Ticker

6/recent/ticker-posts

Cultural Transformation: घर के ही लोगों ने बदल दिया हिंदू संस्कृति का चेहरा, सीताराम से जय श्री राम तक का सफ़र

 
सिर्फ़ मंदिरों का नवीनीकरण नहीं हुआ है, बल्कि हमारी हिंदू संस्कृति के चेहरे का, भाव-भंगिमाओं का, हमारे आराध्य देवों की छवि का भी अपनी अपनी मान्यताओं के मुताबिक़ नवीनीकरण हो गया है! जिसे हम सनातन धर्म कहते हैं, हमारे उस धर्म के मुख्य आराध्य देव शिव हैं, किंतु हिंदू संस्कृति अरसे से श्री राम के आसपास ठहर सी गई है! उपरांत, त्याग और मर्यादा के प्रतीक श्री राम की छवि भी अपनी मान्यता और सहूलियत के आधार पर बदल दी गई है। 'सीताराम' से 'जय श्री राम' तक का ये सफ़र यूँ तो गाहे बगाहे हुआ है, किंतु इस तरह कि इस सफ़र ने कितने मौलिक स्तंभ बदल दिए हैं, यह समझने का किसीको समय भी नहीं दिया गया!
 
प्रख्यात समाजशास्त्री आशीष नंदी ने अपने एक लेख (गॉड्स एंड गॉडसेस इन साउथ एशिया) में एक दिलचस्प जानकारी लिखी है। उन्होंने लिखा है कि जब महात्मा गाँधी एक बार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की 'शाखा' देखने गए, तो वहाँ महाराणा प्रताप और शिवाजी जैसे वीरों की तस्वीरें थीं, लेकिन राम की नहीं। गाँधीजी ने स्वाभाविक रूप से पूछा, "आपने राम का चित्र भी क्यों नहीं लगाया?" एक आरएसएस प्रतिनिधि ने उन्हें जवाब दिया, "नहीं, हम ऐसा नहीं कर सकते। राम हमारे उद्देश्य की पूर्ति के लिए बहुत ही 'स्त्रैण' हैं!"
 
यूँ तो बीजेपी को सत्ता तक पहुंचाने वाले आरएसएस तथा उससे जुड़े संगठनों ने मिर्ज़ापुरी लोटे के समान ख़ुद को बहुत बार इधर से उधर लुढ़काया है। स्वतंत्र भारत ने अपने राष्ट्रीय ध्वज के रूप में तिरंगे को चुना, तब इसका सबसे पहला विरोध आरएसएस ने ही किया था! यह कहकर कि तीन का आँकड़ा शुभ नहीं है, ये रंग शुभ नहीं है, वह रंग शुभ नहीं है! आरएसएस ने तिरंगे को अशुभ माना था और उसे राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में स्वीकार नहीं किया था यह स्थापित सत्य है। आरएसएस के अंग्रेज़ी अख़बार "ऑर्गनाइज़र" ने अपने 14 अगस्त, 1947 के अंक में यह लिखा था। इन्होंने तो राष्ट्रीय त्यौहारों पर सालों तक इसे फहराया तक नहीं था!
 
किंतु जैसे आरएसएस राम से दूर था, और फिर 1980 के बाद राम का इस्तेमाल कर मिर्ज़ापुरी लोटे की तरह लुढ़का, ठीक इसी तरह इसने तिरंगे को लेकर भी किया। आज हर आरएसएस का स्वयंसेवक छाती पर तिरंगा लगाना चाहता है, जिसका वे आधिकारिक रूप से अस्वीकार कर चुके थे!
 
यूँ तो जब ये संगठन नहीं थे, तब से ही गाँव गाँव में रामजी के मंदिर हुआ करते थे। त्याग, मर्यादा, न्यायिक समानता के प्रतीक श्री राम के ये मंदिर गाँव के बीचोबीच मुख्य स्थान बनकर खड़े हैं। जब इन संगठनों ने जन्म नहीं लिया था तब से गाँवों में सुबह-शाम राम आरती हुआ करती थी और होती भी है। किंतु अब रामजी मंदिर, जहाँ अर्थपूर्ण-भावपूर्ण राम आरती होती थी, जहाँ प्रेम से सब एक दूसरे को 'सीताराम' बोला करते थे, वहाँ अब माता सीता को किनारे कर नये ही भाव से ज़ोर-जोश से 'जय श्री राम' बोला जाता है। त्याग और मर्यादा के प्रतीक श्री राम ही नहीं, श्री हनुमान ही नहीं, भगवान शिव ही नहीं, किंतु लगभग तमाम आराध्य देवों की तस्वीरें, कहानियाँ, उनके मूल भाव, भंगिमा सब कुछ बहुत ही बदल चुका है!
यूँ तो जिसे पुरातन काल कहा जाता है उस काल की धार्मिक चीज़ जब भी धरती के भीतर से मिलती हैं, तब ज़्यादातर शिव, ब्रह्मा, विष्णु, आदि से संबंधित पाषाण प्रतिमाएँ भीतर से बाहर निकलती हैं। फिर कालखंड आगे बढ़ता है और अलग अलग राज्य, उसके अलग अलग धर्म, उसके विस्तार के बाद, जिसे मध्य काल कहा जाता है, उसमें इन प्रतीकों में विस्तार होता दिखता है। आज के आधुनिक काल में यह विस्तार अति के भी उस पार है!
 
