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Fake Viral Stories: बरसों या दशकों पुराने वायरल झूठ जो अब भी सिर उठाते रहते हैं

 
कहा जाता है कि तस्वीरें झूठ नहीं बोलती। लेकिन आज के सोशल मीडिया और फ़ोटोशॉप के दौर की समस्या यह है कि तस्वीरें अब पूरा सच भी बयाँ नहीं करतीं! तस्वीरें तो क्या, अब तो वीडियो को भी खँगालने पड़ते हैं कि कहीं वो एडिटेड तो नहीं हैं! यूँ तो सोशल मीडिया वाले कहते हैं कि बिकाऊ मीडिया छोड़ो, फलाँ फलाँ पढ़ो। किंतु सोशल मीडिया या सोसायटी, वहाँ कुछेक झूठ इतने बड़े हैं कि मीडिया भी शर्मा जाए।
 
बात करते हैं उन अफ़वाहों या फ़ेक न्यूज़ की, जो बरसों या दशकों पुरानी हैं और आज भी कइयों के लिए वह अफ़वाहें ही सत्य हैं, जबकि वे अपने आप में झूठी हैं।
 
देश के नाम वायरल हुआ था झूठा मैसेज, दरअसल 'इंडिया' का कोई पूरा नाम है ही नहीं
जब सोशल मीडिया नहीं था तब भी यह झूठा संदेश कुछ लोग एक दूसरे से शेयर करते थे। लेकिन फिर जब सोशल मीडिया का दौर आया तो यह झूठा संदेश तेज़ी से फैला।
 
सोशल मीडिया पर सालों पहले वायरल हुए मैसेज में भारत देश का नाम इंडिया रखने के पीछे की कहानी बताई जा रही थी। मैसेज में लिखा हुआ होता था - क्या आप जानते हैं कि भारत को इंडिया नाम कैसे मिला? आज़ादी के बाद अंग्रेज़ों ने ये नाम दिया। INDIA में I का मतलब- Independent, N का मतलब- Nation, D का मतलब- Declared, IA का मतलब In August, यानि Independent Nation Declared In August.
 
मैट्रिक पास नागरिक तक को पता होना चाहिए कि ना कोई ऐसी कहानी थी, ना कोई ऐसी घटना थी, और ना ही इंडिया का कोई पूरा नाम है, जैसा बताया जाता है। इतिहास, ऐतिहासिक किताबें, सरकारी दस्तावेज़, सामान्य ज्ञान पुस्तिकाएँ, राज्य या केंद्रीय स्तर की परीक्षाएँ, कहीं पर भी इस दावे को जगह नहीं मिलती। क्योंकि ऐसा है ही नहीं।
 
भारत के सभी प्रसिद्ध इतिहासकार इंडिया नाम के लिए दो दावे ही करते हैं, एक - इंडिया नाम आज से क़रीब 2400 साल पहले यूनानियों ने दिया था, दूसरा - इंडस नदी के नाम से यह पूरा इलाक़ा इंडिया के नाम से जाना जाने लगा था।
 
इंडिया नाम अंग्रेज़ों ने तो बिलकुल नहीं दिया था, उपरांत इंडिया एक स्वतंत्र शब्द है और उसका कोई फ़ुल फ़ोर्म नहीं है।
 
चाणक्य और आयुर्वेद, इन दोनों ने जो नहीं कहा होगा उतना तो इनके नाम से लोगों ने कह दिया है!
सोशल मीडिया और सोसाइटी (समाज, चौक, चौराहा) में बिकाऊ मीडिया को भी पीछे छोड़ दे इस तरह से इतने झूठ गढ़े गए हैं, जिनका समावेश एकाध बड़े पुस्तक के ज़रिए ही हो सकता है। अपने मन की बात को ऐतिहासिक बात साबित करने के लिए सोसाइटी में लोग अक़्सर जिन दो का इस्तेमाल किया करते हैं, वे हैं - चाणक्य और आयुर्वेद।
 
