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Non Indian Sweets : कुछ मिठाइयाँ जो भारत की नहीं हैं, किंतु यहीं की बनकर रह गई



नोट : नीचे दी गई जानकारी भारतीय खाने और पाक कला से संदर्भ रखने वाली पुस्तकें तथा प्रमाणित व विश्वसनीय कहे जानेवाले लेखों से इक्ठ्ठा की गई है। 

स्वादिष्ट खाना बनाना एक कला है, इसी कारणवश भारतीय संस्कृति में इसे पाक कला कहा गया है। स्वादिष्ट भोजन के भीतर भारत को चाहिए लज़ीज़ मिठाइयाँ। भारतीय खाना बिना मिठाई के अधूरा ही माना जाता है। यूँ कहे कि भारत में भोजन के समय मिठाई परोसना एक परंपरा है। हम ऐसी कई मिठाइयाँ खाते हैं, जिन्हें हम यहीं की मानते हैं। लेकिन कुछेक मिठाइयाँ ऐसी भी हैं, जो हमारे भारत की नहीं है। ऐसी कितनी मिठाई हैं यह हमें नहीं पता। नोट में जैसे सूचित किया वैसे जितनी विश्वसनीय जानकारी हम इक्ठ्ठा कर पाए, हम यहाँ इसे आपके साथ साझा करते हैं।

सभ्यताओं के खाने पर शोध करने वाले लोग बताते हैं कि मिडिल ईस्ट और अरब देशों से कई व्यापारी भारत आए और साथ ही कई लज़ीज़ मिठाइयों की रेसिपीज़ भी ले आए। बाद में भारत ने अपने हिसाब से उसमें परिवर्तन किए और उन मिठाइयों को भारतीय स्पर्श दिया। दरअसल उस दौर में एकदूसरे से बहुत ही भिन्न सभ्यताओं ने खान-पान से लेकर कई अन्य चीज़ों में आदान-प्रदान किए थे। शायद आज भी ऐसा ही है। और यही मानव सभ्यताओं की प्रगति का एक मूल है। आइए जानते हैं ऐसी कुछ मिठाइयों के बारे में, जो आई थीं बाहर से, लेकिन यहीं की होकर रह गईं...

गुलाब जामुन
नाम सुनकर ही मुँह में पानी आने लगता है। यह वो मिठाई है जो भारत की लगभग तमाम सभ्यताओं में व्याप्त है। इसके बिना भारत में हर जश्न अधूरा सा है। दिवाली में तो गुलाब जामुन अनिवार्य ढंग से डिश में होना ही चाहिए। भारत में बहुत ही लोकप्रिय इस डिश का मूल है पर्शिया। गुलाब जामुन ईरान से आया है। इस मिठाई के नाम में ही पर्शियन भाषा है। गुल का मतलब होता है फूल या गुलाब का फूल और अब (आब) का मतलब है पानी। इस मिठाई का पर्शियन वर्जन लुक़मत अल क़ादी नाम से जाना जाता है, जिसे हम गुलाब जामुन कहते हैं।

यह मिठाई भारत के अलावा पाकिस्तान, श्रीलंका, नेपाल और बांग्लादेश जैसे भारतीय उपमहाद्वीप के देशों में लोकप्रिय है। नेपाल में इसे व्यापक रूप से रसबरी के रूप में जाना जाता है, जिसे दही के साथ या बिना दही के भी परोसा जाता है। जिस समय यह भारत आया उस समय कुछ लोग शक्कर की चाशनी को ख़ुशबू देने के लिए उसमें गुलाब की पंखुड़ियाँ मिलाते थे। गुलाब के बाद जामुन की सही कहानी को हमने ज़्यादा ढूंढा नहीं है, लेकिन एक कहानी इस मिठाई के जामुन जैसे आकार को लेकर कुछ कहती है। भारत में गुलाब जामुन के दूसरे नाम भी हैं, जैसे कि लेडिकेनी, पांटा, कटंगी या लाल मोहन।

जलेबी
इस मिठाई को देखकर ही मुँह और मन दोनों प्रफुल्लित हो जाते हैं। भारत के अलावा यह पाकिस्तान, बांग्लादेश और ईरान के साथ-साथ तमाम अरब मुल्कों का भी एक लोकप्रिय व्यंजन है। वैसे तो यह मिठाई भारत की राष्ट्रीय मिठाई सरीखी है, लेकिन जलेबी भारतीय मिठाई नहीं है। यह विदेश से आई मिठाई है, जो आज भारत के हर कोने में फेमस है।

