इतिहास का तो पता नहीं, किंतु पिछले 35 सालों से काले कोट वाले और स्वयं को विश्व नेता के रूप में दिखा रहे अनेक राजपुरुषों
को विश्व शांति, अमन चैन, जंग विहीन संसार जैसी चिकनी-चुपड़ी बातें करते देखा है। सालाना इनके भाषण क़रीब
क़रीब कॉपी पेस्ट जैसे ही होते हैं। उधर दुनिया के हर कोने में कहीं न कहीं, कोई न कोई, एक दूसरे को मारने-मिटाने
के लिए लड़ रहा होता है।
दुनिया भर में हथियार
बनाने वाले देश कई होंगे, किंतु इक्का-दुक्का देश सबसे बड़े हथियार निर्माता और विक्रेता हैं। सालों से
डिस्कवरी और ऐसे दूसरे चैनलों के शो देख यही लगता है कि ये चैनल जानकारी प्रदान करने
वाले प्लेटफॉर्म कम, बल्कि इनके हथियार बेचने वाली दुकानें ज़्यादा हैं। फलां फलां देश का ये हथियार, वो हथियार, ये तकनीक, वो तकनीक, साइंस, मैथ्स, आर्ट्स वगैरह टाइप
शो दिखते हैं। लगता है कि इस हथियार के सामने दूसरे हथियार कुछ नहीं। फिर दुनियाभर
की आतंकी घटनाएँ और संघर्ष एवं युद्ध के मौक़े आते हैं, तब गौर से देखे तो
सभी के पास ऐसे ही हथियार होते हैं।
अमेरिका के द्वारा
निर्मित हथियारों के अनेक शो, यूँ कहे कि मार्केटिंग सरीखे शो, जनरल नॉलेज़ के नाम पर चल रहे चैनल पर साल भर चलते रहते हैं। शो देखने पर ये हथियार
अजेय लगते हैं। पाकिस्तान और उसके आतंकवादी हमसे लड़ते हैं, तब इसी हथियारों के
साथ लड़ते हैं और स्वयं को पिटवा कर वापस भी चले जाते हैं। उन शो पर जो मार्केटिंग
चला होता है, उसे देख लगता तो यह है कि हमने पाकिस्तान को नहीं, डायरेक्ट अमेरिका
को ही हरा दिया है।
अमेरिका हथियारों का
सबसे बड़ा निर्माता और विक्रेता है। उसके हथियार भारत से लेकर फ़िलिस्तीन तक मिल जाते
हैं। किसी भी आतंकी संगठन को ले लें, उनके द्वारा किए गए हमले का अध्ययन कर लें, हथियार अमेरिका जैसे इक्का-दुक्का देशों के ही होते हैं! दुनिया के बड़े बड़े संगठनों, संस्थाओं और प्रमुख देशों ने जिन संगठऩों को आतंकवादी संगठन घोषित किया है, उन सभी के पास उन
दो-तीन देशों के हथियार ही मिलते हैं!
ये दो-तीन देश हथियार
बनाते रहते हैं, बेचते रहते हैं। हथियार बेचने में ऐसे ऐसे स्कैम होते हैं कि पूर्व में अनेक देशों
की सरकारें गिरी या बनीं। सेना के लिए हथियार और दूसरे सामानों की ख़रीदी में अभूतपूर्व
घोटाले लगभग तमाम देशों में मिल जाएँगे। मौत का सामान बेचने वाले ही विश्व शांति की
बातें करते हैं और शांति के लिए नोबेल पुरस्कार घर ले जाते हैं! इधर अनगिनत भ्रष्टाचार के बाद हथियार जिन देशों को मिले होते हैं, वे अपने आसपास बसे
देशों या संगठनों से लड़ते रहते हैं। बच्चे, महिलाएँ, उस देश का ढाँचा, सब कुछ बनता-बिगड़ता रहता है। और ये सब कुछ निरंतर चलता रहता है। शायद ऐसे ही
हालात के लिए कहा गया होगा कि- युद्ध एक धंधा है।
किसी संगठन, गुट या देश को आतंकवादी
संगठन या ऐसा कुछ घोषित करने के बाद, बनाई गई व्यवस्था के हिसाब से सैकड़ों देशों की जहाँ तक पहुंच है वहाँ तक उस संगठन, गुट या देश के ऊपर
अनेकविध प्रतिबंध लगते हैं। आर्थिक, व्यापारिक, सामाजिक, राजनयिक समेत बहुत सारे प्रतिबंध लग जाते हैं। ऐसे में सवाल यह उठता है कि उन
हमलावरों या युद्धखोरों को ऐसे घातक हथियार कैसे मिल जाते होंगे?
