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Desh Bhakti Songs: दिलों में जुनून भरने वाले देशभक्ति के तराने कब और कैसे लिखे गए थे?

 
देशभक्ति, यह एक ऐसी भावना है जिसके दम और बल पर बहुत कुछ सकारात्मक और नकारात्मक घटता है। इस भावना को जगाते हैं देश के प्रतीक। मसलन, तिरंगा जैसे राष्ट्रीय प्रतीक। किंतु इससे भी ज़्यादा काम आते हैं देशभक्ति के तराने। स्वतंत्रता संग्राम हो या उसके बाद का कालचक्र हो, देशभक्ति के गीत, कविता, रचनाएँ दिलों में ताज़गी, जुनून, समझ, सनक सब कुछ पैदा करते हैं।
 
बिना इन तरानों के हमारी देशभक्ति जगती ही नहीं! और यदि जगती है, तो बिना इनके धधकती नहीं! यह मानवीय स्वभाव है। संवेदना और भावना का संसार है। देशभक्ति के गीत, उससे जुड़ी फ़िल्में या एल्बम, बहुत लंबे काल से शुद्ध संवेदना और शुद्ध देशभक्ति से लेकर विशुद्ध राजनीति और उनके मक़सद, बहुत सारी चीज़ों से जुड़े रहे हैं। हम सबने देशभक्ति के बहुत सारे गीत सुने हैं, और इनमें से कुछ ऐसे हैं, जो सदैव के लिए दिलों में बसे हुए हैं।
 
'जन गण मन' - यह हमारा राष्ट्रगान है, और यह केवल तराना नहीं है। लिहाज़ा हम हमारे राष्ट्रगान को पूरा सम्मान देते हुए देशभक्ति के तरानों की यात्रा को शुरू करते हैं।
 
देशभक्ति की अलख जगाने वाला पहला लोकप्रिय गीत वंदे मातरम्, जो राष्ट्रगीत बना
भारत में सबसे पहले जिस गीत ने देशप्रेम और देशभक्ति की अलख जगाई वह गीत है - वंदे मातरम्। वंदे मातरम् का नारा और इससे संबंधित रचनाएँ स्वाधीनता संग्राम से जुड़ी हुई हैं। इस गीत की रचना सुप्रसिद्ध लेखक और उपन्यासकार बंकिमचंद्र ने 7 नवम्बर 1876 को की थी। इसे बाद में बंकिम बाबू ने 1882 में प्रकाशित अपने उपन्यास 'आनंद मठ' में लिया था।
 
इस गीत के पहले दो पद संस्कृत में हैं और बाद के पद बांग्ला भाषा में लिखे गए हैं। यह गीत रविन्द्रनाथ टैगोर को पसंद आया तो उन्होंने ख़ुद इसे स्वरबद्ध किया। उस दौर में कॉंग्रेस को भी यह गीत इतना पसंद आया कि उसने 1896 के कोलकाता अधिवेशन में इसे विशेष रूप से प्रस्तुत किया।
 
धीरे धीरे यह गीत देशभक्ति का एक बड़ा तराना बनता गया। जब देश आज़ाद हुआ तो संविधान सभा में डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने 'वंदे मातरम्' गीत के एक हिस्से को राष्ट्रीय गीत घोषित करके इसे राष्ट्र गान 'जन गण मन' के समकक्ष रखा।
 
यह गीत फ़िल्म 'आनंद मठ' में आज़ादी के पाँच बरस बाद 1952 में आया। इसके बाद इस गीत को एक नई पहचान और बड़ी लोकप्रियता मिली। बंकिम बाबू द्वारा लिखित इस गीत को हेमंत कुमार ने संगीतबद्ध करके, लता मंगेशकर की आवाज़ में इस फ़िल्म में शामिल किया। बरसों बाद यह गीत आज भी लोकप्रिय है। बीबीसी वर्ल्ड सर्विस द्वारा साल 2002 में किए गए एक सर्वेक्षण में 'वंदे मातरम्' गीत, विश्व के दस सर्वाधिक लोकप्रिय गीतों में दूसरे पायदान पर आया था।
 
सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा... वह गीत जो दशकों से गाया जाता है
प्रसिद्ध शायर मुहम्मद इक़बाल ने इस रचना को 1905 में लिखा था और लाहौर की सरकारी कॉलेज में सुनाया था। स्वाधीनता संग्राम के दौरान यह ग़ज़ल ब्रिटिश राज के विरोध का प्रतीक बनी और आज नयी शताब्दी में भी यह लोकप्रिय देशभक्ति गीत है। यह देश का अनौपचारिक राष्ट्रीय गीत है।
 
'सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा, हम बुलबुलें हैं इसकी, यह गुलिस्ताँ हमारा' इस गीत ने आज़ादी से पहले तथा बाद में भी, यूँ कहे कि आज तक अपना जादू बरकरार रखा है। इसे लता मंगेशकर सहित अनेक कलाकारों ने अलग अलग मंचों पर गाया है और इसे कुछ फ़िल्मों में भी फ़िल्माया गया है।
 
यह इक़बाल की रचना बंग-ए-दारा में शामिल है। 1950 के दशक में सितार-वादक पण्डित रवि शंकर ने इसे सुर-बद्ध किया। जब इंदिरा गांधी ने भारत के प्रथम अंतरिक्षयात्री राकेश शर्मा से पूछा कि अंतरिक्ष से भारत कैसा दिखता है, तब कथित रूप से शर्मा ने इस गीत की पहली पंक्ति कही थी।
 
सरफ़रोशी की तमन्ना...
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है ज़ोर कितना बाज़ु-ए-क़ातिल में है...। स्वतंत्रता से 26 साल पहले, सन 1921 में लिखी गई यह रचना देशभक्ति और बलिदान के निश्चय का प्रतीक बनी।
 
शोधकर्ता सुधीर विद्यार्थी, जो राम प्रसाद बिस्मिल और अशफ़ाक़ुल्ला ख़ान पर शोध कर चुके हैं, के मुताबिक़ इस रचना को राम प्रसाद बिस्मिल ने गाया ज़रूर था, पर ये रचना बिस्मिल अज़ीमाबादी की है। इतिहासकार प्रोफ़ेसर इम्तियाज़ भी तस्दीक करते हैं कि यह ग़ज़ल बिस्मिल अज़ीमाबादी की ही है।
 

ये ग़ज़ल आज़ादी की लड़ाई के वक़्त काज़ी अब्दुल गफ़्फ़ार की पत्रिका 'सबाह' में 1922 में छपी, तो अंग्रेज़ी हुकूमत तिलमिला गई। ब्रिटिश हुकूमत ने प्रकाशन को ज़ब्त कर लिया।
 
सन 1965 में आई 'शहीद' फ़िल्म, जिसमें बतौर कलाकार मनोज कुमार थे, इस रचना को फ़िल्माया गया। यह गीत लंबे अरसे तक ख़ूब गाया-बजाया जाता रहा। यह रचना दूसरी फ़िल्मों में भी गायी गई और अनेक एल्बम के जरिए भी लोगों में जज़्बा भरती रही है।
 
चल चल रे नौजवान और दूर हटो ऐ दुनिया वालों... वो दो गीत, जो आज़ादी के आंदोलन का अहम हिस्सा बन गए
यूँ तो फ़िल्मों में देशभक्ति गीतों की बड़ी शुरुआत का श्रेय कवि प्रदीप को जाता है। इन्होंने सबसे पहले फ़िल्म 'बंधन' में 'चल चल रे नौजवान' गीत लिखा। उसके बाद प्रदीप के ही एक और गीत 'दूर हटो ऐ दुनिया वालों, हिंदुस्तान हमारा है' को 1943 में फ़िल्म 'क़िस्मत' में लिया गया और भारत में यह गीत आज़ादी के आंदोलन का एक अहम हिस्सा बन गया।
 
दूर हटो ऐ दुनिया वालों, यह गीत इस क़दर लोकप्रिय हुआ कि सिनेमा में दर्शक इसे बार-बार सुनने की मांग करते थे और फ़िल्म की समाप्ति पर इस गीत को सिनेमा हॉल में दोबारा सुनाया जाने लगा था। वहीं, चल चल रे नौजवान, इस गीत को सिंध और पंजाब की विधानसभा ने राष्ट्रीय गीत की मान्यता दे दी थी और ये गीत वहाँ की विधानसभा में गाया जाने लगा।
 
