परिवर्तन संसार का नियम है। यूँ कहे कि परिवर्तन ही संसार का पहला और अंतिम नियम
है। चलत्व ही सत्य है। दुनिया, सभ्यता, संस्कृति, ज़माना, सब कुछ शताब्दियों से बदलता रहा है और बदलता रहेगा। कोई इससे
अछूता नहीं है। ज़माना बदलता रहा है, बदलता रहेगा। यूँ तो
भारत में स्वतंत्रता के पश्चात सबसे बड़ा बदलाव ग्लोबलाइजेशन पॉलिसी के बाद देखा गया, जिसने सब कुछ बदल कर रख दिया।
देखा जाए तो आज के
समय में परिवर्तन की गति बहुत ही अति है! आज हम जो उत्पाद, चीज़ें या सेवा इस्तेमाल करते हैं, दूसरे दिन उसमें बहुत बड़ा परिवर्तन आ चुका होता है! बावजूद
इसके हर ज़माने में कुछ ऐसी चीज़ें होती हैं, जो ताउम्र याद आती हैं।
यूँ तो मानवजीवन का
सफ़र बहुत ही पुराना है। और हम पिछले कुछ समय को ही पूर्ण रूप से जानते-पहचानते हैं।
आज हम पिछले कुछ दशकों की ही बात करेंगे। कुछ ऐसी बातें, जिसने हमारे जीवन को या हमारी रोज़मर्रा की ज़िंदगी को छुआ था।
इन सालों में हमने कई ऐसी चीज़ें बनाईं, प्राप्त की या इस्तेमाल की, जिसकी बदौलत हम नामुमकिन लगने वाले कार्य सफलतापूर्वक कर सकें।
हम इंसानों की उच्चतम बुद्धिक्षमता व अमर्यादित कल्पनाशक्ति के कारण ये सारी चीज़ें समय के साथ ज़्यादा कार्यक्षम बनती गईं।
चित्र बनाने की कला
भले ज़िंदा हो, किंतु वो दौर अब गुज़र चुका है। किसी व्यक्ति
का, घटना का, प्रसंग का चित्रकरण करने की कला अनेक परिवर्तनों
से गुज़र कर समृद्ध बनी। और फिर एक ज़माने में एक तकनीक आई, जिसने चित्र बनाने की जगह ली।
जैसे कि, कैमरा रोल बनाने वाली कोडक कंपनी ने 75 साल तक रोल का उत्पादन
जारी रखा और उसीकी बदौलत मानव इतिहास की कई सारी तस्वीरें खींची गईं। ऐसी तस्वीरें, जिसे भुलाया नहीं जा सकता। ऐसी तस्वीरें, जिसको आज देख उस इतिहास की पुष्टि होती है। इतिहास की कई सारी
यादगार घटनाओं को इसी रोल के ज़रिए किताबों मे संजोया गया। फ़ोटो के नेगेटिव संभाल के
रखना, फ़ोटो बनाने से पहले उसे रसायणों के साथ मिलाना, जैसी कई चीज़ें थीं, जो आज पुरानी सी लगती हैं। उसके बाद डिजिटल
कैमरा का दौर आया और फिर लोगों को इस रोल की ज़रूरत नहीं रही!
उस ज़माने के फ़ोटो
स्टु़डियो या किसी प्रासंगिक आल्बम का अपना एक ज़माना रहा। आज के फ़ोटो एडिट और डिजिटल
दौर के उलट उस ज़माने मे फ़ोटो खिंचवाना, फ़ोटो खिंचवाते समय पीछे कोई पर्दा या प्राकृतिक
सौंदर्य का पोस्टर चिपकाना, फ़ोटो आल्बम बनाना और उसमें किसी चित्रकार
द्वारा हाथों से लिखना या कोई आकृति बनाकर आल्बम को सजाने का दौर अब ख़त्म हो चुका
है। उस ज़माने में फ़ोटो खिंचवाने जाना किसी उत्सव सरीखा लगता था!
