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Religion and Nation: धर्म... इसे राष्ट्र से दूर तो नहीं किया जा सकता, लेकिन अंतर इतना भी नज़दीक़ नहीं होना चाहिए कि दूरी ख़त्म ही हो जाए

 
धर्म और राष्ट्र... इन दोनों के अर्थ तय करने के चक्कर में शायद यहीं भुला दिया जाता है कि इन दोनों के होने का अर्थ या मायने क्या हैं। वैसे दोनों को दूर नहीं किया जा सकता, लेकिन नज़दीक़ी इतनी भी नहीं होनी चाहिए कि दूरी ख़त्म ही हो जाए।
 
धर्म... और राष्ट्र...। यह दोनों लिखने में या पढ़ने में आपको केवल लफ़्ज़ लग सकते हैं। लेकिन हमें ज़ेहन में रखना चाहिए कि इन दोनों लफ़्ज़ों के इर्द-गिर्द ही हमारा समूचा इतिहास निर्भर रहा है। हो सकता है कि दुनिया के इतिहास की छवि भी ऐसी ही हो। लेकिन सरहदों की सीमाएँ लांधे बगैर हम हमारी ही बात करते हैं। धर्म और राष्ट्र... इसीसे समूची सभ्यताएँ पलती रहीं और आगे बढ़ती रहीं, या फिर कभी कभार पीछे भी हटती रही। इसीने एकजुटता बनाए रखी, वहीं इसीने कई सारे ज़ख़्म भी दिए।
 
धर्म और राष्ट्र, इन दोनों के अपने अपने मायने हैं, अपनी अपनी दुनिया है। आप लाख कोशिशें कर लें, लेकिन इन मायनों को शायद ही बदला जा सकता है। मायने जब भी बदले, कहा गया कि युग बदल गया। युग परिवर्तन... यानी कि युग के बदलने की यह प्रक्रिया कभी आसान भी नहीं रही।
 
धर्म और राष्ट्र, दोनों के संदर्भ में सभी की अपनी अपनी व्याख्याएँ हैं। अपनी अपनी व्याख्याओं के हिसाब से सभी सही जगह पर खड़े हैं। कभी कभी लगता है कि अगर सभी सही जगह पर खड़े हैं तब ग़लत क्या है? शायद ग़लत यह है कि जो लोग या समुदाय या संस्कृति, जो अपनी सही जगह पर खड़ी है, उसे दूसरों की जगह ग़लत लगती है। शायद यही एक चीज़ ग़लत है।
 
धर्म या राष्ट्र की व्याख्याएँ अनेकों अनेक हैं। लेकिन ज़्यादातर तो उसकी व्याख्याओं की माथापच्ची के बीच यह नहीं सोचा जाता कि आख़िर इन दोनों के होने के मायने क्या हैं? सीधा कहा जाए तो, इन दोनों के मतलब तय करने के चक्कर में यह चीज़ भुला दी जाती है कि इनके होने का मतलब क्या है? इनके मक़सद क्या हैं?
कई सारी किताबों को पढ़ने के बाद, इतिहास की पर्ते उधेड़ने के बाद, कई ग्रंथों को उड़ेलने के बाद, कई सारे तथाकथित गुरुओं या उपदेशकों को सुनने के बाद, धर्म और लोगों के बीच के मध्यस्थियों के वादविवाद देखने या सुनने के बाद... कितना भी कर लें... आख़िर में तो समझना स्वयं को पड़ता है। और तब इतनी माथापच्ची के बीच आप की समझ नासमझ हो चुकी होती है। कुछेक ऐसे होते हैं जिनकी समझ ज़्यादा समझदार होती है, लेकिन नासमझ होने की संभावनाएँ ज़्यादा रहती हैं।
 
फिर होता यह है कि धर्म का या राष्ट्र का मतलब समझने की अराजकतापूर्ण माथापच्ची के कारण, धर्म या राष्ट्र के होने का मतलब समझ ही नहीं आता। और जो समझ आता है, उसकी वैविध्यता भी विशाल होती है।
 
2004 के दौरान एक शख़्सियत ने, जो अपने क्षेत्र में काफ़ी जानी मानी थी, इतनी जानी मानी कि फिर वो तमाम क्षेत्रों में अपनी मौजूदगी दर्ज करवा गई, उन्होंने एक वार्तालाप के दौरान कहा था, "अगर हिन्दू और मुस्लिम को सचमुच नज़दीक़ आना है... या फिर भले वे दूर ही रहे, किंतु दूर रहकर अपने अपने तरीक़े से आगे बढ़ना है... तो इसके केवल दो उपाय ही हो सकते हैं।"
 
जब उनसे पूछा गया कि, "वो दो उपाय कौन से हो सकते हैं?" तब उन्होंने कहा था, "पहला तरीक़ा यह है कि दोनों को अपने अपने ग्रंथ, गीता और कुरान को पूरा का पूरा स्वयं पढ़ना चाहिए और उन्हें इंसानी समझ के आधार पर समझना चाहिए। दूसरा तरीक़ा यह है कि दोनों को अपने अपने ग्रंथ साइड में रख देने चाहिए।"
 