एक ज़माने में, यूँ तो ये ज़माना बहुत पुराना भी नहीं है, जब अंग्रेज़ों का भारत के ऊपर अधिकार था तभी के कालखंड के दौरान, भारतवासियों को अपने अपने आराध्य देवों की तस्वीरें मिली थीं। इससे पहले शिव, विष्णु या ब्रह्मा आदि की पत्थरों से बनी प्रतिमाएँ होती थीं। किंतु चित्रकार राजा रवि वर्मा ने अंग्रेज़ व्यापारी के साथ मिलकर प्रिंटिंग प्रेस शुरू किया और हिंदू संस्कृति के देवों और देवियों की तस्वीरें बनाईं, प्रिंट की और बस तभी से, महज़ 150-175 साल पहले ही भारतवासियों ने किताबों में वर्णित किए गए उन देवों-देवियों को तस्वीरों में देखा। ग्रंथ, धार्मिक पुस्तक आदि में वर्णित प्रसंग, देवी, देवता के चित्र बने और घर घर में पहुंचे। राजा रवि वर्मा ने उन तस्वीरों के लिए किसे अपने सामने रखा था यह दावे या कहानियाँ भी अपने आप में विवादों का केंद्र बनी।

 
फिर तो हिंदू संस्कृति और उसकी मान्यताएँ अनेकों बार इघर से उधर होती रही। बहुत कुछ ऊंच नीच होता रहा। किंतु उस संस्कृति की किताबें, उनके आराध्य देव, उनके मूल भाव, आदि मोटे तौर पर वही रहे, जो पहले से स्थापित किए गए थे। किंतु फिर बीजेपी-आरएसएस और उनके संगठनों ने मिलकर, तथा दूसरी तरफ़ स्वामीनारायण संप्रदाय ने अपने तरीक़े से उसे तोड़-मरोड़ कर सारी चीज़ों को बहुत हद तक बदल दिया।
 
हिंदू संस्कृति के ही लोगों को 'सीताराम' से 'जय श्री राम' तक के सफ़र की मौलिकता का पता नहीं चल पाया! बीजेपी-आरएसएस ने सत्ता हथियाने और उनकी जो मान्यताएँ हैं उसे स्थापित करने हेतु हिंदू संस्कृति, उनकी मान्यताएँ, किताबें, ग्रंथ, प्रतीक, देव-देवियाँ आदि का उपयोग कर संस्कृति को 'सीताराम' से 'जय श्री राम' तक पहुंचा दिया! उधर स्वामीनारायण संप्रदाय ने अपनी असीम संपत्ति, असीम भक्तगण और इन दोनों के कारण उनकी सत्ता तक पहुंच, इन सबको मिलाकर उन मान्यताओं और किताबों को तोड़-मरोड़ कर अपनी एक नयी मान्यता, अपना एक नया इतिहास स्थापित कर दिया!
 
यूँ तो भले ही नयी पीढ़ी किताबों से दूर मानी जाती है, भले ही माना जाता हो कि ज़्यादातर भारत पुस्तकालयों से दूर रहता है, किंतु उनकी संस्कृति, उनकी मान्यताएँ, उनकी ज़िंदगी, इन्हीं किताबों के दम पर हुँकार भरती है! पुरातन काल से लेकर आधुनिक समय तक, स्वामीनारायण संप्रदाय के हालिया करतूतों तक, का कालखंड देखे तो, कोई भले एक किताब तक न पढ़ता हो, किंतु उनका चाल चरित्र उन ग्रंथों-किताबों के भीतर तक है!
एक तरफ़ स्वामीनारायण संप्रदाय हिंदू देवी-देवताओं के चित्र-चरित्र तोड़-मरोड़ कर हिंदू संस्कृति का इतिहास बदलने पर आमादा है। वे अपने अनेक पुस्तक प्रकाशित कर तमाम हिंदू देवी-देवताओं को उनके तथाकथित भगवान के भक्त, सेवक, दास या प्रशंसक के रूप में चित्रित करते हैं! दूसरी तरफ़ हिंदू संस्कृति का स्वयंभू रक्षक बन बैठा आरएसएस और उसके संगठन अपनी सहूलियत के हिसाब से तथा अपनी मान्यताओं के आधार पर इन आराध्य देवों या देवियों का रूप, रंग और ढंग भी बदल रहे हैं।
 
