ढिश्कियाऊं... आई एम बॉलीवुड।
ढिश्कियाऊं... यह लफ़्ज़ सुनते हैं और आँखों के सामने वो दौर छा जाता है, जब पिस्टल
से हमारा नायक गोली दाग देता था और क़रीब क़रीब पिंक कलर का ख़ून शरीर के बाहर दौड़ने
लगता था। पिस्टल से निकलने वाली इस गोली की आवाज़ आज तक ढूंढता हूँ... ढूंढता हूँ कि ऐसी कौन सी पिस्टल थी, जो ढिश्कियाऊं टाइप सूर-ताल के साथ गोली बाहर निकालती
थी। कभी कभी लगता है कि विलेन या नायकों के शरीर से बाहर निकलने वाले ख़ून के कलर का कोई
कनेक्शन इस ढिश्कियाऊं से होगा।
आई एम सॉरी बॉलीवुड। हम तो आप के
शुक्रगुज़ार हैं कि टेंशन भरी इस ज़िंदगी में जो कुछ सुकून मिला हमें, आप ही की वजह से
मिला। हम हंसे, हम रोये, हम गुनगुनाए, हम नाचे... सब कुछ आप ही की वजह से ही था।
अकेले हो या भीड़ में हो, बैठे हो या चलते हो... हम सबों में बॉलीवुड ही दौड़ता रहा। उस
ज़माने से लेकर अब तक, लबों पर या आँखों में या दिलों में, वही संवाद, वही गानें, वही दृश्य तक़रीबन हर किसी के अंदर बसे हुए हैं। आप की जितनी तारीफ़ की जाए, कम है।
लेकिन आज ढिश्कियाऊं वाले बॉलीवुड की यादें उमड़ पड़ी हैं। आप ही के लफ़्ज़ों में कहते हैं कि माफ़ करना कोई भूल हो जाए।
इस ढिश्कियाऊं की आवाज़ के साथ
बहुत सारी यादें जुड़ी हैं। इतनी सारी यादें, कि आज भी पिस्टल की आवाज़ यही होनी चाहिए ऐसी भावना उमड़ पड़ती है। आप लोग जो मशीनगन इस्तेमाल किया करते थें, उसकी आवाज़ और
पिस्टल की ढिश्कियाऊं वाली आवाज़, ये दोनों इतनी फिक्स्ड़ हो चुकी है कि लगता है कि
आप ही के पिस्टल और मशीनगन असली होते थे, बाकी के नकली।
ढिश्कियाऊं वाली पिस्टल का
फ़ायदा भी बड़ा दिलचस्प था। इस पिस्टल का कमाल यह था कि आप के पास यह पिस्टल हो, तो
दुश्मन की सैकड़ों गोलियाँ आप को छू नहीं सकतीं। ब्याज समेत मुनाफ़ा यह मिलता कि आप की
ढिश्कियाऊं वाली एक गोली दुश्मन का काम तमाम कर देती। वैसे उस दौर के विलेन न
जाने कहाँ से बंदूकें ले आते थें, कि आप नायकों को एक गोली से मारना तो नामुमकिन सा था।
दो-चार गोलियाँ लगने के बाद भी नायकों के पास इतना वक्त ज़रूर रहता, कि किसी की गोद
में सिर रखकर चार-पाँच मिनट तक दिल की बात कर पाए। हमें तो लगता है कि ढिश्कियाऊं
गोली के ये अघोषित से फ़ायदे होंगे।
वैसे जब भी किसी लैब में जाते हैं, तो सबसे पहले ख़ून का कलर देखते हैं। हमें आज तक वो कलर नहीं मिला, जो आप नायकों के
शरीर से निकला करता था। बड़ा छोटापन महसूस होता है कि क्या नायकों के ख़ून का कलर ही
पिंक? हमने कौन सा गुनाह किया कि हमारे ख़ून का कलर इतना
गुलाबी नहीं होता? बचपन से टीचर पढ़ाया करते थे मानवशरीर के
बारे में। लेकिन हमें लगता है कि ढिश्कियाऊं वाली पिस्टल के बारे में भी पढ़ाना
