2019 का यह साल सिद्धियां लेकर आया, नयी नीतियां लेकर आया, नये दौर लेकर आया, लेकिन अजीब था कि पुरानी सिद्धियां, पुरानी नीतियां और पुराना दौर बिल्कुल नहीं बदला। अब इसमें पुरानी सिद्धियां, नीतियां या दौर... इन लफ्जों को मैट्रिक पास आदमी भी समझ सकता है। कहते हैं कि हकारात्मक सोच के साथ नये साल को गले लगाना चाहिए। इस लिहाज से यह नकारात्मक लेखन लग सकता है, लेकिन फिर नये साल में यही सुविचार लटके मिलते हैं कि अपनी गलतियों को ठीक करके आगे चलने से मंजिल मिलती है वगैरह वगैरह...। लिहाजा गलतियों को याद रखना ज़रूरी है, ताकि सुधारने का मौका मिले। वर्ना कल को इतने ज्यादा हकारात्मक हो जाएंगे कि लगेगा कि गलतियां है ही नहीं तो सुधारने की ज़रूरत ही क्या!!!
जिनके लिए मौलाना मुलायम विशेषण गढ़ा गया था उनके खिलाफ याचिका दायर करने में संग्राम सिंहों ने इतनी देर कर दी कि अदालत ने मुलायम सिंह को आख़िर बड़ी राहत दे ही दी
सर्वोच्च अदालत में आपने ऐसे एक नहीं किंतु अनेक मामले देखे होंगे, जिसमें किसी मसले को लेकर सड़कों पर संग्राम तो होता है, लेकिन संवैधानिक रूप से संग्राम करनेवाले संग्राम सिंह आगे बढ़ना भूल ही जाते है। नोट करे कि इसमें ‘संग्राम सिंह’ विशेषण सड़कों पर संग्राम करनेवाले नेता, समर्थकों, संगठन या दलों के लिए है, व्यक्ति विशेष के लिए नहीं। मुलायम सिंह मामले में एक वकिल का नाम संग्राम सिंह था, लेकिन यहां संग्राम सिंह विशेषण से इनका कोई लेना-देना नहीं है।
इस साल की शुरूआत में मुलायम सिंह के भाग्य में भी इन्हीं संग्राम सिंहों की बदौलत यही हुआ। अयोध्या में 1990 में कार सेवकों पर गोली चलाने के मामले में उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री मुलायमसिंह यादव को सुप्रीम कोर्ट से बड़ी राहत मिल गई। सुप्रीम कोर्ट ने मुलायम सिंह के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने की याचिका खारिज कर दी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील दाखिल करने में देरी हुई, इसलिए इसी आधार पर याचिका खारिज की जाती है। दरअसल 277 दिनों की देरी के बाद ये याचिका दाखिल की गई थी।
सन 2018 में आजाद हिंदुस्तान के सबसे बड़े घोटाले के रूप में पेश किए गए टूजी स्पैक्ट्रम मामले में आरोप लगानेवाले लोग अदालत में सबूत देना ही भूल गए और अदालत ने सबूतों के अभाव में सारे आरोपियों को बरी कर दिया था। अब सन 2019 में 27 सालों से जिस मामले को समूचा देश देख रहा था उस मामले में संग्राम करनेवाले इतने व्यस्त रहे कि मुलायम सिंह के खिलाफ सर्वोच्च अदालत में याचिका दायर करना ही भूल गए!!! है न गजब का हिंदुस्तान!
सबरीमाला मामला पूरे साल छाया रहा, अदालती फैसलों पर सबने दिखाया अपना-अपना दोगलापन
पिछले साल से चला आ रहा सबरीमाला मामला इस बार भी पूरे साल छाया रहा। 21वीं सदी के आधुनिक और डिजिटिल भारत में नागरिक और राजनीतिक दल, दोनों इसी माथापच्ची में फंसे रहे कि डिजिटल बनना है या क्रिटिकल। किसीने कहा कि हमें डिजिटल बनना है, किसीने कहा कि क्रिटिकल। लेकिन सबसे गज़ब हाल बीजेपी जैसे दलों का था, जिन्होंने जैसे कि घोषित कर दिया कि भाई, देश को फलांने फलांने विषय पर डिजिटल बनना है और फंलाने फंलाने विषयों पर क्रिटिकल ही बने रहना चाहिए।
अदालत ने सबरीमाला, तीन तलाक, राम मंदिर समेत कई धार्मिक-सांस्कृतिक-सामाजिक विषयों पर अपने फैसले दिए। सरकार ने भी नागरिकता बिल से लेकर कई दूसरे ऐसे ही विषयों पर कानून बनाए या बनाने की बातें कही। लेकिन अदालती फैसलों पर बीजेपी समेत सभी ने अपना-अपना दोगलापन दिखाया।
तीन तलाक पर जब मुसलमानों का विरोध सामने आया तो मोदी सत्ता ने कहा कि अदालती फैसले का भारत को सम्मान करना चाहिए, संविधान का सम्मान करना चाहिए। उधर सबरीमाला पर अमित शाह ने सरेआम कह दिया कि हम अदालत के फैसले के खिलाफ है। बताइए... संविधान को जब जी चाहे तब सम्मान देंगे और जब मन करे नहीं मानेंगे। गज़ब था कि सरकार ही ऐसे दोहरे मापदंड लेकर चल रही थी। वो भी डंके की चोट पर। अदालती आदेश के बाद भी आज भी भारत में सबरीमाला मंदिर में महिलाएँ प्रवेश नहीं कर पा रही, सुरक्षा के साथ प्रवेश करना पड़ा या सुरक्षा के साथ भी बिना प्रवेश किए वापस लौटना पड़ा। धार्मिक और सांस्कृतिक राजनीति के सामने सहूलियत और दोहरे मापदंडवाली राजनीति ने साल भर जीतती दिखी। हाल तो यह रहा कि कई दूसरे फैसलों में अदालत को कहना पड़ गया कि हिंसा हो सकती है इसलिए हम अभी आदेश नहीं देंगे या फलांना फलांना विषय भावनाओं से जुड़ा है। संविधान-नियम-कानून के आगे भावनाएँ निकल गई। यह डिजिटलपंति थी या क्रिटिकलपंति, यह आपको तय करना है, वो भी आपकी अपनी सहूलियतवाली राजनीति के जरिए!!!
