरू के नाम से प्रसिद्ध जवाहरलाल मोतीलाल नेहरू भारत के सर्वप्रथम प्रधानमंत्री थे। अंतरराष्ट्रीय सैद्धांतिक नीतियों के पक्षधर, दार्शनिक, राजनयिक और लेखक। भारत को वैज्ञानिक चेतना के साथ आगे बढ़ाने के हिमायती नेहरू सबसे लंबे समय तक प्रधानमंत्री रहने वाले व्यक्ति हैं। इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि बतौर प्रधानमंत्री भारत की सबसे विकट, सबसे मुश्किल और दुर्लभ कही जाए ऐसी स्थिति इनके ही हिस्से आई।
 
पंडित जवाहरलाल नेहरू का जन्म 14 नवम्बर 1889 के दिन इलाहाबाद में हुआ था। इन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा अपने घर पर निजी शिक्षकों से प्राप्त की। पंद्रह साल की उम्र में वे इंग्लैंड चले गए और हैरो में दो साल रहने के बाद इन्होंने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया, जहाँ से इन्होंने प्राकृतिक विज्ञान में स्नातक की डिग्री प्राप्त की। 1912 में भारत लौटने के बाद वे सीधे राजनीति से जुड़ गए और भारत के स्वतंत्रता संघर्ष में हिस्सा लिया। इन्होंने आयरलैंड में हुए सिनफेन आंदोलन में गहरी रुचि ली थी।
 
वे मोतीलाल नेहरू के इकलौते बेटे थे। उनकी बड़ी बहन का नाम विजया लक्ष्मी था, जो बाद में संयुक्त राष्ट्र महासभा की पहली महिला अध्यक्ष बनीं। सबसे छोटी बहन, कृष्णा हठीसिंग, एक उल्लेखनीय लेखिका थीं। इनकी पत्नी का नाम कमला नेहरू था। उनकी पुत्री का नाम इंदिरा प्रियदर्शिनी था।
 
स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान नेहरू कई बार जेल गए। नेहरू अच्छे लेखक भी थे। भारत एक खोज, विश्व इतिहास की झलक, एन ऑटोबायोग्राफ़ी: इंडिपेंडेंस एंड आफ्टर, सोवियत रूस जैसी इनकी कई पुस्तकें विश्वविख्यात रहीं।
 
15 अगस्त 1947 से लेकर 27 मई 1964 तक, लगभग 17 साल वे देश के प्रधानमंत्री रहे। इससे पूर्व सितंबर 1946 में गठित हुई अंतरिम सरकार का नेतृत्व भी नेहरूजी ने ही किया था।
 
14 अगस्त 1947 की रात्रि 12 बजे खंडित भारत स्वतंत्र हुआ। उस रात नेहरू ने स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री के रूप में संविधान सभा को संबोधित किया। नेहरू ने अपने पहले भाषण (ट्रिस्ट विद डेस्टनी) में कहा था- सालों पूर्व हमने नियति के साथ एक क़रार किया था और अब वह काल आ गया है, जब हम अपनी प्रतिज्ञा पूरी करेंगेआज जब घड़ी में रात्रि के 12 बजेंगे, जब सारा संसार सोया होगा, भारत तब नये जीवन और स्वतंत्रता के लिए जागेगा।
 
आज़ादी के समय भावी प्रधानमंत्री के लिए सरदार पटेल को ज़्यादा वोट मिले, लेकिन अंत में नेहरू प्रधानमंत्री बने। आज़ादी के तत्काल पश्चात हैदराबाद, जूनागढ़ और जम्मू-कश्मीर राज्यों की समस्या सामने आईं। सरदार पटेल अन्य 563 रियासतों का विलीनीकरण भारत के साथ कर चुके थे, लेकिन ये 3 रियासतें कुछ अधिक मुसीबत पैदा कर रही थीं। तब सरदार पटेल ने हैदराबाद और जूनागढ़ की रियासत का सैनिक समाधान ढूंढ लिया और उन्हें भारत में विलीन कर दिया, लेकिन कश्मीर मामला फँसता गया।
 
नेहरू कश्मीर समस्या का स्थायी समाधान नहीं कर पाए और ये समस्या सदा के लिए सबसे बड़ी झंझट बन गई। उनकी कुछ कथित ग़लतियों व नीतियों क चलते देश को चीन के हमले का अपमानजनक सामना करना पड़ा। हार के कारणों को जानने के लिए युद्ध के तत्काल बाद हेंडरसन ब्रुक्स और पीएस भगत के नेतृत्व में एक समिति बनाई गई। हालाँकि समिति की रिपोर्ट को किसी भी सरकार ने सार्वजनिक नहीं किया। चीन के साथ गहरे रिश्ते बनाने के प्रयास, कमज़ोर नीति, चीन का हमला और भारी नुक़सान के साथ भारत की हार। स्वाभाविक है कि नेहरू सरकार इसके लिए जवाबदेह थी।
 
दूसरी तरफ़ नेहरू के ही कार्यकाल में ऐसी अनेक शिक्षा, विज्ञान, अवकाश, परमाणु, रक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक, कृषि, योजना संबंधित संस्थाओं ने जन्म लिया, जो आज भी भारत के अति प्रतिष्ठित संस्थानों की श्रेणी में आते हैं। परमाणु ऊर्जा आयोग की स्थापना और डॉ. होमी भाभा का भारत में आगमन, अंतरिक्ष अनुसंधान की स्थापना व रॉकेट लॉन्चिंग फ़ैसिलिटी, पंचायती राज की स्थापना इन्हीं के कार्यकाल में हुई।
 
वो नेहरू ही थे, जिन्होंने गुटनिरपेक्ष आंदोलन की रचना की। वे अनेक अंतरराष्ट्रीय समस्याओं के समाधान में मध्यस्थ की भूमिका में रहे। इनके शासनकाल में लोकतांत्रिक मूल्यों का समुचित विकास हुआ। नेहरू ने संसद को पूरा समय और सम्मान देने का प्रयास किया। पंचशील सिद्धांतों के लिए वे समग्र दुनिया में सम्मान के पात्र बने।
 
जवाहरलाल नेहरू ने आधुनिक भारत के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। इन्होंने योजना आयोग का गठन किया तथा विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विकास की योजनाएं शुरू कीं। देश के सम्रग विकास के लिए इन्होंने पंचवर्षीय योजनाओं का शुभारंभ किया। उनकी नीतियों के कारण देश में कृषि और उद्योग का एक नया युग शुरु हुआ। नेहरू ने भारत की विदेश नीति के विकास में प्रमुख भूमिका निभायी। इन्होंने भारत के आर्थिक व सामाजिक ढाँचे का निर्माण किया व नीतियों की नींव रखीं।
 
