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Modi Bhagwat Chemistry: मोदीजी और मोहनजी, बीजेपी और आरएसएस के रासायनिक सूत्र समझना आसान कहाँ रहा है?

 
लोकसभा चुनाव 2024 के परिणाम, परिणामों में विशेषत: उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र जैसे राज्यों में मोदी नामक बुलबुले का बुरी तरह से फटना, मुख्य रूप से दो-तीन राज्यों तक बीजेपी का सिमट जाना, और उसके बाद यह माहौल की आरएसएस नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री नहीं बनने देगा, आरएसएस बीजेपी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बदल देगा, आरएसएस नरेंद्र मोदी के एकाधिकारवाद को तोड़ देगा, आरएसएस दो लोगों के राजनीतिक दल बीजेपी को फिर से संघयुक्त बना देगा, यह सब बातें आज तक महज़ बातें ही साबित हुई हैं।
 
आप कह सकते हैं कि अंदरुनी तौर पर सब चल रहा है, जो बाहर नहीं दिख रहा। ऐसा कौन सा संगठन नहीं होता जहाँ अंदरुनी तौर पर कुछ न कुछ चल नही रहा होता? दरअसल, पिछले 10 सालों में आरएसएस और बीजेपी, दोनों को जितनी भी सफलताएँ मिलीं, या जितनी भी विफलताएँ मिलीं, उसके दो मुख्य भागीदार हैं। और वे हैं नरेंद्र मोदी और मोहन भागवत। अटल बिहारी वाजपेयी के राजनीतिक सन्यास के सालों बाद बीजेपी जिस तरह और जिस अंदाज़ में केंद्रीय सत्ता तक पहुँची, जिस तरीक़े से सही मायने में राष्ट्रीय दल बनी, और उसके बाद फिर से कुछेक राज्यों के दल वाली स्थिति में पहुंची उसके लिए नरेंद्र मोदी और मोहन भागवत ही ज़िम्मेदार हैं।
 
दरअसल आरएसएस और बीजेपी की केमिस्ट्री को समझ पाना आसान नहीं है। आप आरएसएस के स्वयंसेवक को नरेंद्र मोदी या बीजेपी की सरकार की आलोचना करते देखेंगे, लेकिन वो स्वयंसेवक मोहन भागवत की आलोचना कभी नहीं करेगा। ठीक उसी प्रकार आप बीजेपी के समर्थक को मोहन भागवत या आरएसएस की आलोचना करते देखेंगे, लेकिन वो नरेंद्र मोदी की आलोचना कभी नहीं करेगा। जब बात सत्ता की आएगी तब आलोचना-आलोचना फिंटूस!
 
सर्वप्रथम तो आरएसएस और बीजेपी के बीच सब कुछ ठीक नहीं है ऐसा सोच कर यह मान लेना कि दोनों एक दूसरे से दूर खड़े हैं यह गलतफहमी है। हर चुनाव में, चुनाव न हो तब भी, आरएसएस अपने तमाम निजी या छोटे-मोटे सांगठनिक कार्यक्रमों तक में अपनी सरकार की तारीफ़ ही करता है। पिछले दस सालों में आरएसएस द्वारा मोदी सरकार की आलोचना के नाम पर आपको महंगाई और बेरोजगारी पर एकाध-दो बार किए गए 'औपचारिक विरोध' के सिवा कुछ नहीं मिलेगा।
 
जब आरएसएस को लगा कि बहुत मजबूरी है तभी उसने एकाध-दो वाक्य बोलकर या लिखकर औपचारिकता पूरी की, अन्यथा उसने मोदीजी की या मोदी सरकार की 'गंभीरतापूर्वक आलोचना' की हो ऐसा लगभग ना के बराबर है। 2024 के लोकसभा चुनाव नतीजों के बाद संघ के उच्च पदाधिकारियों द्वारा जितनी कथित आलोचनाएँ हुईं वह आरएसएस की गंभीरता नहीं बल्कि राजनीतिक अनिवार्यता थी।
आरएसएस ने तीन कृषि क़ानूनों के सरकारी कदम का विरोध कब किया था? आरएसएस से जुड़ा किसान संगठन कहाँ किसानों के पक्ष में खड़ा हुआ था? जब किसानों को आतंकवादी, देशद्रोही, टुकड़े टुकड़े गैंग के सदस्य, गद्दार वगैरह कहा जा रहा था तब आरएसएस कहाँ था? बीजेपी के नेता और सांसद बहुत बड़े यौन शोषण आरोपों में घिरे तब आरएसएस ने कब भारतीय संस्कृति की चिंता की थी? जब देश के लिए मेडल जीतने वाली बेटियाँ यौन शोषण के मसले को लेकर जंतर मंतर पर बैठी और नरेंद्र मोदी चुप हो गए तब आरएसएस ने कहाँ कुछ बोला था? उन बेटियों को सड़क पर घसीटा गया तब भी तो आरएसएस चुप था।
 
वन रेंक वन पेंशन के समय जंतर मंतर पर पूर्व सैनिकों को पीटा गया तब आरएसएस ने क्या आपत्ति जताई थी? अग्निवीर पर आरएसएस ने कब जनता का साथ दिया था? कौन सी ऐसी बात रही जिस पर आरएसएस ने नरेंद्र मोदी सरकार का साथ नहीं दिया? मणिपुर पर एक साल तक न तो पीएम मोदी बोले और न मोहन भागवत। कोरोना की त्रासदी, बीजेपी राज्य सरकारों का नाकाम प्रबंधन, तिल तिल मरते लोग, 1947 के बाद का सबसे बड़ा पलायन, कब मोहन भागवत ने केंद्र या बीजेपी राज्य सरकारों की आलोचना की? उलटा मोहन भागवत ने तो निहायत घटिया द्दष्टिकोण अपनाते हुए कह दिया था कि जो कोरोना में मरें वे मुक्त हो गए।
 

आधार- एफडीआई- काला धन- जीएसटी- भूमि अधिग्रहण पर यू टर्न, बांग्लादेश भूमि सौदा जिसमें पूर्व सरकारों के मुक़ाबले मोदीजी ने अधिक गाँव बांग्लादेश को दे दिए, रेल किराया, पेट्रोल डीज़ल की सेंचुरी, ईपीएफ पर टैक्स, नोटबदली (नोटबंदी) वाला ग़लत साबित हो चुका फ़ैसला, जनलोकपाल क़ानून की मृत्यु से लेकर किसान, जवान, महिला पहलवान के मामलों में आरएसएस ने मोदी सरकार के कान कब खीँचे?
 