कभी श्री राम को अपने उद्देश्यों के पूर्ति के लिए स्त्रैण मानने वाला राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ अब श्री राम के आसपास स्वयं को रख रहा है! माता सीता, लक्ष्मणजी और हनुमानजी के साथ हल्की मुस्कान के साथ अभयमुद्रा वाली रामजी की जो छवि सदियों से भक्तों के चित्त को शांति देती थी, वह आरएसएस के लिए किसी काम की नहीं थी। फिर आरएसएस ने उस छवि को बदल कर भगवान राम को ही अपने उद्देश्यों की पूर्ति का ज़रिया बना लिया।
 
जो समाज माता सीता के बिना राम की कल्पना नहीं कर सकता था और सियाराम मय सब जग जानी में डूबता-उतरता था, उसकी जगह पोस्टरों में क्रोधित नज़र आने वाले ऐसे धनुष टंकार करते श्रीराम के दर्शन किए, जिसमें 'स्त्रैणता' की कोई छाया नहीं थी। कोमल संवेदनाओं की प्रतीक रहीं माता सीता की इस पोस्टर में तो कोई जगह ही नहीं बची! बिना किसी भेद के हाथ जोड़कर 'सीताराम' कहकर अभिवादन करने वाले समाज ने मुट्ठी तानकर उग्र स्वरों में जय श्रीराम का घोष सुना।

 
जीवन भर शादी नहीं करने वाले वाजपेयीजी प्रधानमंत्री निवास में राजकुमारी कौल को जगह दे गए और शादी करने के बाद भी पत्नी से दूर रहने वाले मोदीजी श्री राम की उन तस्वीरों से माता सीता को दूर कर गए! राजनीति ने समाज, उसकी मान्यता, आदि में घीरे धीरे ही सही, किंतु मज़बूती के साथ घुसपैठ की और फिर एक झटके के साथ उसे बदल भी दिया।
 
आशीष नंदी के उस लेख को हमने पहले ही चिन्हित किया है, जिसमें आरएसएस रामजी से किनारा किया करता था। और यह सच भी है, तथ्यात्मक है, कोई मिथक नहीं है। अयोध्या में राम मंदिर को लेकर क़ानूनी विवाद 1949 में शुरू हुआ, जब बाबरी मस्जिद में अचानक से मूर्तियाँ रख दी गयीं। उस दौर में भी  आरएसएस ने इस विषय को 'जोश से' या देश भर में 'योजनाबद्ध तरीक़े' से नहीं उठाया था, या 1951 में बने जनसंघ की भी इसमें कोई 'विशेष दिलचस्पी' नहीं दिखी थी! 1977 में जनता पार्टी मे विलय होने तक राम मंदिर का सवाल जनसंघ के मंच से कभी 'अग्रीमता' से नहीं उठा!
1980 में इंदिरा गाँधी के तूफ़ान के सामने जनता पार्टी की बुरी पराजय हुई और दोहरी सदस्यता के सवाल ने आरएसएस के प्रति प्रतिबद्धता न छोड़ने वालों को बाहर जाने को मजबूर कर दिया। उन्होंने भारतीय जनता पार्टी नाम से नया दल बनाया।
 
आरएसएस, जो कभी राम से किनारा किया करता था, जो तिरंगे (राष्ट्रीय ध्वज) को स्वीकार नहीं करता था, वह आज कितना बदल गया है, यह जगज़ाहिर है। आरएसएस मिर्ज़ापुरी लोटे की तरह लुढ़का तो उनके साये के तले पल-बढ़ रही बीजेपी कैसे नहीं बदलती?
 
आज बीजेपी की आधिकारिक वेबसाइट पर विचारधारा के रूप में गाँधीवादी समाजवाद ढूँढना मुश्किल है, लेकिन 6 अप्रैल 1980 को गठन के समय इसे ही पार्टी की मार्गदर्शक विचारधारा घोषित किया गया था! बीजेपी और संघ के नये बने लठैत इसे फ़ेक मान सकते हैं, लेकिन यह तथ्य है, सच है। 1984 के आम चुनावों में बीजेपी गाँधीवादऔर समाजवादजैसे संकल्पों के ज़रिए और उन दोनों वादों को अपनी विचारधारा बनाकर चुनावों में उतरी थी!
 
किंतु इंदिरा गांधी की हत्या और फिर उनकी तरफ़ उपजी सहानुभूति की लहर में लगभग पूरा विपक्ष बह गया। बीजेपी को सिर्फ़ दो सीटें मिल सकीं। यह 1952 में जनसंघ के पहले चुनाव में मिली तीन सीटों से भी ख़राब प्रदर्शन था। अटल बिहारी वाजपेयी जैसे दिग्गज भी चुनाव हार गए।
 
उसके बाद संघ और बीजेपी के भीतर सचमुच क्या हुआ, यह कहना मुश्किल है। किंतु दूसरी तरफ़ देश में, सत्ताधारी पार्टी कांग्रेस में, कुछ ऐसा हुआ कि फिर तो आरएसएस-बीजेपी और समाज, सभी का राजनीतिक चरित्र तेज़ी से बदलने लगा।
 