फ़िलहाल इज़राइल और हमास के बीच युद्ध चल रहा
है। न्यूज़ चैनल वालों को इज़राइल-हमास मिल गए हैं, वर्ना लगे हाथ यह
भी जान लें कि फ़िलहाल ये दोनों ही लड़ नहीं रहे, दुनिया के दूसरे तीन-चार
हिस्सों में घर घर की जो भी कहानी हो, उस हिसाब से वहाँ भी युद्ध जैसी स्थिति जारी
है। रूस-यूक्रेन क़रीब साल भर से लड़ रहे हैं। अज़रबैजान-आर्मेनिया हो, चीन-ताइवान हो, उत्तर कोरिया-दक्षिण
कोरिया हो, इस समय दुनिया में कईं लडाइयाँ चल रही हैं। उपरांत अनेक जगहों पर छोटे-मोटे दूसरे
सशस्त्र संघर्ष अविरत जारी हैं।
ऐसे सशस्त्र संघर्ष
या युद्ध को लेकर उस लड़ाई में शामिल सारे पक्ष बाक़ायदा वीडियो जारी करते हैं। साथ
में थोड़ी बहुत दूसरी जानकारियाँ भी देते रहते हैं। ‘वॉर रिपोर्टर’ नामक एक विशिष्ट प्राणी
वॉर फ़ोटोग्राफर की मदद से ऐसे मामलों में ज़्यादा डिटेल रिपोर्टींग करते हैं। नरसंहार, मानवीय पक्ष, अमानवीय पक्ष जैसे
शब्दों के साथ हर दिन कुछ न कुछ ख़बरें आती-जाती रहती हैं।
एक जाना पहचाना उदाहरण
ही ले लीजिए। 1947 में भारत-पाकिस्तान बने। 1948 में इज़राइल-फ़िलिस्तीन। ग़ज़ब यह कि इन चारों के साथ उन इक्का-दुक्का देशों के
तमाम प्रकार के रिश्ते हैं। आप स्वयं ही इतिहास देख लीजिए। इधर ये चारों एक दूसरे को
मारते पीटते रहते हैं, और उधर उनसे रिश्ता रखने वाले न जाने क्या क्या सीन क्रिएट करते रहते हैं! बात केवल भारत, पाकिस्तान, इज़राइल या फ़िलिस्तीन की नहीं है। दुनिया भर में हर जगह ऐसे ही सीन, ऐसे ही स्क्रिप्ट
मिल जाते हैं।
हमारे यहाँ पाकिस्तान
समर्थित आतंकवादियों से ज़्यादातर अमेरिका और फिर चीन के हथियार मिल जाते हैं। बंदूकें, बम, रॉकेट, रॉकेट लॉन्चर से लेकर
तमाम ख़तरनाक हथियार इन प्रतिबंधित आतंकवादी संगठनों के पास होते हैं। लाज़मी है कि
वे संगठन आतंकी बनाते हैं, हथियार तो नहीं बनाते। इनके पास उन्हीं देशों के हथियार होते हैं, जो बाद में अमन चैन
की बातें करते हैं!
