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Dr. APJ Abdul Kalam: जनता के राष्ट्रपति की वो बेमिसाल यादें, मिसाइल मैन अब्दुल कलाम

 
ये वो शख़्सियत थे, जिन्होंने रक्षा विज्ञान को देश की जनता के बीच सदैव के लिए सम्मानित रूप से स्थापित कर दिया। वो शख़्सियत, जो राष्ट्रपति बने तो अपने पूरे कार्यकाल के दौरान आम जनता के बीच उनके अपने बनकर रहे। वो शख़्सियत, जो किसी भी रूप में बच्चों और युवा छात्रों के साथ उनके बीच बैठ कर उनसे बतियाते नज़र आते रहे।

बचपन में सड़कों पर अख़बार व इमली के बीज बेच कर अपनी पढ़ाई की, किंतु ज़िंदगी में कभी भी उस बात को पेश कर जनता की भावना को जीतने का फूहड़ प्रयास नहीं किया। वे जब बतौर राष्ट्रपति अपना कार्यकाल पूरा कर राष्ट्रपति भवन छोड़ रहे थे, तब देश ने उनके सामान में कुछ किताबें और एक सूटकेस के सिवा कुछ नहीं देखा! बतौर राष्ट्रपति, एक कार्यक्रम के दौरान सामान्य आदमी की तरह मंच की सीढ़ियों पर बैठ कर पत्रकारों और आम नागरिकों के साथ संवाद स्थापित करने का अद्भुत द्दश्य प्रदान कर गए!

एक ऐसे वैज्ञानिक, जिन्होंने अपनी पूरी ज़िंदगी देश की सेना के लिए रक्षा उपकरण बनाने में तथा देश के अंतरिक्ष कार्यक्रमों के लिए ख़र्च कर दी। जिन्होंने डॉ. होमी भाभा और डॉ. विक्रम साराभाई के सपनों को सच करने में ख़ुद को झोंक दिया। जो भारत में मिसाइल मैन के नाम से पहचाने जाने लगे। वे जब देश के सर्वोच्च पद पर पहुंचे तो जनता के राष्ट्रपति के नाम से आम जनता के दिलों में बस गए। किसी भी रूप में हो, वैज्ञानिक या फिर राष्ट्रपति, वे युवा छात्रों के साथ एक सामान्य शिक्षक की तरह मिलते बैठते नज़र आते।

पूरा नाम अवुल पकिर जैनुलाब्दीन अब्दुल कलाम। इन्हें डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम के नाम से भी जाना जाता है। भारतीय जनता के बीच वे मिसाइल मैनके नाम से लोकप्रिय हैं। पूरे सम्मान के साथ इन्हें जनता के राष्ट्रपति विशेषण से नवाज़ा जाता है। जन्म 15 अक्टूबर 1931 के दिन। निधन 27 जुलाई 2015। जाने माने रक्षा वैज्ञानिक और अभियंता, भारत के पूर्व राष्ट्रपति और भारत के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से सम्मानित शख़्सियत।
 
कलाम एक समर्पित व कर्तव्यनिष्ठ रक्षा वैज्ञानिक तो थे हीं, जाने माने रक्षा वैज्ञानिक होने के बाद भी जब वो देश के सर्वोच्च पद पर पहुंचे तब वे पहले से ज़्यादा विनम्र और पहले से ज़्यादा लोकप्रिय बने। उन्हें यूँ ही जनता के राष्ट्रपति के नाम से नहीं जाना जाता।

उनकी लोकप्रियता, उनके प्रति आम जनता में सम्मान, उनके नाम का ज़िक्र होते ही जनता के दिल में प्यार-सम्मान और गर्व का उठना, ये सब उनके जीवन, उनकी सोच, देश के प्रति उनका अगाध लगाव तथा आम जनता के बीच रहकर, विशेषत: युवा छात्रों के साथ समय बिताते हुए अपने महान कार्यों को करते रहने का उनका अंदाज़, का प्रतिबिंब है। इनकी कथनी और करनी में बिलकुल अंतर नहीं था। शायद यही ख़ासियत उन्हें जनता के राष्ट्रपति जैसे अतिविशेष सम्मान के क़ाबिल बनाती है।
 
कलाम ने मुख्य रूप से एक वैज्ञानिक और विज्ञान के व्यवस्थापक के रूप में चार दशकों तक डीआरडीओ और इसरो में अपनी सेवाएँ दीं। वे भारत के नागरिक अंतरिक्ष कार्यक्रम और सैन्य मिसाइल के विकास के प्रयासों में भी शामिल रहे। 1998 में भारत के दूसरे परमाणु परीक्षण के ऐतिहासिक कार्य में वे प्रमुख हिस्सा थे।

