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Sardar Vallabhbhai Patel: लौहपुरुष सरदार पटेल, भारतीय राजनीति का शिखर, समर्पण और कर्तव्य का अद्भुत दस्तावेज़

 
सरदार वल्लभभाई पटेल। यह नाम केवल किसी एक राजनीतिक दल का या किसी एक राज्य का प्रतीक नहीं है। यह उस इतिहास का, उस भारतीय भावना का प्रतिबिंब है, जिसकी आराधना सदियों तक देश करता रहेगा। सरदार पटेल नेता नहीं हैं, वे तो राजपुरुष हैं। इससे भी आगे वे समर्पण और कर्तव्य का दस्तावेज़ है। महात्मा गाँधी के ज़माने का लौहपुरुष गाँधी के नाम का भी मोहताज नहीं रहा। उन्होंने अपनी एक ऐसी विराट छवि बनाई, जिसका अपना एक अलग आभामंडल था, अपनी एक अलग पहचान थी।
 
इतिहास नाम ही याद रखता है, काम नहीं! इस दुखद सत्य का सबूत है सरदार पटेल। राजनीति और नागरिक, दोनों सरदार पटेल को केवल एक ही रूप में याद करके उनके साथ अन्याय करते रहे हैं। सरदार पटेल लौहपुरुष और रियासतों को जोड़ने वाले नायक तक ही सिमट कर रह गए हैं! उनके भीतर का किसान नेता किसी को याद नहीं है। केवल किसान नेता ही नहीं, किंतु उनके भीतर का प्रशासक किसी को याद नहीं है। असहमतियों को ज़ाहिर करने के अटूट साहस की कोई याद दिलाना नहीं चाहता। सरदार पटेल ने असहमतियों की जो परंपरा क़ायम की थी, उस इतिहास का कोई मुक़ाबला नहीं हो सकता।

राजनीति से देश को बहुत कुछ देने वाले सरदार सिर्फ़ राजनीतिक शख़्सियत नहीं थे, वे उससे भी आगे थे। सरदार वल्लभभाई पटेल, जिन्हें भारतीय राजनीति का शिखरपुरुष कहा जाता है, उन्हें ग़ैर राजनीतिक शख़्सियतेंवाले हिस्से में शामिल करना पड़ रहा है। क्योंकि सरदार पटेल किसी दल, किसी राजनीति या किसी व्यक्ति के मोहताज नहीं थे। कांग्रेस से जुड़े रहे सरदार पटेल कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दल से भी ऊपर थे।
 
सरदार पटेल होना आसान नहीं। मज़बूत, अडिग और दृढ़ संकल्पित व्यक्तित्व के धनी सरदार पटेल, जिनका जन्म 31 अक्टूबर, 1875 के दिन गुजरात के नडियाद में हुआ। मतभेदों के बावजूद वे अंत तक महात्मा गाँधी के सबसे निकट और सबसे विश्वासपात्र रहे। 15 दिसंबर 1950 के दिन मुंबई में आधुनिक भारत के शिल्पकार ने भारत को सदैव के लिए अलविदा कह दिया।

भारत के प्रथम उप प्रधानमंत्री और गृह मंत्री सरदार पटेल। उनके व्यक्तित्व को देखते हुए उन्हें भारत का लौह पुरूष तथा भारत के बिस्मार्क के रूप में जनता ने अपने दिलों में बसा लिया। बारडोली सत्याग्रह से समग्र देश में पहचान बनाने वाले सरदार पटेल ने भारत की उन सभी बड़ी समस्याओं का सामना किया, जो आज इतिहास के रूप में दर्ज हैं।
 
अनछुए सरदार पटेल, नरहरि परीख की किताब से सरदार पटेल की वो बातें, जो उन्हें नज़दीक़ से जानने का मौक़ा देती हैं
सरदार वल्लभभाई पटेल भाग-1 नामक गुजराती किताब, जो नवजीवन प्रकाशन मंदिर अहमदाबाद की तरफ़ से प्रकाशित हुई तथा नरहरि डी. परीख द्वारा लिखी गई, उसमें दर्ज कुछ बातें अनछुए सरदार पटेल को नज़दीक़ से जानने का मौक़ा देती हैं। इसमें ज़्यादातर बारडोली सत्याग्रह के बारे में अति विस्तार से लिखा गया है। बता दें कि नरहरि परीख, गाँधी और सरदार पटेल के नज़दीक़ी साथी थे।
 
सरदार पटेल युवा शक्ति को पहचानते थे, किंतु यह भी समझते थे कि युवा अनुभवहीन और अतिउत्साही भी होते हैं और इस वजह से वे ग़लतियाँ कर जाते हैं। वे समाज के भीतर पहुंचकर लोगों को उनका चेहरा दिखा रहे थे।
 
क्रांति की जय बोलने वाले युवाओं को सरदार कहते हैं, एक बार क्रांति करिए, फिर जयकारा करिए। जो चीज़ है ही नहीं, उसका जयकारा क्यों? हाँ, एक क्रांति का जयकारा आप लगा सकते हैं। आपके यहाँ चंपारण में रिवॉल्यूशन हुआ था। उस रिवॉल्यूशन से आप देश विदेश में पहचाने गए। किसान भी उसका मतलब समझते हैं। इसलिए आपको नये राष्ट्रध्वनि की ज़रूरत है तो चंपारण सत्याग्रह की जय बोलिए। वह ध्वनि किसानों को जितना हिला पाएगा, उतना कोई दूसरा ध्वनि नहीं हिला सकता। और आप क्रांति, क्रांति क्या कर रहे हैं? आपने अपने जीवन में तो क्रांति की नहीं है। आप पुराने रीति-रिवाजों और परंपराओं से चिपके हुए हैं। पर्दा तोड़ने की आपकी हिम्मत है नहीं। स्कूलों और कॉलेजों में जाकर आपको क्रांति करनी है। यह कैसे होगा?” (हिंदी अनुवाद, पुस्तक- सरदार वल्लभभाई पटेल भाग-1, संस्करण- 1929 तैयारी का साल, पेज नंबर 487, नरहरि डी परीख)
 
