यूँ तो ये कहानी ना भारत से संबंधित है, ना हमारे इनसाइड इंडिया के शीर्षक से ताल्लुक़ रखती है। फिर भी इसे हम जगह दे रहे हैं। इसके पीछे कुछ वजहें
हैं। पहली तो यह कि भले यह भारत से ताल्लुक़ नहीं रखने वाली कहानी हो, लेकिन इस कहानी का वो उत्पाद, जिसे हम मैकेफी एंटीवायरस के नाम से जानते हैं, को हम सबने बहुत इस्तेमाल किया। इस्तेमाल किए हुए उत्पाद के तार भले परदेश से जुड़े
हो, लेकिन कहानी कुछ सिखाती हो, तो फिर उसे एक बार जान ज़रूर लेना चाहिए। कहानी से क्या
सीखना है यह पढ़ने वालों पर निर्भर करता है। बोध या सार... यह तो समझ पर ही निर्भर
है न?
कहानी सचमुच हमारे
दायरे से बाहर थी। क्योंकि हमने इस तरह की कोई कहानी-जानकारी-लेख कभी लिखा नहीं था।
दूसरे विषयों को लेकर हमारे पास डाटा स्टोर होता है, रिसर्च इक्ठ्ठा किया हुआ होता
है, आँकड़े होते हैं, लेकिन इसे लेकर कोई चीज़ नहीं थी। सो, हमने इंटरनेट भैया को खँगाला।
पता नहीं चला कि कहानी की शुरुआत कैसे करें।
आख़िरकार एक शुरुआत
मिली। शुरुआत उसी तरह करते हैं। एक 66 साल का बुज़ुर्ग आदमी था। बेहद कामयाब और अमीर।
दुनिया में जाना माना नाम। जिसके नाम से लाखों करोड़ों कंप्यूटर सिस्टम लैस रहते थे।
नाम बहुत बड़ा था, लेकिन हरक़तें बड़ी बहकी-बहकी। ऐसी हरक़तें कि उसे अपना देश छोड़कर भागना पड़ा।
दूसरे देश जाकर बसना पड़ा। देश बदला, लेकिन दिमाग तो वही था। जिस नई जगह बसा, वहाँ भी
उसकी सरकार ने इल्ज़ाम लगाया। कहा कि ये आदमी अपनी प्राइवेट आर्मी बनाकर ड्रग्स की
तस्करी का इंतज़ाम कर रहा है।
वो जिस देश में बसा
था, वहाँ एक पत्रकार था। पत्रकार का नाम था जोशुआ डेविस। जानी मानी वायर्ड पत्रिका
से जुड़ा वह पत्रकार इस आरोप का सच जानने निकला। वो उस आरोपी का इंटरव्यू लेने सीधे
उसके घर पहुंच गया। ड्रॉइंग रूम में दोनों आमने-सामने बैठे थे कि तभी उस कारोबारी ने
एक रिवॉल्वर निकाली। उसमें एक बुलेट डाली। रिवॉल्वर का सिलिंडर घुमाया और उसे अपने
सिर से सटा लिया।
पत्रकार के होश उड़
गए। उसने कारोबारी से रिवॉल्वर नीचे रखने को कहा। मगर कारोबारी नहीं माना। उसकी आँखें
एकटक पत्रकार को ताकती रहीं। डर के मारे स्याह हो चुके पत्रकार को देखकर उसे जैसे कोई
नशा हो रहा था। उसने अपने माथे पर तनी रिवॉल्वर का ट्रिगर दबाया। कुछ नहीं हुआ। फिर
उसने तेज़ी से तीन बार और ट्रिगर दबाया। पाँच चैंबर्स वाले रिवॉल्वर का ट्रिगर चार
बार दबाया जा चुका था। अब हो सकता है वाला एंगल नहीं, होगा ही होगा वाला सच बचा था।
