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Warship Deal: पुराने युद्धपोत की ख़रीदी, रूसी भारत को चकमा दे गए या भारतीय शासक देश की जनता को?

 
ये कहानी है भारत और रूस के बीच हुए एक युद्धपोत सौदे के विवाद की। एडमिरल गोर्शकोव युद्धपोत सौदा। यूँ तो एडमिरल गोर्शकोव एक इंसान थे, किंतु आज ये एक युद्धपोत का नाम है। हालाँकि अब आप को कहना पड़ेगा कि यह एक युद्धपोत का नाम था। क्योंकि अब इसे एक नया नाम मिल चुका है और नया नाम है - विक्रमादित्य।
 
गोर्शकोव भी इस युद्धपोत का मूल नाम नहीं था। जब ये युद्धपोत पहली बार बनाया गया तब इसका नाम बाकू था। बाकू एक शहर का नाम है और उस शहर के नाम से इस युद्धपोत का नाम बाकू रखा गया था।
 
बाकू नाम बदलने की कहानी भी दिलचस्प रही। दरअसल जब इस युद्धपोत का नाम बाकू रखा गया था तब बाकू शहर सोवियत संघ के भीतर था। 25 दिसंबर 1991 को सोवियत संघ का विघटन हुआ और वह कई हिस्सों में बँट गया और नये देशों का सृजन हुआ। हुआ यह कि बाकू नाम का वह शहर नये देश अज़रबैजान में चला गया, जबकि बाकू नाम का युद्धपोत रूस के हिस्से में आया।
 
गौरव और अभिमान का पुन:स्थापन करना था। ऐसे में किसी दूसरे देश के शहर का नाम अपने देश के बड़े से युद्धपोत के साथ जोड़ नहीं सकते। गौरव नामक तत्व को हानि पहुँचती इससे! आख़िरकार युद्धपोत का नाम बदल दिया गया और नया नाम एडमिरल गोर्शकोव रखा गया।
 
एडमिरल सर्गेई जॉर्जीविच गोर्शकोव रूस के वॉर हीरो माने जाते हैं। वे यूक्रेन में जन्मे थे। वे सोवियत संघ के बेड़े के एक एडमिरल थे, जिन्हें दो बार सोवियत संघ के हीरो की उपाधि से सम्मानित किया गया था। वे रशियन नेवी में विभिन्न पदों पर काबिज़ रहे। उन्होंने कमांडर-इन-चीफ़ के रूप में शीत युद्ध के दौरान सोवियत नौ सेना के विस्तार की देखरेख की। वे सोवियत संघ की ब्लैक सी फ़्लीट तथा नौ सेना के चीफ़ भी रहे। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान इन्होंने सी बैटल में हिस्सा लिया था। वे लेनिन पुरस्कार, यूएसएसआर स्टेट प्राइज़, ऑर्डर ऑफ़ रेड स्टार तथा ऑर्डर ऑफ़ द पैट्रियोटिक वॉर जैसे सन्मान से पुरस्कृत भी हुए।
इन्हीं के सम्मान में रूस ने अपने युद्धपोत बाकू को एडमिरल गोर्शकोव नाम दिया। कीव श्रेणी का यह युद्धपोत विमानों को समंदर के भीतर दूर दूर तक ले जा सकता है, दुश्मन पर बम हमले कर विमान युद्धपोत पर वापस आ सकते हैं। यानी एक विमानवाहक जहाज़।
 
रूस के इतिहास का गौरव माना जाने वाला ये पन्ना पुराना हो गया, और उसके बाद उस पन्ने को भारत को बेच दिया गया! भारत ने इसे ख़रीदा और नया नाम 'आईएनएस विक्रमादित्य' दे दिया। सदैव की तरह मेनस्ट्रीम मीडिया और भारत सरकार, दोनों इसे ऐसे पेश कर रहे हैं, जैसे कि भारतीय सेना को सालों से इसीकी तलाश हो!
 