किताब में पटेल के एक और भाषण को इंगित किया गया है। उस समय के मद्रास प्रांत में ब्राह्मण-ग़ैर ब्राह्मण झगड़े बड़े पैमाने पर चल रहे थे। गाँधी की राह पर चल पड़े सरदार समाज को एक करने के लिए समाज की बुराईयों से लड़ना ज़रूरी है यह बख़ूबी जानते थे।
 

सरदार पटेल ने ब्राह्मण और ग़ैरब्राह्मण, दोनों को हाथों हाथ लिया। उन्होंने क़रीब क़रीब डाँटते हुए कहा, जो मनुष्य खेती किसानी करके अनाज उगाता है, वह सारे संसार में सबसे ऊंचा है। मैं उसी जाति से आया हूँ। आप भी उसी जाति के ही हैं।
 
उन्होंने उत्साही, किंतु कम अनुभवी लोगों को डाँटते हुए कहा, आप सब कुछ तोड़ने जा रहे हैं, लेकिन आपके पास उसके स्थान पर कुछ स्थायी रखने की शक्ति नहीं है, तो उसे मत तोड़िए... आपको चार आने में शादी करनी है तो ख़ुशी से कीजिए, किंतु जब आप चार मिनट में शादी करने की बात करते हैं, तब मैं काँप उठता हूँ। भले आपको ब्राह्मण नहीं चाहिए, किंतु उस गंभीर विधि का कोई तो गवाह होना चाहिए न? आपको समझ है या नहीं कि रीति-रिवाज को नष्ट करने से कोई भी बदमाश किसी भी प्रतिष्ठित व्यक्ति की लड़की को उठा कर ले जाएगा और पाँच गवाह खड़े करके कहेगा कि यह मेरी पत्नी हैं। तब आप क्या करेंगे?” (हिंदी अनुवाद, पुस्तक- सरदार वल्लभभाई पटेल भाग-1, संस्करण- 1929 तैयारी का साल, पेज नंबर 481, नरहरि डी परीख)
 
सरदार पटेल हर सार्वजनिक प्रयत्न में एक योजना होनी चाहिए और हर सार्वजनिक योजना की एक ठोस व्यवस्था होनी चाहिए, इस बात पर ज़ोर देते थे। क्रांति और हिंसा तथा योजनाहीन कार्य के बारे में चिंतित होकर पटेल सार्वजनिक भाषण में कहते हैं, श्री जयरामदास ने कहा कि एक रास्ता बम का है, दूसरा अहिंसा का। किंतु यह ठीक नहीं है। एक रास्ता हिंसा का है, दूसरा अहिंसा का। हिंसा को सफल बनाना है तब भी योजना तो होनी ही चाहिए, एक व्यवस्था होनी चाहिए। हमारे पास सुनियोजित हिंसा करने के लिए संसाधन या शक्ति कहाँ है? यदि आपके पास वह शक्ति या संसाधन होते, तो आप इतने तो भोले नहीं हैं कि गाँधीजी पर विश्वास कर लेते। (हिंदी अनुवाद, पुस्तक- सरदार वल्लभभाई पटेल भाग-1, संस्करण- 1929 तैयारी का साल, पेज नंबर 475, नरहरि डी परीख)
 
सरदार पटेल सांप्रदायिकता के ख़तरे और अहिंसा का मूल अर्थ समझाते हुए आगे कहते हैं, बहुत लोग कहते हैं कि गाँधीजी ने हिंदू-मुस्लिम एकता की बात करके लोगों को गुमराह किया। मैं कहता हूँ कि जो लोग मुसलमानों के हाथों से पीटते हैं, वे अपनी कायरता को छुपाने के लिए गाँधीजी का नाम लेते हैं। गाँधीजी ने किसी को कायर होने के लिए या भागने के लिए नहीं कहा है। उन्होंने तो सीना तान कर मर जाने की, या दुश्मन का मुक़ाबला कर उसे हराने की बात कही है। आपमें ताक़त है तो लड़कर साबित कर दीजिए। किसी की पीठ में छुरा घोंपना बहादुरी का काम नहीं है। (हिंदी अनुवाद, पुस्तक- सरदार वल्लभभाई पटेल भाग-1, संस्करण- 1929 तैयारी का साल, पेज नंबर 475, नरहरि डी परीख)
 
सरदार पटेल - कच्ची पक्की का फ़र्क़
सरदार पटेल एक बार संत विनोबा भावेजी के आश्रम गए, जहाँ उन्हें भोजन भी करना था। आश्रम की रसोई में उत्तर भारत के किसी गाँव से आया कोई साधक भोजन व्यवस्था से जुड़ा था।
 
सरदार पटेल को आश्रम का विशिष्ठ अतिथि जानकर उनके सम्मान में साधक ने सरदार से पूछा, आपके लिए रसोई पक्की अथवा कच्ची?”
 
सरदार पटेल इसका अर्थ समझ नहीं सके। उन्होंने साधक से इसका अभिप्राय पूछा। साधक ने अपने आशय को कुछ और स्पष्ट करते हुए कहा, आप कच्चा खाना खाएँगे या पक्का?”
 