इस कालखंड के दौरान एक घटनाक्रम ऐसा हुआ, जिसका किसी राजनीति से, किसी धार्मिक मान्यता से, किसी मंदिर से, किसी मस्जिद से दूर दूर तक कोई लेना देना नहीं था। उस घटनाक्रम में शामिल रहे इंसान तक को तब पता नहीं होगा कि उसका मामला पूरे भारत वर्ष की राजनीतिक और सामाजिक तस्वीर बदल देगा।
वह मामला था शाहबानो का। नोट करें कि 1984 तक शाहबानो मामला याचिकाकर्ता के इलाक़े में भी कोई बड़ी चर्चा का विषय नहीं हुआ करता था। शहर, राज्य, देश, कांग्रेस, बीजेपी, हिंदू, मुस्लिम वगैरह तो छोड़ ही दें। शाहबानो का मामला तो दरअसल 1978 में शुरू हुआ था। 1984 तक तो यह किसी अख़बार या शहर के लिए भी कोई न्यूज़ नहीं था। यूँ कहे कि बहुत ज़्यादा लोगों को तो पता तक नहीं था इस मामले के बारे में। कहीं कोने में कभी कभार छपता रहता था, जिस पर कोई ध्यान भी नहीं देता था।
 
किंतु हमने जो घटनाक्रम 1980 से 1984 के बीच देखा, इसके बाद अचानक से यह मामला, 1984 के बाद केंद्र बनने लगा। मोहम्मद अहमद खाँ बनाम शाहबानो मामला, जो 1978 से शुरू हुआ था, 1984 के बाद भारत की राजनीति के बीच मुख्य मुद्दा बनने लगा। और इसके पीछे ज़िम्मेदार थी तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की अनुभवहीनता और घोर तुष्टिकरण की राजनीति।
 

शाहबानो इंदौर से थीं और वो 1978 में अपने मामले को अदालत में लेकर गई थीं। 1978 में उनके पति मोहम्मद अहमद खाँ ने उन्हें तलाक़ दे दिया। शाहबानो ने अपने पाँच बच्चों के लिए तथा स्वयं के भविष्य के लिए इसी साल तलाक़ को क़ानूनी चुनौती दी। सुप्रीम कोर्ट में उनका मामला 7 सालों तक चला। लेकिन तब तक यह अख़बारों या लोगों या राजनीति के लिए भी कोई मुद्दा नहीं था।
 
1980 से 1984 के बीच का जो राजनीतिक नज़रिया और परिणाम हमने देखा, उसी दौरान, यानी सन 1985 में इस अनछुए मुद्दे में सुप्रीम कोर्ट ने फ़ैसला दिया। फ़ैसला शाहबानो के पक्ष में आया। शाहबानो संवैधानिक लड़ाई जीत चुकी थीं। लेकिन उन्हें क्या पता था कि संविधान के सामने राजनीति और धर्म दोनों खड़े मिलेंगे। मुस्लिम समाज ने इस फ़ैसले का विरोध किया। ओल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का गठन तक हो गया और बोर्ड ने देशभर में आंदोलन चलाने की चेतावनी दे दी।
 
केंद्र में ऐतिहासिक बहुमत के साथ राजीव गांधी की सरकार विराजमान थी। अनुभवहीन राजीव गांधी ने मुस्लिम तुष्टिकरण और वोट बैंक की राजनीति को साधने हेतु मुस्लिम समाज के विरोध के सामने घुटने टेक दिए और एक साल में ही सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले तक को पलट दिया! सरकार ने एक नया क़ानून संसद में पारित कर दिया, जिससे सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला ही रद्द हो गया! शाहबानो क़ानूनी लड़ाई जीतकर भी हार गई!
मुस्लिम वोट बैंक को साधने के लिए राजीव गांधी सरकार ने अध्यादेश के ज़रिए सर्वोच्च न्यायालय के उस ऐतिहासिक फ़ैसले को कुचल डाला! लेकिन बात यहीं नहीं रुकी। बुरी तरह चुनाव हार कर कोने में बैठे बीजेपी जैसे विपक्षी दलों और आरएसएस जैसे संगठनों को सरकार को घेरने का मौक़ा मिल गया। वे राजीव गांधी की इस घोर मुस्लिम तुष्टिकरण राजनीति के सामने खड़े हो गए। शाहबानो का संवैधानिक मामला हिंदू बनाम मुस्लिम मुद्दे में तब्दील होने लगा!
 