इन दोनों ने जो नहीं कहा होगा उतना तो इनके नाम से लोग कह जाते हैं! अच्छी और बुरी, सच्ची और झूठी, तमाम बातें इन दोनों के हवाले से समाज में फेंक दी जाती हैं, ताकि चाणक्य और आयुर्वेद नामक वजन के साथ वह बात समाज में जाए।

 
कभी कभी होता यह भी है कि अच्छी या सच्ची बातें किसी सामान्य नागरिक के मुँह से निकले तो उस अच्छी व सच्ची बात को कोई नहीं सुनता और इस कारण से भी उसे चाणक्य और आयुर्वेद के नाम से चलाया जाता है! किंतु इन दोनों के हवाले से अनेक बुरी और झूठी बातें भी चलाई जा चुकी हैं।
 
स्वास्थ्य, स्वास्थ्य से संबंधित मसले, बीमारियाँ, उपचार से लेकर सब्ज़ी, फल, मसाले, भोजन, रसोई, खान-पान, तमाम में आयुर्वेद के नाम से बहुत सारी झूठी कहानियाँ और बातें फैलाई जा चुकी हैं। किसी भी अप्रमाणिक, अपुष्ट और अवैज्ञानिक उपचार को या दवाई को आयुर्वेद के नाम से जोड़ दिया जाता है और फिर वह झूठ आसानी से समाज में बिक भी जाता है! सवाल यह भी उठता है कि पहले से ज़्यादा शिक्षित होने के बाद भी समाज इतनी आसानी से झूठ को पचाने की क्षमता कहाँ से लाता होगा?
 
चाणक्य ने अपने जीवन काल में जो नहीं कहा होगा, उतना तो उनके हवाले से लोग कह जाते हैं! और वो भी उन विषयों में, जो चाणक्य के नहीं माने जाते! जबकि जो विषय चाणक्य का माना जाता है उसमें तो हर मन की बात को चाणक्य के नाम से परोसने का फैशन दशकों पुराना है।
 
महात्मा गाँधी के नाम से चला कथन
महात्मा गाँधी को लेकर एक कथन लंबे समय से प्रसिद्ध है। अनेकों बार गाँधीजी की तस्वीर के साथ यह कथन दिख जाता है।
 
"एक आँख के बदले दूसरी आँख पूरी दुनिया को अँधा बना देगी" - यह कथन गाँधीजी की तस्वीर के साथ कहीं न कहीं मिल जाएगा। माना जाता रहा है कि गाँधीजी ने ये कथन कहा था। जबकि यह सच नहीं है।
 
कुछ दस्तावेज़ों को आधार माने तो यह मशहुर उक्ति गाँधीजी की नहीं थी। गाँधीजी ने इस उक्ति को अपने जीवनकाल में बोला हो या लोगों से साझा किया हो यह ज़रूर हो सकता है, किंतु यह उनका कथन नहीं है। उपरांत महात्मा गाँधी ने अपने किसी भी लेख, पुस्तक या भाषण में ऐसा दावा भी नहीं किया है।

 
दरअसल ये उक्ति बेन किंग्स्ले ने 'गाँधी' फ़िल्म के दौरान कही थी। गाँधीजी से संबंधित दस्तावेज़ों में भी इस कथन का उल्लेख नहीं है कि यह गाँधीजी ने कहा-लिखा हो।
 
स्वाभाविक सी बात है कि महात्मा गाँधी का समस्त जीवन और कार्यशैली इस कथन के आसपास ही रही, और शायद इसी वजह से उनसे यह कथन जोड़ा गया हो। गाँधी विरोधियों ने तो उनके ऊपर अनेक अनाप-शनाप कहानियाँ फैलाई हैं, किंतु गाँधी समर्थकों को भी सोचना चाहिए कि स्वयं महात्मा गाँधी भी ऐसे संदिग्ध दावों को कभी स्वीकार नहीं करते।
 
