एक परिपक्व लेखक और विचारक, तर्कप्रिय और गंभीर व्यक्तित्व वाले नौजवान, बहुदर्शी क्रांतिकारी, मुक्त चिंतन-पठन और
विचार-विमर्श के हिमायती, शहीद-ए-आज़म भगत सिंह। वो व्यक्ति जिन्होंने खुले तौर पर लिखा और कहा कि देश तथा
समाज को आगे बढ़ाने के लिए धर्म का रास्ता त्याग विज्ञान का रास्ता अपनाना पड़ेगा।
वो युवा, जिन्होंने अपना जीवन देश के लिए त्याग कर समझाया कि क्रांति का संबंध केवल हिंसा
से नहीं है, विचार और आचरण से है।
'मैं नास्तिक क्यों हूँ' लेख लिखने वाले भगत सिंह अपनी वैचारिक प्रतिभा के बल पर आस्था और धर्म से भी परे
चले जाते हैं। वे बाक़ायदा संकरे भावुकतावादी राष्ट्रवाद को नापसंद करने का एलान करते
हैं। वह एकमात्र शख़्स, जिन्होंने सुभाष बाबू के फासीवाद की ओर झुकाव का अनुमान सालों पहले कर लिया था।
शहीद-ए-आज़म भगत सिंह
के जीवन के आख़िरी पलों का यह विवरण बीबीसी हिंदी के संदर्भों वाले रिपोर्ट, मलविंदर सिंह वडैच
की किताब 'भगत सिंह - द इटर्नल रेबल', चमनलाल की 'भगत सिंह डॉक्यूमेंट्स', कुलदीप नैयर की 'विदाउट फ़ियर, द लाइफ़ एंड ट्रायल ऑफ़ भगत सिंह', सतविंदर जस की 'द एक्सेक्यूशन ऑफ़ भगत सिंह' तथा जितेंदर सान्याल
की लिखी किताब 'भगत सिंह' में प्रकाशित सामग्री पर आधारित है।
भगत सिंह और उनके साथियों
को फांसी की सज़ा तथा सज़ा की सुनवाई को लेकर सोशल मीडिया में अपुष्ट व अप्रमाणिक दावे
किए जाते हैं। जैसे कि उन्हें फांसी की सज़ा 14 फ़रवरी को सुनाई गई थी, या फिर कभी उनकी फांसी की रस्सी और गाँधीजी की बकरी की रस्सी को लेकर हास्यास्पद
दावे किए जाते हैं। यूँ कहे कि इतिहास को आलू-मटर की तरह छील दिया जाता है।
जितने भी आधिकारिक
और ऐतिहासिक तथ्य हैं, जिसमें भगत सिंह के कोर्ट में चले मामले की तारीख़ें, फ़ैसले, दस्तावेज़ तथा उनके
साथियों के द्वारा की गई बातें, कथन, पत्र या लिखी गई पुस्तकें, तमाम तथ्य और प्रमाण ऐसी अपुष्ट बातों का ख़ारिज करते हैं।
भगत सिंह और उनके साथियों
पर कोर्ट में दो मामलों को लेकर ट्रायल चला था। पहला था दिल्ली असेम्बली बम धमाके का
मामला, और दूसरा था सांडर्स हत्या का मामला। दिल्ली बम धमाके मामले में उन्हें आजीवन
क़ैद की सज़ा सुनाई गई थी, जबकि सांडर्स हत्या मामले में उन्हें फांसी की सज़ा दी गई थी।
सांडर्स मामले में
26 अगस्त 1930 को अदालत ने भगत सिंह
को धारा 129, 302 तथा विस्फोटक पदार्थ अधिनियम की धारा 4 और 6एफ तथा आईपीसी की धारा 120 के अंतर्गत अपराधी सिद्ध किया था। 7 अक्टूबर 1930 को अदालत के द्वारा 68 पृष्ठों का निर्णय दिया गया, जिसमें भगत सिंह, सुखदेव तथा राजगुरु को सांडर्स और चानन की हत्या के लिए फांसी की सज़ा सुनाई गई।
अजय घोष, जतिन्द्रनाथ सान्याल
और देश राज को बरी कर दिया गया। कुंदनलाल को 7 साल का सश्रम कारावास और प्रेम दत्त को पाँच साल की सज़ा मिली। जबकि बाकी सातों