जिन्ना की मज़ार पर माथा टेकने वाले आडवाणी को आँखें दिखाने वाला आरएसएस कहाँ कुछ कह पाया था जब पीएम मोदी अचानक से पाकिस्तान पहुँच गए थे और नवाज़ शरीफ़ की माता के पैर छूकर बिरयानी खाकर लौटे थे। आरएसएस कहाँ कुछ बोला था जब देश के इतिहास में पहली बार पाकिस्तान की बदनाम संस्था आईएसआई को पठानकोट एयरबेस पर आतंकी हमले की जाँच के लिए घूसने की परमीशन दी गई थी।
 
मोदी सरकार के मंत्री के बेटे ने बीच सड़क किसानों को कुचलकर मार दिया और फिर मोदी सरकार अपने मंत्री का खुलकर साथ देने लगी तब आरएसएस ने कहाँ कुछ बोला था? आरएसएस ने तो तब भी आपत्ति नहीं जताई जब 2024 के लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान देश के पीएम प्रज्वल रेवन्ना को जीताने की अपील कर आए। मोदी को भगवान बताया गया, योगी को अवतार बताया गया तब भी आरएसएस चुप था। वह तो तब भी चुप था जब मोदी ने स्वयं ही स्वयं को नॉन बायोलॉजिकल कह दिया।
ये सही बात है कि संघ परिवार के दत्तात्रेय होसबोले ने बेरोजगारी और महंगाई के मुद्दे पर एकाध बार सरकार की आलोचना की थी। ये सही बात है कि आरएसएस ने अपने कुछेक लेखों में बेरोजगारी और महंगाई को लेकर सरकार की आलोचना की थी। किंतु यह इस तरह और इतनी मात्रा में था कि मैट्रिक पास तक को पता चलेगा कि वह औपचारिकता थी। करने और कहने के लिए, ताकि भविष्य में कोई यह न कहे कि आरएसएस कुछ बोलता नहीं।
 
इससे इतर पिछले सालों में बड़े बड़े मसले थे, जिस पर मोदी सरकार हर स्थापित परंपरा, नियमों का नाश करती रही, लोकतंत्र का नाक कटाती रही, इधर आरएसएस मौन साधना करता रहा। दरअसल, जितना भी अच्छा और बुरा हुआ उसमें मोदीजी और मोहनजी, दोनों की हिस्सेदारी है।
 
आरएसएस और नरेंद्र मोदी के बीच सब कुछ ठीक नहीं है ऐसा कहा जा रहा है। आरएसएस और वाजपेयीजी के बीच भी कहाँ सब कुछ ठीक रहा था? दरअसल आरएसएस की कार्यशैली को देखें तो आरएसएस सदैव बीजेपी पर नियंत्रण चाहता है और इस नियंत्रण के ज़रिए उसकी मनशा रहती है कि राज्य या केंद्र में सत्ता के समय उसके अपने एजेंडे की पूर्ति होती रहे। बीजेपी का संगठन हो, विशेष पदाधिकारी हो, समन्वय का मामला हो, चुनाव के मामले हो, आरएसएस हर मोर्चे पर बीजेपी को संघयुक्त रखने की कोशिश करता है।

 
ख़ुद को सांस्कृतिक या सामाजिक संगठन बताने वाले आरएसएस की असली पहचान सार्वजनिक है। दरअसल इस देश में, दुनिया में अनेक सांस्कृतिक, सामाजिक, धार्मिक संगठन हैं और सारे राजनीति या सत्ता तक पहुँच की चाहत भी रखते हैं। किंतु आरएसएस ऐसा संगठन है जो धर्म, संस्कृति और समाज को अपने एजेंडे के मुताबिक़ साधने के लिए एक विशाल राजनीतिक विंग बीजेपी को चलाता है। अंग्रेज़ों की सत्ता हो, कांग्रेस की हो, ग़ैरकांग्रेसी सत्ता हो, आरएसएस ने सदैव स्वयं को 'लचीला' बनाया। तो फिर वह अपने ही विंग के दौर में लचीला नहीं बनेगा? ज़रूर बनेगा। फ़र्क़ यह कि अपना ख़ुद का विंग है, इसलिए लचीला बनते हुए अधिकार की स्थापना क़ायम रहे यह भी देखेगा।
 
आरएसएस पैतीसो अलग अलग संगठनों के ज़रिए काम करता है। किसी को लगेगा कि सब अलग अलग हैं, लेकिन असल में जड़ें एक ही होती हैं। उन पैतीसो अलग अलग संगठनों में बीजेपी उसका प्रमुख राजनीतिक विंग है। आरएसएस राजनीति, सत्ता, धर्म, शिक्षा, समाज, जाति, उपजाति, हर जगह अपनी पैंठ जमाते हुए देश की किसी भी घटना से ख़ुद को जोड़े रखना चाहता है। वह नहीं चाहता कि उसका ढाँचा चुनाव से प्रभावित हो, बल्कि वो चुनाव को प्रभावित करने की मनशा धारण करके आगे बढ़ता है।
अगर कहीं बीजेपी सत्ता में आती है, चाहे वो राज्य हो या केंद्र, अमूमन आरएसएस की कोशिश यही होती है। वह सरकार के कामकाज में दखल नहीं देता, किंतु इतना चाहता है कि मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री उसे विश्वास में लेकर आगे बढ़े। आरएसएस राज्य या केंद्र में स्थापित बीजेपी सरकारों के मुख्यमंत्रियों या उनके उच्च प्रतिनिधियों को अपने घर सरकार के रिपोर्ट कार्ड के साथ बुलाता है।
 
सत्ता प्राप्ति की स्थिति में आरएसएस शिक्षा क्षेत्र पर नियंत्रण की चाहत ज़रूर रखता है। राजनीति में नरेंद्र मोदी हो या अटल बिहारी वाजपेयी हो, आरएसएस अपनी इस शैली को छोड़ता नहीं और इसी वजह से सब कुछ ठीक नहीं है वाला माहौल बनता रहता है। जबकि दोनों के लिए यह 'पुरानी और सामान्य स्थिति' है।
 
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी हो या वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, आरएसएस और तत्कालीन बीजेपी प्रधानमंत्रियों के बीच सब कुछ ठीक नहीं है वाली स्थिति हमेशा रही। हालाँकि यह सच है कि धर्मसंसद में प्रधानमंत्री वाजपेयी को सरेआम नसीहत देने की हिम्मत रखने वाला आरएसएस, जिन्ना की मज़ार पर माथा टेकने के बाद अपने हिंदू हृदय सम्राट लालकृष्ण आडवाणी को डाँटने का साहस रखने वाला आरएसएस नरेंद्र मोदी के सामने चुप हो जाता है। इसमें कोई शक नहीं।
 
और इसकी वजहें सभी को पता है। इसके बारे में हम इसी लेख में आगे संक्षेप में चर्चा करेंगे। किंतु इसका अर्थ यह बिलकुल निकाला नहीं जा सकता कि आरएसएस और मोदी एकदूसरे के ख़िलाफ़ काम करेंगे। बिलकुल नहीं। आरएसएस, जो ख़ुद को बहुत बड़ा संगठन बताता है, वह दरअसल इतना 'लचीला' और इतना 'राजनीतिक' है कि वह अपनी स्थापित राजनीतिक सत्ता के ख़िलाफ़ खड़ा रहने की मूर्खता नहीं करता।
 
आरएसएस मौक़ा देखता है, स्थिति देखता है, धैर्य धारण करता है और जब फ़ायदेमंद हो तभी एक झटके में अपने राजनीजिक विंग का चेहरा बदल देता है। लोगों के लिए वाजपेयी या नरेंद्र मोदी भगवान होंगे, आरएसएस के लिए नहीं होते। आरएसएस अपने राजनीतिक विंग में कोई भगवान बने यह बिलकुल नहीं चाहता और वह ख़ुद बीजेपी के किसी लोकप्रिय नेता को सर्वकालीन नायक नहीं मानता। वैसे वह यह प्रयत्न ज़रूर करता है कि किसी नेता को जनता भगवान माने। आरएसएस चुनावी राजनीति, वोट बैंक, सत्ता प्राप्ति का मौक़ा, सत्ता प्राप्ति की संभावना, इन्हीं चीज़ों को प्राथमिकता देता है और जब भी मुमकिन हो बदलाव कर देता है।
यह बात ज़रूर है कि वाजपेयीजी के मुक़ाबले नरेंद्र मोदी अति महत्वाकांक्षी और अति क्रूर राजनीति के वाहक है। यह बात ज़रूर सच है कि नरेंद्र मोदी ने सालों से एक राज्य में और फिर देश भर में अपने पितृ संगठन आरएसएस को मुठ्ठी में भींचने की शैली धारण की है और वह इसमें सफल भी हुए हैं।
 