तय था कि अब की बार ट्रिगर दबाया गया, तो मौत निश्चित है। और इस पॉइंट पर कारोबारी रुका।
उसने कहा- मैं पूरे
दिन ये खेल सकता हूँ। दसियों हज़ार बार ये खेल दोहरा सकता हूँ। मुझे कभी कुछ नहीं होगा।
है न ग़ज़ब का और बिलकुल फ़िल्मी वाला सीन! इंटरनेट भैया पर इस आदमी से जुड़ा ये सीन अनेक बार सामने आता रहता
है। इंडिया टुडे नेटवर्क के द लल्लनटॉप जैसे राष्ट्रीय स्तर के पोर्टल पर भी इस सिरफ़िरे
को लेकर यही सीन है। दूसरी जगहों पर भी। जोशुआ डेविस ने भी वायर्ड के लिए इस कारोबारी
का डिटेल्ड प्रोफ़ाइल लिखा है।
अभी कुछ दिनों पहले
ही उसी कारोबारी की ख़बर आई। ख़बर उसकी मौत की। वो जेल की एक कोठरी में मरा हुआ पाया
गया। इस शख़्स का नाम था, जॉन मैकेफी। पूरा नाम जॉन डेविड मैकेफी। कंप्यूटर सिक्यॉरिटी
सॉफ़्टवेयर बनाने वाली एक मशहूर अमेरिकन कंपनी है, मैकेफी कॉर्पोरेशन। इसके फ़ाउंडर
थे जॉन मैकेफी। इस आदमी को कंप्यूटर एंटीवायरस सॉफ़्टवेयर का रचनाकार माना जाता है।
इतना मशहूर और क़ाबिल टेक कारोबारी जेल में क्यों बंद था? उसकी मौत ऐसे क्यों हुई? हम इस कहानी को आगे बढ़ाते हैं।
मैकेफी एंटीवायरस।
दुनिया में और भारत में यह नाम बिलकुल अनजाना नाम नहीं है। एक ज़माने में लाखों करोड़ों
कंप्यूटर सिस्टम इसी नाम से लैस होते थे। वह ज़माना अभी 10 साल पहले का ही ज़माना कह
लीजिए। कोई बहुत पुरानी बात नहीं है। यूँ तो अब भी यह एंटीवायरस सैकड़ों सिस्टम में
मिल जाएगा।
यूँ तो अमेरिका से
संबंधित थी यह कंपनी और उसका जाना माना उत्पाद मैकेफी एंटीवायरस। किंतु इस कहानी की
शुरुआत होती है पाकिस्तान से!!! जब भी हमारे यहाँ
पाकिस्तान का नाम आता है, पता नहीं क्यों, अपने आप ही शरीर में
गर्मी आ जाती है! सुस्त पड़ा हुआ शरीर और मन अचानक से उठ खड़ा होता है! है न?
ख़ैर, किंतु यहाँ इस
कहानी में इस मोड़ पर यही सवाल आता है कि भला तकनीक और कंप्यूटर सॉफ़्टवेयर जैसे आधुनिक
विषय में पाकिस्तान का क्या काम? किंतु विशेषज्ञ होना किसी देश या उसके हालात पर थोड़ी न निर्भर करता
है? विशेषता कहीं पर भी, कभी भी जन्म ले सकती है। हां, यह ज़रूर है कि फिर उस देश के हालात, वहाँ का वातावरण, सरकार और आवाम की सोच- समझ- संस्कृति- शैली उस विशेषता को या तो बहुत आगे बढ़ाती
है, या फिर रोक देती है। या फिर वो विशेषज्ञ वह वातावरण छोड़कर दूसरी जगह चला जाता है।
यहाँ दर्ज ये भी कर लें कि इक्का दुक्का मौक़ों पर वातावरण कैसा भी हो, विशेषता अपना जलवा दिखा भी सकती है। छोड़िए उन बातों को