अनुभवहीन राजीव गांधी ने एक और ग़लती कर दी। जब राजीव गांधी ने पाया कि उनकी सरकार ने अध्यादेश वाला जो कदम उठाया है उससे हिंदू वोट बैंक भी उनसे दूर हो सकता है, तब उन्होंने हिंदुओं को खुश करने की ठानी। आनन फानन में राजीव गांधी सरकार का एक और फ़ैसला आया। फ़ैसला यह था कि अयोध्या मुद्दे में मंदिर का ताला खोल दिया जाए।
 
1984-85 तक न तो शाहबानो मुद्दा देश के लिए कोई विषय था, न तो अयोध्या। किंतु राजीव गांधी के इस कृत्य ने भारत की राजनीति ही नहीं, बल्कि सामाजिकता और समरसता तक की दिशा और दशा बदल दी। भारत का सामाजिक और समरसता वाला ढांचा ध्रुवीकरण की ज़द में कुछ इस तरह फँसा कि फिर संकीर्णता के कुएँ से कोई निकल नहीं पाया।
 
हमने ऊपर लिखा है कि 1984 के चुनावों में बुरी हार के बाद आरएसएस और बीजेपी के भीतर सचमुच क्या चल रहा था, लिखा नहीं जा सकता। किंतु इस घटनाक्रम के बाद शायद बीजेपी ने उदारवाद का मुखौटा उतार देना ही बेहतर समझा। 1986 में वाजपेयी की जगह लालकृष्ण आडवाणी अध्यक्ष बनाए गए और 11 जून 1989 के हिमाचल प्रदेश के पालमपुर में हुई राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक में पार्टी ने अयोध्या में भव्य राम मंदिर बनाने का प्रस्ताव पारित कर दिया।
 
जिस विश्व हिंदू परिषद का आरएसएस के माध्यम से 1964 में गठन किया गया था, जिसने 23 मार्च 1983 तक अयोध्या या भगवान श्री राम में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई थी, उसने इसके बाद बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया।
और उसके बाद भारतीय राजनीति का सफ़र मंडल कमंडल के रास्ते से गुज़रता हुआ कहाँ पहुंचा यह लिखना ज़रूरी भी नहीं। रथ यात्रा का आयोजन हुआ। उस समय बीजेपी का मुख्य चेहरा माने जाने वाले अटल बिहारी वाजपेयी के सामने इस यात्रा का प्रस्ताव और पूरा खाँचा रखा गया। कुछ लेखों और किताबों में दर्ज है कि वाजपेयी ने प्रस्ताव सुन तपाक से कहा था कि मैं इस नौटंकी में शामिल नहीं होना चाहता। वाजपेयी किनारे हुए और आडवाणी सारथी बने।
 
एक मोटर को रथ की शक्ल देकर उसमें राम-जानकी की मूर्तियों को कैद दिखाया गया, ताकि हिंदुओं में आक्रोश पैदा हो। जो मुद्दा राजीव गांधी ने गरम कर दिया था, बीजेपी-संघ उसे भुनाने में लग गए। विपक्षी संगठनों ने बड़े पैमाने पर संत-महात्माओं को भी जोड़ा। अयोध्या, राम मंदिर, ताला जैसे विषयों पर प्रवचन होने लगे।

 
कुल मिलाकर, चुनावी बिसात पर लगातार मात खा रही बीजेपी ने इस मुद्दे को अपनी ताक़त बना लिया। मंडल और कमंडल का कालखंड भारत में शुरू हो गया। आडवाणी टोयटा ट्रक को रथ का रूप देकर सवार हुए। राजीव गांधी की ऐतिहासिक ग़लती के बाद बीजेपी-संघ की कोशिश यही थी कि राम मंदिर के मुद्दे पर ऐसा भावनात्मक उबाल लाया जाए कि जाति या भागीदारी का सवाल छोटा होने लगे।
 
सोमनाथ से अयोध्या तक की वो रथयात्रा, हिंदू गौरव की पुनर्स्थापना का आह्वान, बिहार में आडवाणी का गिरफ़्तार होना, वीपी सिंह की सरकार का गिर जाना। आडवाणी की गिरफ़्तारी के बाद कारसेवकों की भारी भीड़ का अयोध्या पहुंचना, निशाने पर बाबरी मस्जिद, यूपी के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव की सख़्ती, उग्र भीड़ को रोकने के लिए पुलिस द्वारा गोली चलाना, 16 कारसेवकों की मृत्यु।
 
उसके बाद 1991 के यूपी के विधानसभा चुनावों में कल्याण सिंह के नेतृत्व में बीजेपी का सरकार बनाने में कामयाब होना। राम मंदिर आंदोलन कार्यक्रम में राजनीतिक ताक़त में वृद्धि, सामाजिक सफलता और अंत में 6 दिसंबर 1992 को फिर कारसेवा का ऐलान, तमाम बड़े बीजेपी नेताओं की उपस्थिति में बाबरी मस्जिद का एक ढाँचा गिरा देना।
1984 के बाद से राजनीति ने जो करवट ली थी, उसने भारत की सामाजिकता, धार्मिक संस्कृति, क़ानून, संविधान, राजनीति, राजनीतिक दलों के चाल-चरित्र और विचारधारा, सबको उलट कर पूरी तस्वीर बदल दी! पूर्व राष्ट्रपति के. आर. नारायणन ने 6 दिसंबर 1992 की उस घटना को महात्मा गाँधी की हत्या के बाद आज़ाद भारत की दूसरी सबसे दुर्भाग्यपूर्ण घटना क़रार दिया।
 