किंतु आरएसएस नरेंद्र मोदी से भी घोर राजनीतिक है। नरेंद्र मोदी के पास समय नहीं है, आरएसएस के पास बहुत समय है। आरएसएस ज़ल्दबाजी नहीं करता, वह अपनी ही सत्ता के ज़ुल्मों को सह कर चुप रहने की राजनीतिक चालाकी रखता है। नरेंद्र मोदी के पास वक़्त नहीं है, आरएसएस के पास सालों का समय है। जब भी मौक़ा मिलेगा, आरएसएस अपनी संतान बीजेपी पर नियंत्रण पा लेगा। लेकिन इसके लिए वह नरेंद्र मोदी को, बीजेपी को असह्योग करेगा या कर रहा है ऐसा मानना बेवक़ूफ़ी है।
 
आरएसएस तो आज भी, 2024 के लोकसभा चुनाव नतीजे में सीटें गँवाने के बाद भी अपने तमाम छोटे-मोटे कार्यक्रमों में उसी प्रकार से भाषण करता है, जैसा अरसे से करता आया है। उसके भाषणों में गाँधीजी और नेहरू की आलोचना, झूठे इतिहास का दर्शन, हिंदूत्व, अपने सरकारों की तारीफ़ कॉमन सब्जेक्ट रहता है। उसके छोटे-मोटे सांगठनिक कार्यक्रमों के भाषणों में किसी एक घटना का लंबा-चौड़ा विवरण और उस विवरण को परोसते समय गाँधीजी की आलोचना, नेहरू को विलेन दर्शाना, झूठे इतिहास का दर्शन, हिंदूत्व, अपने सरकारों की तारीफ़, इन सभी विषयों को चालाकी से और सौम्य भाषा में गूँथता रहता है।

 
भारत का संविधान भारत को लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष देश घोषित करता है, जबकि बीजेपी और आरएसएस सबसे पहले 'देश' को हटाकर 'राष्ट्र' लगाते हैं, ताकि 'देशभक्ति की समझ' की जगह 'राष्ट्रवाद की सनक' स्थायी हो। और फिर दोनों संवैधानिक रूप से लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष घोषित देश को हिन्दू राष्ट्र बताते हैं।
 
बीजेपी और आरएसएस की बात करते समय कुछ तथ्यों को सबसे पहले लिखा जाना चाहिए। वो यह कि आरएसएस एक राजनीतिक दल ही है। वह न तो सामाजिक संगठन है, न सांस्कृतिक संगठन। उपरांत आरएसएस के अपने मुखौटे हैं, जिसे घारण करते हुए वह काम करता है। आरएसएस सौ साल पूरे करने जा रहा है, किंतु इन सौ सालों में उसका अपना कोई गौरवपूर्ण इतिहास नहीं रहा है। उलटा यह संगठन अनेक ऐतिहासिक विवादों का हिस्सेदार रहा है। मुस्लिम लीग से समझौता, स्वतंत्रता आंदोलनों से दूरी, भारत के सबसे बड़े राष्ट्रीय प्रतीक तिरंगे से दूरी या नफ़रत, एक समय भगवान श्री राम से किनारा करना, अंग्रेज़ी सत्ता- मुस्लिम लीग और इंदिरा गांधी के आपातकाल के समय में इसका विवादित लचीलापन, आरएसएस का यह इतिहास सार्वजनिक है।
अपना कोई स्वर्णिम इतिहास नहीं होने की वजह से नेहरू और गाँधीजी को दोषपूर्ण तथ्यों और झूठे दावों से बदनाम करते रहना, अपने तमाम सांगठनिक कार्यक्रमों के भाषणों में इतिहास और तथ्यों को आलू-मटर की तरह छीलना और झूठे इतिहास को गढ़ना, महानायकों को विभाजित करना, दूसरों की पंक्ति को छोटी कर ख़ुद को बड़ा दिखाना, समाज को पुरातन काल- झूठा भारतीय इतिहास- मनुस्मृति वाली संस्कृति आदि में व्यस्त रखना, अपनी उस विचारधारा और मान्यता के मुताबिक़ देश की व्यवस्था बने इसी एजेंडे पर संघर्ष करते रहना आरएसएस की शैली रही है।
 
तथ्य बताते हैं कि आरएसएस ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में कोई विशेष योगदान नहीं दिया था। स्वतंत्रता संग्राम में आरएसएस के योगदान को मैग्निफायर से ढूँढना पड़ता है। वह आज जिन जिन महानायकों की पूजा करता है उसमें से एक भी नायक या महानायक का आरएसएस से या उसकी विचारधारा से दूर दूर तक वास्ता नहीं था। ना महात्मा गाँधी का, ना सरदार पटेल का, ना भगत सिंह, ना सुभाष बाबू, ना चंद्रशेखर आज़ाद का। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान मुस्लिम लीग से गठजोड़, क्रांतिकारियों और अहिंसावादियों से दूरी, स्वतंत्रता आंदोलनों से अपने स्वयंसेवकों को दूर रहने की नसीहत देने वाला वह सार्वजनिक और प्रचलित लेख। भारत के स्वर्णिम इतिहास की मिसाल देने वाले आरएसएस का यह इतिहास जगज़ाहिर है।
 

एक आरोप हमेशा लगता रहता है कि आरएसएस के पास बौद्धिकों की कमी है। यह आरोप कितने सही हैं, कितने ग़लत यह हमें नहीं पता। इतना पता है कि इसी घर से अटल बिहारी वाजपेयी निकले जिन्होंने एक झटके में आरएसएस से इतनी दूरी बना ली कि वे देश भर में लोकप्रिय बने। वाजपेयीजी की राजनीति, वकतृत्व शैली, भाषा पर पकड़, विदेश नीति पर गहरी समझ काफी प्रसिद्ध है। दूसरी तरफ़ इसी घर से नरेंद्र मोदी निकले, जिन्होंने न केवल आरएसएस से दूरी बनाई बल्कि उसे नियंत्रित और ख़ुद से छोटा भी किया और मीडिया मार्केटिंग के सहारे देश भर में लोकप्रिय बने। हालाँकि क्रूर राजनीति के सिवा मोदीजी के पास कोई भी विशेषता नहीं होने की वजह से इनकी दूसरे विषयों पर किसी प्रकार की कोई प्रसिद्धी नहीं है, जैसी वाजपेयीजी के पास है।
 
वाजपेयी-आडवाणी से लेकर मोदी-शाह के दौर तक आरएसएस ने सत्ता, सत्ता में भागीदारी, अपने एजेंडे की थोड़ी बहुत पूर्ति समेत अनेक सफलताएँ हासिल की। हर बार उसका अपनी राजनीतिक सत्ता के साथ विवाद होता रहा। किंतु वह आरएसएस और बीजेपी ही हैं जिन्होंने अखंड भारत, हिंदू एकता, हिंदू ख़तरा जैसे उलाहनों को फैलाया। इन्होंने गाँधीजी और सरदार पटेल को अलग किया, गाँधीजी और भगत सिंह को विभाजित किया, गाँधीजी और नेहरू को कभी एक बताया तो कभी स्थिति अनुसार दोनों को अलग किया।
 
