भगत सिंह की बातें हर कोई करता है। लेकिन कोई भगत सिंह को पढ़ता भी है क्या? भगत सिंह ने जो समझाना चाहा उसे कोई समझना चाहता भी है क्या? हम भगत सिंह को एक क्रांतिकारी के चश्मे से ही देखा करते हैं। लेकिन उनकी लेखनी, उनके विचार को पढ़कर दुनिया के कई बुद्धिजीवियों ने माना है कि 20-22 साल की उम्र में भगत सिंह के पास जो वैचारिक शक्ति थी वो किसी चमत्कार से कम नहीं
थी।
हमें भगत सिंह को याद रखना है तो उनके विचारों को भी तो याद रखना चाहिए। भगत सिंह
ने अपने लेखों से, अपने विचारों से यह समझाने के प्रयत्न किए कि देश और समाज को
आगे बढ़ाने के लिए धर्म का रास्ता त्याग, विज्ञान का रास्ता
अपनाना पड़ेगा। उन्होंने क्रांति के ऊपर लेख लिख देश को बताया कि क्रांति का संबंध
केवल हिंसा से नहीं है। उनके लेख, उनकी किताबें तथा
उनके विचार उन्हें एक परिपक्व क्रांतिकारी के रूप में रेखांकित करते हैं। 'मैं नास्तिक क्यों हूँ' लेख लिखने वाले भगत
सिंह अपनी वैचारिक प्रतिभा के बल पर आस्था और धर्म से भी परे चले जाते हैं।
भगत सिंह एक परिपक्व
लेखक थे और वे अपने लेखों में ख़ुद स्वीकार करते थे कि क्रांति का मतलब बम और पिस्तौल
नहीं है और इस तरह की पटाखेबाज़ी से क्रांति या बदलाव नहीं आ सकता। वह एक गम्भीर व्यक्तित्व
वाले नौजवान थे, जो चिंतन और विचार-विमर्श को अधिक महत्व देते थे।
भगत सिंह की क्रांति
की परिभाषा हिंसक नहीं बल्कि वैचारिक थी। अगर भगत सिंह की क्रांति केवल हिंसा ही होती
तो वे उस जगह बम नहीं फेंकते, जहाँ किसी को नुक़सान न हो। अगर वह हिंसा के समर्थक होते तो
वे जेल में अहिंसक तरीक़े से भूख हड़ताल नहीं करते। उनका संघर्ष हिंसक नहीं, बल्कि वैचारिक था।
भगत सिंह के मित्रों
में से एक, शिव वर्मा के लेख के मुताबिक़ भगत सिंह हमेशा एक छोटा पुस्तकालय लिए चलते थे।
भगत सिंह की माताजी, उनके कॉलेज के प्रिंसिपल छबीलदास दीवान समेत उनके अनेक साथी पुस्तकों के प्रति
भगत सिंह की दीवानगी को बताते हैं।
भगत सिंह लाला लाजपत
राय द्वारा स्थापित पुस्तकालय से तर्क हासिल करते रहे और उन्हीं तर्कों के सहारे भगत
सिंह ने लाला लाजपत राय की आलोचना की थी। लालाजी के जीवन के अंतिम सालों की राजनीति
से भगत सिंह सहमत नहीं थे और उन्होंने उनका खुलकर विरोध किया था। दोनों के बीच तीखे
मतभेद थे, बावजूद इसके जब लालाजी की अंग्रेज़ी अत्याचार के चलते मृत्यु हुई तो भगत सिंह ने
इसे गंभीरता से लिया और इसका प्रतिशोध लेने के कारण ही भगत सिंह को मौत की सज़ा मिली।
उनकी इस वैचारिक स्पष्टता का कारण उनका अध्ययन ही तो था।
21 साल की उम्र में भगत सिंह का वो तुलनात्मक लेख... नेहरू या
बोस, किससे प्रभावित थे
भगत सिंह? भगत सिंह ने लिखा
था - संकीर्ण और भावुक राष्ट्रवाद से सावधान रहे
भगत सिंह, एक ऐसे शख़्स, जिन्होंने सुभाष चंद्र बोस के फासीवाद की ओर झुकाव का बहुत पहले अनुमान कर लिया
था। भगत सिंह तब 21 साल के थे। वह न तो कांग्रेसी थे और न कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य।
1928 में भगत सिंह ने ‘किरती’ नामक पत्र में ‘नए नेताओं के अलग-अलग विचार' नाम से एक लेख लिखा। वे असहयोग आंदोलन की असफलता और हिन्दू-मुस्लिम
झगड़ों की मायूसी के बीच उन आधुनिक विचारों की तलाश कर रहे थे, जो नए आंदोलन के लिए नींव का काम करें।
भगत सिंह इस लेख में
दो नए उभरते नेताओं ‘बंगाल के पूजनीय श्री सुभाष चंद्र बोस और माननीय पंडित श्री जवाहरलाल नेहरू’ संबोधन के साथ दोनों के विचारों की पड़ताल करते हैं। भगत सिंह लिखते हैं कि सुभाष
