लास्ट अपडेट अक्टूबर 2019
फ़ेक न्यूज़, अविश्वसनीय दावे या
भ्रमित करने वाली ख़बरों को लेकर बड़े से बड़े ग्रंथ लिखे जा सकते हैं। फ़ेक न्यूज़
क्यों फैलाए जाते हैं, कौन फैलाते हैं, कब फैलाते हैं, उससे क्या फ़ायदे या नुक़सान होते हैं, बहुत लंबा लिखा जा सकता है। "World
of Fake News: फ़ेक ख़बरों का जंगल..." में हमने यह विस्तृत रूप से देखा। इस संस्करण में हम केवल उन फ़ेक ख़बरों की बात
करेंगे, जो मीडिया, मीडिया के कुछेक चैनल, एंकर या कुछेक संगठन के ज़रिए जाने-अनजाने में फैलाई गई और बाद में ख़बरों का
गुब्बारा फूटा भी था।
यह राष्ट्रीय चैनल
है या फिर किसी नुक्कड़ या गली का व्हाट्सएप ग्रुप? राष्ट्रीय चैनल ने
जब पाकिस्तानी मोर्टार फ़ायर का 2 साल पुराना वीडियो देश के सामने पेश कर दिया!!!
22 जनवरी 2018 की शाम एक निजी न्यूज़ चैनल ने ख़ुद ही साबित कर दिया कि वे तड़का लगाकर न्यूज़
परोसते हैं। ख़ुद को देश का नंबर वन चैनल बताने वाले इस चैनल ने किसी गली या नुक्कड़
के व्हाट्सएप सरीखी रिपोर्टिंग करते हुए दो साल पुराना एक वीडियो लोगों को परोस दिया! पाकिस्तान का पर्दाफ़ाश... पाक सेना ने मोर्टार फ़ायर किया... पाक सेना आम नागरिकों
को निशाने पर ले रही... यहाँ है सबूत... इन शीर्षकों का इस्तेमाल करते हुए चैनल ने
देश को बताया कि जम्मू-कश्मीर में भारतीय नागरिकों को नियंत्रण रेखा और अंतरराष्ट्रीय
सीमा पर पाकिस्तानी मोर्टार फ़ायर द्वारा लक्षित किया गया था।
दरअसल इन दिनों पाकिस्तान
की ओर से सीझफ़ायर का उल्लंघन हो रहा था, लेकिन चैनल ने एक ऐसा वीडियो पेश कर दिया जो दो साल पुराना था!!! चैनल के कार्यकारी संपादक और प्राइम टाइम प्रोग्राम इंडिया फर्स्ट के एंकर यह
ख़बर दे रहे थे। एंकर अपने कार्यक्रम में संवाददाता से यह कहते हुए दिखाई दे रहे थे
कि, "(रिपोर्टर का नाम) मैं
आपसे पहले अंतरराष्ट्रीय सीमा पार में हो रहे विनाश को समझना चाहता हूँ। साथ ही, एक गाँव में पाकिस्तानी
मोर्टार का उपयोग करने वाली तस्वीरें और फिर भी पाकिस्तान शिकायत करता है कि भारत के
जवाबी फ़ायर में उसके नागरिकों की हत्या कर दी जाती है।" एंकर के बोलने के
दौरान ही पाकिस्तानी सेना की मोर्टार फ़ायरिंग की आवाज़ आती है।
फिर टीवी चैनल के स्क्रीन
पर वो वीडियो चलता है, जिसके बाएं कोने में देखा जा सकता था कि यह कोटली (पाक अधिकृत कश्मीर) का वीडियो
था। लेकिन फिर भी संवाददाता की हिम्मत तो देखिए कि वो कहने लगा, "आप पाक सेना को देख
सकते हैं, वे नागरिकों का उपयोग कैसे कर रहे हैं और वे हमारे नागरिक क्षेत्रों को लक्षित
कर रहे हैं।"
ऑल्ट न्यूज़ ने इस
वीडियो का पर्दाफ़ाश करते हुए लिखा कि उन्हें नीलेश पुरोहित ने सूचित किया और बताया
कि यह वीडियो नया नहीं था, बल्कि यूट्यूब पर लगभग दो साल से उपलब्ध था!!! यूट्यूब पर जो वीडियो दो सालों से चल रहा था उसे एक विश्वसनीय कहे जाने वाले मीडिया
हाउस ने इस तरह देश के सामने पेश कर दिया, जैसे कि वो आज-कल का हो!!!
उपरांत वीडियो की कहानी
भी कुछ अलग ही थी। दरअसल यह दो साल पुराना वीडियो पाकिस्तानी सेना की फ़ायरिंग मोर्टारों
को उत्तरी वज़ीरिस्तान क्षेत्र में आतंकवादी समूहों के ख़िलाफ़ पाकिस्तान द्वारा ज़र्ब-ए-अज्ब
नामक सैन्य अभ्यास के हिस्से के रूप में दिखाया गया था। यानी कि वीडियो था दो साल पुराना, ऊपर से वो पाकिस्तानी
सेना के अभ्यास का था। लेकिन भारतीय मीडिया ने देश को झूठी ख़बरें देकर इसे एक अलग
रूप में ही पेश कर दिया था!
चैनल ने यह वीडियो
23 जनवरी, 2018 को ट्वीट किया था।
उपरांत झूठे शीर्षकों और झूठे दावों के साथ। लेकिन यूट्यूब पर यह वीडियो 29 फ़रवरी, 2016 को अपलोड किया गया
था!!! इतना ही नहीं, अब तक क़रीब 2 लाख लोग इसे देख भी चुके थे। सोचिए, ख़ुद को देश का नंबर वन चैनल बताने वाले ये मीडिया हाउस किस हद तक पहुंच जाते हैं।
चैनल का ये वीडियो फ़ेक साबित होने के बाद वे यह भी कह नहीं सकते थे कि यह ‘संग्रह’ या ‘फ़ाइल’ का उल्लेख करके प्रसारित
किया गया था, क्योंकि वीडियो जब चल रहा था तब चैनल ने ‘बॉर्डर ग्राउंड रिपोर्ट’ लफ़्ज़ इस्तेमाल किया था, यानी कि सीधे सरहद से!!!