अभी। लेकिन अमेरिका में जिस कहानी को बनना था, उसकी नींव पाकिस्तान में ही पड़ रही थी
उन दिनों। पाकिस्तान का लाहौर शहर। जिसे पाकिस्तान का दिल भी कहा जाता है। वहाँ दो
भाई रहते थे। नाम थे - बासित फ़ारूक़ अल्वी और अमजद फ़ारूक़ अल्वी। इन्हें आज दुनिया
में 'अल्वी ब्रदर्स' के नाम से जाना जाता है। उस वक्त बासित महज़ 17 साल का था, अमजद 24 का। दोनों भाई लाहौर में एक कंप्यूटर स्टोर चलाते थे। सिर्फ़ स्टोर ही
नहीं चलाते थे, उन्होंने मिलकर हार्ट की मॉनिटरिंग से जुड़ा एक सॉफ़्टवेयर प्रोग्राम बनाया। प्रोग्राम
बनाया और बिकने भी लगा। धड़ाधड़ बिकने लगा। धंधा ज़ोर शोर से चलने लगा। कुछ समय के बाद
दोनों को पता चला कि उनके साथ धोखाधड़ी हो रही है। दरअसल उनसे सॉफ़्टवेयर ख़रीदकर ले
गए कुछ लोग उसकी पायरेटेड कॉपी बेच रहे थे। दोनों को बिना बताए यह धंधा चल रहा था।
उसका सीधा नुकसान इन दोनों को हो रहा था।
लाज़मी था कि बड़ी मेहनत
से सॉफ़्टवेयर बनाया था, धंधा अच्छा ख़ासा हो रहा था और इस बीच ऐसा होने लगे, तो माथा
घूमेगा ही। अल्वी ब्रदर्स परेशान हो गए। किंतु वे बिज़नेसमैन थे, और साथ में विशेषज्ञ
भी। इस परेशानी को हल करने के लिए उन्होंने दिमाग लगाया। क्योंकि उन्हें पता था कि
भैंस नहीं अक़्ल ही बड़ी होती है। दोनों ने सोचा कि पायरेसी को रोकना ही होगा। फिर जो
हुआ वह कंप्यूटर की दुनिया में एक माइलस्टोन था। अल्वी ब्रदर्स ने एक कोडिंग की। ये
कोडिंग प्रोग्राम, सॉफ़्टवेयर को पायरेसी से बचाने के लिए बनाया गया था। अल्वी ब्रदर्स
ने इस प्रोग्राम को नाम दिया – ब्रेन।
जब कोई यूज़र सॉफ़्टवेयर
की पायरेटेड कॉपी अपने कंप्यूटर में इंस्टोल करता, तो साथ में वायरस भी कॉपी हो जाता।
उस शख़्स को अपने कंप्यूटर पर ऐक मैसेज दिखता, जिसमें लिखा होता
- वेलकम टू दी डंजन कॉपीराइट 1986 ब्रेन ऐंड अमजद्स (प्राइवेट) ब्रेन कंप्यूटर सर्विसेज़, 730 इज़ानामी ब्लॉक, अल्लाम इक़बाल टाउन, लाहौर पाकिस्तान, फ़ोन- 430791. बीवेअर ऑफ़ दिस वायरस. कॉन्टैक्ट अस फॉर दी वैक्सीनेशन…
वैक्सीनेशन लफ़्ज़ सुनकर
कोरोना कोविड19 के इस काल में आपको यह लफ़्ज़ बिलकुल घर का ही लगेगा। अल्वी ब्रदर्स
ने वायरस कोडिंग में अपना नाम, पता, फ़ोन नंबर सब डाल दिया था। ताकि लोग उन्हें कॉन्टैक्ट करके
ऑरिजनल सॉफ़्टवेयर का पैसा दें, और अपने कंप्यूटर को वायरस से रिहा करवाएं। अल्वी ब्रदर्स
का फ़ॉर्मूला सफल रहा। उनके पास वायरस छुड़वाने के लिए कई फ़ोन आने लगे। समझदार विशेषज्ञ
थे तो उन्होंने अक़्ल को ही चुना था, भैंस को नहीं। मगर फिर एक ट्विस्ट आया कहानी