इन दोनों गीतों के लोगों पर पड़ते असर को देख सेंसर बोर्ड ने इन गीतों को फ़िल्म से निकाल दिया था। साथ ही ब्रितानी सरकार ने इन गीतों पर प्रतिबंध भी लगा दिया। कवि प्रदीप की बेटी मितुल प्रदीप के मुताबिक़ दूर हटो ऐ दुनिया वालों गीत की वजह से ब्रितानी सरकार ने कवि प्रदीप के ख़िलाफ़ वारंट जारी किया था, जिसके चलते वो कई दिनों तक भूमिगत भी रहे।
 
वतन की राह में वतन के नौजवां शहीद हो... आज़ादी के बाद पहला लोकप्रिय गीत
आज़ादी के बाद सबसे पहले देशभक्ति का जो गीत सर्वाधिक लोकप्रिय हुआ, वह था दिलीप कुमार, कामिनी कौशल की 1948 में आई फ़िल्म 'शहीद' का - वतन की राह में वतन के नौजवां शहीद हो।
 
राजा मेहंदी अली ख़ान के लिखे इस गीत को मोहम्मद रफ़ी, ख़ान मस्ताना ने गाया था और ग़ुलाम हैदर ने इसका संगीत दिया था।
 
पहाड़ तक भी काँपने लगे तेरे जुनून से, तू आसमाँ पे इन्क़लाब लिख दे अपने ख़ून से, ज़मीं नहीं तेरा वतन है आसमाँ शहीद हो, वतन की राह में... इस गीत में युवा बलिदानियों की कहानियों को बड़ी ख़ूबसूरती के साथ संजोया गया था।
 
आओ बच्चों तुम्हें दिखाएँ झाँकी हिन्दुस्तान की... वह गीत जो बच्चों की जुबान पर आया
इसके बाद जो गीत बच्चे-बच्चे की जुबान पर आया और आज भी लोकप्रिय है, वह है - आओ बच्चों तुम्हें दिखाएँ झाँकी हिन्दुस्तान की।
 
साल 1954 में प्रदर्शित फ़िल्म 'जागृति' के इस गीत को प्रदीप ने लिखा भी और ख़ुद ही गाया भी। इसका संगीत हेमंत कुमार ने दिया था। इस मिट्टी से तिलक करो ये धरती है बलिदान की, वंदे मातरम्, वंदे मातरम्... गीत के इन बोल के साथ पूरी रचना में भारत के परिचय और स्वाधीनता संग्राम को आसान, किंतु संवेदना से भरपूर लफ़्ज़ों में परोसा गया था।
 
आज़ादी के 7 साल बाद बच्चों को केंद्र में रखकर बनाई गई यह रचना सभी की जुबान पर सुनने को मिला करती थी। यह आज भी शिक्षा संस्थानों में राष्ट्रीय त्यौहार के दिवस पर बजता है।
 
ये देश है वीर जवानों काजिसने सबको झूमने पर मजबूर किया
ये देश है वीर जवानों का, अलबेलों का, मस्तानों का...। इस गाने ने लोगों को झूमने पर मजबूर किया। 1957 में 'नया दौर' फ़िल्म रिलीज हुई। दिलीप कुमार और वैजयंती माला के शानदार किरदार वाली इस फ़िल्म को तो लोगों ने पसंद किया ही, साथ ही इस फ़िल्म के गाने 'ये देश है वीर जवानों का' को भी ख़ूब पसंद किया।
 
आज़ादी के दस साल बाद आए इस गाने ने काफ़ी प्रसिद्धी पाई और लोगों ने इसे ख़ूब गाया। इसे मोहम्मद रफ़ी और बलवीर ने गाया था। इस गाने की लोकप्रियता अभी तक कम नहीं हुई है।
 
ऐ मेरे प्यारे वतन... वह गीत जिसने सभी को झकझोरा
इसके बाद देशभक्ति के जिस गीत ने सभी को झकझोरा वह गीत था - ऐ मेरे प्यारे वतन, ऐ मेरे बिछड़े चमन, तुझ पे दिल कुरबान।
 