बतौर प्रथम प्रधानमंत्री इनका चुनाव, कश्मीर मसला और अक्षम्य ग़लती, चीन युद्ध में भारत की अपमानजनक हार, प्रथम राष्ट्रपति के साथ मतभेद, हिंदू कोड बिल, योग्य व्यक्तिओं की अनदेखी तथा कुछ राजनीतिक विवादों के चलते इनकी काफ़ी आलोचना हुई।
 
सन 1955 में नेहरू को भारत रत्न से सम्मानित किया गया। प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद और प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू के बीच गहरे मतभेद थे। बावजूद इसके राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद ने नेहरू को भारत रत्न प्रदान करने की ज़िम्मेदारी पूर्ण रूप से स्वयं ही ली थी।
 
ढेरों प्रशंसा और अनेक आलोचनाओं से लबालब जीवन व्यतित करने वाले नेहरू को 27 मई 1964 के दिन दिल का दौरा पड़ा और वे संसार से चल बसे। उनकी समाधि का नाम शांतिवन है, जो दिल्ली में यमुना तट पर है।
 
गुलज़ारी लाल नंदा
मई 27, 1964 - 9 जून, 1964 (कांग्रेस), साबरकांठा लोकसभा सीट
11 जनवरी, 1966 - 24 जनवरी, 1966 (कांग्रेस), साबरकांठा लोकसभा सीट
बात सन 1992 की है। गुजरात के अहमदाबाद में 94 साल के एक बुज़ुर्ग, जो अपने मकान मालिक को किराया नहीं दे पाया था, को घर से निकाला जा रहा था। बुज़ुर्ग के पास एक पुराना बिस्तर, कुछ एल्युमीनियम के बर्तन, प्लास्टिक की बाल्टी समेत कुछ टूटा-फूटा सामान था। बुज़ुर्ग किराया देने के लिए मकान मालिक से कुछ दिन की मोहलत मांग रहा था। पड़ोसियों को इस बुज़ुर्ग पर दया आयी और फिर उस बुज़ुर्ग को कुछ वक्त दिया गया। वो अपना सामान लेकर अंदर चला गया। वहाँ से गुज़र रहे एक पत्रकार ने सारा नज़ारा देखा। उसने इस ख़बर को समाचार पत्र में प्रकाशित करने के लिए सोचा। उसने कुछ तस्वीरें खींची और ख़बर के साथ अपने कार्यालय जा पहुंचा। उसने ख़बर का मिर्च-मसाला वाला शीर्षक भी सोच लिया था।
 
ख़बर और तस्वीर को लेकर पत्रकार प्रेस जा पहुंचा। प्रेस मालिक ने ख़बर पढ़ने के बाद तस्वीर पर नज़र डाली। वो हैरान रह गया। उसने पत्रकार से पूछा कि क्या वो जानता है कि यह बुज़ुर्ग कौन है? पत्रकार नहीं जानता था। अगले दिन अख़बार के पहले पन्ने पर शीर्षक के साथ ख़बर थी- भारत के पूर्व प्रधानमंत्री गुलज़ारी लाल नंदा दयनीय जीवन जीने को मजबूर।
 
पूरी ख़बर और घटना को विस्तार से लिखा गया। ख़बर पूरे देश में आग की तरह फ़ैल गई। तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने तुरंत अपने मंत्रियों और अधिकारियों को वाहनों के एक बेड़े के साथ उनके घर भेजा। अपने घर के बाहर वीआईपी वाहनों का बेड़ा देख मकान मालिक दंग रह गया। तब जाकर उसे पता चला कि उसका किराएदार कोई मामूली इंसान नहीं, बल्कि भारत के पूर्व प्रधानमंत्री गुलज़ारी लाल नंदा हैं। मकान मालिक अपने दुर्व्यवहार के लिए नंदा के चरणों में लेट गया।
 
बतौर प्रधानमंत्री इससे ज़्यादा गुलज़ारी लाल नंदा के परिचय में लिखना ज़रूरी भी नहीं बनता। यह सच्ची घटना है और इससे ज़्यादा इनका सीधा व सटीक परिचय और क्या हो सकता है? ऐसे दुर्लभ राजनेता आज भी बतौर राजनेता और बतौर प्रधानमंत्री, आम जनता की यादों में गुम और गायब से हैं। इन्हें स्वतंत्रता सेनानी के रूप में 500 रुपये की पेंशन स्वीकृत हुई थी। इन्होंने इसे भी लेने से यह कह कर इनकार कर दिया था कि पेंशन के लिए इन्होंने लड़ाई नहीं लड़ी थी।
 
वे दो बार प्रधानमंत्री बने, दोनों बार कार्यवाहक। राजनेता होने के साथ वे एक लेखक भी थे। गुलज़ारी लाल बुलाकी राम नंदा का जन्म 4 जुलाई 1898 को पंजाब के सियालकोट में हुआ था। इन्होंने लाहौर, आगरा एवं इलाहाबाद में अपनी शिक्षा प्राप्त की। इन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में श्रम संबंधी समस्याओं पर एक शोध अध्येता के रूप में कार्य किया एवं 1921 में नेशनल कॉलेज (मुंबई) में अर्थशास्त्र के प्राध्यापक बने। इनका विवाह 1916 में लक्ष्मी देवी के साथ हुआ।
 
मार्च 1950 में वे योजना आयोग के उपाध्यक्ष के रूप में शामिल हुए। इसके बाद इन्होंने नेहरू सरकार में अलग अलग काल में योजना मंत्री, सिंचाई एवं बिजली विभाग मंत्री, श्रम एवं रोजगार और नियोजन मंत्री के रूप में काम किया। सन 1955 में सिंगापुर में आयोजित योजना सलाहकार समिति तथा 1959 में जेनेवा में आयोजित अंतरराष्ट्रीय श्रम सम्मेलन में इन्होंने भारतीय प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व किया। 1963 से 1966 तक वे गृह मंत्री रहे।
 
पंडित नेहरू की मृत्यु के बाद इन्होंने 27 मई 1964 को भारत के कार्यवाहक प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली। ताशकंद में श्री लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु के बाद फिर से 11 जनवरी 1966 को इन्होंने कार्यवाहक प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली थी। वे भारत के पहले कार्यकारी प्रधानमंत्री थे।
 
कार्यवाहक प्रधानमंत्री के तौर पर इनकी ज़िम्मेदारी थी कि वह स्थिरता और निरंतरता प्रदान करें। इन्होंने यह बख़ूबी किया। एक मंत्री और एक नेता के तौर पर उनके कुछ कार्य अविस्मरणीय हैं। जैसे कि इन्होंने देश के लिए सबसे मज़बूत श्रम क़ानून बनाए। कुरुक्षेत्र को पर्यटन के रूप में विकसित करने का श्रेय अगर किसी को जाता है तो वे गुलज़ारी लाल नंदा हैं।
 