गौरतलब है कि ऐसा पहले
भी हो चुका था। मई 2017 में इन्होंने पाकिस्तान द्वारा सीमा पार फ़ायरिंग के बाद भारतीय सेना द्वारा लिया
गया बदला ट्वीट के साथ ग़लत जानकारी दे दी थी। सोचिए, देश के चैनल बिना किसी सत्यापन
के ख़बरें दे रहे हैं, ऊपर से जिसे लाखों लोग देख चुके हो ऐसे पुराने वीडियो को हाल का वीडियो बताकर
सीधे सरहद से रिपोर्टिंग करने का दुस्साहस भी जुटा लेते हैं!
न्यूज़ चैनलों की
ख़बर - सैनिकों का सिर काटने का तत्काल बदला
लेते हुए भारतीय सेना ने किरपाण और पिम्पल की पाकिस्तानी चौकियों को उड़ाया... जबकि
किरपाण भारत की चौकी थी! सेना का बयान – टीवी चैनल हमसे पूछे बिना ही शोर मचा रहे
हैं
इन न्यूज़ चैनलों
ने ख़बर दी कि भारतीय सेना ने बदला लेते हुए पाकिस्तान की किरपाण और पिम्पल
चौकियों को उड़ा दिया है। जबकि ज़ल्द पता चला कि किरपाण तो भारत की अपनी ही चौकी
है! सेना को बयान देकर कहना पड़ा कि टीवी चैनल हमसे पूछे बिना
ही शोर मचा रहे हैं।
1 मई 2017 को, जैसे ही नियंत्रण रेखा के पास भारत के दो सुरक्षा कर्मियों की हत्या और उनके
शव के साथ दुर्व्यवहार की ख़बर आई, कई समाचार संस्थानों ने भारतीय सेना द्वारा जवाबी कार्रवाई करने की ख़बर चलाना
शुरू कर दिया। सबसे पहले आज तक ने यह ख़बर दिखाई, जिसके बाद आज तक के सहयोगी चैनल इंडिया
टूडे तथा जी न्यूज़, एबीपी न्यूज़ और इंडिया टीवी ने भारतीय सेना की जवाबी कार्रवाई के बारे में विस्तार
से ख़बरें दिखानी शुरू कर दीं।
इसमें इन चैनलों ने
दिखाया कि भारतीय सेना ने प्रत्युत्तर देते हुए किरपाण और पिम्पल चौकियों को उड़ा दिया
है। लहज़ा वही था – भारतीय सेना ने लिया बदला, सरकार का पाकिस्तान को मुँहतोड़
जवाब, वगैरह वगैरह। बाद में पता चला कि किरपाण वास्तव में भारतीय चौकी थी और भारतीय
सेना द्वारा तत्काल जवाबी कार्रवाई करने की ख़बर भी झूठी थी!
बताइए, भारतीय मीडिया ने
यह ख़बर दे दी थी कि भारतीय सेना ने पाकिस्तान की किरपाण चौकी को उड़ा दिया है, जबकि वो चौकी भारत
की अपनी ही थी!!! भला, कोई सेना अपनी ही
चौकी को क्यों उड़ाएगी इसका जवाब मीडिया ने कभी नहीं दिया। सेना से कोई पुष्टि प्राप्त
किए बगैर टीवी चैनल अतिउत्साह में आ गए! बाद में सेना ने बयान देकर स्पष्ट कर दिया कि किसी चौकी की बात तो दूर है,
सेना ने कोई कार्रवाई की ही नहीं है।
सेना के प्रवक्ता ने
हिन्दुस्तान टाइम्स से कहा, "सोमवार रात को हमारी ओर से केजी सेक्टर में किसी भी प्रकार की बदले की कार्रवाई
नहीं की गई। वे (टीवी चैनल) हमसे कुछ भी पूछे बगैर शोर मचा रहे हैं। हम जवाबी कार्रवाई
करेंगे और जब हम करेंगे तो आधिकारिक बयान देंगे।"
बाद में कुछेक जगह
पर भारतीय सेना के स्पष्टीकरण को जगह ज़रूर मिली, लेकिन उन चैनलों ने शर्मिंदगी महसूस नहीं की, जिन्होंने उत्साह
में अपनी ही चौकी को उड़ा दिया था!!! चैनलों द्वारा देश, देश की सेना, भारत-पाकिस्तान और सांप्रदायिक ख़बरों पर
ऐसा तरीक़ा इसके बाद भी नहीं रुका और वे आगे जाकर अनाप-शनाप ख़बरों और गुमनाम
सूत्रों के ज़रिए इस खेल को खेलते गए।
रात को मस्जिद ने
लाइटें बंद की थीं और इधर चैनल ने रिपोर्ट किया कि चार करोड़ से अधिक के बिजली के बिल
का भुगतान न करने के कारण जामा मस्जिद अंधेरे में
बिजली का बिल जमा न
करने की वजह से जामा मस्जिद में अंधेरा होने की यह ख़बर एक निजी चैनल पर ख़ूब चली थी।
इस झूठी ख़बर का जन्म कई ख़ास ट्विटर हैंडल और झूठी ख़बरों के लिए पहले से बदनाम वेबसाइट
पोस्टकार्ड न्यूज़ पर हुआ था। एक निजी चैनल ने वहाँ जाकर रिपोर्टींग की और अपने
दर्शकों को कहा कि चार करोड़ से अधिक के बिजली बिल का भुगतान नहीं करने पर जामा
मस्जिद का बिजली कनेक्शन काट दिया गया है।
इस चैनल ने जगह पर
तथ्य जाँच करने वाली टीम भेजी, जिसने इमाम बुखारी के घर के बाहर जासूसी करते हुए कारों की गिनती की और उनके मॉडल
दर्ज किए। लेकिन यह टीम रिपोर्ट पेश करने से पहले ख़बर की सच्चाई पता लगाना ही भूल
गई। टीम मस्जिद के आसपास रहने वाले लोगों से यह पूछना भी भूल गई कि क्या मस्जिद में
आमतौर पर रात के समय रोशनी होती है? और रात में किस समय लाइट बुझाई जाती है?
मजेदार बात यह रही
कि रिपोर्टर ने गेट पर लाइट की रोशनी में दिख रहे एक बोर्ड को तो दिखाया, लेकिन उसे
यह समझ नहीं आया कि जब बिजली काट दी गई है तो बोर्ड पर रोशनी क्यों है! बीएसईएस द्वारा दिए गए स्पष्टीकरण को नज़रअंदाज़ करते हुए इस तरह की तथाकथित जाँच-पड़ताल
के आधार पर, टीवी ने यह ख़बर दी कि चार करोड़ से अधिक का बिल न जमा करने की वजह से बीएसईएस
ने जामा मस्जिद को झटका दिया।
इस झूठी ख़बर का पर्दाफ़ाश
ऑल्ट न्यूज़ ने अपने लेख में किया, जिसके बाद चैनल ने बिना कोई माफ़ी मांगे या स्पष्टीकरण दिए, चुपचाप अपना ट्वीट
और वीडियो डिलीट कर दिया!
