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Short Stories : ...लिखने वाले सब कुछ नहीं लिखते !

 
संस्करण के भीतर छोटी-छोटी काल्पनिक कहानियाँ हैं, जो काल्पनिक तो हैं, किंतु सत्य के बहुत क़रीब सी हैं। छोटी कहानियों के बारे में इतना ही कहना है कि, "लिखने वाले सब कुछ नहीं लिखते, पढ़ने वाले भी सब कुछ नहीं पढ़ते, और समझने वाले सब कुछ नहीं समझते।"
 
एक अधूरी और पुरानी कहानी
यह एक "अधूरी" कहानी है, जो "पुरानी" भी है यह नोट करें। ... एक आम आदमी चाहता था कि सभी को ज़्यादा पढ़ा-लिखा होना चाहिए, ताकि रोज़ाना जो ज़्यादती हो रही है, उससे लड़ा जा सकें। .... वक़्त गुज़रा और फिर यह आम आदमी किसी सरकारी नौकरी में भर्ती हो गया, और मानने लगा कि लोगों को ज़्यादा पढ़ा-लिखा नहीं होना चाहिए, ताकि वे उनसे लड़ ना सकें।
 
तरो-ताज़ा भावनाएँ
एक तरो-ताज़ा युवा बच्चा टेलीविज़न देख रहा था। सोचा कि सबसे पहले एकाध गीत वाला चैनल लगा दूँ। उसने गीत वाला चैनल लगाया। क्या ख़ूबसूरत गाना आ रहा था। मेरे देश की धरती... मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे-मोती, मेरे देश की धरती। भारत माता और इस देश की धरती पर गर्व करने के बाद, यूँ कहे कि अपने शरीर के भीतर जितना अभिमान वो युवा बच्चा समेट सकता था, समेटने के बाद, उसने सोचा कि गर्व तो बहुत कर लिया, चलो अब न्यूज़ हेडलाइंस सुनने के बाद बाहर गलियों में जाकर ट्वेन्टी-ट्वेन्टी वाला मज़ा ले लिया जाए। उसने न्यूज़ चैनल लगाया। ख़बरें आ रही थीं... नरमुंड लिये किसानों का विरोध-प्रदर्शन, अपनी मागों के लिए अर्घनग्न हुआ देश का अन्नदाता, ज़िंदा चूहा और मरे हुए सांप को मुँह में दबाया, घास खाया, अपना मूत्र पीने को मजबूर हुए किसान। युवा बच्चे ने माथा पीटा और कहा, क्या देश होगा वो, जहाँ किसानों के ऐसे हालात होंगे। अपने देश में तो घरती हीरे और मोती उगलती है। भगवान करे उस देश के किसानों को जो भी दिक्कतें हैं, उसका निपटारा हो जाए। और फिर वो बल्ला और गेंद निकालकर बीस-बीस ओवर वाले खेल का मज़ा लेने चला गया। वो युवा बच्चा आज ज़ल्दी खेलने गया था, क्योंकि शाम को उसे लाइव मैच भी देखना था।
 
जीएसटी का जंजाल
जीएसटी लागू हो चुका था। मुस्लिमों के सबसे बड़े हितेच्छु होने का दावा करने वाले संगठन, तथा हिंदुओं के बारे में भी यही दावा करने वाले संगठनों ने तय किया कि वे जीएसटी पर कार्यक्रम करेंगे और 'सार्थक चर्चा' करेंगे। जीएसटी आर्थिक सुधार का इतिहास किन आधारों पर है यह कार्यक्रम का मुख्य विषय था। दोनों अपने-अपने धर्मों के सबसे बड़े हितेच्छु या रक्षक होने का दावा कर रहे थे, ऐसे में इन्होंने जीएसटी पर सार्थक चर्चा का दावा कर लिया यह भी इतिहास था। 'जीएसटी एक इतिहास' से सार्थक चर्चा शुरू हुई, और जब तक कार्यक्रम चला, हज़ारों साल पहले तक का इतिहास 'सार्थक चर्चा' में आ गया, किंतु दिनभर जीएसटी का नाम तक नहीं आया। बाद में पता चला कि दोनों की परेशानी एक ही थी। यही कि जीएसटी भले इतिहास हो, किंतु कॉमर्स और टैक्सेशन का दोनों में से किसी लपोड़शंकरों को ज्ञान नहीं था। (हमने कहीं पर आश्चर्य चिन्ह इस्तेमाल नहीं किया है, इसलिए इस सार्थक चर्चा का मतलब समझ लें।)
 
