भारत का पहला यूनेस्को विश्व विरासत शहर। "जब कुत्ते पर सस्सा आया, तब बादशाह ने शहर
बसाया" - अहमदाबाद का नाम जब भी लिया जाता है तब आम जनमानस में यह किंवदंती ख़ुद ही आ जाती
है। शहर की स्थापना से लेकर स्वतंत्रता संग्राम तक और उसके बाद भी "साबरमती का
पानी" शब्द स्वाभिमान के साथ बोला जाता है।
यूँ तो बात जब भारतीय शहरों, गाँवो आदि की हो तब इतिहास के साथ मिथक जुड़ते ही हैं। हमारे यहाँ हर शहर का अपना
एक इतिहास है, अपनी संस्कृति है। कहावतें हैं, कहानियाँ हैं, मिथक हैं, मान्यताएँ हैं। पहनावा और ख़ान-पान से लेकर हर छोटी-मोटी बातें उस शहर की अपनी
एक अलग पहचान सी होती हैं। सड़कें, गलियाँ, मोहल्ले, नुक्कड़, चौक-चौराहे, इमारतें, सभी का अपना एक वृतांत होता है।
इतिहास, प्रमाण, तथ्य, मान्यताएँ, साहित्य, संस्कृति, समाज, जातियाँ, उपजातियाँ, अभिमान, स्वाभिमान, कहानियाँ... आदि वजहों से किसी भी शहर की सफ़रगाथा को लेकर अस्पष्टताएँ और विरोधाभास
रहते ही हैं। आधुनिक समय में राजनीति, वोट बैंक और सत्ता प्राप्ति जैसे तत्व भी प्रभाव डालते हैं। राजशाही से लेकर लोकतंत्र
और आधुनिक समय में चुनावी लोकतंत्र के दौर तक, अपुष्ट या अप्रमाणित
कहानियों को साहित्य या दस्तावेज़ की शक्ल देकर इतिहास के रूप में स्थापित करने के
कृत्य निरंतर चलते रहते हैं।
ऐतिहासिक किताबों तथा
शहर से संबंधित सरकारी दस्तावेज़ों के आधार पर लिखे तो अहमदाबाद की स्थापना 26 फ़रवरी 1411 ईस्वी को सुलतान अहमद
शाह ने की थी। लेकिन तारीख़ से परे, इतिहास से भी उस पार, इस शहर की नींव और सफ़रयात्रा के भीतर अनेक मनलुभावन कहानियाँ तथा किंवदंतियाँ
जुड़ी हुई हैं।
ईस्वी 1411 में अहमदाबाद की स्थापना
से पहले आशावल तथा आशापल्ली का ज़िक्र मिलता है। कहा जाता है कि अहमदाबाद शहर पहले
आशावल या आशापल्ली था, जो भील जनजातियों द्वारा शासित एक बस्ती थी। फ़ारसी विद्वान लेखक अल-बिरूनी ने
आशावल का ज़िक्र अन्हिलवाड़ा पाटन से कैम्बे तक के मार्ग पर एक व्यापारिक शहर के रूप
में किया है।
स्थापना
की जड़ में सत्ता का मोह और विद्रोह
फ़ारसी भाषाविद् और
गुजरात विश्वविद्यालय के फ़ारसी विभाग के पूर्व प्रमुख छोटूभाई नायक द्वारा लिखित 'ગુજરાતમાં ઇસ્લામી
સલ્તનતનો ઇતિહાસ' (गुजरात में इस्लामी सल्तनत का इतिहास) नामक पुस्तक में ज़िक्र किया गया है कि मुज़फ्फर
शाह, जिन्हें गुजरात का पहला स्वतंत्र सुलतान माना जाता है, ने अपने अन्य बेटों
के बजाय अपने पोते अहमद शाह को अन्हिलवाड़ (पाटन) की गद्दी सौंपी।
मुज़फ्फर शाह के पाँच
बेटे थे, फ़िरोज़ ख़ान, हैबत ख़ान, सआदत ख़ान और शेर ख़ान और पाँचवाँ तातार ख़ान, जो अहमद शाह का पिता था। अहमद शाह के सिंहासन पर बैठने से पहले
ही तातार ख़ान की मृत्यु हो चुकी थी। अन्य चार अहमद शाह के चाचा थे। अब जब पोते को
राजगद्दी मिली तो ये चारों चाचा निराश हो गए, किंतु उस समय ऐसा कोई माहौल नहीं था कि अहमद शाह शांति से अपनी गद्दी छोड़े।
सर एडवर्ड क्लाइव बेली
