पप्पू... फेंकू... खुजली। भारत के वर्तमान
राजनेताओं की यही कमाई है और हम नागरिकों की समझ का यही उत्तम नमूना है। यह कमतर
राजनेताओं का दौर है। यह छगन और मगन जैसे नेताओं का दौर है, जहां छगन कहता है कि मगन
ने तो 100 किलोग्राम के काले काम किए थे, हमने तो 90 किलोग्राम ही किए हैं। दूसरों से 10 किलोग्राम कम किए है इसका गर्व व्याप्त है। पप्पू, फेंकू और खुजली के इस दौर
में भारत विश्वगुरु बनने का सपना भी देख लेता है, क्योंकि हैप्पीनेस इंडेक्स में हमें
दूसरों से आगे निकलना है।
किसीको भारत में पैदा होने में शर्म आती है, कोई भारत
में ही पैदा हो गया इसकी शर्म भारत को आती है। एक गजल की पंक्ति है कि तबाह होकर भी
तबाही दिखती नहीं, यह इश्क है हुज़ूर, इसकी दवा कहीं बिकती नहीं। देश में लोगों के मनोरंजन
के लिए वॉटर पार्क, सर्कस, एम्यूजमेंट पार्क वगैरह बनाए जाते थे, आज मनोरंजन उपलब्ध
करवाने का यह काम हमारे नेता ही कर देते हैं। दुनिया की राजनीति का पता नहीं, लेकिन
हमारे यहां राजनीति में जब लंबी पारी का इरादा हो तो सरपट दौड़ कभी काम नहीं आती। यहां डॉ. आंबेडकर भी चुनाव हारे, उस दौर से लेकर हाल ही में इरोम शर्मिला भी थैंक्स फॉर 90 वोट्स कहकर लोगों के सामने हार गई। हमारे यहां कुर्सी पर लंबे समय तक चिपकना हो
तो फिर दौड़ सीधी नहीं बल्कि टेढ़ी ही लगानी पड़ती है। यहां सिद्धांत और विचारधारा के आधार
पर खुद को उभारना पड़ता है और फिर उन्हीं सिद्धांतों और विचारधाराओं को गड्ढा करके
दफनाना भी होता है। आज का भारत इस कमतर राजनीति के शिखर बिंदु तक पहुंचने की सफल
कोशिश करता नजर आता है। ज्यादा वक्त ना गंवाते हुए हम मजबूर सरकार और यू-टर्न
सरकार के इस कमतर दौर को देख लेते हैं।
हम पहले आज के दिनों की बात करते हैं। राहुल गांधी और
मनमोहन सिंह वाला दौर तो हमने पहले देखा है। फिर उसे लिखा भी है। उनके आर्टिकल
लिखते वक्त पूरा पेज घोटालों के नाम लिखने में ही खर्च कर देना पड़ता था। अरविंद
केजरीवाल जनलोकपाल आंदोलन से उभरे और फिर जनलोकपाल को ना ही केजरीवाल याद कर रहे
है और ना ही अन्ना। हम इतिहास में बिजी रहने के बजाय वर्तमान से ही शुरुआत करते हैं।
नरेन्द्र मोदी का सफरनामा.... 2014 – कांग्रेस ने
कुछ नहीं किया हमें मौका दो, 2019 – कांग्रेस ने कुछ नहीं करने दिया, हमें दोबारा मौका
दे दो
राहुल गांधी, सोनिया गांधी, अरविंद केजरीवाल, लालू
प्रसाद यादव, अखिलेश यादव, तेजस्वी यादव, मायावती, ममता बनर्जी, शरद पवार, उद्धव
ठाकरे, राज ठाकरे, चंद्रबाबू नायडू से लेकर कई सारे तत्पर जनसेवक हैं हमारे यहां।
सूची लंबी है इसकी। इस सूची में से 2014 में एक जनसेवक सभी से आगे निकल गया। इस
जनसेवक की ‘सेवा तत्परता’ देखकर लोगों ने इसे चुना। यही सोचकर कि यही है वो
फरिश्ता... जो विश्वगुरु बनाएगा हमें, सोने की चिड़िया आसमान में उड़ेगी। 15 लाख की
लालच तो नहीं थी, लेकिन आश थी कि अब सारी परेशानियों का अंत होगा। बस विकास होगा।
विकास के अलावा कुछ नहीं होगा। विकास हो ना हो, वो तो नहीं होगा जो कांग्रेस वाली
सरकार करना चाहती थी। बहुत कुछ सपने देखे थे देश ने। वैसे यहां ये नोट करना होगा कि