हमें नहीं पता कि इससे पहले भी यह बात किसी के मुँह से निकली थी या नहीं। उन्होंने भी यह दावा नहीं किया था कि यह उनके ही द्वारा कहा गया है। बहरहाल, वो बात किसी ने भी कही हो, उन्होंने पहली बार कही हो या फिर उनके पहले किसी ने भी कह दी हो, बात किसी विषय या किसी समझ की ओर इशारा कर रही थी, लिहाज़ा बात का महत्व ज़्यादा है, ना कि उस विषय का, कि पहली बार किसने कहा।
यहाँ यह ना समझे कि पूरे प्रकरण में केवल दो धर्मों का उल्लेख किया है, तो इसका आधार दो ही धर्म हो सकते हैं। देखिए, राजनीति की बात करते वक़्त, किसी चीज़ को समझाने के लिए जो अनेक राजनीतिक दल हैं, उन सभी का नाम लेना ज़रूरी नहीं है, ठीक वैसे ही इसमें भी यह ज़रूरी नहीं है कि सभी का उल्लेख करें। बात को समझना ही है, अगर हमारी तत्परता समझने को लेकर है, तब उसे कुछ उल्लेखों से समझा जा सकता है।
 
उनका कहना था, "मूल समस्या यह है कि सभी समुदाय के लोग अपने अपने धर्म के ग्रंथों को स्वयं पढ़ तो लेते हैं, लेकिन उसे समझने के लिए किसी मीडिएटर की ओर देखते हैं। मीडिएटर अपने हिसाब से समझ देता है। फिर वो समझ आप की समझ बन जाती है। ऐसे में हो सकता है कि ग्रंथों का मूल भाव बिखर जाए।"
 
उन्होंने कहा, "मैं यह क़तई नहीं कह रहा कि तमाम मीडिएटर आधी समझ देते हैं। किसी विषय को समझने के लिए मीडिएटर की आवश्यकता ज़रूर है, किंतु उस समझ को स्थापित करने की चेष्टा उन ग्रंथों के आधार पर ही होनी चाहिए।" आगे वे कहते हैं, "ये बिलकुल मुमकिन है कि मैं स्वयं पढ़ूँ और फिर आप को समझाने बैठ जाऊँ, तब मैं उतना ही समझाऊँगा जितना मैं समझ सका था या फिर जितना आप समझ पाएँ उतना ही समझाऊँगा।"
 
ईश्वर या अल्लाह या गोड या गुरुदेव, मतलब की ऊपरवाला... सभी के लिए ये भी अलग अलग ही है। और इसमें कोई बाध या आपत्ति या गुनाह भी नहीं है। हर किसी के लिए ऊपरवाला अलग है, उनका अर्थ अलग है, उनके होने का मतलब अलग है, उनको समझने की समझ अलग है। लेकिन... सब का मालिक एक। यहीं पर सारी कहानी ख़त्म होती है। क्योंकि हर व्यवस्था की शुरुआत या अंत एक ही है, मानवता। केवल सभी की संस्कृतियाँ अलग अलग हैं, मान्यताएँ अलग अलग हैं, तौर-तरीक़े अलग अलग हैं... लेकिन उनका मक़सद या होने के मायने तो इंसान को लेकर ही है।
 
बहुत बार कहा जाता है कि इंसान के लिए धर्म बना है, ना कि धर्म के लिए इंसान। वैसे लगभग तमाम धर्मों में या उनके उपदेशों में एक बात सर्वसामान्य रहती है। और वो यह है कि मैं नहीं किंतु हम। मतलब कि हम वाली भावना, जिसमें स्वयं के अलावा या स्वयं की जगह, औरों को भी समन्वित करने का मूल भाव है। लगभग तमाम धर्मों में यह बात कॉमन है। मैं से अगर आपने शुरू किया है, तब भी उसे हम की ओर ले जाने के उपदेश सभी जगह पर मिलेंगे। उसके लिए कई सारी चीज़ें हैं, कई सारी समझ है। मैं से हम तक पहुंचने का रास्ता भी कठिन बताया जाता है। मेरे धर्म की बात करूँ तो, कई सारी बाधाओं को पार करने के बाद मोक्ष प्राप्त होता है। अब आप सोचिए कि किसका मोक्ष? उत्तर मिलेगा कि मेरा!!! मतलब की कहानी जहाँ से शुरू हुई, वहीं पर ख़त्म!
या तो हम हमारे ग्रंथों की भावना को समझ नहीं पाते, या फिर उपदेशक ठीक से समझा नहीं पाते। हमने हमारे राष्ट्र की एक महान विभूति के बारे में सुना है। वे जब छोटे थे तब चूहे ने भगवान की मूर्ति पर गंदगी कर दी। तब उन्होंने क्या सोचा था यह सभी को पता है। कहा जाता है कि उन्होंने सोचा कि जो भगवान स्वयं की रक्षा चूहे से नहीं कर पाया वो मेरी या औरों की कैसे कर पाएगा। ये भगवान नहीं हो सकता। बस इतने से हम रुक जाते हैं। हम ये नहीं समझते कि उन्होंने यह भी कहा था कि ये भगवान नहीं हो सकता... या फिर मुझे जिन्हें भगवान मानने के लिए समझाया गया है वो समझ ग़लत है। और फिर वे निकल पड़े। उसके बाद उनकी जीवनी समूचे भारत को ज्ञात है।
 