में। अल्वी भाइयों के पास विदेशों से भी कॉल आने लगे। लोग कहते कि तुम्हारा वायरस हमारे
कंप्यूटर में आ गया है, इसे ठीक करो। अल्वी ब्रदर्स का बनाया वो वायरस देश-विदेश में
फैल गया था। इसे दुनिया का पहला कंप्यूटर वायरस अटैक माना जाता है।
अल्वी ब्रदर्स ने पायरेसी
की समस्या से अपने धंधे को बचाने के लिए जो चीज़ बनाई, वह पाकिस्तान की सीमा पार करते
हुए बाहर चली गई। बस यहीं से कहानी में एंट्री होती है मैकेफी की!!! पूरा नाम जॉन डेविड मैकेफी। पैदाइश 18 सितंबर 1945 को इंग्लैंड के ग्लॉस्टर्शायर
में। बचपन में ही माता-पिता इसे अमेरिका ले आए थे। जॉन के पिता जल्लाद थे। ख़ूब शराब
पीने के आदती भी। इंटरनेट भैया पर जो प्रमाणित कहानियाँ हैं, उसकी माने तो जॉन के पिता
गुस्सैल थे और उखड़े उखड़े से रहते थे। जॉन और उसकी माँ को बेरहमी से पीटा भी करते
थे। जब जॉन महज़ 15 साल का था, तब उसके पिता ने ख़ुद को गोली मारकर आत्महत्या कर ली।
पिता की मौत के बाद
मैकेफी की पढ़ाई चालू रही। वो कॉलेज पहुंच गया। उसने बीए इन मैथैमेटिक्स के कोर्स में दाख़िला लिया। पढ़ाई का ख़र्च निकालने के लिए वो घर-घर जाकर झांसा देता। लोगों से कहता
कि तुम लॉटरी जीते हो, तुम्हें मैगज़ीन का फ्री सब्सक्रिप्शन मिला है, बस शिपिंग वगैरह का ख़र्च देना होगा। लोग झांसे में आ जाते। जॉन की ख़ूब कमाई
होती। इतनी कमाई की पढ़ाई का भी ख़र्च निकलता, और जमकर शराब पीने के भी पैसे आ जाते।
ग्रेजुएशन हो गया। उसने पीएचडी में दाख़िला लिया। मगर किसी अपराध की वजह से उसके लिए
पीएचडी के दरवाज़े बंद हो गए। जॉन ने एक छोटी-मोटी नौकरी पकड़ी। मगर एक दफ़ा गांजा
बेचते हुए पकड़े जाने के बाद नौकरी से निकाल दिया गया।
जॉन की एक ख़ासियत
थी। वो एकदम कॉन्फ़िडेंस से झूठ बोल लेता था। इसी आत्मविश्वास से उसने फ़र्ज़ी रिज्यूमे
बनाया। रेलवे के लिए काम करने वाली एक कंपनी में नौकरी पा ली। इस दौर तक आते आते जॉन
ने नशे में भी ख़ूब प्रमोशन ले लिया था। अब वो रात दिन ड्रग्स लेता रहता था। इसी ड्रग्स
की आदत के चलते नौकरी गई। शादी टूटी। जो इक्का-दुक्का दोस्त थे, वो भी रुख़सत हो गए।
जॉन उस कग़ार पर पहुंच गया, जहाँ उसे भी उसके पिता की तरह आत्महत्या करने का मन करता। फिर
किसी की सलाह से जॉन ने एक मनोवैज्ञानिक की मदद ली, और इसके बाद जाकर उसकी ज़िंदगी ढर्रे
पर लौटी। वो एक टेक कंपनी के लिए काम करने लगा।
सन 1986 का साल था।
एक रोज़ जॉन एक मैगज़ीन के पन्ने पलट रहा था। इसमें उसे ब्रेन वायरस पर एक आर्टिकल
