राधा और कृष्ण और होली के रंग तथा उसका
इतिहास। यह सब तथ्य है? या किसी कवि की
कल्पना? मशहूर
मेंटलिस्ट सुहानी शाह की एक बात में इसका जवाब है। वह कहती हैं कि आप जो सोचते हैं
वही सत्य है!
यह यथार्थवादी कथन दर्शाता है कि जिसे आप सच मानते हैं, दूसरे
वैसा नहीं सोचते होते, और इसलिए आपके लिए जो
सच होता है, दूसरों के लिए वह झूठ है, और
दूसरों के लिए जो झूठ है वह आपके लिए सच।
यूँ तो भारतीय इतिहास में, संस्कृति
में, समाज
तथा जनमानस में, तर्कों और तथ्यों में, अदालतों
तक में, विविध
धार्मिक ग्रंथ और उससे संबंधित विवरण या कहानियाँ किसी एक सटीक पंक्ति की तरफ़
जाती कभी नहीं दिखती। उपरांत एक समुदाय या एक समाज के लिए किसी दूसरे समुदाय या
दूसरे समाज से संबंधित धार्मिक ग्रंथ, विवरण, कहानियाँ
ज़्यादातर तो नकार दिए जाते हैं, या फिर नज़रअंदाज़ कर
दिए जाते हैं।
हम वह बात छोड़ कर अपनी मूल बात की तरफ़
लौट आते हैं। बात राधा, कृष्ण और होली की करते हैं। कृष्ण के संग होली के प्रसंग
गोपियों के साथ ज़्यादा हैं, राधा के साथ कम!
जबकि कृष्ण और राधा का रिश्ता कुछ और ही कहानी बयाँ करता है। तो फिर क्या राधा की
जानबूझकर उपेक्षा की गई? जानबूझकर कृष्ण के संग होली के प्रंसगों में राधा को ज़्यादा
जगह नहीं दी गई? या
फिर राधा कोई अलग स्त्री थी ही नहीं? कौन थी राधा? कृष्ण के बाहर थी, या भीतर थी?
आधुनिक भारत की एक मशहूर रचना है, जिसमें
कृष्ण अपनी यशोदा माता से पूछते हैं - राधा क्यों गोरी, मैं
क्यों काला? कवियों
और साहित्यकारों के लिए बात जहाँ भी पहुँचती हो, लेकिन राधा का गोरा रंग और कृष्ण का
काला रंग... बात रंगों तक तो पहुँचती ही है।
रंगों का इतिहास भले ही बहुत पुराना रहा
हो, लेकिन
रंगों का अपना एक विज्ञान है यह तथ्य नज़रअंदाज़ नहीं होना चाहिए। पहले पैरा में
लिखा था वही बात रंगों और रंगों के विज्ञान के बारे में व्यापक समझ को लेकर कही जा
सकती है।
मेंटलिस्ट सुहानी शाह बहुत सारे तथ्यों
को समझाकर भी आख़िर में, सच है क्या, इस सवाल के जवाब में यही कहती हैं कि जो आप सोचते हैं वही सच
है। यानी, कोई
बात भले ही झूठ हो, ग़लत, अतार्किक या तथ्य से दूर हो, लेकिन कोई उसे सच मानता है तो वह सच ही
है।
रंग और रंगों का विज्ञान, और
उससे जुड़ी समाज की समझ, यह बात उसी सड़क पर पहुँचती है। अगर किसी से कहा जाए कि रंग तो
हैं ही नहीं, आपको
जो अलग अलग रंग दिखाई देते हैं वह तो केवल भ्रम है, तो फिर ज़्यादातर लोग ऐसा कहने वाले को
ही पागल समझेंगे।
लेकिन तथ्य तो यही है कि रंग तो होते ही
नहीं! यूँ कहा जा सकता है कि सारे रंग मिलकर
हमें बेवकूफ़ बनाते हैं! रंगों की अपनी कोई
दुनिया नहीं होती, बावजूद
इसके रंगों का खेल ऐसा है कि दुनिया रंगीन लगती है!
