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Rani Lakshmi Bai: ख़ूब लड़ी मर्दानी... वह तो झाँसी वाली रानी थी...


नाम लक्ष्मीबाई था, लेकिन कहा जाता है दुर्गा का अवतार। जिनकी तलवार के वार उस ज़माने में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ मुखर होने वालों को पुलकित किया करते थे। उनकी कहानी वीरता का वैभव है। वह द्दश्य आज भी सबको पुलकित किया करता है, जब वह रण मैदान में घोड़े पर सवार हुए अपनी तलवार के साथ राजवंशी भृकुटी ताने उतरती हैं। महज़ तेइस की उम्र में उन्होंने उन अतिविकट परिस्थितियों में जिस प्रकार से अंग्रेज़ों से लोहा लिया, इतिहास यह कहने को मजबूर हो गया कि उनका स्मारक वो ख़ुद थीं, वो स्वतंत्रता नारी थीं।
 
बलिदानों की धरती भारत में ऐसे-ऐसे वीरों ने जन्म लिया है, जिन्होंने अपने रक्त से देश प्रेम की अमिट गाथाएँ लिखीं। यहाँ की महिलाएँ भी इस कार्य में कभी किसी से पीछे नहीं रहीं। उन्हीं में से एक नाम है- झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई। उन्होंने भारत की महिलाओं को व उनकी देशभक्ति को पूरे विश्व में गौरवान्वित किया। उनका जीवन स्वयं में वीरोचित गुणों से भरपूर, अमर देशभक्ति और बलिदान की एक अनुपम गाथा है।
 
सन 1857 का स्वतंत्रता संग्राम, यूँ कहे कि पहला सामूहिक स्वतंत्रता संग्राम, भारत ही नहीं बल्कि समूची दुनिया के इतिहास में अभूतपूर्व कहा जा सकता है। हम यह भावनात्मक होकर नहीं कह रहे, बल्कि तथ्यों और प्रमाणित इतिहास के आधार पर कह रहे हैं। झाँसी की वीरांगना, रानी लक्ष्मीबाई का नाम तो इसमें शामिल है ही, साथ ही इस स्वतंत्रता संग्राम में इतनी रानियाँ लड़ी कि किसी देश में ऐसी मिसाल नहीं मिलती। महिलाओं को लेकर हम 21वीं शताब्दी में राजनीति से विशेष कुछ कर नहीं रहे, जबकि उस ज़माने में भारत भूमि की महिलाओं ने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ खुलकर लड़ाइयाँ लड़ी हुई हैं। चाहे क्राँति की ज्वाला हो या अंहिसा का तपता रास्ता, भारत भूमि की महिलाओं ने इसमें बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था।
 
1857 का वो स्वतंत्रता संग्राम, जिसमें शायर बादशाह भी लड़ा, रानियाँ लड़ी, सैनिकों के अलावा व्यापारी, किसान और साधु तक लड़े। यूँ तो 1857 के स्वतंत्रता संग्राम से भी 33 सालों पहले कर्नाटक के कित्तूर राज्य की रानी चेन्नम्मा ने अंग्रेज़ों के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष किया था। लेकिन हमें फ़िलहाल तो बात रानी लक्ष्मीबाई और 1857 के समय की करनी है। 1857 के दौर में झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, उनकी बचपन की सखी और क़ाबिल लड़ाकू झलकारी बाई, मालतीबाई लोधी, बेगम हज़रत महल, तुलसीपुर की रानी ईश्वरी देवी, ऊदा देवी, धार की रानी द्रौपदी बाई, अनुपनगर की चौहान रानी, महारानी सुनंदा तपस्विनी, रामगढ़ की रानी अवंतीबाई, नर्तकी अज़ीज़न बाई... न जाने कितने कितने पूजनीय नाम हैं इस सूची में, सबने भयानक लड़ाई लड़ी। इतने नाम हैं कि इन्हें यहाँ शामिल भी नहीं किया जा सकता। इतनी रानियों व महिला लड़ाकूओं का जंग करना किसी भी देश के इतिहास में पहला और अब तक का एकमात्र मौक़ा है।
अंग्रेज़ों की दासता से मुक्त होने के लिए सन् 1857 में बहुत बड़ा प्रयास हुआ। यह प्रयास इतिहास में भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम या सिपाही स्वतंत्रता संग्राम कहलाता है। अंग्रेज़ों के विरुद्ध रणयज्ञ में अपने प्राणों की आहुति देने वाले योद्धाओं में वीरांगना महारानी लक्ष्मीबाई का नाम सर्वोपरी माना जाता है। 1857 में उन्होंने भारत के स्वतंत्रता संग्राम का सूत्रपात किया था। अपने शौर्य से उन्होंने अंग्रेज़ों के दाँत खट्टे कर दिए थे।
 
