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Prime Ministers of India: भारत के प्रधानमंत्रियों की सूची और उनके कार्यकाल के बारे में संक्षिप्त जानकारी (पार्ट 2)

 
भारत की स्वतंत्रता से अब तक 14 व्यक्ति बतौर प्रधानमंत्री सेवा दे चुके हैं, जबकि 1 व्यक्ति बतौर कार्यकारी प्रधानमंत्री के रूप में दो बार उत्तरदायित्व निभा चुका है। प्रधानमंत्री देश का प्रतिनिधि और भारतीय सरकार का मुख्य कार्यकारी अधिकारी होता है। प्रधानमंत्री संसद में बहुमत प्राप्त पार्टी का नेता होता है। ये देश के राष्ट्रपति का मुख्य सलाहकार होने के साथ ही मंत्रीपरिषद का मुखिया भी होता है। भारत का प्रधानमंत्री कार्मिक, लोक शिकायत, पेंशन, आणविक ऊर्जा विभाग, अंतरिक्ष विभाग, नियोजन मंत्री और कैबिनेट की नियुक्ति कमेटी का प्रभारी आदि होता है। वो मंत्रीपरिषद का निर्माण, विभागों का बँटवारा, कैबिनेट कमेटी के अध्यक्ष, मुख्य नीति संयोजक तथा राष्ट्रपति के सलाहकार का कार्य करता है।
 
भारत में अब तक 2 कार्यकारी प्रधानमंत्री बने हैं। दोनों बार गुलज़ारी लाल नंदा ही कार्यकारी प्रधानमंत्री बने थे। सबसे लंबे समय तक प्रधानमंत्री रहने का रिकॉर्ड जवाहरलाल नेहरू के नाम हैं, जो 16 साल और 286 दिनों तक भारत के प्रधानमंत्री पद पर आसीन रहे। इंदिरा गांधी 15 साल और 354 दिनों के लिए इस पद पर बनी रहीं। डॉ. मनमोहन सिंह 10 साल तक इस पद पर रहे।

सबसे वयोवृद्ध प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई (81 साल की उम्र में) थे। राजीव गांधी सबसे कम उम्र में (41 वर्ष की आयु में) प्रधानमंत्री बने। नरेंद्र मोदी एकमात्र और पहले प्रधानमंत्री हैं, जो स्वतंत्रता के बाद जन्मे हो। अब तक 7 प्रधानमंत्री भारत रत्न से सम्मानित हो चुके हैं। इंदिरा गांधी भारत की पहली और अब तक की एक मात्र महिला प्रधानमंत्री हैं। वे 3 बार (देखा जाए तो 4 बार) देश की प्रधानमंत्री बनीं।
 
चंद्रशेखर
10 नवम्बर, 1990 - 21 जून, 1991 (जनता दल-एस), बलिया लोकसभा सीट
युवा तुर्क के नाम से मशहूर चंद्रशेखर। एक ऐसा नेता, जो सीधा प्रधानमंत्री बना। प्रधानमंत्री रहते हुए भी वे कभी अपने सरकारी घर 7 रेसकोर्स रोड पर नहीं रहे। बजाय इसके वे 3 साउथ एवेन्यू वाले घर पर रहा करते थे। ख़ूब पैदल चलने के आदी चंद्रशेखर प्रधानमंत्री होने के बावजूद खेतों में चले जाते थे। तीखे तेवर के चंद्रशेखर संसदीय भाषणों में दिग्गजों को भी खरी खरी सुनाने से परहेज़ नहीं करते थे। बतौर प्रधानमंत्री इनके आर्थिक सलाहकार डॉ. मनमोहन सिंह थे। भारत के ऐसे प्रधानमंत्री, जिन्हें लाल क़िले से झंडा फहराने का मौक़ा ही नहीं मिल पाया।
 
चंद्रशेखर सिंह का जन्म 1 जुलाई 1927 को उत्तर प्रदेश के बलिया ज़िले में स्थित इब्राहिमपट्टी गाँव के एक किसान परिवार में हुआ था। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान में अपनी मास्टर डिग्री करने के बाद वे समाजवादी आंदोलन में शामिल हो गए। इन्हें आचार्य नरेंद्र देव के साथ बहुत निकट से जुड़़े होने का सौभाग्य प्राप्त था।
 
चंद्रशेखर का विवाह श्रीमती दूजा देवी से हुआ। 1965 से कांग्रेस के साथ जुड़े रहे, वहीं 1977 से 1988 तक जनता पार्टी के अध्यक्ष रहे। वे दिल्ली से प्रकाशित साप्ताहिक पत्रिका यंग इंडियन के संस्थापक एवं संपादक थे। आपातकाल के दौरान यंग इंडियन को बंद करा दिया गया था। फ़रवरी 1989 से इसका पुनः नियमित रूप से प्रकाशन शुरू हुआ।
 
वे जयप्रकाश नारायण के क़रीब आने लगे थे। इस वजह से वे ज़ल्द ही कांग्रेस पार्टी के भीतर असंतोष का कारण बन गए। आपातकाल घोषित किए जाने के समय आंतरिक सुरक्षा अधिनियम के तहत इन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया, जबकि उस समय वे कांग्रेस के शीर्ष निकायों, केंद्रीय चुनाव समिति तथा कार्य समिति के सदस्य थे। चंद्रशेखर सत्तारूढ़ पार्टी के उन सदस्यों में से थे जिन्हें आपातकाल के दौरान गिरफ़्तार कर जेल भेज दिया गया था।
 