शुरू में बाकू के नाम से जाना जाने वाला यह युद्धपोत 1982 में लॉन्च किया गया था और 1987 में कमीशन किया गया था। सोवियत संघ के विघटन के पश्चात एडमिरल गोर्शकोव (बाकू) को 1995 या 1996 में निष्क्रिय कर दिया गया था, क्योंकि शीत युद्ध के बाद के बजट में इसे चलाना बहुत महंगा था।
 
पुराना तो पुराना, अपने देश में नया सामान आया है! लेकिन रूस के इस गौरव से भारत आनंदित नहीं हो सकता। हमारी नौ सेना को युद्धपोत की आवश्यकता थी इसमें कोई दो राय नहीं है। किंतु आवश्यकता के सामने ऐसी विवादित ख़रीदी आवश्यकता के सिवा दूसरे पहलू भी ले आती है।
 
दरअसल भारत के पास 'आईएनएस विराट' नाम का एक युद्धपोत था, जिसे इंग्लैंड से पुराने युद्धपोत के तौर पर ही ख़रीदा गया था, जिसे 2007 में सेवानिवृत्त किया जाना था। नौ सेना का एक एयरक्राफ्ट कैरियर, 'आईएनएस विक्रांत', जिसे इंग्लैंड से ख़रीदा गया था, को 1997 में सेवानिवृत्ति दी गई थी। और इसी आधार पर कहा जा रहा है कि भारत को तत्काल युद्धपोत चाहिए था।
सिंपल सा सवाल है कि क्या आईएनएस विराट को एक ही रात में सेवानिवृत्त करने का फ़ैसला लिया गया था? सेना को एक युद्धपोत चाहिए ऐसी ख़बर अचानक ही रक्षा मंत्रालय को नहीं मिली होगी न? दरअसल, सेना में कोई भी ऐसी ज़रूरत सालों पहले चिन्हित या निर्देशित की जाती है और इसके लिए प्रक्रिया शुरू की जाती है। ऐसे में 'तत्काल युद्धपोत चाहिए था' वाली दलील अपने आप दम तोड़ देती है और मसला 'सेना की ज़रूरतों पर देरी', यहीं आकर अटक जाता है।
 
परंपरागत प्रक्रिया के मुताबिक़ भारतीय सेना को युद्धपोत चाहिए होगा यह सालों पहले कहा गया होगा और इसके लिए तय प्रक्रिया शुरू करने के लिए कहा भी गया होगा। सेना या सेना से संबंधित डिफेंस एक्विजिशन काउंसिल (डीएसी) अचानक से तो सरकार, यूँ कहे कि रक्षा मंत्रालय के सामने प्रकट नहीं हुई होगी कि सुबह सामान था अब दोपहर को नहीं है।
 
विराट को सेवानिवृत्त किया जाना था और फिर सालों के बाद कहा जाता है कि भारतीय सेना को तत्काल युद्धपोत चाहिए था! बिलकुल गली-नुक्कड़ सरीखी बात लगती है यह।
 
दरअसल, भारत ने 1994 में एडमिरल गोर्शकोव विमानवाहक पोत के अधिग्रहण के लिए रूस के साथ बातचीत शुरू की थी और दिसंबर 1998 में एक समझौता ज्ञापन (एमओयू) पर हस्ताक्षर किए। भारत की केंद्र सरकार और रूसी संघ ने अक्टूबर 2000 में अधिग्रहण के लिए एक अंतर-सरकारी समझौते पर हस्ताक्षर किए। साल 2004 में भारत ने सम्राट विक्रमादित्य के सम्मान में इस युद्धपोत को आईएनएस विक्रमादित्य नाम दिया।
 
जनवरी 2004 में भारत ने एडमिरल गोर्शकोव के आधुनिकीकरण और 12 सिंगल-सीट मिग-29 तथा 4 दो-सीट मिग-29 विमानों की डिलीवरी के लिए रूस के साथ 1.5 बिलियन डॉलर का सौदा किया। नवीनीकरण कार्य अप्रैल 2004 में रूस के सेवेरोडविंस्क में सेवमाश शिपयार्ड में शुरू किया गया। युद्धपोत की मरम्मत और रीफिट, पुर्जों, बुनियादी ढाँचे के विस्तार, चालक दल के प्रशिक्षण और दस्तावेज़ीकरण की लागत 974 मिलियन डॉलर आँकी गई थी।
युद्धपोत को शुरू में अगस्त 2008 तक डिलीवर किया जाना था, लेकिन लागत में वृद्धि के कारण इसमें देरी हुई। दिसंबर 2009 में दोनों देशों के बीच उन्नत युद्धपोत की अंतिम डिलीवरी और संपूर्ण लागत पर सहमति बनी। सौदे को मार्च 2010 में अंतिम रूप दिया गया, लागत 2.33 बिलियन डॉलर तय की गई और डिलीवरी दिसंबर 2012 में निर्धारित की गई।
 
सालों तक देरी की गई और फिर 'तत्काल' 'तत्काल' बोल कर रूस और भारत के बीच रक्षा सौदे को लेकर बातचीत की गई। और अंत में भारत के रक्षा मंत्रालय ने रूस के पुराने युद्धपोत की ख़रीदी पर मुहर लगा दी। बस, नाम नया दे दिया। किसी दूसरे के गौरव पर अब भारतीयों को भी गौरव करना है!
 
