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Social Media Platform : सोशल मीडिया... आवाज़ बुलंद करने का प्लेटफॉर्म अब रेलवे प्लेटफॉर्म बना हुआ है?



सोशल मीडिया... कुछ वक़्त पहले यह प्लेटफॉर्म (मंच) लोगों की अपनी एक बुलंद आवाज़ के रूप में जाना जाता था। फ़िलहाल तो ये प्लेटफॉर्म किसी रेलवे प्लेटफॉर्म की तरह ही दिखता है। जहाँ हर कोने से लोग आते हैं, अपने विचार रूपी सामान के साथ आते हैं। सबका अपना अपना वैचारिक सामान होता है। इतना ही नहीं, वे किसी बर्थ को लेकर एक दूसरे से भिड़ते भी रहते हैं। इसे सीधा कहे तो, अपनी अपनी बातों को सही ठहराने के लिए दलीलें देकर संवाद को झगड़ा बनाने में वे ज़्यादा यक़ीन रखते हैं।

इसे केवल एक पैरा में भी समझा जा सकता है। न्यूज़ पेपर यानी प्रिंट मीडिया, न्यूज़ चैनल यानी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया”, तथा फ़ेसबुक-ट्विटर आदि सोशल मीडिया। तीनों की कार्यशैली एक तरीक़े की ही देखने के लिए मिलती है। तीनों में ज़्यादातर समुदाय किसी पक्ष या पार्टी से मुहब्तत किए लोग होते हैं। तीनों में ज़्यादातर वर्ग किसी धर्म या समुदाय के अधीन होते हैं। तीनों बारीबारी किसी मुद्दे को उठाकर अपने कर्तव्य का पालन भी कर लेते हैं। तीनों में ज़्यादातर समुदाय ऐसा है, जो तमाम विषयों को छोड़कर किसी सनसनीखेज़ विषय को थाम लेते हैं, और फिर उसका हल निकलने से पहले उसे छोड़ भी देते हैं और फिर नया विषय थाम लेते हैं। तीनों में बहुमत ऐसे लोगों का है, जो मसालेदार तथा मनोरंजक विषय को परोसते रहते हैं। तीनों सरकारों पर ज़बरदस्त प्रभाव डाल सकते हैं, लेकिन तीनों में ऐसा समुदाय सीमित है।

यहाँ बात उन चीज़ों की या उन समुदायों की है, जिन्होंने सोशल प्लेटफॉर्म को रेलवे प्लेटफॉर्म जैसा बनाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया हो। आप कह सकते हैं कि नकारात्मक बात है। लेकिन सीधा सा तथ्य है कि यह बात उन लोगों को नकारात्मक ज़्यादा लग सकती है, जिन्होंने ऐसा करने में अपना योगदान दिया हो। जबकि यह विषय बेफ़िजूल विषय उन्हें लगता है, जो ऐसी नकारात्मकताओं को दरकिनार करके इस प्लेटफॉर्म का सही इस्तेमाल करने में लगे रहते हैं।
                                                            
सोशल मीडिया के ऐसे हालात उसका इस्तेमाल बढ़ने पर हुआ, ऐसा सबका कहना है। आज कल तो मज़ाकिये लहज़े में गंभीर बात कही जाती है कि आप बहुत गुस्से में हो, आप की बात कोई सुनता न हो, आप किसी से कुछ भी कहने में असमर्थ हो... कोई बात नहीं, सोशल मीडिया पर एक प्रोफ़ाइल बना दीजिए, आनन-फ़ानन में 5-10 पाकिस्तानियों को उड़ा दीजिए, कुछेक फ़ोटो बलिदानियों के शेयर कर लीजिए, किसीकी अच्छी लाइन कॉपी करके पेस्ट कर दीजिए, अच्छे अच्छे विचार कही से लाकर लटका दीजिए, किसी के गुड मॉर्निंग या हाय जैसे अतिसंवेदनशील विषयों को लाइक या रीट्वीट कर लीजिए, गारंटी है कि आप की समस्या थोड़ी सी हल होगी... या फिर आत्मसंतोष तो मिल ही जाएगा।