चाहिए, या फिर नायकों के ख़ून के कलर में जो विविधता है उसके बारे में। नाना पाटेकर तो चिल्लाते थे कि तेरे ख़ून का रंग ये हैं और इसके ख़ून का रंग भी वो ही है। और फिर वो
समभाव के बारे में समझाते। क्या उनकी मदद नहीं ली जा सकती, ये समझने के लिए कि ये पिंक वाले ख़ून का
सीक्रेट क्या होगा। क्या इसका ढिश्कियाऊं वाली पिस्टल से संबंध होता था, या फिर
नायकों का ख़ून ऊपर वाले ने पिंक ही बनाया था।
उस दौर
में बच्चे गुम हो जाना बहुत ही बड़ी समस्या हुआ करती थी। कई लोग तो आज भी मेलों में
जाने से डरते हैं। क्या पता गुम हो जाए तो फिर कितने सालों बाद मिलन हो पाए। कई तो
उस दौर की माँ को लेकर बड़े नाराज़ रहते हैं। तारक मेहता के पोपटलालजी तो कहते हैं कि
जब पता था कि मेलों में बच्चे गुम हो जाते हैं, तो फिर मेलों में जाना ही कैंसिल कर
देना चाहिए था। कैंसिल नहीं तो कम से कम टेक केयर वाली अवेयरनेस तो होनी चाहिए थी।
बच्चा गुम हो जाता है, फिर वो
भूख मिटाने चोरी करता है, और फिर उसके पीछे लोग दौड़ते हैं। बच्चा आगे और लोग पीछे।
दौड़ इतनी लंबी होती है कि सालों के फ़ासले मिट जाते हैं। स्क्रीन पर नायक पूरा दिखाई
देता है, जो अब बड़ा हो चुका होता है। उसने भी प्रोग्रेस कर ली होती है। पहले रोटी
चुराकर दौड़ता होता था, अब कोई बड़ी चीज़ चुराई होती है। कभी कभी पहले लोग पीछे पड़े होते थे, अब पुलिस पीछे दौड़ रही होती है। लेकिन एक बात बड़ी प्रभावशाली थी कि, जो
गुम हो जाता वो बड़ा होकर पैसे वाला ज़रूर हो जाता था। दूसरी बात यह कि, जिसके दो
बच्चे हो उसीका एक बच्चा गुम हो जाया करता था। ऐसा हर बार तो नहीं होता था, लेकिन ज़्यादातर तो ज़रूर होता था।
वैसे यह पता नहीं कि उस ज़माने में
डॉन लोग सफ़ेद कपड़े और सफ़ेद जूते ही पहनते थे, या फिर बॉलीवुड में आप नायकों के स्टाइल
से प्रभावित होकर पहनने लगे थे। ये फिक्स्ड़ टाइप डॉन वाला फिक्स्ड़ यूनिफॉर्म उस दौर
से बॉलीवुड में आया होगा, या बॉलीवुड से निकल कर वहाँ गया होगा, यह अज्ञात ही है। लेकिन
डाकू वाला युग तो बड़ा डरावना था। काले कपड़े और सफ़ेद धोती में घोड़ों पर सवार डाकू
गैंग जब निकलता, तो आँखें ख़ुद-ब-ख़ुद बंद हो जातीं।
यह
ज़रूर लगता कि हर व्यवसाय का एक फिक्स्ड़ यूनिफॉर्म होता होगा। टिकट ब्लैक करने वाला नायक, डॉन वाला नायक या डाकू
वाला नायक, तमाम के यूनिफॉर्म फिक्स्ड़ हुआ करते थे। लेकिन एक बात का मलाल ज़रूर रहा।
आप नायकों ने नायिकाओं का ख़याल कभी नहीं रखा। जब पता था कि आख़िर में विलेन इसी नायिका
की कनपट्टी पर बंदूक तानने वाला है, तो उसका ख़याल क्यों नहीं रखा? कुंभ के मेले में
किसी और फ़िल्म में कोई बिछड़ गया हो, वहाँ माताजी ने टेक केयर ना किया हो, तो इसका ख़ामियाज़ा दूसरी मूवी में नायिकाएँ क्यों भुगते?