जो व्यक्ति दो बार देश का कार्यवाहक प्रधानमंत्री बना, अनेक बार केंद्रीय मंत्री बना, जिसका नेहरू, गाँधी और सरदार से लेकर अनेक प्रधानंत्रियों के साथ सीधा वास्ता था, वह अपने अंतिम दिनों में बतौर लाचार किराएदार रहा करता था। ऐसे दुर्लभ राजनेता को देश आज भी मात्र औपचारिक रूप से याद कर लेता है।
 
बता दें कि 1992 की उस घटना के बाद भी इन्होंने सरकारी आवास व अन्य सुविधाएँ यह कहकर स्वीकार नहीं की थी कि वे इस बुढ़ापे में इतने सारे तामझाम का करेंगे क्या। उनके क़रीबियों के लाख समझाने के बाद वे किराए मात्र जितनी राशि स्वीकार कर अपने अंतिम समय तक एक सामान्य नागरिक व स्वातंत्र्य सेनानी बनकर ही ज़िंदगी जीते रहे।
 
सन 1997 में इन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया गया। क़रीब 100 साल का जीवन जीने के बाद 15 जनवरी 1998 के दिन गुजरात के अहमदाबाद में इनका निधन हो गया।
 
लाल बहादुर शास्त्री
9 जून, 1964 - 11 जनवरी, 1966 (कांग्रेस), इलाहाबाद लोकसभा सीट
"सदर अयूब ने कहा था कि वो दिल्ली तक चहलक़दमी करते हुए पहुंच जाएंगे। वो इतने बड़े आदमी हैं। लहीम शहीम हैं। मैंने सोचा कि उन्हें दिल्ली तक चलने की तकलीफ़ क्यों दी जाए। हम ही लाहौर की तरफ़ बढ़ कर उनका इस्तक़बाल करें।" - यह उस शख्स का दिल्ली के रामलीला मैदान से जनता को संबोधन था, जिसके बाद तालियों की गूंज रुकने का नाम नहीं ले रही थी।
 
वे कद में छोटे थे, लेकिन पाकिस्तान को अपने विराट कारनामे का अहसास ज़रूर दिला गए। भारत के इकलौते ऐसे प्रधानमंत्री जिनकी मौत आज भी रहस्य है। ऐसे राजनेता जिनकी सादगी, ईमानदारी और निष्ठा की आज भी मिसाल दी जाती है। एक ऐसे प्रधानमंत्री, जिनकी एक आवाज़ पर लाखों भारतीयों ने एक वक़्त का खाना तक छोड़ दिया था।
 
लाल बहादुर शारदा प्रसाद शास्त्री (श्रीवास्तव) का जन्म 2 अक्टूबर 1904 को उत्तर प्रदेश के वाराणसी के पास छोटे से रेलवे टाउन, मुगलसराय में हुआ था। घर पर सब इन्हें नन्हे के नाम से पुकारते थे। उनके पिता एक स्कूल शिक्षक थे। जब लाल बहादुर शास्त्री केवल डेढ़ वर्ष के थे तभी उनके पिता का देहांत हो गया। 1927 में इनकी शादी ललिता देवी से हुई।
 
1946 में जब कांग्रेस सरकार का गठन हुआ तो इस छोटे से डायनेमो को देश के शासन में रचनात्मक भूमिका निभाने के लिए कहा गया। इन्हें अपने गृह राज्य उत्तर प्रदेश का संसदीय सचिव नियुक्त किया गया और ज़ल्द ही वे गृह मंत्री के पद पर भी आसीन हुए। बाद में इन्होंने केंद्रीय मंत्रिमंडल के कई विभागों का प्रभार संभाला। इन्होंने बतौर रेल मंत्री, परिवहन एवं संचार मंत्री, वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री, गृह मंत्री एवं नेहरूजी की बीमारी के दौरान बिना विभाग के मंत्री के रूप में भी काम किया।
 
सन 1956 में एक रेल दुर्घटना, जिसमें कई लोग मारे गए थे, के लिए स्वयं को ज़िम्मेदार मानते हुए इन्होंने रेल मंत्री के पद से इस्तीफ़ा दे दिया था। देश एवं संसद ने उनके इस अभूतपूर्व पहल को काफ़ी सराहा।
 
27 मई 1964 को जवाहरलाल नेहरू के निधन के बाद अब देश की बागडोर किसे सौंपी जाए, यह यक्षप्रश्न देश के सामने था। तात्कालिक आधार पर उसी दिन यह दायित्व वरिष्ठ नेता गुलज़ारी लाल नंदा को सौंपा गया। तत्पश्चात 9 जून 1964 के दिन लालबहादुर शास्त्री को विधिवत नेता निर्वाचित कर प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाई गई। इस छोटे कद के नेता ने मात्र 18 माह देश का सफल नेतृत्व किया। इस अल्पकाल में ही देश के इतिहास में शास्त्रीजी ने अपना स्थान स्वर्णाक्षरों में अंकित करा लिया। श्वेत क्रांति का शुभारंभ इन्हीं के कार्यकाल के दौरान हुआ।
 
उनके शासनकाल में पाकिस्तान ने 1965 में भारत पर आक्रमण कर दिया। शास्त्रीजी ने बड़े धैर्य के साथ उस युद्ध का सफल नेतृत्व किया। शांतिकाल में भारत के इस लाल को जहाँ बेचारा शास्त्री माना जाता था, वहीं युद्धकाल के दौरान बेचारे शास्त्री को बेबाक बहादुर मानने के लिए उनके विरोधियों को भी विवश कर दिया।
 
इस जंग के दौरान जब अमेरिका ने भारत को लाल गेहूँ न भेजने की धमकी दी तो शास्त्रीजी ने दूसरे दिन देशवासियों को अन्न संकट से उबरने के लिए सप्ताह में एक दिन का व्रत रखने की अपील की। इनकी अपील पर देशवासियों ने सोमवार को व्रत रखना शुरू कर दिया था। उस युद्ध में अंत में भारत का पलड़ा भारी रहा। शास्त्रीजी के छोटे कद का मज़ाक उड़ाने वाले पाकिस्तान के भीतर तक भारतीय सेना घुस गई।
 
