डॉ. होमी जहाँगीर भाभा, भारत के प्रमुख वैज्ञानिक
और एक महान स्वप्नदृष्टा। देश के परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम के शिल्पकार। वह शख़्सियत, जिनकी प्रेरणा और अगुवाई में स्वतंत्र भारत ने वैज्ञानिक चेतना की लौ जलाई। समय
से पहले ही परमाणु ऊर्जा की असीम क्षमता और संभावनाओं को परखने वाली शख़्सियत। विकास
करते समय पेड़ काटने वाली आज की आधुनिक पीढ़ी के लिए डॉ. भाभा एक सर्वश्रेष्ठ उदाहरण
हैं, जिन्होंने उस ज़माने में पेड़ ट्रांसप्लांट किए थे।
भारत के वैज्ञानिक सर सीवी रमन उन्हें भारत का लियोनार्डो डी विंची कहा करते थे।
बिना किसी शोर या नारे के आत्मऩिर्भरता का एक ऐसा सफल और ऐतिहासिक अभियान चलाया कि
विदेश में बसे भारतीय मूल के वैज्ञानिक स्वतंत्र भारत को फिर से खड़ा करने के लिए स्वदेश
लौट आए। ऐसी अनेक संस्थाओं की नींव रखी, ऐसी अनेक योजनाएँ-परियोजनाएँ
शुरू कीं, जिसके दम पर भारत आज हुँकार भर सकता है।
वे डॉ. भाभा ही थे, जिन्होंने देश के परमाणु कार्यक्रम के स्वरूप की ऐसी मजबूत नींव रखी, जिसके चलते भारत आज विश्व के प्रमुख परमाणु संपन्न देशों की कतार में पूरी शान
से खड़ा है। इन्होंने समय से पहले ही परमाणु ऊर्जा की असीम क्षमता और विभिन्न क्षेत्रों
में उसके उपयोग की संभावनाओं को परख लिया था। डॉ. भाभा को पाँच बार भौतिकी के नोबेल
पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया था।
वे एक कुशल वैज्ञानिक
व प्रतिबद्ध इंजीनियर होने के साथ-साथ एक समर्पित वास्तुशिल्पी, सतर्क नियोजक एवं निपुण प्रबंधक थे। वे ललित कला और संगीत के प्रेमी थे।
जन्म तथा परिवार
होमी जहाँगीर भाभा
का जन्म 30 अक्टूबर 1909 को मुंबई के एक संपन्न पारसी परिवार में हुआ था। भाभा परिवार लंबे समय से शिक्षा
क्षेत्र से जुड़ा था। इनके दादा का नाम भी होमी जहाँगीर भाभा था, जो मैसूर राज्य में शिक्षा विभाग के महानिरीक्षक थे। इनके पिता जहाँगीर होर्मूसजी
भाभा ने ऑक्सफ़र्ड में पढ़ाई की थी। बाद में वे वकील बने। इनकी माता मेहरान, सर दिनशॉ मानेकजी पेटिट की पोती थीं। सर दिनशॉ मुंबई में अपने लोकोपकारी कार्यों
के लिए जाने जाते थे। होमी की बुआ मेहरबाई की शादी जमशेदजी नसेरवानजी टाटा के बड़े
बेटे सर दोराब जमशेदजी टाटा से हुई थी।
होमी को बचपन में बहुत
कम नींद आती थी। इसलिए इनका रूझान पुस्तकों की ओर हो गया। इनकी इस रूचि को देखते हुए
इनके पिता ने घर पर ही पुस्तकालय बनवा दिया, जिसमें वे ज्ञानवर्धक पुस्तकों का अध्ययन
किया करते थे। इनकी भौतिक शास्त्र और गणित में विशेष रूचि थी। इन्होंने 15 वर्ष की उम्र में आइंस्टीन का सापेक्षता का सिद्धांत पढ़ लिया था।
वे शैक्षिक और वैज्ञानिक
चेतना के वातावरण में पले-बढ़े और इनके भीतर 'यथार्थवाद' और 'कर्मवाद' का सिद्धांत घर कर गया। "कर्म ही जीवन है और जीवन यथार्थ द्दष्टिकोण से
जीना चाहिए" - यही इनका जीवनसूत्र बना। कर्मवाद और यथार्थवाद ने ही इन्हें