दिखा। वही ब्रेन वायरस, जिसे अल्वी ब्रदर्स ने अपने धंधे को पायरेसी से बचाने के लिए
बनाया था। बस यहीं से जॉन की ज़िंदगी बदल गई। उसने तय किया कि अब वो एंटीवायरस प्रोग्राम
बनाएगा। सिरफ़िरा था जॉन। ठान लिया तो आगे भी बढ़ लिया। उसने एक छोटी सी कंपनी बनाई।
अपने ही नाम पर उसका नाम रखा- मैकेफी असोसिएट्स। वो कंप्यूटर्स को वायरस से बचाने के
लिए सॉफ़्टवेयर बनाने लगा। अपने पहले कोड प्रोग्राम को उसने नाम दिया- वायरस स्कैन।
शुरुआत में वो अपना
बनाया एंटीवायरस बड़ी-बड़ी कंपनियों को मुफ़्त में बांटने लगा। कहता कि वो एंटीवायरस
इस्तेमाल ना करना अफॉर्ड नहीं कर सकतीं, अगर रिस्क घटाना है तो एंटीवायरस यूज़ करना
ही चाहिए। पाँच साल के भीतर फॉर्चून 100 की क़रीब आधी कंपनियाँ मैकेफी का एंटीवायरस
यूज़ करने लगीं। उन्होंने मैकेफी को लाइसेंस फी भी देना शुरू किया। 1990 आते-आते मैकेफी
की सालाना कमाई करोड़ों में पहुंच गई।
सिरफ़िरे जॉन की छोटी
सी कंपनी मैकेफी असोसिएट्स 1992 में पब्लिक कंपनी बन गई। जॉन के पास क़रीब 600 करोड़
रुपये के स्टॉक आ गए। नोट करें कि 1992 के साल में यह आँकड़ा महाकाय आँकड़ा हुआ करता
था।
1992 में तिकड़मी जॉन
ने अपना धंधा और ज़्यादा बढ़ाने के लिए अल्वी ब्रदर्स से प्रेरणा ली। यूँ तो अल्वी ब्रदर्स
ने अपना धंधा बचाने के लिए वह काम किया था, जॉन ने पैसा कमाने के लिए किया। जॉन ने
1992 के आसपास सनसनीखेज़ दावे किए। दावा यह कि एक कंप्यूटर वायरस है, जो दुनिया के लाखों
कंप्यूटर्स को तबाह कर देगा। जॉन ने जिस वायरस का ज़िक्र किया था, उस वायरस का नाम था
माइकल एंजेलो। जिस आदमी ने ब्रेन वायरस से सबको बचाया था, उसके माइकल एंजेलो वाले दावे
को कौन झुठला सकता था भला? मीडिया मैकेफी को हाथोहाथ लेने लगी। मीडिया ने जॉन को ख़ूब जगह
दी। यानि मीडिया उस ज़माने में भी आज की तरह ही था, ऐसा कुछ हद तक ज़रूर
कहा जा सकता है। ख़ैर, मीडिया कवरेज़ के रास्ते मैकेफी की वॉर्निंग दूर-दूर तक फैल गई। उसके एंटीवायरस
सॉफ़्टवेयर की बिक्री रातोरात कई गुना बढ़ गई। मैकेफी ने माइकल एंजेलो से जो ख़तरे
बताए थे, वो ग़लत साबित हुए। उस वायरस ने उतना नुकसान नहीं किया। माइकल एंजेलो वायरस
का रिज़ल्ट जो भी हो, मगर छह महीने के भीतर मैकेफी कंपनी की आय 50 गुना तक बढ़ गई। वो एंटीवायरस मार्केट
के सबसे बड़े खिलाड़ियों में शामिल हो गया।
जॉन की कॉर्पोरेट कंपनी, मीडिया के रिपोर्ट, लोगों की घबराहट ने मैकेफी कंपनी को नये मुकाम तक पहुंचा दिया
था। दो साल बाद 1994 में उसने इस कंपनी से इस्तीफ़ा दे दिया। उसके एग्जिट के बाद भी