यूँ तो उस ज़माने में देश का अपना एक अर्थ हुआ करता था। राष्ट्र की अवधारणा वैसी नहीं थी, जैसी आज है। उस ज़माने में रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेज़ों के विरुद्ध जिस प्रकार के युद्ध कौशल का परिचय दिया, वह अपने आप में अनूठा है। उस ज़माने में जब बड़े बड़े भारतीय शासक अंग्रेज़ों के साथ मिलने को तैयार हुए जा रहे थे, जब कई नामी रजवाड़े अंग्रेज़ों की दासता स्वीकार कर रहे थे, वह रानी लक्ष्मीबाई थीं, जिन्होंने अंग्रेज़ों की दासता स्वीकार करने से इनकार कर दिया।
 
हम उन्हें सम्मान और गौरव के साथ रानी लक्ष्मीबाई के नाम से जानते हैं। उन्हें झाँसी की रानी के नाम से भी याद किया जाता है। जब भी उनका नाम इतिहास के पन्नों में पढ़ा जाता है, ख़ूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थीं, पंक्तियाँ अपने आप सबके दिल-ओ-दिमाग़ में दौड़ने लगती है। बचपन का नाम मनु। प्यार से उन्हें छबीली भी कहा करते थे लोग। नाम था मणिकर्णिका।
 
19 नवंबर 1835 को वाराणसी के भदैनी नामक नगर में जन्म हुआ। कुछ स्त्रोत उनके जन्म का साल 1828 भी बताते हैं। पिता का नाम मोरोपन्त तांबे, माता का नाम भागीरथी बाई। जब उनकी उम्र महज़ 4 साल होगी, उनकी माता का देहांत हो गया। उनके पिता मराठा बाजीराव की सेवा में थे। चूँकि मनु की देखभाल करने के लिए घर पर कोई था नहीं, उनके पिता उन्हें बाजीराव के दरबार में ले गए। दरबार में उनकी चंचलता की वजह से वहाँ उन्हें लोग छबीली कहकर पुकारा करते थे।
 
मनु, छबीली या फिर मणिकर्णिका। वह कोई आम लड़की तो थीं नहीं। राजघराने से उनका ताल्लुक़ था। सो, दूसरों की तरह उनका बचपन खिलौनों के साथ नहीं बिता। छोटी थीं तभी से शास्त्र, शस्त्र, मल्लविद्या, घुड़सवारी, तलवारबाज़ी, यही उनका जीवन रहा।
1842 में झाँसी के राजा गंगाधर राव निम्बालकर के साथ उनका विवाह हुआ। विवाह के पश्चात उनका नाम रखा गया लक्ष्मीबाई। अब वह झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई थीं। सन 1851 में रानी ने एक पुत्र को जन्म दिया। पुत्र का नाम रखा गया दामोदर राव। मनु, छबीली या मणिकर्णिका, जो अब झाँसी की रानी थीं, के जीवन में कदाचित सुख नहीं था। 4 महीने की आयु में ही उनके पुत्र की मृत्यु हो गई। रानी के लिए यह दुख और पीड़ा का समय था। किंतु जीवन अब भी उनकी और कड़ी परीक्षा लेने वाला था। पुत्र दामोदर की मृत्यु की वजह से राजा गंगाधर राव अत्यंत व्यथित हुए। उधर सलाहकारों ने राजा और रानी को पुत्र दत्तक लेने की सलाह दी। रानी और राजा ने एक पुत्र को गोद लिया। उसका भी नाम दामोदर राव ही रखा गया। किंतु अपने पुत्र की छोटी आयु में मृत्यु के पश्चात राजा का स्वास्थ्य बिगड़ने लगा था, और अंतत: 21 नवंबर 1853 के दिन उनकी भी मृत्यु हो गई।
 