मेघालय में खदान में फंसे मजदूरों का अब भी अता-पता नहीं था, उधर देश और उनके नेता दुश्मनों के चप्पे-चप्पे पर नजर गड़ाने की बातें कर रहे थे !!!
पिछले साल दिसम्बर से मेघायल की खदान में फंसे 15 मजदूरों का इस साल की शुरूआत में भी अता-पता नहीं था। उधर देश (देश के लोग) तथा उनके नेता पाकिस्तान या चीन के चप्पे-चप्पे पर नजर गड़ाने वाले हथियारों पर गर्व किए जा रहे थे। यह बिल्कुल वैसा ही था जैसा कुछ महीनों पहले हुआ था। देश डिजिटल बन चुका था और कोई दाना मांझी अपनी पत्नी का शव कंधों पर ढोये देश की सड़कों पर निकल रहा था। पिछले कुछ सालों का यह दृश्य 2019 में भी दोहराया गया। भाषणों में भारत को एशिया या दुनिया की नयी महासत्ताओं में शुमार किया जा रहा था, इधर अपने ही मेघालय में फंसे इन मजदूरों की कोई खबर नहीं थी।
पिछले तीन सालों में दो दफा ऐसी बड़ी घटनाएँ हुई, जिनमें आधुनिक भारत को वहीं का वहीं ठहर जाना पड़ा। सेना के विमान, पूरे दल समेत, गायब होने की घटनाएँ तीन सालों में दो बार हुई। क्या हुआ अब तक कोई नहीं जानता। इस साल मजदूर कहा फंसे थे सबको पता था, लेकिन कैसे निकाले कोई नहीं जानता था। याद करे तो, इन्हीं दिनों कही विदेश में शोधी-छात्रों का एक दल गुफा में फंस गया था। आपको याद होगा वो दौर। भारत के टीवी चैनलों पर हर दिन, ग्राफिक्स के साथ, उस गुफा का विवरण आता रहता और पूरा दिन शोधी-छात्रों की खबर भी चलती रहती थी। लेकिन यहां मेघायल की खदान में मजदूर फंसे तो मीडिया को सांप सूंघ गया। सास-बहू के शो के सामने मेघालय के मजदूरों की न्यूज़ टिकने वाली नहीं थी।
साल की शुरूआत में सर्वोच्च अदालत को सख्त होना पड़ा और राज्य सरकार को फटकार लगाते हुए याद दिलाया कि यह गंभीर नहीं बल्कि अति-गंभीर मामला है। अदालत ने बचाव के प्रयासों पर सवाल उठाकर कार्रवाई को अपर्याप्त भी माना, साथ ही सख्त निर्देश देकर कहना पड़ा कि वे जिंदा हो या मृत, लेकिन उन्हें बाहर निकालना आप ही की जिम्मेदारी है। बताइए, विदेशी शोधी-छात्रों को दिन के चौबीसों घंटे जगह मिली, हमारे मजदूरों को एकाध शो के बाद खबरों से हटाया गया था!!! अदालत ने कार्रवाई को अपर्याप्त कहा, राज्य सरकार को फटकार लगाई, लेकिन देश (देश के लोगों) और उनके नेता के लिए और भी गम थे जमाने के लिए!!!
देश को गौरवपूर्ण अध्याय देने वाली एचएएल को सार्वजनिक तौर पर प्रताड़ित किया गया
एचएएल, यानी हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड। ये उस सरकारी कंपनी का नाम है जिसने भारतीय सेना और सैन्य उपकरणों के मामले में भारत को कई गौरवपूर्ण अध्याय प्रदान किये हैं। अगर कंपनी का ट्रैक रिकॉर्ड देखें तो मालुम पड़ता है कि यह वह कंपनी है, जिसने भारतीय सेना को स्वदेश में बने विमानों में उड़ान भरने के लायक बनाया। पिछले 77 साल का इतिहास देखें तो एचएएल ने एक से बढ़कर एक कीर्तिमान स्थापित किएं। रक्षा क्षेत्र में अग्रणी माने जाने वाले अमेरिका, फ्रांस, इजरायल जैसे दो दर्जन देशों के एयरक्राफ्ट बनाने वाली कंपनियों को भी अपना ग्राहक बनाने वाली इस सरकारी कंपनी को अब तक शानदार काम के चलते 30 से ज्यादा पुरस्कार मिल चुके हैं। देश की नवरत्न कंपनियों में शुमार हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड को लीजेंड पीएसयू (सार्वजनिक उपक्रम) का भी तमगा मिल चुका है। कंपनी ने गुणवत्ता की बदौलत 30 से अधिक देशों में निर्यात करने में सफलता हासिल की है। रिपोर्ट्स के मुताबिक एचएएल ने करीब 77 वर्षों के सफर में 3000 से भी अधिक विमानों का निर्माण, 3400 से अधिक विमान-इंजनों और 2600 से अधिक इंजनों की मरम्मत की है। एचएएल की सफलता की कहानियां इतनी नहीं है, इससे भी आगे है। उसका शानदार इतिहास एक पैरा का नहीं है, उससे कई आगे है।
लेकिन जिसे देश के नवरत्न में शुमार किया जाता है उस सरकारी कंपनी को सरकार के रत्नों ने ही सार्वजनिक रूप से दागदार कर दिया। आजाद हिंदुस्तान में एचएएल को इस तरह कभी अपमानित नहीं किया गया था, जैसा इस साल किया गया। रफाल मामले में एचएएल को यह कहकर प्रताड़ित किया गया कि उसके पास इन विमानों के निर्माण के लिए या निर्माण के सह्योग के लिए क्षमता नहीं है! बताइए, जिसका ट्रेक रिकॉर्ड इतना शानदार रहा हो उसके पास निर्माण में सह्योग देने की क्षमता नहीं है!!! है न गजब हिंदुस्तान! रफाल डील विवाद के बाद सरकारी तौर पर कहा गया कि अपनी कमियों और अधूरी क्षमताओं की वजह से इसे डील से बाहर किया गया और अनिल अंबानी को शामिल किया गया। बताइए, जिस कंपनी ने हजारों विमान बनाएं, जिसका दशकों तक का रक्षा उपकरणों के मामले में इतिहास है, जो कंपनी अनेक देशों के रक्षा उपकरणों में सह्योग देती है, उसके पास क्षमता नहीं थी और अनिल अंबानी के पास थी!!! उस अनिल अंबानी के पास, जिसका रक्षा उपकरणों के मामले में अनुभव शून्य नही, माइनस में है!!!