किशोरी लाल, महावीर सिंह, बिजॉय कुमार सिन्हा, शिव वर्मा, गया प्रसाद, जय देव और कमलनाथ तिवारी को आजीवन कारावास की सज़ा दी गई।
भगत सिंह की फांसी
की माफ़ी के लिए प्रिवी परिषद में अपील दायर की गई। यह अपील 10 जनवरी 1931 को रद्द कर दी गई।
इसके बाद तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष पं. मदन मोहन मालवीय ने वायसराय के सामने सज़ा
माफ़ी के लिए 14 फ़रवरी 1931 को अपील दायर की, जिसको इरविन ने ख़ारिज कर दिया। महात्मा गाँधी ने इस विषय को
लेकर 17 फ़रवरी 1931 को वायसराय से बात की। फिर 18 फ़रवरी 1931 को आम जनता की ओर से भी वायसराय के सामने विभिन्न तर्कों के साथ सज़ा माफ़ी के
लिए अपील दायर की।
हालाँकि यह सब कुछ
भगत सिंह की इच्छा के ख़िलाफ़ हो रहा था, क्योंकि भगत सिंह नहीं चाहते थे कि उनकी सज़ा माफ़ की जाए। फांसी से पहले साथियों
को भगत सिंह का अंतिम पत्र भी सार्वजनिक है, जो 22 मार्च 1931 के दिन लिखा गया था।
तीनों शहीदों ने अंग्रेज़ सरकार से अनुरोध किया था कि राजनैतिक
क़ैदियों के उनके दर्जे को देखते हुए उन्हें साधारण अपराधियों की तरह फांसी पर न चढ़ाकर
गोलियों से मारा जाए। लेकिन अंग्रेज़ सरकार ने उनके इस अनुरोध को ठुकरा दिया था।
23 मार्च 1931 को शाम क़रीब 7 बजकर 33 मिनट पर भगत सिंह तथा इनके दो साथियों सुखदेव व राजगुरु को फांसी दे दी गई। इन्हें
24 मार्च का फांसी दी
जानी थी, किंतु निर्धारित समय से 11 घंटे पहले ब्रितानी सरकार ने तीनों क्रांतिकारियों को फांसी दे दी।
24 मार्च 2017 की बीबीसी हिंदी रिपोर्ट में भगत सिंह की भतीजी वीरेंद्र सिंह संधू के हवाले से
बताया गया है कि फांसी दिए जाने से पहले 3 मार्च 1931 के दिन भगत सिंह से उनके परिवार ने मुलाक़ात की थी। इस मुलाक़ात में भगत सिंह
के छोटे भाई और संधू के पिता कुलतार सिंह भी शामिल थे।
लाहौर सेंट्रल जेल
में 23 मार्च 1931 की शुरुआत किसी और दिन की तरह ही हुई थी। फ़र्क सिर्फ़ इतना सा था कि सुबह-सुबह
ज़ोर की आँधी आई थी। लेकिन जेल के क़ैदियों को थोड़ा अजीब सा लगा जब 4 बजे ही वॉर्डेन चरत
सिंह ने उनसे आकर कहा कि वे अपनी-अपनी कोठरियों में चले जाएँ। वॉर्डेन ने कारण नहीं
बताया।
वॉर्डेन के मुँह से
सिर्फ़ ये निकला कि आदेश ऊपर से है। अभी क़ैदी सोच ही रहे थे कि माजरा क्या है, जेल का नाई बरकत हर
कमरे के सामने से फुसफुसाते हुए गुज़रा कि आज रात भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव
को फांसी दी जाने वाली है।
क़ैदियों को इस क्षण
ने झकझोर कर रख दिया। कई क़ैदियों ने बरकत से विनती की कि वो फांसी के बाद भगत सिंह
की कोई भी चीज़ जैसे पेन, कंघी या घड़ी उन्हें लाकर दें, ताकि वे जेल से छूटने के बाद अपने परिजनों को बता
सकें कि कभी वो भी भगत सिंह के साथ जेल में बंद थे।
धीरे धीरे लगभग सारे
क़ैदी चुप होने लगे थे। उनकी निगाहें उनकी कोठरी से गुज़रने वाले रास्ते पर लगी हुई