देश ने तो इतने ज्यादा सपने देखे नहीं थे। कांग्रेस से परेशान हो चुके देश को किसी
अवतारी नेता ने होलसेल में सपने बेच दिए। सपनों को पंख निकल आए और फिर उन्हें विश्वगुरु
बनाने का जिम्मा दे दिया। लेकिन ‘विश्वगुरु’ बनाने वाले तो ‘गुरु’ निकले!!! लगा कि गलती से इन्होंने कांग्रेस का मेनिफेस्टो पकड़ लिया क्या? काम वही जो कांग्रेस वाली सरकार करना चाहती थी! 2014 में
कांग्रेस ने कुछ नहीं किया यही सुनकर हमने उन्हें कुछ करने के लिए चुन लिया। लेकिन
फिर उन्होंने वही किया जो कांग्रेस ने करना चाहा था। 2014 में कांग्रेस ने कुछ नहीं किया से 2019 में कांग्रेस ने कुछ नहीं करने दिया तक का इनका सफर
स्मशान-कब्रिस्तान-रमजान-हनुमान के इर्द-गिर्द घूमता रहा! इनके बारे में
एक वाक्य में लिखना हो तो यही लिखना पड़ेगा कि – इन्होंने अपने स्टैंड से सफलतापूर्वक
संपूण रूप से हटकर काम किया। कांग्रेस ने कुछ नहीं किया है हमें मौका दो... से लेकर
कांग्रेस ने कुछ नहीं करने दिया हमें दोबारा मौका दे दो, तक का सफर!!!
लोग राहुल गांधी को पप्पू कहते हैं, अरविंद केजरीवाल
को खुजली। लेकिन इसी सत्यता के साथ एक कड़वी बात यह भी समझ आती है कि लोग नरेन्द्र
मोदी को फेंकू कहते हैं। राहुल गांधी किसी संवैधानिक पद पर नहीं है (आना चाहते हैं यह
बात और है), केजरीवाल एक सूबे के सीएम है और नरेन्द्र मोदी देश के पीएम। सभी को जो
खिताब मिले हैं उनकी कार्यशैली से मिले हैं ऐसा मत सोशल मीडिया पर व्याप्त है। सभी
को जो खिताब मिले हैं उनमें पीएम को ऐसे नाम से पहचाना जाए तो यह बात वाकई
आपत्तिजनक है। इसीलिए मैंने पहले लिखा कि ऐसे नामकरण हम नागरिकों की समझ कितनी
गटरछाप है उसका उत्तम नमूना है। यदि आप कहते हैं कि हम नागरिकों की समझ तो श्रेष्ठ
है, तो फिर मुझे मानना पड़ेगा कि यही इन नेताओं की कमाई होगी।
2014 में सरकार बनने के बाद पहले 100 दिनों में ये कर
दूंगा, वो कर दूंगा... ये नहीं हुआ तो फांसी पर चढ़ा देना, लात मार के फेंक देना,
मारना है तो मुझे मारो उन्हें नहीं, हम तो फकीर है झोला उठाकर चल पड़ेंगे... ये सब सार्वजनिक दौर है। पहले 100 दिनों में ही
एनडीए सरकार को यू-टर्न सरकार का तमगा मिल चुका था। नोटबंदी में 50 दिन वाला दौर भी
आया था। 50 दिनों बाद सपनों का भारत होगा वाला ‘फिल्मी संवाद’ भी देश ने देखा। यू-टर्न सरकार से आगे जाकर कुछ और
नामकरण मिलना लाजमी था। हमें 100 दिन दे दीजिए। 100 दिन दिए और फिर लोगों ने हिसाब
मांगा तो संवाद आया कि जिन्होंने 60 साल तक हिसाब नहीं दिया वो हमसे 60 दिनों का
हिसाब मांग रहे हैं!!! जुमलेबाजी... यह लफ्ज़ कमजोर विपक्ष ने नहीं दिया, बल्कि नरेन्द्र
मोदी, अमित शाह और नितिन गडकरी के बयानों से सरकार के कामकाज पर चिपक गया। सवाल उठे
तो जवाब नहीं आए, बल्कि उल्टे सवाल ही आए। कांग्रेस के काले कामों ने देश को उस वक्त
भी परेशान करके रखा था, लेकिन गजब तो देखिए। आज कांग्रेस की सरकार नहीं है फिर भी
कांग्रेस देश को परेशान कर रही है!!! किसी भी कथित घोटाले, कथित भ्रष्टाचार, गंभीर सवाल
पर एक ही रिटर्न गिफ्ट मिलती है कि कांग्रेस ने भी तो यही किया था। छगन ने तो 100