गौरवान्वित होना चाहिए कि दुनिया को
रंगों का विज्ञान बताने-समझाने वाले शख़्स भारत के वैज्ञानिक डॉ. सी. वी. रमन थे।
जिनकी फ़िज़िक्स की मशहूर खोज को 'रमन इफ़ेक्ट' के
नाम से दुनिया जानती है। विज्ञान का नोबेल जीतने वाले पहले एशियाई और अश्वेत
वैज्ञानिक, जिन्हें
नाइटहुड की उपाधि प्रदान की गई थी। इसी वजह से वे आज 'सर
सी. वी. रमन' के
नाम से जाने जाते हैं।
आप कहेंगे कि राधा, कृष्ण और होली की बात करते करते हम सी. वी. रमन तक क्यों पहुँच गए? इसलिए, क्योंकि राधा, कृष्ण और होली की बात में
बार बार रंग आएँगे और रंग हमें कैसे बेवकूफ़ बनाते हैं वह डॉकटर सी. वी. रमन ने
समझाया था। आसमान क्यों नीला दिखता है? वही नीला आसमान शाम होते
क्यों लाल हो जाता है? कृष्ण की तस्वीर नीली होती है या काली? क्यों कृष्ण के साथ काला
रंग जुड़ा है? क्यों राधा के साथ गोरा रंग जुड़ा है?
सारी बातों को समझने से पहले समझना होगा
कि रंग तो होते ही नहीं! आप अपने घर में हैं, तो
सेब का रंग देख लीजिए। किस रंग का है? लाल दिख रहा है न? लेकिन
वह लाल रंग का नहीं होता!
वो चाहे जिस भी रंग का होता हो, मगर लाल नहीं है।
फ़ेसबुक की जो पट्टी नीली दिख रही है, वह चाहे जिस रंग की हो मगर नीली नहीं है!
दरअसल रंग नामक चीज़ का द्दश्यमान होना
प्रकाश के ऊपर निर्भर करता है। आपको जो भी रंग सामने दिखाई देता हो, आँखें
बंद करने पर वह नहीं दिखाई नहीं देता। अगर आपने दिन के उजाले में (प्रकाश में)
आँखें बंद की तब आपको बंद आँखों से अलग अलग शेड दिखाई देंगे। लेकिन आप शाम या रात
को कमरे की लाइट बंद करेंगे तो आपको बंद आँखों से दिन में जो शेड दिखाई दिए थे, उससे
कुछ अलग शेड दिखाई देंगे।
क्योंकि रंग नामक जो भी हमें दिखता है
वह प्रकाश के ऊपर निर्भर करता है। सिर्फ़ प्रकाश के ऊपर नहीं बल्कि हमारी आँखों, आँखों
की सेहत, आँखों
का कोण और साथ ही हमारी भौगोलिक स्थिति के ऊपर भी। दरअसल प्रकाश का कोई रंग नहीं
होता। वो सात रंगों के कॉम्बिनेशन से बना होता है। ये रंगहीन प्रकाश किसी भी
चीज़ पर पड़ता है तो वो चीज़ इसके सारे रंगों को अपने अंदर समेट लेती है। जो रंग
नहीं समेट पाती वही पलट कर वापस निकल जाता है और हमें दिखाई देता है।
सेब पर लाइट पड़ी। सेब ने सारे रंगों को
रोक लिया मगर लाल को नहीं रोक पाया। अब हमें वापस रिफ्लेक्ट होता लाल रंग दिखेगा
और हम कहेंगे सेब लाल है। जबकि लाल तो वो रंग है जो सेब में नहीं है!