सरदार पटेल ने तपाक से जवाब दिया, कच्चा क्यों खाएँगे? पक्का ही खाएँगे।
 
खाना बनने के बाद जब पटेल की थाली में पूड़ी, कचौड़ी, मिठाई जैसी चीज़ें आईं, तो सरदार पटेल अचंभित हुए। उन्होंने सादी रोटी और दाल मांगी। वह साधक उनके सामने आकर खड़ा हो गया और उन्हें बताया गया कि उन्हीं के निर्देश पर ही तो पक्की रसोई बनाई गई थी।
 
उत्तर भारतीय ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी रोटी, सब्ज़ी, दाल, चावल जैसे सामान्य भोजन को कच्ची रसोई कहा जाता है तथा पूड़ी, कचौड़ी, मिठाई आदि विशेष भोजन (तलाभुना) को आम बोलचाल में पक्की रसोई कहा जाता है।
 
इस घटना के बाद ही पटेल उत्तर भारत की कच्ची और पक्की रसोई के फ़र्क़ को समझ पाए।
 
सरदार पटेल, जिन्होंने राजाओं को ख़त्म किए बिना ख़त्म कर दिए रजवाड़े
सरदार के एक जीवनीकार पीएन चोपड़ा उनकी जीवनी 'सरदार ऑफ़ इंडिया' में रूसी प्रधानमंत्री निकोलाई बुलगानिन को कहते बताते हैं, "आप भारतीयों के क्या कहने! आप राजाओं को समाप्त किए बिना रजवाड़ों को समाप्त कर देते हैं।"
 
बुलगानिन की नज़र में पटेल की ये उपलब्धि बिस्मार्क के जर्मन एकीकरण की उपलब्धि से बड़ा काम था।
 
मशहूर लेखक एचवी हॉडसन लॉर्ड माउंटबेटन को कहते बताते हैं, "मुझे ये कहने में कोई संकोच नहीं कि अच्छा हुआ नेहरू को नए गृह मंत्रालय का प्रमुख नहीं बनाया गया। अगर ऐसा होता तो सब कुछ बिखर जाता। पटेल ने, जो कि यथार्थवादी हैं, ये काम कहीं बेहतर ढंग से किया।"
 
एक ज़माने में भारतीय थलसेना के उप प्रमुख और असम व जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल रहे एसके सिन्हा अपनी आत्मकथा 'चेंजिंग इंडिया- स्ट्रेट फ्रॉम हार्ट' में एक वाक़या बताते हुए लिखते हैं कि एक बार जनरल करिअप्पा को संदेश मिला कि सरदार पटेल उनसे तुरंत मिलना चाहते हैं। करिअप्पा कश्मीर से तुरंत दिल्ली आए और सीधे पटेल के निवास पर पहुंचे। एसके सिन्हा उनके साथ थे।

 
बकौल सिन्हा, करिअप्पा पाँच ही मिनट में बाहर आ गए। करिअप्पा ने सिन्हा से कहा कि पटेल ने मुझसे बहुत ही साधारण सवाल पूछा कि हमारे हैदराबाद ऑपरेशन के दौरान अगर पाकिस्तान की तरफ़ से कोई प्रतिक्रिया आती है तो क्या आप बिना किसी अतिरिक्त सहायता के उसका सामना कर पाएंगे? करिअप्पा ने पूरे विश्वास से सिर्फ़ एक शब्द का जवाब दिया 'हाँ' और बैठक ख़त्म हो गई।
 
उस बैठक के तुरंत बाद सरदार पटेल ने हैदराबाद में ऐक्शन का हुक्म दिया और एक हफ़्ते के अंदर ही हैदराबाद भारत का अंग बन गया।
 
जूनागढ़, हैदराबाद जैसी रियासतों को सरदार पटेल ने आँखें दिखाकर, कान मरोड़कर, सेना तक की मदद लेकर और कूटनीति से भी भारत में मिला लिया। भावनगर जैसी सैकड़ों रियासतें ऐसी थीं, जो सरदार पटेल के ऊपर भरोसा करती थीं। वे न केवल साथ आए, बल्कि सरदार पटेल और देश को उनसे जो बन पड़ा, वो सारी मदद भी की।
 
रियासतें भारत में मिल गईं, किंतु राजाओं का सम्मान, उनका वैभव, उनकी परंपरा, तमाम चीज़ों को सरदार पटेल और भारत ने संभ्हाल कर रखा। बिना किसी राजा को ख़त्म किए, सरदार पटेल ने सारे रजवाड़ों को ख़त्म कर दिया! हम इसे एक पंक्ति में लिखते तो हैं, किंतु यह अनेक किताबों में दर्ज हो पाए ऐसा अभूतपूर्व इतिहास है।
 
सरदार पटेल अधिकारी से बोले- तुम बड़े बदमाश हो, तुमने मेरा मुँह बंद कर दिया
स्वतंत्र भारत की प्रथम सरकार के समय एक आईसीएस अधिकारी हुआ करते थे। धरम वीरा नाम था उनका। बिजनौर के रहने वाले। स्वतंत्रता से पहले तथा स्वतंत्रता के पश्चात कई महत्वपूर्ण पदों पर काम किया। नेहरू के प्रधान सचिव रहे, चेकोस्लोवाकिया में भारत के राजदूत तथा लाल बहादुर शास्त्री के ज़माने में भारत के कैबिनेट सचिव, जो बाद में पंजाब-पश्चिम बंगाल तथा मैसूर के राज्यपाल भी बने। वे नेहरू के प्रधान सचिव हुआ करते थे उस समय का क़िस्सा है यह।
 
हुआ यह कि सरदार पटेल ने जजों की नियुक्ति संबंधी कुछ प्रस्ताव स्वीकृति के लिए नेहरू के पास भेजे। इन प्रस्तावों पर धरम वीरा ने अपनी टिप्पणी लिखित रूप से नेहरू को दी। नेहरू ने ग़लती से वो टिप्पणी हूबहू पटेल के पास भेज दी। उसको पढ़ पटेल को बेहद गुस्सा आया। उन्होंने कहा, "दिस ब्वॉय हैज़ बिकम टू बिग फॉर हिज़ बूट्स।" (ये बच्चा उसके जूतों के नाप से ज़्यादा बड़ा बन गया है)
 
बात पता चलने पर धरम वीरा ने सरदार पटेल से मिलने का समय माँगा। जब वो पटेल के सामने गए तो उन्होंने उन्हें नमस्कार किया। पटेल ने उन्हें बहुत ठंडे ढ़ंग से जवाब दिया। धरम वीरा ने बहुत विनम्रता से कहा, "लगता है आप मुझसे नाराज़ हैं।" पटेल का जवाब था, "हाँ, मैं तुम से बहुत नाराज़ हूँ।" धरमवीरा बोले, "क्या मैं कुछ कह सकता हूँ? शंकर आपके निजी सचिव हैं, वो आपको कई मुद्दों पर सलाह देते हैं। कई बार मंत्रियों के प्रस्ताव के ख़िलाफ़ भी। क्या वो अपना कर्तव्य नहीं निभा रहे?"
 