'લૉકલ મોહમદ્દીયન ડાયનેસ્ટીઝ
ગુજરાત' (लोकल मोहम्मदीन डाइनेस्टीज़ गुजरात) किताब में लिखते हैं, फ़िरोज़ ख़ान (फ़िरोज़
शाह) का बेटा मोदूद उस समय वडोदरा (बड़ौदा) का गवर्नर था। फ़िरोज़ ख़ान सुलतान अहमद
शाह का सबसे बड़ा चाचा था। उस संबंध में मोदूद उसका चचेरा भाई था।
मोदूद और फ़िरोज़ ख़ान
ने तख़्तापलट की साज़िश में अग्रणी भूमिका निभाई। फ़िरोज़ ख़ान और मोदूद के साथ कुछ
अमीर भी शामिल हो गए। उनमें सबसे प्रमुख दो हिंदू सरदार थे, एक जीवनदास खत्री
और दूसरे प्रयागदास। 'ગુજરાતમાં ઇસ્લામી સલ્તનતનો ઇતિહાસ' (गुजरात में इस्लामी सल्तनत का इतिहास) पुस्तक में बताया गया है कि मालवा का सम्राट
हुशंग शाह भी विद्रोह में शामिल हो गया।
इसके अलावा गुजरात
के ज़मींदारों को घोड़े उपहार में देकर इस विद्रोह में लड़ाई का समर्थन करने के लिए
संदेश भेजे गए। इस विद्रोह का नेतृत्व मोदूद ने किया और जीवनदास को अपना वज़ीर नियुक्त
किया। सबने मिलकर एक सेना इकट्ठी की। जीवनदास ने सबके सामने पाटन पर आक्रमण करने का
विचार पेश किया, कुछ ने कहा कि सुलतान अहमद शाह की सेना बड़ी होने के कारण उससे निपटना कठिन होगा, कुछ ने तुरंत समझौता
करने की बात कही।
विद्रोह के लिए इक्ठ्ठे
हुए सभी लोगों में मतभेद हुए। कुछ विद्रोही बीच में ही सुलतान अहमद शाह के साथ मिल
गए। स्वाभाविक है कि सत्ता के इस खेल में दोनों तरफ़ से मशक़्क़त की गई होगी। आंतरिक
लड़ाई शुरू हुई और इस लड़ाई में जीवनदास खत्री की मौत हो गई।
विद्रोहियों का गठबंधन
टूटने के बाद मोदूद खंभात की ओर बढ़ा, जहाँ उसके साथ सूरत और रांदेर के गवर्नर शेख मलिक भी शामिल हुए। हालाँकि सुलतान
अहमद को अपनी ओर आता देख वे भरूच की ओर बढ़े। अहमद शाह ने वहाँ पहुँचकर भरूच के क़िले
को घेर लिया। बाद में विद्रोहियों ने सुलतान के सामने आत्मसमर्पण कर दिया।
सुलतान अहमद शाह ने
मोदूद और शेख मलिक को शर्तों के अधीन माफ़ किया और भरूच से लौट आए। अली मोहम्मद ख़ान
'मिरात-ए-अहमदी' में लिखते हैं कि
विद्रोह को दबाने के बाद अहमद शाह अन्हिलवाड़ लौटने के लिए रवाना हो गए। साबरमती के
तट पर आशावल या आशापल्ली नामक क़स्बे में पहुँचकर सुलतान अहमद शाह ने आशा भील को वहाँ
से हराकर हटाने का निश्चय किया।
जैसा कि 'ગુજરાતમાં ઇસ્લામી
સલ્તનતનો ઇતિહાસ' (गुजरात में इस्लामी सल्तनत का इतिहास) में ज़िक्र किया गया है, सुलतान अहमद शाह ने
वहाँ पहुँचकर कुछ समय के लिए डेरा डाला और साबरमती के तट पर सैर की। आशावल या आशापल्ली
के बारे में मिले विभिन्न संदर्भों के अनुसार सुलतान अहमद शाह ने यहाँ एक शहर बसाने
का निर्णय लिया था।
जब कुछ समय के पश्चात
सुलतान दोबारा यहाँ आया तो उसके बाद आशावल या आशापल्ली को सुलतान ने हस्तगत किया। सुलतान
ने आशा भील से लड़ाई लड़ी थी या नहीं, इसके बारे में पुस्तकों में जानकारी होगी, किंतु इसे हम पढ़ या देख नहीं सके हैं।
जैसा कि किताब में
दावा किया गया है, फ़रवरी-मार्च 1411 में अहमदाबाद की स्थापना की गई। हालाँकि अहमदाबाद स्थापना की तारीख़ को लेकर