वापस लौटते हैं उसी बात पर, जो
कृष्ण अपनी माता यशोदा से पूछते हैं - राधा क्यों गोरी, मैं
क्यों काला? यूँ तो साहित्य समाज के लिए यह बात भारतीय दर्शन है, लेकिन
रंगों की बात है तो दर्शन में विज्ञान भी आएगा।
भारतीय दर्शन कहता है - कृष्ण कौन हैं? जवाब
है - जो अपने पास आने वाले हर प्राणी को अपने अंदर समेट ले। राधा कौन हैं? भारतीय
दर्शन कहता है - जिसने कृष्ण के प्रेम में संसार के हर सुख को छोड़ दिया, यहाँ
तक कि कृष्ण को भी।
विज्ञान कहता है - जो हर रंग को अपने अंदर समेट ले वो काला और जो
हर रंग को लौटा दे वो गोरा, यानी सफ़ेद। दर्शन और विज्ञान को मिलाकर कहें तो - जो हर रंग को
अपने अंदर समेट ले वो काला, यानि कृष्ण। जिसने हर रंग को लौटा दिया वो गोरा यानी सफ़ेद, यानि राधा।
बात भारतीय दर्शन की हुई, विज्ञान
की हुई, डॉ
सी. वी. रमन की खोज की हुई। अब थोड़ी सी बात इतिहास और कला की भी कर लेते हैं।
क्योंकि आपके दिमाग़ में यह सवाल ज़रूर पनपना चाहिए कि भारतीय दर्शन कृष्ण को काला
दर्शाता है, तो
फिर तस्वीरों में वो नीले कैसे हो गए?
एक बहुत बड़े और मशहूर भारतीय पेंटर हुए
हैं, जिनका
नाम है राजा रवि वर्मा। जिन्हें चित्र की कला में दिलचस्पी न हो, वे
कला के आकार वाले बॉलीवूड से तो वास्ता रखते ही होंगे। राजा रवि वर्मा पर बॉलीवूड
में 'रंगरसिया' फ़िल्म
बनी है। राजा रवि वर्मा ने भारत में अंग्रेज़ शासन के दौरान 1894
में पेंटिंग्स को प्रिंट करके उसे बाज़ार के ज़रिए लोगों तक पहुँचाने का साहस
(उद्योग-व्यापार) शुरू किया था। इस प्रेस में ओलियोग्राफी नामक एक छपाई तकनीक का
इस्तेमाल किया गया था। प्रेस में दो जर्मन तकनीशियनों की मदद भी ली गई थी।
रवि वर्मा ने भारतीय कथाओं और कहानियों में शब्दों में वर्णित या
लोकसाहित्य में लोगों की कल्पनाओं में बसे पौराणिक पात्रों को तस्वीरों में ढाला।
उस समय भारतीय समाज में पौराणिक कथाओं और कहानियों को पढ़ने या सुनने तक का चलन
था। चित्र (पेंटिंग) या चलचित्र (वीडियो) की पहुँच आम जनता तक नहीं थी। यह पहली
बार हुआ कि लोगों ने जिन कथाओं और कहानियों को सुना-पढ़ा था, जिन आराध्य देवों को, देवियों को, देवताओं, राक्षसों, इत्यादि को शब्दों के
ज़रिए महसूस किया था, वे सारे आराध्य देव, देवियाँ, देवता, राक्षस आदि रवि वर्मा ने पेंट किए और अपने प्रिंटिंग प्रेस में
उसकी अनेक कॉपियाँ बनाकर बाज़ार में उतार दी।
रवि वर्मा ने यूरोपियन शैली की
पेंटिंग्स को भारतीय पौराणिक कहानियों के साथ मिलाकर पेंटिंग्स बनाईं। यूरोपियन
पेंटिंग्स में तो हर किसी का रंग गोरा ही होता था। लेकिन भारतीय दर्शन में कृष्ण
का रंग काला (सांवला) दर्शाया गया था। काली श्याही उपलब्ध नहीं हो सकी तो रवि
वर्मा ने सांवले रंग के लिए नीले का प्रयोग किया। इन पेंटिंग्स ने देश भर में
धूम मचा दी। जगह-जगह कैलेंडर और पोस्टर पर ये तस्वीरें छापी गईं और देखते-देखते
ही लोगों के दिमाग़ में कृष्ण का रंग नीला हो गया!
बात को राधा की तरफ़ ले जाते हैं। जैसा
कि देखा जाता है, कृष्ण के संग होली के प्रसंग गोपियों के
साथ ज़्यादा हैं, राधा के साथ कम।
तो क्या राधा-कृष्ण के होली खेलने का प्रसंग भावावेश में की गई कवि की कल्पना भर
है? ऐसा
क्यों कि सारी ठिठोली गोपियों के हिस्से और राधा के भाग्य में विरह। बता दें कि यह
सब बिछोह लिपि (किसी प्रियजन से अलग होने का दर्द) में लिखा गया था।
राधा, कृष्ण और होली के रंग, साथ ही गोपियाँ। होली का मौक़ा ऐसा है कि ईश्वर हो या मनुष्य, लोकगीतों में तमाम छूट की
कल्पना की गई है। गोपियों के संग कृष्ण और कृष्ण के संग गोपियाँ। राधा समूह से अलग
हैं। उनका पौराणिक आख्यानों में भी ज़िक्र कम है। महाभारत, हरिवंश पुराण, विष्णु पुराण तथा भागवत
के मूल पुस्तक में राधा हैं ही नहीं तो फिर इस विशिष्ट चरित्र का उद्भव कैसे हुआ?
