यूँ तो आज़ाद भारत में अनेक ऐसे ब्रांड हैं, अनेक ऐसे व्यापार या उद्योग हैं, क़िस्से-कहानियाँ हैं, जो महान स्वतंत्रता संग्राम के नायकों के मूल सपनों को पूरा करते नज़र आए। फिर
समय बीता और राजनीति, विशुद्ध व्यापार तथा
बदलते हुए आर्थिक और सामाजिक परिद्दश्य इन सबमें मिले और आज कुछेक ब्रांड, कुछेक क़िस्से अपने शुरूआती शानदार सामाजिक सफ़र को लेकर यादों
का हिस्सा मात्र बन कर रह गए हैं। जबकि कुछेक आज भी अपने उन मूल उद्देश्यों को लेकर
ज़िंदा हैं।
लिज्जत पापड़ केवल उद्योग या ब्रांड नहीं है, बल्कि भारत की सफ़रगाथा का एक अमिट पन्ना है। मुंबई के डिब्बे
वालों की तरह लिज्जत पापड़ की कहानी भी भारत के इतिहास में अंकित दिलचस्प कहानी है।
अमूल की तरह यह नाम भी लोगों के दिलों में भावनात्मक रूप से बसा हुआ है।
यूँ तो 1990 के दशक में लागू की
गई ग्लोबलाइजेशन पॉलिसी से पहले भारत का ढाँचा बिलकुल भिन्न था। इस भिन्नता के भीतर
बाज़ार, बाज़ार में बिक रही चीज़ें, उत्पाद, विज्ञापन, कलाकार, तमाम में भी एक अलग सा द्दश्य देखने के लिए
मिलता था।
लेकिन आज भी जब हम
पापड़ का नाम लेते हैं तो सबसे पहले हमारे सामने लिज्जत पापड़ का नाम आने लगता है।
कौन मान सकता है कि लिज्जत पापड़ का कारोबार मात्र 80 रुपये की पूंजी के साथ शुरू किया गया था और इसे सिर्फ़ सात
महिलाओं ने मिलकर शुरू किया था! 2022 में कंपनी की नेटवर्थ
1,600 करोड़ रुपये से ज़्यादा थी।
पिछले 50 सालों के पापड़ के
कारोबार में लिज्जत शीर्ष पर है। जिस कारोबार को कुछेक महिलाओं ने मिल कर शुरू किया
था वह एक ऐसा ब्रांड बन जाए जो साहसिकों और बौद्धिकों के लिए केस स्टडी बने, यह अद्भूत कहानी है।
अगर 90 के दशक के दूरदर्शन
पर प्रसारित होने वाले विज्ञापनों की बात करे तो लिज्जत पापड़ को कभी नहीं भूल पाएँगे।
हर किसी को याद है 'कर्रम कुर्रम कुर्रम कर्रम', वह आकर्षक जिंगल, जिसे लिज्जत लेकर आई थी, जिसने लिज्जत पापड़ को भारतीय घरों में लोकप्रिय
बना दिया। मात्र कुछेक रुपयों से शुरू होने वाला ये कारोबार आज 1,600 करोड़ रुपयों से ज़्यादा
का हो गया है और भारत के लगभग 40-45 हज़ार लोगों को रोजगार मुहैया कराता है। इस फर्म की मुख्य शाखा मुम्बई में है
और पुरे भारत में इसकी 83 शाखाएँ और 27 डिवीजन हैं।
लिज्जत मुम्बई (उस
समय बॉम्बे) में रहने वाली सात गुजराती महिलाओं का सामूहिक प्रयत्न था, जो गिरगाँव इलाक़े के लोहाना निवास में रहती थीं। उन महिलाओं
के पास अपने रोज़ाना के काम निपटाने के बाद काफी समय बचा रह जाता था। ऐसे में उन्होंने
सोचा कि कुछ ऐसा काम किया जाए, जिससे वे भी परिवार की आय में अपना हाथ बँटा
सकें।
कहानी की शुरूआत से
ही यदि समझना चाहे तो समझ सकते हैं कि कोई भी व्यक्ति हो, चाहे वह महिला हो या पुरूष, उसके पास यदि समय बचता है तो इसका उपयोग 'कर्म के सिद्धांत' के आधार पर करना चाहिए। अग्नि की पूजा करना
ज़रूरी होता होगा, किंतु अग्नि से सिद्धियाँ हासिल करना ज़्यादा
ज़रूरी रहा है और ज़रूरी रहेगा।
सात सहेलियाँ... सात