लापरवाही से कपड़े पहनने वाले और स्पोर्ट्स शू में दिखने वाले वैज्ञानिक, जो राष्ट्रपति के पद पर पहुंचे और फिर कलाम सूट बना
वे जिस तरह का काम करते थे, उन्हें राजनेताओं और दूसरे लोगों से मिलना होता था। कलाम को इस तरह के औपचारिक मौक़ों से चिढ़ थी, जहाँ उन्हें उस तरह के कपड़े पहनने पड़ते थे, जिसमें वो अपनेआप को कभी सहज नहीं पाते थे। सूट पहनना उन्हें कभी रास नहीं आया। यहाँ तक कि वो चमड़े के जूतों की जगह हमेशा स्पोर्ट्स शू पहनना ही पसंद करते थे।
 
अगस्त 1980 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने उन्हें और प्रोफ़ेसर सतीश धवन को एसएलवी 3 के सफलतापूर्ण प्रक्षेपण के बाद प्रमुख साँसदों से मिलने के लिए बुलाया था। कलाम को जब इस आमंत्रण की ख़बर मिली तो वो घबरा गए और धवन से बोले, सर, मेरे पास न तो सूट है और न ही जूते। मेरे पास ले दे के मेरी चेर्पू है। चेर्पू चप्पल के लिए इस्तेमाल होने वाला तमिल शब्द है। तब सतीश धवन ने मुस्कुराते हुए उनसे कहा, कलाम, तुम पहले से ही सफलता का सूट पहने हुए हो। इसलिए हर हालत में वहाँ पहुंचो।

कलाम का सीधे सादे वस्त्र पहनना आगे जाकर कलाम सूट बनने की कहानी में परिवर्तित हो गया। दरअसल, कलाम के राष्ट्रपति बनने के बाद सबसे बड़ी समस्या ये आई कि वो पहनेगें क्या? बरसों से नीली कमीज़ और स्पोर्ट्स शू पहन रहे कलाम राष्ट्रपति के रूप में तो वो सब पहन नहीं सकते थे। राष्ट्रपति भवन का एक दर्ज़ी था, जिसने पिछले कई राष्ट्रपतियों के सूट सिले थे। एक दिन आ कर उसने राष्ट्रपति कलाम की भी नाप ले डाली।


कलाम के जीवनीकार और सहयोगी अरुण तिवारी अपनी किताब 'एपीजे अब्दुल कलाम अ लाइफ़' में लिखते हैं, कुछ दिनों बाद दर्ज़ी कलाम के लिए चार नए बंद गले के सूट सिल कर ले आया। कुछ ही मिनटों में हमेशा लापरवाही से कपड़े पहनने वाले कलाम की काया ही बदल गई। लेकिन कलाम इससे ख़ुद ख़ुश नहीं थे। उन्होंने मुझसे कहा कि मैं तो इसमें साँस ही नहीं ले सकता। क्या इसके कट में कोई परिवर्तन किया जा सकता है?”
 
परेशान दर्ज़ी सोचते रहे कि क्या किया जाए। कलाम ने ख़ुद ही सलाह दी कि इसे आप गर्दन के पास से थोड़ा काट दीजिए। इसके बाद से कलाम के इस कट के सूट को 'कलाम सूट' कहा जाने लगा।
 
अरुण तिवारी लिखते हैं, कलाम को टाई पहनने से भी नफ़रत थी। बंद गले के सूट की तरह टाई से भी उनका दम घुटता था। एक बार मैंने उन्हें अपनी टाई से अपना चश्मा साफ़ करते हुए देखा। मैंने उनसे कहा कि आपको ऐसा नहीं करना चाहिए। उनका जवाब था, टाई पूरी तरह से उद्देश्यहीन वस्त्र है। कम से कम मैं इसका कुछ तो इस्तेमाल कर रहा हूँ।
 
उन्हें कोई महामहिम कहता तो वे ऊब जाते, वो अद्भुत द्दश्य जब राष्ट्रपति होते हुए भी मंच के फ़र्श पर बैठकर पत्रकारों से संवाद करने लगे
एक बार तो ऐसा अद्भुत द्दश्य देखने को मिला, जो समझा गया कि क्यों कलाम जन जन में इतने लोकप्रिय हैं। यह द्दश्य सरकार और उनके प्रतिनिधियों का पत्रकारों के साथ खुला संवाद कितना ज़रूरी है, यह भी दर्शाता है।
 
वर्ष 2007 था। रामनाथ गोयनका पत्रकारिता पुरस्कार के वार्षिक समारोह के अवसर पर राष्ट्रपति कलाम को पुरस्कार देने के लिए आमंत्रित किया गया था। मंच पर राष्ट्रपति कलाम की उपस्थिति में कलाम, पत्रकार और दूसरे लोगों के बीच खुला संवाद चल रहा था। तब अब्दुल कलाम राष्ट्रपति थे। उन्हें तयशुदा समय के अनुसार चलना था। वे अपना वक़्त देकर अपने अगले तय कार्यक्रम हेतु जाने लगे।
 