सोचिए, 1994 में बातचीत शुरू होती है, 1998 में एमओयू पर हस्ताक्षर, 2000 में अंतर-सरकारी समझौता, 2004 में सौदा, 2008 तक डिलीवरी का सौदा, फिर 2009 में संपूर्ण लागत पर सहमति, 2010 में फिर एक बार अंतिम सौदा, डिलीवरी का नया साल 2012 होगा!
 
इस बीच जिस आईएनएस विराट को 2007 में सेवानिवृत्त किया जाना था, उसकी सेवानिवृत्ति की समय-सीमा 2010-2012 तक के लिए आगे बढ़ा दी गई! भारत के इस एकमात्र युद्धपोत को अपने सेवा जीवन के अंत में व्यापक मरम्मत के साथ संचालित किया जा रहा है!
 
ख़रीदी की शर्तों पर मीडिया में रिपोर्ट छपी हैं और दावा किया गया है कि पुराने युद्धपोत के दाम तो भारत को चुकाने ही हैं, साथ ही भारत की अपनी ज़रूरतों के हिसाब से उस युद्धपोत में जो नवीकरण होगा उसका ख़र्च भी अलग से होने वाला है।
रूस को यह युद्धपोत साल 2008 में भारत भेजना था, किंतु सालों बाद भी वो अब भी रूस में है! हालाँकि उसके नवीकरण का बिल भारत को भेजा जा चुका है, जो 2.3 अरब डॉलर का बताया जाता है।
 
यानी, जो पुराना युद्धपोत 2008 में भारत में आना था उसके पीछे 2.3 अरब डॉलर ख़र्च हो चुके हैं और बावजूद इसके वो नियत समय पर भारत नहीं पहुँचा है! रूस का गोर्शकोव, या भारत का विक्रमादित्य सुदूर उत्तरी रूस में सेवमाश शिपयार्ड के पानी में तैर रहा है!
 
भारत के कैग (कॉम्प्ट्रॉलर एंड ऑडिटर जनरल) ने इस सौदे को उजागर किया है। जुलाई 2009 में कैग का रिपोर्ट संसद में पेश किया जा चुका है। नौ सेना ने प्रतिक्रिया देते हुए कहा है कि हथियारों की ख़रीदी का काम नौ सेना नहीं किंतु रक्षा मंत्रालय करता है।
 
कैग रिपोर्ट के कुछ निष्कर्षों से पता चलता है कि भारत गोर्शकोव नामक एक क्षतिग्रस्त युद्धपोत को ख़रीद रहा है, जिसे एक नए युद्धपोत की क़ीमत से भी अधिक क़ीमत पर पुनः तैयार किया जा रहा है, क्योंकि जनवरी 2004 में अनुबंधित होने के बाद से अब तक इसकी लागत बढ़ती ही जा रही है।

रूस अब और भी ज़्यादा की माँग कर रहा है। भारत और रूस के अधिकारियों की एक टीम बढ़ी हुई क़ीमत के साथ अनुबंध को फिर से तैयार करने पर काम कर रही है।
कैग ने निष्कर्ष निकाला है कि, "जहाज़ को समय रहते विमानवाहक पोत के रूप में शामिल करने का उद्देश्य विफल हो गया है, ताकि भारतीय नौ सेना की क्षमताओं में अंतर को पाटा जा सके।"
 
ऑडिटर्स ने लिखा है कि रक्षा मंत्रालय ने उनके साथ सहयोग नहीं किया! रक्षा सेवाओं के महानिदेशक (लेखा परीक्षा) गौतम गुहा ने कहा, "हमें सितंबर 2007 के बाद कोई दस्तावेज़ नहीं दिए गए और दस्तावेज़ों की फ़ोटोकॉपी करने की भी अनुमति नहीं दी गई।"
 
कैग रिपोर्ट में कहा गया है, "यह देखा जा सकता है कि भारतीय नौ सेना एक सेकेंड हैंड, रिफिटेड विमानवाहक पोत ख़रीद रही थी, जिसका जीवनकाल नए विमानवाहक पोत की तुलना में आधा था और वह 60 प्रतिशत अधिक महंगा था।"
 