थी। भगत सिंह और उनके साथी फांसी पर लटकाए जाने के लिए उसी रास्ते से गुज़रने वाले
थे।
एक बार पहले जब भगत सिंह उसी रास्ते से ले जाए जा रहे थे तो
पंजाब कांग्रेस के नेता भीमसेन सच्चर ने उनसे पूछा था, "आप और
आपके साथियों ने लाहौर कॉन्सपिरेसी केस में अपना बचाव क्यों नहीं किया?" भगत सिंह का जवाब था, "इन्क़लाबियों
को मरना ही होता है, क्योंकि
उनके मरने से ही उनका अभियान मज़बूत होता है, अदालत में अपील से नहीं।"
वॉर्डेन चरत सिंह भगत
सिंह को पसंद करने वाले व्यक्ति थे और अपनी तरफ़ से जो कुछ बन पड़ता था उनके लिए करते
थे। उनकी वजह से ही लाहौर की द्वारकादास लाइब्रेरी से भगत सिंह के लिए किताबें निकल
कर जेल के अंदर आ पाती थीं।
भगत सिंह को किताबें
पढ़ने का इतना शौक था कि एक बार उन्होंने अपने स्कूल के साथी जयदेव कपूर को लिखा था
कि वो उनके लिए कार्ल लीबनेख़्त की 'मिलिट्रिज़म', लेनिन की 'लेफ़्ट विंग कम्युनिज़म' और आप्टन सिंक्लेयर का उपन्यास 'द स्पाई', कुलबीर के ज़रिए भिजवा
दें।
भगत सिंह जेल की कठिन
ज़िंदगी के आदी हो चले थे। उनकी कोठरी नंबर 14 का फ़र्श पक्का नहीं था। उस पर घास उगी हुई थी। कोठरी में बस इतनी ही जगह थी कि
उनका पाँच फ़ुट, दस इंच का शरीर बमुश्किल उसमें लेट पाए।
भगत सिंह को फांसी
दिए जाने से दो घंटे पहले उनके वकील प्राण नाथ मेहता उनसे मिलने पहुँचे। मेहता ने बाद
में लिखा कि, "भगत सिंह अपनी छोटी सी कोठरी में पिंजड़े में बंद शेर की तरह चक्कर लगा रहे थे।"
भगत सिंह ने मुस्कुरा
कर मेहता का स्वागत किया और पूछा कि आप मेरी किताब 'रिवॉल्युशनरी लेनिन' लाए या नहीं? जब मेहता ने उन्हें किताब दी तो वो उसे उसी समय पढ़ने लगे, मानो उनके पास अब ज़्यादा
समय न बचा हो।
मेहता ने उनसे पूछा कि क्या आप देश को कोई संदेश देना चाहेंगे? भगत सिंह ने किताब से अपना मुँह हटाए बग़ैर कहा, "सिर्फ़
दो संदेश... साम्राज्यवाद मुर्दाबाद और इंक़लाब ज़िंदाबाद।"
इसके बाद भगत सिंह
ने मेहता से कहा कि वो पंडित नेहरू और सुभाष बोस को मेरा धन्यवाद पहुँचा दें, जिन्होंने मेरे केस
में गहरी रुचि ली थी। भगत सिंह से मिलने के बाद मेहता राजगुरु से मिलने उनकी कोठरी
पहुँचे।
राजगुरु के अंतिम शब्द
थे, "हम लोग ज़ल्द मिलेंगे।"
सुखदेव ने मेहता को याद दिलाया कि वो उनकी मौत के बाद जेलर से वो कैरम बोर्ड ले लें
जो उन्होंने उन्हें कुछ महीने पहले दिया था।
मेहता के जाने के थोड़ी
देर बाद जेल अधिकारियों ने तीनों क्रांतिकारियों को बता दिया कि उनको वक़्त से 11 घंटे पहले ही फांसी
दी जा रही है, अगले दिन सुबह 6 बजे की जगह उन्हें उसी शाम 7 बजे फांसी पर चढ़ा दिया जाएगा।
जेल अधिकारी जब यह
बताने पहुँचे तब भगत सिंह मेहता द्वारा दी गई किताब के कुछ पन्ने ही पढ़ पाए थे। उनके
मुँह से निकला, "क्या आप मुझे इस किताब का एक अध्याय भी ख़त्म नहीं करने देंगे?"