बाबरी मस्जिद तोड़े जाने के बाद यूपी, मध्यप्रदेश, राजस्थान और हिमाचल की बीजेपी सरकारों को बरख़ास्त कर दिया गया। बीजेपी सिर्फ़ राजस्थान में वापसी कर पायी। यूपी, मध्य प्रदेश और हिमाचल में मुँह की खानी पड़ी। एक तरफ़ कांशीराम के नेतृत्व में आंदोलन चल रहा था, दूसरी तरफ़ हिंदी पट्टी में पेरियार मेले लग रहे थे। बीच में डॉ. आंबेडकर के साहित्य का बड़े पैमाने पर प्रसार हो रहा था। बीजेपी के पास इन सवालों का जवाब नहीं था। बीजेपी को यूपी में नये ढंग से सोशल इंजीनियरिंग करके अपने बलबूते सत्ता पाने में 25 साल लग गए! यूपी में 1991 के बाद 2017 में ही बीजेपी की सरकार अपने दम पर बन सकी!

 
इस बीच एक घटनाक्रम और भी है। 1987 में वीर बहादुर सिंह के मुख्यमंत्री रहते बिना मस्जिद को नुकसान पहुंचाये मंदिर बनने की योजना पर विश्व हिंदू परिषद के नेता अशोक सिंघल ने भी सहमति दे दी थी। लेकिन आरएसएस के तत्कालीन सरसंघचालक बाला साहब देवरस ने उन्हें डाँट लगाते हुए कहा था,
इस देश में 800 राममंदिर हैं, एक और बन जाए तो 801वाँ होगा। लेकिन यह आंदोलन जनता में लोकप्रिय हो रहा था। उसका समर्थन बढ़ रहा था, जिसके बल पर हम राजनीतिक रूप से दिल्ली में सरकार बनाने की स्थिति में पहुंचते। तुमने इसका स्वागत करके वास्तव में आंदोलन की पीठ में छुरा भोंका है।(अयोध्या: रामजन्मभूमि बाबरी मस्जिद का सच, पेज 110, लेखक-शीतला सिंह)
 
ये बताता है कि आएसएस राम मंदिर आंदोलन के ज़रिए मंदिर नहीं सत्ता पर कब्ज़ा करना चाहता था। इसीलिए उसने स्कंद पुराण में वर्णित अयोध्या के स्थलों को भी मानने से इंकार कर दिया, क्योंकि उसके अनुसार रामजन्म स्थान बाबरी मस्जिद के गर्भगृह में नहीं कहीं और निकल रहा था! न वह बातचीत से समझौता करने को तैयार था और न कोर्ट को ही मान्यता देता था! पालमपुर बैठक में भी उसने मंदिर के लिए अदालत का रास्ता अस्वीकार किया।
 
1984 से 1992 के दौर ने बहुत कुछ उलट पुलट ज़रूर किया, किंतु इस घटनाक्रम के बीच एक अचरज और भी था। राम मंदिर आंदोलन ने बीजेपी को विस्तार दिया, नयी पहचान दी, अधिक ऊर्जा दी, किंतु केंद्र में सत्ता नहीं दी!!! और यह अचरज 2019 तक अविरत चलता रहा। 1996 में समय तो वह भी आया जब हिंदू हृदय सम्राट बने आडवाणी को किनारे कर वाजपेयी को फिर से पार्टी का चेहरा बनाना पड़ा और 2004 तक सत्ता का स्वाद लिया। 2014 में विकास के नाम पर तथा भ्रष्टाचार के मुद्दे पर तथा 2019 में राष्ट्रवाद, भारत-पाकिस्तान और विकास, के मुद्दे पर सत्ता तक पहुंचे।
 
2010 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने विवादित स्थल को तीन भागों में बाँट कर सबको संतुष्ट किया, लेकिन मामला सुप्रीम कोर्ट में गया। आख़िरकार सुप्रीम कोर्ट ने 2019 में अपने फ़ैसले से पूरी जमीन राममंदिर पक्ष के हवाले कर दी। लेकिन इस फ़ैसले में यह भी कहा कि 22-23 दिसंबर 1949 को ज़बरदस्ती घुसकर मस्जिद में मूर्तियाँ रखी गयी थीं, बाबरी मस्जिद तोड़ना एक आपराधिक कृत्य था और बाबर द्वारा मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाने के कोई प्रमाण नहीं हैं।
दूसरी तरफ़ मंदिर आंदोलन चलाने वाले ही एक दूसरे पर मंदिर के लिए इकठ्ठा किए चंदे (दान राशि) में घपला, घोटाला और भ्रष्टाचार के आरोप लगाने लगे! श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट के महासचिव चंपत राय पर राम मंदिर के नाम पर इक्ठ्ठे किए गए पैसों को चंपत करने का आरोप इस आंदोलन में शामिल रहे प्रमुख दल ने ही लगाया! पूरे आंदोलन के प्रमुख चेहरे एक-एक कर किनारे कर दिए गए! यहाँ तक कि इनमें से कईयों को तो 22 जनवरी 2024 के कार्यक्रम में सम्मानित रूप से आमंत्रित भी नहीं किया गया!
 
