जो राजनीति आपको गाँधी या भगतसिंह में से किसी एक को चुनना सिखाती हो... आख़िरकार
वो आपको गोडसे बनाकर ही छोड़ती है। आपको समझना होगा कि सच यह है कि भारत का कोई भी
पीएम विदेश में जाकर यह नहीं बोल सकता कि भारत गोडसे का देश है, उसे कहना ही होगा
कि भारत गाँधी का देश है। विदेशी राजनीतिक मेहमान भारत आते हैं तब भी उन्हें साबरमती
आश्रम ले जाया जाता है, किसी गोडसे के घर नहीं।
सिंपल सी बात है। अगर किसी राष्ट्रीय दल में हिम्मत है तो वो अपने किसी नेता की
तुलना गोडसे से कर के दिखा दे। नहीं कर सकते। गोडसे-वोडसे वगैरह तो राजनीति का स्याह
कुआँ है, जबकि गाँधी विशाल पुष्करद्वीप हैं। अब तक तो महात्मा गाँधी ही भारत के विश्व में
आइकॉन हैं।
महात्मा गाँधी... वो
भारतीय नाम, जो दुनियाभर के अनेकों लोगों के लिए प्रेरणा, चिंतन, संशोधन, नैतिक ताक़त, सत्य के लिए ज़िद, आदर्शवाद, आश्चर्य का एक यादगार
ग्रंथ सरीखा है। दरअसल, महात्मा गाँधी से पहले और उनके बाद, एक भी ऐसा इंसान नहीं मिलता
जिसे दुनिया समूची मानवता का प्रतिनिधि मानती हो। तभी तो दुनिया के अनेक देशों में
गाँधी की स्मृतियाँ विद्यमान हैं। गाँधी दुनिया के लिए जीवन-दर्शन सरीखे हैं। उनका
नाम व उनका चिंतन भारत की सीमाओं को लांघता हुआ दिखाई देता है। वही तो हैं, जिनका जीवन
ही संदेश है। वर्ना बताइए, (भगतसिंह के अलावा) दूसरा कौन है, जिसकी ज़िंदगी संसार के लिए संदेश हो।
और इससे ठीक उल्टा
यह है कि जो नाम दुनिया के लिए इतना बड़ा है, हमारे ही हिंदुस्तान में ख़ुद को राष्ट्रवादी कहने वाले कुछ लोग अपनी मानसिक विकलांगता
के ज़रिए उस शख़्सियत पर अधूरे ज्ञान, अधूरे संशोधन और ज़्यादातर तो फ़ेक ख़बरों के आधार पर निम्न स्तर की टिप्पणी किया
करते हैं। इसमें नेता लोग भी शामिल हैं, और उन नेताओं के लठैत भी। ग़ज़ब है कि किसी
नेता की आलोचना कर दो तो वो राष्ट्रद्रोह सरीखा मनवाया जाता है, जबकि गाँधी जैसी शख़्सियतों
पर अनाप-शनाप जैसे लोग वैसी ही भाषा इस्तेमाल करते हैं, और उनके उस राष्ट्रद्रोह को
राष्ट्रवाद का नकली चोला पहना दिया जाता है!
दरअसल बात इतनी सी
ही है कि गाँधीजी का जो जीवन है, आदर्श हैं, सिद्धांत हैं, विचार हैं, उनका पालन करना किसी के बूते की बात नहीं। गाँधी आज नहीं हैं, किंतु कुछ लोगों के
भीतर उनका भय ख़त्म होने का नाम नहीं ले रहा! दुनिया में शायद ही कोई ऐसा देश हो, जहाँ महात्मा गाँधी के सम्मान में किसी न
किसी सड़क, संस्थान या चौराहे का नाम न हो। गाँधीजी की हत्या एक बार नहीं हुई, उन्हें उसके बाद अनेकों
बार मिटाने की कोशिश हुईं, किंतु अब तक तो हो नहीं सका है।
किसी चपरासी तक की
आँखों में आँखें डाल सवाल पूछने की हिम्मत नहीं वे लोग उस गाँधी की आलोचना करते हैं,
जिन्होंने महासत्ता की ज़मीं पर खड़ा रहकर सीना तानकर जवाब दे दिया था
महात्मा गाँधी हमें
कभी अतिवादी भी लगते हैं, कभी कुछ और। एक वैश्विक समीक्षक ने सलीक़े से लिखा है, "जो शख़्स नेहरू, सरदार जैसे अनेक उत्तरी
और दक्षिणी ध्रुवों को एकसाथ रखने में सफल हुआ, वह कोई सामान्य व्यक्ति नहीं हो सकता