सऊदी अरब में यह फ़तवा कि अगर पुरुषों को भूख लगे तो वे अपनी पत्नियों को खा सकते
हैं, एक व्यंगात्मक लेख को चैनल ने सच्ची ख़बर के रूप में परोस दिया
भारत का एक राष्ट्रीय
चैनल यह श्रेय पाने का पूरी तरह हक़दार है कि उसने ऐसी ख़बर पर यक़ीन किया, जो चीख़-चीख़
कर अपने फ़र्ज़ी होने का एलान कर रही थी। एक व्यंगात्मक लेख को सच्ची ख़बर के रूप
में परोस दिया गया!
प्रसिद्ध हिन्दी चैनल
द्वारा की गई इस स्टोरी का जन्म मोरक्को के किसी ब्लॉगर द्वारा लिखे गए एक व्यंग्यात्मक
कॉलम में हुआ था, जिसकी सच्चाई स्वयं मीडिया हाउस वेबसाइट, DailyO द्वारा 2015 में सामने ला दी गई थी। इस तथाकथित एक्सक्लूसिव ख़बर के बारे में जितनी कम बातें
की जाएँ, उतना बेहतर रहेगा। जो ख़बर पहली नज़र
में ही फ़ेक लग सकती है उसी ख़बर को सनसनीखेज़ बनाकर परोसने का मकसद क्या होगा यह सोचने
का विषय है।
जिस ख़बर की पर्ते
2015 में खुल चुकी थीं, जिस ख़बर को महज़ व्यंगात्मक लेख में व्यंग के हेतु लिखा गया था, उसे सनसनीखेज़ बनाकर
परोसने का चैनल का यह प्रयास वाक़ई ग़ज़ब हिम्मत ही कह लीजिए।
सात साल पुरानी
एडिटेड और फ़र्ज़ी तस्वीर को आधार बनाकर चैनल ने केरल में धर्मांतरण का रेट कार्ड,
हिन्दू लड़कियाँ, आदि पर चिल्लाकर रिपोर्ट की
सात साल पुरानी
एडिटेड फ़ोटोशॉप तस्वीर, एक ऐसी तस्वीर जो सालों से व्हाट्सएप में घूम रही थीं, जो
पहले से ही फ़ेक साबित हो चुकी थी, इस पर एक निजी न्यूज़ चैनल के एंकरों ने अपना गला
फाड़ा और धर्मांतरण, हिन्दू लड़कियाँ आदि पर कार्यक्रम चला दिया।
इस मामले में व्हाट्सएप
पत्रकारिता अपने असली रंग में नज़र आई। राहुल श्री शिवशंकर ने एक फ़ोटोशॉप की गई फ़ोटो, जो कई वर्षों से व्हाट्सएप
पर घूमने के साथ-साथ वर्षों पहले झूठी भी साबित हो चुकी थी, पर बोलते हुए कहा-
हिन्दुओं को धर्मांतरित करने के लिए इस रेट कार्ड में बारीक अक्षरों में छपी इस तरह
की ख़तरनाक बात मैं आपको बताना चाहता हूँ। हिन्दू ब्राह्मण लड़की - पाँच लाख रुपये, सिख पंजाबी लड़की, गुजराती ब्राह्मण
के लिए सात लाख रुपये वगैरह, हिन्दू क्षत्रिय लड़की - साढ़े चार लाख, हिन्दू ओबीसी/एससी/एसटी - दो लाख रुपये, बौद्ध लड़की - डेढ़ लाख रुपये, जैन लड़की 3 लाख रुपये, ख़लीफ़ा ने आपकी आस्था के लिए क़ीमत तय की है।
तस्वीर फ़र्ज़ी,
उसके झूठी होने की कहानी भी मौजूद, रेट कार्ड भी फ़र्ज़ी, और फिर भी नेशनल टीवी पर
प्राइम टाइम शो पर यह एक विषय के रूप में चला!!!
यूएई में दाऊद इब्राहिम
की 15,000 करोड़ क़ीमत की संपत्ति ज़ब्त की गई, उधर यूएई ने ख़बर को
नकार दिया था
राज्य में 'चुनावों के मौसम' में एक निजी न्यूज़
चैनल ने एक बार फिर से डी शब्द उछाल दिया। यूएई और दाऊद को लेकर ख़बरें चलने लगीं,
लेकिन इस ख़बर का स्रोत यूएई के अधिकारी, विदेश मामलों का मंत्रालय या फिर भारतीय वाणिज्य
दूतावास भी नहीं था। जो किसी देश की सरकार ने नहीं कहा था, वह यह चैनल कहने लगा!
ग़ज़ब यह था कि
चैनल ने ख़बर दिखाई और उसके पास इस ख़बर का कोई आधिकारिक सोर्स ही नहीं था और चैनल
पर ख़बर दिखाने के बाद भारत सरकार ने इसे एक बड़ी कूटनीतिक कामयाबी के तौर पर ट्वीट
किया, जिसमें सोर्स न्यूज़ चैनल था!!! जो सरकार ने नहीं कहा था वह चैनल कह रहा था, और जो चैनल ने कह दिया उसे सरकार
कह रही थी!!!
यह ख़बर पूरे मीडिया
में फैल गई। लेकिन पाँच दिनों के बाद संदेह पैदा होने लगा, क्योंकि यूएई से ऐसी
कोई रिपोर्ट नहीं थी। और फिर भारत में इस स्टोरी के शब्द बदलने लगे! जिस ख़बर को पहले संपति ज़ब्त की गई के नाम से परोसा जाता रहा, उसे कुछ दिनों
बाद ज़ब्त करने की योजना है और कार्रवाई शुरू की जाएगी के नाम पर भी दिखाया जाने लगा!