यदि राधा तत्कालीन समय में इतनी ही
महत्वपूर्ण चरित्र होतीं तो क्या वेदव्यास जैसे महर्षि उनको उल्लिखित करना भूल
जाते? सिर्फ़
पद्म पुराण और ब्रम्ह वैवर्त पुराण में 'बरसाने की लाडलीजी' का
ज़िक्र मिलता है।
भागवत के पश्चात के ग्रंथों में राधा को
उकेरा गया, जैसे
कि पद्म पुराण, ब्रह्म
वैवर्त पुराण, गीत
गोविंद तथा चैतन्य चरणामृत आदि। भागवत के नये पंथ-सृजन में राधा का चरित्र नज़र
आया। उसके बाद अलग अलग धार्मिक साहित्यों में राधा का ज़िक्र किया जाने लगा।
ब्रह्म वैवर्त पुराण, जो
सभी पुराणों में सबसे नया है, में 'राधा' नाम
से प्रथम साक्षात्कार होता है। यहाँ ज़िक्र कर देते हैं कि हिंदू
संस्कृति के प्रचलित पुराणों के मुताबिक़ शिव सर्वशक्तिमान देव और सभी देवों के
जनक हैं, जबकि
ब्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार कृष्ण ही विष्णु सहित सभी देवों (ब्रह्मा, शिव
आदि) व जीव धारियों के जनक हैं।
हिंदू संस्कृति की स्थापित मान्यता यह
है कि वैकुण्ठ धाम सबसे ऊंचा है, जबकि ब्रह्म वैवर्त
पुराण के अनुसार कृष्ण गोलोकधाम में निवास करते हैं, जिसका
स्थान विष्णु के वैकुण्ठ धाम से भी ऊंचा है। इसी गोलोकधाम में
राधा से प्रथम साक्षात्कार होता है।
इसी ग्रंथ में राधा के विरोधी चरित्र
विराजा का उल्लेख मिलता है। इस ग्रंथ के अनुसार कृष्ण व विराजा में स्नेह होने के
कारण राधा को विराजा से स्वाभाविक वैर था। एक बार कृष्ण, विराजा
से मिलने उनके घर जाते हैं। राधा उनका पीछा करती हैं तथा विराजा के घर तक पहुँच
जाती हैं। विराजा का द्वारपाल श्रीदामा राधा को घर के भीतर प्रवेश करने की अनुमति
नहीं देता है।
ब्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार राधा
क्रोध में आकर कृष्ण को पृथ्वी पर जन्म लेने का श्राप देती हैं तथा श्रीदामा को
असुर के रूप में जन्म लेने का दंड सुनाती हैं। इस पर श्रीदामा जो स्वयं कृष्ण का
भक्त था, राधाजी
को पृथ्वी पर जन्म लेकर चरित्रहीन स्त्री के रूप में मशहूर होने का श्राप देता है।
इस घटना के पश्चात श्रीदामा तथा राधा, कृष्ण
से एक-दूसरे के श्राप से मुक़्त करने का निवेदन करते हैं। कृष्ण श्रीदामा को
असुरराज बनने का वरदान देते हैं तथा राधा को वचन देते हैं कि जब वह पृथ्वी पर जन्म
लेंगी तब वह उनके साथ होंगे।
कल्याणमल लोढ़ा द्वारा संपादित पुस्तक 'भारतीय
साहित्य में राधा' के
अनुसार, ब्रह्म
वैवर्त पुराण में कहा गया है कि कृष्ण रास में प्रियाजी के धावन कर्म का स्मरण
करते हैं, इसलिए
उन्हें राधा कहते हैं। पुस्तक के अनुसार 'रा' का
अर्थ 'पाना' और
'धा' का
अर्थ 'निर्वाण' है, इसलिए
उन्हें 'राधा' कहते