भगत सिंह ने जेल के
मुस्लिम सफ़ाई कर्मचारी से अनुरोध किया था कि वो उनके लिए उनको फांसी दिए जाने से एक
दिन पहले शाम को अपने घर से खाना लाएं। लेकिन वह भगत सिंह की ये इच्छा पूरी नहीं कर
सके, क्योंकि भगत सिंह को 11 घंटे पहले फांसी देने का फ़ैसला ले लिया गया और कर्मचारी जेल के गेट के अंदर ही
नहीं घुस पाए।
थोड़ी देर बाद तीनों
क्रांतिकारियों को फांसी की तैयारी के लिए उनकी कोठरियों से बाहर निकाला गया। भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव
ने अपने हाथ जोड़े और अपना प्रिय आज़ादी गीत गाने लगे, जिसके बोल थे - कभी
वो दिन भी आएगा कि जब आज़ाद हम होंगें, ये अपनी ही ज़मीं होगी ये अपना आसमाँ होगा।
फिर तीनों का एक-एक
करके वज़न लिया गया। सब के वज़न बढ़ गए थे। इन सबसे कहा गया कि अपना आख़िरी स्नान करें।
फिर उनको काले कपड़े पहनाए गए, लेकिन उनके चेहरे खुले रहने दिए गए।
चरत सिंह ने भगत सिंह के कान में फुसफुसा कर कहा कि वाहे गुरु
को याद करो। स्वयं को नास्तिक घोषित कर चुके भगत सिंह बोले, "पूरी ज़िंदगी मैंने ईश्वर को याद नहीं किया। असल में मैंने कई
बार ग़रीबों के क्लेश के लिए ईश्वर को कोसा भी है। अगर मैं अब उनसे माफ़ी माँगू तो
वो कहेंगे कि इससे बड़ा डरपोक कोई नहीं है। इसका अंत नज़दीक़ आ रहा है इसलिए ये माफ़ी
मांगने आया है।"
अपने प्रसिद्ध लेख
'मैं नास्तिक क्यों
हूँ' में वे लिख चुके थे कि, "मुझे पूरा विश्वास है कि एक चेतन परम आत्मा का, जो प्रकृति की गति का दिग्दर्शन एवं संचालन करता है, कोई अस्तित्व नहीं
है। हम प्रकृति में विश्वास करते हैं और समस्त प्रगतिशील आन्दोलन का ध्येय मनुष्य द्वारा
अपनी सेवा के लिए प्रकृति पर विजय प्राप्त करना मानते हैं। इसको दिशा देने के पीछे
कोई चेतन शक्ति नहीं है। यही हमारा दर्शन है।"
इसी लेख में भगत सिंह
ने लिखा था, "ईश्वर में विश्वास और रोज़-ब-रोज़ की प्रार्थना को मैं मनुष्य के लिए सबसे स्वार्थी
और गिरा हुआ काम मानता हूँ। मैंने उन नास्तिकों के बारे में पढ़ा है जिन्होंने सभी
विपदाओं का बहादुरी से सामना किया। अतः मैं भी एक पुरुष की भाँति फांसी के फंदे की
अंतिम घड़ी तक सिर ऊँचा किये खड़ा रहना चाहता हूँ। हमें देखना है कि मैं कैसे निभा
पाता हूँ। मेरे एक दोस्त ने मुझे प्रार्थना करने को कहा। जब मैंने उसे नास्तिक होने
की बात बताई तो उसने कहा, अपने अन्तिम दिनों में तुम विश्वास करने लगोगे। मैंने कहा, नहीं, प्यारे दोस्त, ऐसा नहीं होगा।"
जैसे ही जेल की घड़ी
ने 6 बजाया, क़ैदियों ने दूर से आती कुछ पदचापें सुनीं। उनके साथ भारी बूटों के ज़मीन पर पड़ने
की आवाज़ें भी आ रही थीं। साथ में एक गाने का भी दबा स्वर सुनाई दे रहा था, "सरफ़रोशी की तमन्ना
अब हमारे दिल में है..."
