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Indo Pak Relations : संवाद ज़रूरी है, किंतु संवाद में बात करना नहीं बोलना ज़रूरी होता है




हम आशावादी या निराशावादी नहीं हैं। हम हक़ीक़तवादी हैं और मानते हैं कि चीज़ें जल्दी नहीं बदलनेवाली। सीधी सी बात है कि पाकिस्तान के किसी भी चुने हुए प्रधानमंत्री को भारत की फ़िक्र नहीं है। यह मानने के लिए हम क़तई तैयार नहीं हो सकतें कि उन्हें भारत की फ़िक्र होगी। बल्कि उन्हें अपनी, अपनी ज़िंदगी की, अपनी संस्थाओं की या अपने देश की ज्यादा फ़िक्र होगी। वे पाकिस्तान के नेता हैं ऐसा कहा जाता है। हम तो ये कहेंगे कि, वो उस संस्था का केवल एक हिस्सा है, जो भारत के विरुद्ध काम करने वाली संस्था हैं।” “Every elected PMs of Pakistan are only a body part of an Institution which works on Anti India Program” 

भारत के विरुद्ध कार्य करने वाली वो संस्था पाकिस्तानी सरकार, पाकिस्तानी फ़ौज, पाकिस्तानी ख़ुफ़िया संस्था, पाकिस्तानी अलगाववादी, पाकिस्तानी आतंकवादी और पाकिस्तानी आवाम से बना हुआ एक चरमराता ढाँचा है। इस ढाँचे में पाकिस्तानी आवाम को आख़िरी पायदान पर लिखने का मतलब भी जगज़ाहिर है।

एक चीज़ साफ़ है कि पाकिस्तान के साथ वार्ता होनी ही चाहिए। क्योंकि... हमें जिस संस्था के साथ डील करनी है उस संस्थान में आप को बात तो करनी ही पड़ती हैं। लेकिन सवाल पैदा होता है कि आप किस से बात करेंगे? उत्तर है कि सरकार से तथा उस सरकार को चलाने वाली संस्थाओं से। (सरकार सरकार से बातचीत करेगी उसका मतलब सार्वजनिक होता है, जिसमें व्यापार समेत बहुत सारी महत्वपूर्ण चीजें आ जाती हैं) (सरकार को चलानेवाली संस्थाओं का मतलब और उसके मकसद तथा इतिहास आप को ज्ञात होना चाहिए) सरकार से सरकार बात करेगी, लेकिन याद रखना बहुत बहुत ही ज़रूरी है कि सरकार के साथ जो बातें हो रही हैं उसे प्रभावशाली बनाने के लिए उसकी संस्थाओं के साथ डील करना बहुत ही ज़रूरी है। उनकी संस्थाओं को प्रभावित किये बिना आप सरकार के साथ हो रही बातचीत को अपने रास्ते मोड़ नहीं पाएंगे। और उनकी संस्थाओं के साथ बात करना... इसे काउंटर टेररिज्म प्रोग्राम कहते हैं कि जिसे काउंटर प्रॉक्सी वॉर भी कहा जाएगा।

पहली चीज़ आप को समझनी होगी कि भारत की तमाम सरकार तथा तमाम प्रधानमंत्रियों ने एक बात संपूर्णत: स्वीकार की है कि पाकिस्तान भारत के विरुद्ध प्रॉक्सी वॉर लड़ रहा है। तकनीकी और ज़मीनी रूप से इस लफ्ज़ का मतलब आतंकवादी हमला नहीं बल्कि छद्म युद्ध होता है। मतलब कि इस लफ्ज़ का मतलब जंग है। और जंग में कभी भी... कोई भी देश... सच नहीं बोलता और वो एक दूसरे को कभी भी सह्योग नहीं देता।
बात साफ़ है कि बातचीत ज़रूरी है... लेकिन बातचीत में बोलना चाहिए। जिसे कहा जाता है कि... When you are talking you should not talk, but speak. बोलने के लिए आप जिस ढांचे से बातचीत करने जा रहे हैं उसको प्रभावित करनेवाली संस्थाओं के साथ आप की ज़मीनी बातचीत हुई हो ये बहुत ही ज़रूरी हैं। इसे एक ही लफ्ज़ में कहा जाए तो, डिप्लोमेसी (कूटनीति) की सफलता ज़मीन पर उठाए गए कदमों के ऊपर आधार रखती हैं। मतलब कि... Diplomacy never succeeds without ground level actions.