वैसे भी, गाँधी विरोधी और गाँधी समर्थक, दोनों ने बहुत कुछ महात्मा गाँधी से जोड़ कर रखा है, जिसका दावा कभी गाँधीजी ने किया ही नहीं था! महात्मा गाँधी के नाम से जोड़ा गया यह कथन भी एक ऐसी ही वायरल कहानी है, जो दरअसल बेन किंग्सले ने गाँधी फ़िल्म के दौरान कही थी। बेन किंग्सले ने भी कभी यह दावा नहीं किया है कि यह कथन उनका (किंग्लसे का) है।
 
अब्दुल कलाम के साथ जुड़ा हुआ कथन
जनता के राष्ट्रपति और मिसाइल मैन अब्दुल कलाम की लोकप्रियता का आधुनिक भारत में कोई सानी नही। उनके साथ एक कथन जुड़ा कि - सपने वो नहीं होते जो सोने के बाद आते हैं, सपने वो होते हैं जो सोने नहीं देते।
 
कथित रूप से अब्दुल कलाम द्वारा कही गई यह उक्ति महात्मा गाँधी के ऊपर लिखे गए मामले से जुड़ती कहानी है। यह कथन अब्दुल कलामजी का नहीं है।
 
दरअसल, ये कथन अज्ञात है। यह पहली बार किसके द्वारा कहा गया उसके बारे में कोई पुख़्ता जानकारी नहीं है। अब्दुल कलाम इस कथन का उपयोग ख़ूब किया करते थे और लोगों को प्रेरणा देने हेतु इसे लोगों से साझा किया करते थे।
 
ऐसा कोई प्रमाण मौजूद नहीं है कि यह कथन उनके द्वारा कहा गया हो। उनके लेख, किताबों, कहीं पर भी यह कथन उनका अपना कथन नहीं है, बल्कि यह कथन उनका पसंदीदा होने की वजह से वे इसका उपयोग मात्र किया करते थे।
 
फिरंगी महिला के साथ नाचते हुए कथित गाँधीजी की तस्वीर का सच
भारत में फ़ेक न्यूज़ का सबसे बड़ा शिकार हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ही रहे हैं। उनके बारे में जितनी झूठी कहानियाँ बनाई गई हैं, उतनी शायद ही किसी और महानुभाव के लिए बनाई गई होगी।
 
इसी कड़ी में कथित फिरंगी महिला के साथ नाचते हुए महात्मा गाँधी की एक तस्वीर काफ़ी सालों से फैलाई जा रही है। इस तस्वीर में गाँधीजी एक फिरंगी महिला के साथ नाचती हुई मुद्रा में नज़र आते हैं। यह तस्वीर गाँधीजी के विरोधियों को ख़ूब पसंद आई थी। गाँधीजी की आलोचना करने हेतु इस तस्वीर का ख़ूब सहारा लिया गया। यही नहीं, सालों तक गाँधीजी के समर्थकों के पास भी इसका जवाब नहीं था।
 
किंतु इस तस्वीर का पूरा सच कुछ और ही है। दरअसल, तस्वीर में महात्मा गाँधी जैसा दिख रहा व्यक्ति स्वयं गाँधीजी है ही नहीं, बल्कि वह एक ऑस्ट्रेलियाई ऐक्टर है, जिसने गाँधीजी जैसी वेशभूषा धारण की थी। वह महात्मा गाँधी का प्रशंसक था और उसने गाँधीजी जैसी वेशभूषा बनाने का प्रयत्न करते हुए ऐसी ड्रेस पहनी थी।
 

वायरल फ़ोटो और महात्मा गाँधी की असली तस्वीरें, दोनों को बारीक़ी से देखने पर भी मालूम पड़ता है कि गाँधीजी की वेशभूषा में व्यक्ति की बनावट असली गाँधीजी से अलग है, उसकी मांसपेशियाँ मजबूत हैं, जबकि गाँधीजी स्वाभाविक रूप से दुबले-पतले थे। साथ ही वायरल किए गए फ़ोटो में एक्टर ने जो जूते पहने हैं, वे भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान गाँधीजी द्वारा पहने गए जूतों की तुलना में आधुनिक हैं।
 