दौर इतना ख़त्म हो चुका
है कि अब फ़ोटो स्टुडियो वालों का सम्मान भी दाँव पर है। पहले इनको शादी या दूसरे प्रसंगों
के समय इतनी अग्रिमता मिलती थी कि दूसरे मेहमान छूट जाते थे! प्रसंग के समय लोग यही
सवाल पूछा करते कि स्टुडियो वाले आ गए क्या, स्टुडियो वालों ने खाना खा लिया क्या, उन्हें बारात में किस तरीक़े से ले जाना है, वगैरह वगैरह! दूसरे मेहमानों को खाना, जगह, दूसरी सहुलियत मिले ना मिले, स्टुडियो वालों को मिल जाया करती थीं। एक दो कैमरा लेकर घूमने
वाले उन कलाकारों के पास आज आधुनिक से आधुनिक कैमरा, लैपटोप समेत तमाम उपकरण हैं, लेकिन बेचारे समारोह में कहीं कौने में अकेले
अकेले शूटिंग करते रहते हैं! शायद सम्मान खोने का गुस्सा बिल बनाते वक़्त निकालते होंगे।
हमने हमारे मानव इतिहास
में कई सारी ऐसी चीज़ें निर्मित कीं, उसका इस्तेमाल किया और फिर वक़्त गुज़रता गया
और उसके बाद उन चीज़ों की हमें ज़रूरत ही नहीं रही थी। ऐसी चीज़ों की सूची लंबी हो सकती
है, लेकिन इनमें से कुछ चीज़ें ऐसी थीं, जिसने मानव जीवन के अध्याय में कभी ना भुलने वाला योगदान दिया।
आज भले हम हमारे घरों
में लंबे लंबे बिजली के तार देखते हैं, लेकिन तकनीक के विकास को देखते हुए लगता है
कि आने वाले दौर में ये लंबे लंबे तार मानव जीवन से ग़ायब हो चुके होंगे। आज बिना तारों
के बिजली को ले जाया जा सके ऐसी तकनीक पर संशोधन जारी है। अमेरिका की विट्रिसिटी कंपनी
के संशोधक वायर फ्री टेक्नोलॉजी को सफलतापूर्वक संशोधित कर चुके हैं। लंबे लंबे तार
जल्द ही हमारी यादों में शामिल हो जाएँगे। डुअल सिम का ज़माना सिम फ्री टेक्नोलॉजी
तक जा पहुंचेगा। मोबाइल फ़ोन की जगह कुछ और आएगा।
जिसने पुरानी फ़िल्में
देखी हो, उन्हें पता है कि अशोक कुमार या प्राण जैसे कलाकार एक के बाद एक आँकड़ों के
चक्कर घुमाते और हर वक़्त टरररर टरररर जैसी आवाज़ गूँजा करती। बिलकुल सही पहचाना। हम
बात कर रहे हैं वर्तुलाकार डायल वाले उस टेलीफ़ोन की। कुछ लोग तो इसे शाही टेलीफ़ोन
भी कहा करते थे, क्योंकि वह एक स्टेटस सिंबल सरीखा था।
जब इन टेलीफ़ोन का
इस्तेमाल शुरू हुआ, तब ऐसे डायल पैड वाले टेलीफ़ोन मुठ्ठीभर लोगों के ही पास उपलब्ध
होते थे। 1904 में चक्राकार डायल पैड वाले फ़ोन का इस्तेमाल शुरू हुआ, और 1970 तक इस टेलीफ़ोन ने
अपना साम्राज्य क़ायम रखा। धीरे धीरे ऐसे टेलीफ़ोन दूर दराज़ के इलाक़ों में अपनी पैंठ
जमाने लगे।
एक वो दौर था जब टेलीफ़ोन
के लंबे लंबे तार बिछे हुए रहते थे। आज वो चीज़ इतिहास बन चुकी है। गाँव में एकाध जगह
पर टेलीफ़ोन हुआ करता था! नंबर कैसे डायल करना है उसका अता पता कहाँ होता था उस वक़्त? उसके लिए भी इक्का दुक्का विशेषज्ञ हुआ करते थे! वो लैंडलाइन
भी एक या दो रंगों का ही हुआ करता था! काला या लाल! चक्कर घुमा कर नंबर डायल करते समय
जो आवाज़ आती थी उसे, सुनने वाला कभी भुल नहीं सकता।
फिर तो तार बिछने लगे
और लैंडलाइन फ़ोन घर घर में बसने लगा। चक्कर ग़ायब हो गया और उसकी जगह शून्य से नौ तक
के बटन वाले फ़ोन आने लगे। इनके अलावा दूसरे दो-चार बटन क्या काम आते हैं, वो भी घर
के किसी विशेषज्ञ से पता करना पड़ता था! वो दौर भी आया, जब पूरा परिवार बाहर घूमने के बाद घर पर वापस आता तब पड़ोसी
सूचित कर देतें कि आपके घर का लैंडलाइन फ़ोन अनेक बार बजा था। कौन फ़ोन कर रहा होगा
उसका पता चल पाना मुमकिन नहीं होता था। ‘मिस्ड कॉल’ जैसा शब्द भी हुआ नहीं करता था उस दौर में!