सभी को अचानक ज़ोर-ज़ोर
से 'इंक़लाब ज़िंदाबाद' और 'हिंदुस्तान आज़ाद हो' के नारे सुनाई देने लगे। फांसी का तख़्ता पुराना था लेकिन फांसी देने वाला काफ़ी
तंदुरुस्त। फांसी देने के लिए मसीह जल्लाद को लाहौर के पास शाहदरा से बुलवाया गया था।
भगत सिंह इन तीनों
के बीच में खड़े थे। सुखदेव उनके बाईं तरफ़ और राजगुरु उनके दाहिनी तरफ़ थे। भगत सिंह
अपनी माँ को दिया गया वो वचन पूरा करना चाहते थे कि वो फांसी के तख़्ते से 'इंक़लाब ज़िंदाबाद' का नारा लगाएँगे।
लाहौर ज़िला कांग्रेस के सचिव पिंडी दास सोंधी का घर लाहौर सेंट्रल
जेल से बिलकुल सटा हुआ था। भगत सिंह ने इतनी ज़ोर से 'इंकलाब ज़िंदाबाद' का नारा लगाया कि उनकी आवाज़ सोंधी के घर तक सुनाई दी। उनकी
आवाज़ सुनते ही जेल के दूसरे क़ैदी भी नारे लगाने लगे।
लाहौर जेल के चीफ़
सुपरिंटेंडेंट मेजर पीडी चोपड़ा तीनों के साथ चलते हुए फांसी के तख़्ते की तरफ़ बढ़
रहे थे। ये सारा नज़ारा देख रहे डिप्टी जेल सुपरिंटेंडेंट मोहम्मद अकबर ख़ान बड़ी मुश्किल
से अपने आँसू रोकने की कोशिश कर रहे थे।
फांसी की कोटरी के
पास आते समय भगत सिंह एक गीत गा रहे थे, और दोनों साथी उनके सुर में सुर मिला रहे थे,
'दिल से न निकलेगी मरकर
भी वतन की उल्फ़त,
मेरी मिट्टी से भी ख़ुशबू-ए-वतन आएगी।'
किसी को अंदाज़ा नहीं
था कि तीनों शहीद जो सर्वोच्च बलिदान देने जा रहे थे वह डेढ़ दशक में ब्रितानी साम्राज्य
की चूले गिराने का प्रमुख कारक बन कर उभरेगा।
फांसी के समय जो कुछ
आधिकारिक लोग शामिल थें, उनमें यूरोप के डिप्टी कमिश्नर भी थे। जितेन्दर सान्याल की लिखी किताब 'भगत सिंह' के मुताबिक़ ठीक फांसी
पर चढ़ने के पहले भगत सिंह ने उनसे कहा, "मिस्टर मजिस्ट्रेट, आप बेहद भाग्यशाली हैं कि आपको यह देखने को मिल रहा है कि भारत के क्रांतिकारी
किस तरह अपने आदर्शों के लिए फांसी पर भी झूल जाते हैं।"
तीनों युवा क्रांतिकारियों के गले में फांसी की रस्सी डाल दी
गई। उनके हाथ और पैर बाँध दिए गए। कुलदीप नैयर अपनी किताब 'विदाउट फ़ियर, द लाइफ़
एंड ट्रायल ऑफ़ भगत सिंह' में
लिखते हैं, "जल्लाद
ने पूछा था कौन पहले जाएगा?" सुखदेव
ने जवाब दिया था, "मैं
सबसे पहले जाऊँगा।"
सतविंदर जस अपनी किताब 'द एक्सेक्यूशन ऑफ़ भगत सिंह' में लिखते हैं, "भगत सिंह ने फांसी से पहले फंदे को चूमा। इस क्षण को महसूस करने के लिए भगत सिंह ने अपनी ज़िंदगी देश के लिए न्योछावर कर
दी बल्कि उन्होंने इस क्षण का बाक़ायदा इंतज़ार किया था। इसकी योजना बनाई थी। फांसी
के फंदे को उन्होंने ख़ुद अपने गले में पहना था। भगत सिंह के बाद राजगुरु और सुखदेव