अन्य विभूतियाँ भी हैं, जिन्होंने समझने की कोशिशें करी थीं कि भगवान क्या है? उन्होंने भगवान को तत्व के साथ जोड़ा और समझाना चाहा कि गोड इज़ एन ऑब्जेक्ट। अब कुछ लोग भगवान को ऑब्जेक्ट कहने भर से नाराज़ हो सकते हैं। लेकिन वही लोग गीता को तत्व ज्ञान का महासागर बताते हैं। वही लोग कहते हैं कि तत्व ज्ञान ही सबसे बड़ा ज्ञान है। जबकि ऑब्जेक्ट का मूल मतलब ही तत्व है। जिसे कभी कण के नाम से भी जाना जाता है।
 
मैं दूसरों के धर्म को छोड़कर स्वयं के धर्म की बात करूँ तब... श्रीमद् गीता के मूल उपदेशों में से एक उपदेश यह है कि सर्व मोह माया से मुक्ति। लेकिन फिर भी इसे समझने के लिए या सत्यता के लिए किसी व्यक्तिविशेष या संगठनविशेष की माया में हम लोग बंधे हुए नज़र आते हैं! जबकि इसे हमारे धर्म के महान उपदेशक ने स्वयं कहा था। समझने के लिए मीडिएटर की आवश्यकता ज़रूर होती है, लेकिन उस संदर्भ में हम इसी संस्करण में बात कर चुके हैं।
 
एक बड़ी प्रसिद्ध कहानी है, जिसमें एक महान व्यक्ति अपनी यात्रा के दौरान थक कर किसी मंदिर में सोया हुआ है। पुजारी आता है और उसे भगवान के सामने पैर रख कर सोते हुए देख गुस्सा होता है। वो उसे जगाता है और उसे डाँटता है। पुजारी उस यात्री को धर्म और भगवान का अपमान करने वाला बताकर उसे ज्ञान बाँटता है। भगवान के सामने पैर ऱख कर सोने को लेकर वो उस यात्री को धर्म और ग्रंथों के हवाले से कुछ चीज़ें सुनाकर डाँटता है। वो यात्री पुजारी की डाँट सुनता है। पुजारी की डाँट ख़त्म होती है।
 
फिर वो यात्री पुजारी से पूछता है, "मैं तो यात्री हूँ। थकान की वजह से नींद आ गई थी। मुझसे भूल हो गई हो तो क्षमा करें और मुझ पर एक कृपा करें।" पुजारी पूछता है, "क्या?" यात्री बोलता है, "मुझे नींद आ रही है, मुझे इतना बता दें कि किस तरफ़ भगवान नहीं है, मैं उसी दिशा में पैर रखकर सो जाता हूँ।" धर्म का थोड़ा ज़्यादा जानकार पुजारी यात्री द्वारा पूछे गए इस प्रभावी प्रश्न को समझ जाता है।
कबीर की एक अमिट रचना है जिसमें गहरे चिंतन के साथ एक बात कही गई है कि पत्थर को तराशे तो इंसान दो चीज़ें बना सकता है। उनकी एक नहीं बल्कि एकाध-दो रचनाओं का साथ में ज़िक्र करें तो, वो लिख गए थे, "अरे इन दोहुन राह न पाई, हिन्दू अपनी करै बड़ाई, गागर अपनी छुअन न देई, यह देखो हिंदुआई। मुसलमान के पीर-औलिया मुर्गी-मुर्गा खाई, खाला केरी बेटी ब्याहै घरहि में करे सगाई। कांकर-पाथर जोरि के, मस्जिद लेई बनाय, ता चढ़ि मुल्ला बांग देय, क्या बहरा हुआ खुदाय।" उनका एक और चिंतन है, "पाथर पूजे हरि मिले तो मैं पूजू पहाड़, आसे तो चाकी भली पिस खाए संसार।"
 
हमने यहाँ एकाध-दो रचनाओं का साथ में ज़िक्र किया है यह खयाल रखें। कबीर जैसे महान तत्वचिंतक की रचना के भीतर जो गहरा चिंतन छिपा हुआ है उसे समझना यूँ आसान नहीं है। इसे केवल एक नज़रिए से नहीं देखा जा सकता, कई सारे चिंतन इसमें समाविष्ट हैं।
 
उस महान विभूति की कहानी में ज़्यादातर लोग यही मान लेते हैं कि चूहे ने गंदगी की तो उन्होंने मान लिया कि ये भगवान नहीं है। किंतु उनका भगवान क्या है, यह विश्व चिंतन लोगों को दिखाई नहीं देता! ठीक वैसे ही कबीर की इस रचना से लोग कह देते हैं कि कबीरजी ने पत्थर को ना पूजने की बात कही है, किंतु कबीर जैसे महान तत्वचिंतक की गहराई को हम कुएँ के मेंढक समझ भी कैसे सकते हैं?
 