था।"
गाँधीजी ने एक बार
डॉ. आंबेडकर से कहा था, "आप यक़ीनन मुझसे ज़्यादा विद्वान हैं, ज़्यादा जानकार हैं, किंतु जब बात सत्य को लेकर होगी, तब मैं अजेय हूँ।"
महात्मा गाँधी और किंग
जॉर्ज पंचम की वो मुलाक़ात इतिहास में दर्ज है। सन 1931 का साल था। ये वो दौर था, जब ब्रिटेन दुनिया की महासत्ता हुआ
करता था। आज की जो महासत्ता है, उससे भी अधिक ताक़त के साथ उस दौर में ब्रिटेन दुनिया
पर प्रभावी था।
यूँ तो गाँधी 1921 से धोती धारण करने
लगे थे। गाँधीजी पर कई किताबें लिख चुके तुषार गाँधी के मुताबिक़, एक समय वह भी आया
जब गाँधीजी का धोती घारण करना केवल पहनावा मात्र नहीं रहा, बल्कि वह अंग्रेज़ों
के ख़िलाफ़ एक रणनीति के रूप में देखा जाने लगा।
सन 1931 में गाँधी धोती पहन
राउंड टेबल कॉन्फ़्रेंस के लिए लंदन गए थे। वहाँ के कुछ अख़बारों ने धोती वाली गाँधी
की तस्वीर छापकर उनका मज़ाक उड़ाया।
गाँधी ने बेझिझक जवाब
देते हुए कहा था, "लोगों को मेरा ये पहनावा अच्छा नहीं लगता, इसकी आलोचना की जाती है, मज़ाक उड़ाया जाता है। मुझसे पूछा जाता है कि मैं इसे क्यों पहनता हूँ। जब अंग्रेज़
लोग भारत जाते हैं, तब क्या वे यूरोपीय पोशाक को छोड़कर भारतीय पोशाक पहनने लगते हैं? नहीं, वे तो ऐसा नहीं करते।"
गाँधीजी ने इसी पहनावे
के साथ कॉन्फ़्रेंस में हिस्सा लिया। किंतु अंग्रेज़ों को गाँधीजी के धोती वाले पहनावे
से तब उलझना पड़ा, जब वे किंग जॉर्ज पंचम से मिले। तब तक गाँधीजी को ब्रितानी हुक़ूमत
अधनंगा फ़कीर कहने लगी थी। अब उस गाँधी और महासत्ता के सर्वोच्च शख़्स एकदूसरे से मिलने
वाले थे।
किसी देश के ऐसे पद
पर आसीन शख़्स को मिलते समय कई सारे प्रोटोकॉल का पालन करना होता है। कपड़े, पहनावा, खड़े रहना, चलना, बोलना, सब में प्रोटोकॉल।
वो समय आ गया था। किंतु भारत के वह फ़कीर गाँधी तो किंग जॉर्ज पंचम से मिलने उसी आधी
धोती में पहुंचे। उधर किंग जॉर्ज पंचम अपने पूरे राजसी वैभव वाले पोशाक में थे। किंग
के एडीसी और स्टाफ़ के लिए यह मुश्किल समय था।
तुषार गाँधी लिखते
हैं, "अंग्रेज़ों को लगा कि ये इंसान जो करता है उसका हमारे पास कोई जवाब नहीं है, और
जैसे पेश आता है उसका भी हमारे पास उत्तर नहीं है। आप ये भी नहीं कह सकते हैं कि वो
बदतमीज़ हैं। शाही निवास पर जब गाँधी आधी धोती पहनकर पहुँच जाते हैं तो वापस तो नहीं
भेज सकते, और ये हार होगी। अगर अंदर बुलाते हैं, तो उन्हें बर्दाश्त करना पड़ेगा। करें
तो करें क्या, वाली स्थिति थी।"
11 नवंबर 1931 वो तारीख़ थी, जब किंग जॉर्ज पंचम के बुलावे पर गाँधी बकिंघम पैलेस गए। गाँधीजी
और किंग जॉर्ज पंचम मिले। पूरी अंग्रेज़ क़ौम ये देख कर दंग रह गई कि इस औपचारिक मौक़े
पर भी गाँधी एक धोती और चप्पल पहने राजमहल पहुंचे।
इतिहास की कुछ किताबों
की माने तो जॉर्ज पंचम ने तंज़ कसा, "मिस्टर गाँधी, आपके कपड़े कहाँ गए?"
बदले में भारत के उस
फ़कीर ने संसार की महासत्ता के सर्वोच्च शख़्स के सामने आँखों में आँखें डाल कहा, "मेरे देश के कपड़े
आपने ले लिए और अब पूछते हैं कि कपड़े कहाँ गए?"
