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Indo Pak Relations : संवाद ज़रूरी है, किंतु संवाद में बात करना नहीं बोलना ज़रूरी होता है

 
एक बार भारत के प्रथम फ़ील्ड मार्शल ने कहा था - भारत एक देश है और उसके पास अपनी एक सेना है, पाकिस्तान के बारे में इसका उलटा है। यह व्यापक अंतर इस रिश्ते को सबसे ज़्यादा असर डालने वाला तत्व है।
 
हम आशावादी या निराशावादी नहीं हैं। हम हक़ीक़तवादी हैं और मानते हैं कि चीज़ें जल्दी नहीं बदलने वाली। आसान सी बात है कि पाकिस्तान के किसी भी चुने हुए प्रधानमंत्री को भारत की फ़िक्र नहीं हो सकती। और यही बात हमारे देश भारत के लिए भी लागू होती है।
 
सीधी बात है कि दोनों देशों की अपनी अपनी राजनीति है, अपनी सैनिक और ग़ैर सैनिक संस्थाएँ हैं, अपनी नीतियाँ हैं, अपनी विचारधारा हैं, और उन्हें प्रभावित करने वाले अंतरराष्ट्रीय तत्व हैं। भारत में संसदीय लोकतंत्र उसकी आत्मा है, पाकिस्तान में यह स्थिति इतने दशकों में कितने दिनों तक लागू रही होगी यह सोचना पड़ता है।
 
कभी सुनने पढ़ने के लिए मिलता है कि फलाँ फलाँ पाकिस्तान के नेता हैं। मसलन, उनके प्रधानमंत्री, रक्षा मंत्री, वित्त मंत्री, आदि के नाम लिए जाते हैं। वे पाकिस्तान के नेता हैं ऐसा कहा जाता है। हम तो कहेंगे कि, वे उस संस्था का केवल एक हिस्सा है जो भारत के विरुद्ध काम करने वाली संस्था हैं। “Every elected Leaders of Pakistan are only a body part of an Institution which works on Anti India Program”
 
भारत के विरुद्ध कार्य करने वाली वो संस्था पाकिस्तानी सरकार, पाकिस्तानी फ़ौज, पाकिस्तानी ख़ुफ़िया संस्था, पाकिस्तानी अलगाववादी, पाकिस्तानी आतंकवादी और पाकिस्तानी आवाम से बना हुआ एक चरमराता ढाँचा है। इस ढाँचे में पाकिस्तानी आवाम को आख़िरी पायदान पर लिखने का अर्थ भी जगज़ाहिर है।
बावजूद इसके एक चीज़ साफ़ है कि पाकिस्तान के साथ वार्ता होनी ही चाहिए! क्योंकि, हमें जिस संस्था के साथ 'डील' करनी है उस संस्था में आप को बात तो करनी ही पड़ेगी। दुनिया भर में ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जब दो विपरित ढाँचों को ऐसा करना ही पड़ा था।
 
लेकिन सवाल पैदा होता है कि आप किस से बात करेंगे? उदाहरण दर्शाते हैं कि सरकार से तथा उस सरकार को चलाने वाली संस्थाओं से। यहाँ 'एक सरकार दूसरी सरकार से बातचीत' करेगी उसका मतलब सार्वजनिक होता है, जिसमें व्यापार समेत बहुत सारी महत्वपूर्ण चीज़ें आ जाती हैं। जबकि 'सरकार को चलाने वाली संस्थाओं' का अर्थ और उसके मक़सद तथा इतिहास की आप को समझ होनी चाहिए।

 
ऐसे मामलों में जब एक सरकार से दूसरी सरकार बात करती है, तब दोनों सरकारों के बीच जो भी वार्ता हो रही है उसे प्रभावशाली बनाने के लिए इस प्रक्रिया के साथ दूसरी प्रक्रिया पर्दे के पीछे चल रही होती है। वो होती है सरकार को चलाने वाली संस्थाएँ एक दूसरे के साथ डील कर रही होती है। क्योंकि बहुत सीधी बात है कि उसकी संस्थाओं को 'प्रभावित' किए बिना आप हो रही वार्ता या बातचीत को अपने मनचाहे रास्ते मोड़ नहीं सकते। कभी कभी उनकी संस्थाओं के साथ बात करना, इस प्रक्रिया को काउंटर टेररिज्म प्रोग्राम-काउंटर प्रॉक्सी वॉर भी कहते है, या कूटनीति-रणनीति वगैरह भी।
 
पहली चीज़ हमें समझ लेनी चाहिए कि भारत की तमाम सरकारें तथा तमाम प्रधानमंत्रियों ने एक बात संपूर्णत: स्वीकार की है कि पाकिस्तान भारत के विरुद्ध 'प्रॉक्सी वॉर' लड़ रहा है। तकनीकी और ज़मीनी रूप से इस शब्द का मतलब आतंकवादी हमला नहीं बल्कि 'छद्म युद्ध' होता है। यानी इस शब्द का मतलब जंग से जाकर जुड़ता है। और जंग की परंपरा है कि वहाँ कभी भी, कोई भी देश, सच नहीं बोलता और एक दूसरे को सह्योग भी नहीं देता।
बात साफ़ है कि बातचीत ज़रूरी है... लेकिन बातचीत में बोलना चाहिए। जिसे कहा जाता है कि... When you are talking you should not talk, but speak. बोलने के लिए आप जिस ढाँचे से बातचीत करने जा रहे हैं उसको प्रभावित करने वाली संस्थाओं के साथ आप की 'ज़मीनी बातचीत' हुई हो ये बहुत ही ज़रूरी है। यूँ कहे कि डिप्लोमेसी (कूटनीति) की सफलता ज़मीन पर उठाए गए कदमों के ऊपर आधार रखती हैं। यानी, Diplomacy never succeeds without ground level actions.
 