तस्वीर को रिवर्स इमेज सर्च करने पर 21 फरवरी 2012 को 'बॉलीवुड लाइफ़' वेबसाइट द्वारा प्रकाशित एक लेख में यही तस्वीर मिल जाती है। इस लेख में इसे ऑस्ट्रेलिया के सिडनी में आयोजित एक चैरिटी गाला कार्यक्रम में महात्मा गाँधी की तरह कपड़े पहने एक ऑस्ट्रेलियाई कलाकार द्वारा एक महिला के साथ नृत्य करने का दृश्य बताया गया था।
 
इस लेख में स्पष्ट किया गया था कि विदेशी महिला के साथ नृत्य करने वाला व्यक्ति असली महात्मा गाँधी नहीं है। इसी की रिपोर्ट करते हुए, कई समाचार वेबसाइटों ने भी लेख प्रकाशित किए हैं।
 
महात्मा गाँधी और जवाहरलाल नेहरू से जुड़े ज़्यादातर दावे झूठे साबित हुए
फ़ेक न्यूज़ के सबसे बड़े शिकार महात्मा गाँधी और भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की आलोचना करने के चक्कर में इन दोनों के विरोधियों ने अरसे से ऐसी कहानियाँ बनाई, ऐसे दावे किए, ऐसी बातें की, साथ ही लगातार और बार बार की, जो सालों तक सच के रूप में देखी और मानी गई।
 
फिर कंप्यूटर, तकनीक, इंटरनेट, सूचनाओं के तुरंत आदान-प्रदान का दौर आया और ज़ल्द ही तमाम झूठी कहानियों का पर्दाफ़ाश हुआ। मालूम पड़ा कि गाँधीजी और नेहरू से जुड़ी ज़्यादातर बातें महज़ अफ़वाहें ही थीं।
 
गाँधीजी के बारे में अरसे से कई चीज़ें फैलाई जाती रही। शोधकर्ताओं ने जब शोध किया तो पाया कि गाँधीजी के बारे में जितनी विवादित ख़बरें फैलाई गई, उसमें से तक़रीबन तमाम ख़बरें झूठी ही थीं। कहानियाँ गढ़ी गई, किरदार गढ़े गए, किरदारों के नाम बदले गए, और भी बहुत कुछ किया गया! लेकिन जब अभ्यास किया गया तो मालूम हुआ कि लगभग लगभग तमाम कहानियाँ, जो गाँधीजी के बारे में फैलाई गई, झूठी ही थीं!
 
फ़ेक वीडियो, फ़ेक ख़बरें, फ़ोटोशॉप, आधी झूठी-आधी सच्ची कहानियाँ, मनगढ़ंत किरदार, किरदारों के बारे में ग़लत धारणाएँ, इतिहास को तोड़ना-मरोड़ना... गाँधीजी के बारे में जो हुआ है, शायद ही भारत में किसी दूसरे व्यक्ति के बारे में हुआ होगा।
 
सन 2000 में गाँधीजी के कार्यों का संशोधित संस्करण विवादों के घेरे में आ गया था, क्योंकि गाँधीजी के अनुयायियों ने सरकार पर राजनीतिक उद्देश्यों के लिए परिवर्तन शामिल करने का आरोप लगाया था।
 

जवाहरलाल नेहरू का असली नाम क्या था, जवाहर एक अरबी शब्द का नाम है, कोई कश्मीरी ब्राह्मण अपने बच्चे का नाम अरबी नाम रख ही नहीं सकता, नेहरू के दादा गयासुद्दीन गाज़ी थे, मुग़लों के कोतवाल थे जिन्होंने अपना नाम गंगाधर नेहरू रख लिया था, नेहरू का जन्म इलाहाबाद की वैश्याटोली में हुआ था, नेहरू ने एक कैथलिक नन को गर्भवती कर दिया था, चर्च ने उस नन को भारत से बाहर भेज दिया जिसके लिए नेहरू आजीवन चर्च के आभारी रहें, नेहरू के कपड़े पेरिस से धुल कर आते थे... न जाने कैसी कैसी झूठी कहानियाँ बनाई और बताई गई हैं।
 