इतिहासकार कहते हैं कि यूँ तो जब राजा गंगाधर राव का स्वास्थ्य बिगड़ने लगा, तभी से रानी ने शासनसूत्र संभालना शुरू कर दिया था। यानि अपने पुत्र की मृत्यु के बाद भी वह टूटी नहीं थीं। उन्हें पूरी तरह ज्ञात था कि वह केवल एक माता नहीं है, बल्कि वह एक राज्य की रानी हैं। उन्हें अपने उत्तरदायित्व पता थे। वह अत्याधिक सूझबूझ के साथ प्रजा के लिए कल्याण कार्य करती रहीं। वे अपनी प्रजा की स्नेहभाजन बन चुकी थीं। उन्होंने क़िले के अंदर व्यायामशाला बनवाई, शस्त्रादि चलाने तथा घुड़सवारी हेतु आवश्यक प्रबंध किए। रानी के पास अपने पसंदीदा घोड़े थे, जिनका नाम सारंगी, पवन और बादल था। राजा की मृत्यु से पहले ही वह स्त्रियों की एक सेना तैयार करने का काम शुरू कर चुकी थीं।
 
छोटी सी उम्र में अपनी माता से बिछड़ना, फिर विवाह के बाद अपने छोटे से पुत्र की मृत्यु, और उसके बाद अपने पति और राज्य के राजा का देहांत। मनु या छबीली के जीवन में यह अत्यंत पीड़ा का समय था। उधर इसी समय अंग्रेज भारत के रजवाड़ों को किसी न किसी प्रकार से, छल कपट से, लालच से, अपने बनाए नीति नियमों से अपने अधीन किए जा रहे थे। रानी को ऐसे कष्टदायी समय में अंग्रेज़ों के साथ भी रूबरू होना पड़ रहा था। ब्रिटिश राज ने झाँसी राज्य को हड़पने के लिए अपनी बनायी अदालत में मुक़दमा दायर कर दिया कि एक दत्तक पुत्र राज्य का उत्तराधिकारी नहीं हो सकता। अंग्रेज़ों ने कहा कि झाँसी का कोई उत्तराधिकारी नहीं है इसलिए वह राज्य उनके अधिकार में ले लिया जाए। उन्होंने दत्तक पुत्र को झाँसी का उत्तराधिकारी मानने से इनकार कर दिया। ब्रिटिश कंपनी शासन किसी न किसी प्रकार से झाँसी को अपने अधीन करना चाहता था।
 
ऐसे अत्यंत कष्टदायी समय में भी रानी ने शासनसूत्र संभाले रखा। कोई और होता तो ऐसे समय में मन से टूट कर बिखर गया होता। हिम्मत हार गया होता। अंग्रेज़ों ने भी यही सोचा होगा कि झाँसी के पास न राजा है, न युवा उत्तराधिकारी, संचालन तो एक महिला कर रही है। उन्होंने निश्चित रूप से यह ज़रूर सोचा होगा कि वहाँ तो एक स्त्री है, जिन्हें वे डरा धमका कर मना लेंगे। कंपनी शासन के दिमाग़ में सोच यह होगी कि एक महिला उनका कितना प्रतिकार कर पाएगी?
किंतु अब वहाँ मनु या छबीली नहीं थी। वहाँ जो महिला बैठी थीं, वह तो झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई थीं। बचपन से उन्होंने देश, राज्य, शास्त्र और शस्त्रों को पढ़ा था। वह अंग्रेज़ों के सामने झुकने को तैयार नहीं थीं। कंपनी शासन ने रानी को पत्र लिख भेजा कि चूँकि राजा का कोई पुत्र नहीं है, इसलिए झाँसी पर अब अंग्रेज़ों का अधिकार होगा। रानी यह सुनकर क्रोध से भर उठीं। अपने दरबार में कंपनी शासन के अंग्रेज़ दूतों की उपस्थिति में उन्होंने घोषणा कर दी कि, “मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी।
 
अंग्रेज़ तिलमिला उठे। राजा की मृत्यु के पश्चात कंपनी शासन ने उनके राज्य पर अनेक प्रकार के नियम लगा दिए। राज्य का खजाना ज़ब्त कर लिया गया। पति के क़र्ज़ को रानी के सालाना ख़र्च में से काटने का फ़रमान जारी कर दिया। रानी को झाँसी का क़िला छोड़ रानी महल में जाना पड़ा। लेकिन रानी लक्ष्मीबाई ने हिम्मत नहीं हारी, और उन्होंने हर हाल में झाँसी राज्य की रक्षा करने का निश्चय किया।
 
कुछ जगहों पर दर्ज है कि एक समय ऐसा भी आया था, जब रानी टूटने लगी थीं। रानी ही नहीं, दूसरे राज्यों के शासक, राजा या रानियाँ, जो अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ थें, निराश होने लगे थें। कुछ इतिहासकार लिखते हैं कि उस ज़माने में एक नर्तकी थीं, जिसने इन रानियों के नाम संदेश भिजवाया। संदेश में लिखा था कि परदे की इज़्ज़त यूँ परदेशियों के हाथों से नहीं बिक सकती, आपकी इज़्ज़त ये विदेशी लोग बाज़ारों में नीलाम कर रहे हैं। उस ज़माने में राजमहल के गहने और कपड़े गौरव, अस्मिता या इज़्ज़त का प्रतीक माने जाते थे। एक नर्तकी के इस संदेश ने उन रानियों में आग प्रजवल्लित कर दी।
 
