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Field Marshal Sam Manekshaw: सैम बहादुर... फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ, वो अधिकारी जिन्होंने सही के आगे किसी की नहीं सुनी

 
"आप को अब से केवल दो बातें ही ध्यान में रखनी हैं। पहली बात - आप में से कोई भी तब तक पीछे नहीं हटेगा, जब तक आपको इसके लिए लिखित आदेश नहीं मिलते। दूसरी बात - आपको यह आदेश कभी नहीं दिया जाएगा।" 1962 युद्ध के बाद सीमा पर अपने सैनिकों को यह कहकर संबोधित करने वाले इस सैन्य अधिकारी के साथ 1971 के बाद एक बार तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी बातचीत कर रही थीं, "ऐसी चर्चा है कि आप मेरा तख़्ता पलटने वाले हैं।" वह शख़्स बिना झिझके अपने ही अंदाज़ में जवाब देता है, "मैं आपका सही उत्तराधिकारी साबित हो सकता हूँ। क्योंकि आप ही की तरह मेरी भी नाक लंबी है। लेकिन मैं अपनी नाक किसी के मामले में नहीं डालता और यही अपेक्षा मैं आप से भी रखता हूँ।"
 
वह शख़्स एक-दो नहीं, किंतु पाँच-पाँच युद्धों का हिस्सेदार रहा। सात-सात गोलियाँ खाकर भी वो युद्ध के मोर्चे से ज़िंदा वापस लौटा। एक ऐसा अधिकारी, जिन्होंने सही के आगे किसी की नहीं सुनी। वो शक्तिशाली प्रधानमंत्री की बात को भी काट देता था। वह अपने सैनिकों के सम्मान के लिए किसी से भी भिड़ जाता था। इस शख़्स को यूँ ही 'सैम बहादुर' नहीं कहा जाता। ज़िंदादिल, बेफ़िक्र, हाज़िरजवाबी, सख़्त और अपने काम से सौ फ़ीसदी निस्बत रखने वाले इस शख़्स को 'फ़ील्ड मार्शल' का सम्मान हासिल है। वह भारतीय सेना के इतिहास के पहले सैन्य अधिकारी हैं, जिन्हें यह सम्मान हासिल है।
 
इस लेख की शुरुआत में जो घटना दर्ज है, जहाँ वे अपने सैनिकों को अपने ही अंदाज़ में संबोधित करते हैं, वह घटना 1962 में चीन से युद्ध हारने के बाद जब सैम को बिजी कौल के स्थान पर चौथी कोर की कमान सौंपी गई तब की है। जबकि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के साथ उनका वो संवाद अनेक लेखों और किताबों में दर्ज है।
 
इन्होंने क़रीब चार दशक सेना में गुज़ारे और इस दौरान पाँच युद्धों में हिस्सा लिया। सैनिक के रूप में इन्होंने अपनी शुरुआत ब्रिटिश इंडियन आर्मी से की। इसके बाद दूसरे विश्वयुद्ध में भी इन्होंने हिस्सा लिया। भारत स्वतंत्र हुआ उसके पश्चात पड़ोसी देशों के साथ हुए युद्धों में इन्होंने हिस्सा लिया। बतौर सेनाध्यक्ष, 1971 की जंग में भारतीय सेना की जीत का ख़ाका ख़ुद मानेकशॉ ने ही खींचा था।
 
इनका परिवार गुजरात के वलसाड से पंजाब आ गया था। 3 अप्रैल 1914 को पंजाब के अमृतसर में जन्मे सैम होर्मूसजी फ्रेमजी जमशेदजी मानेकशॉ का पूरा नाम शायद ही किसी को याद हो। उनके परिवार वाले हो, उनके सैनिक साथी हो, अफ़सर हो, दोस्त हो, या देश के लोग हो, सब इन्हें 'सैम' या 'सैम बहादुर' के नाम से ही पहचानते हैं।
 
युद्ध के मोर्चे पर डॉक्टर ने भी समझ लिया था मरा हुआ, सात गोलियाँ खाकर भी मौत को हराया
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान 4 फ़रवरी 1942 को इन्हें स्थायी कैप्टन के रूप में पदोन्नत किया गया। इन्होंने 1942 में बर्मा में सितांग नदी पर 12वीं फ्रंटियर फोर्स रेजिमेंट की चौथी बटालियन के साथ अपनी कंपनी का नेतृत्व किया। सितांग सेतुशीर्ष के बाईं ओर एक स्थान पगोडा हिल के आसपास लड़ाई के दौरान कंपनी के तीस प्रतिशत से अधिक सैनिक मारे जा चुके थे। इस बीच मानेकशॉ एलएमजी की चपेट में आ गए और गंभीर रूप से घायल हो गए।
 
एक जापानी सैनिक ने एलएमजी से जो गोलियाँ दागीं, उनमें से सात गोलियाँ मानेकशॉ को लगीं। गोलियाँ इनकी आंतों, जिगर और गुर्दों में उतर गयीं थीं। मानेकशॉ गंभीर रूप से घायल हुए। उनकी हालत ऐसी थी कि उनके कमांडर मान चुके थे कि अब वे ज़िंदा नहीं बचेंगे।
 
पूर्व सेनाध्यक्ष वीके सिंह बीबीसी को बताते हैं, "उनके कमांडर मेजर जनरल कोवान ने उसी समय अपना मिलिट्री क्रॉस उतार कर उनके सीने पर इसलिए लगा दिया, क्योंकि मृत फ़ौजी को मिलिट्री क्रॉस नहीं दिया जाता था।"
 