पर रूस ने और कुछ अन्य विश्व शक्तियों ने शास्त्रीजी को पाकिस्तान के साथ वार्ता करने के लिए विवश कर दिया। रूस के ताशकंद में वार्ता निश्चित की गई। ताशकंद में पाक सैनिक शासक अय्यूब के साथ बैठक का दौर कई दिनों तक चला। रूसी प्रधानमंत्री हर हाल में वार्ता को सफल कराना चाहते थे। अत: शास्त्रीजी को बलात इस बात पर सहमत करा लिया कि भारत पाक के विजित क्षेत्रों को छोड़ देगा तथा युद्ध से पूर्व की स्थिति में दोनों देशों की सेना चली जाएगी। शास्त्रीजी के लिए यह बात बड़ी कष्टदेह थी।
 
11 जनवरी 1966 की रात्रि में इन्हें संदेहास्पद परिस्थितियों में ताशकंद में ही दिल का दौरा पड़ा और वे चल बसे। रूस के प्रधानमंत्री कोसिजिन ने अपने देश से भारत के इस महान सपूत को कंधा देकर विदा किया और उनके अंतिम संस्कार में सम्मिलित हुए।
 
स्वतंत्रता आंदोलन के दौर में एक बार जब इनकी पत्नी ने कहा कि महीने में जो 50 रुपये मिलते हैं, उसमें से 40 रुपये से ख़र्चा चल जाता है और बाकी के 10 रुपये वो बचाकर रखती हैं, तो इन्होंने सेनानी संगठन से तत्काल कहा कि अब से उनके घर में 40 रुपये ही भेजे जाए।
 
उनमें आज़ादी के बाद भी तनिक बदलाव नहीं आया था। जय जवान जय किसान का नारा देने वाले शास्त्रीजी के बारे में कहा जाता है कि वे आज़ाद भारत के दुर्लभ राजनेता थे। इनकी समाधि का नाम विजय घाट (दिल्ली) है। उनकी नेतृत्व क्षमता और सादगी को देश आज तक श्रद्धा के साथ याद करता है। ये पहले व्यक्ति थे, जिन्हें मरणोपरांत भारत रत्न से (1966 में) सम्मानित किया गया।
 
श्रीमती इंदिरा गांधी
24 जनवरी, 1966 - 13 मार्च 1967 (कांग्रेस - आई), रायबरेली लोकसभा सीट
13 मार्च 1967 - 18 मार्च, 1971 (कांग्रेस - आई), रायबरेली लोकसभा सीट
18 मार्च 1971 - 24 मार्च 1977 (कांग्रेस - आई), रायबरेली लोकसभा सीट
14 जनवरी, 1980 - 31 अक्टूबर, 1984 (कांग्रेस - आई), रायबरेली लोकसभा सीट
आयरन लेडी, दुर्गा, सख़्त प्रशासक, निडर नेता। असली नाम इंदिरा प्रियदर्शिनी नेहरू, किंतु देश और दुनिया में इंदिरा गांधी के नाम से पहचानी जाने वाली भारत की प्रथम तथा एकमात्र महिला प्रधानमंत्री। वह प्रधानमंत्री, जिन्होंने एशिया का भीतरी नक्शा बदल दिया था। आपातकाल लगाने के कारण इन्हें तानाशाह भी कहा गया।
 
पंडित जवाहरलाल नेहरू की पुत्री श्रीमती इंदिरा गांधी का जन्म 19 नवम्बर 1917 के दिन हुआ था। इन्होंने शांति निकेतन व ऑक्सफोर्ड समेत अनेक प्रमुख संस्थानों से शिक्षा प्राप्त की। इन्हें विश्व के अनेक सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों द्वारा डॉक्टरेट की उपाधि से सम्मानित किया गया था। प्रभावशाली शैक्षिक पृष्ठभूमि के कारण इन्हें कोलंबिया विश्वविद्यालय द्वारा विशेष योग्यता प्रमाण दिया गया। 1941 में भारत लौटने के बाद इन्होंने आंशिक रूप से स्वतंत्रता आंदोलन में काम किया।
 
26 मार्च 1942 को इंदिरा का विवाह फ़िरोज़ गाँधी से हुआ। उनके दो पुत्र थे, संजय गांधी और राजीव गांधी। वह लाल बहादुर शास्त्री सरकार में सूचना एवं प्रसारण मंत्री रहीं।
 
24 जनवरी 1966 के दिन वह भारत की प्रधानमंत्री बनीं। वह भारत की प्रथम व एकमात्र महिला प्रधानमंत्री हैं। वे वर्ष 1966 से 1977 तक लगातार 3 पारी के लिए भारत की प्रधानमंत्री रहीं और उसके बाद चौथी पारी में 1980 से लेकर 1984 में उनकी हत्या तक भारत की प्रधानमंत्री रहीं।
 
लालबहादुर शास्त्री के आकस्मिक निधन के बाद काँग्रेस अध्यक्ष के. कामराज इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बनाने में निर्णायक रहे। अनेक लेखों में कहा गया है कि दिग्गज कांग्रेसी नेता इंदिरा को गूंगी गुड़िया के नाम से जानते थे और इन्हें प्रधानमंत्री बनाकर वे लोग सत्ता पर सीधा नियंत्रण रखना चाहते थे। किंतु उसके बाद जो हुआ वह जगजाहिर इतिहास है।
 
इंदिरा को बाकायदा दुनिया की आयरन लेडीज़ सूची में शामिल किया जाता है। 1960-70 के दशक में एशिया में तीन महिलाओं का बोलबाला था। श्रीलंका की सिरिमावो भंडारनायके, इज़रायेल की गोल्डा मेयर और भारत की इंदिरा गांधी।
 
बैंकों का राष्ट्रीयकरण इंदिरा के काल में ही किया गया। राजाओं के प्रिवीपर्स बंद किए गए। कांग्रेस का विभाजन हुआ। बहुचर्चित संस्था रॉ की स्थापना इन्हीं के कार्यकाल में हुई। बीमा तथा कोयला उद्योग का राष्ट्रीयकरण तथा सिक्किम का भारत में विलीनीकरण इंदिरा गांधी के दौरान ही हुआ।
 
इंदिरा गांधी ने गुट निरपेक्ष आंदोलन की अध्यक्षता भी की। हरित क्रांति तथा श्वेत क्रांति से वे नज़दीक़ से जुड़ी रहीं। वीवी गिरि को इन्होंने देश का अपनी पसंद का राष्ट्रपति बनाया। नेहरू के सिद्धांतों के ख़िलाफ़ जाकर आदेश आधारित शासन करने को लेकर इनकी आलोचना भी हुई। इनके कार्यकाल के दौरान अनेक राज्य सरकारों का विवादास्पद पतन व गठन हुआ। इन पर सार्वजनिक संस्थाओं को विकृत करने के भी आरोप लगे।
 