कंपनी का ऊपर बढ़ना रुका नहीं। क्योंकि, जॉन की यह कंपनी और उसका एंटीवायरस उत्पाद,
दोनों दुनिया भर में अपना नाम और धंधा जमा चुके थे।
मैकेफी असोसिएट्स से
निकलने के बाद भी वो टेक बिज़नेस में बना रहा। उसने फ़ायरवॉल सॉफ़्टवेयर्स बनाने वाली
कंपनियों में निवेश किया। विंडोज़ के लिए इंस्टेंट मैसेज़ और चैट प्रोग्राम्स बनाने
वाली कंपनियों में पैसा लगाया। निवेशक होने के अलावा जॉन बिज़नेस गुरु भी हो गया था।
स्टार्टअप्स शुरू करने वाले उससे सलाह लेते थे। बिज़नेस स्कूल उसे लेक्चर देने बुलाते
थे। कुल मिलाकर, अब जॉन के पास पैसा और प्रतिष्ठा, दोनों थें।
21वीं शताब्दी का आगमन
हो चुका था। जॉन और उसके नाम और उसके उत्पाद की चमक फीकी नहीं पड़ी थी। फिर आया
2007-08 का समय। वैश्विक मंदी आ गई। 2007-08 की मंदी ने समूची दुनिया को झकझोर दिया।
बड़े बड़े उद्योग, कंपनियाँ, बैंक हिल गए। जॉन का भी बिज़नेस धराशायी हो गया। उसके निवेश डूब गए। न्यूयॉर्क
टाइम्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, मंदी के चलते जॉन की संपत्ति में 25 गुना कमी आ गई।
यानि, जॉन का 75 फ़ीसदी पैसा इस मंदी ने निगल लिया।
जॉन की बनाई कंपनी
को तो आगे चलकर साल 2010 में कंप्यूटर चिप बनाने वाली कंपनी ‘इंटेल’ ने ख़रीद लिया। लेकिन इधर जॉन, जो कंपनी से इस्तीफ़ा दे चुका था और टेक
की दुनिया में अपना एक अलग ही बिज़नेस चला रहा था, उसे बहुत नुकसान हुआ। बिज़नेस के
अलावा भी जॉन पर दूसरी मुसीबतें मंडराने लगीं। तिकड़म बाजी करने का आदती था जॉन। सीधे
सीधे तो बिज़नेस नहीं किया होगा उसने। कई लोगों ने उस पर नालिश ठोक दी। जॉन को डर सताने
लगा कि उसे भारी आर्थिक मुआवज़ा न भरना पड़े।
जॉन ने एक और तिकड़म
चलाया। आर्थिक मुआवज़े के ख़तरे से बचने के लिए एस्केप प्लान बना लिया उसने। देश छोड़
कर भाग लिया। जॉन ने अमेरिका की क़रीब क़रीब अपनी समूची जायदाद नीलाम कर दी। घर, कार, अपना प्राइवेट एयरपोर्ट, सब बेच दिया। सारा पैसा बटोरकर पहुंच गया बलीज़। सेंट्रल अमेरिका
में बसा एक छोटा सा देश। बलीज़ की एक तरफ़ घने जंगल थे, और दूसरी तरफ़ था ख़ूबसूरत समंदर।
अप्रैल 2008 का महीना था, जब जॉन यहीं शिफ़्ट हो गया। वैभवी और आलीशान ज़िंदगी जीने का
आदती जॉन यहाँ अपनी आदत कैसे छोड़ सकता था भला? नदी के किनारे एक आलीशान धर बनवाया। चैन
से पियानो बजाता और गाने गाता। इंटरनेट भैया जिसका घर था, जिसका बिज़नेस था, उसने अपने इस घर में सब कुछ बसाया, सिवा इंटरनेट के!
