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Rajan, Swami & Centre : रघुराम राजन विरुद्ध सुब्रमण्यम स्वामी विरुद्ध केन्द्र सरकार




प्रचलित अर्थज्ञाता तथा कई विशेषज्ञों की माने तो यह प्रकरण बेशक गैरज़रूरी प्रकरण था। किसी राजनेता को आरबीआई गवर्नर सरीखे व्यक्ति पर कोई आपत्ति थी भी, तो उसे सड़कों पर सुलझाने की गैरज़रूरी कोशिश कतई नहीं करनी चाहिए थी। वैसे भी जो आपत्ति दर्शाई गई वो केवल आरोप थे। इसे आप वैचारिक मतभेद भी कह सकते हैं। किसी वैचारिक मतभेद को इतना बड़ा रूप देने की राजनीतिक चेष्टा काफी बचकानी थी। इस विवाद पर रघुराम राजन का सार्वजनिक रवैया काफी सराहनीय रहा, जिन्होंने अपनी जुबान कभी फिसलने नहीं दी। यह कुछेक प्रतिभाव थे जो अर्थतंत्र की समझ रखनेवाले लोगों के थे। नेताओं या समर्थकों के विचार को स्थान देने का कोई मतलब शायद रहता ही नहीं। जबकि स्वामी समर्थकों के लिए ये वाक़ई अच्छी प्रक्रिया मानी गई।

रघुराम राजन, जो कि रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के गवर्नर हैं। रघुराम राजन की ख़्याति इस बात को लेकर है कि उन्होंने 2005 में अमेरिका के फेडरल रिज़र्व के पूर्व चेयरमैन के सम्मान में बुलाए गए सम्मेलन में भविष्यवाणी कर दी थी कि दुनिया में मंदी आ रही है। वे आईआईटी दिल्ली, आईआईएम अहमदाबाद के छात्र रहे हैं। उन्होंने अमेरिका के मेसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलोजी से पीएचडी की है। वे अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के मुख्य अर्थशास्त्री रहे हैं तथा यूनिवर्सिटी ऑफ शिकागो में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर रहे हैं। वे 2012 तक भारत सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार रहे थे।

रघुराम राजन के बारे में उनके साथ या उनके नीचे काम करने वालों की राय, जो उस दौर में मीडिया में भी दिखी थी, कुछ कुछ ऐसी थी। उनके नीचे काम करने वाले कर्मचारी बताते नजर आते थे कि, "हमारे साहब बहुत अच्छे हैं। वे दफ्तर में बैठ कर काम करते हैं। उनके काम करने से सारा रिज़र्व बैंक काम करता है। फ़ाइलें चलती रहती हैं। सबसे बात बहुत अच्छे से करते हैं। प्रसिद्धि में ख़ुद को पीछे रखते हैं। हम लोगों को आगे कर देते हैं। प्रतिभा तो है ही, आदमी बहुत अच्छे हैं। गवर्नर साहब हर चीज़ पर नज़र रखते हैं। उनकी चिंता होती है कि हर किसी को दो वक्त की रोटी मिले। किसी के साथ धोखाधड़ी न हो।"

अब बात करते हैं सुब्रमण्यम स्वामी की। वे केंद्र में सत्तारुढ पार्टी भाजपा के राज्यसभा सासंद और जानेमाने नेता हैं। उन्होंने पहले कांग्रेस के साथ काम किया, फिर जनता पार्टी में आए, फिर कांग्रेस में आए और फिलहाल भाजपा के साथ जुड़े हुए हैं। इंदिरा गांधी से स्वामी की नहीं बनी और उन्हें कांग्रेस से जाना पड़ा। फिर वे मोरारजी सरकार के साथ जुड़े। फिर दोबारा कांग्रेस में आए। लेकिन सोनिया के विदेशी मूल के मुद्दे को लेकर वे आक्रामक बने। उसके बाद वर्तमान में वे भाजपा के सांसद हैं। गांधी परिवार उनके खास निशाने पर रहता है। कांग्रेस को वे कई दफा मुश्किलों में डाल चुके हैं। वे भी राजन की तरह ही यूनिवर्सिटी ऑफ शिकागो से जुड़े रहे थे। उनके साथ काम करने वाले उन्हें अच्छा अर्थशास्त्री बताते हैं। कहा जाता है कि स्वामी के पास कानूनी समझ भी है।