फिर तो लैंडलाइन भी
आधुनिक होने लगे। रीडायल वाले, डिस्पले वाले, स्टोरेज वाले, ऑटो आंसर जैसी सहुलियतों के साथ लैंडलाइन
आ गए। आउटगोइंग के पैसे तो थे ही, साथ ही इनकमिंग के भी पैसे लगते थे! और शायद
इसी वजह से बेजा इस्तेमाल का प्रचलन नहीं था। काम की चीज़ थी और काम के लिए ही इस्तेमाल
होती थी! समय वो भी आया जब यह चीज़, जो एक ज़माने में गाँव भर में एकाध जगह हुआ
करती थी, वो एक घर के अलग अलग कमरे में बसने लगी।
इस बीच पेजर नाम के
एक उत्पाद ने थोड़ी बहुत कोशिश की। कमर में बेल्ट के साथ चमड़े के कवर में यह रखा जाता
और इसका इस्तेमाल बात करने के लिए नहीं, बल्कि टेक्स्ट मैसेज के लिए होता था। आज कल
के इमोजी वाले दौर में उस ज़माने में वह पेजर था, जिसने शॉर्ट फॉर्म टेक्स्ट मैसेज लिखना सिखाया।
फैक्स मशीन भी ख़ूब
इस्तेमाल हुआ। मनी ऑर्डर का अपना एक दौर रहा। इस बीच एसटीडी पीसीओ वाला वो दौर कौन
भूल सकता है भला? रिश्तेदारों और प्रियजनों से उस छोटे से टेलीफ़ोन
बूथ से फ़ोन करने का वो ज़माना ख़ूब चला। एकाध इंसान भीतर खड़ा रह पाए उतने छोटे से, लकड़े और कांच से सजने वाले इस बूथ को पीले-लाल रंग से रंगा
जाता था।
मेरे पिया गए रंगून
किया है वहाँ से टेलीफून, जैसे गानों का ज़माना बीत गया और फिर आया
वह ज़माना, जिसमें नायक व्हाट इस योर मोबाइल नंबर गाने
लगा!
मोबाइल फ़ोन नाम का
एक उपकरण आ गया। धीरे धीरे इसने लैंडलाइन का ज़माना ख़त्म कर दिया। मोबाइल फ़ोन की ज़िंदगी
भी लैंडलाइन फ़ोन जैसी ही रही। जिसके पास मोबाइल फ़ोन होता वह स्वयं को सम्राट महसूस
किया करता था! कमर में बेल्ट के साथ चमकते कवर के भीतर वह आराम से पड़ा रहता! इसमें
भी आउटगोइंग-इनकमिंग ख़र्चीला था और इसीलिए यह दिखता सबको था, लेकिन बिना काम के कोई इस्तेमाल नहीं किया करता था!
आज कल के स्मार्ट या
वेरी स्मार्ट मोबाइल को देखें तो उस ज़माने के मोबाइल फ़ोन पुरातन सभ्यता के उपकरण सरीखे
लगते हैं! एक ज़माना था जब मोबाइल फ़ोन पर किसीका कॉल आता तो छोटी सी स्क्रीन पर उसका
नंबर या नाम देख दिमाग़ और उस दिमाग़ का मालिक कुछ सेकंड तक यही सोचता कि कॉल उठाना चाहिए
या नहीं? क्योंकि पैसे कट जाते थे! मोबाइल फ़ोन ने
भी अपनी विकास यात्रा देखी। शून्य से नौ तक के बटन वाले और छोटे से डिजिटल डिसप्ले
वाले मोबाइल फ़ोन फिर तो तेज़ी से स्वयं को बदलने लगे। जैसे जैसे इसका इस्तेमाल सस्ता
होता रहा, इसका विकास होने लगा।
जो टेलीफ़ोन बड़े वर्तुलाकार
डायल पैड के साथ आता था, और जिसे रखने के लिए लोग घरों में छोटा सा तथा विशेष मेहनत
करके सजाया हुआ टेबल या स्टैंड रखा करते थे, वह समय बीत गया और वह टेलीफ़ोन हाथ की मुठ्ठी
में भींच ले इतने छोटे से अवतार में आ गया! अब तो की पैड की भी ज़रूरत नहीं रही। मुँह
से नाम बोलो और फ़ोन लग जाता है। एक ज़माना था जब मिस्ड कॉल नाम का शब्द नहीं था, आज किसने कॉल किया था उसे तो छोड़ दें, हैंडसेट के स्क्रीन पर आप उसे साक्षात देख भी सकते हैं।
इसी विकास यात्रा के
साथ इंटरनेट ने मोबाइल फ़ोन और पूरे ज़माने को बदल कर रख दिया। महीने भर में 250-500 एमबी के डाटा पैक
उस ज़माने में चल जाते थे! मोबाइल में तो उस ज़माने में इंटरनेट का प्रचलन नहीं था, किंतु कंप्यूटर इंटरनेट से लैस होने लगे थे। एक क्लिक करने के
बाद कुछ समय तक राह देखें तब जाकर कोई वेब पेज खुलता था! फ़ोटो या वीडियो डाउनलोड करना
तो छोड़ो, देखने का प्रचलन भी नहीं था! किसी भी शहर
में जाओ, किसी का भी कंप्यूटर सिस्टम देखो, उसमें बॉलीवुड से लेकर नेचर के फ़ोटो एक सरीखे देखने को मिलते!