बहरहाल, रफाल मामले में जो भी हो, विवाद हो, घोटाला हो या कुछ दूसरा-तीसरा हो, लेकिन सरकार के मंत्रियों ने एचएएल को सार्वजनिक रूप से कमजोर और एक तरीके से नकारा सरकारी कंपनी बताकर देश को गौरवपूर्ण अध्याय देनेवाले ढांचे को अपमानित तो किया ही था। अनिल अंबानी काम के थे और एचएएल नकारा कंपनी थी!!! मैट्रिक पास आदमी को आगे समझ आता ही है, लेकिन नेता और जनता की समझ के बीच देश की दशकों तक सेवा करनेवाले लोग मानसिक और सामाजिक रूप से दम तोड़ते नजर आए।
गोल्ड मेडल जीतने पर खिलाड़ी को जाहिर किया इनाम, इनाम की राशि मिलने में देरी, खिलाड़ी ने राशि मांगी तो नेताजी ने कहा- खेल पर ध्यान दो
घोषणाएँ...। कहा जाता है कि भारत नारों और घोषणाओं का देश है। स्वयं पीएम मोदी ने कह दिया था कि चुनाव प्रचार में तो कुछ बातें यूं ही कह दी जाती हैं, उस पर ध्यान ना दे!!! जब पीएम की यही परंपरा हो तो फिर दूसरें नेता उस पथ पर गमन तो करेंगे ही।
दरअसल, हरियाणा की महिला खिलाड़ी मनु भाकर को यूथ ओलंपिक में शूटिंग में गोल्ड जीतने पर प्रदेश सरकार ने 2 करोड़ के नकद पुरस्कार की घोषणा की थी। 2018 में यह घोषणा हुई थी लेकिन राशि नहीं मिली तो खिलाड़ी ने सरकार को याद दिलाया। फिर क्या था। प्रदेश खेल मंत्री अनिल विज ने कह दिया कि खेल पर ध्यान दें, राजनीति ना करे। मंत्रीजी ने तो ट्वीट कर मनु भाकर को अनुशासनहिन खिलाड़ी तक बता दिया था!!! महिला खिलाड़ी को गाना सुनाई दिया होगा कि कस्में-वादें-प्यार-वफा सब बातें हैं बातों का क्या। इस देश में अनेक घोषणाएँ दिन भर होती रहती हैं, लेकिन घोषणाएँ तो यूं ही कर दी जाती हैं उस पर ध्यान ना दे – यह अध्यादेश एक बार आ ही जाना चाहिए अब तो।
फोटो चिपकाने का चस्का नेताजी को, खर्चा उठाए जनता
यह महज एक ही घटना का उदाहरण है, देश में ऐसी घटनाएँ हर पांच सालों में होती हैं यह नोट करे। बात यह है कि मध्यप्रदेश में इस साल विधानसभा चुनाव हुए, जिसमें बीजेपी शासित सरकार को जाना पड़ा और कांग्रेस शासित सरकार सत्ता में आई। पिछली सरकार के सीएम शिवराजसिंह ने संबल योजना के तहत स्मार्ट कार्ड छपवाएं थे, जिसमें अपनी खुद की फोटू भी चिपका दी थी। नयी सरकार तो अपने प्रतिद्वंदी का प्रचार करनेवाले थी नहीं। इस वजह से नयी सरकार ने नये स्मार्ट कार्ड छपवाने के आदेश दे दिए। खर्च या नुकसान को मिलाकर आंकड़ा सामने आया 18 करोड़ का। नोट करे कि यह महज एक ही घटना का उदाहरण है। ऐसी कई चीजें एक ही प्रदेश में होती होगी। उपरांत हर पांच सालों में सैकड़ों राज्य ऐसे फालतू खर्चे झेलते होंगे। बच्चों के मार्कशीट में अपनी फोटू लगवाना, लाइट बिल के पीछे फोटू चिपकाना, योजनाओं के कार्ड में खुद की तस्वीर लटकाना... हमारे नेता काम नहीं करते लेकिन फोटू चिपकाने का चस्का इन्हें बहुत है! लेकिन चस्के का खर्च उठाती है जनता।
बच्चों का अस्पतालों में मरना... साल बदला लेकिन कहानियां जस की तस
हमारे डिजिटल और विश्वगुरु बन चुके भारत में हर साल राज्यों में सैकड़ों बच्चे अस्पतालों में मर जाते हैं। पिछले साल यूपी में ऑक्सीजन की कमी के चलते महीने भर में 100 से ज्यादा बच्चे मारे गए थे। हर साल यूपी ही नही, देश के कई राज्यों में, यहां तक कि आधुनिक और संपन्न कहे जाने वाले राज्यों में भी बच्चे इस कदर अस्पतालों में मारे जाते हैं। इस साल भी कहानियां जस की तस रही। बिहार में दिमागी बुखार के कथित कारण के चलते 100 से ऊपर की तादाद में बच्चे महीने भर में मौत की नींद सो गए। यूपी में भी ऐसी कहानियां सामने आई। साल के आखिर में राजस्थान के कोटा में भी यही मंजर दिखा, जिसमें मरनेवाले बच्चों की संख्या 150 के ऊपर थी। मध्यप्रदेश में भी यही कहानी रही। इस साल एक खबर तो यह भी आई कि गुजरात में भुज स्थित अडानी फाउंडेशन के अस्पताल में बीते पांच सालों में एक हज़ार से ज्यादा बच्चों की मौतें हो चुकी है।