ब्रिटिश राजनेता जिम
फर्ग्यूसन ने अमेरिकी बंदूकों के साथ तालिबान आतंकवादियों की एक तस्वीर ट्वीट की और
इसे इज़राइल पर हमास के हमले से जोड़ा। फर्ग्यूसन ने लिखा, “इज़राइल रक्षा बल
(आईडीएफ) के कमांडर ने कहा कि बाइडेन प्रशासन द्वारा अफ़ग़ानिस्तान में छोड़े गए अमेरिकी
हथियार गाज़ा पट्टी में सक्रिय फ़िलिस्तीनी समूहों के हाथों में पाए गए।”
5 अक्टूबर 2023 को, हमास के हमले से ठीक दो दिन पहले इज़राइली रक्षा बलों ने एम16 राइफल की तस्वीर ट्वीट
की, जो उन्होंने इज़राइली
सुरक्षा बलों के वाहन पर हमला करने वाले दो आतंकवादियों से बरामद की थी। एम16 अमेरिका में निर्मित
एक अत्याधुनिक असॉल्ट राइफल है, जिसकी आपूर्ति अफ़ग़ानिस्तान को की जाती रही है।
हमास लड़ाकों के पास
एम14 असॉल्ट राइफलें भी देखी गईं। एक प्रमुख अमेरिकी राजनेता ने सवाल किया कि क्या
फ़िलिस्तीनी आतंकवादी संगठन हमास ने अमेरिका निर्मित बंदूकों का इस्तेमाल किया है? इसका पता लगाने के
लिए जाँच की मांग की गई कि क्या हथियारों का स्रोत अफ़ग़ानिस्तान या यूक्रेन था? इस संबंध में इंडिया
टुडे ने एक विशेष रिपोर्ट प्रकाशित की।
अमेरिकी सीनेटर मार्जोरी
टेलर ग्रीन ने एक्स (ट्विटर) पर लिखा कि हमास ने इज़राइल पर हमले के लिए अमेरिकी हथियारों
का इस्तेमाल किया। इन्होंने जाँच की माँग की। अब इन्होंने साफ़ मन से कहा, या फिर हमारे यहाँ
जैसा है वैसे वहाँ भी कौआ काला ही है, यह आपको तय करना है।
वैसे जाँच-वाच, कमेटी-समेटी, ये सब अंतरराष्ट्रीय
स्तर पर वैसे ही होते हैं, जैसे हमारे या दूसरे देशों के अंदरूनी इतिहास में तथ्यात्मक रूप से दर्ज हैं।
लिहाज़ा, देश में हो या देश के बाहर, जाँच-वाच, कमेटी-समेटी को लेकर ज़्यादा न पूछें।
जो हथियारों का सबसे
बड़ा निर्माता है उस अमेरिका पर ही पूर्व में अनेक ऐसे ग़ैरज़रूरी संघर्ष या ग़ैरज़रूरी
युद्धों को चलाने के आरोप हैं! ख़तरनाक रासायणिक
और परमाणु हथियारों के नाम पर इराक पूरा तबाह हो गया। हाथ लगा सद्दाम हुसैन, जिसे क़रीब 100 लोगों की सामूहिक
हत्या के आरोप में फाँसी लगी। ब्रिटेन की चिलकॉट कमेटी की रिपोर्ट का क़िस्सा याद कर
लें।
अमेरिका और ब्रिटेन के राष्ट्रप्रमुखों ने
अपने अपने देश को अंधेरे में रखते हुए इराक पर जो किया, उसके बाद चिलकॉट रिपोर्ट
ने ब्रिटेन में सेना और लोगों के अंदर ही सवाल खड़े कर दिए थे। सेना के मनचाहे इस्तेमाल
को लेकर ब्रिटेन में काफ़ी विरोध हुआ और टोनी ब्लेयर को देश का गुनाहगार और आतंकवादी
जैसे विशेषणों से सम्मानित होना पड़ा। उस युद्ध में शामिल फौजियों के परिवारों ने सवाल
उठाए कि हमारे लोगों को उस युद्ध में मरना ही क्यों पड़ा, जो ज़रूरी ही नहीं
था।
चिलकॉट कमेटी ब्रिटेन
की थी, लिहाज़ा इसमें अमेरिका का नाम नहीं था। किंतु उस युद्ध में दोनों साझीदार थें। कमेटी
ने लिखा था कि इस अभियान में सैन्य आक्रमण आख़िरी चारा नहीं था। रिपोर्ट ने साफ़ कहा