इंटरनेट के उस ज़माने
में भी फ़ोटो, ऑडियो या वीडियो सीडी बिका करती थीं, जिसमें लगभग लगभग एक सरीखा डाटा होता था! 10वीं या 12वीं के रिजल्ट के दिन
कंप्यूटर वालों के यहाँ लाइनें लगतीं! सायबर कॅफे का ज़माना भी आया और चला गया। इंटरनेट
सस्ता होने लगा, स्पीड बढ़ने लगी, कंप्यूटर के दाम कम हुए, और फिर कंप्यूटर, मोबाइल फ़ोन और इंटरनेट, तीनों एकदूसरे के गहरे रिश्तेदार बन गए।
इससे पहले एक दौर वो
भी था, जब जगराता के वक़्त वीसीपी (वीडियो कैसेट प्लेयर)
की बहुत ज़्यादा मांग रहती थी। कुछ सालों पहले तक जगराता के वक़्त पुरी रात फ़िल्में देखने
का ट्रेंड था, और उस वक़्त वीसीपी के किराए के लिये लंबी लाइन लगती थीं! कुछ गिने चुने
और आर्थिक रूप से संपन्न परिवारों के पास ही वीडियो कैसेट प्लेयर थे। ज़्यादातर तो जगराता
के दौरान ऐसे वीसीपी किराए पर ही लिए जाते थे। वीसीपी का ‘बिटामेक्स’ के नाम से पहचाने जाने वाला कैसेट लाइब्रेरी का अपना एक यादगार
इतिहास है।
इसके अलावा ऑडियो गीत
सुनने के लिये महाकाय ऑडियो प्लेयर इस्तेमाल किए जाते थे, जिसे गुजरात में ‘टेप’ के नाम से जाना जाता था। अनेक घरों में इन
कैसेट्स का कलेक्शन भी हुआ करता था। कैसेट का रील उलझ जाता तब उसके टेप को उंगली से
या पेन से बहुत संभाल के बाहर निकाला जाता, और फिर बड़े ध्यान से फिर से वापस घुमा कर
लगाया जाता! वो दौर अब नहीं रहा।
कंप्यूटर की दुनिया
में एक दौर था, जब अबेकस और उसके बाद भी पूरा कमरा रोकने
वाले महाकाय कद के कंप्यूटर इस्तेमाल किए जाते थे! हद से ज़्यादा गरमी पैदा करने वाले
तथा काफ़ी मात्रा मे बिजली इस्तेमाल करने वाले ये विशाल कंप्यूटर आज माइक्रोचिप में
परिवर्तित हो चुके हैं। मोबाइल और कंप्यूटर, ये दोनों अब आज ख़रीदने के बाद दूसरे दिन
पुराने लगने लगे इस हद तक अतिगतिशील विकास वाला जीवन जी रहे हैं!
प्रिंट का कमांड दिया
जाता था और फिर कररररर कररररर की आवाज़ के साथ अक्षरों को बिंदु के रूप में काग़ज़ के
ऊपर अंकित करने वाले प्रिंटर आज क़रीब क़रीब लुप्त हो चुके हैं। डॉट मैट्रिक्स के नाम
से पहचाने जाने वाले ये प्रिंटर, जिसकी करररर करररर आवाज़ से उसे बिना देखे
ही पहचान लिया जाता था, उसकी जगह आज लेसर और डिजिटल प्रिंटर ले चुके
हैं।
उसी तरह डॉस के नाम
से प्रचलित कंप्यूटर ऑपरेटिंग सिस्टम को चलाना आज की पीढ़ी के लिए टेढ़ी खीर ही होगी।
डिस्क ऑपरेटिंग सिस्टम को आज के दौर में कोई देखना भी पसंद नहीं करेगा, और अगर पसंद
करेगा तो भी उन्हें कंप्यूटर चलाने के लिए लंबे चौड़े कमांड याद रखने पड़ेंगे। डार्क
ग्रीन स्क्रीन के ऊपर सफ़ेद अक्षरों वाले इस ऑपरेटिंग सिस्टम का युग समाप्त हो चुका
है, और उसके स्थान पर काफ़ी सरल और चित्र आधारित विन्डोज़, लिनक्स, एंड्रॉइड आ चुके हैं, जिसमें पहले से ज़्यादा विविधता और सहुलियत मौजूद हैं।