उनके ट्विटर पर मौजूद तमाम तस्वीरें बताती हैं कि स्वामी अपने राजनीतिक अतीत से नहीं भागते। उनके हैंडल पर जनता दल के दौर की तस्वीरें हैं, राजीव गांधी के साथ की तस्वीरें हैं। स्वामी के एक लेख के कारण हार्वर्ड ने उनका कोर्स रद्द कर दिया और उन्हें निकाल दिया था। हार्वर्ड का मानना था कि स्वामी ने अपने लेख के ज़रिए सांप्रदायिक हिंसा उकसाने का काम किया है। यू-ट्यूब पर मौजूद रेडियो बोस्टन पर उनका एक इंटरव्यू है। इस इंटरव्यू में स्वामी कहते हैं कि वे हार्वर्ड से प्यार करते हैं। हार्वर्ड को समझना चाहिए कि मैं भारत में राजनेता हूं और अमेरीका में एकेडमिक की तरह आता हूं। खुद स्वामी अपने लिए अमेरीका और भारत में अलग-अलग रोल को समझने की मांग करते हैं।
स्वामी ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को एक पत्र लिखा। इस पत्र में उन्होंने रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन के खिलाफ आरोप लगाए। इन आरोपों में रघुराम राजन की नीतियों को लेकर सवाल खड़े किए गए थे। पूरे पत्र में रघुराम राजन के विरुद्ध कोई भी घोटाले का, किसी प्रकार की आधिकारिक गलती का या ऐसा कोई आरोप नहीं था। बल्कि स्वामी ने पत्र में लिखा कि राजन की नीतियां अर्थतंत्र को नुकसानदेह है। यहां तक लिखा गया कि राजन दिमाग़ी तौर पर पूरी तरह भारतीय नहीं हैं। वे भारतीय अर्थव्यवस्था को बर्बाद कर रहे हैं। प्रधानमंत्री को भेजे इस पत्र में स्वामी ने यह भी लिख दिया कि वे रघुराम राजन को गर्वनर के पद से तुरंत हटाएं। उन्होंने तो राजन को शिकागो भेज देने तक की वकालत कर दी।

स्वामी ने कहा कि मैं भारतीय अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाने की डॉ. राजन की सोची समझी साज़िश से हैरान हूं। स्वामी ने कहा कि पिछले दो साल में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में बैड लोन्स दोगुने होकर 3.5 लाख करोड़ हो गए हैं। डॉ. राजन के कदमों से मेरा ये विश्वास बन रहा है कि वो भारतीय अर्थव्यवस्था में बाधा पहुंचाने की ज़्यादा कोशिश कर रहे हैं। उन्होंने महंगाई का हवाला देते हुए ब्याज दरें लगातार बढ़ाए रखीं, जबकि वित्त मंत्रालय और उद्योग विकास को तेज़ी देने के लिए उनसे ब्याज दर कम करने का आग्रह करते रहे।

पत्र में स्वामी ने यह स्पष्ट नहीं किया कि उनकी नीतियां किस ठोस आधार पर नुकसानदेह है या उसने कब और कैसे भारतीय अर्थतंत्र को चोट पहुंचाई थी। स्पष्ट था कि उनकी नीतियों से स्वामी खुश नहीं थे और वे वैचारिक मतभेद प्रक्ट करने के चक्कर में गवर्नर पर ऐसी भाषा और तर्क का इस्तेमाल कर बैठे जो किसी दृष्टिकोण से उचित नहीं था। उनके आरोप केवल तर्क मात्र दिखे और उसमें ठोस आर्थिक और अन्य आधारों की कमी थी। स्पष्ट था कि विपक्ष तो बहती गंगा में हाथ धो ही लेता। किंतु किसी नीति से नाखुश होकर कोई नेता आरबीआई जैसी संस्थान के मुखिया पर ऐसे लहजे में आरोप लगा दे वो बात लोगों को भी नागवांर गुजरी थी। स्वामी ने एक तरीके से रघुराम राजन पर साजिशन देश को नुकसान पहुंचाने तक का आरोप मड़ दिया।