द इकोनॉमिक टाइम्स की रिपोर्ट के मुताबिक़ जब इस जंग खा चुके युद्धपोत में भारत ने दिलचस्पी दिखाई तब इसके पुनर्निर्माण के लिए शुरू में तय 974 मिलियन डॉलर के निश्चित मूल्य अनुबंध के अतिरिक्त लगभग 2 बिलियन डॉलर (9,680 करोड़ रुपये) ख़र्च करने के लिए तैयार हो रहा है।

बोफोर्स का कथित धोटाला 1,437 करोड़ के रक्षा सौदे का विवाद था, जबकि एडमिरल गोर्शकोव की बारात का ख़र्चा ज़रूरत से कितना अधिक होगा इसकी पूरी जानकारी नहीं है। बता दें कि कैग ने अपने रिपोर्ट में सिर्फ़ इस युद्धपोत ही नहीं, बल्कि फ्रांसीसी मूल की स्कॉर्पियन पनडुब्बियों के ख़रीदी सौदे पर भी प्रश्नचिन्ह लगाया है और कहा है कि ख़रीद में अनियमितताओं के चलते इस परियोजना की लागत में 2,838 करोड़ रुपये का वृद्धि हुई।
द इकोनॉमिक टाइम्स ने सीएजी के एक वरिष्ठ अधिकारी के हवाले से लिखा है, "रक्षा मंत्रालय ने हमें गोर्शकोव के लिए पूरा सहयोग और दस्तावेज़ों तक पहुँच प्रदान नहीं की। जहाँ तक स्कॉर्पियन परियोजना का सवाल है, फ्रांसीसी विक्रेता को अनुचित पक्षपात और वित्तीय लाभ दिखाया गया।"
 
गोर्शकोव तथा स्कॉर्पियन के अलावा 66 ब्रिटिश हॉक एडवांस्ड जेट ट्रेनर (एजेटी) सैन्य विमान के बारे में ससंद में पेश की गई कैग रिपोर्ट में भी खामियों को दर्शाकर सवाल उठाए गए हैं।
 
2004 में नौसेना ने नए युद्धपोत की क़ीमत की तुलना गोर्शकोव से की थी। 40 साल की उम्र वाले और 8 साल में डिलीवर होने वाले इस युद्धपोत की क़ीमत में आश्चर्यजनक वृद्धि हो गई है, वह भी बिना डिलीवर हुए!
 
जब गोर्शकोव का अनुबंध किया गया था, तब एनडीए सरकार सत्ता में थी और जॉर्ज़ फ़र्नांडिस रक्षा मंत्री थे। हॉक एजेटी अनुबंध एनडीए सरकार ने 2004 के पहले किया था। इसके बाद यूपीए सरकारों में भी बढ़ी हुई क़ीमत के लिए बातचीत जारी रही, जब रक्षा मंत्रालय प्रणब मुखर्जी और एके एंटनी के पास था। स्कॉर्पियन परियोजना को यूपीए-1 के समय 2005 में अंतिम रूप दिया गया था।
 
कांग्रेस के राज में बोफोर्स का कथित घोटाला, बीजेपी के राज में ताबूत घोटाला, बराक मिसाइल घोटाला और फिर कांग्रेस काल में गोर्शकोव मामला या स्कॉर्पियन पनडुब्बियों का मसला। रक्षा संबंधित मामलों के विवाद या कथित घोटालों की सूची में यह एक नया पन्ना है। कांग्रेस और बीजेपी बारी बारी घोटाले करते हैं और बारी बारी एक दूसरे पर आरोप लगाकर हो-हल्ला मचाने की औपचारिकता भी निभा लेते हैं!
रूस और भारत के बीच हुआ गोर्शकोव युद्धपोत सौदा इससे संबंधित योजना की क़ीमत, लागत में बढ़ोतरी और डिलीवर में देरी को लेकर विवादों में है। पूरा मामला रूस द्वारा अनुबंध संबंधी समझौतों का पालन न करना और उसके सामने भारत की लाचारी को दर्शाता है।
 
कैग रिपोर्ट इस बात को रेखांकित करती है कि यह सार्वजनिक धन की बर्बादी की एक घिनौनी गाथा है, जिसमें दीर्घकालिक रणनीतिक योजना का संकेत तक नहीं दिया गया, चाहे सत्ता में कोई भी राजनीतिक दल हो।
 
रक्षा संसाधनों की ख़रीदी में देरी और लापरवाही के मामले को तत्काल ज़रूरत और गौरव करने लायक मौक़ा बताकर छिपाया जा रहा है। ऐसे में इस सौदे को लेकर उठ रहे तमाम सवालों के जवाब कभी नहीं मिल सकते।
 
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)