बिहार में तो नेताजी गज़ब करते दिखे। एएनआई ने एक वीडियो पोस्ट किया था जिसमें दिख रहा था कि बिहार के स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडे इस गंभीर समस्या के बीच क्रिकेट वर्ल्डकप का स्कोर पूछ रहे थे!!! राज्य स्वास्थ्य मंत्री अश्वनी चौबे बच्चों की मौत मामले में हुई एक प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान सोते हुए दिख रहे थे!!! पकड़े गए तो इन्होंने गज़ब का बहाना बनाया और कहा कि वह सो नहीं रहे थे बल्कि गहरी सोच में थे!!! साल बदला, लेकिन ना नेताजी बदले, ना अस्पतालें सुधरी और ना ही नागरिकों की बेफिक्री। कई राज्यों में शिशु अपने देश को ठीक से देखने से पहले ही दुनिया को सदा के लिए छोड़ गए।
जो रैलियों पे रैलियां किए जा रहा था, उस पीएम से संपर्क हो नहीं पाया ये बात मजाकिया नहीं बल्कि गटरछाप तर्क था
पुलवामा हमला। पिछले 30-40 सालों में भारतीय सेना पर सबसे बड़ा आतंकी हमला। हमले का बदला तो ले लिया लेकिन कुतर्कों के पहाड़ खड़ा करने के बाद। कांग्रेस ने पुलवामा हमले के दिन डिस्कवरी चैनल और पीएम मोदी के शूटिंग का जो दावा किया था उसकी बात हम कर ही नहीं रहे। क्योंकि जो प्रमाणित नहीं है उसकी चर्चा हम छोड़ ही देते है। हम वही बात करते है जो हुआ था।
रैलियां होती रही, भाषण होते रहे, उद्धाटन होते रहे। यह सब प्रमाणित मंजर थे। लेकिन स्वयं सरकार ने कहा कि पीएम को हमले की सूचना देर से मिली थी। मौसम खराब था वाला बयान भी आया। बताइए, मौसम खराब होने के बावजूद मोबाइल से उन्होंने हमले के बाद भी रैली को संबोधित किया था!!! उसमें पुलवामा हमले का कोई ज़िक्र नहीं था। हमले के घंटों बाद इन्होंने रेली को मोबाइल फोन से संबोधित किया, जिसमें अपनी उपलब्धियों का प्रचार-प्रसार किया!!! यह कोई सामान्य सी बात नहीं है कि इतना बड़ा हमला हो जाए और उसके दो घंटे बाद पीएम खराब मौसम के बाद भी मोबाइल वाली चुनावी रैली करे!!! देश के पीएम को देरी से सूचना मिलना सामान्य सी बात मानकर नजरअंदाज क्यों किया जाए? सोचिए, खराब मौसम के बाद भी जमीन-आसमान एक करके मोबाइल फोन से रैली को संबोधित किया जाता है, लेकिन नायक को हमले की खबर खराब मौसम के चलते देरी से मिलती है!!!
पुलवामा हमला पिछले दो-तीन दशक का सबसे बड़ा हमला था। इतने बड़े हमले के बाद भी सरकार खुद कहती हैं कि देश के पीएम को देर से सूचना मिली! एक तरीके से कहा जाए तो इतने बड़े हमले का देश के पीएम को पता तक नहीं था!!! एक सूचना में कहा गया था कि 25 मिनटों तक देरी से पता चला था। वैसे तो मीडिया में पीएम के सुरक्षा तंत्र और सूचना तंत्र को लेकर जबरदस्त डिजिटल श्रृंगार वाले कार्यक्रम चलते हैं। कहा जाता है कि सेकेंड के सौवें हिस्से में पीएम का तंत्र ये कर सकता है, वो कर सकता है। हम दुश्मन द्वारा दागे गए मिसाइल को सेकेंड के भीतर पकड़ कर नष्ट कर सकते हैं, लेकिन अपने पीएम को इतने बड़े आतंकी हमले की सूचना नहीं दे सकते!!! दुश्मन देश में कहा कितने मोबाइल एक्टिव है यह पता चल जाता है, लेकिन अपने ही देश में पीएम का संपर्क नहीं कर पाते!!! मासूम सा सवाल उठता है कि लोकतंत्र में यह कैसा तंत्र था कि पीएम को पिछले 20-30 सालों के सबसे बड़े हमले का पता ही नहीं था!!! डिजिटल इंडिया है या क्रिटिकल इंडिया? पीएम के काफ़िले के साथ संचार व्यवस्था को लेकर बहुत ही खास इंतज़ाम होते है। ये बिल्कुल बचपना वाली दलील तो नहीं बल्कि गटरछाप दलील थी कि पीएम को देरी से सूचना मिली।