जलेबी मूल रूप से मिडिल ईस्ट की देन है। शोधकर्ताओं के मुताबिक़ 13वीं या 14वीं शताब्दी में मिडिल ईस्ट के व्यापारी इसे भारत लेकर आए थे। मध्यकालीन किताब 'किताब-अल-तबीक' में 'जलाबिया' नामक मिठाई का उल्लेख मिलता है, जिसका उद्भव पश्चिम एशिया में हुआ था। एक दावे के मुताबिक़ तुर्की आक्रमणकारी भारत आए तो साथ में जलेबी भी आई। 10वीं शताब्दी की अरेबिक पाक कला पुस्तक में 'जुलुबिया' बनाने की कई रेसिपीज़ का उल्लेख मिलता है। 17वीं शताब्दी की 'भोजनकुटुहला' नामक किताब और संस्कृत पुस्तक 'गुण्यगुणबोधिनी' में जलेबी के बारे में लिखा गया है।

पर्सियन में इसे जलीबियां और अरब में इसे जलाबियां कहा जाता है। हमारे पड़ोसी नेपाल में जलेबी को जेरी कहते हैं। ईरान में जलेबी को जुलाबिया या जुलुबिया नाम से जाना जाता है। लीबिया-अल्जीरिया-ट्यूसिनिया में जलबिया कहते हैं। मध्य प्रदेश के इंदौर शहर में तो भारी वजन की एक जलेबी मिलती है। इमरती जलेबी की ही रिश्तेदार है, जिसकी सूरत और बनाने का तरीक़ा बस थोड़ा सा ही अलग है। आमतौर पर तो जलेबी सादी ही बनाई व पसंद की जाती है, लेकिन पनीर या खोया जलेबी को भी लोग बड़े चाव से खाते हैं। भारत में जलेबी नोर्थ इंडिया में बहुत प्रसिद्ध है, जहाँ इसे दही या रबड़ी के साथ खाया जाता है।

फिरनी
फिरनी दूध से बनने वाली लज़्ज़तदार मिठाई है। फिरनी यानी पिसे हुये चावलों की खीर, जिसमें आप अपने मनपसन्द सूखे मेवे डालते हैं। शोधकर्ताओं के मुताबिक़ फिरनी या तो मिडिल ईस्ट से आई थी या फिर प्राचीन पर्शिया से। भारत में फिरनी को मुग़ल ले आए। अफ़ग़ानिस्तान, ईरान और अज़रबैजान में यह बहुत ही लोकप्रिय व्यंजन है। फिरनी का इतिहास कैलेंडर से भी पुराना है।  

दूध संग पीसे हुए चावल और चीनी का तालमेल कुछ यूँ बैठता है कि फिरनी का स्वाद चखने वाले इसे ताउम्र नहीं भुला पातें। हालाँकि यह एक तरह की खीर ही है, लेकिन इसका स्वाद और टेक्सचर इसे साधारण खीर से अलग बनाता है। सूखे मेवों से लबालब और इलायची की ख़ुशबू समेटे फिरनी को बिलकुल ठंडा कर बहुत ही प्यार से 'मठ्ठों' में, यानी कि मिट्टी के बर्तनों में परोसा जाता है। केसर फिरनी का लज़ीज़ स्वाद हर किसीको ललचाता है। रमज़ान, ईद-उल-अजहा जैसे मुस्लिम त्यौहारों के साथ ही इसे कई ग़ैर मुस्लिम त्यौहारों में भी शामिल कर लिया गया है। कई हिंदु मंदिरों में यह प्रसाद के रूप में इस्तेमाल होने वाली मिठाई है।

कलाकंद
इस मिठाई का मूल अरब से है। अरेबिक भाषा में कंद का अर्थ होता है मीठा। कलाकंद नोर्थ, साउथ और ईस्ट इंडिया में बहुत ही फेमस है। होली, ईद, नवरात्रि या दिवाली जैसे त्यौहारों पर इसे बनाया जाता है। कलाकंद का पश्चिमी वर्जन अजमेरी कलाकंद के नाम से जाना जाता है। कलाकंद को भारत में दूध की केक, कालाकंद या मिसरी मेवा के नाम से भी जाना जाता है।

कलाकंद एक प्रकार का पकवान है, जो दूध और छेने से बनाया जाता है। राजस्थान के अलवर में कलाकंद काफी लोकप्रिय है, जहाँ इसे अलवर का मावा भी कहा जाता है। सूखे मेवों के साथ इसे सजाया जाता है। कटे पिस्ता और बादाम से लबालब कलाकंद हर किसीको लुभाने वाली मिठाई है।