उनकी रचना में एक इशारा यह भी है कि एक पत्थर को तराश कर इंसान अपना ईष्टदेव भी बना सकता है और आटा पीसने वाली चक्की भी। सामाजिक चिंतन का एक नतीजा यह भी दर्शाता है कि इसी पत्थर से बनी हुई दोनों चीज़ें बेहद ज़रूरी हैं। पत्थर को तराश कर बनाए गए ईष्टदेव इंसान को इंसान बनाए रखने हेतु भी है। धर्म एक व्यवस्था है, जिसके पीछे कई सारे दृष्टिकोण-चिंतन-हेतु हैं। अगर इंसान के लिए धार्मिक या सामाजिक नियम ना होते, कुछ डर ना होते तो इंसान कितना अनियंत्रित होता यह समझना बेहद ही आसान है।
 
पत्थर से तराश कर धार्मिक व्यवस्था ने ईष्टदेव बनाए, जिससे इंसान या तो इंसान बना रहे या फिर बेहतर इंसान बन सकें। इंसान को इंसान बनाए रखना या उसे बेहतर इंसान बनाना... यह बहुत ही कठिन तथा बेहद आवश्यक दृष्टिकोण है। साथ ही उसी पत्थर की चाकी बनाकर संसार को ज़िंदा रखना, उसे बेहतर ज़िंदगी देना भी उतना ही कठिन और उतना ही आवश्यक है। भूखे पेट भजन न होए गोपाला। इंसान ज़िंदा और स्वस्थ रहे तथा वो इंसान ही रहे, यह दोनों उसी पत्थर से तराशे गए दो भिन्न विचारों के अंतिम नतीजे ही तो हैं।
हमारे यहाँ कई वाक़ये ऐसे मिल जाएँगे। हमारे ईष्टदेव,  हमारा धर्म और हमारा राष्ट्र... ये चीज़ें मानवजीवन के लिए बेहद आवश्यक हैं। बिना इनके कुछ सोचे तब सारी चीज़ें टोटल ब्लैक आउट ही नज़र आती हैं।
 
सवाल उठता है कि आख़िर धर्म है क्या? ज़्यादातर तो, "धर्म मूलत: एक व्यवस्था है।" एक सामाजिक व्यवस्था, जिससे संस्कृति उन्नत हो और एकसूत्रता बनी रहे। एक ऐसी व्यवस्था, जिससे वो सभ्यता या मानवजीवन निरंतर प्रगति करता रहे।
 
इस व्यवस्था का निर्माण बहुत पहले हो चुका है। लेकिन यह व्यवस्था मूलत: स्थिर अवस्था धारण करने वाली व्यवस्था भी नहीं है। समय और स्थिति के अनुसार इन व्यवस्थाओं में बदलाव होते रहे हैं। ये बात और है कि स्थिर अवस्था की अवधि लंबी होती है। व्यवस्थाओं का अभाव अराजकता फैलाता है। साथ में स्थिर व्यवस्था आप को उन्नति की तरफ़ ले जाने से भी रोक देती है। शायद इसीलिए समय और स्थिति के अनुसार परिवर्तन होते रहे। हालाँकि मूल भाव शायद ही बदला हो।
 
धर्म के अर्थ भी हज़ारों या लाखों से भी ऊपर रहे हैं। लेकिन सर्वसामान्य रूप से धर्म का अर्थ एक ही निकलता है, और वोह है... कल्याण। स्वयं का कल्याण, औरों का कल्याण, समाज का कल्याण, राष्ट्र का कल्याण या फिर संसार का कल्याण। कहा जा सकता है कि कल्याण ही धर्म का मूल मक़सद रहा है।
 
कल्याण ज़रूर एक मूल रहा है, किंतु उसे प्राप्त करने के तरीक़ों की एक व्यवस्था निर्मित की गई है। जिसमें ख़ास तौर पर किसी और को नुकसान पहुंचाए बिना, द्वेष या ऐसी चीज़ों को मार कर कल्याण तक पहुंचने की व्यवस्था का ज़िक्र मिलता है।
धर्म मूलत: एक व्यवस्था है, जिसमें सामाजिकता, संस्कृति तथा भूगोल शामिल हैं। जबकि ऊस धर्म का मक़सद कल्याण है। उसके साथ निकट से राष्ट्र जुड़ा हुआ होता है। सामाजिकता, संस्कृति और भूगोल... यही राष्ट्र की पहचान करती है। धर्म और राष्ट्र दोनों एक दूसरे से निकट से जुड़े हुए हैं। राष्ट्रधर्म स्वयं एक लफ़्ज़ है, जो उन दोनों को एकसूत्रता में बांधे रखता है। लेकिन फिर भी इन दोनों को अलग अलग धुरी से देखा व सोचा जाता है। इसके पीछे भी तार्किक और अन्य वजहें शामिल रही हैं।
 
दोनों एकसूत्रता में बंधे हैं, किंतु दोनों के लिए व्यवस्था, दोनों के उत्तरदायित्व, दोनों की ज़वाबदेही और दोनों की नीतियाँ अलग अलग हैं। धार्मिक व्यवस्था और राष्ट्रीय व्यवस्था... धार्मिक उत्तरदायित्व और राष्ट्रीय उत्तरदायित्व... ये सब एक होते हुए भी अलग धुरी पर हैं। और इसीलिए "धर्मनीति" तथा "राष्ट्रनीति" नाम के दो मानदंड हैं।
 