यह समझाने के लिए प्रेरित किया कि - अग्नि की उपासना करके बैठे रहना नहीं चाहिए, साथ ही साथ अग्नि से सिद्धियाँ प्राप्त करना भी उतना ही ज़रूरी है।
प्रारंभिक शिक्षा
होमी भाभा ने मुंबई
के कैथेड्रल और जॉन कैनन स्कूल से पढ़ाई की। पंद्रह वर्ष की उम्र में सीनियर कैम्ब्रिज
परीक्षा पास करने के बाद इन्होंने एलफिंस्टन कॉलेज मुंबई और रॉयल इंस्टीट्यूट ऑफ़ साइंस
से बी.एससी. पास किया। भौतिक शास्त्र में इनकी अत्यधिक रुचि थी। गणित भी इनका प्रिय
विषय था। मुंबई से पढ़ाई पूरी करने के बाद भाभा सन् 1927 में इंग्लैंड के गॉनविल और केयस कॉलेज, कैम्ब्रिज में इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने
गए। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में रहकर सन् 1930 में इन्होंने यंत्र
विज्ञान में ट्राइपॉस प्राप्त किया। दो साल बाद इन्होंने गणित का ट्राइपॉस भी प्रथम
श्रेणी से पास कर लिया। सन् 1932-1934 के दौरान इन्हें गणित में राउज़ बॉल ट्रैवलिंग छात्रवृत्ति
भी मिली। इससे पहले सन् 1931-32 के दौरान इन्हें इंजीनियरींग में सैलोमंस छात्रवृत्ति मिली
थी। हालाँकि इंजीनियरिंग पढ़ने का निर्णय इनका नहीं था। यह परिवार की ख़्वाहिश थी कि
वे एक होनहार इंजीनियर बनें। होमी ने सबकी बातों का ध्यान रखते हुए इंजीनियरिंग की
पढ़ाई ज़रूर की, लेकिन अपने प्रिय विषय फिजिक्स से भी ख़ुद को जोड़े रखा। न्यूक्लियर फिजिक्स के
प्रति इनका लगाव जुनूनी स्तर तक था। इन्होंने कैम्ब्रिज से ही पिता को पत्र लिख कर
अपने इरादे बता दिए थे कि फिजिक्स ही इनका अंतिम लक्ष्य है।
शोधपत्रों का प्रकाशन
कैम्ब्रिज में पॉल
एड्रियन मॉरिस डिराक ने भाभा को पढ़ाया था। डिराक कैम्ब्रिज में गणित के लुकासियन प्रोफ़ेसर
थे। इरविन श्रोडिंगर के साथ 1933 में इन्हें क्वांटम सिद्धांत पर इनके कार्यों के लिए संयुक्त
रूप से भौतिकी का नोबेल पुरस्कार मिला। जब भाभा कैवेंडिश प्रयोगशाला में थे, तब वहाँ कई उत्कृष्ट आविष्कार हुए। वहाँ से इन्हें सन् 1934 में सैद्धांतिक भौतिकी में पीएच.डी. की उपाधि मिली। भाभा ने यूरोप का दौरा किया
और ज़्यूरिख़ में वोल्फगैंग पाउली तथा रोम में एनरिको फर्मी के साथ काम किया। इनका
पहला शोधपत्र 1933 में प्रकाशित हुआ। इस शोधपत्र के कारण इन्हें 1934 में आइज़क न्यूटन
छात्रवृत्ति मिली। इन्हें यह छात्रवृत्ति तीन साल तक मिली। जर्मनी में इन्होंने कॉस्मिक
किरणों पर अध्ययन और प्रयोग किए। होमी भाभा को प्रसिद्ध वैज्ञानिक रदरफोर्ड और नील्स
बोर के साथ काम करने का अवसर मिला था।
भाभा ने ज़्यादातर काम
कैम्ब्रिज में ही किया और केवल कुछ समय तक कोपेनहेगन में नील्स बोर के साथ काम किया।
कैम्ब्रिज में भाभा का कार्य मुख्य रूप से ब्रह्माण्ड किरणों पर केंद्रित था। भाभा
और हाइटलर ने सन् 1937 में कॉस्मिक किरणों की बौछार की व्याख्या की थी। होमी भाभा ने Cascade
Theory of Electron का प्रतिपादन करने के साथ ही कॉस्मिक किरणों
पर भी काम किया, जो किरणें पृथ्वी की ओर आते हुए वायुमंडल में प्रवेश करती हैं। इन्होंने Cosmic