साल 1961 में प्रदर्शित बिमल राय की फ़िल्म 'काबुलीवाला' के इस गीत को अपने स्वर दिए थे मन्ना डे ने। जबकि पर्दे पर बलराज साहनी फ़िल्मांकित इस सदाबहार गीत के बोल प्रेम धवन ने लिखे और सलिल चौधरी ने संगीत दिया था।
 
रविन्द्रनाथ टैगोर की 1892 की लघु कहानी 'काबुलीवाला' पर आधारित इस फ़िल्म में बलराज साहनी, उषा किरण आदि ने अभिनय किया था। तेरे दामन से जो आए उन हवाओं को सलाम, चूम लूँ मैं उस ज़ुबाँ को जिसपे आए तेरा नाम, सबसे प्यारी सुबह तेरी, सबसे रंगीं तेरी शाम, तुझ पे दिल क़ुरबान, ऐ मेरे प्यारे वतन... हृदयस्पर्शी तरीक़े से गाये इस गीत ने हर दिल को भीतर तक छुआ।
 
ऐ मेरे वतन के लोगों... वह अमर गीत, जो सभी के रोम-रोम में बस गया
इसके बाद प्रदीप देशप्रेम के गीतों के सबसे बड़े गीतकार बन गए। उसीका नतीजा था कि जब भारत-चीन युद्ध के बाद दिल्ली में, गणतंत्र दिवस पर वीर जवानों को श्रद्धांजलि देने का विशेष कार्यक्रम आयोजित हुआ, तो उसके लिए भी प्रदीप को ही विशेष गीत लिखने के लिए कहा गया।
 
इस कार्यक्रम के आयोजन का ज़िम्मा भारत सरकार ने सुप्रसिद्ध फ़िल्मकार महबूब ख़ान को सौंपा। कवि प्रदीप की बेटी मितुल प्रदीप बताती हैं, "महबूब साहब ने प्रदीपजी को इस मौक़े के लिए कोई ऐसा गीत रचने को कहा जो वीर जवानों को श्रद्धांजलि के रूप में दिल्ली में प्रस्तुत किया जा सके।" एक दिन प्रदीप सुबह सवेरे समुद्र किनारे घूम रहे थे तब उन्हें एक पंक्ति सूझी - जो शहीद हुए हैं उनकी ज़रा याद करो कुर्बानी। प्रदीप के पास उस समय कोई काग़ज़ नहीं था। सो उन्होंने अपनी जेब में रखी सिगरेट की डिब्बी निकालकर उसी पर ये पंक्तियाँ नोट कर लीं। उसके बाद बैठकर उन्होंने यह गीत पूरा किया।
 
प्रदीप को लगा कि सी रामचन्द्र के संगीत में इसे लता मंगेशकर गाएँ, तब यह बेहद प्रभावशाली रहेगा। इस सिलसिले में लता, प्रदीप और रामचन्द्र मिले। यह गीत तीनों के जीवन का सबसे अहम गीत बन गया। हालाँकि लता तब इस गीत को गाना नहीं चाहती थीं।
 
लता मंगेशकर ने इस गीत के बारे में एक बार कहा था, "असल में उन दिनों मैं अपनी बहन मीना की 11 फ़रवरी, 1963 को कोल्हापुर में होने वाली शादी में काफ़ी व्यस्त थीं। इसलिए मैंने 26 जनवरी को दिल्ली जाने और इस गीत को गाने में अपनी असमर्थता दिखाई तो पंडितजी (लता कवि प्रदीप को पंडितजी कहती थीं) गुस्सा हो गए। वह बोले लता नहीं तो यह गीत नहीं।"

 
"तब मैंने कहा अच्छा मैं और आशा, दोनों इसे गा देंगे। लेकिन पंडितजी इसी बात पर अड़े रहे कि मैं अकेली ही इसे गाऊँ। तब मैंने इसके लिए हाँ की। इसकी धुन बनी, जिसे मैंने पूरी तरह मुंबई से दिल्ली तक के सफ़र के दौरान ही सुना।"
 