लगता कि अब सब कुछ ठीक हो गया,
हमारा ब्लडप्रेशर कंट्रोल में आ जाता, सांसे ठीक हो जातीं... और तभी विलेन नायिका की
कनपट्टी पे बंदूक तनकर सामने आ जाता। और फिर क्या था? हम सबों की सांसें फिर थम
जाती, बीपी फिर बढ़ने लगता। वैसे उस दौर में जीडीपी था या नहीं, पता नहीं। लेकिन फिर
भी आप नायकों की इस केयरलेस से हम सबों का बीपी ऊपर-नीचे होने लगता।
तब आप नायकों पर हमें गुस्सा आ जाता। इतनी मुश्किल से विलेन का अड्डा ढूंढा होता था, ढिश्कियाऊं
वाली पिस्टल ने अपना कमाल दिखाया होता था, इतने सारे विलेन को अकेले दम पर आपने
ख़त्म किया होता था... आप को क्या लगता है कि आपने ही ये किया होता था? आप सबों के
साथ साथ हम भी तो कुर्सी पर बैठे बैठे फ़ील गुड और फ़ील बेड से गुज़रे होते थे! एक तो
टेंशन ख़त्म करने के लिए मूवी देखो। मूवी में इतने सारे टेंशन को फ़ील करो, इतनी
सारी दिक्कतों के बाद सब ठीक हो जाए तब फ़ील गुड करो... ऊपर से आप नायकों के केयरलेस
की वजह से नायिका वाला सीन झेलो।
वैसे हमें नहीं पता कि आज कौन से
कराटे या कुंग-फू क्लास में वो कला सिखाई जाती होगी। लेकिन फ़ख़्र है कि हमारा ही
नायक था, जो उंगली दीवार में घुसा देता और फिर वहाँ टोपी टांगने की व्यवस्था कर
लेता! ना ड्रिल की ज़रूरत, ना किसी औज़ार की! बिना रस्सी के सैकड़ों फ़ीट ऊंचा टावर चढ़ने
की कला वाक़ई लाजवाब थी।
इसी कला को दोहराने की बचपन में
ट्राय किया करते थे। कभी घुटना छिल बैठें, तो कभी दाँत तोड़ दिए ख़ुद के। थोड़ी सी
समझ आई तब पता चला कि यह विशिष्ट कला महानुभावों के बस की बात है।
वैसे हमें उन दृश्यों पर कोई
आपत्ति कभी नहीं हुई, जिसमें आप लोग एक ही गाने में सैकड़ों बार कपड़े बदलते, या एक ही
गाने में चार या पाँच देशों में घूम कर आ जाते। क्योंकि हम आम भारतीय नागरिक विदेशों
में तो क्या, अपने ही देश के शहरों में सपनों में ही घूमने जाया करते हैं। कहते हैं कि
आजकल आप लोग फ़िल्मों में काफ़ी ख़र्चा भी करते हैं, पहले कम किया करते थे। लेकिन फिर भी
पहले की फ़िल्मों में कपड़ों का साइज़, और आज की फ़िल्मों में कपड़ों के साइज़ को लेकर हमें कोई
शिकवा नहीं रहा! क्योंकि हम मानसिक रूप से वैसे भी ग़रीब हैं, और इतना ज़्यादा सोचने की हमारी कोई तैयारी रही ही नहीं है। कपड़े हमारे लिए मायने नहीं रखते... फिर भी अजीब है कि कपड़े कितने पहने हैं, वो हमेशा मायने रखते आए हैं!!!
ज़्यादातर तो यही लगा कि क्रिकेट
की दुनिया का कोई भी हरफ़नमौला (ऑलराउंडर) खिलाड़ी हो, लेकिन वो बॉलीवुड अदाकार
जितना हरफ़नमौला कभी नहीं हो सकता। नायक चाहे पुलिस वाला हो, टपोरी हो, डॉन हो, टीचर
हो, अधिवक्ता हो या अभिभावक हो, या कुछ भी हो, उसमें गाने की तथा नाचने की कला तो
कूट-कूट कर ऊपर वाले ने डाली थी! लगा कि हमारी दुनिया कितनी ज़ालिम है, जहाँ अपना करियर बनाने के लिए रात-दिन पढ़ाई करनी पड़ती है, फिर अगर समय बचता है तो सालों तक डांस के लिए, या गले से सूर निकालने के लिए क्लासेस का ख़र्चा भी करना पड़ता