इंदिरा के कार्यकाल के दौरान सन 1967 के सितंबर महीने में भारत और चीन के बीच बड़ा संघर्ष हुआ। किंतु 1962 के विपरित भारत ने इस संघर्ष में चीन को काफ़ी नुक़सान पहुंचाकर अपना पलड़ा भारी रखा। फिर सन 1971 में, "वेल एडमिरल, इफ़ देयर इज़ अ वॉर, देअर इज़ अ वॉर", देश के नौसेना अध्यक्ष को इतना कहकर सेना को पूरी छूट देने वाली इस प्रधानमंत्री ने 13 दिनों के भीतर दक्षिणी एशिया का नक्शा हमेंशा के लिए बदल दिया।
 
भारत और पाक के 1971 युद्ध के दौरान भारी अंतरराष्ट्रीय दबाव के बीच भी वे सफलतापूर्वक युद्ध व देश को संचालित करती रहीं। इसी युद्ध के बाद इन्हें 'दुर्गा' के नाम से जाना गया। 93,000 हज़ार पाक सैनिकों ने भारत के सामने हथियार डाल दिए। इतनी बड़ी सेना ने विश्व इतिहास में पहली बार आत्मसमर्पण किया। इसी दौरान बांग्लादेश का विश्व मानचित्र पर एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में जन्म हुआ। इंदिरा गांधी ने एशिया का नक्शा बदल दिया। पाकिस्तान के साथ 1972 में शिमला समझौता किया गया। इंदिरा के समय ही भारत ने सन 1974 में स्माइलिंग बुद्धा के छद्म नाम से पोखरण में परमाणु परीक्षण किए, जिसके साथ ही भारत परमाणु राष्ट्र बन गया।
 
किंतु कुछ ही महीनों के बाद पिछले आम चुनाव से संबंधित इंदिरा गांधी बनाम राज नारायण वाले बहुचर्चित मामले में इन्हें अदालत ने तलब किया। भारत के इतिहास में यह पहला मौक़ा था जब किसी तत्कालीन प्रधानमंत्री को अदालत ने समन जारी किया हो और इन्हें अदालत में पेश होना पड़ा हो। इस मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इन्हें दोषी पाया और छह सालों के लिए पद से बेदखल करने का सख़्त और अभूतपूर्व फ़ैसला सुनाया। अदालत के निर्णय के बाद इंदिरा ने देश में आपातकाल की घोषणा कराई। 25 जून 1975 की रात्रि में लगे आपातकाल ने इंदिरा को ग़लत दिशा में मोड़ दिया। आपातकाल स्वतंत्र भारत का काला अध्याय माना जाता है, जिसने इंदिरा गांधी की छवि को भारी नुक़सान पहुंचाया।
 
कथित रूप से अपने पुत्र संजय गांधी के प्रति अति प्रेम और अति विश्वास ने न केवल इंदिरा को, बल्कि देश को भी नुक़सान पहुंचाया। एकछत्रवादी कार्यशैली और तानाशाही रवैये के चलते उनकी काफ़ी आलोचना हुई। राज्यों में अनैतिक तरीक़े से सरकारें गिराने बनाने के आरोप पहले से उन पर लगते रहे थे। आपातकाल से पहले देश उनके साथ था, किंतु आपातकाल के फलस्वरूप देश की जनता ने उनका साथ छोड़ दिया और 1977 में चुनाव हुए तो वह हार गईं। 1980 में इन्होंने फिर चुनाव जीता और सत्ता में उनकी वापसी हुई।
 
इस बार इन्होंने एशियाई खेलों का आयोजन 1982 में दिल्ली में कराया, जबकि इसी वर्ष 101 देशों की गुटनिरपेक्ष देशों की नेता भी बनी। इंदिरा गांधी के चौथे कार्यकाल के दौरान पंजाब में खालिस्तानी आंदोलन ने ज़ोर पकड़ा। स्वर्ण मंदिर, अमृतसर में सेना भेजने के लिए इन्होंने राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह से रात्रि में उसी प्रकार हस्ताक्षर कराए, जैसे फ़ख़रुद्दीन अली अहमद से रात में जाकर आपातकाल के पत्रों पर कराए थे। स्वर्ण मंदिर में चलाए गए इस सैन्य अभियान के बहुत बुरे धार्मिक प्रभाव पड़े।
 
ऑपरेशन ब्लू स्टार (पंजाब में हुई सैनिक कार्रवाई) से आहत हुए उनके दो सिक्ख अंगरक्षकों ने 31 अक्टूबर 1984 के दिन प्रधानमंत्री निवास पर ही गोलियाँ मारकर उनकी हत्या कर दी।
 
फ्रांस जनमत संस्थान के सर्वेक्षण के अनुसार वह 1967 और 1968 में फ्रांस की सबसे लोकप्रिय महिला थीं। 1971 में अमेरिका के विशेष गैलप जनमत सर्वेक्षण के अनुसार वह दुनिया की सबसे लोकप्रिय महिला थीं। इन्हें अनेक अंतरराष्ट्रीय सम्मान मिले। सन 1971 में इन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया गया।
 
मोरारजी देसाई
24 मार्च, 1977 - 28 जुलाई, 1979 (जनता पार्टी), सूरत लोकसभा सीट
भारत के पहले प्रधानमंत्री, जिन्होंने देश की पहली ग़ैर कांग्रेसी सरकार का नेतृत्व किया। वह 81 वर्ष की आयु में देश के प्रधानमंत्री बने थे।
 
मोरारजी रणछोड़जी देसाई का जन्म 29 फ़रवरी 1896 के दिन भदेली गाँव, जो अब गुजरात के बुलसर ज़िले में स्थित है, में हुआ था। उनके पिता एक स्कूल शिक्षक थे। मोरारजी देसाई ने सेंट बुसर हाईस्कूल से शिक्षा प्राप्त की तथा अपनी मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। तत्कालीन बंबई प्रांत के विल्सन सिविल सेवा से 1918 में स्नातक की डिग्री प्राप्त करने बाद इन्होंने बारह वर्षों तक डिप्टी कलेक्टर के रूप में कार्य किया। इन्होंने 1911 में गुजराबेन से शादी की।
 
नेहरू से लेकर इंदिरा तक को जिन दो सबसे खरे और महत्वाकांक्षी लोगों से वास्ता पड़ा था, उनमें से मोरारजी एक थे। एक क़िस्सा है। उस ज़माने में नेहरू के सचिव एमओ मथाई अपने एक मित्र के साथ कुतुब मीनार घूमने गए। मित्र ने उत्सुकतावश उनसे पूछा कि मोरारजी देसाई किस तरह के शख़्स हैं? मथाई का जवाब था, "ये जो आप सामने लोहे का खंबा देख रहे हैं, उसे बस गाँधी टोपी पहना दीजिए, मोरारजी देसाई आप के सामने होंगे।"
 