महिलाएँ। आम तौर पर टिप्पणी की जाती है कि दो महिलाएँ मिल जाएँ तो दो महीने तक बतिया
सकती हैं, लेकिन दो मिनट का काम नहीं हो सकता। किंतु
इन सात सहेलियों ने अपने साथ धीरे धीरे हज़ारों सहेलियों को जोड़ा और वो कर दिखाया
जो अद्भूत है।
इन सात महिलाओं के नाम थे जसवंती
बेन जमनादास पोपट, पार्वती बेन रामदास थोडानी, उजम बेन नारनदास कुण्डालिया, बानु बेन तन्ना, लाभु बेन अमृतलाल गोकानी, जया बेन विठ्ठलानी तथा छूटड़ बेन गौड़ा। जिस तरह गुजराती आदमी
व्यापार में सबसे आगे माना जाता है, उसी
प्रकार गुजराती महिलाएँ भी खाने की चीज़ें बनाने में किसी से कम नही हैं। और अपने इसी
हुनर की वजह से इन्हें आय के स्त्रोत के तौर पर पापड़ बेचने का विचार आया।
इस काम में सबसे बड़ी
अड़चन थी कैपिटल की। कोई भी बिज़नेस शुरू करने के लिए कैपिटल या शुरुआती पैसा चाहिए।
जब महिलाएँ ख़ुद ही अपने पतियों पर आश्रित थीं तो काम शुरू करने के लिए पैसे कहाँ से
आते? हालाँकि इन महिलाओं की खुशकिस्मती थी कि स्वतंत्र
भारत का नया सफ़र कर्म, श्रम, खेती, ग्रामोद्योग, सहकारिता और वैज्ञानिक द्दष्टिकोण को ध्यान में रखकर शुरू हुआ
था।
इन सातों गुजराती महिलाओं
ने सर्वेंट्स ऑफ़ इंडिया सोसाइटी के अध्यक्ष और एक सामाजिक कार्यकर्ता छगनलाल पारेख
से 80 रुपये उधार लिए। बता दें कि इस सोसाइटी की स्थापना सन 1905 में हुई थी, जिसके संस्थापक गोपाल कृष्ण गोखले थे।
छगनलाल पारेख की मदद
से व्यापार शुरू करने के लिए ज़रूरी आर्थिक व्यवस्था करने के बाद इन महिलाओं ने घाटे
में चल रहे एक उद्यम से पापड़ बनाने वाली देशी मशीन को ख़रीद लिया, साथ ही पापड़ बनाने के कुछ ज़रूरी सामान भी ख़रीदा, यानी कच्चे माल की ख़रीदी।
वो 15 मार्च 1959 का दिन था, अधिकांश महिलाएँ अपने
घरेलू कामों में व्यस्त थीं या बतिया रही थीं और तब ये सभी गुजराती महिलाएँ अपने मकान
की छत पर गईं और उपलब्ध सामानों की मदद से पापड़ के चार पैकेट बनाए। पापड़ बेचने में इन्हें पुरुषोत्तम दामोदर दत्तानी की मदद मिली। बनाए गए चारों
पैकेट गिरगाँव के आनंदजी प्रेमजी स्टोर में बेचे गए।
शुरूआती समय से ही
इन महिलाओं ने तय किया था कि वे अपने इस व्यवसाय के लिए किसी से चंदा नहीं माँगेगी, चाहे उनका व्यवसाय घाटे में ही क्यों न चला जाए। नोट करें कि
इन्होंने अपने उत्पाद का कोई नाम नहीं रखा था।
स्वाभाविक है कि सफ़र
आसान नहीं था। छगनलाल पारेख इनके इस काम में मार्गदर्शक की भूमिका भी अदा कर रहे थे।
शुरूआत में इन महिलाओं ने दो प्रकार के पापड़ बनाए, जिसमें से एक को वे सस्ते दामों पर बेचते थे। छगनलाल ने इन्हें सुझाव दिया कि वे
स्टैण्डर्ड पापड़ पर ध्यान दें और क्वालिटी और टेस्ट से समझौता न करें। छगनलाल सामाजिक
कार्यकर्ता थे, सोसाइटी के अध्यक्ष थे, साथ ही व्यापार में महारत भी रखते थे। उन्होंने सात महिलाओं
के इस छोटे से प्रयास का लेखा जोखा कराना शुरू किया, साथ ही इसके भीतर बसे 'सहकारिता' और 'सर्वोदय' के सिद्धांत को व्यापकता देने की तरफ़ जोर दिया।
आत्मनिर्भरता और व्यवसाय