है। लेकिन इन नायकों का हरफ़नमौला प्रदर्शन वाक़ई तारीफ़ के क़ाबिल ही माना जाना
चाहिए।
एक में आप ख़ुद गुंडा या बड़ा गुंडा
बने होते। हम तो आपके बताए गए नक़्शे-कदम पर चल देते। यही सोच कर कि फ़िल्में समाज
को प्रेरणा देने के लिए होती हैं। तभी दूसरी मूवी में आप सन्यासी बन जाते। सोचिए कि हम कितना फ्लेक्सिबल बनते? इसी चक्कर में हम आगे जाकर आधा टपोरी और
आधा सन्यासी बनने लगे! आप कभी अपराधी का महिमामंडन करती फ़िल्में ले आतें, जिसमें अपराधी बतौर हीरो होता, कभी उसी हीरो को आप पुलिस बनाते। कभी
वो डाकू बन घोड़े पर भागता, तो कभी सन्यासी बन संसार से भागता...। इन्हीं चक्करों में
हम, कभी हाँ कभी ना, टाइप इंसान बन गए।
लेकिन हम अपने आदर्श आपको मानते
रहे। आपके जैसा पहनावा, बाल बनाना, चलना, बोलना... कुछ होंगे जो आपके जैसे सोते भी होंगे!!! लेकिन
आपने हम लोगों के साथ सरासर नाइंसाफ़ी ही की। ये कोई बात हुई कि आपकी कोई मूवी हम
देखते, मूवी सिर चढ़कर पूरे साल तक बोलती रहती। उस मूवी में आप नास्तिक होते, और हम भी
पूरे साल तक नास्तिक होने के प्रयत्नों में जी-जान से लगे रहते। दूसरे साल आप एक और
मूवी लेकर आते, जिसमें कथा के दौरान आप हीरो लोग अपनी जेब के अंदर कोई सिक्का रखते
होते, या कलाई पर धागा चिपकाए रखते। ये भी कोई बात हुई क्या? हम तो साल भर प्रसाद
भी नहीं छूते, जब से आपने नास्तिक वाला कैरेक्टर मन में घुसेड़ा होता! और अब
आप इतने आस्तिक बनकर आते तो यही लगता कि ये तो ज़ुल्म की भी इंतिहा है।
वैसे आप लोगों की एक बात बड़ी अनोख़ी रही। आप लोग अपनी फ़िल्मों में कट को लेकर काफ़ी संवेदनशील रहे। ऐसे ऐसे डायलॉग
या शब्दों को आप कट लगाते रहे, लगा कि आप लोग वाक़ई संस्कार चैनल के लिए ही मूवी
बनाते होंगे। वैसे अनेकों अनेक मूवी, जिसमें होलसेल में गालियाँ, होलसेल में अश्लीलता
दिखाई दीं, लगा कि आप लोग ग़लती से इन्हें कट करना भूल गए होंगे!
भावनाएँ नाम की भावनाएँ आहत ना हो, समाज में दूषण ना फैले, इसलिए आप सेंसर बोर्ड बना
लिये और फ़िल्मों को कैंची से काटते रहे, लेकिन शायद ढेरों अश्लील दृश्य, अश्लील
गाने या अश्लील डायलॉग्स को इजाज़त देने की आपकी शैली प्रभावित करती रही। शायद आप
समानता का नियम तोड़ना नहीं चाहते थे!
आप बुरा मत लगाइएगा... हाँ,
गौरव ज़रूर ले सकते हैं कि आपने कलाकारी के नाम पर, या तो कलाकार के नाम पर, “कला का
आकार” क्या होता है ये दिखाने में कभी परहेज़ नहीं किया!!! हम तो
यही समझते थे कि कलाकार, यानी कि कला को बिखेरने वाला, लेकिन कला में आकार का भी
प्रदर्शन करके कला बिखेरी जा सकती है, ये ऐसे समझ में आ गया कि अब तो बिना आकार के
कोई कला... कला ही नहीं लगती!!! आप लोग जीवन के, संस्कृति के, परंपराओं के, अनुशासन तक के, महानतम डायलॉग ऐसे-ऐसे वस्त्रों में बोल जाते कि हम ऐसे वस्त्र
धारण करके बाहर निकले, तो समाज अपना अनुशासन तोड़कर हमारी पसलियाँ तोड़ने में लग जाता!