राजा से मिलने के बाद
जब गाँधी निकले तो ब्रितानी पत्रकारों ने उनसे सवाल पूछा, "मिस्टर गाँधी, लगता नहीं कि आपने
किंग से मिलने के लिए उपयुक्त कपड़े पहने थे।"
गाँधी अपनी हाज़िरजवाबी
के लिए हमेशा ही जाने जाते थे। गाँधीजी ने कहा, "आप मेरे कपड़ों के बारे में चिंता मत करें। आपके राजा ने हम दोनों के लिए पर्याप्त
कपड़े पहन रखे थे।"
गाँधीजी का ये जवाब
इतिहास में हमेशा के लिए दर्ज हो गया।
मशहूर जीवनी लेखक रॉबर्ट
पाएन के शब्दों में, उनकी नग्नता बैज ऑफ़ ऑनर (सम्मान का तमगा) बन गई थी। इससे छह महीने
पहले भी जब गाँधी वायसराय लॉर्ड इरविन से मिलने गवर्नमेंट हाउस गए थे, तब भी उन्होंने
यही पोशाक पहन रखी थी।
मधुकर उपाध्याय की
बीबीसी हिंदी के लिए एक रिपोर्ट है, उसमें एक क़िस्से का ज़िक्र है। जब चंपारण में
गाँधीजी की हत्या की ये कोशिश नाकाम हो गई तो एक और अंग्रेज़ मिल मालिक था, उसे बहुत ग़ुस्सा
आया। उसने कहा कि गाँधी अकेले मिल जाएं तो मैं गोली मार दूँगा।
ये बात गाँधी तक पहुंच
गई, क्योंकि गाँधी उसी
इलाक़े में थे। अगली सुबह गाँधी अपनी सोंटी लिए हुए उसकी कोठी पर पहुंच गए। उन्होंने
वहाँ चौकीदार से कहा, "उन्हें बता दो कि मैं आ गया हूँ, और मैं अकेला हूँ।" कोठी का दरवाज़ा नहीं
खुला और वो अंग्रेज़ बाहर नहीं निकला।
वैसे भी देश में जब
सबसे बदतर हालात पैदा हुए, तब भी दो शख़्स ऐसे थे, जो बिना किसी सुरक्षा के, बिना डर के, बेझिझक कहीं पर भी चले जाते थे। उन दोनों के नाम थे - महात्मा गाँधी और सरदार
वल्लभभाई पटेल।
गाँधीजी आज नहीं
हैं, लेकिन कुछ लोगों के भीतर उनका भय ख़त्म होने का नाम नहीं ले रहा!
गाँधीजी ने कभी नहीं
कहा था कि उन्होंने स्वतंत्रता दिलाई। ना कभी उन्होंने चरखे को लेकर कहा। ना कभी किसी
और घटना को लेकर कहा। सरदार पटेल ने भी यह कभी नहीं कहा। बावजूद इसके, कुछ लोग बहुत
कुछ कह जाते हैं!
एक दफा कहीं एक कड़वी
लेकिन सच्ची बात पढ़ी थी कि हमारे यहाँ सैकड़ों लोग ऐसे हैं, जो ख़ुद को हिंदुस्तानी
कहते हैं, फेफड़े फाड़ते हैं, लेकिन पूरी ज़िंदगी हिंदुस्तान के उस महान इतिहास की
आलोचना में जी लेते हैं। आपने शायद ही सुना हो कि पाकिस्तान में जिन्ना की गंदी आलोचना
वहाँ के लोगों ने की हो, जबकि हमारे यहाँ? हमारे यहाँ महात्मा गाँधी के बारे में अनाप-शनाप और ज़्यादातर तो झूठा प्रचार
किया जाता है।
गाँधीजी की स्वस्थ
आलोचना अलग बात है, लेकिन उनके बारे में गटरछाप टिप्पणियाँ करने वाले गोडसे आज भी हमारे यहाँ बिन
बारिस ज़मीं से बाहर निकल आते हैं। भगत सिंह, सरदार पटेल, आंबेडकर... सभी के बारे में हमारे यहाँ आपत्तिजनक भाषा का इस्तेमाल किया जा चुका
है। गोडसे का मंदिर बनाने की मूर्खता का चलन चलता रहता है।
फ़ेक वीडियो, फ़ेक ख़बरें, फ़ोटोशॉप, आधी झूठी-आधी सच्ची
कहानियाँ, मनगढ़ंत किरदार, किरदारों के बारे में ग़लत धारणाएँ, इतिहास को तोड़ना-मरोड़ना... गाँधीजी के बारे में जो हुआ है, शायद ही भारत में
किसी दूसरे व्यक्ति के बारे में हुआ होगा। यहाँ तक कि कुछ तस्वीरें और कहानियाँ तो
ऐसे फैलाई गईं, जो दशकों तक चलती रहीं। गाँधीजी के अनुयायिओं के पास भी उसका जवाब नहीं
था। तस्वीरें और फिर वीडीयो और उससे जुड़ी कहानियाँ। दशकों तक गाँधीजी के अनुयायी भी
चुप से रहे। लेकिन जब तकनीक और जानकारियों का नया युग आया, इसके जवाब मिले और
पता चला कि सच क्या था।
कई शोधकर्ताओं ने जब
शोध किया तो पाया कि गाँधीजी के बारे में जितनी विवादित ख़बरें फैलाई गईं, उसमें से तक़रीबन
तमाम ख़बरें झूठी ही थीं। सन 2000 में गाँधीजी के कार्यों का संशोधित संस्करण विवादों के घेरे में आ गया था, क्योंकि गाँधीजी के