"धर्मनीति" की अपनी एक व्यवस्था है, उसके अपने उपदेशक और ज़वाबदेह व्यक्ति हैं, उसके अपने सेवाप्रवृत्त गण तथा संस्थाएँ हैं, जो धर्म आधारित परंपराओं और नीति तथा बदलती स्थितियों के संदर्भ में सभ्यताओं के प्रति ख़ुद को जोड़े रखते हैं। जबकि "राष्ट्रनीति" की अपनी एक व्यवस्था है, उसके अपने सेवाप्रवृत्त गण तथा संस्थाएँ हैं। "धर्मनीति" के लिए धर्मग्रंथों तथा राष्ट्र के स्थापित संविधान में तालमेल बिठाना अघोषित ज़वाबदेही है। वही अधोषित ज़वाबदेही "राष्ट्रनीति" की है, जहाँ राष्ट्र के स्थापित संविधान तथा धर्मग्रंथों के बीच तालमेल बिठाने का मूल भी समाविष्ट रहता है।
 
हमारे यहाँ अपना एक इतिहास रहा है। देखा गया है कि दोनों नीतियाँ... धर्मनीति तथा राष्ट्रनीति, तथा उन नीतियों में प्रवृत्त समुदाय या संस्थाएँ, एक दूसरे से तालमेल बिठाकर आगे चलते रहे। बहुत चर्चा करने के बाद आप कह सकते हैं कि धर्मनीति का यह उत्तरदायित्व रहा कि वो अपने दायरे से बाहर जाकर राष्ट्रनीति की आपातकाल जैसी व्यवस्थाओं में अपना ज्ञान तथा सुझाव प्रदान करें। कभी कभार राष्ट्रनीति से जुड़ी व्यवस्थाओं ने धर्मनीति की कमज़ोरियों को लेकर भी काम किया, ऐसे वाक़ये भी मिल जाते हैं।
 
लेकिन दोनों व्यवस्था, दोनों की अपनी नीतियाँ, दोनों की विभिन्नता, विभिन्नता के बावजूद दोनों के मक़सद में एकसूत्रता, इन चीज़ों को लेकर उन दोनों के बीच तालमेल बिठाना काफ़ी संवेदनशील विषय रहा है। दोनों ही व्यवस्थाओं का सीधा सा मतलब तो सभ्यताओं के प्रति जुड़ा हुआ है, सभ्यताओं की उन्नति से जुड़ा हुआ है। इस लिहाज़ से वे एकसूत्रता में बंधे हैं। लेकिन दोनों की व्यवस्था और नीतियाँ भिन्न हैं, इस लिहाज़ से दोनों में दूरी भी रखी गई। दोनों के मक़सद या दोनों के निर्माण का मक़सद एक है, किंतु कार्यशैली भिन्न होने के बावजूद यह ज़रूर रहा कि दोनों एक दूसरे के सत्ताधीश न बने। दोनों को साथ रहकर अपने मूल मक़सद, जो कि सभ्यताओं और प्रदेश को लेकर है, के प्रति संनिष्ठ बनने की तरफ़ संवेदनशील रहने की ज़वाबदेही प्रदान करता है।
दोनों के बीच अंतर नहीं है... जबकि दूरी इतनी है कि दोनों एक भी ना दिखे। यही उस स्थापित व्यवस्था की ख़ूबी रही है। समय के अनुसार या फिर ज़रूरतों के अनुसार व्यवस्थाओं की कार्यशैली ज़रूर बदली, लेकिन दूरी को इतना नज़दीक़ भी कभी नहीं लाया गया।
 
धर्मनीति में धार्मिक स्वातंत्र्य है, जिसे बाधित करना ठीक नहीं माना जाता। राष्ट्रनीति में राजनीति है, जिसका रिश्ता किसीके साथ जोड़ना ठीक नहीं समझा जाता। धर्मनीति के लिए अपनी जो व्यवस्था है, उसमें उसके अपने ग्रंथ हैं, अपनी सोच है या समझ है, अपनी संस्थाएँ हैं, अपने कथित उपदेशक हैं। वहीं राष्ट्रनीति के लिए अपनी व्यवस्था हैं, अपनी मार्गदर्शिकाएँ हैं, अपनी संस्थाएँ हैं और अपने कथित सेवक हैं।
 
वैसे तो दोनों के मूल मक़सद एक ही है, लेकिन कार्यशैली में भिन्नता के कारण दोनों एकदूसरे के ऊपर अपनी चीज़ें थोप नहीं सकते। किसी काल में दोनों यदि पटरी से उतर जाएँ तब दोनों एकदूसरे की मदद ज़रूर करते हैं। दोनों का मक़सद लोगों का कल्याण ही है, दोनों में समय के अनुकूल परिवर्तन करते रहने का इतिहास भी है, दोनों अपनी मान्यताएँ लोगों के ऊपर नहीं थोप सकते और दोनों की व्यवस्थाओं को लोग स्वीकार करें यही सर्वसामान्य रूप से स्वीकृत तथ्य है।
 
धर्मनीति और उसकी व्यवस्था तथा राष्ट्रनीति और उसकी व्यवस्था... इन दोनों के बीच जो मूल अंतर है उसे विवादास्पद भी माना जाता रहा है। और वो अंतर रहा है विज्ञान का, वैज्ञानिक द्दष्टिकोण का। इस अंतर को मिटाने के लिए तर्क भी हुए हैं, और कुतर्क भी। दरअसल, विज्ञान ऐसा सत्य है, जिसका संबंध और स्वीकार, धर्म और राष्ट्र, दोनों की प्रगति के लिए समय समय पर होता रहा है।
 