Rays की सरल व्याख्या की। एक ख़ास वर्ग के प्राथमिक कणों के लिए Meson नाम का सुझाव भाभा ने फ़रवरी 1939 में 'नेचर' पत्रिका में दिया था।
भाभा के अनुसंधान कार्यों
के महत्व पर 1950 में नोबेल पुरस्कार प्राप्त सेसिल फ्रैंक पॉवेल ने लिखा है: "विद्युतचुम्बकीय
प्रक्रिया के रूप में अंतरिक्ष किरण वर्षण को समझने में होमी भाभा का योगदान निर्णयात्मक
था, तब तक इन प्रारम्भिक कणों के अस्तित्व का पता लग गया था। होमी भाभा इन कणों के
लिए समूह-सिद्धांत का प्रयोग करने वाले प्रथम व्यक्ति के रूप में जाने जाते थे। होमी
एक उत्कृष्ट सिद्धांतकार हैं और इनके शोधपत्र हमेशा उत्तम तरीक़े से लिखे होते हैं।"
सन् 1939 में भाभा कैम्ब्रिज से कुछ दिनों की छुट्टी पर भारत आए थे। उसी दौरान दूसरा विश्वयुद्ध
शुरू हो गया और इनका लौटना टल गया। भाभा सन् 1940 में बैंगलोर (बेंगलुरु)
स्थित Indian Institute of Science से जुड़े। वहाँ सैद्धांतिक भौतिकी में इनके लिए सैद्धांतिक रीडर का अलग पद सृजित
किया गया। उन दिनों सी. वी. रमन संस्थान के निदेशक थे। प्रो. सी. वी. रमन होमी भाभा
से काफ़ी प्रभावित हुए। सन् 1944 में भाभा को प्रोफ़ेसर बना दिया गया। उस दौरान विक्रम साराभाई
भी कुछ समय के लिए वहाँ थे। वहाँ भाभा ने मुख्य रूप से कॉस्मिक किरणों पर होने वाले
अनुसंधान को दिशानिर्देश दिया। इन्होंने कॉस्मिक किरणों की खोज के लिए एक अलग विभाग
की स्थापना की। कॉस्मिक किरणों के अनुसंधान से जुड़े सैद्धांतिक और प्रायोगिक पहलुओं
पर काम करने के लिये इन्होंने युवा अनुसंधानकर्ताओं का एक समूह तैयार किया था।
टाटा आधारभूत अनुसंधान
संस्थान की शुरुआत
इन्होंने नाभिकीय विज्ञान
(Nuclear Physics) में तब कार्य आरम्भ किया, जब श्रृंखला अभिक्रिया का ज्ञान नहीं के बराबर था और नाभिकीय ऊर्जा से विद्युत
उत्पादन की कल्पना को कोई मानने को तैयार नहीं था। 1940 के दशक में जब भाभा
भारतीय विज्ञान संस्थान में काम कर रहे थे, तब देश में ऐसा कोई संस्थान नहीं था, जहाँ नाभिकीय भौतिकी, कॉस्मिक किरणें, उच्च ऊर्जा भौतिकी जैसे भौतिकी के प्रमुख
क्षेत्रों में अनुसंधान कार्य करने की सुविधाएँ हो।
अतः भाभा ने मार्च
1944 में सर दोराबजी जमशेदजी टाटा ट्रस्ट को पत्र लिखकर आधुनिक सुविधाओं से युक्त अनुसंधानशाला
खोलने का प्रस्ताव भेजा। अप्रैल 1944 में सर दोराबजी जमशेदजी टाटा ट्रस्ट के न्यासियों ने भाभा का
प्रस्ताव मान लिया। इन्होंने संस्थान की वित्तीय ज़िम्मेदारी भी अपने ऊपर ले ली। मुंबई
को संस्थान के लिए सबसे उपयुक्त जगह माना गया। अंततः सन् 1945 में Tata
Institute of Fundamental Research (TIFR) की शुरूआत हुई। एक
भवन में किराए पर 540 वर्ग मीटर जगह लेकर संस्थान खोला गया। इसके बाद सन् 1948 में रॉयल यॉट क्लब के पुराने भवन में यह संस्थान आ गया। संस्थान के वर्तमान भवन
का उद्धाटन पंडित जवाहरलाल नेहरू ने जनवरी 1962 में किया था। नेहरू
ने ही सन् 1954 में इस भवन की आधारशिला रखी थी। दूसरे साल से संस्थान को भारत सरकार से वित्तीय