मूल और सार्वजनिक मसला यह था कि किसी भी ऐसी संस्थान की वर्तमान नीतियों के खिलाफ आप हो या आप के वैचारिक मतभेद हो तो इसे ऐसे लहजे में प्रक्ट करने की आवश्यकता बिल्कुल नहीं थी। और इसी को लेकर लोगों में भी खास्सी नाराजगी दिखी। विरोध करने के पीछे वैचारिक मतभेद और अपने तर्कों के सहारे देश के अर्थतंत्र को बरबाद करने का आरोप मड़ना तथा उनके दिमाग को गैरभारतीय बता देने की चेष्टा सत्तादल के लिए नैतिक मुसीबतें भी ले आई। कुछेक ने यह भी कहा कि अरुण जेटली को निशाना बनाने के लिए स्वामी रघुराम राजन जैसी शख्सियतों पर वार कर रहे हैं। गौरतलब है कि स्वामी और जेटली के बीच की तथाकथित दूरियां जगजाहिर थी।
कई आरबीआई गवर्नरों से नेताओं के या खुद फाइनेंस मिनिस्टर के मतभेद भूतकाल में भी हो चुके हैं। लेकिन वो सभी वैचारिक मतभेद थे, लिहाजा सभी ने अपने अपने तौर पर अपनी नाराजगी प्रक्ट की थी। लेकिन किसी ने सीमाएं नहीं लांधी थी। लेकिन स्वामी ने भाषा और तर्क के सहारे अपनी सीमाएं लांध दी थी।

यह वो दौर था जब आरबीआई के गवर्नर का पहला कार्यकाल खत्म हो रहा था। बातें हो रही थी कि उन्हें दूसरा कार्यकाल दिया जाए या नहीं। और इसी दौर में स्वामी अपने तर्कों के साथ कूद पड़े। उस वक्त तत्कालीन सरकार अपने कार्यकाल के दो साल पूरा होने का जश्न मना रही थी। सरकार आंकड़ों के साथ देश को बता रही थी कि देश ने पिछले 2 साल में कितनी तरक्की की है। सरकार बाकायदा देश को सूचित कर रही थी कि देश का अर्थतंत्र पटरी पर लौट आया है। और दूसरी तरफ उनके ही बड़े नेता स्वामी कह रहे थे कि देश का ओद्योगिक विकास नकारात्मक है और इसके लिए राजन जिम्मेदार है। सरकार आधिकारिक रूप से कुछ और कह रही थी और उनके अर्थशास्त्री स्वामी कुछ और कह रहे थे!

दो साल पूरे होने के मौके पर सरकार यह दावा करती नजर आई कि भारतीय अर्थव्यवस्था अच्छा प्रदर्शन कर रही है। जबकि स्वामी ने अपने पत्र में लिखा कि ब्याज़ दर बढ़ाकर छोटे और मंझोले उद्योगों को नुकसान पहुंचा दिया, ये कदम ऐसा है जैसे किसी बीमार की हत्या कर दी जाए ताकि उसके शरीर का तापमान गिराया जा सके। दोनों दावें एकदूसरे के विरुद्ध नजर आ रहे थे। स्वयं सरकार अर्थतंत्र का गुणगान गा रही थी, वहीं स्वामी अर्थव्यस्था को चौपट बता रहे थे।

यह स्वाभाविक है कि रघुराम राजन की लोकप्रियता और आर्थिक मसलों पर खुलकर बोलने की सक्रियता से नेता समुदाय परेशान हो सकता है। 23 अप्रैल 2016 को ब्लूमबर्ग ने एक सर्वे किया था। इसमें 15 में से 13 अर्थशास्त्रियों ने कहा था कि राजन को गर्वनर के रूप में एक और कार्यकाल मिलेगा। उनका कार्यकाल सितंबर 2016 में समाप्त हो रहा था। ईटीमार्केट डॉट काम ने पाठकों के बीच एक सर्वे किया। इस सर्वे के मुताबिक 69 प्रतिशत लोगों ने उन्होंने 10 में 10 नंबर दिये थे। 87 प्रतिशत ने कहा कि वे चाहते हैं कि वे गर्वनर पद पर बने रहें। इस सवाल पर कि स्वामी राजन को शिकागो भेज देना चाहते हैं, 86 प्रतिशत लोगों ने कहा कि शिकागो नहीं भेजना चाहिए। 78 प्रतिशत लोगों ने राजन के बारे में स्वामी की टिप्पणी से असहमति जताई थी। 
रघुराम राजन ने तो 2005 में दुनिया के मंच से भविष्यवाणी कर दी थी कि मंदी आ रही है। वे सच भी साबित हुए। अब बात करते हैं स्वामी ने की हुई एक भविष्यवाणी की। स्वामी ने 18 सितंबर, 2015 के दिन द हिंदू में एक लेख लिखा। इसका शीर्षक था The way out of the economic tailspin'। स्वामी ने लिखा था कि अर्थव्यवस्था एक बड़े संकट की ओर बढ़ रही है और 2016 की शुरुआत तक अर्थव्यवस्था क्रैश हो जाएगी। स्वामी ने लिखा था कि मैं आपको ये बताने को विवश हूं कि अर्थव्यवस्था लड़खड़ाने ही वाली है। अगर सही कदम नहीं उठाए गए तो नवंबर से लेकर फरवरी 2016 के बीच एक बड़े क्रैश को टाला नहीं जा सकेगा। फरवरी 2016 तक अर्थव्यवस्था चौपट होने की बात कही गई, लेकिन इसके महीनों तक इस दावे का थोड़ा सा भी हिस्सा सही नहीं ठहरा। स्पष्ट था कि वक्त ने खुद स्वामी के दावे को खोखला साबित कर दिया और उनकी भविष्यवाणी महज एक आधारहिन तर्क साबित हुई।