कमांडर ने आदेश दिया कि सभी घायलों को उसी अवस्था में छोड़ दिया जाए, क्योंकि अगर उन्हें वापस लाया जाता तो पीछे हटती बटालियन की गति धीमी पड़ जाती। लेकिन सूबेदार मेहर सिंह इन्हें अपने कंधे पर उठा कर वापस लाए।

 
सैम की हालत इतनी ख़राब थी कि डॉक्टरों ने उन पर अपना समय बरबाद करना उचित नहीं समझा। तब मेहर सिंह ने डॉक्टरों की तरफ़ अपनी भरी हुई राइफ़ल तानते हुए कहा, "हम अपने अफ़सर को जापानियों से लड़ते हुए अपने कंधे पर उठा कर लाए हैं। हम नहीं चाहेंगे कि वह हमारे सामने इसलिए मर जाएं, क्योंकि आपने उनका इलाज नहीं किया। आप उनका इलाज करिए, नहीं तो मैं आप पर गोली चला दूँगा।"
 
डॉक्टर का मन अब भी नहीं मान रहा था, मगर सामने एक सैनिक उस पर राइफ़ल ताने खड़ा था। अनमने मन से उनके शरीर में घुसी गोलियाँ निकालीं गईं और उनकी आंत का क्षतिग्रस्त हिस्सा काट दिया। इतना करने के बाद भी डॉक्टर को ज़रा सी उम्मीद नहीं थी कि सैम बचेंगे। लेकिन सैम को अभी मरना नहीं था। आश्चर्यजनक रूप से वे होश में आए। वे होश में आए तब सर्जन ने इनसे पूछा कि उन्हें क्या हुआ था? सैम ने जवाब दिया, "कुछ नहीं। एक गधे ने लात मार दी थी।"
 
वीके सिंह के मुताबिक़ वह एक ऑस्ट्रेलियाई सर्जन था और सैम के इस जवाब के बाद उसकी टिप्पणी थी, "कसम से, आप एक ज़िंदादिल इंसान हैं। मेरा ख़्याल है, आपको ज़िंदा रहना चाहिए।" ज़्यादा इलाज के लिए इन्हें मांडले ले जाया गया, फिर रंगून और फिर भारत। सैम का इलाज चलता रहा और वे सात गोलियाँ खाकर भी युद्ध के मोर्चे से ज़िंदा वापस लौटे।
 
जब प्रधानमंत्री नेहरू की बेटी इंदिरा को ऑपरेशन रूम में आने से रोक दिया था, 1962 की जंग के बाद सैनिकों को सीमा पर कही थी वो बात
1962 के दौरान भारत-चीन युद्ध के बाद का समय था। भारत यह जंग बुरी तरह से हार चुका था। सैनिकों में शर्म और निराशा का माहौल था। इस बीच सैम को बिजी कौल के स्थान पर चौथी कोर की कमान दी गई। पद संभालते ही इन्होंने सीमा पर सैनिकों के साथ बैठक की। सैनिकों ने सोचा होगा कि कई चीज़ों की समीक्षा होगी और बहुत सारे बदलावों की बातें होगी।
 
मानेकशॉ ने सैनिकों के साथ बैठक की। इन्होंने अपने उसी अंदाज़ में सैनिकों को कहा, "आप को अब से केवल दो बातें ही ध्यान में रखनी हैं। पहली बात - आप में से कोई भी तब तक पीछे नहीं हटेगा, जब तक आपको इसके लिए लिखित आदेश नहीं मिलते। दूसरी बात - आपको यह आदेश कभी नहीं दिया जाएगा।"
 
और यह बात भारतीय सेना के इतिहास में सदैव के लिए दर्ज हो गई। एक ऐसा सैन्य अधिकारी सेना के बीच था, जो सैनिकों के बीच रहता, उनसे सख़्ती करता, उनसे बतियाता, हँसाता, लेकिन जब ज़वाबदेही उठाने का समय आता तब अपने सैनिकों को पीछे रख ख़ुद आगे बढ़ जाता।
 
उसी समय प्रधानमंत्री नेहरू और रक्षा मंत्री यशवंतराव चव्हाण ने सीमा क्षेत्रों का दौरा किया था। नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी भी उनके साथ थीं। सैम के एडीसी ब्रिगेडियर बहराम पंताखी अपनी किताब Field Marshal Sam Manekshaw: The Man and His Times में लिखते हैं, "सैम ने इंदिरा गांधी से कहा था कि आप ऑपरेशन रूम में नहीं घुस सकतीं, क्योंकि आपने गोपनीयता की शपथ नहीं ली है। इंदिरा को तब यह बात बुरी भी लगी थी। लेकिन सौभाग्य से इंदिरा गांधी और मानेकशॉ के रिश्ते इसकी वजह से ख़राब नहीं हुए थे।"
 
सख़्त मिज़ाजी सैन्य अधिकारी, साथ ही शरारती सैम
मानेकशॉ, जो सख़्त मिज़ाजी थे, वह उतने ही शरारती भी थे। वह सार्वजनिक जीवन में हँसी मज़ाक के लिए मशहूर थे। साथ ही वे अपने निजी जीवन में भी उतने ही अनौपचारिक और हंसोड़ थे। उनकी बेटी माया दारूवाला ने बीबीसी को बताया था, "लोग सोचते हैं कि सैम बहुत बड़े जनरल हैं, उन्होंने कई लड़ाइयाँ लड़ी हैं, उनकी बड़ी-बड़ी मूछें हैं, तो घर में भी उतना ही रौब जमाते होंगे। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं था। वह बहुत खिलंदड़ थे, बच्चे की तरह। हमारे साथ शरारत करते थे, हमें बहुत परेशान करते थे। कई बार तो हमें कहना पड़ता था कि डैड स्टॉप इट। जब वो कमरे में घुसते थे तो हमें यह सोचना पड़ता था कि अब यह क्या करने जा रहे हैं।"
 