की अवधारणा को शुरू से ही समूह ने अपने भीतर बसा लिया था। समूह ने अपने सभी सदस्यों
के साथ मिलकर पारिवारिक स्नेह, चिंता और विश्वास की अवधारणा को अपनाया। सभी
मामलों को उसी तरह से निपटाया गया और काम ऐसे चलता रहा जैसे एक परिवार अपने दैनिक घरेलू
काम करता है। यानी समूह के भीतर कोई भी सदस्य काम करेगा या अपनी ऊर्जा ख़र्च करेगा
तो वह सभी के लाभ के लिए समर्पित होगी। सहकारिता और सर्वोदय का तत्व इस समूह की आत्मा
सरीखा है।
धीरे धीरे यह एक व्यापक
सिस्टम बनता गया। सहकारिता और सर्वोदय का सिद्धांत ज़ल्द ही सफलता की तरफ़ बढ़ता दिखाई
देने लगा। अन्य महिलाएँ भी इसमें जुड़ने लगीं। शुरूआत में इसमें छोटी लड़कियाँ भी काम
कर सकती थीं, किंतु बाद में इसमें जुड़ने की न्यूनतम आय
18 वर्ष कर दी गई। 3 महीनों के भीतर पापड़
बनाने वाली महिलाओं की संख्या 25 हो चुकी थी।
15 मार्च 1959 वाले पहले दिन 1 किलो पापड़ बेचकर 50 पैसे कमाई हुई थी। अगले दिन 1 रुपए की हुई। धीरे-धीरे और महिलाओं ने जुड़ना शुरू किया। छगनलाल पारेख और पुरूषोत्तम
दामोदर दत्तानी का मार्गदर्शन और सह्योग मिल रहा था।
जिसके पास समय बच जाता
था वह महिलाएँ कर्म के सिद्धांत पर तेज़ी से जुड़ती गईं। इतनी तेज़ी से कि वडाला में
भी एक ब्रांच खोलनी पड़ी। अब कुछ महिलाएँ अपने साथ पापड़ बनाने के कुछ ज़रूरी सामान, जैसे बर्तन, स्टोव आदि साथ लाती थीं, जिससे इस सामूहिक प्रयास को आर्थिक मदद उपलब्ध होने लगी। पहले
साल में इसकी वार्षिक बिक्री 6,196 रुपये थी। यह उस वक़्त के हिसाब से काफी बड़ी रकम थी। ये वो वक़्त था जब आम सरकारी
कर्मचारियों को 50-70 रुपए महीने सैलरी मिलती थी।
टूटे हुए पापड़ को वे
अपने पड़ोसियों में मुफ़्त में बाँट दिया करते थे। पहले साल ही इन महिलाओं के सामने
एक दिक्कत आई। बरसात के मौसम के चार महीनों में इन्हें अपने काम को बंद करना पड़ा, क्योंकि इस मौसम में पापड़ सूखते नहीं थे। अगले साल इन्होंने
इसका इलाज ढूंढ निकाला। इन्होंने एक खटिया और स्टोव ख़रीद लिया। अब इन पापड़ को खटिया
पर सुखाया जाता था और इसके नीचे स्टोव से आग जलाई जाती थी, जिससे बरसात के मौसम में भी उनका काम चलने लगा।
बिना तकनीक और बिना
संचार वाले उस ज़माने में इन्होंने क्वालिटी, मौखिक प्रचार और अख़बारों-पत्रिकाओं में लेखों
के ज़रिए ख़ूब नाम कमाया। सहकारिता स्वतंत्र भारत का अभिन्न अंग बनाया गया था और इस
अंग को पूरे भारत में पहुँचाने के लिए तत्कालीन सरकारें और बौद्धिक समुदाय प्रयत्नशील
थे। इन स्थितियों का इस व्यवसाय को काफी फ़ायदा हुआ।
इन सबके चलते अनेक
महिलाएँ इस उद्यम के साथ जुड़ती गईं। दूसरे साल में इस समूह में और महिलाएँ जुड़ीं, और यह आँकड़ा तीसरे साल 300 के पार पहुँच गया। अब इनका कारोबार इतना फ़ैल गया कि इसकी स्थापना
करने वाली सातों महिलाओं के घर की छतें कम पड़ने लगीं। वडाला में ब्रांच खुल चुका
था। फौरी तौर पर इन्होंने समूह की महिलाओं को अपने अपने घर पर ज़रूरी सामान ले जाकर