‘भारत की प्राचीन संस्कृति के उपासक’ और नेहरू ‘पश्चिम के शिष्य’ माने जाते हैं, पहला ‘कोमल हृदयवाला भावुक’ और दूसरा ‘पक्का युगांतरकारी’ माना जाता है।
भगत सिंह अमृतसर और
महाराष्ट्र में कांग्रेस के सम्मेलनों के इनके भाषणों को पढ़कर कहते हैं कि हालाँकि
दोनों पूर्ण स्वराज्य के समर्थक हैं, लेकिन इनके विचारों में ‘ज़मीन आसमान का अंतर’ है। बंबई की एक जनसभा का वे ख़ास ज़िक्र करते हैं, जिसकी अध्यक्षता नेहरू कर रहे थे और भाषण सुभाष बाबू ने दिया था।
उन दोनों के वक्तव्यों
को पढ़कर वे सुभाष बाबू को एक ‘भावुक बंगाली’ कहते हैं। सुभाष बाबू ने भाषण में शुरु में
कहा था कि हिन्दुस्तान का दुनिया के नाम एक विशेष संदेश है, वह दुनिया को आध्यात्मिक शिक्षा देगा।
भगत सिंह उनके भाषण
को ‘दीवाने का प्रलाप’ ठहराते हुए टिप्पणी करते हैं, "यह भी वही छायावाद है। कोरी भावुकता है। वे हर बात में पुरातन युग की महानता देखते
हैं। वे हर चीज़ को प्राचीन भारत में खोज निकालते हैं, पंचायती राज को भी और साम्यवाद को भी।"
भगत सिंह सुभाष बाबू
के राष्ट्रवाद को अजीबोग़रीब मानते हैं और उनके इस विचार से क़तई सहमत नहीं कि हिंदुस्तानी
राष्ट्रीयता कोई नायाब चीज़ है और बाक़ी राष्ट्रीयताएँ भले ही संकीर्ण हों, भारतीय राष्ट्रवाद ऐसा हो नहीं सकता।
‘नए नेताओं के अलग-अलग विचार' लेख में भगत सिंह सुभाष चन्द्र बोस के उलट नेहरू से अधिक प्रभावित जान पड़ते हैं।
वे कहते हैं कि सुभाष परिवर्तनकारी हैं, जबकि नेहरू युगांतरकारी।
भगत सिंह का मानना
था, "एक के विचार में हमारी पुरानी चीज़ें बहुत अच्छी हैं और दूसरे के विचार में उनके
विरुद्ध विद्रोह कर दिया जाना चाहिए। एक भावुक कहा जाएगा और दूसरा युगांतरकारी और विद्रोही।"
21 साल के क्रांतिकारी
भगत सिंह लेख में टिप्पणी करते हैं, "सुभाष बाबू राष्ट्रीय
राजनीति की ओर उतने समय तक ही ध्यान देना आवश्यक समझते हैं, जितने समय तक दुनिया की राजनीति में हिन्दुस्तान की रक्षा और विकास का सवाल है।
लेकिन पंडित नेहरू राष्ट्रीयता के संकीर्ण दायरों से निकलकर खुले मैदान में आ गए हैं।"
भगत सिंह लेख में अपना
निर्णय सुनाते हैं, "सुभाष आज शायद दिल को कुछ भोजन देने के अलावा कोई दूसरी मानसिक खुराक़ नहीं दे रहे
हैं.... इस समय पंजाब को मानसिक भोजन की सख़्त ज़रूरत है और यह पंडित जवाहरलाल नेहरू
से ही मिल सकता है।"
भगत सिंह सुभाष बाबू
के अंधे पैरोकार बन जाने के ख़िलाफ़ दिखते हैं, लेकिन जहाँ तक विचारों का संबंध है, वहाँ वे उनके साथ लग जाने की सलाह देते हैं, ताकि नौजवान इंक़लाब
के वास्तविक अर्थ, हिन्दुस्तान को इंक़लाब की आवश्यकता, दुनिया में इंक़लाब के स्थान, आदि के बारे में जान सकें।
भगत सिंह लिखते हैं
कि नेहरू इसमें नौजवानों की मदद करेंगे कि वे सोच-विचार कर अपने विचारों को स्थिर करें
ताकि निराशा, मायूसी और पराजय के समय में भी भटकाव के शिकार न हों और अकेले खड़े होकर दुनिया
से मुकाबले में डटे रह सकें।
अपने इस लेख को लिखने
के कोई तीन साल बाद भगत सिंह ने फांसी के फंदे को गले लगाया। कोई तेरह साल बाद सुभाष
का भावुक और संकीर्ण राष्ट्रवाद उन्हें हिटलर तक ले गया। बीसवीं सदी में मानवता के
सबसे बड़े अपराधियों में से एक के साथ हाथ मिलाने में सुभाष बाबू को दुविधा न हुई।
भगत सिंह जीवित रहते तो कहते कि मैंने बरसों पहले नौजवानों को इसके बारे में लिख दिया
था।
भगत सिंह की यह चेतावनी कि नौजवान संकरे भावुकतावादी राष्ट्रवाद के विचारों से