आपातकाल के दौरान जेल में बिताए समय में इन्होंने हिंदी में एक डायरी लिखी थी, जो बाद में मेरी जेल डायरी के नाम से प्रकाशित हुई। सामाजिक परिवर्तन की गतिशीलता उनके लेखन का एक प्रसिद्ध संकलन है।
 
चंद्रशेखर ने 6 जनवरी 1983 से 25 जून 1983 तक दक्षिण के कन्याकुमारी से नई दिल्ली में राजघाट (महात्मा गाँधी की समाधि) तक लगभग 4260 किलोमीटर की मैराथन दूरी पैदल (पदयात्रा) तय की थी।
 
वीपी सिंह की सरकार गिरने के बाद इन्होंने 10 नवंबर 1990 को भारत के प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली। जिस कांग्रेस का विरोध करके जनता दल सत्ता में आया था, उसी के समर्थन से चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बन गए। लेकिन ये सरकार ज़्यादा दिन नहीं चली। महज़ तीन महीने बीते थे कि 5 मार्च 1991 के दिन कांग्रेस ने चंद्रशेखर सरकार से समर्थन वापस ले लिया। कांग्रेस का आरोप था कि सरकार उनके नेता राजीव गांधी की जासूसी करवा रही है। अल्पमत में आने के बाद चंद्रशेखर को 6 मार्च 1991 को इस्तीफ़ा देना पड़ा। फलस्वरूप देश में नए चुनाव हुए। इन चुनावों के दौरान ही राजीव गांधी की हत्या हो गई। नये प्रधानमंत्री राव के शपथ लेने तक चंद्रशेखर कार्यकारी प्रधानमंत्री के रूप में काम करते रहे।
 
1995 में इन्हें सर्वोत्कृष्ट सांसद का पुरस्कार भी दिया गया। 8 जुलाई 2007 के दिन दिल्ली स्थित अपोलो अस्पताल में इनका निधन हो गया।
 
पीवी नरसिंह राव
21 जून, 1991 - 16 मई, 1996  (कांग्रेस-आई), नांदयाल लोकसभा सीट
एक दर्जन से ज़्यादा भाषाओं के जानकार नरसिंह राव कभी चाणक्य के नाम से भी जाने गए। जो शख़्स राजनीति को अलविदा कहने जा ही रहा था, तभी नियति ने कुछ ऐसा खेल खेला कि वे देश के प्रधानमंत्री बने। वे बहुत ही मुश्किल परिस्थितियों में देश के प्रधानमंत्री बने और आज़ाद भारत के सबसे बड़े और एतिहासिक आर्थिक बदलाव को लागू किया। एक ऐसा बदलाव, जिसने भारत को हरेक स्तर पर सदैव के लिए बदल दिया।
 
श्री पी. रंगा राव के पुत्र पीवी नरसिंह राव का जन्म 28 जून, 1921 के दिन करीमनगर में हुआ था। इन्होंने हैदराबाद के उस्मानिया विश्वविद्यालय, मुंबई विश्वविद्यालय एवं नागपुर विश्वविद्यालय से अपनी पढ़ाई की। इनकी पत्नी का नाम सत्यम्मा राव था।
 
पेशे से कृषि विशेषज्ञ एवं वकील नरसिंह राव ने राजनीति में आने के बाद अनेक महत्वपूर्ण विभागों का कार्यभार संभाला। वे आंध्र प्रदेश सरकार में अलग अलग समय के दौरान क़ानून एवं सूचना मंत्री, क़ानून एवं विधि मंत्री, स्वास्थ्य एवं चिकित्सा मंत्री तथा शिक्षा मंत्री रहे। वे 1971 से 73 तक आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री थे। वे केंद्र में अलग अलग अवधि के दौरान देश के विदेश मंत्री, गृह मंत्री तथा रक्षा मंत्री भी रहे। इन्होंने योजना मंत्रालय का अतिरिक्त प्रभार भी संभाला। 25 सितम्बर 1985 से इन्होंने मानव संसाधन विकास मंत्री के रूप में पदभार संभाला। इसी साल शिक्षा मंत्रालय का नाम बदलकर मानव संसाधन विकास मंत्रालय किया गया था।
 
राव विशेष गुट निरपेक्ष मिशन के भी नेता रहे, जिसने फ़िलिस्तीनी मुक्ति आंदोलन को सुलझाने के लिए नवंबर 1983 में पश्चिम एशियाई देशों का दौरा किया था। वे नई दिल्ली सरकार के राष्ट्रमंडल प्रमुखों एवं सायप्रस संबंधी मामले पर हुई बैठक द्वारा गठित कार्य दल के साथ सक्रिय रूप से जुड़े हुए थे।
 
कांग्रेस पार्टी ने पीवी नरसिंह राव को 1991 के चुनावों में चुनाव लडऩे के लिए टिकट नहीं दिया था। वे राजनीति व दिल्ली को अलविदा कह रहे थे, लेकिन तभी परिस्थितियाँ बदलीं। राजीव गांधी की हत्या हो गई और इन्हें रोककर वापस बुला लिया। नेतृत्वविहीन हुई कांग्रेस के लिए कामचलाऊ नेता के रूप में पीवी नरसिंह राव का चयन कर लिया गया।
 