लिहाज़ा हम ये धड़ल्ले से नहीं कर सकें। लेकिन हम आपको यक़ीन दिलाते हैं कि हम बाज़ नहीं आएँगे, और धीरे-धीरे या चुपके-चुपके इसको लागू करते जाएँगे।
लेकिन लगता है कि आप लोगों को
बाक़ायदा तय कर ही लेना चाहिए कि कलाकार के नाम पर आप कला दिखाना चाहते हैं, या कला
के नाम पर आकार? आप ही बताइए, आप कुछ फ़िल्मों में भारत की परंपरा और संस्कृति तथा
मर्यादा का ढोल बजाते हो, और कुछ जगहों पर ख़ुद ही ऐसे ऐसे दृश्य दिखाकर उस ढोल को
तोड़ ही देते हो! लेकिन मैरी कॉम से ज़्यादा प्रियंका चोपडा को,
कुलदीप सिंह चांदपुरी से ज़्यादा सनी देओल को तवज्जो मिलती रही है और मिलती रहेगी, ये
हम आपको यक़ीन दिलाते हैं! जो चीज़ लाइसेंस के साथ एक बंद कमरे में
करने में भी शर्म आती हो, उसे आप बिना लाइसेंस के, कला के नाम पर, पैसे लेकर सैकड़ों लोगों के सामने, और हर दफ़ा अलग अलग पात्र के साथ कर जाते हैं, और फिर एड में आकर
साबुन-शेंपू भी बेच देते हैं, ये कला नहीं है तो और क्या है।
हमने प्रादेशिक फ़िल्में देखीं, जो
हमारी मातृभाषा में होती थीं। लेकिन आपने तो वो जादू किया था कि मातृभाषा वाली फ़िल्में हमें प्रभावित ही नहीं कर पाती थीं। हम तो मातृभाषा छोड़कर आपसे ही प्रेरणा
लेने में यक़ीन करते थे। ऐसे में फिर तो यह पता चला कि आप तो अनेकों बार हॉलीवुड फ़िल्मों से प्रेरित होते थे। सोचा कि हम आपसे प्रेरणा लेते हैं, आप किसी और से! प्रेरणा
लेने की यह परंपरा सी होगी! इतने सारे वुड थे ये तो बाद में पता
चला। हमें तो ये यक़ीन भी है कि आप लोग अकेले दम पर जिस ताक़त से, जिस तेज़ी से, एकाध दर्जन को गिरा देते हैं, आगे आप लोग हाथी की पूंछ पकड़ते हुए हाथी को घुमाएँगे और
आसमान में फेंक देंगे। और ऐसा होगा तब उन लोगों की बोलती बंद हो जाएगी जो खामखाँ महाभारत
के भीम पर शक किया करते हैं!
लोग कहते हैं कि बॉलीवुड ने लोगों को बिगाड़ा है। हम यह नहीं मानते। आपने तो हर तरफ़ से त्राहिमाम हो चुकी जनता को ख़ुश करने के अविरत प्रयत्न ही तो किए थे। आपने तो लोगों को बचाया है। अब शोले देखकर
कोई गब्बर बनने का फ़ैसला कर ले, तो उसमें आपकी ग़लती क्या है। ये तो फ़ैसला करने वाले
की ही ग़लती है। वैसे कई लोग गब्बर की तरफ़ आकर्षित नहीं भी हुए थे, बल्कि वो टंकी पर
चढ़ कर अपनी बसंती को पिधालने की कोशिशों में भी लगे रहे। ये बात और है कि फिर वो ख़ुद ही पिघल गए। कांटा-छापा करने के लिए हम उसी सिक्के की तलाश में ज़िंदगी बिता दिए,
लेकिन पता नहीं था कि इसे तो ग्यारह मुल्कों की पुलिस भी ढूंढ रही थी।
हमने तो जब जब ग़लतियाँ की तो – बड़े
बड़े देशों में ऐसी छोटी छोटी बातें होती रहती हैं, वाला डायलॉग चिपकाने की कोशिशें पूरे
निर्मल मन से की। पता नहीं, बदले में गाल पर पूरे मन से झन्नाटेदार थप्पड़ क्यों
चिपकता था। लेकिन हमने आप पर कोई इल्ज़ाम नहीं लगाया। यही सोचा कि हमारी कला का आकार
पूरी तरीक़े से ठीक नहीं रहा होगा, इसीलिए थोबड़े का आकार बदल गया।
आज जब आप लोग अपनी फ़िल्मों के
प्रमोशन के लिए छोटे पर्दे की सीरियलों तक के चक्कर लगाते हैं, तब बड़ा बुरा लगता है।
लेकिन फिर सोचते हैं कि 55 साल का बुज़ुर्ग आदमी 20-25 साल की लड़की के साथ बतौर हीरो
काम करता है और फिर भी नहीं थकता, और ऊपर से सीरियलों की ख़ाक छानता फिरता है,
रिटायर्ड वाली एज में भी आप लोग हमें प्रेरणा देते हैं कि उठो-जागो और मेहनत करो।
लेकिन हमारे यहाँ 55 साल के कुछ बुज़ुर्ग मेहनत की प्रेरणा लेने के बजाय, 20-25 साल
की लड़की वाली प्रेरणा ले लेते हैं इसमें आपका क्या दोष। और फिर वे बुज़ुर्ग जब नाकाम
होते हैं, तो युवा पीढ़ी को लताड़ते भी हैं कि फ़िल्में काल्पनिक होती हैं, सच नहीं होती!!!