1952 में वे बंबई (वर्तमान में मुंबई) के मुख्यमंत्री बने। अपने कार्यकाल के दौरान भू-राजस्व में दूरगामी सुधार, पुलिस प्रशासन और लोगों के बीच सामंजस्य, किसानों और किरायेदारों को लेकर क़ानून के संबंध में प्रशंसनीय कार्य किया। राज्यों को पुनर्गठित करने के बाद इन्होंने केंद्रीय मंत्रीमंडल में वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री तथा वित्त मंत्री के रुप में सेवा दी। मोरारजी इंदिरा गांधी के कार्यकाल के दौरान देश के उप प्रधानमंत्री भी बने। जब उनसे वित्त मंत्रालय का प्रभार वापस से लिया गया तब इन्होंने उप प्रधानमंत्री पद से इस्तीफ़ा दे दिया।
 
आज़ाद भारत में सबसे अधिक बार बजट पेश करने का रिकॉर्ड मोरारजी देसाई के नाम है। मोरारजी देसाई ने आठ सालाना बजट और दो अंतरिम बजट पेश किए। मोरारजी देसाई वह राजनेता हैं, जो सबसे लंबे समय तक प्रधानमंत्री पद के दावेदार रहे। हालाँकि वे उस पार्टी से प्रधानमंत्री नहीं बन पाए, जिसके साथ वे लंबे काल तक जुड़े रहे।
 
इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल के दौरान सरकारी ज़्यादती और अमानवीय कार्यशैली के चलते देश की जनता नाराज़ थी। उस समय के पाँच बड़े विपक्षी दलों ने मिलकर जनता पार्टी नामक नया राजनीतिक दल बनाया। 1977 में देश में आम चुनाव हुए। लोगों ने अपना जनादेश जनता पार्टी को दिया। मोरारजी देसाई 23 मार्च 1977 के दिन देश के पहले ग़ैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री बने।
 
वह मोरारजी देसाई का कार्यकाल था जब उनके उद्योग मंत्री जॉर्ज फ़र्नांडिस ने कोका कोला को भारत से बाहर कर दिया था, साथ ही हिन्दुस्तान पेट्रोलियम का निजीकरण भी रोक दिया था। 16 जनवरी 1978 को मोरारजी देसाई ने नोटबंदी लागू कर दी थी। इसमें 1 हज़ार, 5 हज़ार और 10 हज़ार के नोट अमान्य घोषित किए गए थे।
 
आपातकाल के दौरान सरकारी संस्थाओं का जमकर दुरुपयोग हुआ था। मोरारजी देसाई को शक था कि इंदिरा गांधी ने रॉ की मदद से जनता पार्टी के नेताओं की जासूसी करवाई थी। इसलिए इन्होंने आते ही रॉ के पर कतरने शुरू कर दिए। मोरारजी से नाराज़ होकर ही रॉ के मुख्य नायक आरएन काओ ने निदेशक पद से इस्तीफ़ा दे दिया था। इनके कार्यकाल में ही रॉ को पाकिस्तान के कहूटा परमाणु मथक का पता चला। किंतु प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने रॉ की कोई आर्थिक मदद नहीं की। नतीजन उस न्यूक्लियर प्लांट का ब्लू प्रिंट भारत के हाथ नहीं आ पाया। कहते हैं कि इसके अलावा मोरारजी के बड़बोलेपन से कहूटा परमाणु मथक का वो क़िस्सा पाकिस्तान को पता चल गया।
 
दूसरी तरफ़ जनता पार्टी महत्वाकांक्षाओं और अहंकार का शिकार बनने लगी। अंतर्कलह का परिवेश सरकार में दिखने लगा। विदेश मंत्री के रूप में अटल बिहारी वाजपेयी, तो गृहमंत्री के रूप में चौधरी चरणसिंह अपनी महत्वाकांक्षा पालने लगे। मोरारजी घटक दलों को एकसाथ रखने में निरंतर असफल होते जा रहे थे। अंत में सरकार गिर गई।
 
इन्हें सन 1990 में पाकिस्तान के सर्वोच्च नागरिक सम्मान निशान-ए-पाकिस्तान से सम्मानित किया गया था। सन 1992 में इन्हें भारत के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से पुरस्कृत किया गया। ये एकमात्र भारतीय हैं, जिन्हें भारत तथा पाकिस्तान, दोनों देशों के सर्वोच्च सम्मानों से नवाजा जा चुका हो। लगभग 100 वर्ष की अवस्था भोगकर 10 अप्रैल, 1995 के दिन मुंबई में उनका निधन हुआ।
 
चरण सिंह
28 जुलाई, 1979 - 14 जनवरी, 1980 (जनता पार्टी), बागपत लोकसभा सीट
एक ऐसे प्रधानमंत्री, जो लाल क़िले से बोले किंतु संसद में बोलने का मौक़ा ही नहीं मिला। चौधरी चरण सिंह के नाम से मशहूर एक ऐसे राजनेता, यूँ कहे कि ऐसे किसान नेता, जिन्होंने यूपी में पहली ग़ैर कांग्रेसी सरकार बनाई थी।
 
चरण सिंह मीर सिंह का जन्म 1902 में उत्तर प्रदेश के मेरठ ज़िले के नूरपुर में एक मध्यम वर्गीय किसान परिवार में हुआ था। इन्होंने विज्ञान में स्नातक की तथा आगरा विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की। क़ानून में प्रशिक्षित सिंह ने गाज़ियाबाद से अपने पेशे की शुरुआत की। इन्होंने कांग्रेस से जुड़ अपनी राजनीति की शुरुआत की। चरण सिंह की शादी 1925 में गायत्री देवी से हुई थी।
 
वे यूपी के कैबिनेट मंत्री, न्याय तथा सूचना विभाग मंत्री, डॉ. सम्पूर्णानन्द के मंत्रिमंडल में राजस्व एवं कृषि मंत्री, सीबी गुप्ता के मंत्रालय में गृह एवं कृषि मंत्री, श्रीमती सुचेता कृपलानी के मंत्रालय में कृषि एवं वन मंत्री व स्थानीय स्वशासन विभाग के मंत्री रहे। कांग्रेस विभाजन के बाद अप्रैल 1967 में वे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। हालाँकि राज्य में 2 अक्टूबर 1970 को राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया।
 
चरण सिंह ने विभिन्न पदों पर रहते हुए उत्तर प्रदेश की सेवा की और उनकी ख्याति एक सख़्त नेता के रूप में हो गई थी। प्रतिभाशाली सांसद तथा व्यवहारवादी चरण सिंह अपनी वाक्पटुता तथा दृढ़ विश्वास के लिए जाने गए। किंतु दूसरी तरफ दलबदल कर सत्ता तक पहुंचने को लेकर इनकी आलोचना भी होती रही।
 