देश के प्रधानमंत्री के रूप में इन्होंने 21 जून 1991 को शपथ ग्रहण किया। यह भारत के लिए वह समय था जब देश अभूतपूर्व आर्थिक हालातों से जूझ रहा था। बहुत ही मुश्किल आर्थिक हालातों में इन्होंने देश की कमान संभाली। इन्हें एक ऐसे आर्थिक संकट का सामना करना था, जो इससे पहले देश में कभी नहीं आया था।
 
जंग लड़नी होती तो दिक्कत नहीं थी, किंतु संकट आर्थिक था। इसके लिए इन्हें फ़ैसला लेना था। देश के लिए उस समय प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री, दो ओहदे ही महत्वपूर्ण लगने लगे थे। वित्त मंत्री के लिए शख़्स की खोज की जाने लगी। और आख़िरकार एक ऐसा शख़्स मिला। वे डॉ. मनमोहन सिंह को बतौर वित्त मंत्री ले आए और भारत में अर्थतंत्र की समूची दिशा बदलने वाले फ़ैसले लागू किए, जिसे ग्लोबलाइजेशन पॉलिसी भी कहा जाता है।
 
यह आज़ाद भारत के इतिहास का सबसे बड़ा आर्थिक बदलाव था। इस नीति और बदलाव का काफ़ी विरोध हुआ, किंतु नरसिंह राव ने अपने वित्त मंत्री पर इसका प्रभाव पड़ने नहीं दिया। वैश्वीकरण और उदारवाद की नीति लागू हुई। इसके बाद भारत में हरेक स्तर पर इसने काफ़ी कुछ बदल दिया। लाइसेंस राज की समाप्ति इन्हीं के कार्यकाल में हुई। ऐतिहासिक आर्थिक सुधार के अलावा पंजाब से आतंकवाद का सफाया तथा जम्मू कश्मीर में सफलतापूर्वक चुनाव कराना इनकी उपल्धियों में शामिल हैं।
 
देश को सबसे बड़े आर्थिक संकट से निकालने वाले, वैश्वीकरण जैसा ऐतिहासिक बदलाव प्रदान करने वाले प्रधानमंत्री नरसिंह राव की सरकार अगर भ्रष्टाचार के आरोपों में न घिरती तो फिर इस प्रधानमंत्री का औरा कुछ और ही होता। उन पर प्रधानमंत्री के रूप में भ्रष्टाचार के आरोप लगे। सेंट किट्स कांड, हर्षद मेहता कांड, झारखंड मुक्ति मोर्चा कांड, हवाला कांड (जैन डायरीज़ केस), यूरिया घोटाला या पुरुलिया शस्त्र कांड में उनकी सरकार की कथित भूमिका के चलते उनके ख़िलाफ़ माहौल बनने लगा। वहीं 1992 में देश में बाबरी मस्जिद का विध्वंस हुआ। इसमें उनकी भूमिका पर भी लोगों ने कई प्रकार की टिप्पणियाँ कीं।
 
वे 21 मई 1996 तक देश के प्रधानमंत्री रहे। 23 दिसंबर 2004 के दिन दिल का दौरा पड़ने से वे एम्स में दिवंगत हुए।
 
अटल बिहारी वाजपेयी
16 मई, 1996 - 1 जून, 1996 (भारतीय जनता पार्टी), लखनौ लोकसभा सीट
19 मार्च, 1998 - अप्रैल 1999 (भारतीय जनता पार्टी), लखनौ लोकसभा सीट
13 अक्तुबर 1999 - 22 मई 2004 (भारतीय जनता पार्टी), लखनौ लोकसभा सीट
नेहरू से लेकर मनमोहन सिंह तक के ज़माने का अनूठा राजनीतिक दस्तावेज़ यानी अटल बिहारी वाजपेयी। 1957 में जब बलरामपुर से चुन कर पहली बार लोकसभा पहुंचे तब पंडित नेहरू देश के पीएम थे। 2006 में जब इन्होंने राजनीति से सन्यास लिया तब मनमोहन सिंह के पास देश की बागडोर थी। वे स्वयं तीन बार देश के प्रधानमंत्री बने।
 
वाजपेयी राजनीति के क्षेत्र में चार दशकों तक सक्रिय रहे। ज़्यादातर जीवन विरोध की राजनीति में ही गुज़रा। लेकिन कमाल यह कि जिसका जीवन विरोध की राजनीति में ही गुज़रा हो वो ख़ुद किसी का विरोधी नहीं रहा और ना ही कोई उसका विरोधी रहा। वह लोकसभा में नौ बार और राज्य सभा में दो बार चुने गए, जो अपने आप में ही एक कीर्तिमान है।
 
वाजपेयी का जन्म 25 दिसंबर, 1924 के दिन मध्य प्रदेश के ग्वालियर में एक शिक्षक के परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम कृष्ण बिहारी वाजपेयी था। वाजपेयीजी ने अपना करियर पत्रकार के रूप में शुरू किया और 1951 में भारतीय जन संघ (हाल में बीजेपी) में शामिल होने के बाद इन्होंने पत्रकारिता छोड़ दी। वाजपेयी अपने भाषणों के लिए ख़ूब जाने जाते रहे। वे कवि भी थे। वे आजीवन अविवाहित रहे।
 