इतिहासकारों के बीच मतभेद अब भी स्थायी है।
अहमदाबाद शहर की स्थापना
के साथ एक लोककथा जुड़ी हुई है। हालाँकि यह स्पष्ट हो कि यह मात्र एक लोककथा है तथा
इसमें कोई ऐतिहासिक तथ्य नहीं है, यह मिथक मात्र माना जाता है। इस लोकप्रिय लोककथा के अनुसार सुलतान अहमद शाह साबरमती
नदी के किनारे डेरा डाले हुए थे, जब उन्होंने एक असामान्य दृश्य देखा। एक ख़रगोश एक कुत्ते का पीछा कर रहा था।
बहादुरी के इस आश्चर्यजनक कार्य ने उन्हें आश्वस्त किया कि भूमि को अदम्य भावना का
आशीर्वाद मिला है, जिससे यह उनकी राजधानी स्थापित करने के लिए एक आदर्श स्थान बन गया।
शहर की स्थापना से
जुड़े हुए इस मिथक के बाद "जब कुत्ते पर सस्सा आया, तब बादशाह ने शहर
बसाया" किंवदंती का जन्म हुआ।
चार
'अहमद' जिन्होंने अहमदाबाद की नींव रखी
सुलतान ने अपने पीर
हज़रत शेख अहमद खट्टू गंजबक्शनी की सलाह पर अहमदाबाद की नींव रखी। नए शहर की स्थापना
के लिए सुलतान ने अमीरों और मौलवियों से भी सलाह ली।
अहमदाबाद की नींव रखने
वाले चार अहमद थे। इनमें से एक थे हज़रत शेख खट्टू, दूसरे थे उनके उत्तराधिकारी क़ाज़ी अहमद, तीसरे थे मुल्ला अहमद
और चौथे थे ख़ुद सुलतान अहमद शाह।
'आ हिस्ट्री ऑफ़ गुजरात' पुस्तक में ख़ान बहादुर (डोसाभाई एदलजी) लिखते हैं कि इन चार अहमदों के अलावा
12 फ़क़ीरों ने भी अहमदाबाद
के स्थापना समारोह में सुलतान की सहायता की थी। जैसा कि पुस्तक में बताया गया है, ये चार अहमद और बारह
फ़क़ीर दिल्ली के प्रसिद्ध मुस्लिम संत निज़ाम-उद-दीन ओलिया के शिष्य थे।
'आ हिस्ट्री ऑफ़ गुजरात' के अनुसार, अहमद शाह ने अपने गुरु, स्वयं और दो अन्य साथियों के नाम पर शहर का नाम अहमदाबाद रखा। जैसा कि इस पुस्तक
में अहमदाबाद की स्थापना के महत्व के बारे में बताया गया है, सुलतान ने अनुभव से
पाया कि किसी क्षेत्र की अच्छी तरह से रक्षा तभी की जा सकती है जब उसके केंद्र में
एक पैर जमा हो।
ऐसा करने से ईडर, चंपानेर और सोरठ
(वर्तमान सौराष्ट्र) के राजाओं पर नियंत्रण करना आसान हो जाता। पुस्तक के मुताबिक़
इस विषय में सुलतान ने उस समय के अमीरों और पीरों से भी परामर्श किया, हज़रत शेख खट्टू ने
भी इस सलाह का समर्थन किया।
अहमदाबाद
था आशावल या आशापल्ली
अच्युत याग्निक और
सुचित्रा सेठ ने 'अहमदाबाद फ्रॉम रॉयल सिटी टू मेगासिटी' पुस्तक में अहमदाबाद, कर्णावती और आशावल पर कुछ प्रकाश डाला है।
पुस्तक में मिले वर्णन
के अनुसार फ़ारसी और मुग़ल काल के इतिहासकार आशावल को साबरमती नदी के पूर्वी तट पर
स्थित बताते हैं। कुछ साक्ष्यों के अनुसार आशावल नदी के तट पर वर्तमान जमालपुर और एस्टोडिया
द्वार के आसपास रहा होगा।
अरबी और फ़ारसी इतिहासकार
इसे 'आशावल' कहते हैं, जबकि संस्कृत और प्राकृत स्रोत इसे 'आशापल्ली' कहते हैं। अहमदाबाद की स्थापना से 500 वर्ष पूर्व फ़ारसी विद्वान लेखक अल-बिरूनी ने इसका ज़िक्र 'अशावल' के नाम से किया था।