हमारे यहाँ ऐसे कूटनीतिक कदमों के बाद हौआ पैदा किया जाता है कि स्थिति बदलेगी। कहा जा सकता है कि ऐसा हौआ अपने ही देश के लोगों के साथ किया जा रहा छद्मयुद्ध है। हमें कुछ सच को याद रखना होगा। हमें याद रखना होगा कि हम उस ढाँचे के ख़िलाफ़ लड़ रहे हैं जिसको हम तभी प्रभावित कर पाए थे जब हमने सरकार, सेना और कूटनीति का बेहतरीन तालमेल दिखाया था।
 

हमारा मीडिया या तथाकथित विशेषज्ञों का वो चंटपना जगज़ाहिर है जो दशकों से कहते हैं कि आ गया फलाँ फलाँ युद्धक विमान, आ गया उसका काल या इसका काल, थरथर कापेगा दुश्मन। कोई भी नया हथियार आता है उस समय की ख़बरें हम दशकों से देखते आए हैं। मीडिया में बैठे बैठे कुछ चंट लोग सुपर पावर वाला अहसास करने-कराने लगते हैं। सोशल मीडिया पर एक-दो दिनों में दुश्मन देश को नक्शे से ग़ायब करने का अभियान चल पड़ता है। किंतु समझना होगा कि भावना एक अलग विषय है और उसका संबंध कुछेक सतही बातों से ही होता है।
 
ऐसा क्यों है कि जब भी भारत-पाकिस्तान के बीच संवाद होता है तब कश्मीर पर बात होती है? ऐसा इसलिए कि वह पाकिस्तान का एजेंडा है और वो हर संवाद में अपने एजेंडे को जबरन खींचता है। लेकिन हम पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर की बात क्यों नहीं करते? वो अपने एजेंडे को लेकर कश्मीर में भी अपने लोगों की मौजूदगी दर्ज़ कराता है। चाहे वो कथित अलगाववादी हो, आतंकवादी हो, उनके मददगार हो या कोई और हो।
हम कहते हैं कि कश्मीर हमारा आंतरिक मामला है। लेकिन वहाँ हमारी विचारधारा की मौजूदगी कम ही दिखती है! क्योंकि हम ज़मीनी रूप से 'चहुदिशा' में 'सक्रिय' नहीं दिखते! वहाँ चुनाव हम कराते हैं, संस्थाएँ हम चलाते हैं, शिक्षा हम देते हैं, फ़ौज हमारी है, सुरक्षा बल हमारे हैं, पुलिस भी हमारी है। फिर भी क्यों हम वहाँ हमारी विचारधारा की जड़ें मजबूत करने को लेकर इतने चितिंत नहीं दिखते? वो कश्मीर की बात करते हैं तो हम गंभीरता से पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर की बात क्यों नहीं करते?
 
ये क्यों समझा नहीं जा सकता कि पाकिस्तान के साथ संवाद एक अलग विषय है और कश्मीर के साथ भारत का संवाद बिलकुल अलग विषय है। हम उस समस्या को केवल पाकिस्तान के नज़रिए से ही क्यों सोचते हैं? जब भी कश्मीर की बात की जाती है तो न जाने क्यों हम पूरी कश्मीरियत पर पाकिस्तानियत को जबरन खींच कर ले आते हैं!

 
ऐसा नहीं हो सकता कि हम कूटनीति और ज़मीनी कदम, इन दोनों को अलग अलग देखें और रखें। इन दोनों का बेहतरीन तालमेल बहुत ही अहम है। जब जब 'सरकारी तथा ज़मीनी रणनीति के तालमेल' के बिना आगे चला गया था, तब तब गंभीर घटनाओं का सामना करना पड़ा था। और तब उस समय उस घटना के सामने टक्कर झेलकर ख़ुश रहने के अलावा देश को कुछ नहीं मिल सका था।
 
ईंट का जवाब पत्थर से... या फिर... पाकिस्तान को उसी की भाषा में जवाब देना.. ये दोनों चीज़ें, इसके ऊपर एक सीधा सा सच है। और यह सच भारत के इतिहास के पन्नों में लिखा हुआ सच है, जिसे बदलने का माद्दा किसी में भी नहीं है। पहली चीज़ यह कि ऐसा भारत के तमाम प्रधानमंत्री तथा तमाम भारतीय सरकारें कह चुकी हैं। और दूसरी चीज़ यह कि इस पर अमल केवल सरदार पटेल तथा इंदिरा गांधी ही कर पाए थे।
 
भारत-पाकिस्तान-कश्मीर, इसे अगर आप किसी पार्टी, किसी संगठन या किसी एक विचारधारा के चश्मे से देखेंगे तो यक़ीनन ग़लती तो होगी ही। रही आगे की बात, हमने स्पष्ट कहा कि हम आशावादी या निराशावादी नहीं, बल्कि हक़ीक़तवादी हैं। इसलिए धारणाओं का पहाड़ खड़ा करने का कोई फ़ायदा नहीं है।

(इनसाइड इंडिया, एम वाला)