के गले में भी फांसी के फंदे पहना दिए गए थे। उन्होंने भी पहनाए जाने से पहले फंदे
को चूमा था।"
जल्लाद ने एक-एक कर
रस्सी खींची और उनके पैरों के नीचे लगे तख़्तों को पैर मार कर हटा दिया। काफी देर तक
उनके शव तख़्तों से लटकते रहे। अंत में उन्हें नीचे उतारा गया और वहाँ मौजूद डॉक्टरों
लेफ़्टिनेंट कर्नल जेजे नेल्सन और लेफ़्टिनेंट कर्नल एनएस सोधी ने उन्हें मृत घोषित
किया।
एक जेल अधिकारी पर
इस फांसी का इतना असर हुआ कि जब उससे कहा गया कि वो मृतकों की पहचान करें तो उसने ऐसा
करने से इनकार कर दिया। उसे उसी जगह पर निलंबित कर दिया गया। फिर एक जूनियर अफ़सर ने
ये काम पूरा किया।
पहले योजना थी कि इन
सबका अंतिम संस्कार जेल के अंदर ही किया जाएगा, लेकिन फिर ये विचार त्यागना पड़ा जब अधिकारियों को आभास हुआ कि जेल से धुआँ उठते
देख बाहर खड़ी भीड़ जेल पर हमला कर सकती है।
इसलिए जेल की पिछली
दीवार तोड़ी गई। उसी रास्ते से एक ट्रक जेल के अंदर लाया गया और उस पर बहुत अपमानजनक
तरीके से उन शवों को एक सामान की तरह रखा गया। पहले तय हुआ था कि उनका अंतिम संस्कार
रावी के तट पर किया जाएगा, लेकिन रावी में पानी बहुत ही कम था, इसलिए सतलज के किनारे शवों को जलाने का फ़ैसला लिया गया।
उनके पार्थिव शरीर
को फ़िरोज़पुर के पास सतलज के किनारे लाया गया। तब तक रात के 10 बज चुके थे। इस बीच
उप पुलिस अधीक्षक कसूर सुदर्शन सिंह कसूर गाँव से एक पुजारी जगदीश अचरज को बुला लाए।
अभी शवों को जलाना
शुरू ही किया गया था कि लोगों को इसके बारे में पता चल गया। जैसे ही ब्रितानी सैनिकों
ने लोगों को अपनी तरफ़ आते देखा, वे शवों को वहीं छोड़ कर अपने वाहनों की तरफ़ भागे। सारी रात गाँव के लोगों ने
उन शवों के चारों ओर पहरा दिया।
अगले दिन दोपहर के
आसपास ज़िला मैजिस्ट्रेट के दस्तख़त के साथ लाहौर के कई इलाकों में नोटिस चिपकाए गए
जिसमें बताया गया कि भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु का सतलज के किनारे हिंदू और सिख रीति से अंतिम संस्कार कर दिया
गया है।
इस ख़बर पर लोगों की
कड़ी प्रतिक्रिया आई और लोगों ने कहा कि इनका अंतिम संस्कार करना तो दूर, उन्हें पूरी तरह जलाया
भी नहीं गया। ज़िला मैजिस्ट्रेट ने इसका खंडन किया लेकिन किसी ने उस पर विश्वास नहीं
किया।
इस तीनों के सम्मान में तीन मील लंबा शोक जुलूस नीला गुंबद से
शुरू हुआ। पुरुषों ने विरोधस्वरूप अपनी बाहों पर काली पट्टियाँ बांध रखी थीं और महिलाओं
ने काली साड़ियाँ पहन रखी थीं। लगभग सभी लोगों के हाथ में काले झंडे थे। लाहौर के मॉल