यहाँ कुछ लोग अपना स्टेटस लिखते हैं, जबकि कुछ लोग ठेल आते हैं। कुछेक लोग कमेंट के ज़रिए अपनी राय रखते हैं, जबकि कुछेक अपने कमेंट लटका आते हैं। लिखना और ठेलना, रखना और लटकाना। फ़र्क़ तो है इन सब में। लिखने वाले और रखने वालों पर अलग से आभारविधि प्रकरण लिखा जा सकता है। लेकिन ठेलने और लटकाने वाले समुदाय की बात ही दिलचस्प है।
कुछ लोगों के लिए सोशल मीडिया अपनी सेल्फ़ी दूसरों पर ठेलने का, या फेंकने का ज़रिया है। कुछेक के लिए अपनी मेहबूबा को याद करने का स्थान है। वे लोग इतनी ज़्यादा शायरी ठेलते हैं कि कभी कभी लगता है कि पढ़ने वाला उसकी मेहबूबा को चाहने ना लगे। कुछेक के लिए सोशल मीडिया ये बताने का स्थान भी है कि वो फलां फलां जगह पर है। हो सकता है कि उसके वहाँ होने से इस देश को शायद कोई फ़र्क़ पड़ जाता हो।

सेल्फ़ी और शायरी, इन दोनों विषयों को पूरा दिन ठेलते रहने वाली प्रजाति काफ़ी रोचक भी होती है। वे सेल्फ़ी और शायरी का ऐसा मिश्रण करती हैं, लगता है कि किसी सरकार को इन्हें एक बार सम्मानित करके ठिकाने लगा देना चाहिए। ठिकाने लगाने का मतलब कुछ और मत समझना। उन्हें उनके इन यशस्वी कार्यों के लिए एकाध सम्मान देना तो बनता ही है न।

सेल्फ़ी और शायरी का मिश्रण कभी कभी काफ़ी अजीब रहता है। ऐसी ऐसी सेल्फ़ी और शायरी ठेली जाती हैं, जैसे लॉन्चर से किसी ने मिसाइल छोड़ दिया हो। कुछ सेल्फ़ी ऐसी होती हैं कि लगती हैं पोपटलाल जैसी, और साथ में शायरी के ज़रिए समंदर को झकझोरने की बात झाड़ दी जाती है। सेल्फ़ी देख कर लगता है कि पानी की बाल्टी ठेल देते तब भी चल ही जाता। कुछ लोग तो शायरी लिखते हैं कि... लिखते हैं तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन ठेलते हैं कि... मैं हर किसीके लिए अपने आप को अच्छा साबित नहीं कर सकता, लेकिन मैं उनके लिए बेहतरीन हूँ, जो मुझे अच्छी तरह समझते हैं। उन्हें कौन समझाए कि मेरे मित्र, हर जगह ऐसा ही होता है।

वो लोग भी कम सम्मान के पात्र नहीं हैं, जो घर पर बैठे बैठे देश की नीतियाँ बनाते रहते हैं। वैसे स्टूडियो में बैठ कर कोई एंकर देश का नीति निर्माता बन जाता हो, तो फिर आम लोग सोशल मीडिया पर नीति निर्धारण तो करेंगे ही। इससे कोई परहेज़ नहीं होना चाहिए। लेकिन स्टूडियो वाले तो कम से कम कुछ पेपर वर्क करके आते हैं, कुछ आँकड़ों को खंगाल के आते हैं। ख़ुद को संरक्षित करके आते हैं। सोशल मीडिया के नीति निर्धारकों को भी कुछ होम वर्क कर लेना चाहिए था, ऐसा ज़रूर लगता रहता है। क्योंकि ये लोग घर पर बैठे बैठे दुश्मन को नेस्तनाबूद करने की भावनाएँ कब तक काबू में रखेंगे। इनके लिए फ़ेसबुक में विशिष्ट प्रकार का कोई गन (बंदूक) ऐप तो होना ही चाहिए। जिससे वे आत्मसंतोष प्राप्त करते रहें।