माइक्रोसॉफ्ट का एकाधिकार
अब उतना शक्तिशाली नहीं रहा। विन्डोज़ भले ही सबसे ज़्यादा इस्तेमाल किए जाने वाला ऑपरेटिंग
सिस्टम हो, किंतु अब इसके अलावा दूसरे ऑपरेटिंग सिस्टम
भी मौजूद हैं। विन्डोज़ के साथ फ्री आने वाला वेब ब्राउज़र इंटरनेट एक्सप्लोरर आज क्रोम, ओपेरा या फायरफॉक्स के सामने जूझ रहा है। ऑर्कुट नयी पीढ़ी के
लिए अंजान नाम है, क्योंकि उनके लिए फ़ेसबुक, ट्विटर और व्हाट्सएप, इंस्टाग्राम हैं।
इतिहास बन चुकी ऐसी चीज़ें। इस सूची में ब्लैक एंड व्हाइट टेलीविज़न को कैसे भुलाया जा सकता है? यह वह उपकरण था जिसने भारतीय समाज से गहरा रिश्ता जोड़े रखा।
एक दौर था, जब आज कल के एलइडी टाइप के, विशाल स्क्रीन वाले और छोटे से रिमोट कंट्रोल वाले टेलीविज़न की जगह, स्क्रीन
के पीछे बड़े से ट्यूब वाले और फ्रंट पैनल पर आवाज़ या कभी कभी चैनल बदलने के लिए टक
टक आवाज़ वाले चक्कर के साथ टेलीविज़न आता था। टेलीविज़न का महत्व उस टेलीफ़ोन से भी अधिक
था। टेलीफ़ोन के लिए छोटा सा स्टैंड या छोटा सा टेबल सजाया जाता, जबकि टेलीविज़न इससे भी बड़े सिंहासन का हक़दार था!
वो ज़माना ब्लैक एंड
व्हाइट टेलीविज़न का था। पूरे गाँव में गिने चुने घरों में टेलीविज़न देखने के लिए मिलते
थें! चैनल बदलने के लिए आगे चक्कर मिलता, किंतु चैनल के नाम पर दूरदर्शन के सिवा कुछ
दूसरा था भी नहीं! शटर वाला वो टीवी, जिसमें बाक़ायदा डोर होते थें, घर के सदस्यों से भी ज़्यादा तवज्जो का हक़दार हुआ करता था। स्क्रीन
पर अब वैसी रंगीन पट्टियाँ या झिलमिल पर्दा कहाँ, जो पहले आ जाया करते थे!
सप्ताह में एकाध-दो
बार कोई फ़िल्म होती, एकाध-दो बार गाने का कार्यक्रम चलता, या इक्का
दुक्का धारावाहिक दिखाए जाते। डेली सोप का ज़माना नहीं था। आज जो एपिसोड देखा, उसके बाद अगला एपिसोड सप्ताह के बाद देखने के लिए मिलता। टेलीविज़न
ख़रीदना बहुत बड़ी बात थी। ऊपर से टेलीविज़न अकेले नहीं आता था। उसके साथ बहुत बड़ा एंटीना भी ख़रीदना होता था, जो छतों पर लगाया जाता! आवाज़ कम या ज़्यादा करने के लिए उठकर
उस चक्कर तक पहुंचना होता था, जो टेलीविज़न के आगे लगे होते थे।
टेलीफ़ोन की जगह टेलीविज़न
के विशेषज्ञ ज़्यादा सम्मान पा जाते थे! अब आप कहेंगे कि इसमें कौन से विशेषज्ञ की ज़रूरत
होती होगी? तो फिर आप एंटीना सेट करने वालों का अपमान
ही कर रहे हैं! यूँ तो विशेषज्ञों को सदियों से नुक़सान ही उठाना होता है। तभी तो यहाँ
भी ये विशेषज्ञ एंटीना सेट करने जाते और इधर सप्ताह में एक बार आ रहे कार्यक्रम का
कुछ हिस्सा वो मिस कर देतें! एक बंदा छत पर जाकर एंटीना ठीक करता रहता, दूसरा छत वाले बंदे और टीवी के सामने खड़े बंदे के बीच वार्तालापकार
की भूमिका अदा करता, तीसरा बंदा जो टेलीविज़न के सामने खड़ा है
उसके मुँह से थोड़ा और थोड़ा और वाले बोल निकलते रहते!