पापड़ बनाने की सलाह दी। पापड़ बनने के बाद उन्हें वापस लाकर तोला जाता था और फिर पैक
कर दिया जाता था।
फिर 1962 का साल आया। वह साल, जब सहकारिता के सिद्धांत पर स्थापित इस व्यावसायिक समूह ने अपने
उत्पाद का नामकरण किया। पापड़ का नाम रखा गया – लिज्जत। इसका अर्थ होता है स्वादिष्ट। समूह का आधिकारिक नामकरण
हुआ और वह नाम था – श्री महिला गृह उद्योग लिज्जत पापड़।
नोट करना चाहिए कि
नामकरण के लिए बाक़ायदा कॉन्टेस्ट आयोजित किया गया था। इस कॉन्टेस्ट में धीरज बेन रूपारेल
विजयी हुयीं और उनके द्वारा सूचित नाम लिज्जत समूह के उत्पाद का नाम बन गया। कॉन्टेस्ट
में विजयी होने पर धीरज बेन को 5 रुपये का पुरुस्कार मिला।
1962-63 में इस समूह की वार्षिक आय 1 लाख 82 हज़ार तक पहुँच गई! निर्णायक मोड़
1966 में आया जब इसे बॉम्बे पब्लिक ट्रस्ट अधिनियम 1950 के तहत पंजीकृत किया
गया और सोसायटी पंजीकरण अधिनियम, 1860 के तहत भी पंजीकृत किया गया, साथ ही खादी और ग्रामोद्योग
आयोग द्वारा 'ग्राम उद्योग' के रूप में मान्यता
प्राप्त हुई। खादी डेवलपमेंट एंड विलेज इंडस्ट्रीज आयोग के तत्कालीन अध्यक्ष
देवधर ने ख़ुद लिज्जत का निरिक्षण किया और 8 लाख की पूंजी का निवेश किया।
1959 में 80 रुपए उधार लेकर सात महिलाओं द्वारा शुरू किए गए इस उद्यम को 1966 में बाक़ायदा 'ग्राम उद्योग' के रूप में मान्यता प्राप्त हुई तथा संबंधित सरकारी आयोग ने
इसमें 8 लाख की पूंजी का निवेश प्राप्त किया! यह अद्भूत सफलता थी। अपने उत्पाद पापड़ की अपार सफलता के बाद लिज्जत ने खाखरा, मसाला, वड़ी और बेकरी प्रोडक्ट भी शुरू किए।
70 के दशक में इस समूह ने आटा चक्की, प्रिंटिंग डिवीज़न और पैकिंग डिज़ाइन की मशीनें लगा दीं। समूह
ने आधिकारिक रूप से 1974 में खाखरा, 1976 में मसाले, 1976 में वड़ी, गेहूँ आटा और बेकरी उत्पाद जैसे उत्पादों
का उत्पादन शुरू किया। आटा मिलें, एक प्रिंटिंग डिवीजन और एक पॉलीप्रोपाइलीन
पैकिंग डिवीजन 1970 के दशक के अंत में स्थापित किए गए थे।
हालाँकि कुछ उत्पाद, जैसे कि कुटीर चमड़ा, माचिस और अगरबत्ती (धूप सली), कम सफल रहे। लेकिन इसके मुख्य उत्पाद सफल हुए। 80 के दशक में समूह ने
मेलों और प्रदर्शनियों में भाग लेना शुरू कर दिया, जिससे ज़्यादा से ज़्यादा लोगों के बीच लिज्जत नाम का तेज़ी से जाने लगा।
1959 में स्थापना के बाद हर दशक इस समूह के लिए काफी शानदार रहे। स्वाभाविक है कि अनेक
कठिनाइयाँ आईं और उन कठिनाइयों से पार भी पाया गया। 60 का दशक, 70 का दशक, 80 का दशक, सारे दशक इस समूह के लिए सफलता अर्जित करने
वाले दशक रहे। गुणवत्ता, दाम, भरोसा, सहकारिता और सर्वोदय का सिद्धांत, घरेलू आय सृजन नीति, महिला उद्योग नीति, भारत की सरकारों द्वारा सहकारिता का सिद्धांत
लागू कराने के योजनाबद्ध प्रयास और सहाय, इस सिद्धांत को लेकर दूर-दराज़ के इलाकों
में समूह और संगठन बनाकर उसे सिस्टम और संस्था के रूप में लागू करने की चेतना, आदि तत्वों ने मिलकर इस समूह को काफी बल प्रदान किया।
80 के दशक में समूह ने अख़बारों, पत्रिकाओं, रेडियो