कि जिन परिस्थितियों में इराक पर हमले का क़ानूनी आधार दिया गया था, उसे भी सही नहीं
ठहराया जा सकता है। 2016 में आई इस रिपोर्ट ने ब्रिटेन में बड़ा बवाल काटा था।
दुनिया में फौज के
मनचाहे इस्तेमाल के ढेर सारे उदाहरण देखने के लिए मिलते हैं। हमारे यहाँ श्रीलंका में
भारतीय सेना को भेजने के मसले पर भी काफ़ी विवाद रहे हैं। सवाल सेना या सेना की क्षमताओं
को लेकर नहीं उठाए जाते। बल्कि सेना का दूसरे मक़सदों के लिए इस्तेमाल किए जाने पर आपत्तियाँ आती रहती हैं।
साहिर लुधियानवी की
एक पंक्ति है... जंग तो ख़ुद ही एक मसला है, जंग क्या मसलों का हल देगी। क़रीब साल भर पहले पुतिन को उम्मीद थी कि वह कुछ ही
दिनों में कीव पर कब्ज़ा कर लेंगे और युद्ध ख़त्म हो जाएगा। लेकिन पश्चिमी देशों की
ओर से यूक्रेन को दिए गए हथियारों ने जंग की तस्वीर ही बदलकर रख दी।
व्यापार करना युद्ध
सरीखा हो सकता है, किंतु अब युद्ध ही व्यापार है! इस व्यापार
के लिए ‘युद्धोन्माद’ आवश्यक तत्व है। युद्ध हो इससे पहले भावना नामक तत्व को छेड़ कर युद्धोन्माद पैदा
करना ज़रूरत है। हथियारों का निर्माण और फिर उसे बेचना। इन दोनों में सरकारी और निजी, दोनों उद्योग शामिल होते हैं। अमेरिका, ब्रिटेन और रूस सालों से इस खेल में प्रमुख भूमिका में हैं। दस-पंद्रह प्रमुख
कंपनियाँ हैं। निर्माण के बाद खेल होता है बेचने में, जिसे लेकर अनेक स्कैम, कहानियाँ बिखरी हुई
पड़ी हैं।
युद्ध अच्छा व्यवसाय
नहीं हो सकता, किंतु निश्चित रूप से यह एक बड़ा व्यवसाय
है। अब तो सैनिक भी भाड़े पे मिलने लगे हैं! प्राइवेट आर्मी का ज़िक्र भी होता रहता
है! 21वीं शताब्दी में देशों ने एकदूसरे पर जितने बम या मिसाइलें गिरायीं, गिनती करें तो संसार में उतने सितारे भी नहीं होंगे! इस बड़े व्ययसाय में निर्माता
और विक्रेता को ‘युद्धोन्माद’ के साथ साथ ‘ख़तरा’ नाम के आभास को भी ज़िंदा रखना होता है।
जैसे राजनीति में विविध
ख़तरें बताकर जनता को बरगलाया जाता है, यहाँ भी ख़तरा बना हुआ है, इस वातावरण को किसी
न किसी तरह से ज़िंदा रखना होता है। युद्ध के व्यवसाय में केवल शस्त्र ही मुख्य नहीं
होते, बल्कि झूठ-तथ्य गढ़ने और घुमाने का एक बहुत
बड़ा समानांतर उद्योग फला फूला है। यह बात दशकों पुरानी है, लेकिन इसका ताज़ा उदाहरण था कि 2016 में पेंटागन ने इराक युद्ध के दौरान प्रचार
करने के लिए पीआर कंपनी बेल पोटिंगर को भुगतान किया था।
चूँकि इस व्यवसाय की
अनिवार्यता युद्ध लड़ना है, व्यवसाय से जुड़े
लोगों को अपने उत्पाद और अपनी सेवाओं के लिए माँग पैदा करनी पड़ती है। किसी सत्ता को, किसी व्यवस्था को भ्रष्ट करने से ही इस दुष्चक्र की शुरुआत होती है। व्यवसाय के
मूल में हिंसा और तबाही है। इस उद्योग में सारे पक्षों को यही अहसास दिलाया जाता है
कि हम अच्छे लोग हैं, वे बुरे। और इसीलिए
हमला या युद्ध चाहे कितना भी अनुचित क्यों न हो, वो हमेशा सही होता है!