जैन आचार्य जिनेश्वरसूरि 'निर्वाण लीलावती कथा' में ई.पू. 1039 में 'आशापल्ली' का ज़िक्र करते हैं।
अहमदाबाद आशावल हो
या आशापल्ली हो, किंतु ये सभी साक्ष्य ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी में आशावल या आशापल्ली के
महत्व को सिद्ध करते हैं।
कर्णावती
के बारे में क्या प्रमाण हैं?
'मिरात-ए-अहमदी' या 'आ हिस्ट्री ऑफ़ गुजरात' में 'कर्णावती' नाम से यहाँ किसी शहर के होने का कोई ज़िक्र नहीं है।
1304-05 में जैन आचार्य मेरुतुण्डाचार्य द्वारा रचित 'प्रबंधचिंतामणि' में कर्णावती का ज़िक्र मिलता है। इसमें वर्णन के अनुसार राजा कर्णदेव आशा भील
पर चढ़ाई करने के लिए आशापल्ली नामक गाँव में गए। भैरव देवी के शुभ शगुन के बाद वहाँ
कोचरब देवी का एक मंदिर बनाया गया और उन्होंने वहाँ अपने तंबू गाड़ दिए।
'प्रबंधचिंतामणि' के अनुसार राजा ने बाद में आशा भील को परास्त कर वहाँ कर्णेश्वर महादेव की स्थापना
की और कर्णसागर झील का निर्माण कर वहाँ कर्णावती पुरी बनाई और स्वयं शासन करने लगा।
जैसा कि 'अहमदाबाद फ्रॉम रॉयल
सिटी टू मेगासिटी' पुस्तक में बताया गया है, 13वीं सदी के अंत और 14वीं सदी की शुरुआत के जैन साहित्य और धार्मिक स्रोतों में 'कर्णावती' साबरमती नदी के तट
पर होने का ज़िक्र है।
हालाँकि यह स्पष्ट
नहीं है कि कर्णावती आशावल का दूसरा नाम था या इसके बगल में कर्णावती नामक एक सैन्य
चौकी थी? यह सारी बातें अस्पष्ट हैं।
मेरुतुण्डाचार्य की
कहानी को तीन दशक बाद विस्तारित करते हुए दो अन्य जैन विद्वान, जिन्मानंदन और चरित्रसुंदर
इसे दोबारा बताते हुए लिखते हैं कि कर्णदेव ने एक नया शहर बनाने का फ़ैसला किया। जैसे
ही कर्णदेव ने अपने पुत्र सिद्धराज को सिंहासन पर बिठाया, उन्हें लगा कि दो
राजा एक शहर में शासन नहीं कर सकते।
सरकारी दस्तावेज़ों
के अनुसार अहमदाबाद की स्थापना 1411 में सुलतान अहमद शाह ने की थी। अनेक ऐतिहासिक किताबों और विवरणों के मुताबिक़
सुलतान ने आशा भील को आशावल या आशापल्ली से हटाकर अहमदाबाद की स्थापना की थी। जैन प्रतिनिधियों
द्वारा लिखी गई किताबों के अनुसार आशावल या आशापल्ली को राजा कर्णदेव ने आशा भील को
हराकर जीता और वहाँ कर्णावती नगर की स्थापना की।
दूसरी ओर सिद्धराज
के समय में आचार्य हेमचंद्र द्वारा लिखित ऐतिहासिक कविता में ज़िक्र किया गया है कि
सिद्धराज के अन्हिलवाड़ के सिंहासन पर स्थापित होने के तुरंत बाद कर्णदेव की मृत्यु
हो गई। इस कविता में कर्णावती नामक नगर का कोई ज़िक्र नहीं है।
तो क्या आशापल्ली को
ही कर्णावती नगरी कहा जाता था? क्या कर्णावती एक अलग शहर था? यदि यह कर्णावती थी, तो 12वीं या 13वीं शताब्दी तक आशावल या आशापल्ली का ज़िक्र क्यों मिलता है? कर्णदेव के पुत्र
सिद्धराज और कुमारपाल, जो सिद्धराज के उत्तराधिकारी बने, दोनों ने कई वर्षों तक शासन किया। उन्होंने कभी कर्णावती का ज़िक्र क्यों नहीं
किया? सिद्धराज और कुमारपाल के समय के जैन विद्वानों ने अपने साहित्य में कर्णावती का
ज़िक्र क्यों नहीं किया?