आरएसएस और मोदी भक्त, इन दोनों में से आप मोदी भक्त पर यक़ीन कर सकते हैं। क्योंकि आपको पता चल जाता है कि वह कितने पानी में है। मोदी भक्त ज़ल्द ही अपनी पहचान करा देता है और उसका आकलन आप ज़ल्दी से कर सकते हैं। आरएसएस का या उसके स्वयंसेवक का पानी आप माप नहीं सकतें। वह रहस्यमयी होते हैं। मोदी भक्त में उतावलापन, गुस्सा, अहंकार, नफ़रत, अज्ञानता आदि के गुण आपको तुरंत दिख जाएँगे, पता चल जाएगा कि वह भ्रमित अवस्था में है। जबकि स्वयंसेवक इससे ठीक उलटा होता है। वह धैर्यवान, शांत, शालीन और ज्ञानी दिखता है। आपको सुनता है, स्वीकारता है और इस तरह से आपको एक भ्रम में डालता है।
बात नरेंद्र मोदी और मोहन भागवत की या तो नरेंद्र मोदी, बीजेपी और आरएसएस की करनी है इसलिए हम उसी सड़क को नाप लेते हैं। यूँ तो नरेंद्र मोदी का राजनीति और आरएसएस से रिश्ता पुराना है, किंतु नरेंद्र मोदी का राजनीतिक ज़मीन पर अतिसक्रीय रूप से चलने का समय देखें तो 1994 से 2024 तक नरेंद्र मोदी की राजनीतिक प्रवृत्ति के दौरान चार सरसंघचालक आए।
 
नरेंद्र मोदी राजनीतिक ज़मीन पर अतिसक्रिय हुए तभी 1994 में मधुकर दत्तात्रेय देवरस (बालासाहेब देवरस), जिनका कार्यकाल उसी साल समाप्त हो गया। उसी समय 1994 से 2000 तक प्रो. राजेंद्र सिंह (रज्जू भैया), 2000 से 2009 तक कृपाहल्ली सीतारमैया सुदर्शन (सुदर्शनजी) और अंत में 2009 से अब तक डॉ. मोहनराव मधुकरराव भागवत (मोहन भागवत)।
 

इसी कालखंड में बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्षों पर एक नज़र डाले तो, 1993-98 तक लालकृष्ण आडवाणी, 1998-2000 कुशाभाऊ ठाकरे, 2000-01 बंगारू लक्ष्मण, 2001-02 जना कृष्णमूर्ति, 2002-04 वेंकैया नायडू, 2004-05 लालकृष्ण आडवाणी, 2005-09 राजनाथ सिंह, 2009-13 नितिन गडकरी, 2013-14 राजनाथ सिंह, 2014-20 अमित शाह तथा 2020 से वर्तमान तक जेपी नड्डा।
 
यूँ तो गुजरात में साल 2001 से ही आरएसएस ने नरेंद्र मोदी के सामने हथियार डाल दिए थे यह मालूम पड़ता है। बतौर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने न सिर्फ़ आरएसएस से दूरी बनाई बल्कि गुजरात में आरएसएस की ताक़त को अपनी मुठ्ठी में भींच कर उसे बोना कर दिया।
 
जो आरएसएस पैतीसो अलग अलग संगठनों को अपनी मुठ्ठी में भींच कर काम किया करता था उस आरएसएस को बतौर गुजरात के मुख्यमंत्री वे उसी शुरुआती महीनों में अपनी मुठ्ठी में भींच चुके थे। आरएसएस और उसके प्रॉक्सी संगठनों को अपने वश में करना, उसके वो पदाधिकारी जो भविष्य में ख़ुद की राह में रोड़ा बन सकें उन्हें विवादित और क्रूर राजनीति के ज़रिए ठिकाने लगाना, आरएसएस के प्रचारक नरेंद्र मोदी की यह जगविख्यात शैली दरअसल आरएसएस के ऊपर ही सवाल खड़ा करती है, जिसने ऐसे नेता अपने राजनीतिक विंग बीजेपी को सुप्रत किए, जिसने आख़िरकार उसी आरएसएस को आँखें दिखाकर चुप करा दिया।
गुजरात बीजेपी का सन 2000 से पहले का राजनीतिक इतिहास स्पष्ट दर्शाता है कि उस दौर में शंकरसिंह वाघेला, केशुभाई पटेल और नरेंद्र मोदी, यह तीनों गुजरात में बीजेपी की जड़ें मजबूत करने का काम कर रहे थे। यह वो दौर था जब गुजरात में बीजेपी कोई ख़ास स्थिति में नहीं थी। तीनों ने गुजरात के शहर-शहर, गाँव-गाँव घूमते हुए बीजेपी को राज्य के हर कोने में पहुँचाया।
 
उस जगज़ाहिर राजनीतिक इतिहास में एक समय वह भी आया जब शंकरसिंह वाघेला और नरेंद्र मोदी की महत्वाकांक्षा आपस में टकराने लगी। नरेंद्र मोदी पर आरोप लगा कि उनका लक्ष्य पार्टी का विस्तार नहीं बल्कि पार्टी पर नियंत्रण का है। कुछेक घटनाएँ हुईं, कुछेक विवाद हुए और आख़िरकार बीजेपी के हाईकमान को फ़ैसला लेना पड़ा और नरेंद्र मोदी को गुजरात के बाहर भेज दिया गया। कुछ लोग कहते हैं कि अमित शाह क़ानूनी ढंग से तड़ीपार हुए थे, लेकिन उनसे पहले उनके राजनीतिक गुरु नरेंद्र मोदी गुजरात बीजेपी के प्रथम राजनीतिक तड़ीपार बने थे।
 
नरेंद्र मोदी को गुजरात से हटाकर दिल्ली भेज दिया गया। आरोप वही कि वे पार्टी पर नियंत्रण चाहते हैं, पार्टी का विस्तार नहीं। दिल्ली में रहकर भी वे शांत नहीं थे। गुजरात के स्थानीय पत्रकारों के कुछेक लेखों के मुताबिक़ नरेंद्र मोदी ने दिल्ली में रहते हुए गुजरात बीजेपी और गुजरात में पहली बार बनी बीजेपी की सरकार के विरुद्ध राजनीतिक चालें चलीं। इधर नरेंद्र मोदी के राजनीतिक गुरु थे लालकृष्ण आडवाणी।

 
उस समय केंद्र में भी बीजेपी की सत्ता थी और प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी थे। वाजपेयी-आडवाणी की जुगलबंदी बड़ी लंबी चली और मशहूर भी रही। किंतु वो दौर भी आया जब वाजेपयी सरकार के दौर में कथित रूप से आडवाणीजी की प्रधानमंत्री पद की महत्वाकांक्षा फिर से उबाल मारने लगी। अनेक लेखों में दर्ज है कि वाजपेयी आडवाणीजी की इस महत्वाकांक्षा से सतर्क हो चुके थे।
 