अपने सैनिक के लिए रक्षा सचिव से भिड़ंत
शरारतें करने की अदा इन्हें लोकप्रिय बनाती थीं। लेकिन जब अनुशासन या सैनिक नेतृत्व और नौकरशाही के बीच संबंधों की बात आती थी, तो सैम अपनी यूनिट के अफ़सरों के सम्मान को लेकर कभी समझौता नहीं करते थे। भले ही सामने कोई बड़े से बड़ा अधिकारी क्यों ना बैठा हो, वो अपनी बात कहने से कभी नहीं डरते थे।
 
उनके मिलिट्री असिस्टेंट रहे लेफ़्टिनेंट जनरल दीपेंदर सिंह बीबीसी को एक क़िस्सा सुनाते हैं, "एक बार सेना मुख्यालय में एक बैठक हो रही थी। रक्षा सचिव हरीश सरीन भी वहाँ मौजूद थे। उन्होंने वहाँ बैठे एक कर्नल से कहा, यू देयर, ओपन द विंडो। वह कर्नल उठने लगा। तभी सैम ने कमरे में प्रवेश किया। रक्षा सचिव की तरफ़ मुड़े और बोले, सचिव महोदय, आइंदा से आप मेरे किसी अफ़सर से इस टोन में बात नहीं करेंगे। यह अफ़सर कर्नल है, यू देयर नहीं।" उस ज़माने के बहुत शक्तिशाली आईसीएस अफ़सर हरीश सरीन को उनसे माफ़ी मांगनी पड़ी थी।
 
वीके मेनन का सवाल और मानेकशॉ का जवाब
रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन की अपने अधिकतर जनरलों से नहीं बनती थी। एक बार उन्होंने सैम मानेकशॉ से पूछा, "जनरल थिमैया के बारे में आपकी क्या राय है?" हमेशा मुँहफट रहे मानेकशॉ ने जवाब दिया, "सर, जूनियर अफ़सर के तौर पर हमें अपने सीनियर अफ़सरों के बारे में अपने विचार प्रकट करने की इजाज़त नही है। हम अपने सीनियर्स का सम्मान करते हैं और इसमें कोई दो राय नहीं है।"
 
ऐसा जवाब सिर्फ़ मानेकशॉ ही दे सकते थे। पूर्व आर्मी चीफ़ जनरल वीके सिंह ने अपनी किताब, Leadership in the Indian Army: Biographies of Twelve Soldiers में ये क़िस्सा बयान किया है। वह 1957 का साल था। ज़ाहिर सी बात है कि रक्षामंत्री मेनन मानेकशॉ के तरीक़े से थोड़ा चिढ़ गए। उन्होंने कहा, "अँग्रेज़ों वाली सोच बदलो। मैं चाहूँ तो थिमैया को हटा भी सकता हूँ।" मानेकशॉ ने तपाक से जवाब दिया, "आप उन्हें बेशक हटा सकते हैं। लेकिन उनके बदले जो अगला चीफ़ आएगा, उनके बारे में भी मेरा यही जवाब होगा।"
 
मेनन ने इस जवाब को पसंद नहीं किया और बाद में सैम को इसका ख़ामियाज़ा उस वक़्त भुगतना पड़ा, जब उनके ख़िलाफ़ एक जाँच बैठा दी गई थी।
 
रास्ते में एक जवान का बैग उठा लिया और मेस तक पहुंचाया, जवान ने परिचय माँगा तो सैम का वोही ज़िंदादिल जवाब
जम्मू में तैनाती के दौरान का एक दिलचस्प वाक़्या है। सैम की आदत थी, हर दोपहर वो अधिकारियों के रहने-खाने के इंतज़ाम का मुआयना करने जाते थे। एक रोज़ ऐसे ही एक दौरे पर इन्हें रास्ते पर एक जवान दिखाई दिया, जो अपनी यूनिट की तरफ़ लौट रहा था। उसके पास तीन बैग थे। जिन्हें उठाने में दिक्कत आ रही थी।
 
मानेकशॉ ने ये देखा और मदद के लिए आगे आए। इन्होंने जवान का बैग उठाकर मेस तक पहुंचाया। जैसे ही दोनों मेस तक पहुंचे, सब लोग खड़े होकर सैल्यूट करने लगे। जवान को समझ नहीं आया कि वो लोग किसे सैल्यूट कर रहे हैं। उसने मानेकशॉ की तरफ़ पलटकर पूछा, "आप कौन हैं?" इस पर मानेकशॉ ने जवाब दिया, "मैं यहाँ लोगों की मदद के लिए मंडराता रहता हूँ। इसके बाद जो खाली समय मिलता है उसमें डिवीजन की कमान संभालता हूँ।"
 
जब सेना की पूर्वी कमान के प्रमुख मानेकशॉ को एक सैनिक ने बिना पहचान पत्र के भीतर घुसने नहीं दिया
सेनाध्यक्ष का पद संभालने से पहले सैम मानेकशॉ पूर्वी कमान के प्रमुख हुआ करते थे। उनकी एक निजी कार थी 'सनबीम रैपियर', जिसे अक्सर उनकी पत्नी चलाया करती थीं। एक दिन रविवार को अचानक सैम ने अपनी कार निकाली और दफ़्तर के लिए चल पड़े। इन्होंने शॉर्ट्स और उसके नीचे पेशावरी चप्पल पहनी हुई थी।
 