जब 'ऐ मेरे वतन के लोगों' को लता ने 26 जनवरी 1963 को दिल्ली के नेशनल स्टेडियम में तत्कालीन प्रधानमंत्री के सम्मुख गाया, तो पूरे कार्यक्रम में एक अजब सा सन्नाटा छाया था। सभी की आँखें भर आई थीं। फिर तो यह गीत देशवासियों के रोम-रोम में बसने लगा और आज भी भारत में यह गीत देशभक्ति के कार्यक्रमों के लिए पहली पसंद है।
 
इस गीत को आए 50 से भी ज़्यादा साल हो गए हैं। अभी तक यह गीत किसी फ़िल्म का हिस्सा भी नहीं बना है। लेकिन तब से आज तक यह गीत देशभक्ति के गीतों में सर्वाधिक लोकप्रिय बना हुआ है। इस गीत का आज भी कोई सानी नहीं है।
 
लता मंगेशकर की प्रशंसा हुई, किंतु उन्हें वह बात सदैव के लिए दुख देती रही कि इस गीत के रचयिता प्रदीप को उस कार्यक्रम में आमंत्रित तक नहीं किया गया था। हालाँकि बाद में नेहरू ने विशेष आग्रह कर तीन महीने बाद 21 मार्च 1963 को मुंबई में कवि प्रदीप से मुलाक़ात की और उन्हीं की आवाज़ में इस गीत को सुना।
 
अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों... जिसने सभी को स्तब्ध कर दिया
'कर चले हम फ़िदा जान-ओ-तन साथियों, अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों' भी देशभक्ति के शीर्ष गीतों में आता है। इस गीत और इसकी फ़िल्म 'हक़ीक़त' की यात्रा असल में गीत 'ऐ मेरे वतन के लोगों' के ठीक बाद से शुरू होती है। 'ऐ मेरे वतन के लोगों' की लोकप्रियता और सभी पर इसके प्रभाव को देखकर ही फ़िल्म 'हक़ीक़त' बनी और कैफ़ी आज़मी ने 'अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों' गीत लिखा।
 
वरिष्ठ पत्रकार एवं फ़िल्म समीक्षक प्रदीप सरदाना के मुताबिक़ चीन के भारत के साथ धोखे से किए गए शर्मनाक युद्ध के बाद लोगों को भारत की हार की हक़ीक़त बताने के लिए ही फ़िल्म 'हक़ीक़त' बनाई गई थी, जिससे भारतीय सेना का पराक्रम भी बताया जा सके और तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरू का गौरव भी बरकरार रहे।
 
चेतन ने अपनी इस फ़िल्म को पंडित नेहरू को ही समर्पित किया था। हालाँकि साल 1964 में जब 'हक़ीक़त' प्रदर्शित हुई उससे कुछ दिन पहले ही पंडित नेहरू का निधन हो गया। 'अब तुम्हारे हवाले' गीत ने सभी को स्तब्ध कर दिया। रफ़ी के गाये इस गीत का संगीत मदन मोहन ने दिया था।
 
मेरा रंग दे बसंती चोला... ऑल टाइम हिट देशभक्ति गीत
मनोज कुमार अपने होम प्रॉडक्शन की फ़िल्म बनाने से पहले अपनी एक फ़िल्म 'शहीद' के कारण देशभक्ति के रंग में आ गए। साल 1965 की निर्माता केवल कश्यप और निर्देशक एस राम शर्मा की फ़िल्म 'शहीद' में मनोज कुमार ने शहीद भगत सिंह की भूमिका की थी।
 
इस फ़िल्म का गीत 'मेरा रंग दे बसंती चोला' ऑल टाइम हिट देशभक्ति गीत है। इसी गीत में एक और गीत भी समाहित है 'ऐ वतन, ऐ वतन हमको तेरी क़सम' भी अच्छा ख़ासा लोकप्रिय रहा।
 
प्रेम धवन के संगीतबद्ध इस गीत को तब मुकेश, महेंद्र कपूर और राजेन्द्र मेहता ने गाया था। गीत की लोकप्रियता का अंदाज़ इससे भी होता है कि आज भी 'रंग दे बसंती चोला' को कितने ही स्कूलों में भी गाया जाता है। बाद में कुछ और फ़िल्मों में भी इसे और भी गायक गा चुके हैं।
 