रघुराम राजन और सुब्रमण्यम स्वामी द्वारा अर्थतंत्र के बारे में यह दो सार्वनजिक टिप्पणियां थी, जो आने वाले समय पर की गई थी। और इसके नतीजे सभी ने देख भी लिए। उसके बाद बात आई स्वामी के उन तर्कों की, जो वे राजन की नीतियों के बारे में कर रहे थे। स्वामी ने एक आरोप यह भी लगाया कि सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योग राजन की नीतियों की वजह से चौपट हो गए हैं। मंत्रालय की वेबसाइट पर जाकर इस दावे की सच्चाई खंगालने पर पाया गया कि मंत्रालय की 2015-16 की सालाना रिपोर्ट में कहा गया है कि अप्रैल 2015 से सितंबर 2015 तक, सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योगों की विकास दर 18.74 फीसदी रही है। 2014-15 में यह वृद्धि 17 प्रतिशत थी। 2013-14 में 12 प्रतिशत की दर से वृद्धि हुई थी। यानी कि मंत्रालय आधिकारीक रूप से खुद-ब-खुद स्वामी के दावों की धज्जियां उड़ा रहा था। स्वामी को राजन पर आरोप लगाते वक्त भारत सरकार के मंत्रालय पर भी एक आरोप लगा देना चाहिए था कि मंत्रालय झूठा है और गलत आंकड़े पेश कर रहा है। अगर वो सचमुच खुद के तर्कों या जानकारियों को इतना सटीक मानते होते तो।

लेकिन इसके साथ साथ स्वामी को तत्कालीन प्रधानमंत्री पर भी सवाल उठाना पड़ता। क्योंकि मन की बात के जरिए प्रधानमंत्री देश को यह बता चुके थे कि लघु व मध्यम उद्योग अपनी पटरी पर लौट आए हैं। उन्होंने मन की बात में मुद्रा बैंक तथा मुद्रा योजना का ज़िक्र भी किया था। उन्होंने कहा था कि 66 लाख लोगों को 42 हजार करोड़ रुपये प्रधानमंत्री मुद्रा योजना के तहत मिल चुके हैं। जबकि स्वामी उन्हें ही पत्र लिख कर दावा कर रहे थे कि छोटे लोग ब्याज पर कर्ज नहीं ले पा रहे हैं।