नेहरू तथा भारत के आख़िरी वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन की पत्नी एडविना को लेकर कई सारी अफ़वाहें सालों तक भारत की सड़कों पर घूमती रहीं। 2017 के मध्य में यह ज़्यादातर दावे आख़िरकार महज़ मिथक साबित हुए। एडविना की पुत्री पामेला ने एक पुस्तक लिखी, जिसमें नेहरू तथा एडविना के बीच के रिश्ते तथा अरसे से किए जा रहे दावों के बारे में खुलकर लिखा और कई बातें बड़ी बेबाकी के साथ स्पष्ट की।
 
नेहरू के बारे में तो एक बार विकिपीडिया तक में जानकारियाँ बदल दी गई थीं! उनके पिता को लेकर, उनके दूसरे स्वजनों को लेकर कई झूठी कहानियाँ डाली गई थीं! टाइम्स ऑफ़ इंडिया ने Centre for Internet and Society के प्राणेश प्रकाश के हवाले से लिखा था कि सरकार के आईपी एड्रेस से यह बदलाव किया गया था!
 
15 मई 2016 को टाइम्स ऑफ़ इंडिया की अमूल्या गोपालकृष्णन ने नेहरू के बारे में फैलाए जा रहे झूठ को लेकर एक रिपोर्ट छापी। रिपोर्ट ने जाँच की और पाया कि नेहरू के बारे में लगभग तमाम ख़बरें झूठी साबित हुई थीं।
 
विरोधियों और समर्थकों, दोनों ने गाँधीजी और नेहरू की आलोचना या प्रशंसा करने के चक्कर में झूठी वायरल कहानियों का निर्माण किया, जो अंत में आधारहीन और सिरे से झूठी साबित हुई।
 
क्या वाजपेयी ने इंदिरा गांधी को दुर्गा कहा था? अनसुलझी कहानी
"वाजपेयी जी ने भी इंदिरा गांधी को दुर्गा कहा था", इस दावे का दशकों से इस्तेमाल हो रहा है। स्वयं वाजपेयी इसका खंडन कर चुके हैं, जबकि पत्रकार विजय त्रिवेदी की पुस्तक में ज़िक्र है कि वाजपेयी ने इंदिरा को दुर्गा कहा था।
 
यह बात सच है कि 1971 की जंग के बाद इंदिरा को दुर्गा उपनाम मिला था। स्वाभाविक है कि इंदिरा गांधी के प्रशंसकों, उनकी पार्टी के लोगों या नेताओं या अन्य लोगों ने उन्हें यह उपनाम दिया था। अरसे से यह कहा जाता रहा है कि उस समय के विपक्षी नेता और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इंदिरा गांधी को दुर्गा कहकर संबोधित किया था।
 
जबकि वाजपेयी ने एक इंटरव्यू में साफ कहा था कि उन्होंने इंदिरा गांधी को दुर्गा नहीं कहा था। यह इंटरव्यू उन्होंने बतौर प्रधानमंत्री दिया था। वाजपेयी ने इस बातचीत में कहा था कि उन्होंने इंदिरा गांधी के लिए दुर्गा उपमा का इस्तेमाल नहीं किया था। उन्होंने कहा था कि कही सुनी बातों के आधार पर यह ख़बर छाप दी गई थी।
 
तत्कालीन पीएम अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने इस इंटरव्यू में यह तक कहा था कि उन्होंने अगले दिन इस बात का खंडन भी अख़बारों को भेजा था, लेकिन अख़बारों ने कोने में खंडन छाप दिया था।

 
उधर पत्रकार विजय त्रिवेदी की पुस्तक मे एक प्रसंग का ज़िक्र मिलता है। ये क़िस्सा मशहूर टीवी पत्रकार विजय त्रिवेदी ने अपनी किताब 'हार नहीं मानूँगा - एक अटल जीवन गाथा' में वाजपेयी के एक दोस्त के हवाले से लिखा है।
 