हैं। इसमें राधा का नाम राध धातु से संबंधित बताया जाता है।
इस पुस्तक में लिखा गया है कि - 'भागवत' में राधा का, जो आगे चलकर कृष्ण की सहचरी
के रूप में सर्वत्र बिराजने लगी, का नामोल्लेख नहीं है। इस पुस्तक के अनुसार 'भागवत' में इतना उल्लेख ज़रूर है
कि अमुक गोपीका के प्रति कृष्ण का विशेष अनुराग था।
ब्रह्म वैवर्त पुराण के इस उल्लेख के
बाद, कृष्ण
व राधा के संबंध पर आधारित अनेक रचनाएँ सामने आने लगीं। चैतन्य महाप्रभु ने
वैष्णव धर्म की प्रेममार्गी शाखा की स्थापना इसी संबंध के आधार पर की थी। इस्कॉन
की धारा ने तो श्रीकृष्ण-राधा के काल्पनिक संबंध को वैदिक सभ्यता के साथ ही जोड़
दिया।
राधा वल्लभ संप्रदाय में
राधा-कृष्ण-भक्ति को अन्य संप्रदायों की भाँति किसी दार्शनिक द्दष्टि से ब्रह्म, जीव, प्रकृति
आदि विवेचन द्वारा स्थापित नहीं किया गया।
यशोवंतदास जी के 'प्रेमभक्ति
ब्रह्मगीता' और अरक्षित शिव जी के 'राधारसामृत
गीता' में
श्री जगन्नाथजी को कृष्ण और सुभद्रा को राधा कहा गया है। ऐसा कहने का कारण
हैं कि राधा और कृष्ण एक माता से जन्मे भ्राता (भाई) और भगिनी (बहन) के रूप में
उक्त ग्रंथ में वर्णित है। (सोर्स - कल्याणमल लोढ़ा द्वारा संपादित
पुस्तक 'भारतीय साहित्य में
राधा')
महाभारत, हरिवंश पुराण, विष्णु पुराण तथा भागवत के मूल पुस्तक में नज़र नहीं आने वाली राधा
ब्रह्म वैवर्त पुराण में प्रथम देखी जाती हैं और उसके पश्चात सृजित ग्रंथों में
उसे बार बार उकेरा जाता है।
'प्रेम भक्ति ब्रह्म गीता', 'राधा
रसामृत गीता', 'गुप्त
भागवत', 'श्रीमद्
भागवत', 'देवी
भागवत', 'वेदान्त
सार गुप्त गीता', 'प्रेम
भक्ति ब्रह्म गीता', 'अमर
कोष', 'शब्दकल्पद्रुम', 'श्री
कृष्णयामल', 'सोलह
चौपदी'
आदि
में राधा को अलग अलग द्दष्टि से देखा गया है। उड़ीसा के ज्ञान-मिश्रित भक्ति
साधकगण राधा को देहविहीन दर्शाकर नयी द्दष्टि से देखते हैं।
ओड़ीया, पंजाब, बंगाल, कन्नड़
आदि के लोक साहित्य में राधा का चरित्र प्रचलित ज्ञान-मिश्रित-भक्ति साहित्य से
बिलकुल भिन्न नज़र आता है। कहीं पर तो चौंकाने वाला भी दिखाई पड़ता है।
वैष्णव, जैन, ब्राह्मण, शैव
या वीर शैव संप्रदाय के साहित्य में कृष्ण और राधा, दोनों के स्वरूप भिन्न दिखाई पड़ते हैं।
दरअसल, राधा पुराणों से ज़्यादा लोक मानस में बसा करती हैं। वरिष्ठ
पत्रकार-साहित्यकार गीताश्री बताती हैं कि बड़े उपनिषदो में तो राधा-कृष्ण की होली
के प्रसंग तो नहीं ही हैं, छोटे-छोटे उपनिषदो में भी ज़िक्र नहीं है। उनमें फाल्गुन तक का
वर्णन नहीं है। फिर ये कृष्ण और राधा तथा उनके होली के रंग कहाँ से उड़े या उड़ाए
गए?