इसलिए नहीं कि उसे
सुकून चाहिए था। इसलिए, ताकि कोई उसका पीछा ना करें। क्योंकि वह एस्केप करके आया था।
बलीज़ में उसकी आदतें बदस्तूर जारी रहीं। आदतें ऐसी कि उसके लिए उसे पैसा चाहिए था।
उसने यहाँ भी बिज़नेस शुरु किए। एक नहीं, एक से ज़्यादा बिज़नेस। लेकिन उसकी गतिविधियाँ
सरकार के निशाने पर आ गईं। बलीज़ में जॉन पर अपनी प्राइवेट आर्मी बनाने का सनसनीखेज़ इल्ज़ाम लगा। उस पर आरोप लगा कि वो निजी सेना बना रहा है, ताकि बड़े स्तर पर ड्रग्स का कारोबार कर सकें। एक ज़माने में जो शख़्स दुनिया भर
के कंप्यूटर में चमकता रहता था, जिसका उत्पाद और जिसकी मास्टरी का लोहा दुनिया मानती थी, वह आदमी अपना देश छोड़कर भाग चुका था और जिस देश में बसा था, वहीं पर आज ड्रग्स
के आरोपों में घिरा था!
हमने शुरुआत में जिस
स्टोरी का ज़िक्र किया था, जिसमें पत्रकार जोशुआ डेविस शामिल थे, उन्होंने इसी आरोप के सामने आने के बाद जॉन का इंटरव्यू लिया था।
ड्रग्स ट्रैफ़िकिंग
और प्राइवेट आर्मी वाले सनसनीखेज़ आरोप को लेकर बलीज़ सरकार ने जॉन के घर पर कई बार
छापा मारा। यह मामला चल ही रहा था। इस बीच नवंबर 2012 में जॉन पर अपने पड़ोसी की हत्या
का आरोप लगा। पूछताछ के लिए पुलिस ने उसे गिरफ़्तार कर लिया। जॉन पर कोई मामला दर्ज
नहीं हुआ था। ना ही आरोप तय हुए थे। पुलिस ने शक़ के आधार पर उसे गिरफ़्तार किया था।
छापेमारी के दौरान पुलिस को जॉन के घर से बिना लाइसेंस की दो रिवॉल्वर मिलीं। कुछ दिनों
तक जेल में रहा। एक इंटरव्यू में जॉन ने जो कहा उसकी माने तो उसे 10 बाय 10 की एक कोठरी
में रहना पड़ा। सीमेंट की ठंडी फ़र्श पर बैठा रहता। भभकती सी गंध के बीच उसने वहाँ
कई दिन काटे।
पुलिस को जॉन के ख़िलाफ़ कोई ठोस सबूत नहीं मिले। वह छूट गया। मगर जॉन के ऊपर ड्रग्स और प्राइवेट आर्मी वाला
ख़तरा मंडरा रहा था। उसे बलीज़ रिस्की लगने लगा। फिर क्या? वही एस्केप प्लान! जो आदमी अपने तेज़ दिमाग, अपनी मास्टरी के चलते एक ज़माने में पैसा और शोहरत, दोनों के ढेर पर बैठा था, वह फिर एक बार एस्केप पार्ट 2 को लेकर आगे बढ़ा! बलीज़ के बाद उसने अपना नया ठिकाना चुना गुआटेमाला। जॉन भागा, लेकिन गुआटेमाला में उसे गिरफ़्तार कर लिया गया। उसे अवैध तरीक़े से देश में घुसने
के लिए गिरफ़्तार किया गया। जॉन ने कहा कि वो असाइलम चाहता है, मगर गुआटेमाला ने उसे अमेरिका भेज दिया।
है न ग़ज़ब किस्मत का
ग़ज़ब खेल! जॉन जिस अमेरिका से भागकर गया था, हालात ने उसे वापस वहीं पटक दिया! हालात जैसे भी हो, तिकड़म बाज जॉन अमेरिका से भागकर बलीज़ गया तब भी नहीं बदला
था, तो फिर बलीज़ से वापस अमेरिका उसे भेज दिया जाए तब भी कैसे बदलता? यहाँ भी उठापटक चलती रही। उसे शराब पीकर गाड़ी चलाने और हथियार रखने के इल्ज़ाम