अजब-गजब और आपत्तिजनक बयानबाजी का दौर जारी रहा
इस साल भी बड़े बड़े चेहरों का अजब-गजब और आपत्तिजनक बयानों का दौर जारी रहा। जाहिर है जो सत्ता में होता है उसकी भाषा ज्यादा देखी जाती है। इस लिहाज से बीजेपी के नेताओं की भाषा ज्यादा अमर्यादित रही। दूसरे भी इसमें अपना पूरा योगदान देते दिखाई दिए। साल की शुरूआत में एक लेखक की किताब से बवाल हो गया। उनकी पुस्तक का अंश देखकर लगा कि ऐसे ही लेखक बना जा सकता है तो फिर समूचे आई-टी सेल को लेखक ही घोषित कर देना चाहिए। बेंग्लुरु के लेखक केएस भगवान द्वारा लिखित पुस्तक में राम के बारे में लिखा गया कि वे भगवान नहीं थे, बल्कि अन्य मनुष्यों की तरह कमजोरियों का शिकार थे। महात्मा गांधी के बारे में इस लेखक ने आपत्तिनजक लिख दिया था। लेखक ने साल की शुरुआत की तो नेता लोग कहा पीछे रहने वाले थे।
कांग्रेस शासित सरकार कमलनाथ के श्रम मंत्री बोल गये कि जो सरकारी अधिकारी काम नहीं करेगा उसे लात मारकर बाहर कर देंगे। इन बयान बहादुरों की कथनी और करनी हर कोई जानता है। शायद वो कहना चाहते थे कि हमारा काम नहीं करेगा उसे लात मारकर बाहर कर देंगे। क्योंकि यहां खेमका जैसे अधिकारी काम करते है तब भी लात मारकर बाहर कर दिये जाते हैं! इसलिए काम किसका करना है यह अधिकारियों को समझना होगा। खैर, लेकिन मूल सवाल यही कि मान लीजिए कि उस अधिकारी ने ढंग से और ठीक से अपना काम नहीं किया तो उसे बाहर किया जा सकता है, लात मारकर बाहर कर देंगे वाले बॉलीवुड संवाद का क्या मतलब। जाहिर है इसके अपने मतलब या प्रभाव होते हैं। लेकिन फिर नेताओं के लिए भी यहीं नियम लागू होना चाहिए। वैसे एमपी के इस श्रम मंत्री की भाषा और उनके झूठे दिखावे पर क्या शिकायत करे, क्योंकि यहां तो पीएम मोदी स्वयं कह गये है कि मैं अच्छा काम ना करुं तो मुझे लात मारकर बाहर निकाल देना। लगता है कि आज की राजनीति बात से नहीं लात से ही काम निकालने में यकीन करती है!!!
यूपी से बीजेपी के विधायक विक्रम सैनी तो लात से आगे निकल गए। इन्होंने कह दिया कि, “जिन्हें भारत में डर लगता है उन पर बम गिरा दो।” गुजरात के सीएम रुपाणी एक सभा में कह गए कि, “अब आपको पुलिस को पैसे नहीं देने पड़ेंगे, मेरी सरकार ने हाटेल संचालकों को लाइसेंस से मुक्ति दिला दी है।” अब आपको पुलिस को पैसे नहीं देने पड़ेंगे – इस कथन का मतलब मैट्रिक पास आदमी को पता चल सकता है। यह जनवरी का मामला था। लेकिन गजब देखिए, इस साल दिसम्बर में मोदीजी देश के युवाओं से बुलवा रहे थे – पुलिस का अपमान करोगे? बोलो करोगे? जाहिर है ‘नहीं’ बोलकर भाषण-प्रक्रिया को आगे बढ़ाना था। लेकिन सामने सीएम रुपाणी होने चाहिए थे, युवा नहीं!
कौरव टेस्ट ट्यूब बेबी थे, उनका जन्म स्टेम सेल और टेस्ट ट्यूब तकनीक से हुआ था (आंध्र युनिवर्सिटी के वीसी जी नागेश्वर राव), हर किसीको नौकरी नहीं मिल सकती (नीतिन गडकरी), भगवान श्रीराम वैश्य समाज से थे (बीजेपी नेता विनीत अग्रवाल शारदा), हम कांग्रेस में थे तब गरीबों की सहाय निगल लेते थे (बीजेपी नेता भवान भरवाड), घबराएं नही, बीजेपी वालों को दौड़ा-दौड़ा कर मारेंगे (बीएसपी नेता विजय यादव), पश्चिम बंगाल में रहना है तो बांग्ला बोलना सीखना होगा (सीएम ममता बनर्जी), गोडसे देशभक्त थे (प्रज्ञा ठाकूर), कुछ लोगों के करतूत की वजह से पूरे देश को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता (नवजोत सिद्धू, पुलवामा हमले के बाद)....