चीन हथियारों के व्यापार
में तेज़ी से आगे बढ़ता देश है। दुनिया भर में सशस्त्र संघर्ष अविरत चलते रहते हैं।
युद्ध हथियारों के बाज़ार में तेज़ी ले आता है। प्रतिबंधित संगठनों के पास सेना वाले
आधुनिक हथियार हैं! मुमकिन है कि आगे
जाकर उनके पास परमाणु हथियार भी उपलब्ध हो जाए। हथियारों, उसके निर्माण, वितरण, इस्तेमाल, युद्ध, सभी को लेकर ढेरों
नियम और समझौते हैं। पालन किसका होता रहा यह सार्वजनिक है।
हमने ऊपर लिखा वैसे, कश्मीरी आतंकी संगठनों
के पास से अमेरिकी हथियार बरामद होते रहे हैं। संयोग से भारत और इज़राइल, दोनों ही अमेरिका
के बहुत गहरे दोस्त हैं। लेकिन सवाल यही है कि अमेरिका में निर्मित हथियार जैश-ए-मुहम्मद, पाकिस्तान में लश्कर-ए-तैयबा
और फ़िलिस्तीन में हमास जैसे आतंकी संगठनों के हाथों में कैसे पहुंच रहे हैं?
युद्ध एक बड़ा कारोबार है, युद्ध एक धंधा है।
लेकिन यह अब एक ख़ूनी धंधा है। जंग के दौरान दुनिया भर में हज़ारों मौतें होती हैं। यह
हमने कुवैत में देखा, इराक में देखा, यूक्रेन में देखा, इज़राइल और गाज़ा में भी देखा। दूसरों की बातें क्यों करें? हमने यह दशकों से
हमारे अपने घर के भीतर भी देखा। हज़ारों या लाखों मौतें अब तक भारत ने झेली हैं। इन
सबमें कॉमन यह है कि मौत का सामान बेचने वाले ही विश्व शांति की बातें करते दिखते
हैं और शांति के लिए नोबेल पुरस्कार घर ले जाते हैं!
हथियारों का सबसे बड़ा
सौदागर यूएसए इस बड़े धंधे के केंद्र में है। स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट
(सिपरी) की एक रिपोर्ट के अनुसार, 2013-17 और 2018-22 के बीच अमेरिका निर्मित हथियारों के निर्यात में 14 फ़ीसदी की बढ़ोतरी
हुई और 2018-22 की अवधि में ग्लोबल हथियारों के निर्यात में इसकी हिस्सेदारी 40 प्रतिशत थी। यह रिपोर्ट
मार्च 2023 की है।
रूस-यूक्रेन युद्ध
के दौरान अमेरिका यूक्रेन के साथ खड़ा हुआ। उसने यूक्रेन को जमकर हथियारों की आपूर्ति
की। अमेरिका में 9/11 हमले के बाद तालिबान के ख़िलाफ़ उसने अफ़ग़ानिस्तान में युद्ध छेड़ दिया। उसने
अरबों डॉलर के हथियार और रक्षा उपकरण वहाँ झोंक दिए। अफ़ग़ानिस्तान कभी भी किसी विदेशी
ताक़त के लिए आसान क्षेत्र नहीं रहा है। 1988 में सोवियत रूस के हमले की तरह, अमेरिका के नेतृत्व में नाटो अभियान भी नाकाम हो गया। पहले रूसी फौजें अफ़ग़ानिस्तान
से भागीं और उसके बाद अमेरिकी फौजों को भी किसी तरह इज़्ज़त बचाकर वहाँ से निकलना पड़ा।
ये सब बहुत पुरानी बातें नहीं हैं।
फ़रवरी 2020 में, तत्कालीन अमेरिकी
राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने तालिबान के साथ शांति समझौते पर हस्ताक्षर किए। इसमें
तय किया गया कि मई 2021 तक अफ़ग़ानिस्तान से सभी विदेशी सैनिक वापस चले जाएँगे। ट्रम्प के उत्तराधिकारी, राष्ट्रपति जो बाइडेन
ने भी इस समझौते से प्रतिबद्धता जताई, लेकिन विदेशी सैनिकों के वापसी की समय सीमा 31 अगस्त तक बढ़ा दी।
युद्धग्रस्त अफ़ग़ानिस्तान
में अमेरिका 7 अरब डॉलर से अधिक के हथियार और रक्षा उपकरण वहीं छोड़ आया! अमेरिका हथियारों का बहुत बड़ा सौदागर है। कोई सौदागर इतनी बड़ी मात्रा में हथियार
ऐसे कैसे छोड़ आया होगा, यह सवाल लाज़मी है। जानबूझकर छोड़े या ज़ल्दबाजी में, यह सवाल हमेशा के
लिए अनसुलझा रहेगा। बस इतना हुआ कि फिर तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान मे अधिकांश हिस्सों
पर कब्ज़ा कर लिया। स्वाभाविक है कि उन अरबों डॉलर के हथियारों पर भी कब्ज़ा हुआ होगा।
और इसका उपयोग पाकिस्तान और भारत के ख़िलाफ़ ही होगा। दोनों देश बहुत बड़े सौदागर अमेरिका
के दोस्त जो हैं!