हो सकता है कि दिल्ली की केंद्र सरकार को भी नरेंद्र मोदी से छुटकारा पाना हो, अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने प्रतिस्पर्धी आडवाणी के महत्वाकांक्षी शिष्य नरेंद्र मोदी को 2001 में दिल्ली से गुजरात भेज दिया। गुजरात में भूचाल आया था और उसके बाद स्थिति को संभालने के मामले में बीजेपी शासित केशुभाई पटेल सरकार की ख़ूब आलोचना हो रही थी। कहते हैं कि इसके पीछे भी नरेंद्र मोदी थे, जो केशुभाई पटेल के ख़िलाफ़ बातें मीडिया को दे आते थे। वाजपेयीजी ने शायद उस समय के केंद्रीय राजनीतिक शीतयुद्ध में एक मौक़ा देखा और इन्हें दिल्ली से रवाना कर दिया।
गुजरात से जबरन निकाले गए मोदीजी को दिल्ली ने भी अपने हिसाब से दूर किया और वापस गुजरात भेज दिया। वह 2001 का साल था, जब केशुभाई पटेल की जगह नरेंद्र मोदी को मुख्यमंत्री बनाया गया। और उसके बाद जो हुआ वह अमूमन सबको पता है। गोधरा काँड, गुजरात राज्य के वह दंगे, विधानसभा चुनाव, घटनाक्रम तेज़ी से बदलने लगे।
 
इस दौरान नरेंद्र मोदी और आरएसएस के बीच संघर्ष का वह पहला सार्वजनिक घटनाक्रम भी घटा। इस घटनाक्रम ने नरेंद्र मोदी की उस विवादित राजनीतिक शैली को प्रथम बार सामने रखा, जिसमें उनकी ज़िद, राजनीतिक नफ़रत आदि को स्पष्ट रूप से देखा गया।
 
गुजरात में मध्यावधि चुनाव होने वाले थे। उस समय बीजेपी शहरी इलाक़े की पार्टी मानी जाती थी। और शहरी इलाक़ों में बीजेपी के लिए सबसे सुरक्षित सीट मानी जाती थी अहमदाबाद का एलिसब्रिज विधानसभा क्षेत्र। यहाँ बीजेपी से राज्य के दिग्गज नेता हरेन पांड्या लड़ा करते थे। हरेन पांड्या छोटे-मोटे नेता नहीं थे। उनके पास मजबूत राजनीतिक ज़मीन थी, उनके पास अपना विशाल समर्थक गण भी था। वे राज्य के गृह मंत्री भी रह चुके थे। हरेन पांड्या केशुभाई पटेल के खेमे के आदमी थे और नरेंद्र मोदी केशुभाई पटेल के ख़िलाफ़ काम करके राज्य की सत्ता तक पहुंचे थे।
 
नरेंद्र मोदी ने मुख्यमंत्री पद संभ्हालते ही हरेन पांड्या से गृह मंत्रालय छीन लिया और उन्हें राजस्व राज्य मंत्री बना दिया। द लल्लनटॉप के लिए कुलदीप की 5 जुलाई 2019 की रिपोर्ट में दर्ज है, "अहमदाबाद के आसमान के पुराने पक्षी बताते हैं कि 2002 गोधरा काँड के बाद प्रदेश कैबिनेट की मीटिंग में हरेन पांड्या ही थे, जिन्होंने कारसेवकों की लाशें खुले ट्रक में अहमदाबाद में घुमाने का विरोध किया था। उससे हालात ख़राब हो सकते थे और बाद में वही हुआ भी। वह इक़लौते शख़्स थे जो पीड़ितों के परिवार और मुस्लिम नेताओं को बातचीत की टेबल पर ला सकते थे। सरकार उनका इस्तेमाल कर सकती थी, लेकिन उन्हें मीटिंग में चुप करा दिया गया।"
 
कहते हैं कि गोधरा काँड के बाद भड़की हिंसा की जाँच के लिए बने ट्रिब्यूनल के समक्ष हरेन पांड्या ने अपना बयान दर्ज कराया था, जो तत्कालीन सरकार की निष्क्रियता की तरफ़ निर्देशित था। नरेंद्र मोदी को असहमती और प्रतिस्पर्धा बर्दास्त नहीं थी। पांड्या को पार्टीविरोधी गतिविधियों के आरोप लगाकर मंत्रालय से बाहर किया गया। आउटलुक की स्टोरी की माने तो आडवाणी और जेटली ने नरेंद्र मोदी पर दबाव डाला, लेकिन मोदी पांड्या के मुद्दे पर नहीं माने।
मध्यावधि चुनाव से ठीक पहले नरेंद्र मोदी ने फिर चाल चली और अपने राजनीतिक प्रतिद्वंदी हरेन पांड्या की सीट माँगी। वो सीट सबसे सुरक्षित भी थी और विरोधी खेमे वालों की भी। नरेंद्र मोदी ने एलिसब्रिज सीट से चुनाव लड़ने की इच्छा प्रकट की। स्वाभाविक है कि इनकी इस इच्छा को माना नहीं गया। नरेंद्र मोदी ने अपनी ज़िद और इसमें इनकी जो छुपी राजनीतिक चाल थी उसे छोड़ा नहीं। वे अड़ गए। हाईकमान और आरएसएस, दोनों ने नरेंद्र मोदी को दूसरी सीट पसंद करने के लिए कहा लेकिन मोदी नहीं माने।
 
उधर हरेन पांड्या ने सरेआम कह दिया कि मैं किसी के लिए भी अपनी सीट छोड़ दूँगा लेकिन नरेंद्र मोदी के लिए नहीं छोडूँगा। मैगज़ीन कैरेवन ने एक बीजेपी नेता के हवाले से छापा था, "हरेन का कहना था कि किसी भी नौजवान के लिए ये सीट छोड़ दूँगा, पर उस आदमी के लिए नहीं।"
 
विवाद ख़ूब बढ़ा। हर दिन अख़बारों में गुजरात बीजेपी की इस घटना को छापा जा रहा था। दोनों अड़ गए थे। उधर विधानसभा चुनाव सर पर था। आख़िरकार आरएसएस ने दोनों को एक साथ बिठाकर इस समस्या का अंत लाने की कोशिश की। नवंबर 2002 के आख़िर में आरएसएस की तरफ़ से मदनदास देवी मोदी से मिलने पहुँचे। मदनदास देवी सरसंघचालक केसी सुदर्शन, उनके डिप्टी मोहन भागवत और अटल बिहारी वाजपेयी का संदेश लेकर आए थे, जो था- "बवाल ख़त्म करों। चुनाव से पहले आपस में मत लड़ो और पांड्या को उनकी सीट दे दो।"
 
किंतु नरेंद्र मोदी ने यहाँ एक विचित्र नाटक किया। उन्होंने देवी से मुलाक़ात ही नहीं की। मोदी जानते थे कि कुछ ही देर में दिल्ली और नागपुर से फ़ोन बजने लगेंगे। अपने विचित्र नाटक के अनुसार नरेंद्र मोदी ख़राब स्वास्थ्य का बहाना कर गांधीनगर सिविल अस्पताल में भर्ती हो गए!
 