सावधान रहे, क्या आज के नौजवानों को लागू नहीं होती? आज के नौजवान यदि भगत सिंह को पसंद करते हैं, तो फिर भगत सिंह की वो लिखित नसीहत के साथ उन्हें पसंद करना चाहिए।
अदालत में जब भगत सिंह
से पूछा गया कि क्रांति शब्द का उनके लिए क्या मतलब है। उनका जवाब था: "क्रांति
के लिए ख़ूनी संघर्ष अनिवार्य नहीं है, और न ही उसमें व्यक्तिगत प्रतिहिंसा का कोई
स्थान है। वह बम और पिस्तौल की संस्कृति नहीं है।"
भगत सिंह ने कहा, "क्रांति से हमारा अभिप्राय यह है कि वर्तमान व्यवस्था, जो खुले तौर पर अन्याय पर टिकी हुई है, बदलनी चाहिए।... क्रांति से हमारा अभिप्राय
अन्ततः एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था की स्थापना से है, जिसको इस प्रकार के
घातक ख़तरों का सामना न करना पड़े और जिसमें सर्वहारा वर्ग की प्रभुसत्ता को मान्यता
हो तथा एक विश्वसंघ मानवजाति को पूँजीवाद के बंधन से और साम्राज्यवादी युद्धों से उत्पन्न
होने वाली बरबादी और मुसीबतों से बचा सके।"
मैं नास्तिक क्यों
हूँ लिखने वाले भगत सिंह... जिन्होंने आगे बढ़ने के लिए विज्ञान को चुनने के लिए कहा
था
जैन मुनि आचार्य विजय
रत्नसुंदरसुरीजी की 'पासवर्ड' नामक एक गुजराती किताब है। किताब एक शब्द का सवाल और तुरंत नीचे उसका एक शब्द
में जवाब, के रूप में है। किताब के पेज नंबर 7 पर वे नास्तिक का अर्थ करते हैं- तर्कप्रिय।
भगत सिंह भी तर्कप्रिय
थे। उनके जीवन के आख़िरी पलों के बारे में अनेक लेख हैं। उन लेखों के मुताबिक़ फांसी
के तख़्ते पर ले जाते समय चरत सिंह ने भगत सिंह के कान में फुसफुसा कर कहा कि वाहे
गुरु को याद करो। भगत सिंह बोले, "पूरी ज़िदगी मैंने ईश्वर को याद नहीं किया। असल में मैंने कई
बार ग़रीबों के क्लेश के लिए ईश्वर को कोसा भी है। अगर मैं अब उनसे माफ़ी माँगू तो
वो कहेंगे कि इससे बड़ा डरपोक कोई नहीं है। इसका अंत नज़दीक़ आ रहा है इसलिए ये माफ़ी
मांगने आया है।"
'मैं नास्तिक क्यों हूँ' इस शीर्षक से 23 साल की उम्र में भगत सिंह ने यह लेख लिख यह समझाने की कोशिश की थी कि देश और समाज
को आगे बढ़ने के लिए धर्म का रास्ता त्याग, विज्ञान का रास्ता अपनाना पड़ेगा, आस्था और विश्वास को छोड़ कर्मप्रधान और यथार्थवादी बनना होगा।
उनका लेख 'मैं नास्तिक क्यों हूँ' 27 सितम्बर 1931 को लाहौर के अख़बार 'द पीपल' में प्रकाशित हुआ
था। इसमें उन्होंने धर्म पर चोट की और ख़ुद को नास्तिक बताया।
नास्तिक होने का अर्थ
यह नहीं कि वो व्यक्ति ईश्वर में विश्वास नहीं करता। दरअसल नास्तिक व्यक्ति तर्कप्रिय
मात्र होता है और इसलिए वह सवाल उठाता है। फ़र्क़ इतना सा होता है कि नास्तिक व्यक्ति
उस ईश्वर में उस तरह से विश्वास नहीं करता, जिस पर सब करते हैं।
सिख परिवार में पैदा
हुए भगत सिंह ने दाढ़ी और बाल बढ़ाने के बारे में लिखा है, "ऐसा करने के बावजूद मैं ख़ुद को सिख धर्म या किसी और धर्म के प्रभाव के बारे में
राज़ी नहीं कर पाया। लेकिन मेरा ईश्वर में एक अडिग और अटूट विश्वास है।"
‘मैं नास्तिक क्यों हूँ’ लेख में भगत सिंह लिखते हैं, "ईश्वर की उत्पत्ति के बारे में मेरा अपना विचार यह है कि मनुष्य
ने जब अपनी कमियों और कमज़ोरियों पर विचार करते हुए अपनी सीमाओं का अहसास किया तो मनुष्य
को तमाम कठिन परिस्थितियों का साहसपूर्वक सामना करने और तमाम ख़तरों के साथ वीरतापूर्वक
जूझने की प्रेरणा देने वाली तथा सुख समृद्धि के दिनों में उसे उच्छृंखल हो जाने से
रोकने और नियंत्रित करने वाली सत्ता के रूप, ईश्वर की कल्पना की।"
यानी भगत सिंह ईश्वर
को कल्पना मानते हैं, किंतु उस कल्पना की ज़रूरत क्यों है, किस हद तक ज़रूरत है उसके बारे में भी बताते