इसी बीच 2024 में, प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम के महज़ कुछ दिनों पहले ही, ट्रस्ट के महासचिव चंपत राय ने यह कह कर सबको हैरान कर दिया कि, मंदिर रामानंद संप्रदाय का है, शैव, शाक्त और संन्यासियों का नहीं। प्राण प्रतिष्ठा हुई ही नहीं थी कि फिर से इसे उसी जाति, अधिकार और बपौती संपत्ति के बाड़े में कैद किया जाने लगा!

 
प्राण प्रतिष्ठा के भव्य कार्यक्रम से कुछ दिनों पहले ही चारों शंकराचार्यों ने कार्यक्रम के बहिष्कार की घोषणा की और प्रधानमंत्री द्वारा प्राण प्रतिष्ठा करने के कार्यक्रम पर सवाल उठाए।
 
देश के प्रमुख धर्म गुरुओं के विरोध की रिपोर्ट द हिन्दू अख़बार ने 17 जनवरी को प्रकाशित की। द हिन्दू के मुताबिक़ इन धर्म गुरुओं ने सार्वजनिक रूप से कहा कि, "वीएचपी जिस तरह से अयोध्या में 'अर्ध-निर्मित' राम मंदिर का उद्घाटन कराने की योजना बना रही है, वह सब सिर्फ़ 'राजनीतिक लाभ' लेने के लिए है। पूरे धार्मिक कार्यक्रम को राजनीतिक अखाड़ा बना दिया गया है। यह हिंदू मान्यताओं और परंपरा के विरुद्ध है।"
 
द हिन्दू के मुताबिक़ उत्तराखंड में ज्योतिष पीठ के 1008 शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती ने 16 जनवरी को दावा किया कि, "किसी भी मंदिर में निर्माण कार्य पूरा होने से पहले प्रवेश या अभिषेक नहीं हो सकता। फ़िलहाल अयोध्या में गर्भगृह का फर्श बन चुका है और उस पर खंभे खड़े हो चुके हैं। मंदिर का निर्माण पूर्ण रूप से नहीं हुआ है। ऐसी स्थिति में, प्राण प्रतिष्ठा हिंदू धर्म में परंपराओं के अनुरूप नहीं है।" - शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती, ज्योतिष पीठ उत्तराखंड 10 जनवरी 2024 सोर्सः द हिन्दू
यूँ तो हिंदू संप्रदाय में शंकराचार्य दूसरे संप्रदायों की तरह कोई पोप या ख़लीफ़ा नहीं है, किंतु शंकराचार्य की एक लंबी और मज़बूत परंपरा रही है। हिंदू संप्रदाय की सफ़रगाथा में शंकराचार्यों का स्थान ऊंचा है। क्योंकि गाथा के मुताबिक़ जो हिंदू संप्रदाय बौद्ध मत के आगे नतमस्तक था, जो सनातन समाज बिखर गया था, उसे एकजुट करके नए दर्शन की स्थापना करना तथा देश के चारों कोनों में मंदिर की स्थापना करने का श्रेय शंकराचार्यों को जाता है।
 
किंतु अब हिंदू संस्कृति अपना पूरा चाल और चरित्र बदल चुकी थी। जिस हिंदू संप्रदाय में शंकराचार्य अति सम्मानीय और ऊंचा आसन माना जाता था, वहाँ अब इन शंकराचार्यों का यह विरोध बहुत कुछ प्रभाव जमा नहीं पाया! हालात तो यह बने कि इन शंकराचार्यों के प्रवक्ताओं को या इनके किसी प्रतिनिधि को शंकराचार्यों द्वारा किए गए बहिष्कार को आधा झूठा, आधा सच, तोड़ा-मरोड़ा वगैरह बताकर चुप रहना पड़ा!

 
इंदौर के मेयर पुष्यमित्र भार्गव ने दुकानों, रेस्टोरेंटों, मॉलों या ऐसे संस्थानों में राम मंदिर की प्रतिकृति लगाने का फ़ैसला सुना दिया। भार्गव ने तो चेतावनी ही दे डाली कि यदि किसी ने (जिसमें हिंदू ही थे) प्रतिकृति नहीं लगायी तो इंदौर की जनता उनको भी जवाब देना जानती है। देश भर के अनेक राज्यों के स्कूलों, कॉलेजों में शिक्षा का कार्य रोकने के बाद उधर दिल्ली के एम्स ने तो प्राण प्रतिष्ठा के दिन अस्पताल में छुट्टी घोषित कर दी! बहुत बवाल मचा, विरोध हुआ तो एम्स ने छुट्टी का फ़ैसला वापस लिया।
 