इन्होंने तीन बार देश के प्रधानमंत्री के पद के लिए शपथ ली। पहली दो पारी के लिए वे बहुत कम समय के लिए प्रधानमंत्री रहे। तीसरी बार इन्होंने अपना पाँच वर्षों का कार्यकाल सफलतापूर्वक पूरा किया। नेहरू, इंदिरा के बाद वह तीसरे प्रधानमंत्री हैं, जो तीन बार इस पद पर पहुंचे। प्रधानमंत्री बनने से पहले वे विदेश मंत्री तथा संसद की विभिन्न महत्वपूर्ण स्थायी समितियों के अध्यक्ष रहे। विपक्ष के नेता के रूप में इन्होंने अपनी एक अलग छाप छोड़ी। 1994 में इन्हें भारत का सर्वश्रेष्ठ सांसद चुना गया था। वह पहले विदेश मंत्री थे, जिन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी में भाषण दिया था।
 
16 मई 1996 के दिन पहली बार वे देश के प्रधानमंत्री बने। बहुमत सिद्घ करने के लिए बहस के दौरान ही वे समझ गए कि संसद का बहुमत उनके ख़िलाफ़ है। अत: इन्होंने मत विभाजन से पूर्व ही इस्तीफ़ा दे दिया। बीच में एचडी देवगौड़ा और आईके गुजराल ने प्रधानमंत्री पद संभाला। बाद में 19 मार्च 1998 को अटलजी फिर से देश के प्रधानमंत्री बने। अप्रैल 1999 में जयललिता ने अपना समर्थन वापस ले लिया। अक्टूबर 1999 में पुन: चुनाव हुए। तब तक अटलजी कार्यकारी प्रधानमंत्री रहे।
 
इस दौरान वाजपेयी की सरकार ने राजस्थान के पोखरण में 11 मई 1998 को पाँच परमाणु परीक्षण किए। 13 अक्टूबर 1999 को राष्ट्रपति केआर नारायणन ने अटल बिहारी वाजपेयी को पुन: प्रधानमंत्री की शपथ दिलाई।
 
बतौर प्रधानमंत्री इन्होंने भारत और पाकिस्तान के रिश्ते सहज बनाने का प्रयास किया। किंतु पाकिस्तान के सैनिक शासक परवेज़ मुशर्रफ़ के साथ उनकी आगरा शिखर वार्ता सफल नहीं रही। उन्हीं के शासनकाल के दौरान पाकिस्तान ने कारगिल पहाड़ियों पर नियंत्रण कर लिया, जिसके बाद दुश्मन को हटाने के लिए बड़ा सैन्य संघर्ष हुआ। कारगिल संघर्ष में देश ने बड़ी क्षति उठाकर स्थिति पर नियंत्रण पाया। कारगिल संघर्ष की तुलना भारत-चीन युद्ध से हुई।
 
वाजपेयी सरकार कंधार विमान हाईजैक जैसी घटना की साक्षी रही। पाकिस्तान समर्थित आतंकवादियों ने 24 दिसंबर, 1999 को इंडियन एयर लाइंस के विमान- 814 का अपहरण कर लिया। 152 यात्रियों को बंधक बना लिया गया, जिसमें कुछ यात्री विदेशी थे। विमान को आतंकवादी कंधार यानी अफ़ग़ानिस्तान ले गए। तब वह देश तालिबानियों के कब्ज़े में था। इस घटना के फलस्वरूप भारत सरकार को भारत की जेल में बंद मौलाना मसूद अज़हर समैत तीन आतंकवादियों को रिहा करना पड़ा।
 
भारतीय संसद पर आतंकवादी हमला भी वाजयेपी के कार्यकाल में ही हुआ। तहलका कांड भी हुआ। इन्हीं के काल के दौरान देश में निजीकरण को उस रफ़्तार तक बढ़ाया गया, जहाँ से वापसी की कोई गुंजाइश नहीं बची। संविधान समीक्षा आयोग का गठन इनकी ही सरकार ने किया था, जिसका विरोध तत्कालीन राष्ट्रपति केआर नारायणन तक ने किया था। जातिवार जनगणना पर रोक, राजकुमारी कौल के साथ उनका रिश्ता और बिना किसी अधिकार के उनका प्रधानमंत्री आवास पर वाजपेयी के साथ रहना जैसे विवाद इनके साथ सदैव के लिए जुड़ गए।
 
भारत भर के चारों कोनों को सड़क मार्ग से जोड़ने के लिए स्वर्णिम चतुर्भुज परियोजना अटलजी के कार्यकाल में शुरु हुई। राजीव गांधी के बाद संचार क्रांति के दूसरे सबसे बड़े चरण की शुरुआत इनके काल में ही हुई। संसद हमले के बाद पोटा क़ानून लागू हुआ। हालाँकि दुरुपयोग के मामले बढ़ने के बाद अगली सरकार ने इसे निरस्त कर दिया। गुजरात में गोधरा दंगों के बाद इन्होंने गुजरात के तत्कालीन सीएम को राजधर्म निभाने की सलाह दी थी। इन्होंने सर्व शिक्षा अभियान की शुरुआत की।
 
वाजपेयी का व्यक्तित्व ऐसा रहा जिन्हें सभी सम्मान देते रहे। उनकी वक्तृत्व शैली का सभी लोग लोहा मानते रहे। वे जितने प्रखर वक्ता थे, उतने ही हाज़िरजवाबी थे। इन्हें 2015 में भारत रत्न से सम्मानित किया गया। 16 अगस्त 2018 के दिन नई दिल्ली के एम्स अस्पताल में इनका निधन हुआ।
 