हैं। आप कह सकते हैं कि भगत सिंह बहुत ही खुले दिमाग से सत्य को छूते हैं। भगत सिंह
दृढ़तापूर्वक कहते हैं, "निरा विश्वास और अन्धविश्वास ख़तरनाक है, इससे मस्तिष्क कुण्ठित होता है और आदमी प्रतिक्रियावादी हो जाता है।"
धर्म की संकीर्णता
और कट्टरता को भगत सिंह बारीक़ी से देख रहे थे। उन्हें पूरी तरह ज्ञात था कि अंग्रेज़
भारत में धर्म को राजनीतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल कर रहे हैं। इससे ज़्यादा गौर
करने लायक चीज़ यह भी है कि भगत सिंह को यह भी अंदेशा था कि धर्म का राजनीतिक हथियार
के रूप में इस्तेमाल आगे जाकर भी होगा।
तभी तो इन्होंने लिखा
था, "क्या फ़र्क़ पड़ेगा कि गोरे अंग्रेज़ों की जगह काले अंग्रेज़ सत्ता में आ जाएँगे। लॉर्ड
इर्विन की जगह अगर सर तेज बहादुर सप्रू आ जाएंगे तो क्या फ़र्क़ पड़ेगा? इसलिए राजनीतिक आज़ादी के साथ साथ आर्थिक और सामाजिक आज़ादी भी ज़रूरी है।"
भगत सिंह ‘सांप्रदायिक दंगे और उनका इलाज’ लेख में कहते हैं, "ऐसी स्थिति (दंगों) में हिन्दुस्तान का भविष्य बहुत अंधकारमय नज़र आता है। इन धर्मों
ने हिन्दुस्तान का बेड़ा गर्क कर दिया है, और अभी पता नहीं कि ये धार्मिक दंगे भारतवर्ष
का पीछा कब छोड़ेंगे।"
भगत सिंह 'मैं नास्तिक क्यों हूँ' लेख में कर्म प्रधान सभ्यता बनने की पुरजोश वकालत करते हैं। अग्नि की उपासना करने
की धार्मिक वृत्ति की जगह अग्नि से क्या हासिल किया जा सकता है उस दिशा में सोचने की
वैज्ञानिक वृत्ति को ज़्यादा महत्व देते हैं।
मैं नास्तिक क्यों
हूँ लेख में वे लिखते हैं, "1926 के अन्त तक मुझे इस बात का विश्वास हो गया कि एक सर्वशक्तिमान
परम आत्मा की बात, जिसने ब्रह्माण्ड का सृजन, दिग्दर्शन और संचालन किया, एक कोरी बकवास है।"
भगत सिंह लिखते हैं, "एक सप्ताह के अन्दर ही यह घोषित हो जाएगा कि मैं अपना जीवन एक ध्येय पर न्योछावर
करने जा रहा हूँ। इस विचार के अतिरिक्त और क्या सान्त्वना हो सकती है? ईश्वर में विश्वास रखने वाला हिन्दू पुनर्जन्म पर राजा होने की आशा कर सकता है।
एक मुसलमान या ईसाई स्वर्ग में व्याप्त समृद्धि के आनन्द की तथा अपने कष्टों और बलिदान
के लिये पुरस्कार की कल्पना कर सकता है। किन्तु मैं क्या आशा करूँ? मैं जानता हूँ कि जिस क्षण रस्सी का फ़न्दा मेरी गर्दन पर लगेगा और मेरे पैरों
के नीचे से तख़्ता हटेगा, वह पूर्ण विराम होगा – वह अन्तिम क्षण होगा। मैं या मेरी आत्मा
सब वहीं समाप्त हो जाएगी। आगे कुछ न रहेगा।"
भगत सिंह यथार्थवाद
पेश करते हुए लेख के ज़रिए कहते हैं कि इंसान को यथार्थ ध्येय पर चलना चाहिए, जन्म-पूर्व जन्म, स्वर्ग-नर्क, जैसी काल्पनिक बातें करने की जगह मानवता
के उद्धार पर काम करना चाहिए। भगत सिंह इस लेख के ज़रिए समझाते हैं कि नागरिक का धर्म
है शोषकों, उत्पीड़कों और अत्याचारियों को चुनौती देना।
वे लिखते हैं, "मुझे पूरा विश्वास है कि एक चेतन परम आत्मा का, जो प्रकृति की गति
का दिग्दर्शन एवं संचालन करता है, कोई अस्तित्व नहीं है। हम प्रकृति में विश्वास करते हैं और
समस्त प्रगतिशील आन्दोलन का ध्येय मनुष्य द्वारा अपनी सेवा के लिये प्रकृति पर विजय
प्राप्त करना मानते हैं। इसको दिशा देने के पीछे कोई चेतन शक्ति नहीं है। यही हमारा
दर्शन है।"
भगत सिंह बिना लाग-लगाव
लिखते हैं, "हम आस्तिकों से कुछ प्रश्न करना चाहते हैं।" और फिर वे आगे लिखते हैं, "यदि आपका विश्वास है कि एक सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक और सर्वज्ञानी ईश्वर है, जिसने विश्व की रचना की, तो कृपा करके मुझे यह बताएँ कि उसने यह रचना क्यों की? कष्टों और संतापों से पूर्ण दुनिया – असंख्य दुखों के शाश्वत अनन्त गठबन्धनों