कुछ लोगों को यह बात अतिशयोक्ति लग सकती है, किंतु भारत के स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में ऐसे कई नाम हैं, जो या तो नर्तकी थी या कुछ और। ये महिलाएँ युवतियों की टोलियाँ बनाकर मर्दाना भेष में रण मैदान में कूद जाया करती थीं। कभी लड़ाई किया करती, कभी घायलों का इलाज़, कभी युद्ध के मैदान में मदद करती, कभी मैदान के बाहर रणनीति के हिसाब से मदद दिया करती। याद कीजिए अज़ीज़न बाई को, जो अंग्रेज़ों की क़ैद में आ गई। अंग्रेज़ों ने कहा कि यदि वो माफ़ी मांगती हैं तो उसे क़ैद से आज़ाद कर दिया जाएगा। अज़ीज़नबाई ने बड़े ताँव से कहा था कि माफ़ी तो अंग्रेज़ों को मांगनी चाहिए, क्योंकि उन्होंने देशवासियों पर ज़ुल्म किए हैं। इतिहास लिखता है कि, "सज़ा हँस कर सह ली अज़ीज़न ने, लहू देकर वतन को।"
 
भारत भूमि पर उस घटना की नींव पड़ रही थी इन दिनों, जिसे भारत का इतिहास झाँसी की रानी के रूप में हमेशा के लिए आदरपूर्वक याद करने वाला था। इन दिनों ब्रिटिश अधिकारी अधिकतर उन्हें झाँसी की रानी कहकर ही बुलाते थे।
बचपन से ही रानी ने शास्त्रों की पढ़ाई की थी, देश को मन और दिल में बसाया था। महज़ सात साल की उम्र में वह ग़ज़ब घुड़सवारी किया करती थीं। गुड्डी और गुड़ियों के खेल खेलने की उम्र में रानी तलवारबाज़ी और घनुर्विद्या में निपुण हो चुकी थीं। पौराणिक वीर गाथाएँ सुनकर वह बड़ी हुई थीं। अस्त्र शस्त्र उनके मनपसंद खेल थे। लाज़मी था कि रानी अपने राज्य को कंपनी शासन के अधीन करने को तैयार होने वाली नहीं थीं।
 
अंग्रेज़ों ने रानी को युद्ध के मैदान में हराकर राज्य हड़पने की अंतिम योजना पर चलना शुरू कर दिया। रानी इसके लिए भी तैयार थीं।
 
झाँसी 1857 के संग्राम का एक प्रमुख केन्द्र बन गया, जहाँ हिंसा भड़क उठी। रानी लक्ष्मीबाई ने झाँसी की सुरक्षा को सुदृढ़ करना शुरू कर दिया और एक स्वयंसेवक सेना का गठन प्रारम्भ किया। इस सेना में महिलाओं की भर्ती की गई और उन्हें युद्ध का प्रशिक्षण दिया गया। साधारण जनता ने भी इस संग्राम में सहयोग दिया। झलकारी बाई, जो लक्ष्मीबाई की हमशक्ल थीं, को उन्होंने अपनी सेना में प्रमुख स्थान दिया। नवाब वाजिद अली शाह की बेगम हज़रत महल, अंतिम मुगल सम्राट की बेगम जीनत महल, स्वयं मुगल सम्राट बहादुर शाह, नाना साहब के वकील अज़ीमुल्ला, शाहगढ़ के राजा, वानपुर के राजा मर्दनसिंह और तात्या टोपे आदि सभी महारानी के इस कार्य में सहयोग देने का प्रयत्न करने लगे।
 