सिजनेबल एडवाइज़र, या मौसमी सलाहकार भी बहुत दिख जाते हैं। जिनका काम किसी त्यौहार के समय सलाह झाड़ के फिर दोबारा गुड मॉर्निंग या गुड नाइट पर चले जाना होता है। यह प्रजाति उसी समय दिखती है, जब कोई त्यौहार आये। और इनके हर साल के सूचनों में ज़्यादातर तो कोई फ़र्क़ नहीं होता। आप को पता चल ही जाता है कि दिवाली आ रही हैं तो दिप, पटाखे वाले आएँगे और कहेंगे कि टेक केयर। काइट फेस्टिवल पर पक्षी समर्थक दिख ही जाते हैं। ऐसे सिजनेबल एडवाइज़र का शुक्रिया ज़रूर अदा करना चाहिए, क्योंकि लोगों को अच्छी सलाह तो मिलती है, लेकिन उन्हें सेल्फ़ी और शायरी नहीं झेलनी पड़ती।
सोशल मीडिया यूज़र्स को आप नेता सरीखे ही मान सकते हैं। जैसे कि, यहाँ पर मनमोहन सिंह टाइप साइलेंट लोग भी होते हैं। वे ऑनलाइन ज़रूर रहते हैं, लेकिन अपनी मौजूदगी का अहसास नहीं होने देते। उन्हें मुश्किल से कभी किसी स्टेटस को लाइक करते हुए आप देखेंगे। कुछ लोग मोदीजी टाइप होते हैं। वे अपनी मौजूदगी को कभी दिमाग से जाने ही नहीं देते। वे कमेंट ठेल-ठेल कर सभी को अपने होने का अहसास करवाते हैं। ये ज़रूरी नहीं कि कमेंट स्टेटस के विषय के संदर्भ में ही हो। कुछ लोग केजरीवालजी जैसे भी होते हैं, जो हर चीज़ पर ख़फ़ा ही रहते हैं।

देश कभी कभार सहिष्णुता असहिष्णुता के गरमागरम विषय पर काफ़ी उबलता रहता है। लेकिन सोशल मीडिया पर सहिष्णुता या असहिष्णुता के जो उत्तम उदाहरण देखने के लिए मिलते हैं, वे शायद ही कहीं मिल पाते हो। पूरा साल सदभाव की बात करने वाले लोग या वैचारिक क्षमता साबित करने वाले लोग, किसी विषय पर विरोधी विचार को झेल नहीं पाते। और फिर ऐसी लड़ाई शुरू होती है, लगता है कि इनके पास कोई गन ऐप होता तो हर कमेंट में कारतूस ही दिखते। मूल विषय कहीं कोने में रह जाता है, और व्यक्तिगत टिका टिप्पणियों से शुरू हुई चीज़ बहुत आगे तक चली जाती है।

इतने से ख़त्म हो जाता तब भी ठीक था। एक दूसरे को मित्र सूची से अलग करने के बाद ये लोग एक दूसरे को ब्लॉक करने से भी ठंडे नहीं होते। वे तो कई दिनों तक उसका नाम ले लेकर अपनी स्वतंत्र पोस्ट करते रहते हैं। दिनों तक उनकी आग बुझती नहीं, और वे अपने मित्रमंडल में उस ब्लॉक किए गए शख़्स के बारे में चर्चा कर करके नये प्रकार का ऑनलाइन संतोष प्राप्त करने की कोशिशों में लग जाते हैं।

लगता है कि असहिष्णुता और कहीं ज़्यादा हो या ना हो लेकिन सोशल मीडिया पर कुछ ज़्यादा ही है। वर्ना मोदीजी, राहुलजी और केजरीजी एक ही टेबल पर बैठ के खाना खा लेंगे, लेकिन ये शादी किए समर्थक तो सात जन्मों तक दुश्मनी निभाएँगे।