सहायता मिलने लगी। भाभा ने पहले उचित लोगों का चयन किया और फिर इन्हें आगे बढ़ने का
अवसर प्रदान किया।
परमाणु ऊर्जा आयोग
का गठन
परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र
में अनुसंधान को संगठित करने के लिए जो पहला कदम उठाया गया, वह था Atomic Energy Research Council का गठन। यह परिषद् Council of Scientific & Industrial Research का ही अंग था। भाभा को इस नई परिषद् का अध्यक्ष बनाया गया। सरकार के एक अंग के
रूप में Department of Scientific and Industrial Research (DSIR) का गठन करने के लिए एस. एस. भटनागर ने Atomic Energy Research
Council को प्रस्तावित विभाग के अधीन करने का सुझाव दिया। लेकिन भाभा
ने 26 अप्रैल 1948 को तत्कालीन प्रधानमंत्री को 'भारत में परमाणु अनुसंधान का संगठन' शीर्षकयुक्त एक टिप्पणी में लिखा कि, "परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम
को नए विभाग से अलग रखा जाना चाहिए तथा प्रस्तावित परमाणु ऊर्जा आयोग का अपना सचिवालय
हो और किसी अन्य सरकारी विभाग या मंत्रालय के सचिवालय का इस पर नियंत्रण न हो, प्रस्तावित वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान विभाग का भी नहीं।" कुछ महीने
में सरकार ने इनका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। इसके तत्काल बाद Atomic
Energy Act लाया गया और अगस्त 1948 में Atomic
Energy Commission of India (परमाणु ऊर्जा
आयोग) का गठन कर दिया गया।
पहले परमाणु ऊर्जा
आयोग में तीन सदस्य थे। भाभा को इसका अध्यक्ष बनाया गया। Indian
Nuclear Programme को सही राह पर लाने के लिए भाभा ने तीन ज़रूरी कदम उठाए थे:
(1) प्राकृतिक संसाधनों का सर्वेक्षण करना। परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम में लगने वाले
यूरेनियम, थोरियम, बेरिलियम, ग्रेफाइट जैसे पदार्थों के सर्वेक्षण पर विशेष ज़ोर दिया गया। इस लक्ष्य को प्राप्त
करने के लिए दाराशॉ नोशेरवान वाडिया की मदद से दिल्ली में दुर्लभ खनिज विभाग नाम से
एक नई इकाई खोली गई। (2) भौतिकी, रसायन और जीवविज्ञान जैसे बुनियादी क्षेत्रों में अनुसंधानशालाएँ
खोली जाएँ, इन अनुसंधानशालाओं में उच्चस्तरीय वैज्ञानिक अनुसंधान सुविधाएँ हों तथा प्रशिक्षण
की व्यवस्था हो। और (3) ख़ासकर इलेक्ट्रॉनिक्स के लिए एक कार्यक्रम तैयार हुआ। टाटा
इंस्टीट्यूट ऑफ़ फंडामेंटल रिसर्च में इलेक्ट्रॉनिक्स उत्पादन इकाई की स्थापना की गई।
भारत को परमाणु ऊर्जा
संपन्न राष्ट्र बनाने की महत्वाकांक्षा, मंत्री पद से ज़्यादा महत्व विज्ञान को दिया और अनेक संस्थाओं
की नींव रखी
टाटा के सहयोग से होमी
भाभा का परमाणु शक्ति से बिजली बनाने का सपना साकार हुआ। भारत को परमाणु शक्ति संपन्न
बनाने की महत्वाकांक्षा मूर्तरूप लेने लगी। वे नव गठित Tata Institute of Fundamental Research के महानिदेशक बने। उस समय विश्व में परमाणु शक्ति से बिजली बनाने वाले कम ही देश
थे।
जब हिरोशिमा और नागासाकी
पर परमाणु बम गिरा तब सारी दुनिया को परमाणु शक्ति का पता चला था। होमी भाभा और जे.