भारत का रहने वाला हूँ भारत की बात सुनाता हूँ और मेरे देश की धरती सोना उगले
1967 में मनोज कुमार की फ़िल्म 'उपकार' को प्रदर्शित हुए भी अब आधी सदी से ज़्यादा हो गया है। लेकिन जब देशभक्ति की फ़िल्मों की बात हो या गीतों की, तो 'उपकार' और इस फ़िल्म के गीत 'मेरे देश की धरती' की सहज ही याद आती है।
 
'मेरे देश की धरती' गीत को गुलशन बावरा ने लिखा था और इसे संगीत कल्याणजी-आनंदजी ने दिया था। 'उपकार' फ़िल्म का निर्माण मनोज कुमार ने तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के कहने पर उनके 'जय जवान, जय किसान' नारे पर किया था। यह विषय, यह फ़िल्म और यह गीत ज़बर्दस्त लोकप्रिय हुए।

 
'उपकार' के साथ मनोज कुमार की 1970 में आई फ़िल्म 'पूरब और पश्चिम' भी देश भक्ति के गीतों के मामले में शिखर पर आती है। इसका गीत - भारत का रहने वाला हूँ भारत की बात सुनाता हूँ, आज भी काफ़ी लोकप्रिय है। इंदीवर के लिखे और कल्याणजी आनंदजी के संगीत में बने इस गीत को महेंद्र कपूर ने गाकर अमर कर दिया।
 
अब के बरस तुझे धरती की रानी... क्रांति फ़िल्म का गीत
देशभक्ति के गीतों में एक गीत फ़िल्म 'क्रांति' का भी है। संतोष आनंद के लिखे इस गीत के बोल हैं - अब के बरस तुझे धरती की रानी कर देंगे।
 
मिट्टी की क़ीमत का जग में कोई रतन नहीं है, ज़िल्लत के जीवन से बदतर कोई कफ़न नहीं है, देश का हर दीवाना अपने प्राण चीर कर बोला, बलिदानों के ख़ून से अपना रंग लो बसंती चोला... महेंद्र कपूर ने इस गीत को प्रभावी तरीक़े से गाया था।
 
प्रदीप सरदाना संतोष आनंद के हवाले से बताते हैं कि यह गीत संतोष ने भारत-पाक युद्ध के दौरान लिखा था। साल 1965 से 1970 के दौरान उन्होंने इस गीत को पहले लाल किले के कवि सम्मेलन में गाया था। मनोज कुमार ने यह गीत सुना तो उन्हें यह गीत ख़ूब पसंद आया। तब उन्होंने इसे साल 1981 में 'क्रांति' में लिया। महेंद्र कपूर के गाये इस गीत का संगीत लक्ष्मीकान्त प्यारेलाल ने दिया था।
 
दिल दिया है जान भी देंगे... वह गीत जिसने अपना जादू चलाया
पिछले कई सालों से देशभक्ति के जिस गीत ने अपना जादू चलाया हुआ है, वह है सुभाष घई की साल 1986 में प्रदर्शित फ़िल्म 'कर्मा' से।
 
आनंद बख़्शी के लिखे इस गीत के बोल हैं - हर करम अपना करेंगे ऐ वतन तेरे लिए, दिल दिया है जान भी देंगे ऐ वतन तेरे लिए। लक्ष्मीकान्त प्यारेलाल ने इस गीत की धुनें इतनी कर्ण प्रिय बनायी कि कविता कृष्णमूर्ति, सुरेश वाडेकर, मोहम्मद अज़ीज़ और मनहर उधास के सुरों में सजे इस गीत को सुनते ही लोगों पर जादू चलाने लगा।
 
चुनाव प्रचार के दौरान विभिन्न दल भी इस गीत को चलाकर, देश के लिए मर मिटने के अपने अपने दावे प्रस्तुत करते दिख जाते हैं।
 
मेरी जान तिरंगा है मेरी शान तिरंगा है... वह गाना जो अब भी किसी के दिल से हटा नहीं
1993 में फ़िल्म आई तिरंगा। संतोष आनंद ने इस फ़िल्म के लिए शीर्षक गीत लिखा, जो आज भी किसी के दिल से हटा नहीं है। गीत था - ये आन तिरंगा है, ये शान तिरंगा है।
 