हमारे यहां ऐसे कूटनीतिक कदमों के बाद हउआ पैदा किया जाता है कि स्थिति बदलेगी। मेरा व्यक्तिगत रूप से मानना है कि ये अपने ही देश के लोगों के साथ किया जा रहा छद्मयुद्ध है। जी हां, ये दुखद सच्चाई हैं। क्योंकि हमें पता है कि हम उस ढांचे के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे हैं जिसको हम ज्यादातर तो तनिक भी प्रभावित नहीं कर पाए हैं। ये याद रखना ज़रूरी होगा कि हम उन्हें जब भी प्रभावित कर पाए थे तब फौज व सरकार का तालमेल अहम रहा था।

हमारा मीडिया या तथाकथित विशेषज्ञों का इतिहास जगजाहिर है जो दशकों से कहते हैं कि आ गया फलां फलां युद्धक जहाज, आ गया उसका काल या इसका काल, थरथर कापेगा दुश्मन। कोई भी नया हथियार आता है तबकि खबरें हम आये दिन देखते हैं। लगता है कि मीडिया में बैठे बैठे वो सुपर पावर वाला अहसास करने लगते हैं। सोशल मीडिया पर तो हम एक-दो दिनों में दुश्मन देश को नक्शे से गायब करने का दावा भी कर देते हैं। लेकिन हमें ये समझना होगा कि भावना एक अलग विषय है, जिसका संबंध कुछेक बातों से होता है।

ऐसा क्यों है कि जब भी भारत-पाकिस्तान के बीच संवाद होता है तब कश्मीर पर बात होती हैं। ऐसा इसलिए कि वह पाकिस्तान का एजेंडा है और वो हर संवाद में अपने एजेंडे को जबरन खींचता हैं। लेकिन हम पाकिस्तान हस्तक कश्मीर की बात क्यों नहीं करते? वो अपने एजेंडे को लेकर कश्मीर में भी अपने लोगों की मौजूदगी दर्ज करवाता है। चाहे वो तथाकथित अलगाववादी हो, आतंकवादी हो, उनके मददगार हो या कोई और हो। हम कहते हैं कि कश्मीर हमारा आंतरिक मसला है। लेकिन वहां हमारी विचारधारा की मौजूदगी कम ही दिखती हैं। क्योंकि हम ज़मीनी तौर पर धीरे धीरे चलने में मानते होंगे। वहां चुनाव हम करवाते हैं, संस्थाएँ हम चलवाते हैं, शिक्षा हम देते हैं, फौज हमारी है, सुरक्षा बल हमारे हैं, पुलिस भी हमारी है। फिर भी क्यों हम वहां हमारी विचारधारा की मौजूदगी प्रबल करने को लेकर इतने चितिंत नहीं दिखते? पाकिस्तान के सामने सबसे पहला तोड़ यही है कि वो कश्मीर की बात करे और हम पाकिस्तान हस्तक कश्मीर की बात करे। ये पहला तोड़ है, रणनीतियां लागू करने का भी और आगे की योजनाओं का भी।
लेकिन ऐसा नहीं है कि हम कूटनीति और ज़मीनी कदम, इन दोनों को अलग रखे। इन दोनों का बेहतरीन तालमेल बहुत ही अहम पहलू है। अगर आप सरकारी तथा ज़मीनी रणनीति के तालमेल के बिना आगे चलेंगे तो फिर यक़ीन रखना पड़ेगा कि ऐसे हादसे या इससे भी गंभीर हादसे होते ही रहेंगे। उस वक्त आप इसके सामने टक्कर झेलकर खुश रहने के अलावा देश को कुछ भी नहीं दे पाएंगे। ये समझना बेहद ज़रूरी है कि पाकिस्तान के साथ संवाद एक अलग विषय है। और जब कश्मीर की बात आए तब वो एक अलग विषय है। हम उस समस्या को केवल पाकिस्तान के नजरिये से ही क्यों सोचते हैं?

ईंट का जवाब पत्थर से... या फिर... पाकिस्तान को उसीकी भाषा में जवाब देना.. ये दोनों चीजें, इसके ऊपर एक सीधी सी राय है। और यह राय भारत के इतिहास के पन्नों में लिखा हुआ सत्य है, जिसे बदलने का माद्दा किसी में भी नहीं हैं। पहली चीज़ यह कि... ऐसा भारत के तमाम प्रधानमंत्री तथा तमाम भारतीय सरकारें कह चुकी हैं। और दूसरी चीज़ यह कि... इस पर अमल केवल सरदार पटेल तथा इंदिरा गांधी ही कर पाए थे। अब अगर इस चीज़ को किसी पार्टी या पक्ष से जोड़कर देखेंगे तो फिर आप गलती ही करेंगे। रही आगे की बात... हमने साफ़ कहा है कि हम आशावादी या निराशावादी नहीं, बल्कि हक़ीक़तवादी हैं, धारणाओं का पहाड़ खड़ा करने का कोई फ़ायदा नहीं है।

(इनसाइड इंडिया, एम वाला)