लक्ष्मीबाई पहले से ही सतर्क थीं और वानपुर के राजा मर्दनसिंह से भी इस युद्ध की सूचना तथा उनके आगमन की सूचना प्राप्त हो चुकी थी। 23 मार्च 1858 वह तारीख़ थी, जब झाँसी का ऐतिहासिक युद्ध आरंभ हुआ। कुशल तोपची गुलाम गौस ख़ाँ ने झाँसी की रानी के आदेशानुसार तोपों के लक्ष्य साधकर ऐसे गोले फेंके कि पहली बार में ही अंग्रेज़ी सेना के छक्के छूट गए। परिणाम स्वरूप अंग्रेज़ों ने झाँसी पर पूर्ण आक्रमण कर दिया। रानी ने भी युद्ध की पूरी तैयारी की। क़िले की प्राचीर पर तोपें रखवायीं। रानी ने अपने महल के सोने एवं चाँदी के सामान तोप के गोले बनाने के लिए दे दिया।
रानी के क़िले की प्राचीर पर जो तोपें थीं, उनमें कड़क बिजली, भवानी शंकर, घनगर्जन एवं नालदार तोपें प्रमुख थीं। रानी के कुशल एवं विश्वसनीय तोपची थे गौस ख़ाँ तथा ख़ुदा बख़्श। रानी ने क़िले की मज़बूत क़िलाबन्दी की। रानी के कौशल को देखकर अंग्रेज़ सेनापति सर ह्यूरोज़ भी चकित रह गया। अंग्रेज़ों ने क़िले को घेर कर चारों ओर से आक्रमण किया।
 
झाँसी की सेना के आगे अंग्रेज़ ख़ुद को बेबस पाने लगे। रानी की क़िलाबन्दी और व्यूहरचना अंग्रेज़ों पर भारी पड़ने लगी। अंग्रेज़ आठ दिनों तक क़िले पर गोले बरसाते रहे, परन्तु क़िला न जीत सकें। रानी एवं उनकी प्रजा ने प्रतिज्ञा कर ली थी कि अंतिम साँस तक क़िले की रक्षा करेंगे। अंग्रेज़ सेनापति ह्यूरोज़ ने अनुभव किया कि सैन्य-बल से क़िला जीतना सम्भव नहीं है।
 
अत: उसने कूटनीति का प्रयोग किया और झाँसी के ही एक विश्वासघाती सरदार दूल्हा सिंह को मिला लिया, जिसने क़िले का दक्षिणी द्वार खोल दिया। फिरंगी सेना क़िले में घुस गई और लूटपाट तथा हिंसा का पैशाचिक दृश्य उपस्थित कर दिया।
 
घोड़े पर सवार, दाहिने हाथ में नंगी तलवार लिए, पीठ पर पुत्र को बाँधे हुए रानी ने रणचण्डी का रूप धारण कर लिया और शत्रु दल का संहार करने लगीं। यह वह द्दश्य था, जिसे भारत भूमि के लोग हमेशा के लिए याद रखेंगे। यह इतिहास का वो क्षण था, जिसने अपना स्थान सदैव के लिए अंकित कर लिया है।
यूँ तो एक बात कही या पूछी जाती है कि क्या सचमुच रानी ने अपनी पीठ पर अपने छोटे से पुत्र को बांधकर युद्ध किया था? कुछ इसे महज़ मिथक मानते हैं, कुछ सच। इतिहासकार इस बात का जवाब हाँ में देते हैं। दरअसल झाँसी के क़िले पर अंग्रेज़ों के आक्रमण के बाद रानी और अंग्रेज़ों के विरुद्ध एक से ज़्यादा बार सशस्त्र संधर्ष हुआ था। वह एकमात्र युद्ध नहीं था। इतिहासकार कहते हैं कि किसी एक संधर्ष के दौरान रानी उनकी पीठ पर अपने पुत्र को लेकर बच निकली थीं। दूसरे संघर्षों में कदाचित वह द्दश्य दोहराया नहीं गया था।
 
रानी की बचपन की सखी, जिनका कद और काठी रानी से मिलते झुलते थे, जो ख़ुद युद्धविद्या में पारंगत थीं, रानी की बहुचर्चित सेना दुर्गा दल का नेतृत्व जिनके हाथों में था, वह झलकारी बाई ने इस युद्ध में रानी के जीवन की रक्षा हेतु अपना जीवन कुर्बान कर दिया। झलकारी बाई ने कसम उठायी थी कि, “जब तक झाँसी स्वतंत्र नहीं होगी, न ही मैं श्रृंगार करूँगी और न ही सिन्दूर लगाऊँगी।
 