जनवरी में, एनबीसी न्यूज ने भारतीय
अधिकारियों के हवाले से रिपोर्ट दी थी कि पाकिस्तान समर्थित आतंकवादी एम4, एम16 और अन्य अमेरिकी निर्मित
हथियारों और गोला-बारूद से लैस थे।
अमेरिकी रक्षा विभाग
ने अगस्त 2022 में अपनी रिपोर्ट में कहा था, "अफ़ग़ानिस्तान में जब चुनी हुई सरकार गिरी तो उसके पास 7.12 अरब डॉलर के अमेरिकी
हथियार थे। अधिकांश हथियारों को तालिबान ने ज़ब्त कर लिया था।" इनमें सैन्य विमान, ज़मीनी युद्ध वाहन, हथियार और अन्य सैन्य
उपकरण थे। इसमें ब्लैक हॉक्स और अन्य हेलीकॉप्टर, यूएस ह्यूमवीज़ और स्कैनईगल सैन्य ड्रोन भी शामिल थे। इसमें
एम16 असॉल्ट राइफल और एम4 कार्बाइन जैसे अत्याधुनिक हथियार थे, जो भारत विरोधी और इज़राइल विरोधी ताक़़तों के हाथ लग गए।
पिछले साल रायसीना
डायलॉग के दौरान, तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल एमएम नरवणे ने कहा था कि जम्मू कश्मीर में विदेशी हथियारों
और अन्य सैन्य उपकरणों की वृद्धि देखी जा रही है। ये वही हथियार थे, जो अफ़ग़ानिस्तान
में ज़ब्त किए गए थे। कश्मीर घाटी में सक्रिय पाकिस्तान समर्थित आतंकवादियों को अफ़ग़ानिस्तान
में अमेरिकी नेतृत्व वाले नाटो सैनिकों द्वारा छोड़ी गई स्टील-कोर बुलेट और नाइट-विज़न
ग्लासेज़ का इस्तेमाल करते हुए पाया गया। भारतीय सुरक्षा बलों के साथ मुठभेड़ों में
ऐसी अमेरिकी बुलेट का इस्तेमाल किया गया था, जिन्होंने सैनिकों के बुलेटप्रूफ जैकेट तक को तोड़ दिया था! यानी बुलेटप्रूफ जैकेट भी नाकाम रही थी!
कभी कभी लगता है कि
इन कारोबारियों को हमारा मीडिया जमकर साथ दे रहा है। अपने बचपन से ऐसा मीडिया देखा
है, जो हर नये हथियार
पर एक सरीखे शो पेश किया करता है। आ गया ये जहाज़, वो जहाज़, आ गया ये फाइटर जेट, वो फाइटर जेट, ये मिसाइल, वो मिसाइल टाइप शो। आ गया उसका काल, उसका विनाश, अब ये नहीं हो पाएगा, वो नहीं हो पाएगा। न जाने क्या क्या।
दरअसल, जो युद्ध लड़ता है उसके लिए युद्ध करना मज़बूरी, स्वाभिमान, गौरव, भावना सब कुछ होता
है। किंतु जिन हथियारों से युद्ध लड़े जाते हैं, उन हथियारों के निर्माताओं के लिए युद्ध
एक विशुद्ध और ख़ूनी धंधा होता होगा। धंधे में कारोबारी अच्छे-बुरे सभी से रिश्ते रखता
है और कारोबार बढ़ाने हेतु अच्छा-बुरा कुछ नहीं सोचता। पहले के समय एक जुमला हुआ करता
था कि दंगे होते नहीं, वो तो कराए जाते हैं। अब यही बात युद्ध के लिए कही जाने लगी है। लोग मरेंगे, तभी तो कारोबार ज़िंदा
रहेगा।
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)
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