वैसे भी सब कुछ धार्मिक न होकर राजनीतिक ज़्यादा रहा। केवल आस्था का यज्ञ होता तो जो आक्रोश और सनक सड़कों पर भगवे झंडे के साथ निकलने वाले युवाओं में दिखी, वह नहीं दिखती। अगर यह आस्था का पल होता तो धार्मिक गुरु ज़्यादा दिखते, राजनेता और सेलेब्स कम। पूरे कार्यक्रम को महीनों पहले ही नरेंद्र मोदी केंद्रित बनाने का आयोजन सार्वजनिक रूप से चर्चा में आ चुका था। ख़राब स्वास्थ्य और बढ़ती उम्र के बहाने उन लोगों को किनारे कर दिया गया, जिन्होंने बीजेपी, संघ और राम मंदिर, सभी को इस मुकाम पर पहुंचाया था! पूरे आयोजन में सिर्फ़ भगवान श्री राम और नरेंद्र मोदी, दोनों की रौनक बनी रहे यह इंतज़ाम महीनों पहले से चला और सफल भी हुआ।
 
एक शंकराचार्य ने पूछा कि, "नव निर्मित मंदिर में राम लला की नयी मूर्ति क्यों लगाई जा रही हैं? वह राम लला कहाँ गए जो ख़ुद प्रक्ट हुए थे?" इन्होंने अघूरे मंदिर को 'दिव्यांग मंदिर' कह संबोधित किया। उँचे पद पर बैठे धार्मिक प्रतिनिधियों के मुताबिक़ मंदिर पूरा नहीं बना था और अधूरे मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा अधर्म है। फिर भी प्राण प्रतिष्ठा हो ही गई!
एक तरफ़ हिंदू धर्म शास्त्रों के जानकार कह रहे थे कि यह समय किसी मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के लिए शुभ नहीं है, 25 तारीख़ को पूस माह की पूर्णिमा है, तब तक इस तरह का धार्मिक आयोजन नहीं हो सकता। लेकिन फिर भी हो गया!
 
इससे पहले सन 2022 के दिसम्बर माह में मोदी सरकार ने संसद में देश को यह बताया कि रामसेतु होने के अब तक कोई पुख़्ता प्रमाण नहीं हैं! 23 दिसम्बर 2022 को यह ख़बर कुछ प्रमुख अख़बारों में छपी भी। पृथ्वी विज्ञान मामलों के मंत्री जितेंद्र सिंह ने राज्यसभा में कहा कि रामसेतु की उत्पत्ति से संबंधित कोई सबूत नहीं मिले हैं। उधर आरएसएस ने अपने एक बड़े प्रदर्शन में गुजरात के 200 व्यक्ति विशेष की सूची प्रदर्शित की, जिसमें मोहम्मद अली जिन्ना भी शामिल थे! थोड़ा बहुत विवाद हुआ। इससे पहले संघ प्रमुख मोहन भागवत एक पुस्तिका का विमोचन कर गए, जिसमें महात्मा गाँधी को सबसे बड़ा हिन्दू देशभक्त बताया गया! कुल मिलाकर, वाणी और वर्तन कहीं से भी मेल नहीं खा रहे थे इन दिनों।
 
इस वातावरण में माता सीता की कम उपस्थिति, भगवान श्री राम का चरित्र बदलाव, राम दरबार का जो पुराना चित्र है उसे बदलना, आदि को लेकर धार्मिक गुरुओं के विरोध को कौन सुनता या समझता भला?
 
वैसे भी धार्मिक गुरु भी अरसे से राजनीतिक विचारों और राजनीतिक पार्टियों के बीच बँटे हुए हैं! कोई कांग्रेस की तरफ़ झुका हुआ है, कोई बीजेपी की तरफ़! क्या पता, धार्मिक गुरुओं का यह समर्थन या यह विरोध, सब कुछ धार्मिक न होकर, राजनीतिक ही हो!
 
कुल मिलाकर, जिन आराध्य देवों या देवियों की छवियों को देख भक्तों के चित्त में युद्ध का घोष नहीं, शांति का शंख बजता था, वह पूरी तरह बदल दी गई हैं! महात्मा गाँधी, सरदार पटेल और शहीद भगत सिंह को जुदा कर लोगों को गोडसे सरीखे बनाने वाली राजनीति ने शिव, ब्रह्मा और विष्णु ही नहीं, उनके विध विविध अवतारों को ही नहीं, समूची संस्कृति की आत्मा, सोच, मान्यताओं, चाल, चरित्र, किताबें, सब को बदलने में बहुत हद तक सफलता पायी है। कहते हैं कि परिवर्तन ही संसार का नियम है। शताब्दियों से यह सब कुछ अलग अलग शासकों के काल में बदलता आया है, स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद भी बदल रहा है।
 
जिस संप्रदाय के ग्रंथ और संस्कृति, वाद-विवाद, तर्क-वितर्क, चर्चा वगैरह को तरजीह देते थे, वहाँ अब, या तो आप साथ हैं या ख़िलाफ़ है, वाला चरित्र स्थायी हो चुका है! पिछले 75 साल का एक सच यह भी है कि जब देश आगे रहा और धर्म उसके पीछे, तब वह भारत कहलाया। और जब इससे उलटा हुआ तब वह पाकिस्तान कहलाया।
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)