अंग्रेज़ों ने जब झाँसी का क़िला घेरा तो झलकारी बाई जोशो-ख़रोश के साथ लड़ीं। चूँकि उनका चेहरा और कद-काठी रानी लक्ष्मीबाई से काफ़ी मिलता-जुलता था, सो जब उन्होंने रानी लक्ष्मीबाई को घिरते देखा, तो उन्हें महल से बाहर निकल जाने को कहा और स्वयं घायल सिंहनी की तरह अंग्रेज़ों पर टूट पड़ीं। इस युद्ध में उनके पति पूरन भी क़िले की रक्षा करते हुए शहीद हो गए। किंतु झलकारी बाई के पास अपने पति की मृत्यु का शोक मनाने का समय नहीं था। रणनीति के हिसाब से वह उस लड़ाई को लड़ती गयीं। झलकारी बाई का ज़िक्र मराठी पुरोहित विष्णुराव गोडसे की कृति माझा प्रवास में भी मिलता है। कहा जाता है कि झाँसी के युद्ध में अंग्रेज़ों ने उन्हें गिरफ़्तार कर लिया था। बाद में कुछ समय बाद ब्रिटिशों द्वारा उन्हें फाँसी दे दी गयी थी। उनकी गिरफ़्तारी और फांसी को लेकर भिन्न भिन्न तथ्य भी आते रहे हैं।
 
जब भी रानी लक्ष्मीबाई, झाँसी और बुन्देलखंड का ज़िक्र किया जाता है, भारतीय गाथाओं में कुछ पंक्तियाँ ये भी मिलती हैं...
 
जा कर रण में ललकारी थी,
वह तो झाँसी की झलकारी थी,
गोरो से लड़ना सिखा गयी,
है इतिहास में झलक रही,
वह भारत की ही नारी थी!!
 
इस प्रथम आक्रमण के दौरान रानी लक्ष्मीबाई की अगुवाई में झाँसी के वीर सैनिक भी शत्रुओं पर टूट पड़े। जय भवानी और हर-हर महादेव के उद्घोष से रणभूमि गूँज उठी। झाँसी की स्त्री सेना ने भी अंग्रेज़ों में भारी मार-काट मचाई। किन्तु झाँसी की सेना अंग्रेज़ों की तुलना में छोटी थी। रानी अंग्रेज़ों से घिर गयीं। कुछ विश्वासपात्रों की सलाह पर रानी कालपी की ओर बढ़ चलीं। दुर्भाग्य से एक गोली रानी के पैर में लगी और उनकी गति कुछ धीमी हुई। अंग्रेज़ सैनिक उनके समीप आ गए। परन्तु रानी दामोदर राव के साथ अंग्रेज़ों से बच कर भाग निकलने में सफल हो गयीं। रानी झाँसी से भाग कर कालपी पहुँचीं और तात्या टोपे से मिलीं।
यहाँ मालती बाई लोधी का भी ज़िक्र ज़रूरी है, जो रानी की अंगरक्षिका थीं। उनके भी पति युद्ध में लड़ते हुए शहीद हो गए थे। मालती बाई के पास भी इस अभूतपूर्व लड़ाई में शोक मनाने का समय नहीं था। उन्होंने अपना उत्तरदायित्व निभाया। युद्ध में अंग्रेज़ सेनापति की गोली लगने से उनकी मौत हो गई। वह अपनी आख़िरी साँस तक अपनी रानी और अपने राज्य के लिए लड़ती रहीं।
 
रानी लक्ष्मीबाई की सेना में ज़नाना फ़ौजी इंचार्ज मोतीबाई और रानी के साथ चौबीसों घंटे साये की तरह साथ रहने वाली सुन्दर-मुन्दर और काशीबाई सहित जूही व दुर्गाबाई भी दुर्गा दल की ही सैनिक थीं। इनके ज़िक्र के बिना रानी लक्ष्मीबाई की कहानी अधूरी रह जाती है।
 
अब झाँसी पर कंपनी शासन का कब्ज़ा हो चुका था। रानी कालपी पहुँच चुकी थीं। उन्होंने वहाँ से युद्ध को जारी रखा। कालपी में रानी और अंग्रेज़ों के बीच दूसरी बार भीषण संघर्ष हुआ। कंपनी शासन की सेना बड़ी थी। उनके पास उस ज़माने के हिसाब से झाँसी की सेना से आधुनिक हथियार थे। झाँसी गँवाने के बाद, प्रथम संघर्ष में अपने वीर सैनिक गँवाने के बाद भी रानी टूटी नहीं थीं। उन्होंने कालपी में भी अंग्रेज़ों को टक्कर दी। अंत में अंग्रेज़ों ने कालपी को जीत लिया।
 