से ग्रसित! एक भी व्यक्ति तो पूरी तरह संतृष्ट नही है।
कृपया यह न कहें कि यही उसका नियम है। यदि वह किसी नियम से बँधा है तो वह सर्वशक्तिमान
नहीं है। वह भी हमारी ही तरह नियमों का दास है।"
"कृपा करके यह भी न
कहें कि यह उसका मनोरंजन है। नीरो ने बस एक रोम जलाया था। उसने बहुत थोड़ी संख्या में
लोगों की हत्या की थी। उसने तो बहुत थोड़ा दुख पैदा किया, अपने पूर्ण मनोरंजन के लिए। और उसका इतिहास में क्या स्थान है? उसे इतिहासकार किस नाम से बुलाते हैं? सभी विषैले विशेषण उस पर बरसाये जाते हैं।
पन्ने उसकी निन्दा के वाक्यों से काले पुते हैं, भर्त्सना करते हैं
– नीरो एक हृदयहीन, निर्दयी, दुष्ट। एक चंगेज़ खाँ ने अपने आनन्द के लिये कुछ हज़ार जानें
ले लीं और आज हम उसके नाम से घृणा करते हैं।"
"तब किस प्रकार तुम
अपने ईश्वर को न्यायोचित ठहराते हो?" वे लेख में लिखते हैं, "इसलिये मैं पूछता हूँ कि उस चेतन परम आत्मा ने इस विश्व और उसमें मनुष्यों की रचना
क्यों की? आनन्द लूटने के लिए? तब उसमें और नीरो में क्या फ़र्क़ है?"
"तुम मुसलमानों और ईसाइयों! तुम तो पूर्वजन्म में विश्वास नहीं करते। तुम तो हिन्दुओं की तरह यह तर्क पेश
नहीं कर सकते कि प्रत्यक्षतः निर्दोष व्यक्तियों के कष्ट उनके पूर्वजन्मों के कर्मों
का फल है। मैं तुमसे पूछता हूँ कि उस सर्वशक्तिशाली ने शब्द द्वारा विश्व के उत्पत्ति
के लिये छह दिन तक क्यों परिश्रम किया? और प्रत्येक दिन वह क्यों कहता है कि सब
ठीक है? बुलाओ उसे आज। उसे पिछला इतिहास दिखाओ। उसे आज की परिस्थितियों का अध्ययन करने
दो। हम देखेंगे कि क्या वह कहने का साहस करता है कि सब ठीक है।"
"और तुम हिन्दुओं, तुम कहते हो कि आज जो कष्ट भोग रहे हैं, ये पूर्वजन्म के पापी हैं और आज के उत्पीड़क
पिछले जन्मों में साधु पुरुष थे, अतः वे सत्ता का आनन्द लूट रहे हैं। मुझे यह मानना पड़ता है
कि आपके पूर्वज बहुत चालाक व्यक्ति थे। उन्होंने ऐसे सिद्धान्त गढ़े, जिनमें तर्क और अविश्वास के सभी प्रयासों को विफल करने की काफ़ी ताक़त है।"
"ईश्वर द्वारा उन्हें
दिये गये दण्ड की क्या प्रकृति है? तुम कहते हो वह उन्हें गाय, बिल्ली, पेड़, जड़ी-बूटी या जानवर बनाकर पैदा करता है। तुम ऐसे 84 लाख दण्डों को गिनाते हो। मैं पूछता हूँ कि मनुष्य पर इनका सुधारक के रूप में
क्या असर है? तुम ऐसे कितने व्यक्तियों से मिले हो, जो यह कहते हैं कि वे किसी पाप के कारण पूर्वजन्म
में गधा के रूप में पैदा हुए थे? एक भी नहीं? अपने पुराणों से उदाहरण न दो। मेरे पास तुम्हारी
पौराणिक कथाओं के लिए कोई स्थान नहीं है।"
"मैं पूछता हूँ तुम्हारा
सर्वशक्तिशाली ईश्वर हर व्यक्ति को क्यों नहीं उस समय रोकता है जब वह कोई पाप या अपराध
कर रहा होता है? यह तो वह बहुत आसानी से कर सकता है। उसने क्यों नहीं लड़ाकू राजाओं की लड़ने की
उग्रता को समाप्त किया और इस प्रकार विश्वयुद्ध द्वारा मानवता पर पड़ने वाली विपत्तियों
से उसे बचाया? उसने अंग्रेज़ों के मस्तिष्क में भारत को मुक्त कर देने की भावना क्यों नहीं पैदा
की? वह क्यों नहीं पूँजीपतियों के हृदय में यह परोपकारी उत्साह भर देता कि वे उत्पादन
के साधनों पर अपना व्यक्तिगत सम्पत्ति का अधिकार त्याग दें और इस प्रकार केवल सम्पूर्ण
श्रमिक समुदाय, वरन समस्त मानव समाज को पूँजीवादी बेड़ियों से मुक्त करें?"