किलोग्राम के काले काम किए थे, हमने तो 90 किलोग्राम ही कम किए हैं। 10 किलोग्राम
की यह कमी ही प्रचार और प्रसार का हथियार बनी हुई है। पूर्व सरकारों के गुनाह नयी
सरकारों के लिए आर्शीवाद होते हैं। कांग्रेस ने कुछ नहीं किया हमें मौका दे दो... से
लेकर कांग्रेस ने कुछ नहीं करने दिया हमें दोबारा मौका दे दो... तक का सफर।
100 दिनों में काला धन वापस लाएंगे... से लेकर... हमें नहीं पता कि
कितना काला धन है ! कानून आया लेकिन काला धन नहीं
काला धन मामले में यूपीए को घेरते हुए भाजपा ने वादा किया था कि अगर उसकी सरकार
बनती है तो 100 दिन के अंदर काला धन विदेशों से भारत लाया जाएगा। कहा गया था कि विदेश
में इतना काला धन है कि अगर वो धन वापस आया तो हर गऱीब को 15-20 लाख रुपए तो यूं ही मिल जाएंगे।
हम 100 दिनों के अंदर काला धन वापस लाएंगे। हालांकि पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने बाद
में इसे महज एक चुनावी जुमला बता दिया।
शायद ही कोई ऐसी चुनावी
रैली हो जिसमें नरेंद्र मोदी ने कालेधन के मुद्दे पर कांग्रेस और यूपीए सरकार को न
घेरा हो। उन्होंने देश की जनता से वादा किया था कि वो सौ दिनों के भीतर विदेशों में
जमा कालेधन को वापस लाएंगे। हालांकि सत्ता में आने के बाद उनकी पार्टी के अध्यक्ष ने
इसे महज एक चुनावी जुमला करार दे दिया!!! कमजोर हो चुका विपक्ष इस मुद्दे पर कुछ खास कर
नहीं पाया, लेकिन भीतर से ही विरोध की आवाजें उठी। कभी एनडीए सरकार में कानून मंत्री
रहे राम जेठमलानी ने तो संसद से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक सरकार को इस मसले पर घेरा। रामदेव
सरीखे मोदी समर्थकों को भी इस मसले पर तीखे सवालों का सामना करना पड़ा। चारों तरफ से
घिरते देख सरकार ने इससे होने वाले राजनीतिक नुकसान की भरपाई के लिए नए कानून का दांव
चला और उसे संसद में पास भी करा लिया। भले ही सरकार कानून ले आई हो लेकिन विदेशों
में जमा कालेधन को वापस लेने की उसकी नीयत पर अब भी शंका बनी हुई है। सुप्रीम कोर्ट
की निगरानी में बनी एसआईटी के बावजूद सरकार इस मसले पर अब तक कानूनी दांव-पेंचों को
जरिये केवल टाल-मटोल करती ही नजर आ रही है।
सुप्रीम कोर्ट में
इस मसले पर सुनवाई के दौरान राम जेठमलानी ने तो यहां तक कह दिया कि केंद्र सरकार देश
के साथ धोखा कर रही है। जेठमलानी ने कहा कि, “काले धन के मामले में फंसे नेताओं के खिलाफ कार्रवाई करने की मंशा सरकार में नहीं
दिख रही है, क्योंकि उनमें से बहुत लोग ताकतवर हैं और सत्ता के करीब भी। इस सरकार ने भी उन्हीं
अधिकारियों को उस पद पर बनाए रखा जो पिछली सरकार में काला धन लाने में रोड़ा थे।” काले धन के नाम पर कई सारी कार्रवाईयां हुई, कई घोषणाएँ हुई, योजनाएँ आई, नये
वादे हुए। लेकिन ना ही कांग्रेस की मंशा साफ थी, ना ही एनडीए की मंशा साफ रही।
काला धन तो वापस नहीं आया, बल्कि जाने की रफ्तार बढ़ी ज़रूर थी!!! ग्लोबल फाइनेंशियल इंटेग्रिटी
(जीएफआई) द्वारा मई 2017 में प्रकाशित किए गये एक रिपोर्ट के मुताबिक साल 2014 में 21
अरब डॉलर, यानी कि 1,36,000 करोड़ का काला धन विदेशों में चला गया था। वित्त मंत्री अरुण