फोर्ट विलियम के प्रवेश द्वार पर एक गोरखा संतरी ने रोक कर उनसे उनका परिचय पत्र माँगा। चूँकि सैम अपना आइडेंटिटी कार्ड घर पर ही भूल आए थे, इसलिए इन्हें अपने ही दफ़्तर में नहीं घुसने दिया गया। सैम ने गोरखा संतरी से उसीकी भाषा में कहा, "तुम मुझे पहचानते नहीं? मैं तुम्हारा आर्मी कमाँडर हूँ। (अनुवाद)" गोरखा ने जवाब दिया, "नहीं, मैं आपको नहीं पहचानता। आपके पास न तो आइडेंटिटी कार्ड है, न रैंक के बैज। आप की कार पर न तो झंडा लगा है। मैं कैसे यक़ीन कर लूँ कि आप आर्मी कमाँडर हैं। (अनुवाद)"
 
तब सैम ने संतरी से कहा, "क्या मैं आपके बूथ से एक टेलिफ़ोन कर सकता हूँ?" सैम ने कमाँडिंग अफ़सर को फ़ोन मिला कर कहा, "आपके एक लड़के ने मुझे गेट पर रोक लिया है। उसकी ग़लती नहीं है। मैंने वर्दी नहीं पहन रखी है और न ही मेरा आइडेंटिटी कार्ड मेरे पास है। क्या तुम मुझे अंदर करवा सकते हो?"
 
एक मिनट के अंदर कमाँडिंग अफ़सर वहाँ पहुंच गया। उसने सैम को अंदर करवाया और उनके निर्देश पर गोरखा सैनिक को उसकी ड्यूटी के लिए ज़ोरदार शाबाशी दी गई।
 
ताक़तवर प्रधानमंत्री की बात को भी काट देते थे सैम, सही के आगे किसी की नहीं सुनी
बात 1971 की लड़ाई की है। इंदिरा गांधी चाहती थीं कि वह मार्च में ही पाकिस्तान पर हमला कर दें, लेकिन सैम ने ऐसा करने से साफ़ इनकार कर दिया। बताया जाता है कि इन्हें ये बात अच्छे से मालूम थी कि भारतीय सेना अभी हमले के लिए तैयार नहीं है। इन्होंने इस संबंध में जनरल जैकब से बात भी कर ली थी। इंदिरा गांधी नाराज़ भी हुईं। मानेकशॉ ने पूछा, "आप युद्ध जीतना चाहती हैं या नहीं?" उन्होंने कहा, "हाँ।" मानेकशॉ ने कहा, "मुझे छह महीने का समय दीजिए। मैं गारंटी देता हूँ कि जीत आपकी होगी।"
 
1971 की लड़ाई के बाद का वो क़िस्सा हमने ऊपर ही देखा, जो अनेक जगहों पर दर्ज भी है, जब सैम प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को अपने ही अंदाज़ में जवाब देते हैं। इंदिरा गांधी के साथ उनकी बेतकल्लुफ़ी के कई क़िस्से मशहूर हैं। मेजर जनरल वीके सिंह बीबीसी को बताते हैं, "एक बार इंदिरा गांधी जब विदेश यात्रा से लौटीं तो मानेकशॉ उन्हें रिसीव करने पालम हवाई अड्डे गए। इंदिरा गांधी को देखते ही उन्होंने कहा कि आपका हेयर स्टाइल ज़बरदस्त लग रहा है। इस पर इंदिरा गांधी मुस्कराईं और बोलीं, और किसी ने तो इसे नोटिस ही नहीं किया।"
 
1971 की ऐतिहासिक जीत के हीरो सैम, वह जंग जिसमें महज़ कुछ दिनों के भीतर दक्षिण एशिया का नक्शा तक बदल दिया था भारतीय सेना ने, पाकिस्तान का आत्मसमर्पण
1971 का साल। वह ऐतिहासिक युद्ध, जिसमें भारतीय सेना ने महज़ कुछ दिनों के भीतर ही दक्षिण एशिया का नक्शा बदल दिया। विश्व के मानचित्र पर बांग्लादेश नाम के नये देश का उदय हुआ। पाकिस्तान के दो टुकड़े हो गए।
 
उस ऐतिहासिक जंग की कहानियाँ सार्वजनिक हैं। भारतीय थल सेना, नौ सेना और वायु सेना ने बढ़िया तालमेल के साथ पाकिस्तान को नाकों चने चबवा दिए। परिणाम स्वरूप पाकिस्तानी सेना ने बिना शर्त आत्मसमर्पण किया और बांग्लादेश का उदय हुआ।

 
सैम की बेटी माया दारूवाला बीबीसी को कहती हैं कि सैम अक्सर कहा करते थे कि लोग सोचते हैं कि जब हम देश को जिताते हैं तो यह बहुत गर्व की बात है, लेकिन इसमें कहीं न कहीं उदासी का पुट भी छिपा रहता है, क्योंकि लोगों की मौतें भी हुई होती हैं।
 
बकौल माया दारूवाला, सैम के लिए सबसे गर्व की बात यह नहीं थी कि भारत ने उनके नेतृत्व में पाकिस्तान पर जीत दर्ज की। उनके लिए सबसे बड़ा क्षण तब था जब युद्धबंदी बनाए गए पाकिस्तानी सैनिकों ने स्वीकार किया था कि उनके साथ भारत में बहुत अच्छा व्यवहार किया गया था।
 
सैम और टिक्का ख़ान की मुलाक़ात
जुलाई 1972 में Simla Agreement हुआ। समझौते में ये बात भी लिखी थी कि दोनों देश एक दूसरे की क़ब्ज़ाई ज़मीन लौटा देंगे। बाक़ी जगहों पर तो मसला हल हो गया, लेकिन अंत में बात एक छोटे से गाँव पर आकर फ़ंस गई। थाको चक नाम का ये गाँव, जम्मू में सीमा के पास था और दोनों देश इस पर अपना दावा जता रहे थे। तय हुआ कि दोनों देशों के थल सेना अध्यक्ष, टिक्का ख़ान और सैम मानेकशॉ मिलकर इस मसले का निपटारा करेंगे।
 