एच डी देवगौड़ा
1 जून 1996 - 21 अप्रैल 1997 (जनता दल), कर्णाटक से राज्यसभा सदस्य
एक नाटकीय घटनाक्रम ने इन्हें देश का प्रधानमंत्री बनाया। इनका पूरा नाम हरदनहल्ली डोडेगौड़ा देवगौड़ा था।
 
एचडी देवगौड़ा का जन्म 18 मई 1933 के दिन कर्नाटक के हासन ज़िले के होलेनारासिपुरा तहसील के हरदनहल्ली गाँव में हुआ था। सिविल इंजीनियरिंग डिप्लोमा धारक देवगौड़ा 20 साल की उम्र में अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद राजनीति में आ गए। उनका विवाह श्रीमती चेन्नम्मा से हुआ था।
 
1953 में वे कांग्रेस पार्टी में शामिल हुए और 1962 तक इसके सदस्य बने रहे। 28 साल की उम्र में गौड़ा निर्दलीय के रूप में चुनाव लड़े और 1962 में वे कर्नाटक विधानसभा के सदस्य बने। इन्होंने लोक निर्माण और सिंचाई मंत्री के रूप में कार्य किया।
 
गौड़ा को 1975-76 में केंद्र सरकार की नाराज़गी का सामना करना पड़ा एवं इन्हें आपातकाल के दौरान गिरफ़्तार कर लिया गया था। 1987 में इन्होंने सिंचाई के लिए अपर्याप्त धन आवंटन का विरोध करते हुए मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा दे दिया। 11 दिसंबर 1994 को वे कर्नाटक के 14वें मुख्यमंत्री बने।
 
जब वाजपेयी बतौर प्रधानमंत्री अपनी पहली पारी को आगे नहीं ले जा पाए, तब गौड़ा के पास तीसरे मोर्चे (क्षेत्रीय दलों और ग़ैरकांग्रेस और ग़ैरभाजपा समूह का गठबंधन) के नेतृत्व का अवसर अचानक ही आया, जो इन्हें प्रधानमंत्री के पद तक ले गया। 30 मई 1996 के दिन देवगौड़ा ने कर्नाटक के मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफ़ा देकर भारत के 11वें प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली।
 
चुनाव में सिर्फ़ 46 सीटें लाने वाली पार्टी के नेता देवगौड़ा देश के प्रधानमंत्री बने। वे मात्र 10 माह तक प्रधानमंत्री रहे। 21 अप्रैल 1997 को इन्हें प्रधानमंत्री पद छोडऩा पड़ा। अंतरिम व्यवस्था तक वे दो दिन और प्रधानमंत्री रहे।
 
इंद्र कुमार गुजराल
21 अप्रैल, 1997 - 19 मार्च, 1998 (जनता दल), बिहार से राज्यसभा सदस्य
रात को दो बजे उठाकर कहा गया कि उठिए आपको प्रधानमंत्री बनना है। आकस्मिक प्रधानमंत्री बने गुजराल एक ज़माने में इंदिरा गांधी के बेटे संजय गांधी से भिड़ गए थे। एक ऐसे नेता, जिनका विदेश नीति का सिद्धांत भारत की विदेशनीति का महत्वपूर्ण मोड़ माना जाता है।
 
इनका जन्म 4 दिसंबर 1919 के दिन झेलम में हुआ था। वे स्वर्गीय अवतार नारायण गुजराल एवं स्वर्गीय पुष्पा गुजराल के पुत्र थे। इन्होंने एमए, बीकॉम, पीएचडी. और डी. लिट. की उपाधि प्राप्त की थी। 26 मई 1945 को इन्होंने श्रीमती शीला देवी से विवाह किया।
 
प्रधानमंत्री बनने से पहले वे बतौर विदेश मंत्री, जल संसाधन मंत्रालय के अतिरिक्त प्रभार तथा जल संसाधन मंत्री का दायित्व निभा चुके थे। 1976 से 1980 तक यूएसएसआर में भारत के राजदूत (मंत्रिमंडल स्तर) रहे। इन्होंने संचार एवं संसदीय मामलों के मंत्री, निर्माण एवं आवास मंत्री, सूचना एवं प्रसारण मंत्री तथा योजना मंत्री के रूप में भी कार्य किया। अपने राजनीतिक जीवन के दौरान इन्होंने अनेक समितियों व संस्थानों के प्रमुख दायित्व को निभाया।
 
जब वे सूचना एवं प्रसारण मंत्री थे तभी इंदिरा गांधी और चुनावी जीत में असंवैधानिक तरीक़ों की बातें सामने आई थीं। संजय गांधी ने उत्तर प्रदेश से ट्रकों में भरकर अपनी माँ के समर्थन में प्रदर्शन करने के लिए दिल्ली में लोग इकट्ठे किए और इंद्र कुमार गुजराल से दूरदर्शन द्वारा उसका कवरेज करवाने को कहा। गुजराल ने इसे मानने से इनकार कर दिया। इस कारण से गुजराल को वहाँ से हटा कर विद्याचरण शुक्ल को यह पद सौंप दिया गया।
 
इंद्र कुमार गुजराल 21 अप्रैल 1997 को देश के प्रधानमंत्री बने। देवगौड़ा की सरकार गिरने के बाद प्रधानमंत्री पद की रेस में कई दिग्गज नेता थे। किंतु ये नेता अपने ही लोगों की साज़िश के शिकार थे। नेताओं की आपसी भिड़ंत में गुजराल का नाम गुलज़ार हुआ। दिलचस्प ये है कि जब प्रधानमंत्री पद के लिए उनके नाम का निर्णय हुआ तो उस वक्त वे सो रहे थे।
 