सामाजिकता का समापन
कई बुद्धिजीवी लोग चर्चा में जुटे थे। सामाजिकता पर चर्चा हो रही थी। चर्चा के दौरान, और चर्चा के समापन में, सभी सर्वसंमति से संमत हुए कि बार बार मुकरने वाला, विचारों में हमेशा ख़ुद को अलग-अलग पायदान पर रखने वाला, झूठ बोलने वाला, वचन देकर हमारे पूर्वज समान बंदरों की संस्कृति को जीवित रखने वाला... वगैरह गुणों वाले अच्छे दोस्त या अच्छे इंसान नहीं माने जा सकतें और ऐसे लोगों से हमेशा दूरी बनाए रखना ही अच्छी नीति है। फिर सभी बुद्धिजीवियों ने यह कहकर एक दूसरे से विदा ली कि अब उनका फलां फलां पार्टी के फलां फलां नेता के कार्यक्रम में जाने का वक़्त हो गया है। अगली बार मिलेंगे, तब फिर से सामाजिकता पर चर्चा करेंगे।
 
इतिहास का आख्यान
एक इतिहासकार होता है। अपनी पूरी ज़िंदगी उसने क़िस्सों-कहानियों, उसे जाँचना, परखना, उसके विभिन्न दृष्टिकोणों को समझना, उसे लेखों में ढालना, इन्हीं चीज़ों में बिताई होती है। उस इतिहासकार ने सदैव यह ख़याल रखा था कि वो जो लिखता है, वह सच के क़रीब हो।
 
एक दिन वो किसी विषय पर अपने घर पर बैठे बैठे अध्ययन कर रहा होता है। तभी घर के बाहर उसे शोर सुनाई पड़ता है। शोर की वजह से उसके अध्ययन-कार्य में विक्षेप उत्पन्न होता है। वो घर की 'खुली खिड़कियाँ' बंद करता है, और अपने कार्य में दोबारा जुट जाता है। लेकिन बाहर का शोर धीरे धीरे ज़्यादा होता जाता है। शायद कोई वाद-विवाद, या कोई झगड़ा चल रहा था बाहर। धीरे धीरे शोर इतना ज़्यादा होता है कि 'बंद खिड़कियों' को चीरकर उस इतिहासकार के कानों में जाता रहता है। आख़िरकार वो इतिहासकार अपना अध्ययन छोड़कर घर के अहाते में आता है। देखता है कि घर के बाहर जो सड़क थी, वहाँ दो गुट खड़े थे और बीच में एक लाश पड़ी हुई थी। एक गुट दावा कर रहा था कि हत्या सामने जो गुट खड़ा है उसने की है। सामने जो गुट खड़ा था, वो भी यही दावा कर रहा था कि हत्या उन्होंने नहीं, बल्कि सामने वालों ने की है। बहस और आरोप-प्रत्यारोप का दौर बढ़ता जाता है।
 
इधर इतिहासकार कुछ सोचता है, घर में वापस आता है। अपने अध्ययन-कार्य के आख़िरी पन्ने पर एक नोट लिखता है। नोट यह था, "मेरे घर के बाहर ही चंद मिनटों पहले एक हत्या हुई है। चंद मिनटों पहले मेरे घर के बाहर ही जो हत्या हुई है, वो किसने की उसका मुझे ज्ञान नहीं है। तो फिर सैंकड़ों सालों पहले मेरे घर से बहुत दुर कहीं पर कोई चीज़ हुई होगी, उसका सही ज्ञान मुझे कैसे मिल सकता है? मैं अपना अध्ययन समाप्त करता हूँ।"
 
उधर एक दूसरा इतिहासकार इस शोर की वजह से बाहर निकला हुआ है। वह घर में वापस आता है। अपने अध्ययन-कार्य को आगे बढ़ाते हुए वो लिखता है, "मेरे घर के बाहर ही चंद मिनटों पहले एक हत्या हुई है। चंद मिनटों पहले मेरे घर के बाहर ही जो हत्या हुई है, वो किसने की उसका मुझे ज्ञान नहीं है। क्योंकि दोनों गुट एकदूसरे पर आरोप लगा रहे हैं। अभी तक सच्चाई का पता चल नहीं पाया है।" फिर वह अपने अध्ययन कार्य की तरफ़ आगे बढ़ जाता है।
 