सरदार थोड़ा ढ़ीले हुए और बोले, "हाँ।" इस पर धरम वीरा ने कहा, "मैंने भी तो वही किया सर। अगर आप मुझसे नाराज़ थे तो मुझे बुला भेजते? आपने दूसरों से मेरी शिकायत क्यों की? आपने मेरा कान भी पकड़ा होता तो मैं बिलकुल बुरा नहीं मानता।"
 
सरदार हँस पड़े, "तुम बड़े बदमाश हो। तुमने मेरा मुँह बंद कर दिया। जाओ, अच्छा, ऐसा कुछ होगा तो कान खीचूँगा तुम्हारे।"
 
जब सेना के अधिकारी ने सरदार से कहा - आपने जो आदेश दिया वह मुझे लिखित में चाहिए
एक बार सरदार पटेल भारतीय युद्धपोत द्वारा मुंबई (उस समय बम्बई) से बाहर यात्रा पर थे। उनका युद्धपोत गोवा के निकट से गुज़र रहा था। उस समय सरदार पटेल भारत के एकीकरण में जुटे हुए थे।
 
गोवा के पास से गुज़रते हुए उन्होंने कमांडिंग ऑफ़िसर से पूछा, "इस युद्धपोत पर तुम्हारे कितने सैनिक हैं।"
 
युद्धपोत के कैप्टन ने सैनिकों की संख्या बताई। पटेल ने कुछ देर सोचकर फिर पूछा, "क्या वह गोवा पर अधिकार करने के लिए पर्याप्त हैं।" जवाब मिला, "हाँ।"
 
सकारात्मक उत्तर मिलने पर पटेल बोले, "अच्छा, चलो जब तक हम यहाँ हैं, गोवा पर अधिकार कर लो।"
 
युद्धपोत का कैप्टन किंकर्तव्यविमूढ़ दशा में देखने लगा। उसने अपने आप को संभ्हालते हुए सरदार पटेल से कहा, "आपने जो कहा वह आदेश लिखित में चाहिए होगा।"
 
सरदार पटेल चौंके, संभले और हँस कर कहने लगे, "ठीक है, यात्रा जारी रखो। हमें वापस भी तो लौटना है।"
 
सरदार पटेल, जो धार्मिक दिखते थे लेकिन अति से नफ़रत करते थे, सोमनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार किया किंतु अतिधार्मिकता को सदैव ख़तरा बताते रहे
सोमनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार जैसी कुछेक घटनाओं के आधार पर एक राय यह बनती है कि सरदार पटेल धार्मिक थे। धार्मिक तो सारे नायक थे। मैं नास्तिक क्यों हूँ लिखने वाले भगत सिंह धार्मिक होना समझाते हैं। सरदार पटेल भी अति से नफ़रत किया करते थे।
 
सरदार पटेल के बारे में लिखी गई गुजराती किताब पढ़ने वालों को ठीक से पता होगा कि जब वे अहमदाबाद म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन (एएमसी) के अध्यक्ष थे, तब शहर की गंदी सूरत को बदलने के लिए बहुत काम किया। सरदार पटेल 1924 से 1928 तक एएमसी के अध्यक्ष रहे। इससे पहले 1917 से वे एएमसी से जुड़ चुके थे।
 
बतौर एएमसी अध्यक्ष उन्होंने शहर के लिए अनेक चिरस्मरणीय काम किए। सड़कें चौड़ी करना हो, या शहर का दायरा बढ़ाना हो, पटेल ने आदेश दिया कि अतिक्रमण करके जो भी धार्मिक स्थल बनाए गए हैं उन्हें हटाना ज़रूरी हो, तो हटा दो। उस समय शहर में सरदार पटेल का विरोध होने लगा। पटेल हिचके नहीं। उन्होंने वही किया जो ज़रूरी था।
 
सरदार पटेल उस बात को बख़ूबी समझते थे कि देश और धर्म एकदूसरे के बिना नहीं चल सकतें, लेकिन दोनों के बीच नज़दीक़ी अति नहीं होनी चाहिए, ना ही दूरी अति होनी चाहिए।

 
सरदार अपने स्वतंत्र मिज़ाज और हाज़िरजवाबी के लिए जाने जाते हैं। उनका एक क़िस्सा है, जो कुछ यूँ है।
 
जानकीदास नाम से एक महाराज (साधु) 1906 में बोरसद आए थे। वे गाँव के बाहर एक गृहस्थ के बंगले में रहने लगे। वे कथा बहुत अच्छी किया करते और गाँव से कईं लोग सुनने जाया करते। वे उनसे मिलने आने वाले सभी लोगों को बीड़ी छोड़ने और चोटी रखने का उपदेश देते। सरदार ऐसे साधु से मिलने क्यों जाते? लेकिन एक दिन सभी दोस्त जा रहे थे, तो उनके आग्रह पर वे उनके साथ चले गए। उस दिन भी महाराज ने कई लोगों को बीड़ी छोड़ने का उपदेश दिया। सरदार दूर बैठे बैठे देख रहे थे। वहाँ एक व्यक्ति ने सरदार की तरफ़ इशारा करके महाराज को पूछा, इन्हें क्यों कुछ नहीं कहते? ये भी बीड़ी पीता है। महाराज ने कहा, मैंने उसके बारे में बहुत कुछ सुना है। उसे कहने का अर्थ नहीं है।’ (साथ ही महाराज ने एक गुजराती कहावत बोली, जिसका अर्थ नासमझ लोगों को उपदेश नहीं देना चाहिए, ऐसा था) सरदार ने अब तक कुछ नहीं कहा था, लेकिन यह सुनने के बाद उन्होंने तुरंत महाराज से कहा, अगर आप मुझसे बीड़ी छुड़ाना चाहते हैं, तो अपने भगवे उतार मुझे कहने आइए। वर्ना आपके भगवे वाले ही गांजा तम्बाकू का अधिक सेवन करते हैं, उन्हें पहले उपदेश देने चले जाइए।(हिंदी अनुवाद, पुस्तक- सरदार वल्लभभाई पटेल भाग-1, संस्करण- वक़ालत, पेज नंबर 30, नरहरि डी परीख)
 