लाहौर में बैठक हुई। नतीजा नहीं निकला। सैम वापस भारत लौट आए। फिर एक बार बैठक आयोजित की गई। जनरल एसके सिन्हा बताते हैं, "टिक्का ख़ान सैम से आठ साल जूनियर थे और उनका अंग्रेज़ी में भी हाथ थोड़ा तंग था, क्योंकि वो सूबेदार के पद से शुरुआत करते हुए इस पद पर पहुंचे थे।"
 
टिक्का ख़ान ने पहले से तैयार वक्तव्य पढ़ना शुरू किया, "देयर आर थ्री ऑलटरनेटिव्स टू दिस।" इस पर मानेकशॉ ने उन्हें तुरंत टोका, "जिस स्टाफ़ ऑफ़िसर की लिखी ब्रीफ़ आप पढ़ रहे हैं उसे अंग्रेज़ी लिखनी नहीं आती है। ऑल्टरनेटिव्स हमेशा दो होते हैं, तीन नहीं। हाँ, संभावनाएँ या पॉसिबिलिटीज़ दो से ज़्यादा हो सकती हैं।"
 
सैम की बात सुन कर टिक्का इतने नर्वस हो गए कि हकलाने लगे। बैठक के पहले दौर के बाद सब लोग लंच के लिए चले गए। खाने की मेज़ पर दो मिलिट्री जनरल आमने सामने थे। खाने का समय था और कोई दूसरी बातचीत करनी थी। बातचीत का टॉपिक बना, फ़ौज के लिए बनने वाले मिलिट्री क्वार्टर कैसे होने चाहिए? इस पर बातचीत करते हुए सैम चालाकी से मुद्दे को ज़मीन पर ले आए और अंत में टिक्का थाको चक को भारत को लौटाने के लिए तैयार हो गए, बदले में भारत ने श्रीनगर में लिपा घाटी के पास एक छोटा सा इलाक़ा, जो तीन तरफ़ से पाकिस्तान से घिरा था, उन्हें सौंप दिया।
 
आत्मसमर्पण के लिए जनरल जैकब के ढाका जाने पर विवाद, सैम ने सरकार का तर्क नहीं माना और जैकब को ही भेजा ढाका
साल 1971 में जब पाकिस्तानी सेना के आत्मसमर्पण का समय आया तो इंदिरा गांधी चाहतीं थीं कि सैम मानेक शॉ ढाका जा कर ख़ुद सरेंडर लें। लेकिन सैम ने ये कहते हुए इनकार कर दिया कि अगर पूरी पाकिस्तानी सेना ने सरेंडर किया होता तो मैं बहुत ख़ुशी से ढाका जाता। सरेंडर से पहले उसकी व्यवस्था करवाने के लिए एक वरिष्ठ सैनिक अधिकारी को ढाका भेजा जाना था।
 
सैम ने पूर्वी कमान के चीफ़ ऑफ़ स्टाफ़ मेजर जनरल जैकब को इस काम के लिए चुना। सैम के एडीसी रहे ब्रिगेडियर पनथाकी अपनी किताब Field Marshal Sam Manekshaw: The Man and His Times में लिखते हैं, "जब रक्षा मंत्रालय को इसका पता चला तो उसने इस बात पर चिंता प्रकट की कि मुस्लिम सेना के आत्मसमर्पण की व्यवस्था के लिए एक यहूदी अफ़सर को भेजा जा रहा है। सरकार परेशान है कि भारत के मित्र मुस्लिम देश इसको किस तरह से लेंगे?"
 
सैम ये सुनते ही आगबबूला हो गए। इन्होंने कहा, "सरकार तीस सालों तक क्यों चुप रही जब जैकब देश के लिए अपनी ज़िंदगी ख़तरे में डाल रहे थे? वैसे भी सेना धर्म और जाति से कहीं ऊपर है। फ़ोन रखने के बाद सैम ने जैकब को फ़ोन कर सब बात बताई। जैकब ये सुन कर भावुक हो गए और उन्होंने अपने पद से इस्तीफ़ा देने की बात कही। इस पर सैम उनसे नाराज़ हो गए और बोले अब मुझको इस्तीफ़ा वगैरह देने की धमकी मत दो। अगर तुमने ऐसा किया तो मुझे उसे स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं होगी।"
 
पाकिस्तानी कर्मचारी ने अपना साफा उतार कर सैम के कदमों में रख दिया
1971 युद्ध के ख़त्म होने के बाद पाकिस्तान के हज़ारों युद्धबंदियों को भारत लाया गया और उनके लिए बंदी शिविर बनाए गए। मानेकशॉ सभी शिविरों में जाते और युद्धबंदियों से मुलाक़ात करते और उनसे पूछते कि क्या उन्हें कोई दिक्कत तो नहीं है। युद्धबंदियों में एक पाकिस्तानी कर्नल भी था। उसने मानेकशॉ से कहा, "सर अगर आप एक कुरान की एक प्रति दिलवा दें तो बड़ी मेहरबानी होगी।" मानेकशॉ ने राजपूताना राइफ़ल्स केंद्र में एक आदमी भिजवाया। वहाँ एक मुस्लिम टुकड़ी थी। उनसे कुरान लेकर मानेकशॉ ने शाम होने से पहले ही पाकिस्तानी कर्नल तक पंहुचा दी।
 