सेवई या सेवइयां
सेवई या संथकई दक्षिण भारत में बहुत प्रसिद्ध है। ख़ासकर तमिलनाडु (कोंगुनाडु क्षेत्र) और कर्नाटक में। यह एक प्रकार के चावल से बने नूडल होते हैं। इस मिठाई का मूल है मिडिल ईस्ट। मुग़ल इसे भारत ले आए थे। अरबी में इसे शेरएया कहते हैं। दक्षिणी भारत में इसे पायसम या खीर भी कहते हैं। भारत में सेवई को सेवइयां, संथकई या सिमईयां भी कहते हैं। तमिलनाडु के पश्चिमी भागों में सेवई को संथकई कहते हैं। कन्नड़ में इसे शाविगे कहते हैं। साधारण बोलचाल में लोग सेवई के लिए इडियप्पम और सेमिया (वर्मीसेली) शब्दों का इस्तेमाल भी करते हैं, हालाँकि ये खाद्य पदार्थ कई मायनों में सेवई से भिन्न होते हैं।

हलवा
आटा, सूजी और घी, मक्खन, चीनी आदि से बनी यह मिठाई समूचे भारत में लोकप्रिय है, जिसके ऊपर सूखे मेंवें से गार्निश किया जाता है। साथ ही इसके रंग-रूप, बनाने का तरीक़ा भारत में अपने-अपने हिसाब से मिल जाएगा। इस मिठाई का मूल भी मिडिल ईस्ट ही है। अरबी भाषा में इसे हलवाहा कहते हैं, जिसका अर्थ होता है मीठाश। केरल प्रांत में हलवा को अलुवा कहा जाता है।

दरअसल यह मिठाई अनेक देशों में अपने अपने तरीक़े से लोग बनाते और खाते हैं। हलवा गाजर, चुकंदर, रतालू, कद्दू, लौकी आदि वनस्पतियों के इस्तेमाल से भी बनता है। चना दाल का भी हलवा होता है और मूंग दाल का भी। मिडिल ईस्ट से आई यह मिठाई भारत में इस कदर लोकप्रिय है कि आज भी जब भारत सरकार बजट पेश करती है तो पहले हलवा बनाने और खाने की रस्म है, फिर भले तरीक़ा थोड़ा अलग क्यों न हो। 

डबल का मीठा या शाही टुकड़ा
ब्रेड, दूध, चीनी और क्रीम से बनी यह मिठाई डबल का मीठा इसलिए कही जाती है, क्योंकि इसके ऊपर और नीचे ब्रेड की एक-एक पर्त होती है। एक ज़मानें में यह शाही लोग खाते थे, जिस वजह से इसे शाही टुकड़ा भी कहा जाता है। इसमें केसर और इलायची का उपयोग भी अच्छे स्वाद और सुगंध के लिए होता है।

डबल का मीठा या फिर शाही टुकड़ा, इस मिठाई का मूल इजिप्त है। भारत में यह मिठाई हैदराबाद में बहुत फेमस है। भारत में इस मिठाई का संबंध मुग़लाई खाने से है। इस रेसिपी में ब्रेड के टुकड़ो को कुरकुरा होने तक घी में तला जाता है (या सेका जाता है) और फिर उन्हें केसर और इलायची वाली चाशनी में डुबोकर ऊपर से रबड़ी डाली जाती है।

फ़ालूदा
फ़ालूदा भारतीय उपमहाद्वीप में एक ठंडी मिठाई के रूप में बहुत लोकप्रिय है। परंपरागत रूप से यह गुलाब सिरप, सेवई, मीठी तुलसी के बीज और दूध के साथ जेली के टुकड़ों को मिलाकर बनाया जाता है, जो अक्सर आइसक्रीम के एक स्कूप के साथ सबसे ऊपर रहता है।

इस बेहद ही लज़ीज़ व्यंजन का मूल पर्शिया से मिलता है। पर्शियन लोग इसे फ़ालूदाह कहते हैं। शोधकर्ताओं के मुताबिक़ फ़ालूदा 16वीं या 18वीं शताब्दी में मुस्लिम व्यापारियों और राजवंशों के द्वारा भारत में लाया गया था। भारत में मुग़ल साम्राज्य ने इसे काफी बढ़ावा दिया। मलेशिया और सिंगापुर में इसे बोनडंग, थाईलैंड में नाम मंगलक, इराक में कूर्दज, पश्चिमी एशिया में बबल टी, मॉरीशस में अलौदा आदि नामों से जाना जाता है।

मिठाइयों के अलावा आलू, टमाटर, चुकंदर, फूलगोभी, प्याज़, शिमला मिर्च या फिर मकई, लौकी जैसी कई सब्ज़ियाँ हैं, जो कहीं दूर से आई और भारत की बनकर रह गई। ठीक वैसे जेसे कई भारतीय चीज़ें, स्वाद, व्यंजन बाहर गए और वहीं के बनकर रह गए।

लास्ट अपडेट मार्च 2020

(इनसाइड इंडिया, एम वाला)