बीमारी का बहाना कर अस्पताल में भर्ती होने के नरेंद्र मोदी के इस नाटक का उन दिनों ख़ूब मखौल उड़ा। कैरेवन मैगज़ीन ने एक बीजेपी नेता के हवाले से छापा था कि हरेन पांड्या को जब ये पता चला तो वो मोदी से भिड़ने सीधे अस्पताल पहुँच गए और कहा, "कायरों की तरह सोओ मत। हिम्मत है तो मुझसे ना कहो।"
 
कुछ बीजेपी राजनेताओं ने ही इसे मोदी की नौटंकी कह दिया और आरोप लगाया कि मोदी अपनी बात को सही साबित करने के लिए आमने-सामने बैठ कर बात करने की हिम्मत नहीं रखते। नरेंद्र मोदी की इस प्रकार की राजनीतिक शैली आज तक निरंतर जारी है।
आख़िरकार पुराने और अनुभवी नेता हरेन पांड्या को सीट छोड़नी पड़ी और सेफ सीट जीतकर नये नेता नरेंद्र मोदी विधानसभा पहुंचे। साथ ही अपने दूसरे या तीसरे राजनीतिक शिकार का अभिमान लेकर भी। लाज़मी है कि प्रथम दो शिकार तो केशुभाई पटेल और शंकरसिंह वाघेला थे। यहाँ सार्वजनिक रूप से प्रसिद्ध राजनीतिक शिकार की बात है।
 
और फिर नरेंद्र मोदी ने अपने राजनीतिक जीवन में रोड़ा बन सकें ऐसे, जिनके साथ इनके पूर्व में वैचारिक अंतर रहे ऐसे तमाम नेताओं का राजनीतिक शिकार करना शुरू किया। प्रवीण तोगड़िया, जो नरेंद्र मोदी के ख़ास दोस्त थे, जो उन दिनों हिंदूओं के लिए एक बड़े नेता थे, जिन्हें नरेंद्र मोदी ने उन दिनों विधानसभा चुनाव प्रचार के लिए हेलीकॉप्टर तक दिया था, उन्हें चुनाव जीतने और मुख्ममंत्री की शपथ लेने के तुरंत बाद तमाम तरह से काटना शुरू कर दिया। अगले साल 2003 में राज्य के पूर्व गृह मंत्री और दिग्गज नेता हरेन पांड्या की अहमदाबाद के व्यस्त इलाक़े में हत्या कर दी गई, जिसका आरोप पांड्या के पिता और पत्नी ने नरेंद्र मोदी पर लगाए।
 
जिन्ना की मज़ार पर माथा टेकने के बाद लालकृष्ण आडवाणी के घर जाकर आरएसएस का सख़्त संदेश देने की हिम्मत रखने वाले संजय जोशी, जो उन दिनों गुजरात आरएसएस में बड़ा नाम थे, उन्हें 2005 में एक कथित राजनीतिक षडयंत्र का शिकार होना पड़ा। इस षडयंत्र ने संजय जोशी का करियर लगभग ख़त्म ही कर दिया। आरोप लगाए जाते हैं कि यह षडयंत्र नरेंद्र मोदी का ही आयोजन था।
 
बतौर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने तमाम राजनीतिक प्रतिद्वंदियों और आरएसएस तथा उससे जुड़े पैतीसो संगठनों के पदाधिकारियों को नियंत्रण में लिया, जो नहीं आए उन्हें किसी न किसी तरह से दूर किया। उस ज़माने में, जब इन सब चीज़ों के चलते नरेंद्र मोदी का बीजेपी में ही विरोध हो रहा था, तब वो गौतम अडानी ही थे जिनसे नरेंद्र मोदी का रिश्ता परवान पर था। नरेंद्र मोदी चालाकी से अपने राजनीतिक प्रतिद्वंदियों को कमज़ोर कर रहे थे, दूसरी तरफ़ उद्योगपतियों और फंडिंग के मामले में संपन्न होकर सत्ता का पूरा नियंत्रण अपने हाथ में लेने की तरफ़ आगे बढ़ रहे थे।
 
गोधरा दंगे से लेकर हरेन पांड्या हत्या काँड, प्रवीण तोगड़िया काँड, संजय जोशी काँड, विवादित मुठभेडों के मामले, राजनीति के विवादित स्तर को छूना, ग़लत बयानबाजी करना जैसे कई ऐसे चैप्टर हुए इस काल में। नरेंद्र मोदी अपना मेकओवर करते रहे और कभी ख़ुद को हिंदू रक्षक, कभी स्वयं को ग़ैर मज़हबियों का सबसे बड़ा निशाना, कभी सख़्त प्रशासक, कभी तकनीक प्रेमी, कभी विकास पुरुष, बताते रहे। 1999 से पहले के मोदी, 1999 से 2001 के मोदी, 2001 से 2002 तक के मोदी, 2002 से 2006 तक के मोदी, 2006 के बाद के मोदी, 2010 से 2013 के मोदी, इनका आकलन हर किसी को अलग अलग खंडों में अलग अलग तरीक़े से करना पड़ा।
बीजेपी में अटल-आडवाणी के बाद मोदी-शाह की जोड़ी प्रचलित होने लगी। कथित फ़र्ज़ी मुठभेड़ मामलों का दौर आया, जिसमें हर मुठभेड़ के बाद यही बताया जाने लगा कि मारे गए लोग आतंकवादी थे और वे राज्य के सीएम नरेंद्र मोदी की हत्या करने आए थे। सोहराबुद्दीन, तुलसी प्रजापति, इशरत जहाँ जैसे मुठभेड़ मामले विवादों में आए। इस बीच सोहराबुद्दीन मुठभेड़ मामले में नरेंद्र मोदी के एकमात्र विश्वासपात्र साथी अमित शाह को अदालत ने गुजरात से तड़ीपार कर दिया।
 
गोधरा दंगों के मामले और कथित फ़र्ज़ी मुठभेड़ों के मामले ने नरेंद्र मोदी-अमित शाह की जोड़ी को ख़ूब परेशान किया। अमित शाह को अदालत ने गुजरात से बाहर भेज दिया। उन दिनों नितिन गडकरी बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे, जो आरएसएस के विश्वासपात्र माने जाते थे। कुछेक पत्रकार दावा करते हैं कि उन दिनों अमित शाह की स्थिति यह थी कि उन्हें नितिन गडकरी घंटों इंतज़ार कराते थे। अमित शाह को नितिन गडकरी की ऑफ़िस के बाहर आम आदमी की तरह बैठकर इंतज़ार करना पड़ता था।
 

इस बीच नरेंद्र मोदी अपना मेकओवर करना शुरू कर चुके थे। गुजरात में वाइब्रंट गुजरात समारोह होने लगे थे और गुजरात में बड़े बड़े उद्योगपतियों को निवेश के लिए आमंत्रित किया जाने लगा था। सिंगूर में टाटा मोटर्स के सामने लोगों का विरोध हुआ तो नरेंद्र मोदी ने लगभग मुफ़्त के दाम में गुजरात के साणंद में प्लांट के लिए ज़मीन दे दी। गौतम अडानी से इनकी नज़दीक़ी तो थी ही। ये वो दौर था जब हिंदू नेता के रूप में ख़ुद को स्थापित करने वाले मोदी अब स्वयं को विकास पुरुष के रूप में ढाल रहे थे।
 