इन नेताओं के बिगड़े बोल को लेकर हर साल एक महाभारत लिखा जा सकता है। अच्छा है यह लोग अपने माता-पिता या बहन के सामने चुनाव नहीं लड़ते, वर्ना संस्कृति नाम के गौरव को कही पर छिपा देना पड़ता।
हम नेता हैं हमें पढ़ना-वढ़ना नहीं लड़ना-लड़ाना आता है, गणतंत्र दिवस पर मुख्यमंत्री का संदेश भी नहीं पढ़ पाई कमलनाथ की मंत्री
मध्य प्रदेश में एक अजीब नज़ारा देखने को मिला। मध्य प्रदेश की एक मंत्री को गणतंत्र दिवस पर मुख्यमंत्री का संदेश पढ़ना था, मगर उनकी जगह अचानक कलेक्टर को पढ़ते देख सभी हैरान रह गए। दरअसल, मध्य प्रदेश की महिला बाल विकास मंत्री इमरती देवी ग्वालियर में मुख्यमंत्री कमलनाथ के गणतंत्र दिवस के संदेश को भी ठीक से पढ़ नहीं पाई। बीच में ही उन्होंने कलेक्टर को पढ़ने को कहा और तब जाकर कलेक्टर ने संदेश को पढ़कर पूरा किया। वीडियो में साफ दिखा कि मंत्री इमरती देवी अटक-अटक कर भाषण पढ़ रही थी। कुछ देर तक वो प्रयास करती रही, मगर जब उनसे पढ़ने-वढ़ने का काम नहीं हो पाया तो वह मुस्कुरा कर कहने लगी कि अब कलेक्टर साहब पढ़ेंगे। इसके बाद कलेक्टर साहब भी हंसने लगे और भाषण पढ़ने के लिए पोडियम पर आ गए। इमरती देवी ने इस मामले पर गजब की सफाई भी दी। इन्होंने कहा कि में बीते दो दिनों से बीमार थी, आप डॉक्टर से पूछ सकते हैं। शायद इमरतीजी बीते दो दिनों से नहीं बल्कि अपने शपथ-दिन से ही बीमार चल रही होगी। क्योंकि जब उनकी शपथ लेने की बारी आई थी तब भी वह अटक गई थीं। ठीक है, इसमें विवाद क्या। नेताओं का काम पढ़ना-पढ़ाना थोड़ी न है? लड़ना-लड़ाना है। अरे भाई... चुनाव लड़ने-लड़ाने की बात है।
सरकारें रात-भर नहीं आधी रात में ही काम करती हैं! पिछले साल सीबीआई का आधी रात को तख्तापलट, इस दफा महाराष्ट्र में आधी रात को सरकार का शपथ ग्रहण
रात भर काम करना और आधी रात को काम करना, इन दोनों में बहुत फर्क है। पिछले साल आधी रात को सीबीआई का तख्तापलट, तो इस साल आधी रात को तख्तग्रहण!!! शाह-मोदी दिन में काम करने के बजाय आधी रात को छुपकर काम करने में यकीन क्यों करते है यह सवाल मत पूछिएगा। क्योंकि कुछ काम रात के लिए ही होते हैं! महाराष्ट्र विधानसभा 2019 का चुनाव नतीजे से पहले भी दिलचस्प, नतीजे के बाद ज्यादा चौंकानेवाला रहा। बीजेपी-शिवसेना ने साथ मिलकर एकदूसरे से लड़ते-लड़ते ही दूसरों से लड़ाई लड़ी। उधर एनसीपी-कांग्रेस साथ थी। नतीजे आए तो बीजेपी-शिवसेना गठबंधन को स्पष्ट बहुमत मिला। लेकिन शिवसेना ने कहा कि चुनाव से पहले अमित शाह के साथ ढाई-ढाई साल के लिए सीएम पद के बंटवारे की बात तय हुई थी। अमित शाह और बीजेपी ने कहा कि ऐसी कोई बात नहीं थी। काल्पनिक बात करे तो हंसते हंसते शाह ने उद्धव से कहा होगा कि वो तो जुमला था!!!
शिवसेना अब की बार सीएम पद को जाने देने के लिए तैयार नहीं थी। सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर राज्यपाल ने बीजेपी को आमंत्रित किया। बीजेपी को जितना समय राज्यपाल ने दिया था उसकी मियाद खत्म होने से पहले बीजेपी ने कह दिया कि हमारे पास संख्याबल नहीं है। फिर राज्यपाल ने दूसरों को समय दिया। बीजेपी-शिवसेना-कांग्रेस-एनसीपी के बीच राजनीतिक का वो खेल चल रहा था जो नयी पीढ़ी ने पहली बार देखा। दूसरों को दिये गए समय की अवधि समाप्त हो उससे पहले राज्यपाल ने राज्य में राष्ट्रपतिशासन लगा दिया!!! दिनों तक राजनीति जारी रही। बीजेपी और शिवसेना जैसे पारंपरिक और वैचारिक रूप से नजदीक दोस्त सत्ता के लिए अलग हो गए। कांग्रेस-एनसीपी के साथ शिवसेना का समझौता हुआ। आखिरकार एक दिन वो आया जब तय हुआ कि कल शिवसेना-एनसीपी-कांग्रेस की साझा सरकार बनेगी और उद्धव सीएम बनेंगे। लेकिन उसी रात को कुछ ऐसा हुआ कि दूसरे दिन देश के तमाम अख़बारों में उद्धव के सीएम बनने की खबर पहले पन्नों पर थी किंतु न्यूज़ चैनलों पर सुबह-सुबह खबरें चल रही थी कि राष्ट्रपति शासन हटा, बीजेपी और एनसीपी नेता अजित पवार ने सरकार बनाई, फडणवीस सीएम बने!!!
आधी रात को जो खेल खेला गया उसको लेकर कई सवाल उठे, कई धारणाएं-अवधारणाएं बनी। राज्यपाल की कार्रवाई का तरीका खुलकर आलोचना का विषय बना। आधी रात को आनन-फानन में राष्ट्रपति शासन हटवाना, आधी रात को सरकार बनना, तड़के सुबह फडणवीस का शपथ ग्रहण करना और फिर बहुमत साबित करने के लिए होलसेल में समय को बांट देना!!! संविधान, नीतियां, नियम, कानून, नैतिकता, राजनीति, सत्ता का खेल, होर्स ट्रेडिंग... हर मामले पर सवाल मुंह फाड़े खड़े थे। आखिरकार सर्वोच्च अदालत के सामने मामला गया और अदालत ने 24 घंटों के भीतर फ्लोर टेस्ट करने के लिए कहा। फिर क्या था, आधी रात को जो सरकार बनी थी उसने दूसरे दिन अपना इस्तीफ़ा दे दिया!!! यह कहकर कि उसके पास संख्याबल नहीं है!!! फिर तो पहले से भी ज्यादा गंभीर सवाल उठ खड़े हुए। राज्यपाल को सोंपे गए समर्थन-पत्र से लेकर राज्यपाल के विवेक-समझ के उपरांत बीजेपी और मोदी-शाह की कार्यशैली कांग्रेस के पुराने काले-शासन की याद दिला गई। अगले दिन शादी हुई और दूसरे दिन तलाक!!! फिर शिवसेना-कांग्रेस-एनसीपी ने मिलकर सरकार बनाई और बहुमत साबित किया। 2018 में आधी रात को सीबीआई के तख्तापलट का एकमात्र इतिहास और अब 2019 में महाराष्ट्र में आधी रात को तख्तग्रहण, स्वर्णिम इतिहास की बातें करते करते भारत में वर्तमान दागदार हुए जा रहा था।
एसबीआई बैंक है या गांव में बसी किराने की दुकान? बैंक को ही नहीं पता कि उसके पास कितने एटीएम हैं
एसबीआई। बचपन से पढ़ाया जाता है कि एशिया का सबसे बड़ा बैंक है एसबीआई। लेकिन बड़ा होने के बाद पता चला कि कोई संस्थान बड़ा होता है तो इसका मतलब यह नहीं कि वो अच्छा ही हो। वैसे भी एसबीआई के स्टाफ से ज्यादातर उपभोक्ता परेशान रहता है। हमारे यहां तो एसबीआई की शाखा में विजिट करो तो लगता है कि गांव में बसी किसी किराने की दुकान में घुसे हो। लेकिन एक दफा एसबीआई ने खुद ही साबित कर दिया कि हम किराने की दुकान ही है, बैंक नहीं!!!