उनके व्यवहार को देखकर पाकिस्तानी कर्नल बहुत प्रभावित हुए और उनसे बोले, "मैंने आपके बारे में बहुत सुना है। मुझे अफ़सोस है कि आप मेरे कमांडर नहीं है।" एक दूसरे मौक़े पर मानेकशॉ ने जब एक पाकिस्तानी जवान के कंधे पर हाथ रखकर उसका हालचाल पूछा, तब वो बोला, "अपनी सेना के जनरलों को तो हम बस दूर से देख सकते थे। वो कभी सैनिकों से इस तरह रूबरू होकर बात नहीं करते थे।"
 
एक रोज़ मानेकशॉ के साथ एक घटना हुई। हुआ यूँ कि लाहौर में आर्मी चीफ्स की मीटिंग हुई। पाकिस्तानी फ़ौज ने लाहौर गवर्नर हाउस में भोजन का आयोजन किया था। भोजन के बाद मानेकशॉ को बताया गया कि गवर्नर हाउस के कर्मचारी उनसे मिलना चाहते हैं। मानेकशॉ मिलने पहुंचे तो एक पाकिस्तानी कर्मचारी ने अपना साफा उतार कर सैम के कदमों में रख दिया। जब सैम ने इसका कारण पूछा तो उस आदमी ने जवाब दिया, "सर, मेरे पाँच लड़के आपकी क़ैद में हैं। वो मुझे ख़त लिखते हैं। उन्होंने लिखा कि आपने उन्हें कुरान दी। उन्हें चारपाई मिली है, जबकि आपके सैनिक ज़मीन पर सोते हैं। अब मैं किसी पे विश्वास नहीं करता जो कहते हैं कि हिन्दू ख़राब होते हैं।"
 
सैम ने याह्या ख़ान को बेची बाइक, सालों बाद भी चेक नहीं मिला, फिर आया 1971 का साल, मोटरबाइक के बदले पूरा देश
साल 1947 में मानेकशॉ और याह्या ख़ान दिल्ली में सेना मुख्यालय में तैनात थे। याह्या ख़ान को मानेकशॉ की मोटरबाइक बहुत पसंद थी। वह इसे ख़रीदना चाहते थे, लेकिन सैम उसे बेचने के लिए तैयार नहीं थे।
 
याह्या ने जब विभाजन के बाद पाकिस्तान जाने का फ़ैसला किया तो सैम उस मोटरबाइक को याह्या ख़ान को बेचने के लिए तैयार हो गए और दाम लगाया गया 1,000 रुपए। याह्या मोटरबाइक पाकिस्तान ले गए और वादा कर गए कि जल्द ही पैसे भिजवा देंगे। सालों बीत गए, लेकिन सैम के पास वह चेक कभी नहीं आया।
 
बहुत सालों बाद जब पाकितान और भारत में युद्ध हुआ, तब मानेकशॉ और याह्या ख़ान अपने अपने देशों के सेनाध्यक्ष थे। लड़ाई जीतने के बाद सैम ने मज़ाक किया, "मैंने याह्या ख़ान के चेक का 24 सालों तक इंतज़ार किया, लेकिन वह कभी नहीं आया। आख़िर उन्होंने 1947 में लिया गया उधार अपना देश दे कर चुकाया।"
 
जहाँ गए सैम, साथ रहती थी उनकी 'सनबीम रैपियर', ऑस्टिन प्रिंसेस के दीवाने थे सैम
आर्मी में अपने शुरुआती दिनों में सैम मानेकशॉ को कार का बड़ा शौक था। इसी बीच वे इम्पीरियल डिफेंस कॉलेज लंदन गए। जब लौटे तो उनके साथ उस वक़्त की मशहूर कार 1958 सनबीम रैपियर थी, जिसे इन्होंने 600 पौंड में ख़रीदा था। इसे शिप से भारत लाने में इन्होंने 100 पौंड कस्टम ड्यूटी भी चुकाई थी। तब एक पौंड की क़ीमत 12 या 13 रुपए होती थी।
 
मानेकशॉ की जहाँ भी पोस्टिंग हुई, यह कार उनके साथ ही जाती थी। जब मानेकशॉ ईस्टर्न आर्मी कमांडेंट बनकर कोलकाता (तब कलकत्ता) पोस्टेड हुए, तब भी ये कार उनके साथ रही। आँखों की रोशनी कम होने के चलते कार चलाना छोड़ने से चार-पाँच साल पहले तक मानेकशॉ इसे चलाते दिखते थे।
 
जब सैम मानेकशॉ सैन्य मुख्यालय में डीएमओ थे, तब इन्हें भारतीय सेना के अंतिम कमांडर इन चीफ़ जनरल सर रॉय बुकर के साथ कई बैठकों में जाना पड़ता था। एक बार सैम जनरल के साथ उनकी स्टाफ़ कार 'ऑस्टिन प्रिंसेस' में सफ़र कर रहे थे, जिसकी सीटों पर चमड़े के कवर चढ़े हुए थे। सैम ने उस कार की तारीफ़ करते हुए कहा कि उनकी इच्छा है कि एक दिन उनके पास भी ऐसी ही गाड़ी हो।

 
जनरल ने मज़ाकिया लहज़े में कहा, "सैम, तुम कम से कम सेना की अपनी इस नौकरी में तो ऐसी कार नहीं ही रख सकोगे।" फिर वक़्त गुज़रा और सैम पूर्वी कमान के कमांडर बने। वह कार दिल्ली के मिलेट्री हेडक्वार्टर में यूँ ही पड़ी थी। सैम उसे ले आए और कार को उसके मूल रूप में लाया गया तथा स्टाफ़ कार के रूप में इस्तेमाल किया जाने लगा। सैम ने जनरल रॉय बुकर को चिट्ठी लिखी कि आप यह जानकर बहुत ख़ुश होंगे कि मेरे पास भी अब वही कार है, जिसका उपयोग आप करते थे।
 