कहा जाता है कि धर्म और विज्ञान... ये दोनों एक ही चीज़ समझने के लिए प्रयत्न करते हैं। फ़र्क़ इतना सा है कि धर्म सोच कर समझता है या समझ को ही आधार बनाता है, जबकि विज्ञान प्रयोगों के आधार समझता है और समझ की जगह तर्क और तथ्य को आधार बनाता है। और इसीलिए नायकों से लेकर महानायकों ने कहा भी है कि धर्म और विज्ञान, इन दोनों में से विज्ञान पर भरोसा करना ज़्यादा अच्छा है। क्योंकि धर्म सोचकर समझता है, या अपनी समझ को ही स्थापित कर देता है और फिर कुछ पेश करता है। जबकि विज्ञान प्रयोगों के सहारे नयापन लाता है। जिसमें वो सैकड़ों बार विफल होकर या फिर कई सारे दृष्टिकोण से टकरा कर एक समाधान प्रस्तुत करता है। विज्ञान तर्कों और तथ्यों के आधार पर आगे बढ़ता है, अपनी समझ के बल पर नहीं।
बात तथ्यों की निकली है तो, स्वतंत्रता आंदोलन के तीन महानायक, महात्मा गाँधी-सरदार भगत सिंह और सरदार पटेल, इन तीनों में से गाँधीजी परम आस्तिक थे, सरदार पटेल व्यावहारिक थे और सरदार भगत सिंह परम नास्तिक। किंतु तीनों के सपनों का भारत क़रीब क़रीब एक जैसा ही था, जहाँ समाज, शिक्षा, समानता और विज्ञान केंद्र में हो।
 
यह भी कहा जाता है कि विज्ञान जहाँ से रुक जाता है, धर्म वहाँ से भी आगे निकलने में सक्षम है। किंतु यह अपनी सोच या समझ को सत्य मानने की चेष्टा मात्र है। देश के नायकों और महानायकों के मुताबिक़ विज्ञान सत्य के निकट पहुंचना चाहता है, जबकि धर्म सत्य स्थापित करना चाहता है। विज्ञान सौ तरीक़ों से सत्य के निकट पहुंचता है, जबकि धर्म सौ तरीक़ों से धर्म को स्थापित करता है। दलीलें दी जाती हैं कि विज्ञान हर कोण को स्वीकार करके कुछ नयी चीज़ें प्रस्तुत करता है, उसे हर कोण स्वीकार होता है या फिर वो हर विचार को स्वीकार करके उसे कसौटी पर कसता है। जबकि धर्म में अपना कोण किसी सभ्यता विशेष के लिए स्थापित किया होता है। यानी कि विज्ञान नयेपन के लिए हर कोण को स्वीकार करने से परहेज़ नहीं करता और उसे कसने में भी पीछे नहीं हटता। जबकि धार्मिक व्यवस्थाओं में यह नियंत्रित रूप से किया जाता है। वैसे तो विज्ञान और धर्म मूलत: एक ही श्रृंखला के दो छौर माने जाते हैं।
 
कुछ कुछ ऐसा ही, धर्मनीति और राष्ट्रनीति में है। राष्ट्रनीति, जिसमें हमने देखा वैसे राजनीति केंद्र में होती है। धर्म और राष्ट्र, दोनों विचारों में कई सारी समानताएँ हैं, लेकिन व्यवस्थाओं में तथा कार्यशैली में भिन्नता है। लोगों के बीच वादविवादों के अवलोकन से मोटे मोटे तोर पर, या यूँ कहे कि दैनिक प्रक्रियाओं के संदर्भ में मालूम पड़ता है कि धर्मनीति में अपने अपने धार्मिक स्थलों का निर्माण करना, अपने अपने धर्म का प्रचार और प्रसार करना तथा जीवन को उन्नति की तरफ़ ले जाना केंद्र में रहता है। जबकि राजनीति में शिक्षा संस्थानों का निर्माण करना, व्यवस्थाओं को चलाने के लिए आर्थिक ढाँचे को दुरुस्त रखना, अपनी अपनी पार्टी का प्रचार और प्रसार करना तथा सभ्यताओं को उन्नति की तरफ़ ले जाना केंद्र में रहता है।
 