आख़िरकार यह समाचार
आने के दो सप्ताह बाद, यूएई के अधिकारियों ने आधिकारिक रूप से इस ख़बर को नकार दिया। 'नैरेटिव' बनाने के लिए मीडिया सरकारों के साथ किस
हद तक खड़ा रह सकता है, यह इसका उदाहरण था।
अरुंधति रॉय का कथित
बयान और राष्ट्रीय चैनलों के शो, जो हुआ ही नहीं था उस पर दिनों तक चैनल उबलते रहे
"कश्मीर में 70 लाख भारतीय सैनिक आज़ादी गैंग को हरा नहीं सकते हैं" - यह कथित बयान अरुंधति
रॉय के हवाले से दिया गया था। एक ऐसी यात्रा के दौरान, जो दरअसल कभी हुई
ही नहीं थी!!! एक अस्तित्वहीन इंटरव्यू
में एक फ़र्ज़ी बयान गढ़ा गया और दो राष्ट्रीय चैनल द्वारा रॉय पर हमला बोलते हुए प्राइम
टाइम बहस आयोजित की गई!
यह झूठी ख़बर किसी
अनजानी पाकिस्तानी वेबसाइट से पैदा हुई और पूरी निष्ठा के साथ इसे पोस्टकार्ड न्यूज़
और अन्य झूठी ख़बरें फैलाने वाली वेबसाइटों द्वारा प्रचारित किया गया। बीजेपी
सांसद परेश रावल ने रॉय को जीप के आगे बाँध सार्वजनिक रूप से घुमाने की सज़ा का
ऐलान तक कर दिया और प्राइम टाइम में चैनल इस सज़ा को वैध मानकर बहसें करने लगे!
एक प्रसिद्ध हिन्दी
पत्रकार ने इस फ़र्ज़ी बयान को, जो पाकिस्तानी वेबसाइट से आया था, राष्ट्रीय चर्चा
का विषय बना दिया और वह पत्रकार रॉय को सिर्फ़ एक किताब के लिए पुरस्कार जीतने वाली
लेखिका बताने लगा। वह गुस्से में चिल्लाने लगा, दावा करने लगा कि रॉय ने हमारी
सेना को अपशब्द कहे हैं, तालमेल के साथ और पूर्वनियोजित तरीक़े से कहे हैं। एक और न्यूज़
चैनल के भुपेंद्र चौबे यह जानना चाहते थे कि क्या अरुंधति रॉय को मानव कवच के तौर पर
बांधने के लिए कहने वाले परेश रावल सही कह रहे थे। बाद में चौबे ने अपना ट्वीट डिलीट
कर दिया।
द वायर द्वारा की गई
जाँच-पड़ताल से इस झूठ का सच सामने आया। पता चला कि न्यूज़ चैनलों ने इस फ़र्ज़ी
ख़बर को हवा दी थी और न्यूज़लॉन्ड्री के लेख से इसे विस्तार दिया गया था। रॉय के फ़र्ज़ी
बयान पर प्रतिक्रिया देते हुए न्यूज़लॉन्ड्री ने लेख लिखा था। बाद में सच सामने
आने पर इन्होंने एक ऑप-एड फिर से प्रकाशित किया और अपनी संपादकीय चूक के लिए माफ़ी
मांगते हुए उस लेख को वापस लिया। उधर झूठी ख़बर के आधार पर अरुंधति रॉय पर हमला बोलने
वाले राष्ट्रीय चैनलों की ओर से कोई ख़बर वापस नहीं ली गई या कोई माफ़ी नहीं मांगी
गई।
राष्ट्रपति कोविंद
के एक घंटे में 30 लाख फ़ॉलोअर बने, डिजिटल ट्रांजीशन के तथ्य को नज़रअंदाज़
कर दिया गया
इस ख़बर को पढ़कर आप
वाक़ई हैरान होंगे कि कोई कहानी कितनी अजीबोग़रीब होनी चाहिए, ताकि भारतीय मीडिया इसे
झूठी ख़बर मान सके। बिना यह सोचे कि क्या वाक़ई ऐसा संभव है, भारतीय मीडिया का
एक हिस्सा इस बात से अभिभूत हो गया कि एक घंटे में राष्ट्रपति कोविंद के तीस लाख फ़ॉलोअर
बन गए!
दरअसल, राष्ट्रपति
कोविंद के साथ तो केवल राष्ट्रपति मुखर्जी के फ़ॉलोअर अपने-आप जुड़े थे। राष्ट्रपति, उप राष्ट्रपति और
विभिन्न मंत्रियों के ट्विटर अकाउंट को डिजिटल संपत्ति माना जाता है, जो सरकार से संबंधित
होती है। जब कोई पदासीन व्यक्ति बदलता है तो ट्विटर की स्ट्रेटेजी के अनुसार डिजिटल
ट्रांजीशन होता है, ताकि निरंतरता बनी रहे और पिछले व्यक्ति का डिजिटल इतिहास संरक्षित रहे।
पूर्व राष्ट्रपति मुखर्जी के सभी ट्वीट @POI13 के तहत आर्काइव किए गए थे। नया अकाउंट @RashtrapatiBhvn
शून्य ट्वीट और पिछले अकाउंट के सभी फ़ॉलोअर के साथ शुरू हुआ।
इन दिनों ट्विटर पर यही पॉलिसी थी।
यह भारतीय मीडिया की
भेड़चाल मानसिकता का शानदार उदाहरण है जिसमें सबसे पहले ख़बर देने की भागमभागी में बुनियादी
तथ्य जाँच करने का कोई स्थान नहीं बचा है। रिपब्लिक, जी न्यूज़, टाइम्स ऑफ़ इंडिया, इकोनॉमिक टाइम्स, फाइनेंशियल एक्सप्रेस सरीखी जगहों पर इसे ब्रेकिंग न्यूज़ बना दिया गया था, जो बाद में मजाकिया
चैप्टर बनकर रह गया।
एक्सक्लूसिव! चीनी दल के साथ रॉबर्ट
वाड्रा क्या कर रहे थे
हे भगवान! चीनी दल के साथ रॉबर्ट वाड्रा की फ़ोटो। हैशटैग और प्राइमटाइम शो चलाने के लिए
फिर से दो राष्ट्रीय चैनल, रॉबर्ट वाड्रा की एक फ़ोटो देखकर अच्छे-खासे उत्साहित हो गए। वे चीनी दल, चीन
देश, रॉबर्ट वाड्रा और इसके ज़रिए राहुल गांधी, सोनिया गांधी और न जाने कहाँ कहाँ
पहुंच गए।
बाद में पता चला
कि न्यूज़ चैनलों ने तो एक फूड फेस्टिवल के मौक़े पर बीजेपी समेत तमाम नेताओं की जो
तस्वीरें थीं, उसमें से केवल एक
इसी तस्वीर को आगे रखकर चिल्लाने का धर्म निभाया था!