यह कार सिल्वर ग्रे कलर में रंगी गई थी और अपने पूरे कलकत्ता प्रवास के दौरान सैम ने इसका उपयोग किया। जब भी वह कहीं भिड़ जाती तो सैम उसे अपने क़रीबी दोस्त और ऑटोमोबाइल इंजीनियर मजूमदार के पास लेकर जाते थे, जो यूनियन कार्बाइड के तत्कालीन अध्यक्ष दारा एंटिया के साथ काम करते थे। मजूमदार कार के मामले में विशेषज्ञ थे, ख़ासकर ऑस्टिन के मामले में।
 
उन दिनों कलकत्ता का हर व्यक्ति जानता था कि यह कार सैम मानेकशॉ की है। जब यह सड़क पर होती थी, तो ट्रैफ़िक पुलिस सभी गाड़ियों को रोककर पहले उसे निकालती थी और लोग हाथ हिलाकर अभिवादन करते थे।
 
कपड़ों के शौकीन सैम
मानेकशॉ को अच्छे कपड़े पहनने का शौक था। अगर इन्हें कोई निमंत्रण मिलता था, जिसमें लिखा हो कि अनौपचारिक कपड़ों में आना है, तो वह निमंत्रण अस्वीकार कर देते थे।
 
दीपेंदर सिंह बीबीसी के समक्ष कहते हैं, "एक बार मैं यह सोच कर सैम के घर सफ़ारी सूट पहन कर चला गया कि वह घर पर नहीं हैं और मैं थोड़ी देर में श्रीमती मानेकशॉ से मिल कर वापस आ जाऊँगा। लेकिन वहाँ अचानक सैम पहुंच गए। मेरी पत्नी की तरफ़ देख कर बोले, तुम तो हमेशा की तरह अच्छी लग रही हो, लेकिन तुम इस 'जंगली' के साथ बाहर आने के लिए तैयार कैसे हुई, जिसने इतने बेतरतीब कपड़े पहन रखे हैं?"
 
सैम चाहते थे कि उनके एडीसी भी उसी तरह के कपड़े पहनें जैसे वह पहनते हैं, लेकिन ब्रिगेडियर बहराम पंताखी के पास सिर्फ़ एक सूट होता था। एक बार जब सैम पूर्वी कमान के प्रमुख थे,न्होंने अपनी कार मंगाई और एडीसी बहराम को अपने साथ बैठा कर पार्क स्ट्रीट के बॉम्बे डाइंग शो रूम चलने के लिए कहा। वहाँ ब्रिगेडियर बहराम ने इन्हें एक ब्लेजर और ट्वीड का कपड़ा ख़रीदने में मदद की। सैम ने बिल दिया और घर पहुंचते ही कपड़ों का वह पैकेट एडीसी बहराम को पकड़ा कर कहा, "इनसे अपने लिए दो कोट सिलवा लो।"
 
अपने काम में सौ फ़ीसदी थे सैम, लेकिन हाज़िरजवाबी और मुँहफट होने से इन्हें कोई रोक नहीं पाया
सैम अपने काम को सौ फ़ीसदी देते थे। उनका काम के प्रति जुनून, उनका कर्तव्य पालन, इस पर किसी ने कोई सवाल नहीं उठाया। सिवा पाकिस्तानी सैन्य अधिकारियों के। अपनी हाज़िरजवाबी और मुँहफट होने की वजह से इनके साथ कुछ विवाद भी जुड़े रहे।
 
1971 की लड़ाई के बाद उनके और जनरल जैकब के बीच मतभेदों को लेकर अनेक बार काफ़ी कुछ लिखा गया है। जनरल जैकब अपनी किताब में इन चीज़ों को लेकर खुलासा भी कर चुके हैं। हालाँकि सैम ने ऐसे मतभेदों को लेकर कभी अपना मुँह नहीं खोला।
 
1971 की लड़ाई के बाद सैम की युद्ध रणनीति को लेकर मीडिया ने उनसे सवाल किया, "आप बंटवारे के बाद पाकिस्तान चले गए होते तो क्या होता?" सैम ने तुरंत कहा, "तो 1971 का युद्ध भारत जीत नहीं पाता।"

 
कई बातें ऐसी थीं, जो सैम को नहीं करनी चाहिए थी। किंतु सरकार और लोगों ने शरारती, हाज़िरजवाबी और मुँहफट सैम का काम के प्रति लगाव, कर्तव्य पालन, और बिना किसी दबाव के काम करने की आदत को ही ज़्यादा पसंद किया। इनके कुछ बयानों को नज़रअंदाज़ कर दिया गया। उस इंसान से आप क्या कह सकते हैं, जो भारत की शक्तिशाली प्रधानमंत्री से कहे, 'आज आपका हेयर स्टाइल ज़बरदस्त लग रहा है।' और प्रधानमंत्री उनके सामने झुक कर कहे, 'शुक्रिया सैम।'
 
वे हाज़िरजवाबी थे, शरारती थे और मुँहफट भी थे। कोई नियम, जिसका कोई तर्क या मतलब बनता था, उसके लिए वे सख़्त थे। किंतु अगर इन्हें कोई नियम बेमतलबी लगता, तो वे इसका उल्लंघन भी कर देते थे। दूसरी तरफ़ वे अपने सैनिकों तथा सीनियर्स के सम्मान को लेकर राजनेता तक से भिड़ जाते थे।
 