अनुयायियों ने सरकार पर राजनीतिक उदेश्यों के लिए परिवर्तन शामिल करने का आरोप लगाया
था।
यूँ तो महात्मा गाँधी, सरदार पटेल और शहीद भगत सिंह, तीनों के जो आदर्श-कर्म-सपने-सिद्धांत
थे, उनका कोई हिस्सा अब हम भारतीय नागरिकों के बीच नहीं रहा है। भगत सिंह पूर्ण नास्तिक
थे, गाँधीजी परम आस्तिक और सरदार पटेल यथार्थवादी। लेकिन धर्म के नाम पर फैलाई जाने
वाली नफ़रत के तीनों ही विरोधी थे। इनके लिए आज़ादी का ख़याल सिर्फ़ राजनीतिक नहीं
था। वे चाहते थे कि देश की जनता शोषण की बेड़ियों से मुक्त हो और इसी दिशा में उनके
प्रयास रहे।
सबसे अजीब बात ये है
कि भगत सिंह की फांसी में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका सरकारी गवाह बने कई क्रांतिकारी साथियों
की थी। इतने सालों में भगत सिंह की फांसी के नाम पर गाँधीजी की निंदा की गई है, लेकिन भगत सिंह के
ख़िलाफ़ गवाही देने वाली क्रांतिकारी साथियों की कभी निंदा नहीं होती, क्योंकि इससे राजनीतिक
फ़ायदा नहीं मिलता। उपरांत, मतभेद गाँधीजी-नेहरू या सरदार के बीच ही नहीं थे, मतभेद भगत सिंह-चंद्रशेखर
आज़ाद, लाला लाजपतराय, सुभाष बाबू के बीच भी थे। हमें गौर यह भी करना चाहिए कि उसी गाँधीजी ने अपनी पत्नी
कस्तूरबा को ब्रितानी जेल से छुड़ाने का एक भी प्रयास नहीं किया था, अस्वस्थ
अवस्था में ही कस्तूरबा की गिरफ़्तारी हुई और फिर मृत्यु।
दरअसल, राजनीति
सिर्फ़ हिन्दू और मुसलमानों के बीच ही लकीरें नहीं खींचती, वो इन ऐतिहासिक नायकों
के बीच भी फ़र्क़ पैदा करती है और अपनी सत्ता की रोटियाँ सेंकती है। आज की राजनीति
जिस तरह का भारत बनाना चाहती है, गाँधीजी इस राह में सबसे बड़ा ख़तरा हैं। गाँधीजी
आज जीवित नहीं है, किंतु राजनीति आज भी उनके भय से ग्रस्त है!
गाँधीजी के अनुसार
जो स्वतंत्रता थी, उसे पढ़े तो आज की चरमराती व्यवस्था के लिए जनता ही ज़िम्मेदार है
आज के दिन कई अख़बारों
में गाँधीजी के बारे में छपता है। आज के नेता और महात्मा गाँधी के आदर्शों की तुलना
होती रहती है, और श्रद्धांजलि दी जाती है। लेकिन महात्मा गाँधी के ही लफ़ज़ों में स्वतंत्र
होना, यानी स्व का तंत्र होना। ख़ुद का एक तंत्र, ख़ुद की ही एक व्यवस्था। ये आम जनता के लिए है। यानी कि सरकारों
से जो कराना है, वो पहले ख़ुद से शुरू करें। दुनिया में जो बदलाव चाहते हैं, वो बदलाव ख़ुद से
शुरू करें।
गाँधीजी स्व
(ख़ुद) का एक तंत्र (व्यवस्था), के बारे में बात करते थे, और उनके लिए यही
स्वतंत्रता का मूल अर्थ था। उनके लिए वास्तविक स्वराज यानि आत्म नियंत्रण, या
स्व-शासन। यूँ तो गाँधीजी की स्वराज की अवधारणा अत्यंत व्यापक थी, जिसे संक्षेप
में लिखा नहीं जा सकता।
उनकी इस अवधारणा
में स्वतंत्रता का अर्थ सिर्फ़ इतना नहीं था कि विदेशी शासन से मुक्ति पा लेना।
बल्कि इसमें सामाजिक, सांस्कृतिक, नैतिक आदि स्व-शासन का भी विचार था। आत्म-संयम,
ग्राम-राज्य और सत्ता के विकेन्द्रीकरण के ऊपर इनका ज़ोर अधिक था। सर्वोदय, अर्थात
सर्व-कल्याण का इसमें प्रथम स्थान था। स्वराज और उसकी व्यवस्थाओं के बारे में
गाँधीजी के विचार सार्वजनिक हैं।
बड़ी शिद्दत से किसी
ने कहा है, "दुनिया की कोई भी निरंकुश सरकार जनता की इजाज़त के बिना टिक नहीं सकती।" दरअसल जनता की सरपरस्ती
के नीचे ही घोटाले होते हैं, जनता की अनुमति से ही भ्रष्टाचार देश को भीतर से कुरेदता रहता है। बिना जनता की
संमति के, कोई सरकार ये कर ही नहीं सकती। वैसे आजकल तो लोग थोड़े से भ्रष्टाचार को
इजाज़त भी देने लगे हैं! वे कहते हैं कि थोड़ा-कुछ
तो हर सरकार करती है, जो कम करती हो वह सबसे अच्छी है!