इतिहास में एक और घटना का ज़िक्र मिलता है, जिसका सीधा संबंध सरदार पटेल से है। सरदार पटेल के पिता झवेरभाई स्वामीनारायण संप्रदाय में बहुत मानते थे। राजमोहन गांधी की एक किताब में इस दिलचस्प वाक़ये को लिखा गया है। नरहरि डी परीख की किताब सरदार वल्लभभाई पटेल भाग-1 के मातापिता संस्करण में भी यह घटना दर्ज है।
किताबों में लिखा गया है कि उन दिनों झवेरभाई जिन्हें बहुत मानते थे, उस यज्ञपुरुषदास स्वामी ने वड़ताल से अलग बोचासण में अक्षर पुरुषोत्तम नाम से एक अलग धारा को स्थापित कर दिया। इसके चलते दो अलग अलग धारा स्थापित हो गईं। इसका परिणाम यह आया कि उन दिनों जमकर बवाल मचा। मामला क़ानून तक पहुंचा। यज्ञपुरुषदास स्वामी पर वारंट निकला। ख़ुद को संसार का उद्धारक बताने वाले स्वामीजी अपने लिए कोई दूसरा उद्धारक ढूंढने लगे!!!
 
झवेरभाई स्वामी की मदद करने के लिए निकल पड़े। वे पहुंचे अपने बैरिस्टर बेटे वल्लभभाई के पास। बोरसद ज़िले में वल्लभभाई का बहुत बड़ा नाम हो चुका था। झवेरभाई ने बेटे से सीधे सीधे बात कह दी, पूरे ज़िले में तेरा नाम चल रहा है और इधर महाराज पर वारंट निकल आए? यह ठीक है? तूँ हैं तो फिर पुलिस महाराज को गिरफ़्तार कैसे कर सकती हैं?”
 
स्वामीजी पर वारंट को लेकर पिता की बात सुनकर वल्लभभाई ने तंज़ कसा, महाराज पर वारंट कैसा? वे तो पुरुषोत्तम भगवान का अवतार हैं। हम सभी को इस जीवन चक्र से छुड़ाने वाले भगवान। उन्हें भला कोई कैसे पकड़ सकता है?” पिता झवेरभाई गंभीर थे। तंज़ को नज़रअंदाज़ कर बोले, फ़िलहाल मज़ाक मत कर। मुझे पक्का पता है कि वड़ताल और बोचासण वालों के बीच मंदिर के कब्ज़े को लेकर कुछ हुआ है, और इसीलिए महाराज पर वारंट निकला है। तुझे ये वारंट निरस्त कराना चाहिए। महाराज को गिरफ़्तार किया जाता है तो हमारी इज़्ज़त को धक्का पहुंचेगा।
 
हमारी इज़्ज़त को क्यों धक्का लगेगा? कोई करम ही ऐसे करेगा तो उसकी इज़्ज़त जाएगी, हमारी नहीं। वल्लभभाई झिझक पड़े। वे आगे बोले, वारंट निकला है तो वजह भी होगी। पिता मान नहीं रहे थे, वल्लभभाई की बात को अनदेखा किए जा रहे थे और अपना आग्रह किए जा रहे थे। सरदार पटेल उन्हें आश्वासन देकर बात को ख़त्म करते हुए कहते हैं, बड़े काका, आपको अब इन साधुओं से छुटकारा पा लेना चाहिए। प्रपंच करें, एकदूसरे से झगड़ा करें, अदालतों में चले जाएँ। जो अपना भला नहीं कर सकतें, वे हमें इस जन्म का सागर कैसे पार कराएँगे?”
 
अहमदाबाद में सन 1920 में छात्रों के समक्ष सरदार पटेल ने बाबा बिज़नेस को लेकर जो बात कही थी उसे आज की आधुनिक पीढ़ी को समझनी चाहिए। सरदार पटेल ने असहकार आंदोलन के समय सार्वजनिक रूप से छात्रों को कहा था, इस देश के छप्पन लाख बाबा, जो भगवा पहनकर निकल पड़े हैं, सारे के सारे कोई मेहनत नहीं करते, कोई काम नहीं करते। फिर भी वे भूखे नहीं मरते। किसी ने सूना क्या कि कोई बाबा खाली पेट मर गया?”
 
विरोधी से गाँधीजी के ताउम्र साथी बन गए सरदार पटेल
वल्लभभाई पटेल से गाँधीजी की मुलाक़ात नेहरू से पहले हुई थी। उन दिनों वल्लभभाई पटेल गुजरात के सबसे महँगे वकीलों में से एक हुआ करते थे। पटेल ने पहली बार गाँधीजी को गुजरात क्लब में 1916 में देखा।
 
गाँधी भारत लौटने के बाद पहली दफा गुजरात आए थे। उन्हें कुछ लोग 'महात्मा' भी कहने लगे थे, लेकिन पटेल गाँधी के इस 'महात्मापन' ने जरा भी प्रभावित नहीं थे। वो उनके विचारों से बहुत उत्साहित नहीं थे। पटेल कहते, ''हमारे देश में पहले से महात्माओं की कमी नहीं है। हमें कोई काम करने वाला चाहिए। गाँधी क्यों इन बेचारे लोगों से ब्रह्मचर्य की बातें करते हैं? ये ऐसा ही है, जैसे भैंस के आगे भागवत गाना।'' (विजयी पटेल, बैजनाथ, पेज 05)
 