एक बार उनसे पूछा गया कि वे अपने ज़िंदगी की सबसे बड़ी उपलब्धि किस चीज़ को मानते हैं? उन्होंने कहा, "मुझे अपनी ज़िंदगी में कभी किसी को कोई सज़ा नहीं देनी पड़ी। मैं अपने आप को इस बात के लिए बड़ा भाग्यशाली मानता हूँ।" जब उनसे पूछा गया कि जंग जीतने के क्या गुर होते हैं, तो उनका जवाब था, "जंग? मैं किसी से जंग नहीं करता। हाँ, अपनी पत्नी से ज़रूर लड़ता था, लेकिन चार साल पहले उनका भी स्वर्गवास हो गया।"
 
अपनी हाज़िरजवाबी और ज़िंदादिली के चलते इन्हें बहुत कुछ कहा गया, किंतु सैम ने स्वयं को जो अन्याय हुए उसके बारे में कभी कुछ नहीं कहा
जनवरी 1973 में सेवानिवृत्त होने से ठीक पहले इन्हें फ़ील्ड मार्शल बनाया गया। जनरल करिअप्पा को 1986 में 86 साल की उम्र में फ़ील्ड मार्शल बनाया गया था। सैम पहले भारतीय थे, जिन्हें फ़ील्ड मार्शल की रैंक मिली थी। लेकिन ये बात कम लोगों को पता है कि फ़ील्ड मार्शल उपाधि का व्यक्ति कभी रिटायर नहीं होता। एक्टिव ड्यूटी में न होने के बावजूद वो जिस अलाउंस के हक़दार थें, वो भी इन्हें नहीं दिया गया। साल 2007 में तत्कालीन राष्ट्रपति अब्दुल कलाम के प्रयास से इन्हें 30 साल के बकाए एरियर का चेक मिला।
 
तब मानेकशॉ तमिलनाडु के एक मिलिट्री हॉस्पिटल में भर्ती थे। मानेकशॉ ने चेक देखा और डिफेन्स सेक्रेटरी शेखर दत्त से पूछा, "क्या मुझे सरकार को कोई टैक्स भरना पड़ेगा?" 93 की उम्र में जाकर इन्हें गार्ड, अर्दली, स्टाफ़ अफ़सर, स्टाफ़ कार की सुविधाएँ मिलीं, जो अब उनके किसी काम की नहीं थी। इन्होंने ये सुविधाएँ लेने से इनकार कर दिया।
 
जून 27, 2008 वह तारीख़ थी, जब मानेकशॉ ने दुनिया को अलविदा कह दिया। फ़ील्ड मार्शल रैंक वाले आदमी के आख़िरी सम्मान के लिए न तो प्रधानमंत्री पहुंचे, न ही तीनों सेनाओं के सुप्रीम कमांडर यानी राष्ट्रपति। आर्मी चीफ़ उस दिन मास्को में थे। केंद्र सरकार से केवल राज्य रक्षा मंत्री पहुंचे थे। प्रोटोकॉल के तहत राष्ट्रीय ध्वज को भी आधा नहीं झुकाया गया। बाद में सरकार ने स्पष्टीकरण देते हुए कहा कि वो फ़ील्ड मार्शल को 'वारंट ऑफ़ प्रिसिडेंस' में जोड़ना भूल गए थे। हालाँकि इनका अंतिम संस्कार पूरे राजकीय सम्मान के साथ किया गया। तमिलनाडु में तमाम सरकारी इमारतों पर राष्ट्रीय ध्वज आधा झुका हुआ था।
 
ज़िंदादिल और बेफ़िक्र मानेकशॉ से एक बार जब कहा गया कि उन्हें अपनी आत्मकथा लिखनी चाहिए, तो इन्होंने जवाब दिया कि वो झूठ नहीं लिखना चाहते और सच लिखने से बहुत लोगों के लिए दिक्कतें खड़ी हो सकती हैं।
 
सम्मान
मानेकशॉ लगभग चार दशक के करियर के बाद 15 जनवरी 1973 को सक्रिय सेवा से सेवानिवृत्त हुए। वह अपनी पत्नी सिलू के साथ तमिलनाडु के वेलिंगटन छावनी के बगल में स्थित शहर कुन्नूर में बस गए। इसी जगह पर इन्होंने अपने करियर की शुरुआत में डिफेंस सर्विसेज स्टाफ़ कॉलेज के कमांडेंट के रूप में काम किया था। मानेकशॉ को 1972 में नेपाली सेना के मानद जनरल के रूप में सम्मानित किया गया। 1977 में इन्हें राजा बीरेंद्र द्वारा नेपाल अधिराज्य के नाइटहुड की उपाधि त्रिशक्ति पट्ट से सम्मानित किया गया।
 
नागालैंड समस्या को सुलझाने के अविस्मरणीय योगदान के लिए 1968 में इन्हें पद्म भूषण से नवाज़ा गया। देश के प्रति निस्वार्थ सेवा के चलते सैम को 1972 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया। 1 जनवरी 1973 को इन्हें फ़ील्ड मार्शल के मानद पद से अलंकृत किया गया।
 
1971 में मानेकशॉ के नेतृत्व में मिली जीत की याद में हर साल 16 दिसंबर को 'विजय दिवस' मनाया जाता है। 16 दिसंबर 2008 को तत्कालीन राष्ट्रपति द्वारा फ़ील्ड मार्शल की वर्दी में मानेकशॉ को चित्रित करने वाला एक डाक टिकट जारी किया था। साथ ही दिल्ली, बेंगलुरु, अहमदाबाद, वेलिंग्टन, पुणे छावनी जैसी जगहों पर भी इनकी स्मृतियाँ हैं।
 
(इनक्रेडिबल इंडिया, एम वाला)