जब 2017-18 में अहमदाबाद का नाम बदलकर कर्णावती करने का प्रस्ताव ज़ोर पकड़ने लगा, तो प्रसिद्ध इतिहासकार और संशोधक मकरंद मेहता इस कदम का विरोध करने वालों में
सबसे आगे थे। एक इतिहासकार के रूप में उन्होंने प्राचीन अभिलेखों का अध्ययन किया था
और इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि कर्णावती एक काल्पनिक शहर था।
13वीं शताब्दी के अंत में जैन साहित्य और धार्मिक साहित्य में कर्णावती का ज़िक्र
होने लगा। 'अहमदाबाद फ्रॉम रॉयल सिटी टू मेगासिटी' के अनुसार, 1411 में सुलतान अहमद शाह द्वारा अहमदाबाद की स्थापना के 150 साल बाद भी आशापल्ली
का ज़िक्र मिलता है। इसी पुस्तक में बताया गया है कि 13वीं सदी के अंत और
14वीं सदी की शुरुआत
के जैन साहित्य और धार्मिक स्रोतों में 'कर्णावती' साबरमती नदी के तट पर होने का ज़िक्र है।
भद्र
का क़िला, मानेक
बुर्ज और तीन दरवाजा
'आ हिस्ट्री ऑफ़ गुजरात' के अनुसार अहमद शाह ने साबरमती नदी के पूर्वी किनारे और आशावल के ठीक बगल में
अहमदाबाद की स्थापना की। उन्होंने वर्तमान एलिसब्रिज के ठीक आगे 53 फ़ीट ऊंचा मानेक बुर्ज
बनवाया। अहमदाबाद की नींव यहीं रखी गई थी। बुर्ज का अर्थ होता है मीनार या टावर।
'मिरात-ए-अहमदी' में अली मोहम्मद ख़ान के विवरण के अनुसार अहमदाबाद में बने भद्र के क़िले का नाम
पाटन के क़िले से लिया गया है। दशकों तक पाटन यानी अन्हिलवाड़ गुजरात के हिंदू और फिर
मुस्लिम शासकों की राजधानी रही।
भद्र क़िले का निर्माण
भी काफी हद तक पाटन के क़िले से मिलता जुलता था। भद्र का क़िला चौकोर आकार का था और
लगभग 43 एकड़ क्षेत्र में फैला हुआ था। 'मिरात-ए-अहमदी' के अनुसार क़िले में कुल 12 द्वार और कुल 189 मीनारें थीं। साथ ही इसमें 6,000 से अधिक खिड़कियाँ थीं।
'मिरात-ए-अहमदी' में वर्णित है कि क़िले के 12 द्वारों में से उत्तर में 3 द्वार शाहपारू, इदरिया या दिल्ली और दरियापुर थे। दक्षिण में अस्तोदिया, जमालपुर और एक द्वार
जो बंद था उसे ढेड़िया के नाम से जाना जाता था। पश्चिमी ओर साबरमती नदी के तट की ओर
ख़ानजहाँ, रायखड़ तथा ख़ानपुर नामक द्वार थे। जबकि पूर्व की ओर कालूपुर, सारंगपुर और रायपुर
नामक द्वार थे। इस क़िले की चिनाई का काम ईंटें और चूने से किया गया था। इसकी तुलना
दिल्ली और शाहजहाँबाद के क़िलों से की गई थी।
पुराने अमदावाद के
केंद्र में खड़ा तीन दरवाजा (प्रवेशद्वार) भद्र के क़िले की पूर्वी दिशा में स्थित
प्रवेशद्वार है। अहमदाबाद महानगर निगम के चिह्न में भी इस प्रवेशद्वार का समावेश किया
गया है। कहते हैं कि शहर की स्थापना के तुरंत बाद इसका निर्माण कराया गया था, जो शाही महल के प्रवेश
द्वार के रूप में कार्य करता था।
प्रवेश द्वार के प्रभावशाली