और टेलीविज़न के ज़रिए लिज्जत के विज्ञापन देने पर काफी काम किया। भारत के बाहर भी
लिज्जत के बारे में लोग जानने-पूछने लगे। नतीजन 90 के दशक में समूह ने अपना कारोबार भारत के बाहर फैलाना शुरू
किया।
20वीं शताब्दी बीत चुकी थी। 90 के दशक में ग्लोबलाइजेशन पॉलिसी लागू हो चुकी थी, जिसने भारत का अर्थतंत्र ही नहीं बल्कि सामाजिकता, संस्कृति, जीने- रहने- पहनने- खाने का तरीक़ा, राजनीति, सब कुछ बदल दिया था। भारत के तथा दुनिया के
अनेक उद्योग साहसिकों के लिए भारत का बाज़ार खुला था। एक ही उत्पाद या ब्रांड को पीढ़ी
दर पीढ़ी इस्तेमाल करने का दौर ख़त्म हो चुका था। बाज़ार में एक ही उत्पाद या एक ही
सेवा के लिए अनेक साहसिक मैदान में थे, जिनके पास ढेर सारा पैसा, तकनीक और संभावनाएँ थीं। इन हालातों के बीच 21वीं शताब्दी में भी
समूह सालाना करोड़ों का टर्नओवर कर रहा था।
इतना ही नहीं, तकनीक- संभावनाएँ- प्रतिस्पर्धा- जागरूकता आदि आने के बाद समूह
ने इन सबका बढ़िया इस्तेमाल किया और ख़ुद को असीम और निर्मम बन चुके बाज़ार में सबसे
आगे रखा। 15 मार्च 2009 को समूह ने अपनी 50वीं वर्षगाँठ मनाई।
जैसे कि हमने पहले
देखा, इस फर्म की मुख्य शाखा मुम्बई में है और पुरे
भारत में इसकी 83 शाखाएँ और 27 डिवीजन हैं। कोई भी महिला, जो संस्थान के उद्देश्य का पालन करने के लिए सहमत है
वह उस तारीख़ से संस्थान की सदस्य बन सकती है जिस दिन वह काम करना शुरू करेगी। पापड़
उत्पादन का काम सुबह ज़ल्दी यानी 4.30 बजे शुरू होता है। समूह की शाखाओं में मिनी बस की सुविधा है जो सदस्यों को निकटतम
निवास स्थान से शाखा तक और वापस घर तक ले जाती है। शाखा की आय (प्रॉफिट) या हानि (लॉस), जैसा भी मामला हो, उस शाखा के सहयोगी सदस्यों द्वारा तदनुसार
अपने रोलिंग शुल्क को बढ़ाकर या घटाकर वहन किया जाता है।
शाखा के उत्पादन को देखने के
लिए प्रत्येक शाखा का नेतृत्व एक संचालिका द्वारा किया जाता है। समूह की एक सेंट्रल
मैनेजमेंट कमेटी है, जिसमें
21 सदस्य हैं, जिनमें
से 6 (छह) निर्वाचित पदाधिकारी हैं यानी अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, 2 (दो)
सचिव और 2 (दो) कोषाध्यक्ष। समूह द्वारा निर्यात व्यापारी निर्यातकों के
माध्यम से विभिन्न देशों जैसे यूएसए, यूके, फ्रांस, जर्मनी, इटली, मध्य
पूर्व, थाईलैंड, सिंगापुर, हांगकांग, नीदरलैंड, जापान, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण
अफ़्रीका और कई अन्य देशों में किया जाता है।
समूह की तत्कालीन अध्यक्षा
स्वाती रवींद्र पराड़कर हैं। इनके जीवन की कहानी समूह की सफ़रगाथा को दर्शाती है। स्वाती
महज़ 10 साल की थीं, जब उनके पिता का देहांत हो गया। परिवार आर्थिक
संकट में था। उनकी माँ पापड़ बनाती थीं और स्वाती रोज स्कूल जाने से पहले छुट्टियों
में उनकी मदद करतीं थी। पढ़ाई के बाद स्वाती ने भी संस्थान को सदस्या के रूप में ज्वॉइन
कर लिया और वे आज इस संस्थान की अध्यक्षा हैं।
समूह हर साल 10वीं और 12वीं कक्षा की परीक्षा