आर. डी. टाटा दोनो ही दूरदर्शी थें, इन्होंने केंद्र को आगे बढ़ाया। इस केंद्र
में पाँच विभाग शुरू किए गए - Physics, Engineering, Metallic, Electronic और Biology। भाभा परमाणु शक्ति
के ख़तरे से भी वाक़िफ़ थे, अतः उन्होने वहाँ एक चिकित्सा विभाग तथा विकिरण सुरक्षा विभाग
भी खोला। प्रकृति प्रेमी होमी भाभा के प्रयासों से ट्रॉम्बे संस्थान नीरस वैज्ञानिक
संस्थान नहीं था, वहाँ चारो ओर हरे भरे पेड़-पौधे तथा फलदार वृक्ष संस्था को मनोरमता प्रदान करते
हैं।
बाद में भाभा ने महसूस
किया कि टाटा आधारभूत अनुसंधान संस्थान में परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम से जुड़े पर्याप्त
प्रौद्योगिकीय विकास कार्य नहीं हो सकते, तब इन्होंने सिर्फ़ इसी कार्य के लिए एक नई
प्रयोगशाला स्थापित करने का निर्णय लिया। सन् 1954 में Atomic
Energy Institute की शुरूआत हुई। उसी साल Department of Atomic
Energy की भी स्थापना की गई।
भारत को बिना बाहरी
सहायता से परमाणु शक्ति संपन्न बनाना होमी भाभा का उद्देश्य था। मेहनती और सक्रिय लोगों
को पसंद करने वाले होमी भाभा अंतर्राष्ट्रीय मंचो पर अणुशक्ति की शांति पर बल देते
थे। वे मित्र बनाने में भी उदार थे। निजी प्रतिष्ठा की लालसा इनके मन में बिलकुल न
थी। एक बार केन्द्रीय मंत्रिमंडल में शामिल होने का प्रस्ताव मिला, किंतु इन्होंने नम्रतापूर्ण प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। मंत्री पद के वैभव
से ज़्यादा प्यार इन्हें विज्ञान से था।
कनाडा-भारत रिएक्टर
(साइरस) परियोजना
अगस्त 1955 में संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में परमाणु ऊर्जा के शांतिपूर्ण इस्तेमाल पर
एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ। जेनेवा में आयोजित इस ऐतिहासिक सम्मेलन का अध्यक्ष
होमी भाभा को चुना गया था। वहाँ कनाडा ने भारत को परमाणु रिएक्टर बनाने में सहयोग देने
का प्रस्ताव दिया, जिसको उचित समझते हुए भाभा ने वहीं से तार भेजकर पं. जवाहरलाल नेहरू से अनुमति
माँगी। नेहरु ने समझौते की अनुमति दे दी, तब कनाडा के सहयोग
से Canada India Reactor Utility Services (CIRUS) प्रारंभ हुई। भाभा ने डॉ. सेठना को इस परियोजना का प्रमुख बनाया। साइरस परियोजना
10 जुलाई 1960 में तथा जरलीना परियोजना 14 जनवरी 1961 में प्रारंभ हुई।
भारत का पहला रिएक्टर
अप्सरा
6 अगस्त 1956 को भारत के पहले रिएक्टर
अप्सरा ने कार्य करना प्रारंभ कर दिया था, जिसके लिए ईंधन ब्रिटेन ने दिया था। इस रिएक्टर
का उपयोग न्यूट्रॉन भौतिकी, विकिरण, प्राणिशास्त्र, रसायन शास्त्र और रेडियोआइसोटोप के निर्माण
में किया जाने लगा। 1,200 इंजीनियरों और कुशल कारीगरों ने दिन-रात इसमें काम किया। कार्य पूरा होने पर भारत
का इस क्षेत्र में आत्मविश्वास बढ़ा। रिएक्टरों के निर्माण से देश में परमाणु शक्ति
से चलने वाले विद्युत संयत्रों की परियोजना का मार्ग प्रशस्त हुआ। तारापुर अणुशक्ति
केंद्र से बिजली का उत्पादन होने लगा। इन्होंने तारापुर के लिए पहला लाइट वॉटर रिएक्टर
उस समय चालू किया जबकि प्रौद्योगिकी काफ़ी नई थी। बाद में राजस्थान में राणाप्रताप सागर
तथा तमिलनाडु में कलपक्कम में दो केंद्र स्थापित किए गए। डॉ. भाभा विदेशी यूरेनियम
पर निर्भर नहीं रहना चाहते थे। वे स्वदेशी थोरियम, स्वदेशी प्लूटोनियम