"अंग्रेज़ों की हुकूमत
यहाँ इसलिये नहीं है कि ईश्वर चाहता है। बल्कि इसलिये है कि उनके पास ताक़त है और हममें
उनका विरोध करने की हिम्मत नहीं। वे हमको अपने प्रभुत्व में ईश्वर की मदद से नहीं रखे
हैं, बल्कि बन्दूकों, राइफलों, बम और गोलियों, पुलिस और सेना के सहारे रखे हुए हैं। कहाँ है ईश्वर? क्या वह मनुष्य जाति के इन कष्टों का मज़ा ले रहा है? एक नीरो, एक चंगेज़, उसका नाश हो!"
"ईश्वर में विश्वास
और रोज़-ब-रोज़ की प्रार्थना को मैं मनुष्य के लिये सबसे स्वार्थी और गिरा हुआ काम
मानता हूँ। मैंने उन नास्तिकों के बारे में पढ़ा है जिन्होंने सभी विपदाओं का बहादुरी
से सामना किया। अतः मैं भी एक पुरुष की भाँति फांसी के फ़न्दे की अन्तिम घड़ी तक सिर
ऊँचा किये खड़ा रहना चाहता हूँ। हमें देखना है कि मैं कैसे निभा पाता हूँ। मेरे एक
दोस्त ने मुझे प्रार्थना करने को कहा। जब मैंने उसे नास्तिक होने की बात बतायी तो उसने
कहा, अपने अन्तिम दिनों में तुम विश्वास करने लगोगे। मैंने कहा, नहीं, प्यारे दोस्त, ऐसा नहीं होगा।"
अपने अपने मतलब के
लिए सभी ने भगत सिंह को याद किया, केवल चार वास्तविक तस्वीरों को कल्पना, मान्यता और ज़रूरत के हिसाब से अनेक रूप
और रंग में परोसा गया
यूँ तो भगत सिंह की
अनेक तस्वीरें हैं। किताबों में, पत्रिकाओं में, न्यूज़ लेखों में, चैनलों पर, सोशल मीडिया में, सरकारी और निजी दफ़्तरों में... और ऐसे ही अनेक जगहों या मंचों
पर।
इनमें से ज़्यादातर
तस्वीरें काल्पनिक हैं। क्योंकि भगत सिंह की अब तक ज्ञात चार वास्तविक तस्वीरें ही
उपलब्ध हैं।
पहली तस्वीर 11 साल की उम्र में घर पर सफ़ेद कपड़ों में खिंचाई गई थी। दूसरी तस्वीर तब की है
जब भगत सिंह क़रीब 16 साल के थे। इस तस्वीर में लाहौर के नेशनल कॉलेज के ड्रामा ग्रुप के सदस्य के रूप
में भगत सिंह सफ़ेद पगड़ी और कुर्ता-पायजामा पहने हुए दिख रहे हैं। तीसरी तस्वीर 1927 की है, जब भगत सिंह की उम्र क़रीब 20 साल थी। तस्वीर में भगत सिंह बिना पगड़ी के खुले बालों के साथ
चारपाई पर बैठे हुए हैं और सादे कपड़ों में एक पुलिस अधिकारी उनसे पूछताछ कर रहा है।
चौथी और आख़िरी इंग्लिश हैट वाली तस्वीर दिल्ली में ली गई है, तब भगत सिंह की उम्र
22 साल से थोड़ी ही कम थी।
इनके अलावा भगत सिंह
के परिवार, कोर्ट, जेल या सरकारी दस्तावेज़ों से उनकी कोई अन्य तस्वीर नहीं मिली है।
लेकिन स्वतंत्रता के
पश्चात भगत सिंह को सभी ने अपनी अपनी मान्यताओं, विचारों, कल्पनाओं और ज़रूरतों के हिसाब से पेश किया। जो शहीद-ए-आज़म 'मैं नास्तिक क्यों हूँ' लिख समाज को विज्ञान के रास्ते चलने के लिए कह चुका था उस शहीद
भगत सिंह को धर्म ने, धार्मिक लोगों ने और धर्म के आसपास घूम रही राजनीति ने पीली पगड़ी तक पहना दी, या फिर दूसरे रूपों में पेश कर दिया!
जो शहीद-ए-आज़म बम
और पिस्तौल से क्रांति नहीं आ सकती यह कहकर वैचारिक क्रांति के लिए फांसी पर चढ़े, उन्हें स्वतंत्र भारत के गुलाम मानसिकता वाले लोगों ने बम और बंदूकों के साथ पेश
किया!