डिज़ाइन में तीन विशाल मेहराब हैं, जिनमें से मध्य की चौड़ाई ज़्यादा है और इसके दोनों ओर एक सरीखे किंतु मध्य मेहराब
से छोटे मेहराब हैं। तीनों जटिल नक्काशी से सुसज्जित हैं।
भद्र का क़िला और तीन
प्रवेशद्वार के संबंध में भी कुछ किंवदंतियाँ या लोककथाएँ प्रचलित हैं। इस मिथक के
अनुसार एक बार धन की देवी लक्ष्मी शहर को छोड़ने के लिए भद्र के क़िले के पास आई और
तीन दरवाजे से बाहर निकल रही थीं। द्वारपाल ख़्वाजा सीदिक कोटवाल ने उनको रोक लिया
और जब तक सुलतान अहमद शाह अनुमति न दें तब तक शहर से बाहर न जाने के लिए कहा। कोटवाल
बादशाह के पास गया और देवी लक्ष्मी को शहर में रखने के लिए ख़ुद का आत्मसमर्पण करना
होगा ये बात बताई। परिणाम स्वरूप शहर की संपत्ति सलामत रही।
भद्र के क़िले के प्रवेशद्वार
के पास कोटवाल का मकबरा आज भी स्थित है। महालक्ष्मीजी के प्रतिनिधि स्वरूप माँ काली
का मंदिर विद्यमान है, जो भद्रकाली के नाम से सुप्रसिद्ध है। इस कथा को समर्पित तीन दरवाजे के एक गोख
(दीवार में एक बहुत छोटा सा छेद) में एक दीपक दशकों से प्रज्जवलित रखा गया है। एक मुस्लिम
परिवार के द्वारा इस दीपक की निगरानी होती है और अखंड प्रज्जवलित रखा जाता है।
हालाँकि इस बात पर
असहमति है कि शहर के चारों ओर की दीवार कब पूरी हुई। 'फ़रिश्ता' के विवरण के अनुसार
अहमदाबाद शहर के चारों ओर की दीवार मुहम्मद बेगड़ा के समय में पूरी हुई थी।
'मिरात-ए-अहमदी' लेख में अली मोहम्मद ख़ान कहते हैं कि क़िले की शुरुआत में लगे शिलालेख में लिखा
है, 'जो भी इसके भीतर हैं
वे अब सुरक्षित हैं।' इस तिथि लेख में हिजरी सन् 892 लिखा है। इसका मतलब है कि इस दीवार का निर्माण कार्य ई.पू. 1487 में पूरा हुआ होगा।
हालाँकि कुछ रिकॉर्ड हैं कि क़िला 1413 में बनकर तैयार हुआ था। वहीं 'मिरात-ए-सिकंदरी' में यह ज़िक्र 1417 का है।
जैसा कि 'आ हिस्ट्री ऑफ़ गुजरात' में वर्णित है, जब अहमदाबाद की स्थापना
हुई तो जनसंख्या अधिक नहीं थी, बाद में जनसंख्या धीरे-धीरे बढ़ गई। ऐसे में मुमकिन यह भी है कि क़िले का निर्माण
कार्य 1413 या 1417 में पूरा हो गया हो लेकिन आबादी बढ़ने के साथ शहर के चारों ओर की दीवार 1487 में पूरी हुई होगी।
लगभग 74 लाख की आबादी के साथ
अहमदाबाद गुजरात राज्य का सबसे बड़ा शहर और भारत का सातवाँ सबसे बड़ा शहरी समूह है।
गुजरात राज्य की स्थापना के बाद 1960 से 1965 तक यह गुजरात की राजधानी था। बाद में राजधानी को गांधीनगर स्थानांतरित कर दिया
गया।
साबरमती नदी के तट
पर स्थित वह शहर जो भारत के महान स्वतंत्रता संग्राम की एक प्रमुख धारा के सूत्रधार
महात्मा गाँधी की कर्मभूमि रहा, जिन्होंने तट पर विश्वप्रसिद्ध साबरमती आश्रम की स्थापना की। 20वीं सदी के पूर्वार्ध
में भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में अहमदाबाद प्रमुख रूप से आगे था। यह श्रमिकों के अधिकार, नागरिक अधिकारों और