उत्तर प्रदेश में भूमि सुधार का पूरा श्रेय इन्हें जाता है। ग्रामीण देनदारों को राहत प्रदान करने वाला विभागीय ऋणमुक्ति विधेयक, 1939 को तैयार करने तथा इसे अंतिम रूप देने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी। उनके द्वारा की गई पहल का ही परिणाम था कि उत्तर प्रदेश में मंत्रियों के वेतन तथा उन्हें मिलने वाले अन्य लाभों को काफ़ी कम कर दिया गया था। मुख्यमंत्री के रूप में जोत अधिनियम, 1960 को लाने में भी उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी।
 
मोरारजी सरकार गिरने के बाद 28 जुलाई 1979 के दिन वह देश के प्रधानमंत्री बने। कांग्रेस ने इन्हें बाहरी समर्थन दिया। दावा किया जाता है कि इंदिरा ने उन पर दबाव डाला था कि वे उनके ख़िलाफ़ बैठे आयोगों को ख़त्म करें और उन्हें दोषमुक्त करें, लेकिन चरण सिंह नहीं माने। कांग्रेस ने अपना समर्थन वापस ले लिया। अत: चौधरी ने संसद में अपना बहुमत सिद्ध करने से 1 दिन पहले ही 19 अगस्त 1979 को अपने पद से त्यागपत्र दे दिया।
 
बतौर प्रधानमंत्री राजे-रजवाड़ों को भत्ता देने की इन्होंने फिर से शुरुआत कर दी, जिसे ग़रीबों और किसानों के साथ विश्वासधात के रूप में देखा गया।
 
चौधरी चरण सिंह बतौर प्रधानमंत्री लाल क़िले से बोले, किंतु इन्हें संसद में बोलने का मौक़ा ही नहीं मिला। कहा जाता है कि वे हाशिये के लोगों के नेता थे, लेकिन हाशिये के नेता नहीं रहे। सांप्रदायिकता के विरोधी रहे लेकिन अवसरवाद के आरोप भी लगे। कांग्रेस में रहते हुए नेहरू के घोर विरोधी रहे, लेकिन नेहरू के निधन तक कांग्रेस को नहीं छोड़ा। बतौर देश के गृह मंत्री इन्होंने इंदिरा गांधी की गिरफ़्तारी का आदेश दिया था।
 
चौधरी चरण सिंह ने अत्यंत साधारण जीवन व्यतीत किया और अपने खाली समय में वे पढ़ने और लिखने का काम करते थे। इन्होंने कई किताबें और रूचार-पुस्तिकाएं लिखीं। 9 मई 1987 को उनके जीवन का अंत हुआ। उनकी समाधि को दिल्ली में किसान घाट के नाम से जाना जाता है।
 
राजीव गांधी
31 अक्टूबर, 1984 - 2 दिसंबर, 1989 (कांग्रेस - आई), अमेठी लोकसभा सीट
भारत के सबसे युवा प्रधानमंत्री, पहले टेक्नोसेवी नेता, जो राजनीति में आना ही नहीं चाहते थे, लेकिन समय का पहिया यूँ घूमा कि भारत के सबसे बड़े जनादेश का रिकॉर्ड इन्हीं के नाम है।
 
राजीव गांधी का जन्म 20 अगस्त 1944 को बम्बई में हुआ था। इन्होंने देहरादून वेल्हम स्कूल, दून स्कूल, गांधी कैम्ब्रिज ट्रिनिटी कॉलेज से शिक्षा प्राप्त की और फिर लंदन के इम्पीरियल कॉलेज से मैकेनिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई की। उनके पिता फ़िरोज़ गांधी सांसद थे, जो नेहरू के घोर विरोधी थे।
 
1968 में नई दिल्ली में इन्होंने सोनिया से शादी कर ली। वे अपने दोनों बच्चों, राहुल और प्रियंका के साथ नई दिल्ली में श्रीमती इंदिरा गांधी के निवास पर रहे। 1980 में एक विमान दुर्घटना में उनके भाई संजय गांधी की मौत ने सारी परिस्थितियाँ बदल कर रख दीं। उन पर राजनीति में प्रवेश करने और अपनी माँ को राजनीतिक कार्यों में सहयोग करने का दबाव बन गया। इन्होंने अपने भाई की मृत्यु के कारण खाली हुए उत्तर प्रदेश के अमेठी संसद क्षेत्र का उपचुनाव जीता।
 
जो व्यक्ति राजनीति में आना ही नहीं चाहता था उसके लिए नियति ने कुछ और ही सोच कर रखा था। 1984 में अपनी माता और देश की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद वे देश के प्रधानमंत्री बने। राजीव गांधी भारत के सबसे कम उम्र के प्रधानमंत्री हैं। इन्होंने लोकसभा के लिए चुनाव कराने का आदेश दिया। उस चुनाव में कांग्रेस को पिछले सात चुनावों की तुलना में लोकप्रिय वोट अधिक अनुपात में मिले और पार्टी ने रिकॉर्ड 404 सीटें हासिल की।
 
प्रधानमंत्री बनने के बाद राजीव गांधी अनिर्णय की स्थिति में रहे। उनकी अनुभव शून्यता और माता के आकस्मिक निधन ने देश में सिखों की हत्याओं का खेल शुरू करा दिया। राजीव सक्षम कार्रवाई नहीं कर पाए। हालाँकि इन्होंने बतौर प्रधानमंत्री पंजाब और असम समझौता किया, जिससे पंजाब व पूर्वोत्तर की हिंसक गतिविधियों में रुकावट आई।
 
इन्होंने भारत में टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किए। पेयजल की उपलब्धता, साक्षरता मिशन, श्वेत क्रांति, खाद्य तेल मिशन, पंचायती राज, महिला उत्थान आदि के क्षेत्रों में विशेष कार्य किए। दक्षेस संगठन की स्थापना राजीव गांधी ने की थी। वह राजीव गांधी ही थे, जो भारत में दूरसंचार क्रांति ले आए। इनके कार्यकाल के दौरान ही वोट देने की उम्र सीमा 21 से घटा कर 18 की गई। देश में कंप्यूटर क्रांति के जनक राजीव गांधी ही रहे। इनके ही कार्यकाल में राष्ट्रीय शिक्षा नीति लागू हुई थी।
 
1984 के दिल्ली दंगों के दौरान उनका रवैया, उनका वो विवादास्पद बयान, शाहबानो मामला, विवादित जगह का ताला खुलवाना जैसे मामलों में राजीव गांधी की आलोचना हुई। शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला, फिर तुष्टिकरण की राजनीति हेतु अध्यादेश के जरिए उस फ़ैसले को रोक देना, फिर दूसरे पक्ष को संतुष्ट करने हेतु विवादित जगह का ताला खोलने के आरोप, राजीव गांधी प्रधानमंत्री पद की गरिमा को चोट पहुंचाते रहे।
 