23 मार्च, 1985 के दिन तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने देश भर के अख़बारों में भगत सिंह के नाम
पर इश्तेहार दिए थे। इन इश्तेहारों में भगत सिंह को एक सिख नौजवान के रूप में दिखाया
गया। बाक़ायदा रंगीन पगड़ी पहने हुए। भगत सिंह का यह स्वरूप थोड़ा चौंकाने वाला था।
इससे पहले तक देश में भगत सिंह की जो छवि प्रचलित थी, उसमें वे एक इंग्लिश हैट पहने दिखाए जाते थे, न कि पगड़ी। भगत सिंह
ने स्वयं ही यह स्टूडियो पोट्रेट खिंचवाया था। इसे फ़ोटोग्राफ़र शाम लाल ने दिल्ली
के कश्मीरी गेट पर 3 अप्रैल, 1929 को खींचा था। शाम लाल का बयान लाहौर षडयंत्र मामले की अदालती कार्यवाही में दर्ज
है।
जो चार वास्तविक तस्वीरें
उपलब्ध हैं, उसमें से केवल एक तस्वीर पगड़ी वाली है, जिसमें भगत सिंह ने सफ़ेद रंग की पगड़ी पहनी
हुई है। यहाँ उसे रंगीन कर दिया गया। भगत सिंह अपने आप को नास्तिक घोषित कर चुके थे, पर कांग्रेस सरकार मानो उन्हें पगड़ी पहना कर, उनका सिख स्वरूप उजागर
करना चाह रही थी।
दरअसल उन दिनों पंजाब
में चरमपंथी सक्रिय थे और सिख धर्म के नाम पर नया राज्य बनाने की मांग चल रही थी। तत्कालीन
राजीव गांधी सरकार द्वारा भगत सिंह के नाम पर इश्तेहार देने के पीछे यह वजह ज़िम्मेदार
थी। बाद में सरकार को पंजाब में उग्रवाद को रोकने के लिए क्या करना पड़ा और फिर क्या
परिणाम मिले, इसका इतिहास जगज़ाहिर है। लेकिन अपने मतलब के लिए राजीव गांधी सरकार ने भगत सिंह
का रूप बदल ज़रूर दिया था।
यह न माने कि 1985 में ही भगत सिंह की तस्वीर को बदला गया होगा। स्वतंत्रता के बाद यह अनेक बार हुआ।
किंतु यह बड़ी और सरकारी घटना थी, इस लिहाज़ से इसका ज़िक्र होना स्वाभाविक है। 23 मार्च, 1965 को भारत के तत्कालीन गृहमंत्री वाईबी चव्हाण ने पंजाब के फ़िरोजपुर के पास हुसैनीवाला
में भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के स्मारक की बुनियाद रखी थी। भारत के केंद्रीय मंत्री रहे
एमएस गिल बड़े ही गर्व के साथ कहते सुने गए हैं कि उन्होंने ही उस प्रतिमा में पगड़ी
और कड़ा जोड़ा था। यह भगत सिंह को 'सिख नायक' के रूप में पेश करने
की कोशिश थी। समाजवादी, नास्तिक और तर्कप्रिय तथा धर्मनिरपेक्ष क्रांतिकारी भगत सिंह
को एक कुएँ में क़ैद करने की कोशिश!
1970 के दशक तक देश हो
या विदेश, भगत सिंह की हैट वाली तस्वीर ही सबसे अधिक लोकप्रिय थी। इससे पहले भी भगत सिंह
के रंग और रूप बदले गए थे, किंतु सत्तर के दशक में भगत सिंह की तस्वीरों को बदलने सिलसिला
तेज़ी से शुरू हुआ। भगत सिंह जैसे धर्मनिरपेक्ष शख़्स के असली चेहरे को इस तरह प्रदर्शित
करने के लिए सबसे अधिक ज़िम्मेदार पंजाब सरकार और पंजाब के कुछ गुट हैं।
1997 में आज़ादी के 50वें साल के अवसर पर भारतीय कम्युनिस्टों को याद आया की कांग्रेस सरकार आम तौर पर
आज़ादी में क्रांतिकारियों के योगदान को अनदेखा कर देती थी और तब उन्होंने भगत सिंह
का नाम लिया।
दस साल बाद, दक्षिणपंथी भाजपा ने भगत सिंह को गले लगा लिया। सिख समुदाय के नाम पर खड़े अकाली
दल ने भी भगत सिंह को अपना बताने में कोई कसर नहीं छोड़ी। भगत सिंह के नाम पर रोटी
सेंकने का काम बदस्तूर चलता रहा।
इतना ही नहीं, भगत सिंह के सहारे महात्मा गाँधी समेत अनेक महानायकों के बारे में मनगढ़ंत कहानियाँ
परोसी गई। जिन लोगों ने स्वातंत्र संग्राम में चींटी जितना योगदान भी नहीं दिया था, ऐसे लोगों ने उस महान स्वातंत्र संग्राम के महानायकों के बीच भी लकीरें खींच दीं!