संतोष आनंद द्वारा लिखे इस गीत को मोहम्मद अज़ीज़ ने गाया था। संगीत दिया था लक्ष्मीकांत प्यारेलाल ने। इसके बोल शुरू होते हैं यह आन तिरंगा हैं, यह शान तिरंगा है। देशप्रेम से लबालब तिरंगा फ़िल्म का यह गीत आज नयी शताब्दी में भी लोगों के दिलों से निकला नहीं है।
 
देशभक्ति का नया रंग - चक दे इंडिया...
देशभक्ति और देशप्रेम सिर्फ़ देश के लिए ही नहीं, देश के लिए अच्छे से खेले गए खेलों और जीत के लिए भी होता है। इस बात का बड़ा एहसास कराया फ़िल्म 'चक दे इंडिया' के गीत 'चक दे इंडिया' ने।
 
साल 2007 में प्रदर्शित यशराज फ़िल्म्स की यह फ़िल्म भारत के कथित राष्ट्रीय खेल हॉकी पर थी, जो कॉमनवैल्थ गेम्स की एक महिला हॉकी टीम की प्रतियोगिता से प्रेरित थी। इसमें सलीम-सुलेमान के संगीत में जयदीप साहनी के लिखे गीत 'चक दे इंडिया' को सुखविंदर सिंह की आवाज़ में पेश कर देश के प्रति खेल भावना दिखाई गई। फिर तो यह गीत नारा बना और सभी खेलों में फैन चक दे इंडिया बोलकर झूमने लगे।
 
देशभक्ति के वे तराने जिन्होंने लोगों में देशप्रेम का रंग भरा
देशभक्ति के गीतों की पूरी यात्रा को हम किसी एक लेख में शामिल नहीं कर सकते। क्योंकि ऐसे अनेक लोकप्रिय गीत हैं, जिसका ज़िक्र किया जा सकता है। कुछ गीत अल्पकाल के लिए लोगों में देशप्रेम का रंग भरते रहे, कुछ का काल ज़्यादा लंबा रहा।
 
जैसे कि, फ़िल्म सन ऑफ़ इंडिया से 'नन्हा मुन्ना राही हूँ'... हम हिन्दुस्तानी से 'छोड़ो कल की बातें'... सिकंदर-ए-आज़म से 'जहाँ डाल-डाल पर सोने की चिड़िया करती है बसेरा, वो भारत देश है मेरा'... लीडर से 'अपनी आज़ादी को हम'... बॉर्डर से 'संदेशे आते हैं'... परदेश से 'आई लव माय इंडिया'... रोज़ा से 'भारत हमको जान से प्यारा है'... दिलजले से 'मेरा मुल्क मेरा देश'... दश से 'सुनो गौर से दुनिया वालों'... 'वीर ज़ारा से 'ऐसा देश है मेरा'... स्वदेश से 'ये जो देश है तेरा'... फिर भी दिल हे हिन्दुस्तानी से उसका 'टाइटल सॉन्ग'... लगान से 'चले चलो'... रहमान के संगीत के साथ लता की आवाज़ में 'वन्दे मातरम्'... रहमान के सुर और संगीत में ग़ैर फ़िल्मी गीत 'माँ तुझे सलाम'... लक्ष्य से 'कन्धों से कंधे मिलते है'... राज़ी का 'ऐ वतन'... मणिकर्णिका से 'मैं रहूँ या ना रहूँ, भारत यह रहना चाहिए'... केसरी से 'तेरी मिट्टी में मिल जावा'... 83 का 'लहरा दो'...
 
इसमें कोई संदेह नहीं कि ऐसे सभी गीत बरसों से लोगों के दिलों में देशभक्ति और देशप्रेम के प्रति उमंग और उत्साह बढ़ाने में अहम भूमिका निभाते आ रहे हैं। कुछ के साथ शुद्ध देशभक्ति का मक़सद रहा, कुछ के साथ कोई दूसरा उद्देश्य। किंतु ऐसे गीत बार-बार याद दिलाते हैं कि हम चाहे कितने ही आधुनिक रंगों में रंग जाएँ, लेकिन फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी।
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)