में उत्तीर्ण होने वाले सहयोगी सदस्यों के बच्चों को छात्रवृत्ति प्रदान करता है, ताकि
महिला सदस्य अपने बच्चों को शिक्षा के लिए प्रोत्साहित कर सकें। रिपोर्ट्स की माने
तो इस समूह ने अपनी स्थापना से आज तक कोई भी दान, अनुदान या उपहार स्वीकार नहीं किया, बल्कि ये लोग अच्छे कार्यों के लिए सामूहिक
रूप से दान करते हैं। लातूर, कच्छ आदि में भूकंप प्रभावित परिवारों के लिए घरों का
निर्माण, बाढ़ प्रभावित लोगों को वित्तीय सहायता प्रदान
करना जैसे कार्य समूह ने किए हैं।
आज यह समूह 45 हज़ार से अधिक महिलाओं
को रोजगारी प्रदान करता है। समूह 27 से अधिक उत्पाद बनाता-बेचता है, जिसमें पापड़ के अलावा पारंपरिक मसाले, विविध प्रकार के रेडीमेड मसाले, चपाती, ससा डिटर्जेंट पाउडर और टिकिया, गेहूँ आटा, ढोकला, थेपला आदि शामिल हैं।
छगनलाल पारेख को आज
भी समूह छगन बापा के नाम से याद करता है और समूह को सन्मार्ग की तरफ़ ले जाने का श्रेय
इन्हें देता है। इस सफ़रगाथा में पुरूषोत्तम दामोदर दत्तानी का नाम भी शामिल है, जिन्हें समूह दत्तानी बापा के नाम से याद किया करता है। इन्होंने
संस्थान का आजीवन मार्गदर्शन किया था।
जिसे सात महिलाओं ने
मात्र 80 रुपये से शुरू किया था वह प्रयास एक विराट काराबोर बन गया, जिसे भारत और भारत के
बाहर साहिसकों और बौद्धिकों ने केस स्टडी माना, जिसने हज़ारों महिलाओं को रोजगार प्रदान किया, जिसने हज़ारों घरों को रोशन रखा। और यह उस समूह के लिए करोड़ों
के टर्नओवर से भी बड़ी सफलता थी और है।
उन सात महिलाओं में
से कोई भी आज जीवित नहीं है। 21 सितंबर 2023 के दिन पद्म श्री से सम्मानित जसवंतीबेन जमनादास पोपट का भी निधन हो गया।
एक छोटे से घर की छोटी सी छत पर कुछेक पापड़ बना कर नज़दीक़ के कुछ घरों में बेचने
का यह प्रयास आज भारत ही नहीं बल्कि दुनिया के सफल ब्रांड में से एक है! लाखों-करोड़ों का निवेश करके तथा अलग अलग राज्य, देश और देश के बाहर नैतिक और अनैतिक तरीक़ों से कारोबार फैलाने
वाले बड़े बड़े खिलाड़ियों के बीच सहकारिता और सर्वोदय के सिद्धांत पर स्थापित यह समूह
इतना बड़ा नाम बन पाया, इतना बड़ा कारोबार
स्थापित कर पाया यह वाक़ई अद्भूत और दिलचस्प कहानी है। यह समूह की सामान्य नहीं बल्कि
असामान्य उपलब्धि है।
इस समूह और समूह के ब्रांड लिज्जत को अनेक राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार
मिल चुके हैं। जसवंती बेन जमनादास पोपट को साल 2021 में पद्म श्री से
सम्मानित किया गया। इस समूह की प्रत्येक महिला को बेन से सम्बोधित किया जाता है और
वे तमाम समूह की सह-स्वामित्व धारी मानी जाती हैं। लिज्जत को गुणवत्ता, स्वाद, महिलाओं द्वारा स्वतंत्र
रूप से आजीविका कमाने के भरोसेमंद साधन और स्वतंत्र भारत की अमिट सफ़रगाथा के रूप में
याद किया जाता है। अमूल जैसे ब्रांड की तरह लिज्जत भी भारत के घर धर ही नहीं बल्कि
उस घर के तमाम सदस्यों के भीतर एक भावना के रूप में, एक गौरवपूर्ण तत्व के रूप में बसा हुआ है।
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)