वे मंच से नीचे ही उतर रहे थे, तभी एक पत्रकार ने उनसे कहा कि वहाँ जो दूसरा पत्रकार है वो आपके सवालों का जवाब दे रहा है। यहाँ पहला सवाल तो यही आता है कि आज के समय में क्या यह मुमकिन है कि कोई पत्रकार किसी सामान्य मंत्री तक को टोक दें? कलाम अति प्रसिद्ध रक्षा वैज्ञानिक व भारत रत्न होने के साथ साथ देश के राष्ट्रपति थे। किंतु यह कलाम के उस संवाद का ही कमाल कह लीजिए कि हर कोई उनसे अपना बनकर बात कर सकता था!

 
पत्रकार की बात सुनकर कलाम वहीं रुक गए और वापस आने लगे। उन्होंने आव देखा न ताव, बस वहीं फ़र्श पर बैठ गए!!! एक-दो मिनट तक संवाद को चलने दिया। राष्ट्रपति के सुरक्षा गार्ड भौचक्के थे कि वे क्या करे? क्योंकि स्वयं राष्ट्रपति फ़र्श पर बैठ कर संवाद कर रहे थे, गार्ड खड़े थे! पत्रकारों से एक राष्ट्रपति का इस अंदाज़ में संवाद!!! यह वो पल था, जब देश का सर्वोच्च शख़्स अपने देश की जनता से सीधे सीधे जुड़ा था।
 
बतौर राष्ट्रपति एक बार कलाम आईआईटी (बीएचयू) के दीक्षांत समारोह में मुख्य अतिथि बनकर गए। वहाँ मंच पर जाकर उन्होंने देखा कि जो पाँच कुर्सियाँ रखी गई हैं, उनमें बीच वाली कुर्सी का आकार बाकी चार से बड़ा है। यह कुर्सी राष्ट्रपति के लिए ही थी और यही इसके बाकी से बड़ा होने का कारण भी था। कलाम ने इस कुर्सी पर बैठने से मना कर दिया। उन्होंने वाइस चांसलर से उस कुर्सी पर बैठने का अनुरोध किया। वीसी भला ऐसा कैसे कर सकते थे? जनता के राष्ट्रपति के लिए तुरंत दूसरी कुर्सी मंगाई गई, जो साइज़ में बाकी कुर्सियों जैसी ही थी।
 
राष्ट्रपति बनने के बाद वे पहली बार केरल गए थे। उनका ठहरना राजभवन में हुआ था। वहाँ उनके पास आने वाला सबसे पहला मेहमान कोई नेता या अधिकारी नहीं था। वो था सड़क पर बैठने वाला एक मोची और एक छोटे से होटल का मालिक! एक वैज्ञानिक के तौर पर कलाम ने त्रिवेंद्रम में काफी समय बिताया था। इस मोची ने कई बार उनके जूते गांठे थे और उस छोटे से होटल में कलाम ने कई बार खाना खाया था।
 
रात को अक़्सर कुरान और गीता पढ़ने वाले कलाम पक्के शाकाहारी थे, लंच दोपहर के बाद और डिनर आधी रात को!
कलाम को रुद्र वीणा बजाना बहुत पसंद था। बतौर राष्ट्रपति, वे समय निकालकर भी ये किया करते! कलाम के प्रेस सचिव रहे एसएम ख़ाँ के मुताबिक़ कलाम अपना नाश्ता सुबह साढ़े दस बजे लेते थे। इसलिए उनके लंच में देरी हो जाती थी। उनका लंच दोपहर साढ़े चार बजे होता था और डिनर अक़्सर रात 12 बजे के बाद!
 
एसएम ख़ाँ के अनुसार कलाम नियम से सुबह यानि फ़ज्र की नमाज़ पढ़ा करते थे। वे अक़्सर रात को कुरान और गीता पढ़ा करते। कलाम पक्के शाकाहारी थे और शराब से उनका दूर दूर का वास्ता नहीं था। जब वे राष्ट्रपति बने तो जहाँ उन्हें जाना हो और भोजन लेना हो, वहाँ निर्देश भेज दिए जाते कि उन्हें शाकाहारी खाना ही परोसा जाए।
 
कलाम को सूट-टाई के अलावा एक और चिढ़ थी। उनको महामहिम या 'हिज़ एक्सेलेंसी' कहलाना भी क़तई पसंद नहीं आया। वे इससे ऊब जाया करते।
 