शंकरसिंह वाघेला, केशुभाई पटेल, हरेन पांड्या, प्रवीण तोगड़िया, संजय जोशी, गोरधन झडफिया, अपने राजनीतिक गुरु लालकृष्ण आडवाणी जैसे घर के ही लोगों को ठिकाने लगाने वाले, आरएसएस से जुड़े दूसरे संगठनों, पदाधिकारियों तक को अपनी क्रूर राजनीति का परिचय देने वाले नरेंद्र मोदी जब उद्योगपतियों और अपने कट्टर समर्थकों की मदद से 2012 के बाद स्वयं को बीजेपी के प्रधानमंत्री उम्मीदवार के रूप में स्थापित कर रहे थे तब आरएसएस ने और राजनीति में उसके प्रतिनिधियों ने, जिसमें वाजपेयी, आडवाणी, गडकरी, शिवराज सिंह, वसुंधरा राजे, मुरली मनोहर जोशी, राजनाथ सिंह से लेकर सुषमा स्वराज आदि थें, ने मोदीजी को रोकने की हर मुमकिन कोशिश की।
 
बीबीसी हिंदी के लिए प्रदीप सिंह की रिपोर्ट के मुताबिक़ मई 2013 में गोवा राष्ट्रीय कार्यकारिणी में नरेंद्र मोदी को चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष बनने का फ़ैसला नहीं टला तो सुषमा स्वराज वहाँ से गुस्से के साथ लौटी। अटल बिहारी वाजपेयी आडवाणी से नाराज़ हुए। अब प्रधानमंत्री पद का फ़ैसला संसदीय बोर्ड की बैठक में होना था। घर के लोग नरेंद्र मोदी के विरोध में तो थे ही, उधर एनडीए के साथी नीतीश कुमार इस मुद्दे पर एनडीए छोड़ने की धमकी दे रहे थे।
प्रदीप लिखते हैं कि सुषमा ने उन्हें आश्वस्त किया कि संसदीय बोर्ड में यह प्रस्ताव पास नहीं हो पाएगा। पर संसदीय बोर्ड की बैठक में पहुंचते ही सुषमा स्वराज को अंदाज़ा हो गया कि मोदी ने बाज़ी पलट दी है। पर सुषमा अपने रुख़ पर क़ायम रहीं। उन्होंने कहा, "तुम सब लोग पछताओगे। मेरी असहमति औपचारिक रूप से दर्ज करो।" उनकी असहमति भी दर्ज हुई और मोदी के पक्ष में प्रस्ताव भी पास हुआ।
 
अपने कट्टर समर्थकों और उद्योगपतियों की मदद से अपनी उस पुरानी राजनीति पर चलते हुए नरेंद्र मोदी ने घर के तमाम काँटों को ठिकाने लगा दिया।
 
इतनी अधिक विषमताओं और असमानताओं के बीच भी आरएसएस और बीजेपी एक दूसरे से दूर खड़े दिखाई नहीं दिए। इन परिस्थितियों के बीच भी वे अपने विस्तार, प्रचार, नीतियों पर काम करते रहे। तत्कालीन कांग्रेस शासित मनमोहन सरकार के ख़िलाफ़ बतौर विपक्ष बेहतरी से काम करना, बाबा रामदेव के काला धन के ख़िलाफ़ आंदोलन और अन्ना हज़ारे के भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ आंदोलन में कथित रूप से पर्दे के पीछे रह कर काम करना, चुनाव प्रबंधन, तमाम बातों में इतने सारे विवादों के बाद भी सत्ता के सामने आलोचना-आलोचना फिंटूस ही थी!

 
यूँ तो ज़मीन पर यह भी देखा गया है कि आरएसएस के साथ जुड़ने वालों में बड़ा समुदाय वो भी है जो उस डर के शिकार है। वही डर जो दशकों से आरएसएस द्वारा लोगों को दिखाया गया है। हिंदू असुरक्षित हैं, ख़तरे में हैं, इस डर को स्थापित करके एक माहौल बनाया गया कि हम सत्ता पर आएँगे तो ख़तरा टल जाएगा। आज राष्ट्रपति उनके हैं, प्रधानमंत्री उनके हैं, कथित रूप से वह प्रधानमंत्री सबसे लोकप्रिय और सबसे मजबूत हैं, केंद्र से लेकर राज्यों में सरकारें उनकी हैं, सेना से लेकर तमाम सुरक्षा बल और पुलिस बल उनके नियंत्रण में हैं, लेकिन फिर भी हिंदू आज भी असुरक्षित हैं, ख़तरे में हैं!
 
बहरहाल, कांग्रेस के अभूतपूर्व भ्रष्टाचार, कथित रूप से आरएसएस की अंदरुनी मदद से बाबा रामदेव और अन्ना हज़ारे का वो ऐतिहासिक आंदोलन, महंगाई, अनगिनत घोटाले, भारतीय मीडिया का सत्ता के ख़िलाफ़ रौद्र रूप, इन सब परिस्थितियों के बीच बीजेपी 2014 के लोकसभा चुनाव जीत गईं। आरएसएस ने जितना सोचा था उससे भी ज़्यादा मजबूती के साथ बीजेपी जीती और चुनाव परिणामों के बाद गठबंधन सरकार की संभावित स्थिति में नरेंद्र मोदी के साथ राजनीतिक हिसाब बराबर करने की आरएसएस की चाहत धरी की धरी रह गई।
 
स्पष्ट बहुमत के साथ नरेंद्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री बन गए और उसके बाद नरेंद्र मोदी ने अपनी उसी राज्य स्तर की राजनीति को राष्ट्रीय स्तर पर लागू किया। नरेंद्र मोदी के सारे आलोचक, प्रतिस्पर्धी, दुश्मन, सब के सब कमज़ोर होते चले गए, यूँ कहे कि कमज़ोर किए गए। नरेंद्र मोदी की ज़िद और राजनीति इतनी परवान चढ़ी कि बीजेपी को अपनी संतान बताने वाला उसका पितातुल्य आरएसएस नरेंद्र मोदी के कद के सामने छोटा होता चला गया।
नरेंद्र मोदी का साथ लेकर वाजपेयी से आगे निकलने की चाह रखने वाले लालकृष्ण आडवाणी को उनके ही शिष्य ने राजनीतिक रूप से हताहत कर दिया। मार्गदर्शक मंडल की रचना कर आडवाणी को उस जगह बिठा दिया और फिर सालों बाद भारत रत्न देकर मामले को बर्फ़ की सिल्ली के नीचे छिपा दिया गया। तुम सब पछताओगे - यह कहने वाली सुषमा स्वराज को आश्चर्यजनक रूप से विदेश मंत्री बनाया गया। हालाँकि हर विदेशी दौरे पर नरेंद्र मोदी ख़ुद जाने लगे, साथ में सुषमा स्वराज के बदले गौतम अडानी दिखाई देने लगे!
 