हम स्वयं तो इस देश
का एक दिन तो क्या, एक मिनट तो क्या, एक सेकंड भी बदल नहीं सके हैं, और जिन्होंने देश-दुनिया का इतिहास बदलकर रख दिया था, उनकी आलोचना करने की आदत
सी हो चुकी है हमें! आलोचना करनी ही है,
तो आजकल के नेताओं की करो। इससे वर्तमान और भविष्य बदलना शुरू होगा। आज संसद में जितने
भी आपराधिक पृष्ठभूमि बाले नेता बैठे हैं, वो हमारे ही कारण बैठे हैं। इतिहास पर तर्कहीन सवाल उठाने से बेहतर है कि एकाध
बार ख़ुद की भी सफाई की जाए।
कुछ लोगों ने अपने
चेले-चपाटों को गोडसे में उलझाए रखा, फिर जब कुएँ को छोड़ बाहर तैरना शुरू किया तो गाँधी को नमन करने
की मजबूरी भी सीख गए, जबकि चेले-चपाटे गोडसे में ही फँस कर रह गए
राजनीति के ज्ञाता
तो इस देश में करोड़ों लोग हैं। शायद पूरा देश राजनीति का विशेषज्ञ है। लिहाज़ा उनके
ज्ञान के सामने हम तो कुछ भी नहीं। किंतु भारतीय राजनीति की एक लंपटता तो ज़रूर दिख
गई। वो यह कि... पहले एक कुआँ बनाओ... कुएँ में अपना साम्राज्य बिछाओ और अपनी विचारधारा
का प्रचार करो... कुएँ में मेंढकों का अपना एक गैंग बना लो... फिर जब कुएँ से बाहर
निकलने लायक बन जाओ, तो फिर उस विचारधारा को कुएँ में बसे मेंढकों के गले में पहना
दो और तमाम सिद्धांत छोड़-छाड़ कर अनारकली को डिस्को ले चलो।
आज जो सत्ता पर काबिज़
हैं उन्होंने, और इससे पहले जो थें उन्होंने भी, इस शैली को सफलतापूर्वक आज़माया है। वे जिस विचारधारा को अपने
मेंढ़कों में थोपते हैं, वक़्त रहते मेंढ़कों के गले में वही विचारधारा फँसाकर ख़ुद आगे बढ़ जाते हैं!
गाँधी को लेकर भी ऐसे
कुएँ वाले बराबर फँसते रहे हैं। महात्मा गाँधी को लेकर दशकों से जो फ़ेक न्यूज़ या
प्रोपेगेंडा चलता रहा और फिर उसका धीरे धीर जिस तरह पर्दाफ़ाश हुआ, उसका ज़िक्र
हमने ऊपर किया। गाँधीजी आज नहीं हैं, किंतु उनका भय राजनीति के भीतर कितना है यह,
तथा इन फ़ेक न्यूज़ या प्रोपेगेंडा फैलाने के पीछे मंशा, इसकी बेहतर समझ एजुकेटेड
होने से ज़्यादा इंटीलिजेंट होने से मिल सकती है।
गाँधीजी के बारे प्रोपेगेंडा
चलता रहा। लठैतों के ज़रिए अनाप-शनाप ख़बरें फैलाई गईं। छोटे-मोटे नेताओं ने गाँधीजी
के ऊपर बोलते हुए मर्यादाएँ भी लांधी। इसमें अतिधार्मिकवादी संगठन और उनसे जुड़े
दल सबसे आगे रहे।
वैसे कई दफा कहा गया
है कि बीजेपी (या उस ज़माने के जनसंघ) या आरएसएस को महात्मा गाँधी का शुक्रगुज़ार होना
चाहिए। इस बात को लेकर कि गाँधीजी ने कभी उनके ऊपर कोई भी आपत्तिजनक टिप्पणी नहीं की
थी, वर्ना वो आज तक उससे
पिंड छुड़ा रहे होते, और पिंड छुड़ाना लगभग लगभग नामुमकिन होता। भारत के लौह पुरुष
सरदार पटेल की परोक्ष या अपरोक्ष टिप्पणियाँ आज भी उनके लिए समस्याएँ बनी हुई हैं।
वैसे इनके बड़े नेता
बोले या ना बोले, एक पैटर्न सा रहा कि दूसरे मंचों से या दूसरे तौर-तरीक़ों से वे अपने इस पुराने
प्रोपेगेंडा पर क़ायम रहे। गाँधीजी की फ़ेक तस्वीरें, मनगढ़ंत कहानियाँ, आधारहिन क़िस्सों
की पूरी भरमार है। पहले कहा वैसे, इन सारी चीज़ों में से ज़्यादातर या तो झूठ निकलीं,
या ज़्यादातर के पास अपना कोई बेसिक ही नहीं था।
कभी अमित शाह ने गाँधीजी
को चतुर बनिया कहा, कभी गाँधीजी के लिए हरियाणा भाजपा के नेता अनिल विज ने आपत्तिजनक टिप्पणियाँ कीं।
कहा गया कि गाँधी की वजह से खादी बर्बाद हुई, बिक्री कम हुई! कभी नोट से उनकी तस्वीर हटाने के बयान, कभी गाँधी को मुस्लिम समर्थक कहना, आदि निरंतर आयोजित प्रक्रिया रही। गाँधीजी के हत्यारे नाथूराम गोडसे का मंदिर, उसे पूजना, उसका दिन मनाना जैसी
चीज़ें भी होती रहीं। भाजपा के बड़े नेता साक्षी महाराज गाँधीजी के हत्यारे नथूराम
को देशभक्त बता गए! जिसके लिए उन्हें संसद में माफ़ी भी मांगनी पड़ी थी।
गाँधीजी को लेकर जिस
तरह से इनडायरेक्टली प्रोपेगेंडा चलता रहा और साथ ही गोडसे को आइकॉन बताया जाता, लठैत उसी संस्कृति
में जीने लगे। लेकिन जब कुआँ छोड़ा, तो लठैतों को जो सिखाया था उससे ठीक उल्टा होने
लगा! गाँधी को कोसना सिखाने के बाद जब कुएँ से वे बाहर निकले और समंदर में आए तो गाँधीजी
को नमन करने की प्रक्रिया भी शुरू हो गई! उधर लठैत वहीं के वहीं रह गए!