उस ज़माने में दूरदर्शन
ही चलता था और फिर महाभारत या रामायण जैसे घारावाहिक दिखाए जाने लगे। उस दौर को भला
कौन भूल सकता है? अपने अपने आराध्य देवों को टेलीविज़न पर चलते-फिरते-बोलते देखने का यह अनुभव किसी ने इससे पहले किया नहीं था। महाभारत या रामायण
देखने के लिए जिन घरों में टेलीविज़न होता था वहाँ सैकड़ों लोग जमा हो जाते! छोटा सा
मेला लग जाता था उस घर पर! वाक़ई कमाल का द्दश्य होता था वह! बीच बीच में स्क्रीन पर
चित्र में परेशानी होती तब एंटीना विशेषज्ञ को छत पर चढ़ाया जाता!
दूरदर्शन चैनल स्वयं
ही उस ज़माने की शानदार याद सरीखा है। ब्लैंक एंड व्हाइट से घीरे घीरे रंगों का युग
आने लगा तब तक शम्मी नारंग, सलमा सुल्तान, प्रतिमा पूरी जैसे न्यूज़ रीडर की आवाज़, उनका अंदाज़, पहनावा घर घर में जाना पहचाना था। वैसे भी उन दिनों ब्रेकिंग
न्यूज़ वाला राक्षस नहीं था। समाचार का ज़माना था। अवध का नवाब मुर्गे लड़ा रहा हो
वैसा न्यूज़ रूम उन दिनों नहीं होता था।
उस ज़माने में दूरदर्शन
अकेला चैनल था, जिस पर तमाम प्रकार के कार्यक्रम आते! न्यूज़
चैनल कहें, मूवी चैनल कहें, स्पोर्टस चैनल कहें, एंटरटेनमेंट चैनल, कार्टून चैनल कहें, कुछ भी कह लें, दूरदर्शन ऑल इन वन था! दिन भर इसके लिए अलग अलग समय निर्धारित
होता था। इसने अपना एक ऐसा युग जी लिया, जिसकी तुलना किसी दूसरे उपकरण से की नहीं
जा सकती।
वैसे ब्लैक एंड व्हाइट
टेलीविज़न से पहले रेडियो का अपना एक अलग ज़माना था। भारत आज़ाद होने की घोषणा नेहरूजी
ने आधी रात को इसी उपकरण पर की थी। इसी रेडियो पर लोग गाने सुनते, न्यूज़ लेते, क्रिकेट कॉमेंट्री तक सुनते! यह भी ऑल इन
वन था। जो शाही ज़माना टेलीविज़न ने जिया, रेडियो ने उससे भी ज़्यादा शाही अंदाज़ में ख़ुद को देखा! आकाशवाणी या बिनाका गीतमाला को कौन भूल सकता है भला? दिनभर तीन-चार बार, जब दस या पंद्रह मिनट के लिए देश की ख़बरें
रेडियो पर आतीं, तब लोग इस उपकरण के आसपास जमा होकर जानकारी प्राप्त किया करते! मनपसंद
गीत सुनने के लिए यही तो एकमात्र सहारा था। उस ज़माने में ना टेलीविज़न था, ना वीसीपी ना कुछ और। बस, रेडियो ही एकमात्र सम्राट था।
प्रिंट मीडिया, यानी कि अख़बारों ने भी अपना शाही दौर देखा। सुबह देर से किसी
सरकारी बस का गाँव में आने का समय हो तब जाकर देश की ख़बरों को लेकर ये न्यूज़ पेपर
गाँव तक पहुंचते! और फिर जिन्हें दिलचस्पी हो वे अपनी अपनी पारी का इंतज़ार करते हुए
पढ़ने की लाइन में लग जाते!
याद है कि भारत
के स्वर्गीय प्रधानमंत्री राजीव गांधी की मौत की ख़बर हमारे गाँव में दूसरे दिन पहुंची
थी, जब दोपहर के आसपास बस में न्यूज़ पेपर आया था! उस वक़्त भी हमारे
पूरे गाँव में शायद दो घरों में टेलीविज़न थे! रेडियो इससे ज़्यादा होंगे। किंतु चार
तक की पढ़ाई पर्याप्त है वाले उस ज़माने में लोग रेडियो को ज़्यादातर गीत सुनने का उपकरण
ही मानते होंगे! न्यूज़ सुनने वाले पूरे गाँव में इक्का दुक्का लोग ही होंगे। रही बात
टेलीविज़न की, तो वह फ़िल्म या धारावाहिक के समय अपने उस
एंटीना विशेषज्ञ की उपस्थिति में ही चलाया जाता! ऐसे में दूसरे दिन सरकारी बसों में
आने वाले अख़बार ही विस्तृत जानकारी का ज़रिया था! आज भी अजीब लगता है कि देश के प्रधानमंत्री
की निर्मम हत्या की पूरे गाँव में दूसरे दिन दोपहर के बाद बातें होना शुरू हुई थीं!