सबके अपने अपने एजेंडा होते हैं। एजेंडा कुछ ज़्यादा लगे तो मान लीजिए कि सबके अपने अपने पसंदीदा विषय होते हैं। सेल्फ़ी और शायरी सर्वसामान्य रूप से प्रचलित तबका है। साथ में वे भी हैं, जो शायद अपना समस्त जीवन धर्म को समर्पित कर चुके होंगे। सुबह से लेकर देर रात तक आप को उनके माध्यम से ऑनलाइन धर्मस्थली का अहसास होता रहता है। उनके माध्यम से आप का ज्ञान बढ़ जाता है कि कौन कौन से दिन कौन कौन से देवी या देवताओं को समर्पित होते हैं। इन्हें आप ऑनलाइन रिलीजियस सर्विस भी कह सकते हैं।

अब आप कहेंगे कि हम ज़्यादती कर रहे हैं, और सोशल मीडिया पर जो अच्छे लोग हैं उनको नज़रअंदाज़ कर रहे हैं। लेकिन मित्रों, एक अच्छा प्लेटफॉर्म रेलवे प्लेटफॉर्म बन गया उसके पीछे जो अच्छे यूज़र्स हैं, उनकी ज़वाबदेही तो है नहीं। लिहाज़ा हम उनकी ही बात करेंगे न, जिन्होंने इसे रेलवे का प्लेटफॉर्म बनाकर रखने में अपना अधिक से अधिक योगदान प्रदान किया हो। विषय ही नकारात्मक है, तो फिर सकारात्मक भूमिका वालों के लिए इसमें अधिक स्थान मिल भी कैसे पाएगा।
कुछेक लोग ऐसे भी हैं, जो लिखते हैं कि I caught in cold... दुआ करो कि मेरा ज़ुकाम जल्दी ख़त्म हो जाएँ। ये प्रजाति अपनी हर शारीरिक तकलीफ़ के साथ साथ अपनी पूरी दिनचर्या सोशल मीडिया पर ठेलती रहती है। उन्हें ज़ुकाम हो जाएँ, वे कहीं खाना खाने जाएँ, सामान्य सा सरदर्द भी हो, वे इसे तामझाम के साथ दुनिया से साझा करते हैं। मुमकिन है कि शेयर बाज़ार को संभालने का उनका ये प्रयत्न हो। ताकि उनकी तबियत देश को पता चले और शेयर बाज़ार लुड़क ना जाएं।

ये लोग अपने घर के सदस्य को अस्पताल ले जाते हैं, या वे बीमार होते हैं, तब भी स्टेटस ठेलते हैं कि... मेरी माताजी ने मोतियाबिंद का ऑपरेशन करवाया है, आप दोस्त लोग दुआ करे... With so & so and 49 others...। शुक्र है कि कमेंट में लोग अभिनंदन नहीं कहते। उनकी माताजी के प्रति दुआओं के लिए कमेंट का अंबार लग जाता हैं। एक ज़माना था, जब लोग बीमार होते तो दिनों बाद पता चलता था, और फिर उनका स्वास्थ्य देखने दिनों बाद जाया करते थे। सोशल मीडिया का शुक्रिया ही अदा कर लें कि लोग अपने परिजनों की बीमारी को टेलीकास्ट भी करते हैं, और कमेंट में आप शुभकामनाएँ देकर उनके घर तक जाने का समय तथा ख़र्चा भी बचा सकते हैं। आप का भी और उसका भी! अच्छा है यह।

वैसे सोशल मीडिया को सर्वसामान्य रूप से देखा जाए तब लगता तो यही है कि इस देश में असामाजिक कार्य करने वाले अपराधी किसी दूसरे ग्रह से ही आते होंगे! क्योंकि ज़्यादातर बातें, ज़्यादातर स्टेटस, ज़्यादातर कमेंट किसी धार्मिक ग्रंथ की याद दिला देते हैं। बड़े बड़े नामों के सहारे विचार ठेलना एक सर्वसामान्य फ़ैशन है। अब्दुल कलाम साहब, रतन टाटा और चाणक्य पर लोड बहुत ज़्यादा है। चाणक्य ने अपने जीवनकाल में जो बातें कही नहीं होगीं, वैसी वैसी बातें उनका नाम लेकर सोशल मीडिया में ठेली जाती है!!!