बदली हुई राजनीतिक स्थिति में सुषमा स्वराज, राजनाथ सिंह, नितिन गडकरी ने ख़ुद को बदल दिया। यह स्वाभाविक भी था। इसीको तो राजनीति कहते हैं, जहाँ स्थितियाँ ही सुप्रीम होती हैं, विचारधारा जैसी चुनावी चीज़ें नहीं। बीजेपी और केंद्र सरकार, दोनों की बागड़ोर नरेंद्र मोदी और अमित शाह के हाथों में चली गई। तमाम बीजेपी शासित राज्यों के मुख्यमंत्री बदले गए, जो प्रतिस्पर्धी थे उन्हें मौक़ा देख कमतर किया गया, साथ ही गुजरात सरकार और गुजरात की राजनीति पर शिकंजा क़ायम रखने का काम भी चलता रहा।
 
इंदिरा गांधी की कार्यशैली को नरेंद्र मोदी ने हदें पार कर इस्तेमाल किया। स्वाभाविक है कि अच्छाई अच्छाई को प्रभावित नहीं कर सकती, लेकिन बुराई बुराई को प्रभावित कर जाती है। विरोधी खेमे के कुछ दिग्गजों को मंत्रीमंडल में लेने की मजबूरी नरेंद्र मोदी ने निभाई, किंतु धीरे धीरे वे उन्हीं को मंत्री बनाने लगे जिनका अपना कोई जनाधार न हो, जो उनकी गुडबुक में रहने योग्य हो।
 
आडवाणी के बाद शिवराज सिंह चौहान, वसुंधरा राजे, मुरली मनोहर जोशी, अरूण शौरी, जसवंत सिंह, यशंवत सिंहा समेत विरोधी खेमे को किसी न किसी तरह से कमतर किया जाता रहा। इस पूरे दौर में उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ की बतौर यूपी सीएम ताज़पोशी ही शायद आरएसएस की एकमात्र सफलता थी। हालाँकि यह अब तक पता नहीं चला है कि आदित्यनाथ किसकी पसंद थे और कहाँ से अचानक सत्ता के गलियारे में आए थे!
 
इस बीच 2019 में पुलवामा की घटना ने नरेंद्र मोदी को फिर से केंद्र की सत्ता तक पहुंचा दिया। चुनावी विशेषज्ञ बताते हैं कि यदि पुलवामा घटना नहीं हुई होती तो 2019 से ही नरेंद्र मोदी अल्पमत की सरकार चला रहे होते। मौक़े की तलाश में बैठे आरएसएस को फिर से चुप रहना पड़ा। अमित शाह अब आधिकारिक रूप से दूसरे क्रम के सुप्रीम लीडर बन गए।
समय बीता और राष्ट्रवाद और पाकिस्तान के प्रति दुश्मनी की सनक तथा विश्वगुरु बनने के सपने को पेट की ज़रूरत घीरे घीरे तोड़ती रही। महंगाई, बेरोजगारी आदि समस्याएँ धर्म और राष्ट्र को पीछे छोड़ने लगी। दूसरी तरफ़ दूसरी बार बहुमत के साथ सत्ता में आए नरेंद्र मोदी की ज़िद और एकाधिकारवाद इतना तेज़ी से बढ़ा कि वे अनेक विवादित राष्ट्रीय स्तर की योजनाएँ ले आए, अनेक ऐसे मुद्दे खड़े किए, जिसके चलते लोगों में घीरे धीरे ही सही किंतु मोदीजी के नाम के बुलबुले का खुमार उतरने लगा।
 
2024 के लोकसभा चुनाव के नतीजे ने एक पल में मोदी नाम के उस बुलबुले को बुरी तरीक़े से तोड़ दिया। 4 जून 2024 की तारीख़ के बाद गोदी मीडिया और कट्टर समर्थकों के सिवा सभी जगह पर स्थितियाँ बदल गईं।

 
TINA (There is No Alternative) और HINA (He is New Alternative) फ़ैक्टर यहाँ बनते-बिगड़ते रहते हैं। राजनीतिक इतिहास स्पष्ट दर्शाता है कि यहाँ कोई कभी अजेय नहीं होता, ना कोई हारने के बाद ख़त्म हो जाता है। जनता कब किसे कहाँ बिठा दें और कहाँ लाकर पटक दें इसकी भविष्यवाणी कोई भी ज्योतिष या विशेषज्ञ नहीं कर सका है। यहाँ आसमान तक पहुँचने वाले दूसरे दिन ज़मीन पर होते हैं, कभी रेंगने वाले बुलंदी के उस पार!
 
आरएसएस हरियाणा विधानसभा चुनाव 2024 नतीजों के सारे के सारे एग्ज़िट पोल उलटने के बाद और धैर्य के साथ अपनी प्रवृत्ति करेगा यह लाज़मी है। 2004 लोकसभा चुनाव में करारी हार के बाद वाजपेयीजी ने कहा था, "हम क्यों हारे हमें नहीं पता। वे क्यों जीते उन्हें भी नहीं पता।" हरियाणा विधानसभा 2024 के चुनाव नतीजों ने ज़मीन पर काम कर रहे 95 फ़ीसदी पत्रकारों, विश्लेषकों को छका दिया है। जम्मू-कश्मीर की हार से हरियाणा की जीत निसंदेह बड़ी है।
इस स्थिति में आरएसएस को अपने राजनीतिक विंग में जो भी करना है उसके लिए वह और समय लेगा, जिसकी उसके पास कोई कमी नहीं है। वह जो कहता है वह करता नहीं और उसे जो करना है वह वो कहता नहीं सरीखी पंक्तियाँ जिसके साथ चिपकी हुई हैं उस आरएसएस का बीजेपी के साथ या नरेंद्र मोदी के साथ रिश्ते का रसायन कुछ ऐसा है, जो बिलुकल स्पष्ट है, किंतु उसे कुछ इस तरह से उलझाया गया है कि वो पहली नज़र में मुश्किल ही लगता है।
 
नरेंद्र मोदी, उनकी राजनीति, उनका राजनीतिक इतिहास, उनकी कार्यशैली और सामने आरएसएस की अपनी सामाजिक नीति, राजनीति, उसका अपना लचीला इतिहास, उसकी कार्यशैली, और इन सबके बीच आरएसएस और बीजेपी की केमिस्ट्री, यह एक ऐसा मसला है जो सिर्फ़ और सिर्फ़ राजनीति, चुनावी परिणाम, राजनीतिक सत्ता, आदि के आसपास सिमटे मालूम पड़ते हैं। फ़र्क़ यह है कि एक विशुद्ध राजनीतिक दल है, जबकि दूसरा राजनीति और धर्म का क़रीब सौ साल पुराना कॉकटेल है।
 
अनंत सत्ता या अनंत ताक़त क्या है यह धार्मिक द्दष्टिकोण से समाज को समझाने वालों को बख़ूबी पता है कि सबसे बड़ी सत्ता संविधान है। इतिहास गवाह है कि बड़े बड़े संप्रदायों - राजनीतिक दलों, धार्मिक गुरुओं - राजनीतिक नेताओं, मठों- चर्चों- मदरसों- संगठनों आदि को तथा उसके सत्ताधीशों को, धार्मिक ग्रंथों - मान्यताओं को, मंत्रियों- मुख्यमंत्रियों- प्रधानमंत्रियों- राष्ट्रपतियों को उसीकी चौखट पर जाना पड़ता है। और इसी संवैधानिक व्यवस्था के ज़रिए सर्वोच्च सत्ता तक पहुँचा जा सकता है और फिर वहाँ पहुँचकर स्वयं को संविधान से भी बड़ा महसूस किया जा सकता है।
 
भारत को जिस भी तरीक़े से आरएसएस या बीजेपी को बदलना है, उनके लिए उस स्थिति में पहुँचने के लिए चुनाव का ही एकमात्र रास्ता है। अगर उन्हें संविधान समेत सब कुछ बदलना है तब भी उन्हें उस ताक़त को धारण करने के लिए फ़िलहाल चुनावी सड़क को ही नापना है। और वह सड़क ऐसे और इतने मायाजाल से बनी है, जिसमें बीजेपी और आरएसएस एकदूसरे के साथ हैं, ख़िलाफ़ नहीं।
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)