आज कल तो अख़बार भी
अनेक आने लगे हैं, साथ ही रंगीन भी। उसमें पहले से ज़्यादा पन्ने
आते हैं, और पहले से ज़्यादा जानकारी भी। सफ़ेद रंग के पन्ने और उसमें काले अक्षरों के
साथ जानकारी वाले प्रिंट मीडिया का युग समाप्त हो गया। अलग अलग प्रकार की स्याही का
उत्पादन बढ़ने के बाद अख़बार भी रंगीन होने लगे। कंप्यूटर के आने के बाद तथा ग्लोबलाइजेशन
के बाद अख़बारों की संख्या बढ़ती चली गई, साथ ही
उनके रंग और ढंग भी बदलते गए। और फिर अब तो अख़बार भी डिजिटल हो चले हैं।
पूरे गाँव में एकाध
मोटर साइकिल वाले उस ज़माने में साइकिल होना बड़ा गौरवपूर्ण अनुभव होता था! साइकिल
का स्टैंड लगाते समय मन में ऐसा लगता था, जैसे कि मर्सिडीज़ को पार्क कर रहे हो! उससे
पहले का दौर भी था, जब साइकिल के ऊपर सवार होकर बाहर निकलना हो तब भी लाइसेंस की ज़रूरत
होती थी! 1850 के बाद साइकिल को एक व्हीकल माना गया था और लाइसेंस ज़रूरी था! उस ज़माने में ट्रैफ़िक नियमों के मुताबिक़ सूर्यास्त के बाद साइकिल को लाइट लगाना भी ज़रूरी था! दो
से ज़्यादा लोग साइकिल पर एक साथ सवार नहीं हो सकते थे! 1864 के दौरान साइकिल लाइट
को लेकर मामला कोर्ट तक भी पहुंचा था।
चल मेरी लूना, या फिर हमारा बजाज! साइकिल के बाद लूना, फिर राजदूत और बजाज स्कूटर ने अपना शानदार दौर देखा। सिर्फ़ वाहन
ही नहीं, इनके विज्ञापन के टैगलाइन भी लोगों के दिल-ओ-दिमाग़ में सदैव के लिए चस्पे! फोर व्हीलर का समय आया तब मारूति और एंबेसडर कारों ने
जो सम्मान कमाया, ऐसा शानदार दौर किसी दूसरे वाहन को नसीब नहीं
हो पाया। वाहन तो छोड़ दीजिए, उस ज़माने में साबुन, दंतमंजन, वाशिंग पाउडर से लेकर रोज़मर्रा की अनेक चीज़ें इक्का दुक्का होतीं, साथ ही घर के सदस्य की तरह अपनी भी!
वो अलार्म क्लॉक कैसे
भुलाया जा सकता है? इसीके साथ सुबह की नींद खुलती थी। अक्सर हमारे
आसपास ये रखी होती और रात में इसमें चाबी भरते थे। चाबी भरना और सुबह इसकी घंटी सुनना।
अब ये चीज़ शोपीस बनकर रह गई है।
वैसा ही दौर खेलों
में भी देखा गया। एक वो दौर था, जब बच्चों के खेल घरों के बाहर हुआ करते थे, और आज वो
दौर है जब खेल किसी स्क्रीन पर कमरे के अंदर ही खेले जाते हैं। ग्राफिक्स और तकनीक
के आज के ज़माने के उलट उस दौर के खेल के नाम भी शायद आज की पीढ़ी को याद ना हो। खेल
के साथ साथ भोजन में भी बदलाव आ चुका है।
काग़ज़ की नाव बनाकर
पानी में तैराना, गीली मिट्टी से खिलौने बनाना, टायर को हाथों से या छोटी लकड़ी से दिनभर घुमाते रहना, लट्टू या कंचे से खेलना, गिल्ली दंडा, छुपन छुपाई, लंगड़ी टाँग, आँख मिचौली, सतोलिया जैसे खेल खेलकर पूरा बचपन बीता। खेतों
की मेढ़ पर जाना, पेड़ों के ऊपर या उसके नीचे खेलना, वहीं से भाँति भाँति के सींग या खट्टे मीठे पीलू तोड़ खा लेना, सुबह नहाने तालाब के कुएँ पर जाना, कभी कभी पूरी दोपहर मवेशियों के पीछे घूमना, ये ज़माना गुज़र चुका है।
रविवार के दिन रामायण
या महाभारत देखने किसी के घर पहुंच जाना, रावण या दूसरे राक्षसों के पर्दे पर आने से
कहीं कोने में छुप जाना, चंद्रकांता के क्रूर सिंह से खौफ़ खाना, मोगली को दिलचस्पी से देखना, लिखने पढ़ने के लिए नहीं लेकिन नटराज पैंसिल को थामने के लिए इंतज़ार करना, उसे किसी समुराई तलवार से कम न मानना... अब ये सब नहीं रहा।
कोला पेप्सी या खट्टी
मीठ्ठी रंगदार गोलियाँ कौन भूल सकता है भला? टोस्ट के सिवा दूसरा कोई बिस्किट पसंद नहीं
था। ये उस ज़माने के बच्चों की पसंदीदा चीज़ होती थीं। कॉमिक बुक्स का वो दौर भी अब
नहीं रहा।
उस ज़माने में, जब सब कुछ इक्का दुक्का ही हुआ करता था, टेलीविज़न पर आने वाले इश्तेहार तक लोगों के जीवन का हिस्सा बने!