लेकिन जो सख़्त आलोचक हैं उनके अनुसार, इसी मामले में जो भिन्न व्यवस्था है उस हिसाब से उनकी ज़वाबदेही में भी भिन्नता है। अनेका अनेक विशेषज्ञों के अनुसार, धर्म में मूलत: स्थायित्व है, जबकि राजनीति में चलत्व है। धर्म व्यक्तिगत प्रक्रिया है और उसे व्यक्तिगत परिधि में ही रहना चाहिए, उधर राजनीति एक स्वतंत्र प्रक्रिया है और उसे स्वतंत्र ही रहना चाहिए।
धर्म अपनी बात या अपने विचार व मान्यताओं के ऊपर स्थायी होता है। उसके हिसाब से उसका ईष्टदेव और उसकी नियमावली ज़्यादातर तो स्थायी रहती है। कहा जा सकता है कि ये स्थायित्व स्थायी नहीं होता, किंतु अवधि लंबी ज़रूर होती है। इसी वजह से धर्म में अड़ियलपन दिखाई देता है। जबकि राजनीति में ये नहीं होता। राजनीति का उत्तरदायित्व सभ्यताओं के प्रति तथा निर्मित व्यवस्थाओं को दुरुस्त रखने के प्रति होता है। इसी लिहाज़ से राजनीति में चलत्व का होना अनिवार्य है। बदलते युग या बदलते विचारों के साथ साथ राजनीति में बदलाव होता है। उनका उत्तरदायित्व कई सारे विवादों के प्रति होता है, जिसमें तमाम समुदायों की मान्यताओं को स्वीकार करके आगे बढ़ने की क्षमता उनमें होती है। और विवादों के समाधान तथा उन्नति के लिए यह चलत्व स्वीकार्य पहलू है। बातचीत उनके समाधान करने के तरीक़ों का मूल होता है, जिसमें तमाम की मान्यताओं को स्वीकार करके चलने की शैली होती है। जबकि धर्म बातचीत नहीं करता, वो स्थापित करने में मानता है। मूलत: धर्मनीति में उपदेश का अपना महत्व होता है, जबकि राजनीति में उपदेश से कार्य नहीं होता। वहाँ उपदेश के बजाए कार्य करने से ही कार्य संपन्न होते हैं। वर्ना, प्रधानमंत्री की जगह पादरी भी चुना जाता तो किसीको कोई आपत्ति नहीं होती।
 
वहीं, यह भी कहा जाता है कि धर्म की व्यवस्थाओं में उतनी भ्रष्टता नहीं है, जितनी राजनीतिक व्यवस्थाओं में है। हालाँकि यह सर्वस्वीकार्य कथन नहीं है। ज़्यादातर तो धर्म अपने मूल उद्देश्य से निकट रहने के लिए प्रयत्न करता है। अगर हम मान लें कि राजनीति में मूल उद्देश्य मर चुका है, तब ऐसी अवस्था में धर्म राजनीति को सही पटरी पर लाने के लिए अपना उत्तरदायित्व निभा सकता है। जैसे कि हमने पहले देखा वैसे, आपातकालीन स्थितियों में दोनों एक दूसरे के प्रति ज़वाबदेह हो जाते हैं। किंतु शर्त यह है कि धर्म का अपना मूल उद्देश्य सुरक्षित होना चाहिए।
 
एक तथ्य सदैव चस्पा रहेगा कि धर्म के साथ सदैव धार्मिक मूल्य जुड़े रहते हैं, जबकि राष्ट्रीय व्यवस्था के साथ संवैधानिक मूल्य। धार्मिक मूल्य व्यक्तिगत हो सकते हैं, या समुह विशेष से जुड़े हुए हो सकते हैं, जबकि संवैधानिक मूल्य सार्वजनिक होते हैं। स्वयं धार्मिक मूल्यों को भी संविधान की कसोटी पर ख़रा उतरना पड़ता है।
 
चलत्व और स्थिरता... इन दोनों को एक मंच पर देखा जाता रहा है। और यही उन तमाम व्यवस्थाओं की वैविध्यता है। लेकिन, राष्ट्रनीति... जिसमें राजनीति केंद्र में है, उसे अपना उत्तरदायित्व अपनी संस्थाओं के दायरे में रहकर निभाना होता है, जिसे विधानसभा या संसद कहा जाता है। विधानसभा की बैठकें या संसदीय चर्चा किसी आश्रम, गुरुद्वारा या मस्जिद से नहीं हो सकती। वहाँ से वो तमाम फ़ैसले नहीं लिए जा सकते। क्योंकि व्यवस्था और ज़वाबदेही तथा कार्यशैली भिन्न है। ठीक वैसे ही, धर्मनीति और उसका प्रचार व प्रसार भी एक निश्चित परिधि में होता है। उसकी जगह तय है। उनकी सभाएँ या उनके प्रवचन भी राजनीतिक संस्थाओं से नहीं हो सकते। दोनों एकसूत्र होते हुए भी दोनों की स्वंतत्रता विभिन्न है।
और उसकी वजह भी साफ़ है। धर्म की मूल आस्था उनके अपने ग्रंथ हैं, जबकि राष्ट्र की मूल आस्था उसका संविधान है। दरअसल, अंत में धर्म को भी संविधान में आस्था रखनी ही पड़ती है। संविधान ने धार्मिक स्वंतत्रता दी हुई है, लेकिन राष्ट्र की व्यवस्थाओं को लेकर स्वंतत्रता धर्मव्यवस्था को नहीं दी गई। वो स्वंत्रता राजनीति को है, उसके संस्थानों को है। अगर ऐसा नहीं होता, तो स्वयं धार्मिक संस्थान या व्यक्ति अपने अपने अधिकार हेतु संविधान के पास नहीं जाते।
 
अरसे से दोनों तबके एक दूसरे के प्रति ज़वाबदेह भी रहे हैं तथा एकदूसरे के साथ भी रहे हैं। लेकिन उसकी एक निश्चित सीमाएँ हैं, जो अघोषित भी है। एक व्यवस्था में मूलत: स्थिरता के साथ चलते रहना है, जबकि दूसरी व्यवस्था में चलने के साथ स्थिरता प्रदान करना है!
 
