कहा गया था कि जय जवान... जय किसान।
किसानों की ख़ुदकुशी इस देश के कलंकित प्रकरण की एक सूची है। और अब जवानों की ख़ुदकुशी
उस सूची को और गंभीर रूप दे रही है। वैसे फ़ौज की नौकरी मुश्किल होती है। अपने घर से,
परिवार से, सपनों से, आशाओं से दुर रहना, सरहद पर दिन-रात फ़र्ज़ निभाना, किसी भी मौसम
व परिस्थिति का सामना करना और अंत में अपनी ज़रूरतें, सहूलयितें पूरी की जाए उसके लिए राजनीतिक व्यवस्था की तरफ़ देखते रहना... यह सब लफ़्ज़ों में जितना आसान दिखता है उतना आसान नहीं है।
हर वो मुद्दा और हर वो समस्या उन जवानों के मोरल को, जवानों की क्षमता को,
दिमाग को, दिल को तारतार करते आए हैं। इन सब वजहों से
भारतीय फ़ौज में जवानों की ख़ुदकुशी की वारदाते बढ़ती जा रही हैं। हालाँकि यह समस्या आज के
दिन इतनी बड़ी तो नहीं हुई कि उसे अंकुश में लिया ना जा सके। किंतु अगर समय रहते इस समस्या
का समाधान नहीं किया जाता तो यह कुछ और गंभीर समस्याओं की दस्तक ज़रूर हो सकती हैं।
साल 2009 से लेकर 2013 तक भारतीय
फ़ौज के तीनों विंग में 598 जवानों ने अपनी ड्युटी के वक्त ख़ुदकुशी की थी। जिसमें आर्मी
के 498, एयरफोर्स के 83 और नेवी के 19 जवान शामिल थे। ज्यादा गंभीर स्थिति यह है कि
फ़ौज में वीआरएस ले लेना और नयी भरती में कमी एक समस्या बनी हुई है। 2009 से 2013 तक फ़ौज
के 2215 अधिकारियों ने वीआरएस के लिए एप्लीकेशन दी थी और उनमें से 1349 एप्लीकेशन को अप्रूवल मिली थी। (हालाँकि फ़ौजी चिकित्सा विभाग और नर्सिंग सर्विस में ऐसी स्थिति देखने
के लिए नहीं मिली)
हालाँकि भारतीय फ़ौज अपने तरीक़े से
इन ख़ुदकुशी और वीआरएस को रोकने के लिए कदम उठा रही है, भर्ती के लिए अपनी तरफ़ से आगे
आ रही है। किंतु राजनीतिक सहकार उपलब्ध नहीं होने के कारण इन मामलों में तेज़ी से कमी नहीं आई।
गौरतलब है कि 2002 से अब तक हर साल 100 (एवरेज फिगर) फ़ौजी
जवान ख़ुदकुशी करते आए हैं। फ़ौज में हो रही ख़ुदकुशी को रोकने के लिए 2007 में रक्षा मंत्रालय
ने डिफेंस इंस्टीट्यूट ऑफ साइकोलॉजिकल रिसर्च को एक संशोधन करने के लिए इजाज़त दी
थी। इस संशोधन के अंत में जो रिपोर्ट पेश की गई उसमें फ़ौजी जवानों के साथ उनके सिनियर्स
के द्वारा किया जा रहा ग़ैर ज़िम्मेदाराना व्यवहार, छुट्टी की समस्या, वर्कलोड वगैरह वजहों को ज़िम्मेदार बताया गया।
फ़ौज जैसी संस्थाओं की जो अन्य समस्याएं थी, जैसे कि उनकी
ज़रूरतें पूरी करना, सहूलयितें मुहैया कराना, फ़ौजी सामान नियत समय में उपलब्ध करवाना, उनकी
मांगें जो फ़ाइलों में बंध पड़ी रहती हैं उन्हें पूरा करना, मौसम के
अनुसार एवं जगह के अनुसार उनको सहूलयितें देना, सर्च या रेस्कयू अभियानों के दौरान उनको
आधुनिकतम् सरंजाम मुहैया कराके उनके बोज को कम करना... यह सूची और भी लंबी हो सकती
है। किंतु जिन्हें फ़ौज, फ़ौज की व्यवस्थाएं, फ़ौज का
ढांचा, उनकी दैनिक प्रक्रिया, उनके द्वारा
किये जाने वाले मिलिट्री ऑपरेशन इन सबके ऊपर जिन्हें ज्ञान है वे लोग इन बातों को आसानी से समझ
सकते हैं, उन समस्याओं के त्वरित समाधान के लिए या उन मुद्दों पर कोई संशोधन तक नहीं किया
गया।
पीने के पानी से लेकर कम्युनिकेशन, रात्रि खोजी अभियान तक सब सहूलियतें फ़ाइलों में सालों तक बंद रहेती हैं। वन बॉर्डर-वन फोर्स का सूत्र महज चुनावी नारा बन कर रह गया है। फ़ौज के सामान, लड़ने की तकनीक, रणनीति बनाने के लिए जानकारियाँ जुटाने का ढाँचा, कम्युनिकेशन के लिए बेहतरीन सिस्टम, केन्द्रीय राजनीतिक सहकार, आतंक विरुद्ध जमीनी लड़ाई, दुश्मन के युद्धविराम उल्लंधन को उपयुक्त जवाब, देश की सरकारी व्यवस्था और देश के लोगों का मानसिक तौर पर उनके साथ रहना, या तो फिर राजनीतिक और लोगों की दी जा रही प्रतिक्रियाएं... सारी चीजें इन ख़ुदकुशी के किस्सों में या तो गुस्से में आकर अपने साथियों की हत्या के किस्से में, वीआरएस की समस्या में और नयी भरती के मसले पर बाधाएं पैदा कर रहा है।
अपने लोगों को वीर गति को प्राप्त होते हुए देखना
इस देश के लोगों के लिए कितना बड़ा झटका है वो हम जानते हैं। अगर हमारे लिए ये इतना
बड़ा झटका होता है तो उन लोगों के परिवार के लिए या तो सरहद पर उनके सहकर्मियों के लिए यह ज़िंदगीभर का घाव होता है।
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