बतौर प्रधानमंत्री गुजराल ने भारतीय विदेश नीति को दो महत्वपूर्ण मौक़े प्रदान किए। एक को गुजराल सिद्धांत के नाम से जाना जाता है, जो इन्होंने देवेगौड़ा सरकार में विदेश मंत्री रहते हुए प्रस्तुत किया था। दूसरा था भारी अंतरराष्ट्रीय दबाव के बावजूद गुजराल ने अक्टूबर 1996 में व्यापक परमाणु परीक्षण निषेध संधि अर्थात सीटीबीटी पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया था। मोरारजी देसाई के बाद गुजराल ऐसे दूसरे प्रधानमंत्री थे, जिन्होंने रॉ की गतिविधियाँ सीमित की हो।
 
11 महीने पश्चात 19 मार्च 1998 के दिन कांग्रेस द्वारा समर्थन वापस लिए जाने के बाद इन्हें पद छोड़ना पड़ा। राष्ट्रपति ने लोकसभा को भंग किया और नए चुनाव हुए। 30 नवंबर 2012 के दिन 92 साल की उम्र में गुड़गाँव के मेदान्ता अस्पताल में गुजराल का निधन हो गया।
 
डॉ. मनमोहन सिंह
22 मई, 2004 - 22 मई, 2009 (इंडियन नेशनल कांग्रेस), असम से राज्यसभा सदस्य
22 मई 2009 - 26 मई, 2014 (इंडियन नेशनल कांग्रेस), असम से राज्यसभा सदस्य
बेहतरीन अर्थशास्त्री, आर्थिक सुधारों के प्रणेता और आकस्मिक प्रधानमंत्री। डॉ. मनमोहन सिंह, एक ऐसे व्यक्ति, जो 20वीं शताब्दी में अचानक देश के वित्त मंत्री बने और 21वीं शताब्दी में अचानक देश के प्रधानमंत्री। जिसका समय आ चुका हो उसे किसी तरह से रोका नहीं जा सकता- यह बोलते हुए बतौर वित्त मंत्री आज़ाद भारत के सबसे बड़े और ऐतिहासिक सुधार को प्रदान करने वाले प्रणेता मनमोहन सिंह समय को रोक नहीं पाए, जब वे अचानक ही देश के प्रधानमंत्री बन गए।
 
मनमोहन सिंह गुरुमुख सिंह का जन्म 26 सितम्बर 1932 को अविभाजित भारत के पंजाब प्रांत के एक गाँव में हुआ था। पंजाब विश्वविद्यालय से मेट्रिक की शिक्षा पूरी करने के बाद इन्होंने अपनी आगे की शिक्षा ब्रिटेन के कैंब्रिज विश्वविद्यालय से प्राप्त की। 1957 में इन्होंने अर्थशास्त्र में प्रथम श्रेणी से ऑनर्स की डिग्री अर्जित की। इसके बाद 1962 में इन्होंने ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय के नूफिल्ड कॉलेज से अर्थशास्त्र में डी.फिल किया।
 
इनका विवाह श्रीमती गुरशरण कौर से हुआ। पंजाब विश्वविद्यालय और दिल्ली स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स में डॉ. सिंह ने शिक्षक के रूप में कार्य किया। इसी बीच में कुछ वर्षों के लिए इन्होंने यूएनसीटीएडी सचिवालय के लिए भी कार्य किया। इसीके आधार पर इन्हें 1987 और 1990 में जिनेवा में दक्षिण आयोग के महासचिव के रूप में नियुक्त किया गया। 1971 में डॉ. सिंह वाणिज्य मंत्रालय में आर्थिक सलाहकार के रूप में शामिल हुए। 1972 में उनकी नियुक्ति वित्त मंत्रालय में मुख्य आर्थिक सलाहकार के रूप में हुई। डॉ. सिंह ने वित्त मंत्रालय के सचिव, योजना आयोग के उपाध्यक्ष, भारतीय रिजर्व बैंक के अध्यक्ष, प्रधानमंत्री के सलाहकार, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष के रूप में कार्य किया।
 
डॉ. मनमोहन सिंह ने 1991 से 1996 तक भारत के वित्त मंत्री के रूप में कार्य किया, जो स्वतंत्र भारत के आर्थिक इतिहास में एक निर्णायक समय था। आर्थिक सुधारों के लिए व्यापक नीति निर्धारण में उनकी भूमिका को सभी ने सराहा। बतौर वित्त मंत्री इन्होंने वह सुधार लागू किए, जिससे भारत अपने इतिहास की सबसे बड़ी आर्थिक विपदा से बाहर निकल पाया। वे डॉ. मनमोहन सिंह ही थे, जिन्होंने नरसिंह राव की सरकार में बतौर वित्त मंत्री भारत में अर्थतंत्र की समूची दिशा बदलने वाले फ़ैसले लागू किए, जिसे ग्लोबलाइजेशन पॉलिसी भी कहा जाता है।
 
सोनिया गांधी द्वारा प्रधानमंत्री बनने से इनकार करने के बाद डॉ. मनमोहन सिंह ने 22 मई 2004 को प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली और 22 मई 2009 को दूसरी बार भी प्रधानमंत्री बने। बेहतरीन अर्थशास्त्री व देश को कई महत्वपूर्ण आर्थिक नीतियों की भेंट करने वाले डॉ. सिंह अपने इस पद पर 10 वर्ष तक रहे। उनके कार्यकाल के दौरान ही सूचना का अधिकार अधिनियम (आरटीआई), शिक्षा का अधिकार (आरटीई), राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (100 दिनों के रोजगार की गारंटी) जैसे ऐतिहासिक कार्यों की शुरुआत हुई। 2008 में मुंबई में बड़ा आतंकी हमला हुआ, जिसके चलते इनकी सरकार की आलोचना हुई।
 