दरअसल, यह फ़ोटो एक
चीनी फूड फेस्टिवल की फ़ोटो थी, जिसमें भारत के (तत्कालीन)
रेल मंत्री सुरेश प्रभु, सीपीएम के सीताराम येचुरी, जेडीयू के केसी त्यागी और बीजेपी के अन्य नेता जैसे तरुण गोयल और उदित राज शामिल
हुए थे। चैनलों ने बस एक तस्वीर को चुना और कार्यक्रम चला दिया! जबकि गूगल पर तुरंत सर्च करके ये दोनों चैनल शर्मिंदगी उठाने से बच सकते थे।
नास्त्रेदमस ने सर्वोच्च
नेता नरेंदस के उदय के बारे में भविष्यवाणी की थी, व्यंगात्मक लेख को विश्वसनीय
कहानी बनाकर पेश कर दिया गया
व्यंगात्मक लेखों
को इतनी गंभीरता से लेने का चरित्र भारतीय मीडिया के पास ही होगा। एक राष्ट्रीय
चैनल ने मजाकिया लेख को पूरी तरह विश्वसनीय कहानी समझा, और उसे गंभीरता के साथ
अपने दर्शकों के बीच पेश किया!
भारत के सर्वोच्च नेता
गुजरात राज्य में जन्म लेंगे, उनके पिता दुकान में चाय बेचेंगे, उनका पहला नाम नरेंदस (नरेंद्र) होगा - हां, फ्रांस्वा गोटियर ने इस कहानी को बनाया कि किस तरह एक पुराने
लावारिस संदूक में उन्हें नास्त्रेदमस के उद्धरणों में सर्वोच्च नेता, नरेंदस के बारे में
पता चला। टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित, नास्त्रेदमस और भारत नामक एक ब्लॉग में गोटियर ने इन मजाकिया अंशों को साझा किया
था। लेख के साथ स्पष्टता भी की गई थी कि यह महज़ एक मनोरंजन है।
गोटियर को यह पुराना
ट्रंक लंबे समय से बार-बार मिलता रहा है। यहाँ तक कि 1999 में उन्होंने बताया
था कि 400 साल पहले आरएसएस की स्थापना असल में नास्त्रेदमस ने की थी। हालाँकि नरेंदस, वाजपायम, अडवानम और मुरलम जोशम
के बारे में पढ़कर सभी इस मजाक का आनंद ले रहे थे, लेकिन एक राष्ट्रीय चैनल ने इसे एक पूरी तरह विश्वसनीय कहानी
समझा, जो उसके दर्शकों को दिखाए जाने के काबिल ख़बर हो!
मरती हुई महिला का
यौन-शोषण किया गया, मशहूर अख़बार ने ग़लत जानकारी दी, बाद में माफ़ी मांगी
झूठी ख़बर का वाक़ई
हताश करने वाला यह लेख द हिन्दू द्वारा 8 सेकंड के वीडियो के आधार पर तैयार किया गया रिपोर्ट था, जोकि भगदड़ की शिकार महिला
का अजनबी पुरुष द्वारा यौन-शोषण किए जाने के बारे में था। द हिन्दू का हवाला देते हुए
कई समाचार संस्थानों ने इसे प्रकाशित किया और यह अंतरराष्ट्रीय प्रेस में भी छप गया।
पूरा वीडियो सामने
आने पर इस यौन-शोषण के बारे में संदेह उठने लगे। वीडियो से यह पता नहीं लगता था कि
यह यौन-उत्पीड़न का मामला था। प्रत्यक्षदर्शियों और पुलिस ने भी इस कहानी को सिरे से
नकार दिया। हालाँकि द हिन्दू ने इस कहानी पर माफ़ी मांगकर इसे वापस लिया, लेकिन नुक़सान हो चुका
था। एक निर्दोष पुरुष को छेड़छाड़ करने वाले आदमी के तौर पर चित्रित कर दिया गया था।
परेश मेस्ता
मामला, एक एमएलए ने दावा किया और बिना जाँचे चैनल ने सांप्रदायिकता वाला
द्दष्टिकोण सामने रख दिया
"उसके चेहरे पर उबलता तेल डाला गया। नपुंसक किया गया। सिर फाड़ दिया गया। झील में
फेंक दिया। क्या 21 वर्षीय परेश मेस्ता की हत्या से भारत आहत होगा?" - एक राष्ट्रीय चैनल
का यह ट्वीट था, जो बाद में झूठा साबित हुआ। राष्ट्रीय चैनल के इस ट्वीट को आधार
था एक राजनीतिक दल के एमएलए का दावा! बिना जाँचे इस दावे को सत्यापन का ज़रिया बना लिया गया!
फोरेंसिक रिपोर्ट ने
इन दावों को झूठा साबित किया, लेकिन तब तक अफ़वाह फैलने की वजह से सांप्रदायिक हिंसा की चिंगारी भड़क चुकी थी।
पुलिस ने कहा, "प्रेस नोट्स, सोशल मीडिया और ख़ास
तौर पर व्हाट्सएप के माध्यम से व्यक्तिगत फ़ायदे के लिए झूठी ख़बरों और अफ़वाहों को
फैलाकर समाज में विभाजन पैदा करने की जानबूझकर कोशिश की गई।"
याहू इंडिया के भूतपूर्व
मैनेजिंग एडिटर, प्रेम पाणिक्कर ने उनकी आलोचना करते हुए लिखा कि किस तरह एक मीडिया हाउस की स्टोरी
ने एक बेबुनियाद आरोप को हवा देकर इसे ज़िंदा किया, जिसकी वजह से सांप्रदायिक तनाव पैदा हुआ।
हिजबुल से जुड़ने वाले
एएमयू के छात्र के रूममेट को ग़ायब कर दिया गया, जबकि वो ग़ायब हुआ
ही नहीं था, सच सामने आया तो चैनलों ने स्टोरी हटा दी
ढेर सारे उदाहरणों
से यह तो स्पष्ट हो चुका है कि अठन्नी चवन्नी लेवल वाले मीडिया हाउस ही अपुष्ट ख़बरों
की बारिश नहीं करते, विश्वसनीय कहे जाने वाले मीडिया हाउस भी ऐसी गलियों में लोगों
को चक्कर कटवाते हैं।
टाइम्स ऑफ़ इंडिया
की एक स्टोरी में एक शीर्षक था - "हिजबुल से जुड़ने वाले एएमयू के पीएचडी छात्र का रूममेट भी ग़ायब है।" दरअसल, इन दिनों एएमयू के
पीएचडी स्कॉलर मन्नान बशीर वानी के कथित रूप से आतंकवादी समूह हिजबुल मुजाहिदीन से
जुड़ने की ख़बरें आ रही थीं। इस ख़बर के एक दिन बाद ही टाइम्स ऑफ़ इंडिया ने रिपोर्ट
दी कि उसका रूममेट भी ग़ायब है। न्यूज़ पेपर ने अलीगढ के एसएसपी राजेश पांडेय को उद्धुत
करते हुए यह दावा किया था। टाइम्स ऑफ़ इंडिया के हवाले से यह स्टोरी एबीपी न्यूज़, फर्स्ट पोस्ट, न्यूज़ एक्स और वेब
पोर्टल ऑप इंडिया ने भी चलाई।
बाद में फ्री प्रेस