मिसाइल और वीणा का संगम हो सकता है भला? परमाणु बम और कविता एक साथ कैसे आ सकते है? इसके लिए तो कमाल करना पड़ता है। है न? जवाब है बिलकुल नहीं। कमाल नहीं करना पड़ता, कलाम ऐसा कर सकते हैं।
 
अपने परिवार को राष्ट्रपति भवन में ठहराने के लिए कलाम ने काटा साढ़े तीन लाख का चेक!
कलाम को अपने बड़े भाई एपीजे मुत्थू मरईकयार से बहुत प्यार था। लेकिन उन्होंने कभी उन्हें अपने साथ राष्ट्रपति भवन में रहने के लिए नहीं कहा। उनके भाई का पोता ग़ुलाम मोइनुद्दीन उस समय दिल्ली में काम कर रहा था, जब कलाम भारत के राष्ट्रपति थे। लेकिन वो तब भी मुनिरका में किराए के एक कमरे में रहा करता था।
 
मई 2006 में कलाम ने अपने परिवार के लोगों को दिल्ली आमंत्रित किया। ये लोग आठ दिन तक राष्ट्रपति भवन में रुके। कलाम के सचिव रहे पीएम नायर बीबीसी को बताते हैं, कलाम ने उनके राष्ट्रपति भवन में रुकने का किराया अपनी जेब से दिया। यहाँ तक कि एक प्याली चाय तक का भी हिसाब रखा गया। वे लोग एक बस में अजमेर शरीफ़ भी गए, जिसका किराया कलाम ने भरा। उनके जाने के बाद कलाम ने अपने अकाउंट से तीन लाख बावन हज़ार रुपयों का चेक काट कर राष्ट्रपति भवन कार्यालय को भेजा।

 
सोचिए, नेता लोग सरकारी ख़र्चे पर अपना नहीं, अपनी आने वाली दो-चार पीढ़ी तक का सेटिंग कर जाते हैं। उनका पूरा ख़र्चा बेचारी जनता उठाती रहती है। यहाँ देश का राष्ट्रपति एक प्याली चाय का पैसा अपनी जेब से दे रहा था!
 
उनके राष्ट्रपति रहते ये बात किसी को पता नहीं चली। बाद में जब उनके सचिव नायर ने उनके साथ बिताए गए दिनों पर किताब लिखी, तब पहली बार इसका ज़िक्र किया।
 
दिसंबर 2005 में उनके बड़े भाई, बड़े भाई की बेटी और उनका पोता हज करने मक्का गए थे। जब सऊदी अरब में भारत के राजदूत को इस बारे में पता चला, तो उन्होंने राष्ट्रपति को फ़ोन कर परिवार को हर तरह की मदद देने की पेशकश की। कलाम का जवाब था, मेरा आपसे यही अनुरोध है कि मेरे 90 साल के भाई को बिना किसी सरकारी व्यवस्था के एक आम तीर्थयात्री की तरह हज करने दें।
 
राष्ट्रपति भवन में इफ़्तार पार्टी नहीं कर पार्टी के ऊपर ख़र्च होने वाला पैसा अनाथालय को दे दिया, विशेषज्ञों तक को चुप कराने की क़ाबिलियत रखने वाले कलाम जब एक बच्चे की बात पर निशब्द हो गए थे
पीएम नायर एक दिलचस्प क़िस्सा सुनाते हैं। वे कहते हैं, एक बार नवंबर 2002 में कलाम ने मुझे बुला कर पूछा कि ये बताइए कि हम इफ़्तार भोज का आयोजन क्यों करें? वैसे भी यहाँ आमंत्रित लोग खाते पीते लोग होते हैं। आप इफ़्तार पर कितना ख़र्च करते हैं?” राष्ट्रपति भवन के आतिथ्य विभाग को फ़ोन लगाया गया। उन्होंने बताया कि इफ़्तार भोज में मोटे तौर पर ढाई लाख रुपए का ख़र्च आता है। कलाम ने कहा, हम ये पैसा अनाथालय को क्यों नहीं दे सकते? आप अनाथालयों को चुनिए और ये सुनिश्चित करिए कि ये पैसा बरबाद न जाए।
 
राष्ट्रपति भवन की ओर से इफ़्तार के लिए निर्धारित राशि से आटा, दाल, कंबलों और स्वेटरों का इंतज़ाम किया गया और उसे 28 अनाथालयों के बच्चों में बाँटा गया। लेकिन बात यहीं ख़त्म नहीं हुई। कलाम ने नायर को फिर बुलाया और जब कमरे में वो और नायर अकेले थे, कलाम ने उनसे कहा, ये सामान तो आपने सरकार के पैसे से ख़रीदवाया है। इसमें मेरा योगदान तो कुछ भी नहीं है। मैं आपको 1 लाख रुपए का चेक दे रहा हूँ। उसका भी उसी तरह इस्तेमाल करिए, जैसे आपने इफ़्तार के लिए निर्धारित पैसे का किया है। लेकिन किसी को ये मत बताइए कि ये पैसे मैंने दिए हैं।''
 