विदेशों में जाकर प्रधानमंत्री
नरेंद्र मोदी को यह कहते सुना गया कि, "वो गाँधी के देश से आए हैं।"
साफ़ था कि नाथूराम
गोडसे में वो दम तो था नहीं कि उसके नाम पर अंतरराष्ट्रीय संबंध जोड़े जाते, समझौते किए जाते,
या निवेश देश में लाए जाते। ये दम तो गाँधी के नाम में ही था।
20 जुलाई 2017 के दिन केंद्रीय संस्कृति मंत्री महेश शर्मा ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की
तुलना गाँधी युग के गाँधी से की। उन्होंने पीएम मोदी की तुलना गाँधीजी से करते हुए
कहा, "आज हमारे बीच प्रधानमंत्री के रूप में एक और गाँधी युग के प्रणेता हैं।" यह बात केंद्रीय मंत्री
महेश शर्मा ने गाँधीजी के नमक सत्याग्रह पर एक पुस्तक का लोकार्पण करते हुए कही।
शर्मा ने कहा, "महात्मा गाँधी के सपनों
को साकार करना ही प्रधानमंत्री मोदी का सपना है। सौभाग्य से आज हमारे बीच हमारे प्रधानमंत्री
के रूप में एक अन्य गाँधीजी हैं, जो गाँधी युग के विचारों को प्रचारित एवं प्रसारित
करने का काम कर रहे हैं।"
स्वतंत्रता आंदोलन
में गाँधीजी के योगदान के महत्व को बताते हुए शर्मा ने कहा, "नमक सत्याग्रह केवल
एक मुठ्ठी नमक से जुड़ा नहीं था, बल्कि इसने कई पीढ़ियों को प्रेरित करने का काम किया
और आज के दौर में यही काम पीएम मोदी भी कर रहे हैं।"
पता नहीं चला कि शर्मा
मोदीजी को कटघरे में खड़ा कर रहे थे, (जैसे गाँधीजी को किया जाता था) या फिर अपने लठैतों
या संगठनों के तर्कों को सिरे से ख़ारिज कर रहे थे? यदि उन्हें अपने उस छिछोरे कुएँ पर भरोसा होता, तो वे अपने मुखिया की तुलना गोडसे
से करने की हिम्मत दिखाते, गाँधीजी से भला क्यों तुलना करते?
गाँधीजी के हत्यारे
गोडसे को पूजने, गाँधीजी की हत्या को सही ठहराने के प्रयासों या विचारों के कारण भाजपा और आरएसएस,
दोनों बारबार विवादों में आते रहे हैं। इसका अपना एक लंबा इतिहास है, जो जगज़ाहिर है। किंतु
गाँधीजी के बारे में उनके बड़े नेताओं के दोतरफ़ा बयान कुआँ और समंदर का फ़र्क़
दिखा रहे थे।
जैसे कि एनडीए से रामनाथ
कोविंद राष्ट्रपति चुने गए। वे आरएसएस से जुड़े शख़्स थे। रामनाथ कोविंद राष्ट्रपति
बने और उसके बाद उन्होंने अपना पहला भाषण दिया। अपने सर्वप्रथम भाषण में उन्होंने दीनदयाल
उपाध्याय की तुलना महात्मा गाँधी से कर दी!
कोविंद ने शपथग्रहण
के तुरंत बाद देश को संबोधित करते हुए कहा, "हमें तेज़ी से विकसित होने वाली एक मज़बूत अर्थव्यवस्था, एक शिक्षित, नैतिक और साझा समुदाय, समान मूल्यों वाले
और समान अवसर देने वाले समाज का निर्माण करना होगा। एक ऐसा समाज, जिसकी कल्पना महात्मा
गाँधी और दीनदयाल उपाध्यायजी ने की थी। ये हमारे मानवीय मूल्यों के लिए भी महत्वपूर्ण
है। ये हमारे सपनों का भारत होगा। एक ऐसा भारत, जो सभी को समान अवसर सुनिश्चित करेगा। ऐसा ही भारत, 21वीं सदी का भारत होगा।"
3 सितम्बर 2017 के दिन अहमदाबाद से उनका एक बयान था, "महात्मा गाँधी के आदर्श आज भी उतने ही प्रस्तुत हैं, जितने उस वक़्त थे।" उन्होंने साबरमती
आश्रम की मुलाक़ात के बाद विजिटर बुक में यह शब्द लिखे थे।
बात साफ़ नहीं हुई
कि वे दिनदयाल उपाध्याय का अपमान कर रहे थे या फिर सम्मान? अगर अपमान कर रहे
थे, तो फिर उन्हीं की विरासत के क्या मायने? और अगर सम्मान कर रहे थे, तो फिर उनके संगठन द्वारा फैलाए गए उस गाँधी और गोडसे
वाले इतिहास के भी क्या मायने?