वैसे, किसी रेस्तरां में या ठेले पर लड़के या लड़कियों को खाना खाते या नास्ता करते हुए देख लें। वे चमच भी ऐसे थामेंगे कि चमच को भी मज़ा आ जाए। निवाला ऐसे मुँह में रखेंगे, लगेगा कि इनके घर पर थ्री स्टार या फ़ाइव स्टार के तौर तरीक़ों से ही खाना खाया जाता होगा। और उन्हें भूले से घर में खाना खाते देख लें तो लगेगा कि सालों से भूखे बैठे थे और अभी अभी खाना नसीब हुआ है। सार्वजनिक जीवन और घरेलू जीवन में आदतें बदल जाती हैं। यही हाल सोशल मीडिया पर है, जो सार्वजनिक माना जाता है। वहाँ आप को ज़्यादातर तो यही लगता है कि देश तो सर्वसंपन्नगुण है, और उपदेश या ऐसी चीज़ों की ज़रूरत किसी और ग्रह के लिए होनी चाहिए!

महिला अधिकार के लिए रण मैदान में कूदने वाली महिलाएँ भी कम नहीं हैं। वे सुबह से शाम तक और शाम से रात तक महिला को परिपूर्ण दिखाने के लिए पुरुषों को झाड़ती रहती हैं। कभी कभी लगता है कि शुक्र है कि गन एप नहीं है, वर्ना सोशल मीडिया का संसार पुरुष विहिन हो जाता। दूसरी ओर महिलाओं को निशाना बनाने वाली प्रजाति भी कम मात्रा में नहीं है। दोनों अपने अपने तर्कों से एक दूजे को नीचा दिखाने की कोशिशें करते रहते हैं। सदियों से महिला तथा पुरुष के बीच चला आ रहा विवाद यहाँ भी चलता जाता है। लगता है कि किसी राजनीतिक दलों का टीवी डिबेट हो। मुद्दा कहीं घूमने चला जाता है और एक दूसरे को झाड़ने के लिए दोनों पक्ष रण मैदान में उतर आते हैं।
उधर किसी महिला के गुड मॉर्निंग जैसे स्टेटस को भी पसंद करने वाले, और जबरन कमेंट ठेलने वाले पुरुष महानुभावों की कमी भी नहीं रहती। उनका हर दिन का क्रम होता है कि गुड मॉर्निंग पर जाएँ, लाइक का बटन दबा दें और बदले में गुड मॉर्निंग भी लिख दें। फिर भले वो वक़्त दोपहर का क्यों न हो!

एक प्रजाति ऐसी भी है, जो हर सुबह किसी सुविचार के साथ एंट्री करती है। फिर किसी ब्रेकींग न्यूज़ पर जाती है। फिर शाम को सभी को नसीहतें देती है। और फिर रात को कहती है कि कल मिलेंगे। अगर मोबाइल में चार्जिंग ना हो या बिजली चली गई हो, तब इन्हें लगता है कि क़यामत का वक़्त आ गया। एक एक सेकंड एक एक साल का लगता है। कहा जाता है कि ये लोग घर के काम के लिए बाहर नहीं जाते, पर सोशल मीडिया के मित्र को मिलने उधार पैसे लेकर भी चले जाते हैं!