अपनी मातृभूमि झाँसी और अब कालपी। रानी से दोनों चीज़ें छिन चुकी थीं। किंतु मनु या मणिकर्णिका अब भी झाँसी की रानी के तौर पर जानी जाती थीं। वह थीं भी ऐसी। उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। इस स्थिति में भी उन्होंने ग्वालियर पर आक्रमण कर दिया। रानी ने तात्या टोपे के सह्योग से शिन्दे की राजधानी ग्वालियर पर 1 जून, 1858 के दिन हमला बोला। ग्वालियर अपनी फ़ौज के साथ अंग्रेज़ों के साथ था उस वक़्त। अंग्रेज़ों के लिए रानी का यह आक्रमण वाक़ई अप्रत्याशित था। अंग्रेज़ सोच रहे होंगे कि एक महिला, जिनसे उन्होंने उसका राज्य छिन लिया है, जो महीनों से युद्ध भूमि में ही हैं, थक चुकी होगीं, अपने सैनिकों को गँवा कर टूट चुकी होगीं। अंग्रेज़ सोच नहीं सकते थे कि वह महिला ग्वालियर के क़िले पर भी आक्रमण कर सकती हैं।
 
लेकिन यह तो रानी लक्ष्मीबाई थीं। ग्वालियर पर उन्होंने आक्रमण कर दिया। ग्वालियर का राजा अपने प्राणों की रक्षा करने के लिए आगरा भाग गया, अंग्रेज़ों की शरण में। कहते हैं कि लक्ष्मीबाई की वीरता देख शिन्दे की फ़ौज के विद्रोही उनके साथ हो लिए। तात्या टोपे और रानी की संयुक्त सेनाओं ने उन विद्रोही सैनिकों की मदद से ग्वालियर पर कब्ज़ा कर लिया। अंग्रेज़ों के लिए यह भौचक्का रहने का समय था। वह विश्वास नहीं कर पा रहे थे कि एक घायल स्त्री इस कदर कारनामा भी कर सकती हैं। रानी तथा उसके सह्योगियों ने नाना साहब को पेशवा घोषित कर दिया।
उसके बाद उन्होंने महाराष्ट्र की ओर धावा बोलने का मंसूबा बाँधा। ताकि मराठों में वह ज्वाला धधक उठे। उधर अंग्रेज़ों ने अपनी पूरी ताक़त लगा दी। ग्वालियर का क़िला हाथ से जाना उनके लिए बहुत बड़ा सदमा था। अंग्रेज़ों ने ग्वालियर को फिर से जीत लिया। उसके बाद अंग्रेज़ और रानी के बीच मुरार तथा कोटा में भी दो लड़ाईयाँ हुईं। विशाल अंग्रेज़ी सेना के सामने रानी की सेना पराजित हुई। किंतु अंग्रेज़ों को समझ आ चुका था कि वे जिन्हें एक सामान्य महिला समझते थे वह सचमुच उस झाँसी की रानी थीं, जिसके लिए वह महीनों से युद्ध भूमि में अपना रक्त बहा रही थीं।
 
23 मार्च 1858 को अंग्रेज़ों ने जंग शुरू की थी। अब जून का महीना चल रहा था। महीनों से रानी युद्ध भूमि में थीं। अंग्रेज़ों के लिए इस वीरांगना की यह वीरता अबूझ पहेली बन चुकी थी।
 
रानी ने दामोदर राव को रामचंद्र देशमुख को सौंप दिया था। हमें पता नहीं चल सका है कि दामोदर राव को कब सौंपा गया होगा।
 
रानी ने तय किया था कि वो अपनी अंतिम साँस तक लड़ेगी और अपनी सेना को आदेश दिया था कि अगर युद्ध में उनकी मृत्यु हो जाए, तो उनका मृत शरीर अंग्रेज़ों के हाथ नहीं आना चाहिए। इस आख़िरी लड़ाई में, अंग्रेज़ों के चौतरफ़ा आक्रमण में वो ख़ुद को घिरती हुई महसूस करने लगीं और रानी ने अपना घोड़ा दौड़ाया। पर दुर्भाग्य से मार्ग में सोनरेखा नाला आ गया। घोड़ा नाला पार न कर सका। तभी अंग्रेज़ घुड़सवार वहाँ आ गए। रानी की मृत्यु कैसे हुई थी इसे लेकर इतिहासकारों में मतभेद हैं। कुछ कहते हैं कि किसी अंग्रेज़ सेनापति की गोली लगने से उनकी मृत्यु हुई थी। कुछ इतिहासकार कहते हैं कि एक अंग्रेज़ सैनिक ने पीछे से रानी के सिर पर प्रहार किया, जिससे उनके सिर का दाहिना भाग कट गया और उनकी एक आँख बाहर निकल आई। उसी समय दूसरे गोरे सैनिक ने संगीन से उनके हृदय पर वार कर दिया।
रानी की मृत्यु की वजह जो भी हो, गोली हो या तलवार हो, यह महत्वपूर्ण नहीं है यहाँ। किंतु सभी इतिहासकार एक बात से ज़रूर सहमत होते हैं कि अत्यन्त घायल होने पर भी रानी अपनी तलवार चलाती रहीं और उन्होंने दोनों आक्रमणकारियों का वध कर डाला। फिर वे स्वयं भूमि पर गिर पड़ी। उनका रौद्र रूप देख कर उस वक़्त स्वयं माँ दुर्गा भी अचंभित हो जाती। पठान सरदार गौस ख़ाँ अब भी रानी के साथ था। स्वामिभक्त रामचंद्र देशमुख और रघुनाथ सिंह भी अन्त तक रानी के साथ थे। उन्होंने रानी के रक्त रंजित शरीर को समीप ही बाबा गंगादास की कुटिया में पहुँचाया। रानी ने व्यथा से व्याकुल हो जल माँगा और बाबा गंगादास ने उन्हें जल पिलाया।
 