साल 1916 की गर्मियों में गाँधी गुजरात क्लब में आए। उस समय पटेल अपने साथी वक़ील गणेश वासुदेव मावलंकर के साथ ब्रिज खेल रहे थे। मावलंकर गाँधी से बहुत प्रभावित थे। वो गाँधी से मिलने को लपके। पटले ने हंसते हुए कहा, ''मैं अभी से बता देता हूँ कि वो तुमसे क्या पूछेगा? वो पूछेगा- गेहूं से छोटे कंकड़ निकालना जानते हो कि नहीं? फिर वो बताएगा कि इससे देश को आज़ादी किन तरीक़ों से मिल सकती है।''
 
जैसे जैसे वक़्त बिता, सरदार ने देखा कि गाँधी की कथनी और करनी में अंतर नहीं है। बहुत जल्द ही पटेल की गाँधी को लेकर धारणा बदल गई।
 
चंपारण में गाँधी के जादू का उन पर ज़बरदस्त असर हुआ। वे गाँधी से जुड़ गए। खेड़ा का आंदोलन हुआ तो पटेल गाँधी के और क़रीब आ गए। असहयोग आंदोलन शुरू हुआ तो पटेल अपनी दौड़ती हुई वक़ालत छोड़ गाँधी के साथ चल दिए। और उसके बाद हुआ बारडोली सत्याग्रह, जिसमें पटेल सारे देश में मशहूर हो गए।

 
इसी आंदोलन के बाद पटेल को गुजरात की महिलाओं ने 'सरदार' की उपाधि दी। जो सरदार गाँधीजी के विरोधी थे, वे उन्हें परखने के बाद अब उनके नज़दीक़ी साथी बन गए थे, और तुंरत आगे जाकर गाँधीजी के ताउम्र साथी और सबसे भरोसेमंद व्यक्ति बन गए। गाँधीजी की आलोचना उस वक़्त भी हुआ करती थी। गाँधीजी पर भरोसा करने को लेकर अनेक लोग सरदार को भी बहुत कुछ कहने लगे। सरदार ने इस बात का जवाब सार्वजनिक रूप से अपने चिरपरिचित अंदाज़ में दिया।
 
सरदार वल्लभभाई पटेल भाग-1 किताब के अनुसार सरदार मंच से कहते हैं, मुझे बहुत सारे लोग गाँधीजी का अँधा भक्त कहते हैं। काश मुझमें सचमुच अँधभक्त होने की शक्ति होती। लेकिन ऐसा नहीं है। मैं तो सामान्य ज्ञान का दावा करने वाला हूँ। मुझमें समझने की शक्ति है। मैंने दुनिया को अच्छे से देखा है। इसलिए मैं उन लोगों में से नहीं हूँ, जो बिना समझे एक हाथ का लबादा पहनने वाले के पीछे पागलों की तरह घूमता रहूँ। मेरे पास लोगों को धोख़ा देकर अमीर बनने का व्यवसाय था। मैंने वह छोड़ा। क्योंकि मैंने उस आदमी से सीखा कि किसानों का कल्याण व्यापार करने से नहीं हो सकता। वे (गाँधी) जबसे हिंदुस्तान आए आए तब से मैं उनके साथ हूँ। और इस जीवन में तो वह रिश्ता छूट नहीं सकता। (हिंदी अनुवाद, पुस्तक- सरदार वल्लभभाई पटेल भाग-1, संस्करण- 1929 तैयारी का साल, पेज नंबर 471-472, नरहरि डी परीख)
 
सरदार लोगों के सामने अपनी बात आगे बढ़ाते हुए गाँधी मंत्र की मूल भावना सार्थक करने के लिए कहते हैं, हालाँकि मैं उन्हें अपने काम से दूर रखता हूँ। क्योंकि हमने अपनी ताक़त खो दी हैं। इसीलिए तो हर छोटी बात के लिए उनके तरफ़ देखते हैं। और इस तरह से वह ताक़त लौट के नहीं आने वाली। सदैव हर जगह उनकी तरफ़ देख बैठे रहे तो कैसे चलेगा? जब वे मैसूर में बीमार थे, तो कईं लोगों ने ख़त लिखे कि बाढ़ राहत कार्य के लिए गुजरात आइए। उन्होंने मुझे ख़त लिखा कि आऊँ? मैंने उन्हें लिखा कि दस साल हुए, आपने गुजरात को जो मंत्र दिया था वह गुजरात ने पचाया है या नहीं यह देखना हो तो मत आइए। बारडोली में मुझे जेल भेजा गया उसके बाद ही मैंने उनसे आने के लिए कहा था। (हिंदी अनुवाद, पुस्तक- सरदार वल्लभभाई पटेल भाग-1, संस्करण- 1929 तैयारी का साल, पेज नंबर 472, नरहरि डी परीख)
 
आज़ाद भारत का नक्शा जिसने बनाया उस महानायक सरदार पटेल ने लेजिस्लेटिव असेंबली का अध्यक्ष होते हुए भी आम मुलाक़ातियों को चपरासी बनकर घुमाया
आज के भारत की तस्वीरें आप देखते ही होंगे। बरसात के पानी से साहब के पैर गीले ना हो जाए इसलिए साहब को दो-चार पुलिस वाले क़रीब क़रीब गोद में उठाकर चलते हैं। ये द्दश्य बहुत पुराना नहीं है। आईएएस और आईपीएस अधिकारी नेताओं के पैरों में गिरे हुए दिख जाते हैं। जज सरीखा शख़्स, गुनाहगार धार्मिक प्रतिनिधि के सामने सरेआम सर झुका देता है। ये सब नये भारत की नयी तस्वीरें हैं, जो बिना एडिट किए भारत दर्शन कराती हैं।
 
सरदार पटेल समेत उस दौर के आइकॉन, देश के सामने इससे बहुत जुदा उदाहरण पेश कर जाते थे। तभी तो उन्हे राजपुरुष कहते होंगे, नेता नहीं। है न?
 