वह लिखते हैं कि 1975 में इमरजेंसी का दौर चल रहा था। आडवाणी, अटल एक संसदीय समिति की बैठक में हिस्सा लेने बंगलुरु गए थे। सभी वहीं से गिरफ़्तार कर लिए गए। वहाँ तमाम लोगों ने सलाह दी कि कोर्ट में बंदी हैबियस कॉर्पस दायर की जाए। 14 जुलाई 1975 को सुनवाई होनी थी। वाजपेयी की तबीयत ख़राब हो गई। अपेंडिसाइटिस ऑपरेशन के लिए भर्ती हुए। चीरा लगा तो पता चला कि अपेंडिक्स तो ठीक है। बाद में एम्स में स्लिप डिस्क का इलाज किया गया। वाजपेयी और तीन नेताओं को एयरफोर्स के प्लेन से दिल्ली लाया गया। सब रोहतक जेल भेजे गए। वाजपेयी एम्स में भर्ती हो गए। यहीं पर देवी प्रसाद त्रिपाठी उर्फ़ डीपीटी भी भर्ती थे। दोनों प्राइवेट कमरे में मिले। किताब में लेखक ने दावा किया है कि यहीं पर शाम को बैठक सजी थी, जिसमें वाजपेयी ने डीपीटी से कहा,  "इंदिरा ने अपने बाप नेहरू से कुछ नहीं सीखा। मुझे दुख है कि मैंने उन्हें दुर्गा कहा।"
 
लिहाज़ा इंदिरा गांधी को वाजपेयी ने दुर्गा कहा था या नहीं कहा था, यह मसला आधे रास्ते पर लटका हुआ दावा है। वाजपेयी कह चुके हैं कि उन्होंने ऐसा नहीं कहा था। विजय त्रिवेदी की किताब में कहानी कुछ और मिलती है। यानी इस दावे का अंतिम सिरा सदैव के लिए अनिर्णित है।

"दीवाली की रात भारत" नाम की तस्वीर, जिसमें तस्वीर के साथ झूठी कहानी जोड़ी गई
एक तस्वीर ख़ूब चर्चा में रही है। सोशल मीडिया पर समय समय पर वायरल होने वाली इस तस्वीर के साथ संदेश होता है कि दीवाली के दिन सैटेलाइट से भारत ऐसा दिखता है।
 
इस तस्वीर के साथ "दीवाली की रात भारत" लिखा हुआ होता था। फिर तो आगे जाकर "दीवाली की रात भारत" के उपरांत दूसरे मनपसंद दावे लिखे जाने लगे।
 
दरअसल, इसमें तस्वीर सच थी, यानी एडिटेड नहीं थी। किंतु इसके साथ जो दावा और कहानी जोड़ी गई थी वो सिरे से झूठी थी। सच तो यह है कि यह तस्वीर अमेरिका के "नेशनल जियोफिजिकल डाटा सेंटर ऑफ़ द नेशनल ओशनिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन" की तरफ से जारी की गई थी। और इसमें दिवाली या किसी दूसरे त्यौहारों या कार्यक्रमों को दूर दूर तक कोई लेना-देना नहीं था।
 
दरअसल, ये तस्वीर 1992 से लेकर 2003 तक भारत की रातों के दृश्यों में आए बदलावों की कहानी कहती थी। ये तस्वीर कंपोज़िट सैटेलाइट व्यू थी। तस्वीर मे 1992 का सैटेलाइट डाटा नीले रंग में दिखाया गया था, तो 1998 का हरे रंग में। वहीं 2003 का डाटा लाल रंग में दिखाया गया था। इस तस्वीर को नासा ने विकसित करके ये दिखाने की कोशिश की थी कि भारत में एक विशेष समय के अंदर जनसंख्या में कितना परिवर्तन आया है।
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)