किसी भी मंच पर, किसी भी विषय पर, किसी भी विशेषज्ञ के सामने बेझिझक बोलने वाले कलाम एक बार एक बच्चे की बात पर निरुत्तर हो गए थे। गोधरा दंगों के बाद राष्ट्रपति कलाम गुजरात दौरे पर थे। अपनी किताब टर्निंग प्वाइंट्स में कलाम लिखते हैं, ''जब मैंने एक राहत शिविर का दौरा किया, तो एक छह साल का बच्चा मेरे पास आया और हाथ जोड़कर कहा- राष्ट्रपतिजी, मुझे मेरे माता और पिता चाहिए। मैं निशब्द हो गया। मैंने तुरंत वहाँ के ज़िलाधिकारी से बैठक की और राज्य के मुख्यमंत्री ने भी मुझसे वादा किया कि बच्चे की शिक्षा और बाकी ख़र्च सरकार उठाएगी।''
 
ग़ैर राजनीतिक राष्ट्रपति, दया याचिका और बिहार में राष्ट्रपति शासन को लेकर आलोचना
डॉ. कलाम शायद भारत के पहले ग़ैर राजनीतिक राष्ट्रपति थे। डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन भी पूरी तरह से ग़ैर राजनीतिक नहीं थे, क्योंकि वे सोवियत संघ में भारत के राजदूत रह चुके थे।
 
बतौर राष्ट्रपति उनके कार्यकाल के दौरान 21 दया याचिकाओं में से 20 याचिकाओं पर फ़ैसला न कर पाने की वजह से उनकी आलोचना भी की गई। डॉ. कलाम अपने कार्यकाल के दौरान केवल 1 ही याचिका पर कार्य कर पाए, जब उन्होंने धनंजय चटर्जी की अर्ज़ी ख़ारिज की और उसके बाद धनंजय चटर्जी को फाँसी दी गई।
 
कलाम की राजनीतिक अनुभवहीनता तब उजागर हुई, जब उन्होंने 22 मई की आधी रात को बिहार में राष्ट्रपति शासन लगाने का अनुमोदन कर दिया। वो भी उस समय, जब वो रूस की यात्रा पर थे। बिहार विधानसभा चुनाव में किसी भी पार्टी को बहुमत न मिलने पर राज्यपाल बूटा सिंह ने बिना सभी विकल्पों को तलाशे बिहार में राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफ़ारिश कर दी। केंद्रीय मंत्रिमंडल ने एक बैठक के बाद उसे तुरंत राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के लिए फ़ैक्स से मास्को भेज दिया। कलाम ने इस सिफ़ारिश पर रात डेढ़ बजे दस्तख़त कर दिए।

 
लेकिन पाँच महीने बाद सुप्रीम कोर्ट ने इस आदेश को ग़ैरसंवैधानिक क़रार दे दिया, जिसकी वजह से यूपीए सरकार और ख़ुद कलाम की बहुत किरकिरी हुई।
 
डॉ. कलाम ने ख़ुद अपनी किताब 'अ जर्नी थ्रू द चैलेंजेज़' में ज़िक्र किया कि वो सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले से इतना आहत हुए कि उन्होंने इस मुद्दे पर इस्तीफ़ा देने का मन बना लिया था, लेकिन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उन्हें ये कह कर ऐसा न करने के लिए मनाया कि इससे देश में बवंडर हो जाएगा।
 
कलाम ने मुशर्रफ़ को हैंडल कर लिया
पत्रकार रेहान फ़ज़ल एक क़िस्सा सुनाते हैं। जब साल 2005 में जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ भारत आए तो वो तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ साथ राष्ट्रपति कलाम से भी मिले। मुलाक़ात से एक दिन पहले कलाम के सचिव पीएम नायर उनके पास ब्रीफ़िंग के लिए गए।

पीएम नायर ने बताया, ''सर, कल मुशर्ऱफ़ आपसे मिलने आ रहे हैं।'', कलाम ने जवाब दिया, ''हां, मुझे पता है।''
 
नायर ने कहा, ''वो ज़रूर कश्मीर का मुद्दा उठाएंगे। आपको इसके लिए तैयार रहना चाहिए।''  कलाम एक क्षण के लिए ठिठके, उनकी तरफ़ देखा और कहा, ''उसकी चिंता मत करो। मैं सब संभाल लूंगा।''
 