रानी को असहनीय वेदना हो रही थी, परन्तु मुखमण्डल दिव्य क्रांति से चमक रहा था। उन्होंने एक बार अपने पुत्र को देखा और फिर वे तेजस्वी नेत्र सदा के लिए बंद हो गए। रानी यह चाहती थीं कि मरने के बाद भी अंग्रेज़ उनके शव तक को हाथ न लगाएं, इसलिए बाबा गंगादास ने अपनी कुटिया को ही चिता का रूप दिया और अपनी कुटिया में हीं उनका अग्निसंस्कार किया।
 
वह 18 जून, 1858 का दिन था, जब क्रान्ति की यह ज्योति अमर हो गई। उसी कुटिया में उनकी चिता लगायी गई, जिसे उनके पुत्र दामोदर राव ने मुखाग्नि दी। रानी का पार्थिव शरीर पंचमहाभूतों में विलीन हो गया और वे सदा के लिए अमर हो गयीं। इनकी मृत्यु ग्वालियर के पास कोटा की सराय में हुई थी। उस ज़माने में विद्रोही सिपाहियों के सैनिक नेताओं में रानी सबसे श्रेष्ठ और बहादुर थीं, और उनकी मृत्यु से मध्य भारत में विद्रोह की रीढ़ टूट गई।
 
लड़ाई की रिपोर्ट में ब्रिटिश जनरल ह्यूरोज़ ने टिप्पणी की कि रानी लक्ष्मीबाई अपनी सुन्दरता, चालाकी और दृढ़ता के लिए उल्लेखनीय तो थीं ही, विद्रोही नेताओं में सबसे अधिक ख़तरनाक भी थीं। उनकी मौत पर जनरल ह्यूरोज़ ने कहा था कि, ‘‘यहाँ वह औरत सोयी हुयी है, जो विद्रोहियों में एकमात्र मर्द थीं।’’
 
अपनी अद्भुत वीरता, युद्धकौशल, साहस और कभी न ख़त्म होने वाले देशप्रेम के कारण एक साधारण सी लड़की मनु एक कालजयी वीरांगना बन गईं, और आज भी वह करोड़ों लोगों के लिए प्रेरणा हैं। लगभग पौने दो सौ साल होने जा रहे हैं इस मर्दानी के जन्म के... किंतु हर गुज़रते दिन के साथ झाँसी की रानी की प्रासंगिकता कम होने के बजाय बढ़ती हीं जा रही है।

:ऐतिहासिक तारीख़ें:
19 नवंबर 1828 या 1835, रानी लक्ष्मीबाई की जन्म तिथि, जन्म के साल में मतभेद हैं
23 मार्च 1858, झाँसी का ऐतिहासिक युद्ध आरंभ हुआ
1 जून, 1858, रानी लक्ष्मीबाई और सहयोगी सेना ने ग्वालियर पर हमला किया
18 जून, 1858, रानी लक्ष्मीबाई वीरगति को प्राप्त हुईं

रानी लक्ष्मीबाई का भारतीय डाक टिकट
 
चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
ख़ूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
 
जाओ रानी याद रखेंगे हम कृतज्ञ भारतवासी,
तेरा यह बलिदान जगावेगा स्वतंत्रता अविनासी,
होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी,
हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झाँसी।
 
तेरा स्मारक तू होगी, तू ख़ुद अमिट निशानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
ख़ूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
 
झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की प्रतिमा
इस्कॉन मंदिर, बेंगलुरु
 
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