सरदार पटेल भारतीय लेजिस्लेटिव असेंबली के प्रेसिडेंट थे। एक दिन वे असेंबली के कार्यों को ख़त्म करके घर जाने को ही थे, की एक अंग्रेज़ दम्पत्ति वहाँ पहुंच गया। ये दम्पत्ति विलायत से भारत घूमने आया था। पटेल की बढ़ी हुई दाढ़ी और सादे वस्त्र देखकर उस दम्पत्ति ने उनको वहाँ का चपरासी समझ लिया। उन्होंने पटेल से असेंबली में घुमाने के लिए कहा। पटेल ने उनका आग्रह विनम्रता से स्वीकार किया और उस दम्पत्ति को पूरे असेंबली भवन, साथ रहकर घुमाया। अंग्रेज़ दम्पति बहुत ख़ुश हुए और लौटते समय पटेल को एक रूपया बख़्शीश में देना चाहा। परन्तु पटेल ने बड़े नम्रतापूर्वक मना कर दिया। अंग्रेज़ दम्पति वहाँ से चला गया।
 
दूसरे दिन असेंबली की बैठक थी। दर्शक गैलेरी में बैठा वह अंग्रेज़ दम्पत्ति सभापति के आसन पर बढ़ी हुई दाढ़ी और सादे वस्त्रों वाले शख़्स को सभापति के आसन पर देखकर हैरान रह गया। और मन ही मन अपनी भूल पर पश्चाताप करने लगा कि वे जिसे यहाँ चपरासी समझ रहे थे, वह तो लेजिस्लेटिव असेंबली के प्रेसिडेंट निकले। वे लोग सरदार पटेल की सादगी और उसके सामने उनके (दंपत्ति) द्वारा ग़लती से हो गए आचरण पर शर्मिंदगी मेहसूस कर रहे थे। सरदार वल्लभभाई पटेल की सादगी, सहज स्वभाव और नम्रता की इससे बड़ी बानगी क्या हो सकती है?
 
असहमतियों और मतभेदों के बाद भी कर्तव्य और ईमानदारी में उनका कोई सानी नहीं, अंतिम समय तक गाँधी के सबसे क़रीबी रहे, नेहरू से ज़्यादा समर्थक होने के बावजूद कभी नेहरू से आगे जाने का प्रयत्न नहीं किया
भारत का स्वतंत्रता संग्राम, इतिहास का अद्भुत युग था। अहिंसावादी हो या क्रांतिकारी, सभी में भीतरी मतभेद और असहमतियाँ थीं। बावजूद इसके सबने अपने कर्तव्यों का पालन किया और ईमानदारी की अकल्पनीय मिसालें क़ायम की।
 
सरदार पटेल यूँ तो गाँधीजी के सबसे क़रीब थे। किंतु इतिहास यह नहीं कह सकता कि उन्होंने नेहरू का साथ छोड़ा था। उनका अपना एक विशाल आभामंडल था। किंतु सरदार पटेल ने न कभी अपनी ज़रूरतों के बारे में बताया, न कभी अपने बारे में।
 
सरदार पटेल की प्रेरणा से केएम मुंशी के साथ रहते हुए जिन्होंने सोमनाथ के पुनरुद्धार में अद्वितीय योगदान दिया, उस नरहर विष्णु गाडगिल (काकासाहेब गाडगिल) की आत्मकथा 'गवर्नमेंट फ्रॉम इनसाइड', जो 1965 में दोबारा प्रकाशित हुई, में गाडगिल लिखते हैं, “12 दिसंबर 1950 को वल्लभभाई इलाज़ के लिए मुंबई चले गए। 11 दिसंबर को, जब मैं सचिवालय में काम कर रहा था, मुझे शंकर (सरदार के पीए) का फ़ोन आया। वल्लभभाई तुरंत मुझसे मिलना चाहते थे। मैं चला गया। वह बिस्तर पर थे। उन्होंने मुझे पास बुलाकर कहा, मैं अब जा रहा हूँ।
 
गाडगिल ये सुन आह्त हुए और सरदार पटेल का ध्यान दूसरी तरफ़ ले जाने के लिए जो कार्य अभी बाकी थें, उनके बारे में बात करने लगे। गाडगिल किताब में लिखते हैं, वे (सरदार पटेल) हँसे और कहने लगे, मैं अब जीवित नहीं रह पाऊँगा। मुझसे वादा करो कि मैं तुमसे जो करने के लिए कहूँगा, तुम वह करोगे।
 
गाडगिल गंभीर हुए, आप मुझे किस वचन में बांधऩा चाहते हैं?” पटेल ने गाडगिल की बात को अनसुना किया और कहा, पहले मुझसे वादा करो। बकौल गाडगिल, पटेल कुछ इस तरह से बोले कि वह वचन देने से ख़ुद को रोक नहीं पाए। कमरे के दरवाज़े पर खड़े डाह्याभाई (सरदार पटेल के बेटे) यह संवाद सुन रहे थे।
 
गाडगिल लिखते हैं, जैसे ही मैंने हाँ कहा, वल्लभभाई ने मेरा हाथ अपने हाथ में लिया और कहा, पंडितजी से तुम्हारे कितने भी मतभेद हो, वादा करो कि तुम फिर भी उनका साथ कभी नहीं छोड़ोगे।
 
गाडगिल के पास पटेल की बात से सहमत होने के सिवा दूसरा कोई विकल्प नहीं था। गाडगिल लिखते हैं, पटेल ने मुझे दूसरे दिन हवाई अड्डे पर इस बात का स्मरण कराया। मैंने उन्हें फिर भरोसा दिया। और उसके तीन दिन बाद सरदार पटेल की मृत्यु हो गई।
 
काकासाहेब गाडगिल नेहरू से मतभेद रखने वाले स्वतंत्र सेनानी थे, जो भारत की पहली सरकार में 1947 से 1952 तक लोक निर्माण विभाग के कैबिनेट मंत्री रहे। अनेक किताबों में दर्ज है कि उस समय सरकार में सरदार पटेल के समर्थकों की तादाद बहुत ज़्यादा थी। वैसे भी वे प्रथम प्रधानमंत्री के अंदरुनी चुनाव में नेहरू से आगे ही रहे थे। बावजूद इसके उन्होंने कभी भी नेहरू से आगे जाने की कोशिश नहीं की, ना ही सरकार को कभी असह्योग किया।
 