दरअसल, एक आरटीआई में एसबीआई से देशभर में लगी बैंक की एटीएम मशीनों का ब्यौरा मांगा गया था। लेकिन बैंक की तरफ से कहा गया कि उनके पास इसकी सूचना ही उपलब्ध नहीं है। पिक्चर अभी बाकी है मेरे दोस्त। कितने एटीएम है इसका ही अता-पता नहीं था, उपरांत बैंक को यह भी नहीं पता था कि पिछले पांच वित्तीय वर्षों में एटीएम में तैनात सुरक्षा गार्डों की सैलरी और भत्ते पर कितने पैसे खर्च हुए!!! लेकिन अजब था कि सुरक्षा गार्डों को कितना वेतन दिया जाता है यह ज़रूर तय था! लेकिन पिछले पांच वित्तिय वर्षों में सैलरी या भत्ते पर कितने पैसे खर्च किए इसका ब्यौरा बैंक के पास नहीं था!!! कहा कि सूचना उपलब्ध नहीं है! हां, इनके पास अपने ग्राहकों का ब्यौरा ज़रूर होगा, पता होगा कि किसके खाते में कितने पैसे है और कब पैसे काटने है! इसी साल एक दफा एसबीआई अपने सर्वर पर पासवर्ड लगाना भूल गया था!!! भगवान जाने, बैंक के आलसीपन की वजह से कितनों के डाटा लीक हो गये।
गज़ब कांग्रेस, अजब कारनामे... यूपी चुनाव में प्रियंका गांधी की मदद करनेवाला था बिहार पेपर लीक का आरोपी, विवाद हुआ तो हटा दिया गया
जैसे एसबीआई को नहीं पता था, वैसे प्रियंका गांधी को भी नहीं पता था कि मुझे मदद करने जा रहा शख्स पेपर लीक मामले में आरोपी है!!! एसबीआई किराने की दुकान, तो फिर कांग्रेस क्या यह आप खुद सोच लीजिएगा। 2019 के लोकसभा चुनावों के लिए पूर्वीय उत्तर प्रदेश की प्रभारी और कांग्रेस की महासचिव प्रियंका गांधी की मदद के लिए कांग्रेस ने तीन लोगों को सचिव के रूप में नियुक्त किया। इनमें से एक का नाम था कुमार आशिष। 2005 में ये महाशय इंटरमीडिएट एक्जाम पेपर लीक मामले के सह-आरोपी रह चुके थे!!! इतना ही नहीं, यह मामला उन दिनों उछला तब कांग्रेस ने इन्हें बाहर का रास्ता भी दिखाया था। बक्त बीता तो कांग्रेस ने उन्हें वापस बुला लिया और पिछले बिहार विधानसभा चुनाव में आशिष को चुनाव भी लड़वाया!!! हालांकि वो हार गया। अब 2019 में इसे प्रियंका गांधी के मददगार के तौर पर नियुक्त किया गया। मामले ने तूल पकड़ा तो इसे यहां से भी हटाया गया। लेकिन सवाल छूट गया कि एसबीआई किराने की दुकान है तो फिर कांग्रेस क्या है? या फिर पेपर लीक करने की क्षमता रखनेवाला कलाकार चुनाव के लिए योग्य लगा होगा कांग्रेस को!!!
नौकरशाह हो या फौजी जवान, तमाम को अपनी बात रखने पर अनुशासनहिनता का दंड लगेगा... किंतु एनएसए से लेकर सेनाध्यक्ष जैसे संवेदनशील ओहदों के दिमाग में राजनीति का भूत डोल उठे तो कोई बात नहीं!!!
नौकरशाह हो, फौज के जवान हो या दूसरे सरकारी अधिकारी हो... इन सबको अपने काम के अलावा दूसरा कुछ भी बोलने की छूट नहीं। कुछ भी बोले तो अनुशासनहिनता का दंड खड़ा है। हमने नौकरशाहों से लेकर फौज के जवानों के ऐसे मसले हाल ही में देखे है। नौकरशाह या फौज के जवानों को तो छोड़ दीजिए, जज ने अदालत में भ्रष्टाचार की बात कह दी तो उस जज के साथ क्या क्या हो गया, कितना कितना हो गया, यह ताज़ा इतिहास है। लेकिन गज़ब है कि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और देश के थल सेनाध्यक्ष के दिमाग में राजनीति का भूत खुलकर डोला, लेकिन भूत डोल रहे थे तो सरकार और मीडिया ने भूतों के आगे डीजे सोंग का कैसेट ही चला दिया!