से गुज़रता हुआ जुलूस अनारकली बाज़ार के बीचोबीच रुका।
अचानक पूरी भीड़ में
उस समय सन्नाटा छा गया जब घोषणा की गई कि भगत सिंह का परिवार तीनों शहीदों के बचे हुए
अवशेषों के साथ फिरोज़पुर से वहाँ पहुँच गया है।
जैसे ही फूलों से ढंके
तीन ताबूतों में उनके शव वहाँ पहुंचे, भीड़ भावुक हो गई। लोग अपने आँसू नहीं रोक पाए।
वहीं पर एक मशहूर अख़बार
के संपादक मौलाना ज़फ़र अली ने एक नज़्म पढ़ी जिसका लब्बोलुआब था, 'किस तरह इन शहीदों
के अधजले शवों को खुले आसमान के नीचे ज़मीन पर छोड़ दिया गया।'
उधर, वॉर्डेन चरत सिंह
सुस्त क़दमों से अपने कमरे में पहुँचे और फूट-फूट कर रोने लगे। अपने 30 साल के करियर में
उन्होंने सैकड़ों फांसियाँ देखी थीं, लेकिन किसी ने मौत को इतनी बहादुरी से गले नहीं लगाया था जितना भगत सिंह और उनके
दो कॉमरेडों ने।
उस समय किसी को इस
बात का अंदाज़ा नहीं था कि 16 साल, 4 महीने और 23 दिन बाद उनकी शहादत भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के अंत का एक प्रमुख कारण साबित
होगी और भारत की ज़मीन से सभी ब्रिटिश सैनिक हमेशा के लिए चले जाएँगे।
भगत सिंह बहुदर्शी क्रांतिकारी थे, जिनकी क्रांति का संबंध सिर्फ़ हिंसा से नहीं था। वे मुक्त चिंतन-पठन और विचार-विमर्श
के हिमायती थे, जिन्हें विन्डेन फिलिप की उक्ति पसंद थी कि यदि कोई ऐसी चीज़ हो, जो मुक्त चिंतन को
बर्दाश्त न कर सके, तो वह भाड़ में जाए। वे परिपक्व लेखक और विचारक थे, जिन्होंने अतिप्रसिद्ध
और ऐतिहासिक लेख लिखे। वे तर्कप्रिय और विज्ञान के समर्थक थे जिन्होंने ईश्वर के अस्तित्व
को नकार दिया था।
भगत सिंह लाला लाजपत राय द्वारा स्थापित पुस्तकालय से तर्क हासिल करते रहे और उन्हीं
तर्कों के सहारे उन्होंने लाला लाजपत राय की आलोचना की थी। लालाजी के जीवन के अंतिम
सालों की राजनीति से भगत सिंह सहमत नहीं थे और खुलकर विरोध किया था। बावजूद इसके जब
लालाजी की अंग्रेज़ी अत्याचार के चलते मृत्यु हुई तो भगत सिंह ने इसे गंभीरता से लिया
और इसका प्रतिशोध लेने के कारण ही भगत सिंह को मौत की सज़ा मिली। उनकी इस वैचारिक स्पष्टता
का कारण उनका मुक्त अध्ययन था।
वक़्त आने पर बता देंगे तुझे ए आसमाँ हम अभी से क्या बताएँ क्या हमारे दिल में
है, खींच कर लाई है सब को क़त्ल होने की उम्मीद आशिक़ों का आज जमघट कूचा-ए-क़़ातिल
में है, सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है... बिस्मिल अज़ीमाबादी की मशूहर ग़ज़ल
की इन पंक्तियों को तीनों शहीदों ने जी लिया था।
(इनक्रेडिबल इंडिया, एम वाला)