भगत सिंह नास्तिक थे
और गाँधीजी परम आस्तिक थे। लेकिन धर्म के नाम पर फैलाई जाने वाली नफ़रत के दोनों ही
विरोधी थे। भगत सिंह और गाँधीजी, दोनों के लिए आज़ादी का ख़याल सिर्फ़ राजनीतिक नहीं था। दोनों
चाहते थे कि देश की जनता शोषण की बेड़ियों से मुक्त हो और इसी दिशा में उनके प्रयास
रहे। भगत सिंह को सज़ा मिलने के बाद गाँधीजी ने उनकी सज़ा रद्द कराने या हो सके तो
कम कराने के कुछ प्रयास किए थे, जिसके ऐतिहासिक दस्तावेज़ भी उपलब्ध हैं। हमें गौर यह भी करना
चाहिए कि उसी गाँधीजी ने अपनी पत्नी कस्तूरबा को ब्रितानी जेल से छुड़ाने का एक भी
प्रयास नहीं किया था, अस्वस्थ अवस्था में ही कस्तूरबा की गिरफ़्तारी हुई और फिर मृत्यु।
न भगत सिंह ने कभी महात्मा गाँधी से नफ़रत की, और ना ही महात्मा गाँधी ने उनसे बैर भाव रखा। दोनों महानायकों ने एक दूसरे के
प्रति पूरा सम्मान प्रदर्शित किया और दोनों के बीच मतभेद केवल वैचारिक थे। दरअसल, चालाक राजनीति ने गाँधी या भगत सिंह में से किसी को चुनना सिखाया और अंत में उस
राजनीति ने लोगों को गोडसे बनाकर छोड़ दिया।
सबसे अजीब बात ये है
कि भगत सिंह की फांसी में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका सरकारी गवाह बने कई क्रांतिकारी साथियों
की थी। इतने सालों में भगत सिंह की फांसी के नाम पर गाँधीजी की निंदा की गई है, लेकिन भगत सिंह के ख़िलाफ़ गवाही देने वाली क्रांतिकारी साथियों की कभी निंदा
नहीं होती, क्योंकि इससे राजनीतिक फ़ायदा नहीं होता। उपरांत, मतभेद गाँधीजी-नेहरू या सरदार के बीच ही नहीं थे, मतभेद भगत सिंह-चंद्रशेखर आज़ाद, लाला लाजपतराय, सुभाष बाबू के बीच भी थे।
दरअसल, जब-जब ज़रूरत आन पड़ी, राजनीतिक दलों ने भगत सिंह के नाम पर रोटियाँ सेंकी। यह प्रवृत्ति
केवल राजनीतिक दलों तक सीमित नहीं रही। ग़ैर सरकारी संगठनों या दलों ने, व्यक्तियों ने भगत सिंह को अपने अपने तौर पर पेश किया। जो भगत सिंह नहीं थे, उस तरह से पेश किया! जो भगत सिंह सोचते
नहीं थे, करते नहीं थे, वह सब भुला कर अपनी रसोई घर वाली कहानियाँ बना कर पेश किया!
किसी की गाड़ी में, ट्रक पर, टेबल पर भगत सिंह मिलने लगे। उनकी जो चार वास्तविक तस्वीरें थीं, उससे बहुत दूर के रूपों में मिलने लगे। जो भगत सिंह समझाना चाहते थे उस विज्ञान
के रास्ते को छोड़ धार्मिक मतलब के लिए मिलने लगे!
भगत सिंह के क्रांतिकारी
लेख 1924 से ही विभिन्न अख़बारों, पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं। इस समय उनके लेख किताबों, पुस्तिकाओं, पर्चों वगैरह के रूप में छप रहे हैं, जिनसे इस नायक की क्रांतिकारी छवि उभर कर
सामने आती रही है। अस्सी के दशक तक भगत सिंह का लेखन हिंदी, पंजाबी और अंग्रेज़ी में छप चुका था, जिसकी भूमिका बिपिन चंद्रा जैसे प्रसिद्ध
इतिहासकार ने लिखी थी।
भगत सिंह के लेखन से
यह प्रमाणित हो गया कि वे एक समाजवादी और मार्क्सवादी विचारक थे। भगत सिंह अपने लेखों
से स्वयं के धर्मनिरपेक्ष, तर्कप्रिय या यूँ कहे कि नास्तिक और विज्ञान प्रिय होने का
एलान करते हैं। भगत सिंह संकरे राष्ट्रवाद को नापसंद करने का एलान करते हैं। और इससे
भारत के कट्टरपंथी दक्षिणपंथी धार्मिक समूहों के कान खड़े हो गए।
फिर हुआ यूँ कि भगत
सिंह के लेखों तथा विचारों की जगह उनकी तस्वीरों को बदला जाने लगा! और यह प्रयत्न एक अंतरराष्ट्रीय क्रांतिकारी विचारक के मुक्त, आज़ाद, वैज्ञानिक व धर्मनिरपेक्ष तथा समाजवादी विचारों को दबाने की साज़िश जैसा है।
यह विरोधाभास और विडंबना
ही तो है कि जिस भगत सिंह ने ख़ुद को नास्तिक घोषित कर दिया और उसके पक्ष में तर्क दिए, हिन्दुत्व की राजनीति करने वाले राजनीतिक और ग़ैर राजनीतिक समूह उसी भगत सिंह पर
अपने अपने दावे ठोक रहे हैं! जिस भगत सिंह को धर्म
और उसके राजनीतिक इस्तेमाल से बेहद एतराज़ था, उसी भगत सिंह का गाहे बगाहे उन्हीं मक़सद के लिए इस्तेमाल हो रहा है!
लेख का समापन भगत सिंह की कलम से नोट की गई विन्डेन फिलिप की एक उक्ति के साथ।
जेल में भगत सिंह ने किताबों से अपने पसंदीदा नोट्स की सूची बना कर रखी थी। उसमें से
एक विन्डेन फिलिप की उक्ति थी, "यदि कोई ऐसी चीज़ हो, जो मुक्त चिंतन को बर्दाश्त न कर सके, तो वह भाड़ में जाए।"
(इनक्रेडिबल इंडिया, एम वाला)
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