में गिरफ़्तार किया गया। इसके बाद 2016 में ख़बर आई कि वो राष्ट्रपति चुनाव लड़ने की
कोशिश कर रहा है! अपने कैंपेन विडियो में जॉन कह रहा था – उनके लिए, जो मेरी तरह क्रेज़ी हैं। हालाँकि जॉन की इस कोशिश को नाकाम होना था, और
हुई भी नाकाम। डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका के राष्ट्रपति बने थे। वैसे जॉन को तो अमेरिका
की जनता ने इस लड़ाई से बहुत दूर पहले ही कर लिया था। हालाँकि ट्रंप बाबू बड़े बहके
बहके लगे तो अमेरिका ने उन्हें भी अगले चुनाव में दूर कर दिया।
2019 में फ्लोरिडा
की एक अदालत ने एक हत्या के मामले में जॉन को मुआवज़ा भरने का आदेश दिया। मगर जॉन ने
इनकार कर दिया। इस संबंध में आगे क्या हुआ हमें कहीं से कोई जानकारी नहीं मिल पाई है।
आगे के सालों में जॉन पर क्रिप्टोकरेंसी में फ्रॉड करने और टैक्स चोरी करने के मामले
चले। जॉन ने कहा कि उसे टैक्स भरना पसंद नहीं है। उसे जो पसंद था, उसने इस बार भी वही
किया। अमेरिका आने के बाद जो स्टोरी है, हमें पढ़ते पढ़ते लगा था कि अब वह नहीं भागेगा।
लेकिन उसे एस्केप मूवी में काम करना पसंद था। वह फिर एक बार भागा! कार्रवाई से बचने के लिए वह देश छोड़कर भाग गया। ख़बरों की माने तो कई महीनों
तक तो वो समंदर में एक जहाज़ पर रहा।
आँख-मिचौली लंबी चली।
3 अक्टूबर 2020 को वो बार्सिलोना एयरपोर्ट पर वो अथॉरिटीज़ के हाथ लग गया। वह उस दिन बार्सिलोना
से फ्लाइट पकड़कर इस्तांबुल जाने की फ़िराक़ में था। स्पैनिस पुलिस ने उसे गिरफ़्तार कर
जेल भेज दिया। अमेरिका तभी से जॉन के प्रत्यर्पण की मांग कर रहा था। जॉन अपील किए जा
रहा था कि उसे अमेरिका न भेजा जाए। उसने स्पैनिश अदालत से बाक़ायदा प्रार्थना की, दलीले दीं, अपनी उम्र का हवाला दिया।
स्पेन की अदालत ने
इस मामले में फ़ैसला सुनाया। उसने जॉन के प्रत्यर्पण पर मुहर लगा दी। यानि उसे वापस
अमेरिका जाना था। स्टोरी में ट्विस्ट आ चुका था। अमेरिका इंतज़ार कर रहा था। अदालत के
इस फ़ैसले के बाद एक ख़बर आई। ख़बर आई कि जॉन की मौत हो गई है! स्पेन पुलिस के मुताबिक़, वो अपनी कोठरी में फंदे से लटका मिला! वह 23 जून 2021 का दिन था। उस पत्रकार से खौफ़नाक खेल खेलकर रोमांचित होने वाले शख़्स ने, समूची दुनिया में अपना टेक उत्पाद बेचकर पैसा और शोहरत कमाने वाले सफल बिज़नेसमैन
ने, 75 की उम्र में, अपने पिता की तरह अपनी जान दे दी। उसने फंदे से लटककर ख़ुदकुशी कर ली! टेक की आधुनिक दुनिया में ग़ज़ब की मास्टरी, बिज़नेस करने की कला, निपुणता, ज्ञान इन सबके आगे बहकी बहकी हरकतों ने और तिकड़मबाजी ने जॉन मैकेफी को ऐसा अंजाम
दिया था।
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