अगले दिन ठीक सात बज कर तीस मिनट पर परवेज़ मुशर्रफ़ अपने क़ाफ़िले के साथ राष्ट्रपति भवन पहुंचे। उन्हें पहली मंज़िल पर नॉर्थ ड्राइंग रूम में ले जाया गया। कलाम ने उनका स्वागत किया। उनकी कुर्सी तक गए और उनकी बग़ल में बैठे। दोनों के बीच मुलाक़ात का वक़्त तीस मिनट तय था।
 
कलाम ने बोलना शुरू किया, ''राष्ट्रपति महोदय, भारत की तरह आपके यहाँ भी बहुत से ग्रामीण इलाक़े होंगे। आपको नहीं लगता कि हमें उनके विकास के लिए जो कुछ संभव हो करना चाहिए?''
 

जनरल मुशर्रफ़ हाँ के अलावा और क्या कह सकते थे? कलाम ने कहना शुरू किया, ''मैं आपको संक्षेप में पूरा के बारे में बताऊंगा। पूरा का मतलब है प्रोवाइंडिंग अर्बन फ़ैसेलिटीज़ टू रूरल एरियाज़।''
 
पीछे लगी प्लाज़मा स्क्रीन पर हरकत हुई और कलाम ने अगले 26 मिनट तक मुशर्रफ़ को लेक्चर दिया कि पूरा का क्या मतलब है और अगले 20 सालों में दोनों देश इसे किस तरह हासिल कर सकते हैं।
 
तीस मिनट बाद मुशर्रफ़ ने कहा, ''धन्यवाद राष्ट्रपति महोदय। भारत भाग्यशाली है कि उसके पास आप जैसा एक वैज्ञानिक राष्ट्रपति हैं।''
 
हाथ मिलाए गए और नायर ने अपनी डायरी में लिखा, ''कलाम ने आज दिखाया कि वैज्ञानिक भी कूटनीतिक हो सकते हैं।''
 
मुशर्रफ़ को राष्ट्रपति कलाम ने कमाल तरीक़े से हैंडल कर लिया!
 
मोर का ट्यूमर निकलवाया, तंज़ानिया के बच्चों की मुफ़्त हार्ट सर्जरी, आम आदमी को मदद करने में कभी हिचके नहीं कलाम
आजकल तो मोर को दाना देकर फ़ोटू खींचाने का चलन है, या फिर झूठी कहानियाँ बनाकर ख़ुद को ग़रीब बताने का प्रोपेगेंडा भी है। किंतु कलाम मूल रूप से कोई राजनेता नहीं थे। जैसे कलाम ने अपने बचपन के उन दिनों को कभी गाहे बगाहे नहीं कहा, जब वे अख़बार और इमली के बीज बेचा करते थे, ठीक वैसे ही वे अपने मज़बूत मानवीय पक्ष और समाज को मदद करने वाले क़िस्से कभी कहा नहीं करते थे।
 
कलाम का मानवीय पक्ष बहुत मज़बूत था। एक बार वो जाड़े के दौरान राष्ट्रपति भवन के गार्डन में टहल रहे थे। उन्होंने देखा कि सुरक्षा गार्ड के केबिन में हीटिंग की कोई व्यवस्था नहीं है और कड़ाके की ठंड में सुरक्षा गार्ड की कंपकपी छूट रही है। उन्होंने तुरंत संबंधित अधिकारियों को बुलाया और उनसे गार्ड के केबिन में जाड़े के दौरान हीटर और गर्मी के दौरान पंखा लगवाने की व्यवस्था करवाई।
 
एसएम ख़ाँ बीबीसी को एक क़िस्सा सुनाते हुए कहते हैं, एक बार राष्ट्रपति भवन के गार्डन में टहलने के दौरान उन्होंने देखा कि एक मोर अपना मुँह नहीं खोल पा रहा है। उन्होंने तुरंत राष्ट्रपति भवन के वेटरनरी डॉक्टर सुधीर कुमार को बुला कर मोर की स्वास्थ्य जाँच करने के लिए कहा। जाँच करने पर पता चला कि मोर के मुँह में ट्यूमर है, जिसकी वजह से वो न तो अपना मुँह खोल पा रहा है और न ही बंद कर पा रहा है। वो कुछ भी खा नहीं पा रहा था और बहुत तकलीफ़ में था। कलाम के कहने पर डॉक्टर कुमार ने उस मोर की आपात सर्जरी की और उसका ट्यूमर निकाल दिया। उस मोर को कुछ दिनों तक आईसीयू में रखा गया और पूरी तरह ठीक हो जाने के बाद गार्डन में छोड़ दिया गया।

 
15 अक्टूबर 2005 को अपने जन्मदिन के दिन कलाम हैदराबाद में थे। उनके दिन की शुरुआत हुई हृदय रोग से पीड़ित तंज़ानिया के कुछ बच्चों से मुलाक़ात के साथ, जिनका हैदराबाद के केयर अस्पताल में ऑपरेशन किया गया था। उन्होंने हर बच्चे के सिर पर हाथ फेरा और उन्हें टॉफ़ी का एक एक डिब्बा दिया, जिन्हें वे दिल्ली से लाए थे। बाहर राज्य के राज्यपाल और मुख्यमंत्री सरीखे शख़्स इंतज़ार करते हुए बैठे थे। बतौर अरुण तिवारी, बाहर बैठे लोगों तक को पता नहीं था कि इन बच्चों को कलाम इतनी तरजीह क्यों दे रहे हैं?
 