जब गाँव वाले क्रैश विमान की मदद को पहुंचे तो देखा कि विमान में तो सरदार पटेल थे
ऑल इंडिया रेडियो ने अपने 29 मार्च, 1949 को रात के 9 बजे के बुलेटिन में सूचना दी कि सरदार पटेल को दिल्ली से जयपुर ले जा रहे विमान से संपर्क टूट गया है। पूरे देश में हड़कंप मच गया। भय और चिंता की स्थितियाँ पैदा हो गईं। जो उड़ान मुश्किल से घंटे भर में पहुंच जानी चाहिए थी, उसका घंटों पता नहीं चला।
 
अपनी बेटी मणिबेन, जोधपुर के महाराजा और सचिव वी शंकर के साथ सरदार पटेल ने शाम पाँच बजकर 32 मिनट पर दिल्ली के पालम हवाई अड्डे से जयपुर के लिए उड़ान भरी थी। क़रीब 158 मील की इस यात्रा को तय करने में उन्हें एक घंटे से अधिक समय नहीं लगना था।
 
राजमोहन गांधी की किताब 'पटेल ए लाइफ' में इस पर विस्तार से लिखा गया है। पायलट फ़्लाइट लेफ़्टिनेंट भीम राव को निर्देश थे कि वो वल्लभभाई के दिल की हालत को देखते हुए विमान को 3000 फ़ीट से ऊपर न ले जाएं।
 
क़रीब छह बजे महाराजा जोधपुर ने, जिनके पास फ़्लाइंग लाइसेंस था, सरदार पटेल का ध्यान खींचा कि विमान के एक इंजन ने काम करना बंद कर दिया है। उसी समय विमान के रेडियो ने भी काम करना बंद कर दिया और विमान बहुत तेज़ी से ऊँचाई खोने लगा।
 
सरदार पटेल के सचिव रहे वी शंकर अपनी आत्मकथा 'रेमिनेंसेज़' में लिखते हैं, "पटेल के दिल पर क्या बीत रही थी, ये तो मैं नहीं बता सकता, लेकिन ऊपरी तौर पर इसका उन पर कोई असर नहीं पड़ा था और वो शाँत भाव से बैठे हुए थे, जैसे कुछ हो ही न रहा हो।"
 
जयपुर से 30 मील उत्तर में पायलट ने विमान को क्रैश लैंड कर उतारने का फ़ैसला किया। यात्रियों को बताया गया कि हो सकता है कि क्रैश लैंडिंग के समय विमान का दरवाज़ा अटक (जैम हो) जाए। इसलिए उन्हें विमान की छत पर बने इमरजेंसी एग्जिट से जल्द से जल्द बाहर निकलने की सलाह दी गई, क्योंकि आशंका थी कि विमान के क्रैश लैंड करते ही उसके ईंधन में आग लग जाएगी।
 
छह बज कर 20 मिनट पर पायलट ने सभी से सीट बेल्ट बाँधने के लिए कहा। पाँच मिनट बाद उसने विमान को ज़मीन पर उतार दिया। विमान में न तो आग लगी और न ही उसका दरवाज़ा जैम हुआ और छत से बाहर निकलने की नौबत ही नहीं आई।
 
थोड़ी ही देर में पास के गाँव वाले वहाँ पहुंच गए। जब उन्हें पता चला कि विमान में सरदार पटेल हैं, तो तुरंत उनके लिए पानी और दूध मंगाया गया और उनके बैठने के लिए चारपाइयाँ लगवा दी गईं। महाराजा जोधपुर और विमान के रेडियो ऑफ़िसर ये ढूंढने निकले कि घटनास्थल के पास सबसे नज़दीक़ सड़क कौन सी है। तब तक अँधेरा हो चुका था।
 
वहाँ सबसे पहले पहुंचने वाले अधिकारी थे केबी लाल। बाद में उन्होंने लिखा, "जब मैं वहाँ पहुंचा तो मैंने देखा कि सरदार विमान से 'डिसमैंटल' की गई कुर्सी पर बैठे हुए थे। जब मैंने उनसे कार में बैठने के लिए कहा तो उन्होंने कहा कि पहले मेरे दल के लोगों और महाराजा जोधपुर को कार में बैठाइए।"
 
रात क़रीब 11 बजे सरदार पटेल का अमला जयपुर पहुंचा। तब जा कर उनके मेज़बानों की जान में जान आई, जो कि तमाम भारतवासियों की तरह समझे हुए थे कि सरदार का विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया है।
 
उधर जवाहरलाल नेहरू परेशान हो कर अपने कमरे में चहलकदमी करते हुए सरदार पटेल के बारे में ख़बर का इंतज़ार कर रहे थे। 11 बजे नेहरू के पास जयपुर से ख़बर आई कि सरदार पटेल सुरक्षित हैं। 31 मार्च को जब पटेल दिल्ली पहुंचे तो पालम हवाई अड्डे पर एक बड़ी भीड़ ने उनका स्वागत किया। जब वो उस दिन दोपहर बाद संसद में गए तो वहाँ सभी साथी खड़े हो गए। सबने मेजें थपथपाकर ऊंचे स्वर से उनके दीर्घायु होने की कल्पना की और पूरे 03 मिनट तक हर्षनाद होता रहा।
 
एकदूसरे के विचारों को काटने के बाद भी एक दूसरे के स्पेस की रक्षा करना, भारत के उस महान स्वतंत्रता संग्राम की यह अद्भुत विशेषता थी। सरदार वल्लभभाई पटेल गाँधी युग के राजपुरुष थे, लेकिन गाँधी नहीं थे। उनके भीतर गाँधी थे, लेकिन वे गाँधी से अलग थे। यथार्थवादी सरदार पटेल, जिन्होंने नेहरू के साथ मिलकर ऐतिहासिक कार्य किए, किंतु उनका अपना एक आभामंडल था। भारत को स्वतंत्रता दिलाने का श्रेय अनेक लोगों को दिया जा सकता है, किंतु स्वतंत्र भारत के नक्शे का श्रेय सरदार पटेल को ही जाता है।
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)