वाशिंग पाउडर निरमा, हमारा बजाज, चल मेरी लूना, कुछ ख़ास है ज़िंदगी में, लाइफबॉय है जहाँ तंदुरस्ती है वहाँ, लिज़्ज़त पापड़, एक्शन का स्कूल टाइम... और न जाने क्या क्या!
कंप्यूटर, मोबाइल और विशेषत: इंटनरनेट के आने के बाद एक बड़ी विरासत लुप्त
हो गई और वो थी चिठ्ठी! जिस पोस्ट विभाग को अंग्रेज़ों के ज़माने में वर्ग 1 श्रेणी में माना जाता
था, वह आज कहीं कोने में चुपचाप अपनी ज़िंदगी जी रहा है! चिठ्ठी लिखना, उसे पहुंचाना, किसी की चिठ्ठी मिलना, उसे पढ़ना या दूसरों से पढ़वाना, ये वो विरासत थी, जो फिर कभी लौट के आ नहीं सकती! टेलिग्राम आता
तो साँसे थम जातीं, क्योंकि यह तत्काल सुविधा थी। खाखी चिठ्ठी, नीली चिठ्ठी, लाल स्याही में लिखी चिठ्ठी, काली स्याही में लिखी चिठ्ठी, यह सब अब पुरानी यादें हैं।
उस ज़माने में किसी
भी बच्चे को पूरे गाँव में कोई भी कंटाप मार सकता था! ये सब अति सामान्य सी संस्कृति
थी! सब कुछ साहजिक सा था! चीज़ें तो छोड़ दीजिए, घर का बच्चा पूरे गाँव में कहीं पर भी खेल
रहा होता, घर वालों को किसी प्रकार का भय या चिंता नहीं
रहती थी। उस समय के पैसों के सिक्के भी आज की पीढ़ी के लिए पुरातन संस्कृति सरीखे हैं।
ये वो ज़माना था, जब दूसरे मेहमानों को तो छोड़ दीजिए, दामाद तक को रोटी-सब्ज़ी
मिले तब भी शिकायत नहीं रहती थी। दाल-चावल नसीब से बना और मिला करते। बारात तक में
पचास-सौ लोगों से काम चल जाता था। घर बनाते या ठीक करते समय गाँव परिवार के लोग
हाथ बँटाते और काम बन जाता था।
एक दौर था, जब पूरे
गाँव में एक या दो ब्लैक एंड व्हाइट टीवी हुआ करते थे, आज घर घर में एक से ज़्यादा टीवी, लैपटोप और मोबाइल हैं, जो इंटरनेट से लैस भी होते हैं। टेलीविज़न
का रूप और रंग इतना बदल चुका है कि लगता है कि घर की एक दीवार अलग से इसीलिए बनाई जाती
होगी! जिन गाँवों में एकाध मोटर साइकिल हुआ करता था, आज जितने फ़ैमिली मेंबर उतनी आलीशान गाड़ियाँ हैं!
यूँ तो जब भी परिवर्तन होता है, लोग उसे स्वीकार नहीं
कर पाते। किंतु वही लोग वक़्त गुज़रने के बाद उस परिवर्तन के आदि हो जाते हैं। जब पहली
दफा ट्रेन भारत में चलने लगी उस ज़माने में ट्रेन के उस काले रंग के इंजन को लोग राक्षस
कहा करते थे और उसे देखना भी अशुभ माना जाता था! आज वही ट्रेन दशकों से भारत की जीवनरेखा
है। मोबाइल आया तब अनेक लोग उसे बेकार चीज़ माना करते थे, आज वही लोग दिन भर उससे चिपके पाए जाते हैं! मानव जीवन की विकास
गाथा कुछ इसी तरह की कहानियों से भरी पड़ी है। और इस यात्रा में सदैव कुछ ऐसी चीज़ें, कुछ ऐसे उपकरण संपूर्ण जीवन के लिए अटूट यादें बन जाते हैं।
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)
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