बात साहित्य सृजन पर आकर ठहरती है।
होली के रंग पुराणों में नहीं काव्य में सबसे अधिक फैले हुए हैं। 12वीं
शताब्दी में होली के रंग सबसे अधिक कविताओं में उड़ते हैं।
तो क्या साहित्य इतना सशक्त माध्यम है
कि वह एक आभासीय सत्य को वास्तविक सत्य की तरह लोक में स्थापित कर सकता है? इतनी
विश्वसनीयता के साथ कि पूरा समाज उससे जुड़ जाए, उससे
ख़ुद को जोड़ कर देखे? माने या न माने, यह
काव्य का ही लोक पर असर है। भक्तिकालीन साहित्य पर नज़र डालें तो इसकी पुष्टि हो जाएगी।
हम इससे पहले लिख चुके हैं कि भारतीय
समाज की अलग अलग पीढ़ियों को चाहे किताबों में या साहित्य में व्यापक दिलचस्पी न
हो, बावजूद
इसके साहित्य ने, पुस्तकों
ने, समाज
के जीवन, दिमाग़, विचार
आदि को बिना दिलचस्पी के ही ग़हरा प्रभाव डाला है। साहित्य नामक अमूर्त तत्व
इतना प्रभावी है कि वह निर्माण और विध्वंश की घूप-छाँव को लेकर चलता रहा है।
यहाँ 4 हज़ार से अधिक
प्रकार के रामायण व्याप्त हैं!
यहाँ उस स्थापित साहित्य को स्वामीनारायण संप्रदाय अपने साहित्य के ज़रिए आज-कल
धत्ता बताने में जुटा हुआ ही है और उनके इस अमूर्त विचारों को सत्य मानने वालों की
तादाद लाखों-करोड़ों में है!
संसार और भारत, दोनों
का इतिहास स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि अच्छे या बुरे विचार तथा लाभदायक या
हानिकारक मान्यताओं का प्रचार प्रसार जैसे ही लिखित रूप से होना शुरू हुआ, वह
दस्तावेज़ के रूप में स्थापित होने लगा!
उन अच्छे-बुरे विचारों को, लाभदायक-हानिकारक
मान्यताओं को, किताब या ग्रंथों के रूप में पेश करना
शुरू किया गया, वह अनंत सत्य के रूप में स्थापित होने
लगे!
साहित्य तो मिथक और इतिहास दोनों रचता है। दोनों को अपने हिसाब से
तोड़-मरोड़ सकता है या कुछ नया गढ़ सकता है। कालांतर में उसकी गढ़ी गई छवियाँ इतनी
रूढ़ हो जाती हैं, इतनी लोकप्रिय कि समय भी उसे अपने सत्य की तरह स्वीकार लेता है! इनमें
से कुछ सृजन योजनाबद्ध थे, तो कुछ केवल निर्दोष कल्पना और भक्ति तथा आस्था से प्रेरित।
काल ने राधा का कृष्ण से अलग अस्तित्व
स्वीकार कर लिया और ख़ूब काव्य लिखे गए। अनेक प्रसंगों की चर्चा मिलेगी। ज्ञानी जन
जानते हैं कि राधा कृष्ण की आह्लादित शक्ति हैं, चैतन्य शक्ति हैं। राधा मूल नहीं तो
राधा आई कहाँ से? कवियों की कल्पना की तीव्रता तो देखिए।
राधा को ही साकार खड़ा किया काव्य में और वहाँ से जनमानस में बिठा दिया!
भक्त कवियों ने होली को लेकर इतने मधुर
भाव से सोचा कि सचमुच की राधा कृष्ण से होली खेलन आई। अब अगर बृज में होली खेलेंगे
नंदलाल तो उनके साथ उनकी राधा तो अनिवार्य हैं न!