एक प्रजाति वो भी है, जो अपना डीपी बदल बदल कर समर्थन या श्रद्धांजलि के कर्तव्य का पालन भी कर लेती है। यह लोग 15 अगस्त और 26 जनवरी के दिन अपना डीपी ज़रूर बदल लेते हैं। साथ में किसी विशेष घटना के समय भी अपना डीपी बदलना नहीं भूलते। वे किसी काले, सफ़ेद या लाल पीले दिन पर डीपी परिवर्तन की प्रक्रिया ज़रूर निभा लेते हैं। समर्थन हो या विरोध हो, इनके पास डीपी बदल कर प्रतिक्रिया देने का अपना एक विशिष्ट तरीक़ा होता है।

एक प्रजाति वो है, जो डरा डरा कर लाइक या कमेंट में इज़ाफ़ा करने की प्रवृत्तियों में लगी रहती है! "जो इग्नोर करेगा, अगले 3 साल उसका कोई काम नहीं बनेगा""जो लाइक करेगा उसके बिगड़े काम बन जाएंगे""जो लाइक नहीं करेगा वो हिंदुस्तानी नहीं होगा""गद्दार ही होगा जो लाइक नहीं करेगा"... काफ़ी डरावने डरावने तरीक़ों से यह प्रजाति सोशल मीडिया के मैदान में कूदती रहती है।

बताया जाता है कि यहाँ पर 'टेगिये' और 'इनबोक्सिये' प्रकार की भी प्रजाति देखने के लिए मिल जाती है। 'टेगिये' नया लफ़्ज़ है। जो टेग टेग का खेल खेलते हैं, कुछ भी, कभी भी टेग करने की सार्वजनिक कृपा बरसाते हैं, उन्हें लोग विशेष स्नेह के चलते टेगिये कहकर बुलाते हैं। सुनने में आया है कि सेल्फ़ी और टेग, दोनों सोशल मीडिया की राष्ट्रीय समस्या घोषित कर दी गई है!

इनबोक्सिये वो प्रजाति है, जिन्होंने सोशल मीडिया को मैसेज सर्विस सेंटर घोषित करके रखा हुआ है। कहा जाता है कि ये लोग सेल्फ़ी, शायरी, टेग, कमेंट, ट्वीट, रीट्वीट, स्टेटस अपडेट जैसे अतिसंवेदनशील लफड़ों में नहीं जाते। वे तो बेचारे दूसरे लोगों के इनबोक्स में घुसा करते हैं। इसमें पुरुष प्रजाति विशेष रूप से बदनाम है। अच्छा है कि सोशल मीडिया में ऐसा कोई क़ानून नहीं है, वर्ना मानसिक उत्पीड़न के सैकड़ों मामले कोर्ट में चल रहे होते।
झूठा आईडी, झूठी तस्वीरें या झूठे वीडियो सोशल मीडिया का वो रंग है, जो सबसे ज़्यादा विख्यात है। देश धर्म परिवर्तन पर चर्चा करता है, किंतु यहाँ जाति परिवर्तन सर्वसामान्य प्रचलित फ़ैशन है! झूठी तस्वीरें और झूठे वीडियो हर कोई झेलता रहता है। देश डिजिटल बने या ना बने, अफ़वाहें डिजिटल ज़रूर बन चुकी हैं। यहाँ लोग जीते जी किसी अभिनेता को मार देते हैं।

'वायरल' के नाम से एक विशेष अलंकरण बनाया गया है। फ़ोटोशॉप या वीडियो एडिटिंग के विशेषज्ञ अपनी कला बिखेरते रहते हैं। ये वो प्रजाति है, जो औरों को इतना सक्रीय या प्रेरित कर देती है कि इन्हें 'सामूहिक सक्रीयता प्रेरक विशेषज्ञ' ही कहा जाना चाहिए। आँकड़े, तारीख़ और लंबे चौड़े पैरा उनकी ख़ासियत होती है। इन्हें इतिहास बनाना आता हो या ना आता हो, इतिहास बदल देना या उलट देना ज़रूर आता है।

जोक्स विशेष बुलेटिन वाली एक प्रजाति भी होती है। जो आप को कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक के जोक्स सुनाती है। कुल मिलाकर यहाँ हर रंग देखने के लिए मिल जाते हैं। ये प्रजातियाँ उन न्यूज़ चैनल्स के माफिक होती हैं। कुछ शायरी स्पेशल, कुछ सेल्फ़ी विशेषज्ञ, जोक्स एडिक्टेड, राजनीति विशेषज्ञ से लेकर सामाजिक सदभाव निष्णांत देखने के लिए मिल जाते हैं। कुछ 'ऑल इन वन' होते हैं। वे हर रंग बिखेरते हैं। सुविचार से लेकर विश्व के अर्थतंत्र तक को वो शाम तक झकझोर कर रख देते हैं।