धर्म भले ही संसार को देखता हो, लेकिन उनकी व्यवस्था किसी सभ्यता विशेष के साथ जुड़ी हुई होती है, यही उसकी पारंपरिक व्यवस्था है। जबकि राजनीति किसी सभ्यता विशेष के साथ खड़ी रहने के लिए नहीं होती। उन्हें तमाम मान्यताओं, तमाम विवादों, तमाम धारणाओं या अवधारणाओं के साथ मिलकर काम करना होता है। इस लिहाज़ से दोनों की कार्यशैली भी अलग है, तथा दोनों की ज़वाबदेही भी भिन्न है।
 
दोनों की एकसूत्रता के साथ साथ दोनों के बीच दूरी भी स्थापित रही है। दोनों एक ही मक़सद के लिए काम करते हैं, किंतु एक दूसरे के ऊपर अपना अधिकार या अपनी सत्ता ज़माते हुए नज़र नहीं आने चाहिए। दोनों एकसूत्र हैं, लेकिन फिर भी दोनों के बीच कोई रिश्ता दिखना भी नहीं चाहिए। उसके पीछे स्पष्ट वजहें उनकी अपनी अपनी व्यवस्था है।
 
धर्म और राष्ट्र.. दोनों को एकदूसरे से दूर नहीं किया जा सकता। ऐसा करना शायद व्यवस्थाओं के लिए घातक भी हो सकता है। लेकिन दोनों को एकदूसरे के इतने निकट भी नहीं आना चाहिए, जिससे दोनों के बीच की दूरी समाप्त हो जाए। ऐसा करना भी तो घातक ही सिद्ध हो सकता है। दोनों को एकदूसरे का सम्मान करना होता है। लेकिन दोनों को किसी एक दूसरी चीज़ का भी सम्मान करना होता है, और वो है संविधान। दोनों की भावनाएँ दोनों को बाधित नहीं करनी होती, जबकि दोनों को संविधान की भावनाएँ आहत करने से परहेज़ करना होता है।
अति और अल्प, दोनों नुकसानदेह होते हैं। धर्म हो, या राष्ट्र हो, दोनों एकदूसरे से अति दूर नहीं होने चाहिए, और ना ही वह दूरी अल्प होनी चाहिए। धर्म को धर्म का जो मूल अर्थ है, उसका जो मूल मक़सद है, उसीके आसपास होना चाहिए, तभी तो राष्ट्र को लाभ पहुंच सकता है। वहीं, राष्ट्र को भी उसके मूल अर्थ और मक़सद से दूर नहीं जाना चाहिए, वर्ना धर्म के होने का कोई अर्थ नहीं। दोनों को समझ लेना चाहिए कि वे सर्वसत्ताधीश नहीं हैं।
 
मूलत: धर्म एक व्यवस्था है और उसका मूल मक़सद है कल्याण। और यह चीज़ें उस राष्ट्र में जीवन व्यतित करने वाले लोगों के लिए निर्मित की गई है। राष्ट्र को धर्म से या फिर धर्म को राष्ट्र से अलग रखना इसीलिए मुश्किल है। या फिर ऐसा करना व्यवस्थाओं के मूल भाव को हानि पहुंचाने जैसा भी हो सकता है। लेकिन धर्म और राष्ट्र ये दोनों वो धुरी हैं, जो एक दूसरे से दूर रहती हैं, लेकिन अलग नहीं। राष्ट्रधर्म... ये स्वयं एक लफ़्ज़ है, जिसमें दोनों की निकटता या एकसूत्रता दिखाई देती है। लेकिन दोनों में एकसूत्रता मानवजीवन तथा राष्ट्र के कल्याण हेतु है।
 
धर्म और राष्ट्र एकसूत्र है, लेकिन फिर भी इसे हमेशा अलग अलग धुरी से देखा जाता है। जबकि धर्म का मूल अर्थ ही स्वयं से लेकर राष्ट्र का कल्याण है। लेकिन कल्याण तक पहुंचने के तरीक़ों में ही सारी लड़ाई चलती रहती है। इसमें कुछ लोग स्वयं ही अपना कल्याण कर लेते हैं। ज़्यादातर तो उससे वंचित रह जाते हैं। कल्याण के लिए ही (स्वयं का, समाज का, राष्ट्र का, संसार का) शायद ग्रंथों में विशेष समझ दी गई है।
 
लेकिन सारा मसला वहीं आकर अटक जाता है। वहीं पर सारी माथापच्ची है। सारे मीडिएटर, शख़्सियतेंगुरु, मौलवी, फादर, संस्थाएँ, सभ्यताएँ सभी इसी जगह आकर रूक जाते हैं। और फिर यहाँ से शुरू होती है वही कहानी... जो इस संस्करण की शुरुआत में है। सच क्या है वो कोई नहीं जानता... या फिर कोई नहीं मानता। या फिर यूँ कहे कि जो वो मानता है वही सच है। जो भी लिखा वो किसी के लिए सच के निकट भी हो सकता है या किसी के लिए सच से काफ़ी दूर हो सकता है। हम सच भी हो सकते हैं तथा ग़लत भी। हम ग़लत भी हो सकते हैं, यह स्वीकार करना ही उन्नति है। हम ही सच हैं, ये उस रास्ते पर जाने से रोक देता है।
 
अग्नि की उपासना करना जितना ज़रूरी है, उतना ही ज़रूरी है कि अग्नि से सिद्धियाँ हासिल की जाएँ। वर्ना धर्म और राष्ट्र, दोनों के होने के मूल अर्थ और मक़सद मर जाएँगे।
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)