आदि का उपयोग करना चाहते थे। विश्व में थोरियम का सबसे बङ़ा भंडार भारत में है। केरल
के तट पर स्थित मोनाज़ाइट रेत को संशोधित करके थोरियम और फॉस्फेट को अलग-अलग करना प्रारंभ
कर दिया। ट्रांबे में अपरिष्कृत थोरियम को हाइड्रॉक्साइड तथा यूरेनियम के संसाधन के
लिए संयत्र लगाया गया।
205 रेडियो आइसोटोप की सुविधाओं के दाता
डॉ. होमी जहाँगीर भाभा
के प्रयासों का ही परिणाम है कि कृषि, उद्योग और औषधि उद्योग तथा प्राणिशास्त्र
के लिए आवश्यक लगभग 205 रेडियो आइसोटोप आज देश में उपलब्ध हैं। भाभा ने जल्दी नष्ट होने वाले खाद्य पदार्थों
जैसे- मछली, फल, वनस्पति आदि को जीवाणुओं से बचाने के लिए विकिरण के प्रभाव को इस्तेमाल करने की
उच्च प्राथमिकता दी और इस दिशा में शोध किया। बीजों के शुद्धीकरण पर भी ज़ोर दिया, ताकि अधिक से अधिक अनाज का उत्पादन किया जा सके। भूगर्भीय विस्फोटों तथा भूकंपों
के प्रभावों का अध्ययन करने के लिए एक केंद्र बैंगलोर (बेंगलुरु) के पास खोला गया।
पेड़ों को ट्रांसप्लांट
करने की थी पहली सोच
आज का आधुनिक भारत
विकास के लिए पेड़ काटता है। पहले हज़ारों पेड़ लगाता है, फिर विकास, चौड़ीकरण, वगैरह के नाम पर हज़ारों-लाखों पेड़ काट दिए जाते हैं। ऐसे लोगों और ऐसी प्रवृत्ति
के सामने भाभा स्वयं एक सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हैं।
Tata Institute of Fundamental Research में एक गार्डेन है, जिसका नाम है अमीबा गार्डेन। वो अमीबा की शक्ल में है। उस पूरे
गार्डेन को भाभा ने अपने ऑफ़िस में देख कर तीन फ़ीट शिफ़्ट किया था, क्योंकि इन्हें वह अच्छा नहीं लग रहा था। इन्हें परफ़ेक्शन चाहिए था। भाभा ने
सभी बड़े बड़े पेड़ों को ट्रांसप्लांट किया। एक भी पेड़ को काटा नहीं। पहले पेड़ लगाए
गए और फिर बिल्डिंग बनाई गई। आज भारत के तमाम गाँवों, नगरों, महानगरों में विकास करने के लिए पेड़ काटे जा रहे हैं। उस ज़माने में भाभा ने
उदाहरण पेश कर दिया था कि पेड़ों को काटने के बजाए ट्रांसप्लांट किया जा सकता है। पेडो
को ट्रांसप्लांट करने की इनकी ये सोच विज्ञान तथा प्रकृति का अनूठा संगम थी।
देहरादून का एक
क़िस्सा है। वहाँ सर्किट हाउस में लगे स्टरफ़ूलिया अमाटा नामक पेड़ भाभा ट्रॉम्बे में
लगाना चाहते थे। प्रोफ़ेसर मेनन ने भाभा को बताया कि यह पेड़ बड़ा होने में सौ साल
लेते हैं। भाभा ने कहा, "इससे क्या मतलब। हम
नहीं रहेंगे, तुम नहीं रहोगे, लेकिन वृक्ष तो रहेंगे और आने वाले लोग इन्हें देखेंगे,
जैसे हम इस सर्किट हाउस में इन पेड़ों को देख रहे हैं।"
भारत को स्वनिर्भर
बनाने के लिए वैज्ञानिकों को स्वदेश लौटने का आह्वान किया, किसी के निधन पर छुट्टी
रखने के ख़िलाफ़ थे भाभा
विज्ञान के क्षेत्र
में कार्य करने के लिए इन्होंने भारतीय वैज्ञानिकों से स्वदेश लौटने का आह्वान किया।
इनके बुलाने पर कई वैज्ञानिक भारत आए। डॉ. भाभा को वैज्ञानिकों की परख थी। इन्होंने
चुन-चुन कर कुशल वैज्ञानिकों को ट्रॉम्बे तथा अन्य संस्थानों में योग्यतानुसार पद तथा
शोध की सुविधाएँ दिलवायीं। इन्होंने योग्य और कुशल वैज्ञानिकों का एक समूह बना लिया
था।
लालफीताशाही से इन्हें
सख़्त चिढ़ थी तथा किसी के निधन पर काम बंद करने या छुट्टी घोषित करने की प्रवृत्ति
के वे सख़्त ख़िलाफ़ थे। इनके अनुसार कड़ी मेहनत ही किसी व्यक्ति या संस्था के प्रति