कश्मीर में एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई, जिसने दावा किया कि रूममेट के ग़ायब होने की ख़बरें झूठी हैं। ऑल्ट न्यूज़ ने
अपनी रिपोर्ट में छापा कि फ्री प्रेस कश्मीर ने पुष्टि की है कि ग़ायब बताए जा रहे
रूममेट ने 2015 में एएमयू से अपनी एमएससी की पढ़ाई पूरी की और पीएचडी में दाखिला लिया। उसने यह
पीएचडी पूरी नहीं कि और 2016 में एएमयू छोड़ दी।
उसके बाद से ही वो
नागपुर में एक खनन कंपनी में भूवैज्ञानिक के तौर पर काम कर रहा था। उस रूममेट ने एक
मीडिया हाउस के समक्ष कहा कि ऐसी समाचार रिपोर्ट ने मुझे ख़तरे में डाल दिया है, मुझसे किसी पत्रकार
ने फ़ोन तक नहीं किया, मुझसे बात तक नहीं की। उसने हैरानी जताते हुए कहा कि मैं नहीं जानता कि मुझे ग़ायब
बताने के पीछे उनकी मंशा क्या है और वो ऐसा दावा किस आधार पर कर रहे हैं। उधर एएमयू
ने भी अपने वेबसाइट पर एक बयान पोस्ट कर रूममेट के ग़ायब होने वाली रिपोर्टों को खंडन
किया।
अलीगढ के एसपी अतुल
श्रीवास्तव ने ऑल्ट न्यूज़ के समक्ष कहा कि, "मैंने कभी नहीं कहा कि वह छात्र ग़ायब है। मैंने रिपोर्टर को इतना बताया था कि
वो अलीगढ में नहीं है। अब तथ्यों से साफ हो गया है कि वह एक कंपनी में काम कर रहा है।"
बाद में इंडियन एक्सप्रेस
में भी एक रिपोर्ट छपी, जिसमें रूममेट के भाई ने इन सारी बातों की पुष्टि विस्तार से की थी और कहा था
कि उसका भाई (रूममेट) ग़ायब नहीं है, बल्कि नागपुर में नौकरी कर रहा है।
बिना किसी जाँच के
ब्रेकिंग न्यूज़ चलाने वाले टाइम्स ऑफ़ इंडिया ने बाद में कोई माफ़ीनामा या स्पष्टीकरण
दिनों तक नहीं दिया था। बाद में दे दिया हो तो हमें ज्ञात नहीं है। फर्स्ट पोस्ट और
एबीपी न्यूज़ ने यह स्टोरी हटा दी थी। ऑप इंडिया ने भी मूल स्टोरी की जगह दूसरी स्टोरी
लगा दी थी, जिसमें रूममेट के परिजनों का ग़ायब नहीं होने का दावा दिखाया गया। न्यूज़एक्स
ने अपनी स्टोरी अब तक हटाई नहीं थी, आगे क्या हुआ पता नहीं।
दावोस में डंका बजने
का दावा, उसी दावोस में भारत अपने पड़ोसी पाकिस्तान और बांग्लादेश से
भी पिछड़ा
दावोस में डंका बजा।
इस नैरेटिव को मीडिया ने ख़ूब चगाया। उसी दावोस में एक इन्क्लूसिव डेवलपमेंट इंडेक्स
जारी हुआ। उभरती हुई अर्थव्यवस्था वाले 79 देशों की सूची बनी, जिसमें भारत का स्थान 62वां था, जो 2 स्थान नीचे आ गया। यहाँ भारत पहले 60वें स्थान पर था। लेकिन दावोस में डंका बजाने वाला मीडिया इस इंडेक्स पर मौन
साधे बैठा रहा।
जिस चीन के साथ भारत
की तुलना की जा रही थी वो 26वें नंबर पर आया। चौंकाने वाली स्थिति यह रही कि पाकिस्तान भारत से 15 पायदान ऊपर चला गया
था और 47वें नंबर पर बिराजमान था!!! नॉर्वे और लिथुआनिया
टॉप पर थे।
79 देशों में भारत का स्थान 62वां था और भारत का मीडिया बता रहा था कि दावोस में भारत की धूम है!!! पाकिस्तान 52 से बढ़कर 47 पर चला गया और हम 60 से गिर कर 62 पर आ गए थे! सूचकांक के हालात यह थे कि भारत बांग्लादेश
से भी पिछड़ चुका था!!! किंतु मीडिया भारत
की धूम मचा रहा था, सूचकांक को इतना महत्व नहीं मिल पाया।
पहली नज़र में ही
जो दावा ग़लत लगता था उसे एक ख़बर के तौर पर पेश किया गया, पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त
टीएस कृष्णमूर्ति का ईवीएम हैकिंग के बारे में नकली बयान वायरल हुआ
"गुजरात और हिमाचल प्रदेश का चुनाव बीजेपी ने ईवीएम हैकिंग से जीता है।" - इस हेडलाइन के साथ
द डेली टेलीग्राफ वेबसाइट ने पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टीएस कृष्णमूर्ति का हवाला
देकर एक लेख लिखा। लेख में आगे बताया गया कि, "पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टीएस कृष्णमूर्ति ने यह कहकर सनसनी फैला दी है कि उत्तर
प्रदेश, उत्तराखंड, गुजरात और हिमाचल प्रदेश का चुनाव बीजेपी ने सिर्फ़ और सिर्फ़ ईवीएम हैकिंग की
वजह से जीता है।"
मैट्रिक पास तक को
समझ होती है कि पूर्व चुनाव आयुक्त जैसा शख़्स ऐसा दावा नहीं कर सकता। पहली नज़र में
ही यह ख़बर झूठी ठहरती थी। यह लेख 21 दिसम्बर 2017 को प्रकाशित किया गया था।
टीएस कृष्णमूर्ति से
जब ऑल्ट न्यूज़ ने बात की तो उन्होंने इस ख़बर को फ़र्ज़ी बताया और ऐसी किसी टिप्पणी
से इनकार किया। दरअसल, 18 दिसम्बर 2017 को जिस दिन गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनाव परिणाम घोषित हुए थे, कृष्णमूर्ति ने बयान
यह दिया था कि अब ईवीएम की आलोचना बंद होनी चाहिए, क्योंकि इसने अपना काम अच्छी तरह से किया।
सी-प्लेन की सवारी
का दावा, जो आख़िरकार झूठा साबित हुआ
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अहमदाबाद से मेहसाणा तक सी-प्लेन सवारी को भारत में
उड़ने वाला अब तक का पहला सी-प्लेन बताया गया था! यह दावा पीएम मोदी की व्यक्तिगत वेबसाइट पर किया गया था, और
इसे बीजेपी पदाधिकारियों और मुख्यधारा के मीडिया घरानों द्वारा दोहराया गया था! जबकि यहाँ भी
सार्वजनिक था कि वर्ष 2010 में अंडमान-निकोबार प्रायद्धीप में सी-प्लेन सबसे पहले उपयोग