अरुण तिवारी कलाम की जीवनी में लिखते हैं, हुआ ये कि सितंबर 2000 में तंज़ानिया की यात्रा के दौरान कलाम को पता चला कि वहाँ जन्मजात दिल की बीमारी से पीड़ित बच्चे बिना किसी इलाज़ के मर रहे हैं। वहाँ से लौटने के बाद उन्होंने मुझसे कहा कि किसी भी तरह इन बच्चों और उनकी माओं को हैदराबाद लाने की मुफ़्त व्यवस्था करो। उन्होंने मुझसे वी तुलसीदास से बात करने के लिए कहा, जो उस समय एयर इंडिया के अध्यक्ष और प्रबंध निदेशक थे। वो इस काम में मदद करने के लिए राज़ी हो गए। फिर केयर अस्पताल के प्रमुख डॉक्टर और वहाँ के प्रमुख हार्ट सर्जन भी इनका मुफ़्त इलाज़ करने के लिए तैयार हो गए। भारत में तंज़ानिया की उच्चायुक्त इवा न्ज़ारो इन बच्चों की पहचान के लिए तंज़ानिया गईं। 24 बच्चों और उनकी माओं को वहाँ से हैदराबाद लाया गया। केयर फ़ाउंडेशन ने 50 लोगों के ठहरने और खाने की मुफ़्त व्यवस्था की। ये सब लोग हैदराबाद में एक महीने रुक कर इलाज़ कराने के बाद सकुशल तंज़ानिया लौटे।
 
जब राष्ट्रपति कलाम सैम मानेक शॉ से मिले, अनेक प्रधानमंत्रियों और राष्ट्रपतियों ने जो नहीं किया, कलाम ने तुरंत वह कर दिखाया
जब बतौर राष्ट्रपति कलाम का कार्यकाल ख़त्म होने को आया, तो उन्होंने 1971 की लड़ाई के हीरो फ़ील्ड मार्शल सैम मानेक शॉ से मिलने की इच्छा प्रकट की। वही सैम, जिन्हें अपने कारनामों की वजह से सैम बहादुर के नाम से जाना जाता है। कलाम फ़रवरी 2007 में उनसे मिलने ऊटी भी गए।
 
उनसे मिलने के बाद कलाम को अंदाज़ा हो गया कि मानेक शॉ को फ़ील्ड मार्शल जैसी पदवी तो दे दी गई है, लेकिन उसके साथ मिलने वाले भत्ते और सुविधाएं नहीं दी गई हैं। दिल्ली लौटने के बाद उन्होंने इस दिशा में कुछ करने का फ़ैसला किया।
 
अनेक प्रधानमंत्रियों और राष्ट्रपतियों ने जो नहीं किया था, कलाम ने उसे कर दिया। फ़ील्ड मार्शल मानेक शॉ के साथ साथ मार्शल अर्जन सिंह को भी सारे बकाया भत्तों का भुगतान कराया गया। उस दिन से, जिस दिन से उन्हें ये पद दिया गया था।
 
कलाम का आम जनता और सेना के लोगों में क्या स्थान था इस बात को उस द्दश्य से समझा जा सकता है, जब डॉ. कलाम के पार्थिव शरीर को आख़िरी सलाम देने, सेना की पोशाक में 94 साल के भारतीय वायु सेना के इकलौते मार्शल अर्जन सिंह तक पहुंचे थे। शारीरिक अस्वस्थता को दरकिनार कर मार्शल व्हील चेयर से उठ खड़े हुए और तनकर कलाम के पार्थिव शरीर को सलामी दी।
 
जब राष्ट्रपति कलाम ने एक विधेयक को अस्वीकार कर सीधे संसद को भेजने की हिम्मत दिखाई
ऐसा पहली बार हुआ था कि राष्ट्रपति ने किसी विधेयक को पुनर्विचार के लिए मंत्रिमंडल को न भेजकर सीधे संसद को भेजा हो। यह एक दुर्लभ वापसी थी।
 