राजनीतिक स्वतंत्रता को बढ़ावा देने के लिए सविनय अवज्ञा के कई अभियानों का केंद्र
रहा।
अहमदाबाद का मिज़ाज
ही कुछ ऐसा रहा है कि यह शहर अपनी स्थापना के बाद से ही इस क्षेत्र की राजनीतिक और
आर्थिक राजधानी के रूप में कार्य करता रहा। ईस्वी 1411 से 1511 तक यह गुजरात सल्तनत की राजधानी रहा। फिर राजधानी को चंपानेर में स्थानांतरित
किया गया। अगले 135 वर्षों तक, (1572-1707) तक मुग़ल शासकों के अधीन शहर प्रमुख केंद्र बना रहा। 1707-1817 के मध्य मराठा और
मुग़लों के संयुक्त शासन काल के दौरान राजनीतिक स्थिरता-अस्थिरता के बीच शहर झुलता
रहा।
1818 में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने शहर में शासन स्थापित किया। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता
संग्राम के पश्चात 1900 के साल तक शहर अपनी भूमिका निभाता रहा। ब्रिटिश शासन के दौरान यह बॉम्बे प्रेसीडेंसी
का हिस्सा था। इस बीच कपड़ा उद्योग की वजह से इसे "भारत का मैनचेस्टर" भी
कहा गया। 1915 में महात्मा गाँधी के आगमन के बाद अहमदाबाद भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का केंद्र
बन गया। साबरमती का पानी फिर एक बार स्वाभिमान का नारा बन गया। सरदार वल्लभ भाई पटेल
समेत अनेक नायकों ने अहमदाबाद में रहते हुए समग्र स्वतंत्रता आंदोलन का संचार किया।
स्वतंत्रता प्राप्ति
के बाद अहमदाबाद बॉम्बे राज्य का हिस्सा बना रहा। 1960 में जब गुजरात अलग हुआ तो 2 अगस्त 1965 के दिन गांधीनगर की स्थापना तक यह फिर से राज्य की राजधानी बन गया। 1970 में सभी राज्य सरकारी
कार्यालयों को गांधीनगर स्थानांतरित कर दिया गया।
सुलतान अहमद शाह ने
जिस अहमदाबाद को बसाया था वो आज साबरमती नदी के उस पार पुराने अहमदाबाद के रूप में
स्थित है, जबकि नदी के इस पार नया अहमदाबाद बस चुका है। जिस शहर के साथ "साबरमती का
पानी" शब्द जुड़ा हुआ हो उस साबरमती नदी को अहमदाबाद के इतिहास या वर्तमान से
अलग नहीं किया जा सकता।
साबरमती ने पुराने
शहर के उदय को देखा है, तो इसके पतन को भी। बाद में शहर में मुग़ल आए। नदी ने मुग़लों का उरूज और ज़वाल
का भी नज़ारा देखा। साबरमती ने मराठों को देखा और ब्रितानी जूतों की टाँपें भी सुनी।
इसने गाँधी युग को भी देखा और फिर आधुनिक दौर को भी जी लिया।
अस्पष्टताएँ और विरोधाभासों के बीच अहमदाबाद को लेकर जैसा भारत के तमाम शहरों के
पास होता है, अनेक कहानियाँ हैं, किंवदंतियाँ हैं, प्रमाण हैं, तथ्य हैं। सल्तनत काल से लेकर लोकतंत्र और फिर चुनावी लोकतंत्र तक का समय देखने
वाला अहमदाबाद शताब्दियों की अपनी सफ़रगाथा को अपनी साबरमती के भीतर संजोकर खड़ा है।
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)