किया गया था।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की वेबसाइट नरेंद्रमोदी.इन पर 12 दिसंबर 2017 को प्रकाशित एक स्टोरी का आकर्षक शीर्षक था- पीएम मोदी भारत
के पहले सी-प्लेन के पहले यात्री बने! वेबसाइट के इस लेख में अहमदाबाद में साबरमती नदी से मेहसाणा
के धरोई बांध तक पीएम की सी-प्लेन यात्रा का ज़िक्र किया गया था और इसे गुजरात में
दूसरे चरण के मतदान से पहले उनके अभियान का हिस्सा बनाया गया था। इस दावे को
बीजेपी के आधिकारिक ट्विटर अकाउंट और भाजपा नेताओं और पदाधिकारियों की तरफ़ से बार
बार दोहराया गया।
ग़ज़ब यह था कि भारत में पहला सी प्लेन वर्ष 2010 में चला था यह जानकारी सार्वजनिक थी, और फिर भी चुनिंदा न्यूज़ चैनलों और
चुनिंदा न्यूज़ पेपरों ने इस ख़बर को ख़ारिज नहीं किया, बल्कि उसी रूप में एक
साहसी और अनोखे कदम के रूप में पेश किया! मीडिया तो इस ख़बर को भारतीय जलमार्ग की क्रांति के रूप
में पेश करने लगा! और फिर प्रधानमंत्री मोदी के साइट पर इस स्टोरी का शीर्षक
बदल गया! पहले सी प्लेन के पहले यात्री, यह हिस्सा वहाँ से ग़ायब हो गया!
सी प्लेन कब चला था यह जानकारी सार्वजनिक थी और इसीके आधार पर ऑल्ट न्यूज़ ने तथ्यों
के साथ रिपोर्ट पेश किया और लिखा, "सबसे पहली व्यावसायिक सी प्लेन सेवा भारत में वर्ष 2010 में शुरू की गई थी। सार्वजनिक क्षेत्र की हेलीकॉप्टर कंपनी पवन हंस और अंडमान-निकोबार
प्रायद्वीप के प्रशासन द्वारा संयुक्त रूप से संचालित इस सेवा, जल हंस का उद्घाटन दिसंबर 2010 में हुआ था।"
ये बात और है कि जल हंस सेवा उसके बाद रुक गई थी। 2010 के बाद केरल सरकार द्वारा जून 2013 में सी प्लेन सेवा शुरू की गई थी। केरल टूरिज्म इंफ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड द्वारा
प्रवर्तित सेवा केरल सी प्लेन की घोषणा राज्य के जलमार्गों को जोड़ने के लिए की गई
थी। हालाँकि स्थानीय मछुआरा समुदाय द्वारा विरोध किए जाने के कारण यह परियोजना लंबी
नहीं चली।
भारत में सी प्लेन सेवा शुरू करने की कोशिश सिर्फ़ सरकारों तक सीमित नहीं
थी। निजी कंपनियों ने वर्ष 2011-12 में ही सी प्लेन सेवाओं की घोषणा की थी। वर्ष 2012 में सीबर्ड सी प्लेन प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बनाई गई और इसने केरल और लक्षद्वीप
में सेवा शुरू करने की घोषणा की। एक अन्य कंपनी
मीहैर ने वर्ष 2011 में अंडमान-निकोबार प्रायद्वीप में सेवा शुरू की और बाद में
इसे महाराष्ट्र और गोवा तक विस्तारित किया। हालाँकि इन निजी कंपनियों ने व्यावसायिक
रूप से फ़ायदा न होने और सरकारी मंजूरी की समस्याओं के चलते इनका परिचालन बंद कर दिया
था।
9 दिसंबर 2017 को स्पाइसजेट ने मुंबई के गिरगाँव चौपाटी में समुद्री परीक्षण
किए थे, जहाँ केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी और अशोक गजपति राजू उपस्थित
थे। गडकरी द्वारा इस्तेमाल किए गए एयरक्राफ़्ट का ही इस्तेमाल प्रधानमंत्री मोदी की
अहमदाबाद से मेहसाणा तक यात्रा के लिए किया गया था। ऑल्ट न्यूज़ के रिपोर्ट की माने
तो दोनों प्लेन के रजिस्ट्रेशन नंबर N181KQ द्वारा इसकी पुष्टि की जा सकती थी। दिलचस्प बात यह थी कि जब ऑल्ट न्यूज़ ने एयरक्राफ़्ट
का फ़्लाइट पाथ देखा तो पता लगा कि यह प्लेन 3 दिसंबर 2017 को कराची, पाकिस्ता़न से मुंबई आया था! पिछले 90 दिनों में, क्वेस्ट कोडिएक का यह सिंगल इंजन एयरक्राफ़्ट ग्रीस से लेकर
सऊदी अरब और न्यूज़ीलैंड तक पूरी दुनिया में सफ़र कर चुका था।
गुजरात चुनावों को ध्यान में रखकर की गई पीएम मोदी की सी प्लेन यात्रा को प्रधानमंत्री
के वेबसाइट द्वारा देश की अब तक की पहली सी प्लेन यात्रा कहकर प्रचारित किया गया और
इसे कई समाचार संस्थानों ने दोहराया! जबकि ऐसा नहीं था, और न ही प्रधानमंत्री सी प्लेन में यात्रा करने वाले पहले भारतीय थे। पहले इस
बात को फैलाया गया और फिर बाद में पीएम मोदी के वेबसाइट से इसे चुपचाप हटा लिया गया!!! बाद में पीएम के वेबसाइट
ने इस ख़बर का शीर्षक भी बदल दिया, लेकिन मीडिया संस्थानों ने कोई स्पष्टीकरण जारी
नहीं किया।
आधार पर आम लोगों की
राय को नियोजित ढंग से बदलने का प्रयास, लेकिन मीडिया ने किम
जोंग और बगदादी पर ज़्यादा भरोसा किया
आधार को लेकर एक चीज़
बड़ी स्पष्ट रही है। भाजपा जब विपक्ष में थी तब उसने आधार को गैरज़रूरी, लोगों की निजता पर
हमला तथा देश के लिए ख़तरा बताया था। उस समय जो सत्ता में थे उन्होंने आधार को
ज़रूरी और सुरक्षित योजना बताया था। फिर भाजपा सत्ता में आई। फिर द्दश्य बदल गया
और किरदार भी। समर्थकों ने भी अपने विचारों को परिवर्तित कर दिया।
सुप्रीम कोर्ट ने 17 जनवरी 2018 को आधार मामले की
अंतिम सुनवाई शुरू की। हाल ही में ऐसे कई उदाहरण या मामले सामने आए थे, जिसमें आधार डाटा
लीक हुआ हो, या उसका दुरुपयोग किया गया हो। इन मामलों को लेकर आधार की सुरक्षा स्थिति पर
सवाल और टिप्पणियाँ होती थीं। किंतु अब तो हर सवाल को, हर आलोचना को, हर टिप्पणी
को सरकार विरोधी ही नहीं, बल्कि देश विरोधी माना जाने लगा था!