भारत और अमेरिका के बीच परमाणु समझौते को लेकर मनमोहन सिंह ने अपनी सरकार दाँव पर लगा दी थी। इस समझौते को लेकर इन्हें अपनी ही पार्टी का, सरकार में शामिल साथी दलों का काफ़ी विरोध झेलना पड़ा। उस हालात में मनमोहन सिंह ने अटल बिहारी वाजपेयी से अपील की कि वो आगे आएं। ऐसे में विपक्ष के नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने कांग्रेस का समर्थन किया और हालात को संभालने में मनमोहन सिंह की मदद की।
 
उनके कार्यकाल में भारत दुनिया में दूसरा सबसे तेज़ जीडीपी ग्रोथ वाला देश भी बना। इन्होंने सेल्स टैक्स को हटाकर वैट लागू किया। ग्रामीण इलाक़ों की जनता के लिए राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन योजना शुरु की गई।
 
अपनी दूसरी पारी में इन्हें अपनी ही सरकार तथा अपनी ही पार्टी के कुछ नेताओं के भ्रष्टाचार के अनेक मामलों का सामना करना पड़ा। उन पर दबाव में काम करने के आरोप लगे। देश के इस बेहतरीन नेता को रोबोट तक कहा जाने लगा। वे स्वयं साफ़-सुथरे रहे, किंतु उनके सभी साथी दाग़दार बनते गए, जिसका ख़ामियाज़ा इन्हें ही भुगतना पड़ा। काफ़ी कम बोलने के आदी डॉ. मनमोहन सिंह को कमज़ोर प्रधानमंत्री के रूप में जाना जाने लगा।
 
हर दिन मीडिया में इनकी सरकार के अनगिनत घोटालों की ख़बरें आने लगी थीं। इसी दौरान अन्ना हजारे द्वारा अभूतपूर्व भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन हुआ। बाबा रामदेव ने काला धन के ख़िलाफ़ आंदोलन किया। और आख़िरकार 2014 के आम चुनावों में कांग्रेस को ऐतिहासिक हार का सामना करना पड़ा। बाद में इन आंदोलनों का व आंदोलनों से जुड़े व्यक्तिओं का क्या हुआ वह अलग विषय हैं, किंतु अपनी दूसरी पारी में अनेक विवादों से जूझने के बाद इन्हें यह कहकर विदाई लेनी पड़ी कि इतिहास मेरे प्रति ज़्यादा दयालु होगा।
 
वे 2002 में श्रेष्ठ सांसद के लिए चुने गए थे। वे एशिया मनी अवार्ड फॉर फाइनेन्स मिनिस्टर ऑफ़ द ईयर (1993 और 1994) तथा यूरो मनी अवार्ड फॉर द फाइनेन्स मिनिस्टर ऑफ़ द ईयर (1994) से सम्मान प्राप्त राजनेता हैं। अपने कार्यों के लिए डॉ. मनमोहन सिंह को देश के दूसरे सर्वोच्च नागरिक सम्मान समेत अनेक अंतरराष्ट्रीय सम्मान मिले। वह कैंब्रिज एवं ऑक्सफ़ोर्ड तथा अन्य कई विश्वविद्यालयों द्वारा मानद उपाधि प्राप्त व्यक्ति हैं।
 
नरेंद्र दामोदरदास मोदी
26 मई 2014 - 30 मई 2019 (भारतीय जनता पार्टी), वाराणसी तथा वड़ोदरा लोकसभा सीट
30 मई 2019 - वर्तमान (भारतीय जनता पार्टी), वाराणसी लोकसभा सीट
देश के सबसे पुराने और सबसे अधिक समय तक सत्ता को भोगने वाले राजनीतिक दल कांग्रेस को इतिहास का सबसे बुरा दौर दिखाने वाले नेता। एक ऐसे नेता, जिन्होंने बार बार राजनीतिक पंडितों तक को हराया। जो सालों तक भारत के तमाम विपक्षी दलों के लिए अनसुलझी पहेली बन कर रहे।
 
नरेंद्र मोदी का जन्म तत्कालीन बॉम्बे राज्य के मेहसाणा ज़िला स्थित वड़नगर गाँव में दामोदरदास मूलचन्द मोदी के यहाँ 17 सितम्बर 1950 के दिन हुआ था। इन्होंने अपनी स्कूली शिक्षा वड़नगर में पूरी की। मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक़ इन्होंने आरएसएस के प्रचारक रहते हुए 1980 में गुजरात विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर परीक्षा दी और एमएससी की डिग्री प्राप्त की। उनका विवाह जशोदाबहन के साथ हुआ। हालाँकि वे दोनों कभी एक साथ नहीं रहे।
 
7 अक्टूबर 2001 को केशुभाई पटेल की जगह वह गुजरात के मुख्यमंत्री बनाए गए। 2002 में हुए गोधरा कांड के चलते वे विवादों में घिरे। वे 2002 से 2014 तक, लगातार तीन बार गुजरात के मुख्यमंत्री रहे।
 