रीतिकालीन कवियों ने राधा-कृष्ण को आधार बना कर श्रृंगार की बातें ख़ूब की।
रत्नाकर ने 'उद्धव
शतक' लिखा
तो राधा को साक्षात पात्र बना कर खड़ा कर दिया, जबकि भगवद्पुराण में कृष्ण की सामूहिक
लीलाओं का वर्णन मिलता है।
रीतिकालीन और भक्तिकालीन कवियों का सबसे प्रिय विषय होली और
फाल्गुन रहे हैं। इसके बहाने राधा-कृष्ण की जोड़ी की काव्यात्मक स्थापना हुई। यहाँ
ध्यान दिलाना ज़रूरी कि पद्माकर की कविता में कृष्ण और गोपियों के बीच ज़बरदस्त
होली का प्रसंग है।
यहाँ राधा का ज़िक्र नहीं है, किंतु
सामान्य गोपी की शरारत का ज़िक्र है, जो कृष्ण को ज़बरन पकड़ कर अंदर ले जाती है, उनके
संग अपने मन की करती है, उनके ऊपर अबीर की झोली उझिल देती है, पीतांबर
छीन कर उन्हे विदा कर देती हैं। वे ऐसा करते हुए, नैन नचा कर, मुस्कुरा
कर कहती हैं - लला, फिर आना होली खेलने।
रसखान लिखते हैं - फागुन लाग्यो जब तें
ब्रजमंडल में धूम मच्यौ है, नारि नवेली बचै नहिं एक विसेख यहै सबै प्रेम अच्यौ है। सूरदास
भी देख लेते हैं कि कृष्ण के संग ग्वाल बाल के अलावा सखियाँ भी होली खेल रही हैं।
मतिराम के यहाँ भी गोपियों के होली खेलने का ज़िक्र है।
राधा कहाँ है? दरअसल राधा एकल सृजन है, जबकि गोपियाँ समूह हैं।
होली एकल से अधिक सामूहिक रास का त्योहार है। एकल पद्धति पर सामूहिकता की जीत है।
इसीलिए सबसे अलग और ख़ास है।
काव्य में भले राधा-कृष्ण होली के
प्रसंग कम हो, लोक
मान्यताओं में दोनों के अलौकिक होली खेलने के कई प्रसंग हैं। जैसे राजस्थान में
भरतपुर ज़िले के डीग बार्डर से सटे गाँव गांठौली में बने गुलाल कुंड राधा कृष्ण की
होली-लीला का गवाह माना जाता है। मान्यता है कि कृष्ण और राधा ने गोपियों संग इसी
कुंड पर रंगों की होली खेली थी। यहाँ दोनो सिंहासन पर विराजे। वहीं सखियों ने दोनों
के पल्लुओें मे गाँठ लगा दी थी। जिससे इस गाँव का नाम गाँठौली पड़ गया। रंग गुलाल
से कुंड का नाम गुलाल कुंड पड़ गया।
आधुनिक काल के कृष्ण मंदिरों में उन्हें
राधा के साथ ही देखा जाता है। कुछेक समुदाय की मान्यतानुसार राधा ही वह आदि शक्ति
हैं जिनसे श्री कृष्ण संपूर्णता को प्राप्त होते हैं। यानी जो कृष्ण पूर्ण
पुरूषोत्तम के रूप में देखे और लिखे गए, कालांतर में उसी
कृष्ण को राधा के ज़रिए पूर्णता प्राप्त करते हुए माना गया! वैष्णव साहित्य तो राधा को कृष्ण से भी
अधिक महत्वपूर्ण दर्ज़ा प्रदान करता नज़र आता है।
काव्य के बाद राधा-कृष्ण की होली के कई
प्रसंग गानों में मिलेंगे। इन गानों का आधार भी लोक में प्रचलित उनके क़िस्से और
मान्यताएँ हैं। इस सृजन ने जातियों की दूरियों को मिटाया भी। एक मशहूर रचना में
लिखा गया कि सुना है राधा की चुनरी कोई सलमा बेगम सीती हैं।
राधा, कृष्ण
और रंग। पौराणिक कथाएँ और उनके कथानक। समाज की मान्यता और आस्था। साहित्य की
कल्पना शक्ति। भक्ति साहित्य की निर्दोष भावना और समर्पण। भारतीय दर्शन और उससे
जुड़े कुछ वैज्ञानिक कोण। जो अपने पास आने वाली हर वस्तु को अपने भीतर समेट ले वो
परम मनुष्य और जो तमाम मानवीय भावनाओं को त्यागने का साहस धारण करे वह समर्पित
जीव।
(इनसाइड इंडिया, एम
वाला)