इसके पश्चात श्रीलंका में इन्होंने भारतीय सेना भेजी, जिसके चलते तमिल समुदाय राजीव के प्रति घृणा से भर गया। इधर देश में बोफोर्स तोपों में दलाली खाने के कथित आरोपों से कांग्रेस की स्थिति दिन-प्रतिदिन दुर्बल होती जा रही थी। वीपी सिंह रातोरात हीरो बनते जा रहे थे। आख़िरकार इन्होंने राजीव को सत्ता से दूर कर दिया।
 
दूसरी ओर खफ़ा तमिल लोगों ने उनकी हत्या का षड्यंत्र रचा और 21 मई 1991 को जब चुनाव का दौर चल रहा था तब तमिलनाडु के श्रीपेरुम्बुदूर में मानव बम के द्वारा उनकी निर्मम हत्या कर दी गई। सन 1991 में इन्हें मरणोपरांत भारत रत्न से सम्मानित किया गया।
 
विश्वनाथ प्रताप सिंह
2 दिसंबर, 1989 - 10 नवम्बर, 1990 (जनता दल), फतेहपुर लोकसभा सीट
जब वे वित्त मंत्री थे तो धीरूभाई अंबानी और अमिताभ बच्चन के पीछे पड़ गए। फिर इन्हें वहाँ से हटाकर रक्षा मंत्रालय में भेज दिया गया। वीपी सिंह वहाँ से बोफोर्स के पेपर निकाल लाए। प्रधानमंत्री बने तो एक ऐसा फ़ैसला लिया, जिसने भारत के सोशल-इकोनॉमिक स्ट्रक्चर को बदल कर रख दिया।
 
राजा बहादुर राम गोपाल सिंह के पुत्र विश्वनाथ प्रताप सिंह (वीपी सिंह) का जन्म 25 जून 1931 के दिन इलाहाबाद में हुआ था। इन्होंने इलाहाबाद तथा पूना विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त की। वे इलाहाबाद के कोरॉव में स्थित गोपाल विद्यालय इंटर कॉलेज के संस्थापक थे। इन्होंने 1957 में भूदान आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया और इलाहाबाद ज़िले के पासना गाँव में स्थित अपने खेत को दान में दिया। उनका विवाह श्रीमती सीता कुमारी से हुआ।
 
इन्होंने प्रधानमंत्री बनने से पहले अलग अलग समय में वाणिज्य उपमंत्री, वाणिज्य संघ राज्य मंत्री, आपूर्ति विभाग मंत्री, केंद्रीय वित्त मंत्री के रूप में काम किया। वे 9 जून 1980 से 28 जून 1982 तक उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे। उस समय यूपी में डाकुओं का ख़ूब आतंक था। इन्होंने जनता से वादा कर दिया कि अगर डाकुओं को ख़त्म नहीं कर पाया तो इस्तीफ़ा दे दूँगा। एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना के दौरान अनजाने में डाकुओं ने वीपी सिंह के भाई को मार दिया। वीपी सिंह ने अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया।
 
राजा मांडा के नाम से विख्यात वीपी सिंह राजीव गांधी सरकार में वित्त मंत्री थे। बतौर वित्त मंत्री वे टैक्स चोरी मामले को लेकर घीरूभाई अंबानी और अमिताभ बच्चन के पीछे पड़ गए। विदेशों में भारतीय लोगों के काले धन का मामला, जिसे फेयरफैक्स विवाद कहते हैं, तभी हुआ। वीपी सिंह को इस मंत्रालय से हटाकर रक्षा मंत्री बना दिया गया। कांग्रेस के लिए यह घाटे का सौदा रहा। वहाँ इन्होंने बोफोर्स तोपों के सौदे में कथित दलाली का भंडाफोड़ कर दिया। इसके परिणामस्वरूप जनता के बीच वे एक ज़िंदा शहीद बनते चले गए। उनकी लोकप्रियता दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही थी, जबकि राजीव गांधी की लोकप्रियता का ग्राफ कम होता जा रहा था।
 
देश में पहली बार भ्रष्टाचार के मुद्दे पर लोकसभा का चुनाव लड़ा गया। 2 दिसंबर 1989 को वे देश के प्रधानमंत्री बने। 1989 के चुनाव में वीपी सिंह के राष्ट्रीय मोर्चे को 146 सीटें मिलीं थी, जबकि कांग्रेस को 197 सीटें मिली थी। लेकिन भाजपा, वामपंथी आदि दलों ने मिलकर राष्ट्रीय मोर्चे को समर्थन दिया।
 
गृह मंत्री मुफ़्ती मोहम्मद सईद की पुत्री को अपहरणकर्ताओं से छुड़ाने के लिए आतंकवादियों की रिहाई की घटना इन्हीं के कार्यकाल के दौरान हुई। रथयात्रा के दौरान बिहार में लालकृष्ण आडवाणी की गिरफ़्तारी हुई।
 
अपने चुनावी वादे में वीपी सिंह ने मंडल कमीशन की सिफ़ारिशों को लागू करने का भरोसा दिलाया था। ओबीसी को आरक्षण पर मंडल कमीशन की रिपोर्ट दस सालों से पड़ी हुई थी। कोई इसे हाथ नहीं लगाना चाहता था। 13 अगस्त 1990 के दिन वीपी सिंह की सरकार ने इसे लागू कर दिया। वीपी सिंह के इस फ़ैसले के पीछे जो भी कारण रहे हो, लेकिन भारत के सोशल-इकोनॉमिक स्ट्रक्चर को इस फ़ैसले ने हिला दिया। इस फ़ैसले ने भारत में बहुत कुछ बदल दिया। यहीं से यूपी में मुलायम सिंह यादव और बसपा से कांशीराम उभरे। यूपी की राजनीति ही बदल गई। उधर मंडल के ख़िलाफ़ कमंडल की आग जल उठी।
 
5 नवंबर 1990 को वीपी सिंह का जनता दल बिखर गया। 10 नवंबर 1990 को उनकी गद्दी जाती रही। उनके ही 58 सांसदों ने इन्हें छोड़कर चंद्रशेखर को अपना नेता चुन लिया। इस प्रकार इन्हें देश का प्रधानमंत्री बने रहने का अवसर 1 वर्ष की अवधि के लिए भी नहीं मिल पाया।
 
27 नवंबर 2008 के दिन दिल्ली के अपोलो अस्पताल में वीपी सिंह का देहांत हो गया।
(इनसाइड इंडिया, एम वाला) (लास्ट अपडेट 31 जनवरी 2018)