भारतीय रिज़र्व बैंक के गर्वनर रघुराम राजन ने 6 अगस्त, 2013 को अपना पद संभाला था। आते ही उन्होंने तीन बार रेपो रेट में बढ़ोतरी कर दी। उसके बाद पांच बार घटाया भी। जब यह विवाद हुआ उस वक्त रेपो रेट 6.50 प्रतिशत था। जब उन्होंने ऑफिस संभाला था तब रेपो रेट 7.50 प्रतिशत थी। यह बहस चलती रही कि राजन अगर रेपो रेट और कम कर देते तो बैंकों के पास कर्ज देने के लिए और अधिक पैसे होते, लेकिन कुछ का कहना है कि बैंकों से कर्ज का उठान बहुत कम है। बैंक खुद संकट के दौर से गुज़र रहे हैं। लेकिन ये सब नीतियों के ऊपर अपनी अपनी राय थी। और ऐसे मतभेद हर दौर में होते रहे हैं। ऐसे में किसी गवर्नर पर जानबुजकर देशविरोधी कार्यशैली इस्तेमाल करने का आरोप किसी दृष्टिकोण से उचित नहीं ठहरता। अगर मतभेद थे तब यह चेष्टा स्वीकार्य नहीं थी। और अगर इससे गंभीर बात थी, तब स्वामी को सबूतों के साथ कूदकर खुला खेल खेल लेना चाहिए था।
इस विवाद का अंत शायद तभी हुआ जब रघुराम राजन ने खुद को अगले कार्यकाल से अलग कर लिया। लेकिन अपना कार्यकाल खत्म होने से पहले राजन ने एक वार ज़रूर किया। उन्होंने किसी का नाम नहीं लिया। लेकिन अपने बयान में राजन ने कहा कि लोग मुझे बताये कि महंगाई कैसे कम हुई है। गौरतलब है कि विवाद से पहले रघुराम राजन ने भारतीय अर्थव्यवस्था को दुनिया में अंधों में काना राजा कह दिया था। इस बयान की सरकार के कई मंत्रियों ने आलोचना भी की। बाद में राजन ने अफसोस प्रकट किया था। 17 जुलाई, 2016 के दिन एक बयान में राजन ने कहा कि आजकल जो लोग ब्याज की दरें कम करने की वकालत कर रहे हैं और ब्याजदरों के विरुद्ध बोल रहे हैं उनका कोई इकोनॉमिक बेस ही नहीं है। उन्होंने इसे केवल बयानबाजी करार दिया और कहा कि मैं इन सब बयानबाजी में दिलचस्पी नहीं रखता। उन्होंने सरकार के जीडीपी के आंकड़ों पर कहा कि जीडीपी ग्रोथ के आंकड़े प्रशंसा के लायक नहीं है। उन्होंने कहा कि इन आंकड़ों की घोषणा के बाद बेंच थपथपाने से में दुर ही रहा था। उन्होंने इकोनॉमिक रिकवरी पर निराशा भी प्रक्ट की। अपने बयान में उन्होंने बैंकिग सिस्टम पर भी अपनी राय रखी।

वैसे स्वामी अपने आरोपों के लिए काफी जानीमानी शख्सियत रहे हैं। उन्होंने तो तत्कालीन फाइनेंस मिनिस्टर अरुण जेटली की क्षमता को भी कटघरे में खड़ा कर दिया था। स्वामी ने नवंबर 2015 में केंद्र सरकार को काला धन वापस लाने के लिए छह सुझावों वाला पत्र लिखा था। तब स्वामी ने कहा था कि जो रास्ता वित्त मंत्री ने अपनाया है उससे कालाधन कभी वापस नहीं आ सकता। तब स्वामी ने यह भी कहा था कि अगर उन्हें वित्त मंत्री बनाया जाए तो छह महीने में महंगाई कम कर सकते हैं। रघुराम राजन के बाद स्वामी ने मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यन पर भी वार कर दिये थे।

साफ है कि सुब्रमण्यम स्वामी के कई दावों को उनकी ही सरकार तथा उनकी सरकार के प्रधानमंत्री पहले ही हवा में उड़ा चुके थे। कहा गया कि स्वामी अरुण जेटली पर निशाना लगा रहे हैं और उसका शिकार राजन जैसे लोग बन रहे हैं।

सुब्रमण्यम स्वामी आरोप लगा रहे थे कि राजन ने देश की अर्थव्यवस्था चौपट कर दी है। लेकिन मंत्रालय के आंकड़े, सरकार के आधिकारिक दावे, प्रधानमंत्री के अर्थतंत्र पर बयान और स्वयं फाइनेंस मिनिस्टर अरुण जेटली के अर्थतंत्र पर दिये गए बयान इससे ठीक उलट थे। आम जनता के लिए तो यही एक अंतिम सत्य था कि स्वामी, राजन और केंद्र सरकार इन तीनों में से दो लोग झूठ बोल रहे थे। या तो स्वामी सही थे और राजन तथा उनकी ही सरकार झूठी थी। या फिर राजन सच थे और स्वामी तथा केंद्र सरकार गलत थी। या तो केंद्र सरकार सही थी और स्वामी तथा राजन सही नहीं थे। भविष्य में क्या होगा ये तो घारणाओं का पहाड़ बनाने की चेष्टा होगी।

(इंडिया इनसाइड, 18 जुलाई 2016, एम वाला)