लेकिन आप यक़ीन मानिए, स्कूलों से
लेकर कॉलेज तक का माहौल आप ही के रंग में रंगा हुआ रहेगा। नौकरी मिलने के बाद बॉस को भी उसी अंदाज़ से पीटने का मन होगा, जिस तरह आप अपनी नायिका के लिए किसी विलेन
को पीट देते थे। बॉस भी तो फ़िल्में देखकर यहाँ पहुंचा होगा। वो भी अनुशासन, परंपरा और
प्रतिष्ठा के नाम पर हमें हैंडल करता रहेगा। शादी से पहले लड़के और लड़कियाँ आप से ही
प्रेरणा लेकर जेठालाल की भाषा में रोमांचित (रोमांटिक) होते रहेंगे। पार्टनर से
मिलने पहुंचे तब तक रास्ते में देखे गए किसी ट्रक की शायरी याद रहे ना रहे,
आपके संवादों से हम काम चलाया करेंगे।
आप की हम इतनी इज़्ज़त करेंगे कि
आप कला के नाम पर आकार दिखा दें, या आकार दिखाने के बजाय कला ही दिखा दें, यह देश
आपको तिरंगे में लपेटकर ही बिदाई देगा। हम आपको यक़ीन दिलाते हैं कि सेना और सेना के
जवानों के लिए हम जान दे देंगे वाले, आप ही की दुनिया के डायलॉग बोला करेंगे, लेकिन
जब नेता और अभिनेता की बात आएगी, हम खंभे पर लटक-लटक कर, दिन भर धूप या बारिश को
झेलकर भी आपके दर्शनों के लिए सड़कों पर उतरते जाएँगे। सेना का जवान कोई शिकायत
करेगा तो हम पूरी तरह से उसके साथ खड़े नहीं रहेंगे, लेकिन आप डॉक्टर से ज़ुकाम की ही
शिकायत कर लेना, हम सब छोड़-छाड़ के आपके स्वास्थ्य के लिए दुआएँ करेंगे!
अनारकली डिस्को चलेगी तो हम भी चलेंगे... पूरी पारदर्शिता वाले वस्त्रों में जब जब
आप भारतीय संस्कृति का माहात्म्य गाएँगे, हम भी हर तरीक़े से प्रफुल्लित होते
जाएँगे।
ख़ून का कतरा कतरा बहा दूँगा कहते
रहेंगे, फिर भले लैब में ख़ून की जाँच के वक्त पंक्चर लगाने में चीखने-चिल्लाने लगे। आसमान
से तारे तोड़ने वाला संवाद हम कभी पुराना नहीं होने देंगे, फिर भले शादी के बाद हर
सुबह श्रीमतीजी बाज़ार से कौन सी चीज़ें लानी हैं, उसका लिस्ट दे और हम ऊबने लगे। आप ही
की फ़िल्में देखकर हम अन्याय के ख़िलाफ़ लड़ने निकलेंगे, फिर भले सामने वाला हमारे ही
हाथों से डंडा छीनकर हमें ही पीट दे। तिरंगा, बॉर्डर, माँ तुझे सलाम, एलओसी जैसी फ़िल्में देखकर तिरंगे के लिए हम जान दे देंगे, फिर भले 2 बीधा जमीन के लिए अपनों को ही हम मार डालते हो।
वैसे, आजकल भी अंदरुनी तौर पर
नागरिकी वाद-विवाद होते रहते हैं। कुछ कहते हैं कि आप लोग ढिश्कियाऊं वाली गोली
फ़ायर करने के बाद गन को स्टाइल से फूंक मारा करते थे, क्योंकि उस समय गन इतनी
अच्छी नहीं आती थीं, और नली गर्म हो जाया करती थी, तो आप लोग उसे ठंडा किया करते थे।
कुछ कहते हैं कि ऐसा नहीं था। ये तो आपका अपना अनोखा स्टाइल था। लेकिन खिचड़ी वाले
हिमांशु का शुक्रिया कि अब लोग कहने लगे हैं कि... स्टाइल का स्टाइल और ठंडा का
ठंडा…!!!
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)
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