9 अगस्त 2017 के दिन भारत छोड़ो आंदोलन के 75वे साल पर तत्कालीन बीजेपी सरकार ने बाक़ायदा अख़बारों में विज्ञापन दिए थे। विज्ञापनों
में लिखा था - "1942 में हमारे आज़ादी के सेनानियों ने भारत छोड़ो का संकल्प लिया और फलस्वरूप 1947 में हमारा देश आज़ाद
हुआ।"
एक झटके में वो पुराना
प्रोपेगेंडा पलट गया, जब वे भारत छोड़ो आंदोलन के सूत्रधारों को देश की आज़ादी के सहभागी
नहीं मानते थे! अब वे इतिहास को स्वीकार कर रहे थे!
विज्ञापन में प्रधानमंत्री
नरेन्द्र मोदी का संदेश था, जिसमें भारत छोड़ो आंदोलन को इतिहास के मील का पत्थर समान बताया गया था, और गाँधीजी
को बाक़ायदा महात्मा नाम से संबोधित करके उन्हें सबसे बड़ा प्रेरणास्त्रोत बताया गया
था।
गोडसे वाले छिछोरे
कुएँ से बाहर निकलकर राजनीति अब दिनदयाल की तुलना महात्मा गाँधी से करने को मजबूर थी! मुखिया खुलकर कहने
को मजबूर था कि उन्हें गाँधी का भारत चाहिए!
24 सितम्बर 2017 के दिन मन की बात कार्यक्रम में पीएम मोदी ने कहा, "गाँधीजी, जयप्रकाश नारायणजी
तथा दिनदयाल उपाध्याय सत्ता से दूर रहकर जनता के साथ जिये थे।" 7 फरवरी 2018 को पीएम मोदी ने लोकसभा
में कहा, "कांग्रेस को आपातकाल वाला भारत चाहिए, हमें गाँधी का भारत चाहिए।"
आपको ऐसे अनेक प्रसंग
मिल जाएँगे। गुजरात हो, भारत का कोई भी राज्य हो, सामाजिक कार्यक्रम हो या कुछ और हो, दुनिया के अनेक देशों की बात हो, बड़े बड़े नेता गाँधीजी का गुणगान करते ही नज़र आएँगे। लठैत उसी कुएँ में ड्राउं
ड्राउं करते रहे, जबकि उनके नेता पहले और आख़िरी सच को अपनाकर आगे बढ़ दिए।
वो गाँधी थे, जिनके नाम पर उस ज़माने में सिगार निकली तो उन्होंने सिगार का
बहिष्कार करने की सार्वजनिक अपील कर डाली थी, तभी तो वो महात्मा थे... एक आज के नेता हैं, जिनकी तस्वीरें कंपनियाँ इस्तेमाल करती हैं और बदले में कंपनी
को पाँच सौ रुपये का जुर्माना लगाया जाता है
असहयोग आंदोलन के दौरान
जब गाँधीजी की लोकप्रियता चरम पर पहुंच गई, तो किसी कंपनी ने महात्मा गाँधी छाप सिगरेट ही निकाल दी। यह ख़बर जब गाँधीजी तक
पहुंची, तो उन्होंने बहुत ही कठोर भाषा में 12 जनवरी, 1921 को यंग इंडिया में इस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए लिखा, "मेरे नाम का जितना
भी दुरुपयोग किया गया है, उनमें से कोई भी मेरे लिए उतना अपमानजनक नहीं है, जितना कि जानबूझकर एक कंपनी
का अपनी सिगरेटों के साथ मेरा नाम जोड़ दिया जाना। एक मित्र ने मेरे पास एक लेबल भेजा
है, जिस पर मेरी तस्वीर
छपी हुई है और सिगरेट का नाम 'महात्मा गाँधी सिगरेट' रखा गया है। मैंने
किसी को अपने नाम को सिगरेट के साथ जोड़ने की अनुमति नहीं दी है। अगर यह अज्ञात सिगरेट
कंपनी बाज़ार में पहुंची सिगरेट पर से यह लेबल हटा ले, या अगर जनता ऐसी लेबल वाली सिगरेटें
न ख़रीदे, तो मैं आभार मानूँगा।"
गाँधीजी जब ज़िंदा
थे तभी से उनके नाम की ब्रांड के सहारे अन्य निजी या व्यापारिक व राजनीतिक हेतु को
लेकर चलने वाले लोग या समुदाय भी हुआ करते थे। जिन जिन वाक़यों या घटनाओं का गाँधीजी
को पता लगा, उन्होंने उस दौर में ही उन सभी की परतों को उधेड़ना शुरू कर दिया था।
आज भी यही चीज़ हो
रही है, लेकिन गाँधीजी जैसा कलेजा किसी में नहीं है। निजी कंपनियाँ पीएम तक के फ़ोटो इस्तेमाल
कर लेती हैं, बदले में महीनों तक लीपापोती होती है। जिसकी फ़ोटो इस्तेमाल हुई हो, वो ख़ुद कुछ नहीं
बोलता, बस एकाध मंत्रालय महीनों बाद हरक्त में आकर करोड़ों-अरबो का व्यापार करने वाली
कंपनी पर पाँच सौ रुपये का हास्यास्पद जुर्माना लगा देता है!