सोशल मीडिया में राजनीतिक दलों को लेकर अपनी राय रखने वाली प्रजाति सबसे ज़्यादा सक्रिय होती है। किसी सरकार का बजट आ जाए तो विरोधी लोग इस बजट पर ऐसी ऐसी चर्चा करते हैं, लगता है कि वित्त मंत्री को इन्हीं से सलाह मशविरा करना चाहिए था। विरोधी इस बजट को ऐसा दिखा देते हैं, जैसे कि दूसरे दिन देश बर्बाद हो जाएगा। लगता है कि अगले दिन देश की तमाम व्यवस्था ख़त्म होने वाली हैं। जबकि समर्थक इतनी प्रशंसा कर देते हैं, जैसे कि रामायण या महाभारत काल के बाद पहली बार इतना अच्छा बजट आया हो। तर्कों के स्तर उनकी दलीलों को सार्वजनिक रूप से मजाकिया बना देते हैं।

सोशल मीडिया में सभी लोगों को एक आश बहुत ज़्यादा होती है कि वे तमाम मसलों पर विशेषज्ञ बन जाएँ। या फिर बन गए हैं ऐसा दिख जाएँ! सच्चाई तो यह है कि विशेषज्ञ कुछेक विषयों को लेकर बना जा सकता है। तमाम विषयों पर विशेषज्ञ बनना... ये कार्य तो सदियों में इक्का-दुक्का इंसान ही कर पाते हैं। लेकिन इस सत्यता को स्वीकार किए बगैर सभी यूज़र तमाम विषयों पर विशेषज्ञ बनने का दावा फेंकते नज़र आते हैं। दरअसल वे तमाम विषयों पर जानकारी ज़रूर रखते होते हैं। लेकिन तमाम विषयों पर पूरी जानकारी हो यह मुमकिन भी नहीं। लिहाज़ा कहा जा सकता है कि सारे विषयों पर जानकारी आधी अधूरी होती है। पूरी जानकारी तो इक्का-दुक्का विषयों पर ही होती है।

अगर इंसान अपनी आधी अधूरी जानकारी स्वीकार करके चले तब उसकी जानकारी पूरी हो उसकी संभावना ज़्यादा होती है। किंतु अगर वो इंसान अपनी उस आधी अधूरी जानकारी को विशेषज्ञ वाले फीलिंग पावर के साथ लें, तब दो ही बातें होती हैं। पहली, वो अपनी जगहंसाई करवाता रहता है। और दूसरी यह कि वो फिर कभी पूरी जानकारी तक पहुंच नहीं पाता। क्योंकि वो ख़ुद को विशेषज्ञ मान चुका होता है, और इसी वजह से उसे फीलिंग पावर वाला अनुभव होता रहता है कि उसे अब ज़्यादा जानकारी की ज़रूरत ही नहीं, या फिर वो दूसरों को आधा अधूरा मानता रहता है। जिसके चलते वो ख़ुद आधा अधूरा रह जाता है।
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में विशेषज्ञों को देखे तो उनमें विविधताएँ होती हैं। जैसा मसला वैसा विशेषज्ञ टीवी स्क्रीन पर होता है। विदेशनीति के विशेषज्ञ, अफ़ग़ान-भारत संबंधों के विशेषज्ञ, अमेरिका-भारत के विशेषज्ञ, टैक्स विशेषज्ञ, सामाजिक कल्याण के विशेषज्ञ, बाढ़ के विशेषज्ञ, सुरक्षा विशेषज्ञ, रक्षा विशेषज्ञ आदि आदि। लेकिन सोशल मीडिया में तो ये अनेक विविधता एकविविधता का रूप ले लेती है!!! इन तमाम भारी भरखम विषयों पर एक ही आदमी ऑल-इन-वन विशेषज्ञ बनता नज़र आता है! इसीका नतीजा है कि भारत में गूगल एक सर्च इंजिन न रह कर, पूरा का पूरा रॉकेट बन चुका है! बैडमिंटन हो या बलूचिस्तान हो, जीएसटी हो या जैव विशेषताएँ हो... सारी सेवाएँ एक ही दिमाग से उत्पन्न होती रहती हैं!!!