सच्ची श्रद्धांजलि है। भाभा ने अपने जीवित रहते ही किसी बड़े शख़्स की मौत पर छुट्टी
देने की प्रथा पर रोक लगा दी थी। वे कहते थे कि किसी व्यक्ति की मौत पर उसको सबसे बड़ी
श्रद्धांजलि काम रोक कर नहीं बल्कि अधिक काम कर दी जाती है।
चित्र और संगीत में
थी रुचि
संगीत में इनकी बहुत
रुचि थी। चाहे वो भारतीय संगीत हो या पश्चिमी शास्त्रीय संगीत। किस पेंटिंग को कहाँ
टांगा जाए और कैसे टांगा जाए, फ़र्नीचर कैसा बनना है, हर चीज़ के बारे में बहुत गहराई से सोचते
थे वह। टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ फ़ंडामेंटल रिसर्च में हर बुधवार को कोलोकियम हुआ करता
था और भाभा ने शायद ही कोई कोलोकियम मिस किया हो। इस दौरान वह सबसे मिलते थे और जानने
की कोशिश करते थे कि क्या हो रहा है और क्या नहीं हो रहा है।
भाभा की वैज्ञानिक
विषयों के साथ-साथ संगीत, नृत्य, पुस्तकों और चित्रकला में बराबर की रुचि थी। भाभा ऐसे वैज्ञानिक थे, जो अपने
साथियों का पोर्ट्रेट या स्केच भी बनाते थे। मृणालिनी साराभाई और यहाँ तक कि मशहूर
पेंटर हुसैन का भी स्केच भाभा ने बनाया था। वे प्रदशर्नी में जाते और अपनी संस्था
के लिए पेंटिग्स ख़रीदते।
परफ़ेक्शन के हिमायती, भारत को वैज्ञानिक चेतना देने के लिए कटिबद्ध शख़्सियत
रचनाधर्मिता को जीवनसाथी
मानने वाले भाभा आजीवन अविवाहित रहे। इन्होंने नाभिकीय भौतिकी में महत्वपूर्ण काम किए
तथा मेसॉन नामक प्राथमिक तत्व की खोज करने वाले डॉ. भाभा संयुक्त राष्ट्रसंघ और अंतरराष्ट्रीय
अणु शक्ति के कई वैज्ञानिक सलाहाकर मंडलों के सदस्य भी थे। देशभक्त होमी भाभा केवल
अपने केंद्र तक ही सीमित नहीं थे, इन्होंने अन्य विज्ञान संस्थानो की भी हर तरह से सहायता की।
विज्ञान के अलावा इनका ख़ास लगाव प्रकृति की तरफ़ थी, जिसका ज़िक्र हम ऊपर
कर चुके हैं।
शास्त्रीय संगीत, मूर्तिकला तथा नृत्य आदि क्षेत्रों के विषयों पर भी इनकी अच्छी पकङ़ थी। वे आधुनिक
चित्रकारों को प्रोत्साहित करने के लिए इनके चित्रों को ख़रीदकर ट्रॉम्बे स्थित संस्थान
में सजाते थे। संगीत कार्यक्रमों में सदैव हिस्सा लेते थे और कला के दूसरे पक्ष पर
भी पूरे अधिकार से बोलते थे, जितना कि विज्ञान पर। इनका मानना था कि सिर्फ़ विज्ञान ही देश
को उन्नती के पथ पर ले जा सकता है।
सम्मान एवं पुरस्कार
भाभा को पाँच बार भौतिकी
के नोबेल पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया था। नाभिकीय ऊर्जा के क्षेत्र में इनके
द्वारा किए गए अप्रतिम योगदानों के लिए इन्हें 1941 में रॉयल सोसाइटी
ने फैलो चुना। सन् 1943 में एडम्स पुरस्कार तथा कॉस्मिक किरणों पर इनके कार्यों के लिए कैम्ब्रिज फिलॉसॉफिकल
सोसाइटी ने 1948 में इन्हें हॉपकिन्स पुरस्कार से सम्मानित किया। भाभा सन् 1951 में भारतीय विज्ञान कांग्रेस एसोसिएशन के संस्थान अध्यक्ष रहे। सन् 1963 में भाभा अमेरिका के नेशनल अकादमी ऑफ़ साइंसेज के विदेशी सदस्य और न्यूयॉर्क अकादमी ऑफ़ साइंसेज़ के आजीवन मानद सदस्य चुने गए। इसके बाद 1964 में मैड्रिड की रॉयल
अकादमी ऑफ़ साइंसेज़ का इन्हें विदेशी-पत्र-व्यवहारी-परिषद् सदस्य बनाया गया। वर्ष 1960 से 1963 तक वे इंटरनेशनल यूनियन ऑफ़ प्योर एंड अप्लायड फिजिक्स के अध्यक्ष बने रहे।
अनेक विश्व विद्यालयों