26 मई 2014 को वे देश के प्रधानमंत्री बने। इन्होंने अपने शपथग्रहण समारोह में समस्त सार्क देशों के प्रमुखों को आमंत्रित किया। इन्होंने चुनाव प्रचार में उनकी पाकिस्तान के प्रति जो आक्रामकता थी, उसे सआश्चर्य छोड़ते हुए, नवाज़ शरीफ़ को भी आमंत्रित किया।
 
इनके कार्यकाल के दौरान कई सीमाचिन्ह रूप फ़ैसले लिये गए। नरेंद्र मोदी ने अपने कार्यकाल में योजना आयोग को भंग कर दिया। इन्होंने योजना आयोग का नया नाम नीति आयोग रखा। सितम्बर 2015 में उनकी सरकार ने वन रैंक वन पेंशन की मांग को स्वीकार कर लिया। सितम्बर 2016 के दौरान सरकार द्वारा फ़ैसला लिया गया, जिसके तहत रेल बजट को आम बजट में लाया गया।
 
नरेंद्र मोदी ने अपने कार्यकाल के दौरान 8 नवंबर 2016 को 500 और 1000 के नोट अमान्य घोषित किए। 2017 में 1 फ़रवरी के दिन बजट पेश किया गया। ये भी अपने आप में प्रथम घटना थी। इनके प्रथम कार्यकाल के दौरान भारत में गुड्स एंड सर्विस टैक्स लागू हुआ। हालाँकि एक टैक्स सुधार को बड़े आर्थिक बदलाव के रूप में आधी रात को संसद का विशेष सत्र बुलाकर जश्न के साथ लागू करने पर इनकी आलोचना हुई। तलाक़-ए-बिद्दत, हज यात्रा के लिए दी जा रही सब्सिडी को ख़त्म करना, अपने पूर्व स्टैंड को बदल कर एफडीआई की सीमा बढ़ाना, इनकी प्रमुख नीतियों में शामिल रहें।
 
इनके कार्यकाल के दौरान अनेक जन कल्याण योजनाएँ लागू हुईं। इन्हीं के कार्यकाल में पाकिस्तान से सटी सीमा पर सर्जिकल स्ट्राइक और एयर स्ट्राइक को भारतीय सेना ने अंजाम दिया। अपनी दूसरी पारी के दौरान इन्होंने अनुच्छेद 370 और 35ए को निष्प्रभावी कर ऐतिहासिक कदम उठाया। इनके कार्यकाल में आतंकवादी घटनाओं में काफ़ी कमी देखी गई। इन्होंने नागरिकता अधिनियम मे संशोधन करते हुए नागरिकता संशोधन विधेयक पारित किया। किसान सम्मान निधि योजना, आयुष्मान भारत योजना जैसी योजनाएँ इनके कार्यकाल के दौरान लागू हुईं।
 
हालाँकि नरेंद्र मोदी अपने पूर्व वचनों, विचारो और वादों से पूरी तरह हटकर काम करने के रूप में जाने गए। ग़ैर लोकतांत्रिक शैली, प्रेस की स्वतंत्रता का दोहन, संवैधानिक संस्थाओं पर नियंत्रण, एकाधिकारवाद, अध्यादेश आधारित शासन, आत्ममुग्धता, सांप्रदायिक राजनीति, संदेहास्पद और अतार्किक भाषण, उत्सवप्रियता, अनैतिक तरीक़े से सरकार गिराना-बनाना, जैसी चीजों के लिए वह आलोचना के अधिकारी भी बने। इन्हीं के शासन के दौरान कोरोना कोविड19 जैसी अभूतपूर्व त्रासदी का सामना दुनिया के साथ भारत को भी करना पड़ा। इस दौरान उनकी सरकार उम्मीदों पर खरी नहीं उतरी। इनके ऊपर चुनावजीवि प्रधानमंत्री होने के आरोप अविरत लगते रहे।
 
इनके शासनकाल के दौरान सरकार पर रफ़ाल, अदाणी, अंबाणी जैसे आरोप लगे। हालाँकि साबित कुछ नहीं हुआ। निजीकरण को असीम सीमा तक ले जाने के आरोप भी इन पर लगे। ग़ैरजरूरी मुद्दों पर ज़्यादा समय बर्बाद करना तथा ज़रूरी विषयों को छोड़ निरर्थक मुद्दों पर समय व्यतित करने को लेकर इनकी आलोचना होती रही। इन्होंने कोविड जैसी त्रासदी के दौरान विवादास्पद तरीक़े से कृषि क़ानून लागू कर दिया, जिसके बाद 13 महीने तक लंबा ऐतिहासिक किसान आंदोलन चला और अंत में इस क़ानून को स्थगित करना पड़ा।
 
राजनीतिक रूप से इनके नेतृत्व में भाजपा ने अब तक का अपना सबसे अच्छा दौर देखा। 2014 में 282 सीटों के साथ बहुमत प्राप्त करने वाली बीजेपी इनके ही बलबूते 2019 में 303 सीटें ले आई। पंडित नेहरू और इंदिरा के बाद ये तीसरा मौक़ा था जब सत्ता दल दोबारा बहुमत के साथ लौटा हो। हालात यह रहे कि कांग्रेस जैसा राष्ट्रीय दल लगातार दो लोकसभा चुनावों में विपक्ष के लायक सीटें भी प्राप्त नहीं कर पाया।
(इनसाइड इंडिया, एम वाला) (लास्ट अपडेट फ़रवरी 2022)