विज्ञान की विकराल जागरूकता
एक नेताजी को इसरो के एक बड़े और ऐतिहासिक से मौक़े पर मुख्य अतिथि बनाया गया था। वहाँ जाकर इन्हें इसरो के बारे में, उसके वैश्विक इतिहास और कारनामों के बारे में, समाज को जागरूक बनाने हेतु प्रवचन देना था, और सभ्यताओं को विज्ञान के प्रति सजग भी करना था। नेताजी इतने तह-ए-दिल से यह करना चाहते थे कि वे रात को सोये तब भी अपने व्यक्तिगत ज्योतिष से सलाह लेकर अलार्म सेट कर चुके थे कि कौन सा समय योग्य होगा आँखें खोलने के लिए। इतना ही नहीं, वे सुबह जगे तब भी उन्होंने अपने व्यक्तिगत ज्योतिष को बुलाकर रखा था, और घर से कब निकलना है इसका मुर्हूत निकलवाया। वे इतनी आत्मीयता से लगे रहे कि उन्होंने ज्योतिष से एक और मुर्हूत भी निकलवाया कि प्रवचन किस समय पर शुरू होना चाहिए, ताकि विज्ञान के बारे में वे लोगों को ठीक से जागरूक कर सकें। हालाँकि नेताजी ने ज्योतिष से यह नहीं पूछा कि प्रवचन कब समाप्त करना है इसका मुर्हूत क्या होगा। क्योंकि वे नेताजी थे, और साथ ही विज्ञान के बारे में लोगों को जागरूक करना चाहते थे।
 
स्वतंत्रता दिन का स्व-तंत्र
एक सूबे के सीएम को पहली दफ़ा 15वीं अगस्त पर झंडा फहराने जाना था। जब उन्हें पता चला कि ऐसे कार्यक्रम में उन्हें भाषण भी देना होता है, तो वे पहले से ज़्यादा मन के साथ जाने को तैयार हुए। पास खड़े कर्मचारी ने उन्हें बताया कि घबराएँ नहीं, आपको केवल टांग के बजाय बस डोर खींचनी है, तिरंगा अपने आप हवा में फहरेगा। नेताजी को झंडा फहराने का अनुभव नहीं था, किंतु टांग खींचने में वे काफ़ी पारंगत थे। लिहाज़ा बिना किसी परेशानी के यह विधि समाप्त हो गई। फिर बच्चों ने कार्यक्रम किए। बच्चों से बड़े, लेकिन बुज़ुर्गों से छोटे भारतीय नागरिकों ने, रातभर जगकर जो रट्टा मारा था वो बोल दिया। बच्चों ने जिन जिन महानुभावों पर बोला, हालाँकि इतने बड़े लोगों के नाम नेताजी ने सुने तो थे, लेकिन उन्हें पता नहीं था कि इन लोगों ने इतना सब कुछ किया था। कुछ बच्चों ने अंग्रेज़ी में भी बोला। नेताजी को कुछ नाम तो पहली बार पता चले थे, लेकिन नेताजी का क्षेत्र राजनीति था, और ऊपर से वे नेता थे, लिहाज़ा उन्हें सब कुछ पता ना हो यह स्वाभाविक था। बच्चों ने जो स्पीच दी उसमें नेताजी को बहुत कम पता चला। लेकिन हिसाब बराबर तब हुआ, जब नेताजी ने सारे बच्चों ने मिलकर जितना वक़्त लिया था, उतना वक़्त अकेले लेते हुए प्रवचन दिया, और उसमें से बहुत कम बच्चों को पता चला। नेताजी घर पर गए तो पत्नी को बताया कि भाग्यवान, आज़ादी तो बड़ी मुश्किल से मिली थी यह तुम्हें पता है? बच्चों ने घर पर जाकर अपने अभिभावकों से कहा कि आज़ादी को संभाल पाना बड़ा मुश्किल है यह आपको पता है?
 
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)