वो ज़माना था, जब गाँधीजी
के नाम का बतौर ब्रांड इस्तेमाल होता तो गाँधीजी बहिष्कार की सार्वजनिक अपील कर देते
थे। क्या आज कोई नेता यह कह सकता है कि उस निजी कंपनी ने मेरी तस्वीर बिना इजाज़त इस्तेमाल
की है तो उसके उत्पाद का लोग बहिष्कार कर दें।
शायद महात्मा गाँधी
ही इकलौते इंसान होंगे, जिनके नाम पर दुनिया के अनेक देशों में कुछ न कुछ विद्यमान हैं
खादी और गाँधीजी, इन दोनों की मुश्किल
यह है कि उन्हें पूर्णत: कोई भी पार्टी स्वीकार नहीं करती। या फिर यूँ कह ले कि कोई
पार्टी उन्हें स्वीकार नहीं करना चाहती। उसके पीछे वजह है क्या? सिंपल सी बात है कि
वजह है नियत, नीति, निस्वार्थ मन, त्याग और समाज या राष्ट्र के लिए समर्पित विचारधारा। आजकल कोई भी पार्टी यह चीज़ें
लेकर नहीं चलती। वर्ना खेती और किसानी को लेकर इस देश में बड़े बड़े कार्यक्रम हो रहे
होते।
अगर राजनीतिक दल इन
सबको लेकर चलते तो ग्रामोद्योग, रोजगारी, ग़रीबी तथा मूलभूत व्यवस्थाओं को आज बहुत ज़्यादा अहमियत मिल रही होती, या फिर
वो चीज़ें केवल नारों का शोर नहीं होता। टिकट बँटवारे को लेकर या अन्य सतही मक़सदों
को लेकर दलबदलू प्रजाति वाले नेताओं की तादाद उतनी नहीं होती। गाँधीजी पर अपना एकाधिकार
ज़माने वाली पार्टी करोड़ों या अरबों के घोटालों के नीचे दबी ना होती।
तमाम सरकारों को यह
मालूम है कि गाँधीजी की प्रासंगिकता कम हो चुकी है, लेकिन उनसे पीछा छुड़ाना मुश्किल है। आज कम से कम किसी को गाँधीजी
तो नहीं चाहिए, लेकिन उनका नाम या उनका ज़िक्र अवश्य करना पड़ता है। बेमन से करे या स्वार्थ से
करे, लेकिन करना पड़ता है। अब इसके पीछे वजहें जो भी हो, वो चर्चा का एक अलग
सिरा है।
हमें हमारी सरकारें
चाहे किसी भी कुएँ में मेंढ़क बनाकर रखे, किंतु उन्हें यह मालूम है कि गाँधीजी इस देश का सबसे बड़ा प्रतीक हैं। उन्हें
इस देश में अपमानित किया जाता है, नापसंद भी किया जाता है, लेकिन वैश्विक सत्यता यह भी है कि गाँधीजी के अलावा इस देश में कोई दूसरा नाम
नहीं है, जिनके सहारे निवेश लाया जा सके। अंतरराष्ट्रीय मंच पर जाकर इस देश का कोई
भी नेता किसी और के नाम के सहारे वो जादू नहीं बिखेर सकता, जो गाँधीजी के नाम से बिखेरा
जा सकता है।
दुनिया के अनेक देशों
में, उनके लेखों में, पुस्तकों में, भारत के गाँधी का जितना ज़िक्र मिलता है, उतना और किसी शख़्सियत
का नहीं मिलता। आप कह सकते हैं कि कई देशों ने, उनके कई लेखकों ने, अपने लेखों में या पुस्तकों में गाँधी का ज़िक्र अवश्य किया
हुआ है। दुनिया में कई सड़कें, कई चौराहे, गलियाँ या जगहें ऐसी हैं, जिन्हें गाँधीजी का नाम मिला हुआ है।
भारत में जब भी कोई विदेशी राजनीतिक मेहमान आता है या भविष्य में आएगा, तब-तब उस मेहमान को
साबरमती आश्रम देखने के लिए ही ले जाया जाता है और ले जाया भी जाएगा, किसी गोडसे के घर
की मुलाक़ात कौन करवाएगा भला?
शायद फ़र्क़ यही है कि महात्मा गाँधी ने सत्य के साथ प्रयोग किए... हमारे वर्तमान
कथित महात्मा झूठ के साथ प्रयोग करते हैं।
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)
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