ने भाभा को डॉक्टर ऑफ़ सांइस जैसी उपाधियों से विभूषित किया। भारत सरकार ने सन् 1954 में इन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया था। होमी भाभा की तीन पुस्तकें क्वांटम
थ्योरी, एलिमेंट्री फिज़िकल पार्टिकल्स एवं कॉस्मिक रेडिएशन बहुत चर्चित हैं। डॉ. रमन
ने होमी भाभा को भारत का लियोनार्डो दा विंची नाम दिया था।
निधन और निधन के साथ
जुड़ी कहानी, महज़ तेरह दिनों के
भीतर भारत ने गँवा दिए थे अपने दो अनमोल रत्न
24 जनवरी 1966 को अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी की वैज्ञानिक सलाहकार समिति बैठक में भाग
लेने वियना जाते समय आल्प्स पर्वत की मोंट ब्लांक चोटी पर हुई विमान दुर्घटना में भाभा
की मृत्यु हो गई। इन्हें ले जाने वाला बोइंग विमान-707 कंचनजंगा में बर्फ़ीले तूफ़ान में फँसकर दुर्घटनाग्रस्त हो गया। उस समय वे टाटा मूलभूत अनुसंधान संस्थान के
निदेशक, परमाणु ऊर्जा विभाग में भारत सरकार के सचिव, परमाणु ऊर्जा आयोग
के अध्यक्ष, और ट्राम्बे स्थित परमाणु ऊर्जा प्रतिष्ठान के निदेशक थे। भारत सरकार ने
12 जनवरी 1967 को ट्रॉम्बे संस्थान का नामकरण इनके नाम पर Bhabha Atomic Research Centre (BARC) कर दिया। डॉ. होमी
भाभा का असामयिक निधन हो गया, किंतु इनका सपना साकार हो गया जब सन् 1974 में भारत ने पोखरण में परमाणु युक्ति का सफल परीक्षण करके परमाणु तकनीक की क़ाबिलियत साबित कर दी।
देश के परमाणु कार्यक्रम
के जनक होमी जहाँगीर भाभा की उस प्लेन हादसे में हुई मौत को आज भी अनेक लोग संदिग्ध
मानते हैं। विमान हादसे के बाद इनका मृत शरीर कभी मिल नहीं पाया और नहीं विमान का मलबा
मिला। दुर्घटना के वक्त इसमें भाभा समेत 106 यात्री और 11 कर्मी दल के सदस्य सवार थे। दुर्घटना में कुल मिलाकर 117 लोगों की मौत हुई थी।
दरअसल, डॉ. होमी भाभा की असमय मृत्यु से महज़ कुछ ही दिन पहले, 11 जनवरी को, भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की भी ताशकंद में असमय मृत्यु
हुई थी। उसके महज़ 13 दिन बाद, 24 जनवरी को परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम के जनक डॉ. भाभा की मृत्यु हो गई। और फिर कभी
लंबे समय तक कहा गया कि डॉ. भाभा को लेकर जा रहे विमान के क्रैश होने के पीछे अमेरिका
की ख़ुफ़िया एजेंसी सीआईए का हाथ था। हालाँकि इस मामले की जाँच से यह बात कभी साबित
नहीं हो पाई। 2009 में फ्राँसीसी पर्वतारोही डेनियल रोच ने प्लेन क्रैश को लेकर सनसनीखेज़ दावा किया
और एक रिसर्च डॉक्यूमेंट सामने रखा। किंतु आज तक इन सभी दावों और कहानियों को महज़ एक
अफ़वाह माना जाता है।
महज़ तेरह दिनों के भीतर भारत ने अपने दो अनमोल रत्नों को सदा के लिए गँवा दिया।
असाधारण प्रतिभा के धनी होमी भाभा ने भारत को वो रास्ता तैयार कर दिया, जिसके दम पर आज अनेक सफलताओं का देश जश्न मनाता रहता है। इनके अथाक प्रयासों का
ही परिणाम है कि आज भारत परमाणु तकनीक से सुसंपन्न राष्ट्रों की श्रेणी में गिना जाता
है। उदार विचारधारा के धनी डॉ. भाभा ने बिना किसी शोर या नारे के आत्मऩिर्भरता का सफल
और ऐतिहासिक अभियान चलाया, अनेक संस्थाओं की नींव रखी, अनेक योजनाएँ-परियोजनाएँ शुरू कीं, जिसके दम पर भारत
आज हुँकार भर सकता है।
(इनक्रेडिबल इंडिया, एम वाला)
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