यहाँ भारत के
मीडिया ने कोई विशेष कार्यक्रम नहीं किए, ना किसी लीक मामले पर कोई ख़ास मेहनत की।
भारत का मीडिया इन दिनों इन सारी चीज़ों को छोड़ किम जोंग उन और बगदादी के पीछे लगा
हुआ था!
एक दौर वो भी आया जब
यूआईडीएआई के पूर्व अध्यक्ष नंदन नीलेकणि ने यह आरोप लगा दिया कि, "कुछ वर्गों द्वारा
आधार को ख़राब करने के लिए एक नियोजित अभियान चल रहा है।" नीलेकणि का यह बयान
द ट्रिब्यून द्वारा प्रकाशित एक लेख के मद्देनज़र आया था, जिसमें बताया गया
था कि किस तरह 1.2 अरब नागरिकों के जनसांख्यिकीय डाटा को मात्र 500 रुपये देकर प्राप्त किया जा सकता है। आधार डाटा लीक संबंधी
इस रिपोर्ट के बाद ट्रिब्यून के ख़िलाफ़ प्राथमिकी दर्ज कर दी गई थी!
इंफोसिस साइंस फाउंडेशन
पुरस्कार से इतर नीलेकणि ने एक निजी न्यूज़ चैनल से कहा, "आधार को बदनाम करने
के लिए योजनाबद्ध तरीक़े से एक अभियान चलाया जा रहा है, और यह सौ फ़ीसदी सच
है।" नीलेकणि ने आगे कहा, "राई का पहाड़ बनाया जा रहा है क्योंकि आधार बहु-स्तरीय सुरक्षा के साथ निर्मित
किया गया है और उस तक पहुंच इतनी आसान नहीं है।" ट्रिब्यून के ख़िलाफ़ दर्ज की गई प्राथमिकी का हवाला देते हुए
उन्होंने कहा, "आधार पर नकारात्मक विचारों के नकारात्मक परिणाम ही होंगे, लोगों के लिए बेहतर
होगा कि इसे लेकर रचनात्मक विचार रखें।" इन्होंने आगे कहा, "मुझे लगता है कि सब को यह मान लेना चाहिए कि आधार यहाँ बना रहेगा।"
नीलेकणि का यह दावा
कि आधार को बदनाम करने के लिए 'योजनाबद्ध तरीक़े से
अभियान' चल रहा है, वाक़ई सनसनीखेज़ आरोप
था। किंतु नीलेकणि ने उन सारे लीक पर कोई खुलासा नहीं किया, जिस पर सवाल उठे थे! उनसे पूछा जा सकता था कि भारत के लगभग तमाम राज्यों में हुए वह लीक मामले उस
योजनाबद्ध अभियान का हिस्सा थे?
लोकसभा में कई राज्यों
तथा उनके वेबसाइट पर आधार डाटा लीक का खुलासा, दूसरे अनेक लीक मामले, गुजरात में राशनकार्ड धारकों का डाटा लीक मामला, डिजिटल इंडिया के
ख़तरों पर संसद की वित्त समिति की बातें... नीलेकणि के योजनाबद्ध अभियान का आरोप
सच माने तो सवाल यही उठता है कि क्या तमाम राज्य, उनके सरकारी विभाग तथा सरकारी वेबसाइट इस योजनाबद्ध अभियान
का हिस्सा होंगे?
और अगर नीलेकणि का
दावा कुछेक घटनाओं को लेकर था, तो फिर लगे हाथ उन्हें नकारात्मक-सकारात्मक वाला भाषण करने की जगह उन सारी घोषित
हो चुकी घटनाओं पर थोड़ा सा सकारात्मक प्रकाश डाल देना चाहिए था।
नीलेकणि के लेख को
सत्ताधारी पार्टी के सदस्यों ने ट्वीट किया। केंद्रीय मंत्रियों ने नीलेकणि के
समर्थन में हैशटैग अभियान चलाया। बिना किसी झिझक के लिखा जा सकता है कि यूआईडीएआई ने
इस परियोजना के संबंध में पेश की गई आलोचनाओं, चिंताओं और डर को सही ढंग से नहीं लिया। लोगों द्वारा उठाए गए सवालों के जवाब
ना सरकार ने दिए, ना यूआईडीएआई ने।
और इस बीच, भारत
का मीडिया किम जोंग और कोरिया के पीछे ज़्यादा व्यस्त रहा! नागिन, रहस्य, सनसनी पर बातें ज़्यादा
करता रहा! समय मिलता तो बगदादी के पीछे वक्त बर्बाद
करता रहा! जब मीडिया ने महंगाई और रोजगारी पर बात करना
ज़रूरी नहीं समझा, तो फिर आधार के सवालों पर बात करना उसके लिए ज़रूरी भी कैसे होता?
(इनसाइड
इंडिया, एम वाला)
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