अपनी बातों को सही मानने वाले लोग दुनिया में होते हैं। सभी होते हैं। लेकिन उसकी ही बात सही है, ऐसा जबरन मनवाने वाले लोग सोशल मीडिया का बखूबी इस्तेमाल किया करते हैं।

ये लोग कश्मीर या पंजाब की सरहदों पर कुछ लिखते हैं। विषय के विरुद्ध कमेंट आता है। पोस्ट लिखने वाला उस कमेंट करने वाले को झाड़ता है और लिखता है कि कभी कश्मीर गए हो? कभी सरहद पर खड़े रहकर तनाव को झेला है? कमेंट लिखने वाले को तो यही लगता है कि लेखक (उसे झाड़ने वाला शख़्स) शायद बटालियन कमांडर होंगे। जबकि लेखक कभी अपने राज्य से बाहर गया ही नहीं होता! तफ़्तीश करें तो पाया जाता है कि कमेंट लिखने वाला एक फ़ौजी था, जो उन दिनों सरहद पर तैनात था। जबकि लेखक अपने राज्य से बाहर कभी गया ही नहीं था। ये लोग उसको भी नहीं छोड़ते और उनसे भी कह देते हैं कि सरहद पर जाकर तनाव झेलो और फिर लिखो!!!

एक एनडीआरएफ अफ़सर उत्तराखंड पर अपनी राय रखते हैं। लोग उसे यह भी कह देते हैं कि तुम रेस्क्यू को क्या जानो!!! यह प्रजाति स्वयं को परिपूर्ण मानती है और सोचती है कि लोगों को ज़मीनी जानकारी रखनी चाहिए। जबकि वे कभी राज्य से बाहर गए नहीं होते।

हम और आप जैसे लोग इसके उपभोक्ता हैं। अपनी मान्यताओं को सर्वश्रेष्ठ मानने की बीमारी हम में या आप में या औरों में सर्वसामान्य है। अपनी अपनी मानसिकता के हिसाब से इस प्लेटफॉर्म को सजाने या संवारने की कोशिशें आम बात है। अब इसे आप रेलवे प्लेटफॉर्म जैसा माहौल नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे। कभी कभी एयरपोर्ट का प्लेटफॉर्म भी देखने के लिए मिल जाता है। शुक्र है कि प्लेटफॉर्म तो बना हुआ है। किसी बस अड्डे से तो ज़्यादा अच्छा ही है!

हमने तो लिखकर आत्मसंतोष प्राप्त कर लिया। लेकिन दूसरों को झाड़ने का संतोष नहीं, बल्कि उस मूलभूत चीज़ का संतोष। कहा जाता है कि दूसरों की बुराई देखने से पहले ख़ुद की बुराई देखनी चाहिए। हम हमारी सरकारी व्यवस्थाओं या अन्य व्यवस्थाओं पर धड़ल्ले से लिखते हैं। लेकिन हमारे हाथ में जो व्यवस्थाएँ हैं, उसकी हालत हम सभी ने मिलकर कैसी कर दी है उस पर कम ही लिखते हैं। हमारे द्वारा ही निर्मित ऐसी नकारात्कता का आलेखन आत्मसंतोष ज़रूर प्रदान कर गया। क्योंकि दूसरों पर वार करते करते हम सभी की सर्वसामान्य रूप से प्रचलित बुराइयों को भी देख लेना कोई बुरा रवैया तो नहीं।

(इनसाइड इंडिया, एम वाला)