निष्पक्ष रूप से देखे तो देश के एनएसए अजित डोभाल और थल सेनाध्यक्ष बिपिन रावत द्वारा सार्वजनिक रूप से सरकार और राजनीति के बारे में बोलना वाकई बेहद गलत परंपरा की शुरुआत है। दोनों बोले तो अब छगन-मगन वाला तर्क आएगा। छगन कहेगा कि मगन के समय भी हुआ था। भक्तों की गधापंति को गटर में डाल ही देते है और आगे बढ़ते हैं। संवेदनशील ओहदों पर बैठे लोगों को राजनीति, सरकार, पक्ष या विपक्ष, अर्थशास्त्र जैसी चीजों पर अपने विचार सार्वजनिक नहीं करने होते। इससे कई गलत परंपराएँ शुरू होती हैं।
2019 का लोकसभा चुनाव सर पर था, चुनाव की घोषणा हो चुकी थी, प्रचार जोरों पर था। महागठबंधन और बीजेपी के बीच जंग होगी ऐसा राजनीतिक वातावरण सब जगह व्याप्त था। इस माहौल में देश के एनएसए ने सार्वजनिक रूप से कहा कि देश को मजबूत सरकार की ज़रूरत है, मिल-जुल कर बनाई गई सरकारें जल्द फैसला नहीं ले सकती। बताइए, जिस शख्स को देश की सुरक्षा के बारे में गुप्त ढंग से सरकार को सलाह देनी होती है वो शख्स सार्वजनिक ढंग से देश को सरकार कैसी होनी चाहिए उसका ज्ञान बांट रहा था!!! अजित डोभाल का यह बयान पूरी तरह से राजनीतिक भी था, समय का चुनाव भी गलत था और साथ ही अनुशासनहिनता भी था। एक नौकरशाह का ये तरीका स्पष्ट रूप से गलत था।
अजित डोभाल ने किया तो फिर थल सेनाध्यक्ष भी पीछे नहीं रहे। साल के आखिरी दिनों में इन्होंने नागरिकता बिल का विरोध कर रहे प्रदर्शनकारियों पर सार्वजनिक ढंग से टिप्पणी कर दी। इन्होंने अपने बयान में एक तरीके से प्रदर्शनकारियों और उनके नेतृत्व को नसीहतें दी। ठीक है कि हिंसक प्रदर्शन जायज नहीं थे। हो सकता है कि प्रदर्शनकारियों की समझ गलत थी। लेकिन सेनाध्यक्ष सरीखे शख्स ने अपनी सीमाओं को लांध दिया था। भारतीय सेना के सेवानिवृत्त एडवोकेट जनरल मेजनल नीलेन्द्र के मुताबिक सेना में प्रेस के साथ कम्युनिकेट करने की मनाही है, उन्हें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्राप्त नहीं है। अगर किसी मुद्दे पर उन्हें बात रखनी है तो पहले रक्षा मंत्रालय से इजाज़त लेनी होती है। वो कहते हैं कि लेकिन इन मुद्दों में राजनीतिक, सरकार संबंधित, अर्थतंत्र संबंधित या अन्य सरकारी नीतियों पर आधारित विषय नहीं होने चाहिए। उन्होंने कहा कि यह सीधा सीधा अनुशासनहिनता का मसला है।
ढेरों नियमों को बतलाकर कोई कह देगा कि एनएसए या सेनाध्यक्ष ने नियम नहीं तोड़े थे। लेकिन इन दोनों ने कई सारी चीजें तोड़ दी, गलत परंपरा की शुरूआत भी कर दी। पाकिस्तान में सेना का जो हाल है, वो भारतीय सेना का नहीं होना चाहिए। हमें नया भारत बनाना है, जो पाकिस्तान जैसा नहीं होना चाहिए। एनएसए और सेनाध्यक्ष, दोनों का काम एक ही मंजिल पर जाना है, इस लिहाज से दोनों ने सीमाएँ ज़रूर तोड़ी थी।
बेहद आपत्तिजनक... साल के आखिरी दिनों में विश्वविध्यालय के प्रश्नपत्र में क्रांतिकारी आतंकवादी शब्द का ज़िक्र हुआ
साल के आखिरी दिनों में कांग्रेस शासित मध्य प्रदेश सरकार राज्य में बेहद ही आपत्तिजनक मामला उठ खड़ा हुआ। यहां ग्वालियर के जीवाजी विश्विद्यालय में आयोजित की गई एमए तृतीय सेमेस्टर के राजनीति शास्त्र के पेपर में बेहद आपत्तिजनक सवाल पूछा गया। प्रश्नपत्र में क्रांतिकारी और आतंकवादियों का अंतर पूछा गया। सवाल में क्रांतिकारी आतंकवादियों लफ्ज़ एकसाथ लिख दिया गया। जाहिर है विवाद हुआ और कुलपति ने सफाई दी। नोटिस जारी किए गए और पेपर तैयार करनेवाले के खिलाफ कार्रवाई का आश्वासन भी आसमान से उतर पड़ा। प्रश्न पत्र तैयार करनेवाले प्रोफेसर का उद्देश्य भले ही जो हो, लेकिन प्रश्न-पत्रों में ऐसी आपत्तिजनक चीजों का सिलसिला कहां तक जायज है। हमने पहले भी देखा है कि प्रश्न-पत्रों में अजब-गजब के सवाल दाग दिए जाते हैं। मसलन, धोनी की पत्नी का नाम बताइए से लेकर किसी फिल्मी अदाकारा तक के सवाल!!! आपत्तिनजक सवाल भी कई बार लिख दिए जाते हैं। साल के अंत में इस तरह का दृश्य पेश करके विश्वविद्यालय ने शायद सूचित कर दिया कि भाई... हम पढ़े-लिखे हैं लेकिन समझदारी का पाठ भूल चुके हैं, लिहाजा हमें ओल्ड-एज-एजुकेशन में ही डाल दो अब।
(इंडिया इनसाइड, एम वाला)
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