यह 'लाभ का पद' वाला विधेयक था। यूपीए सरकार सत्ता में थी। संसद से पारित होकर ये विधेयक राष्ट्रपति के पास पहुंचा। कलाम ने अपने स्टाफ़ के साथ सलाह मशविरा किया। और फिर वह कर दिया, जिसे दुर्लभ वापसी कहा गया। उन्होंने इस विधयेक को मंत्रिमंडल को न भेज, वापस संसद के दोनों सदनों को ही भेज दिया।
 
ये मामला सीधे सोनिया गांधी से जुड़ा हुआ था और आख़िर उन्हें संसद से इस्तीफ़ा देकर एक बाऱ फिर रायबरेली से चुनाव लड़ना पड़ा था।
 
इसके बाद यूपीए सरकार ने इस बिल में बिना किसी बदलाव किए, दुबारा इसे संसद से पास कराकर राष्ट्रपति के पास भेज दिया। संविधान के मुताबिक़ दूसरी बार बिल भेजने पर राष्ट्रपति के पास इसे मंजूरी देने के अलावा कोई चारा नहीं था।
 
कलाम उन सबसे कम शख़्सियतों में शुमार हैं, जो भारत में सर्वस्वीकार्य लोगों की सूची में आते हैं। भारत का कोई भी हिस्सा हो, किसी भी राज्य- प्रांत- धर्म- जाति- उम्र का व्यक्ति हो, वे सबके बीच लोकप्रिय हैं। कलाम साहब का कमाल कह लीजिए कि वे अपने किसी भी रूप में हो, वैज्ञानिक- राष्ट्रपति या लेक्चरर, वे आम जनता को अपना हिस्सा ही लगते। उनके संपर्क में जो भी आया, उनके प्रभाव से बच नहीं पाया।

 
सन् 1958 में अपने करियर की शुरुआत करने वाले कलाम इतना काम, इतनी सफलता, इतनी लोकप्रियता के बाद भी शिक्षा की अहमियत अपनी किताब में लिखकर तथा अनेक बार कार्यक्रमों में बोलकर समझाते रहे। वे अपनी जीवन यात्रा को याद करते हुए कहते डॉ. विक्रम साराभाई, प्रोफ़ेसर सतीश धवन और डॉ. ब्रह्म प्रकाश को महान शिक्षक बताने से कभी नहीं हिचके।
 
पृथ्वी, अग्नि, नाग, त्रिशूल, आकाश से लेकर ब्रह्मोस तक की फौज खड़ी करने में प्रमुख भूमिका निभाने वाले कलाम मुक्त मन से कहा करते, “2000 वर्षों के इतिहास में भारत पर 600 वर्षों तक अन्य लोगों ने शासन किया है। यदि आप विकास चाहते हैं तो देश में शांति की स्थिति होना आवश्यक है और शांति की स्थापना शक्ति से होती है। इसी कारण प्रक्षेपास्त्रों को विकसित किया गया, ताकि देश शक्ति सम्पन्न हो।
 
रक्षा वैज्ञानिक, राष्ट्रपति, लेक्चरर के अलावा वे लेखक भी थे। उनके द्वारा लिखी गयी पुस्तकें बहुत लोकप्रिय रही हैं। वे अपनी किताबों की रॉयल्टी का अधिकांश हिस्सा स्वयंसेवी संस्थाओं को मदद में दे देते थे।
 
27 जुलाई 2015 की शाम अब्दुल कलाम भारतीय प्रबंधन संस्थान शिलॉन्ग में 'रहने योग्य ग्रह' पर एक व्याख्यान दे रहे थे, जब उन्हें ज़ोरदार कार्डियक अटैक हुआ और बेहोश हो कर गिर पड़े। इन्हें बेथानी अस्पताल ले जाया गया, किंतु बचाया नहीं जा सका। उन्हें जो काम सबसे ज़्यादा पसंद था वही काम करते हुए वे चल बसे।
 
मिसाइल मैन, जनता के राष्ट्रपति, शिक्षा के आग्रही, बच्चों और युवाओं के साथी अब्दुल कलाम ने एक बार जो कहा था, वही तो उनकी महान जीवन यात्रा का सारांश है। उन्होंने कहा था, मैं यह बहुत गर्वोक्तिपूर्वक तो नहीं कह सकता कि मेरा जीवन किसी के लिये आदर्श बन सकता है; लेकिन जिस तरह मेरी नियति ने आकार ग्रहण किया, उससे किसी ऐसे ग़रीब बच्चे को सांत्वना अवश्य मिलेगी, जो किसी छोटी सी जगह पर सुविधाहीन सामाजिक दशाओं में रह रहा हो। शायद यह ऐसे बच्चों को उनके पिछड़ेपन और निराशा की भावनाओं से विमुक्त होने में अवश्य सहायता करे। 
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)