जेटली ने 21 मार्च 2017 को राज्यसभा में कहा कि, “घरेलू और विदेशों में जमा काले धन की राशि के बारे में कोई सरकारी अनुमान नहीं
है तथा इस संबंध में जो विभिन्न अनुमान लगाए गए हैं उनमें एकरूपता और विश्वसनीयता की कमी है।” काले धन पर बहुत कुछ हुआ, लेकिन फिर भी कुछ नहीं हो पाया! इतना ही नहीं, इन्हीं दिनों पनामा पेपर्स
कांड हुआ। कई बड़े नाम उछले। दुनिया में भी यह कांड छाया रहा। पाकिस्तान के तत्कालीन
प्रधानमंत्री को पद से बेदखल कर दिया गया। जब भारत में भी ऐसी सख्त कार्रवाई करने
की मांग उठी तो वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा कि, “पनामा पेपर्स के कथित घोटाले की जांच हो रही है। किंतु इस मामले में भारत सरकार
पाकिस्तान का संदर्भ नहीं लेगी। लीक हुए तमाम खातों की जांच की जाएगी। किसी का कसूर
साबित होता है तो उसके खिलाफ कार्रवाई किये बिना उन्हें सजा नहीं दी जाएगी। हमारे
यहां कानून का शासन है। पड़ोसी मुल्क की तरह कदम नहीं उठाएंगे।” पनामा पेपर्स का क्या हुआ कोई नहीं जानता। इतना पता है कि अपने वैचारिक विरोधियों को बिना कार्रवाई और बिना सबूत सजा देने की प्रवृत्ति जोरों पर थी। इसके बाद काले धन के खात्मे के नाम
पर नोटबंदी का दौर भी आया। पनामा पेपर्स हवा हो गया। नोटबंदी का हाल बेहाल हुआ।
फिर पैराडाइज पेपर्स भी आया। कई सारी चीजें हुई, विदेशी खाते, पुरानी संधियां, नयी
संधियां, फर्जी कंपनियां, फर्जी खाते, कंपनियों की सूची, नये आंकड़े आए, नोटिसे दी
गई, जांच शुरू होने के एलान हुए। लेकिन इसका नतीजा अब तक कुछ नहीं निकला है।
बाबा कम और बिजनेसमैन ज्यादा रामदेव महाराज ने कहा
था कि, “मोदीजी से काला धन वापस लाने के लिए लिखित समझौता
हुआ है।” पांच साल बीतने को आए, लेकिन रामदेवजी भी समझौते का
ज़िक्र नहीं करते। उन्होंने भी सोचा होगा कि काला धन जाये भाड़ में, बस तेल-साबुन-क्रीम
बिक जाए!!!
अरविंद केजरीवाल की तरह ही नरेन्द्र मोदी और अमित
शाह जैसे नेता भी काला धन कितना फंसा पड़ा है उसके आंकड़े दिया करते थे। पहले 100
दिनों में काला धन वापस नहीं ला पाया तो मुझे फांसी पर लटका देना। लेकिन फिर वित्त
मंत्री बन चुके अरुण जेटली ने लोकसभा से कहा कि, “काले धन को वापस लाना मुश्किल है।” एनडीए के एक
सांसद ने कह दिया कि, “इस जनम में काला धन वापस नहीं आ सकता।” सरकार ने तो एलान ही कर दिया कि, “कितना काला धन है हमें नहीं पता।” कानून बनाया
गया और कानून का गजब देखिए। कानून बनाकर लोगों से ही पूछा गया कि बता दीजिए, आपके
पास कितना काला धन है!!!
आखिरी सांस तक एफडीआई का विरोध करेंगे... से लेकर... एफडीआई से
विकास के रास्ते खुलेंगे ! भारत बंद बुलाने वाली
बीजेपी अब एफडीआई की तरफदार
2014 से पहले
एफडीआई को भाजपा ने राक्षस सरीखा बताया था। देश को बताया जाता था कि एफडीआई लागू
होने से छोटे छोटे व्यापारियों के व्यापार खत्म हो जाएंगे। यूपीए शासन के दौरान
मुख्य विपक्षी पार्टी भाजपा ने एफडीआई को किसी दानव के रूप में पेश किया था। एफडीआई
को हर क्षेत्र में देशविरोधी बताया गया था। विरोध करने में माहिर भाजपा ने सड़क से
लेकर संसद तक एफडीआई को घेर कर रखा था।
नरेंद्र मोदी ने कहा
था कि, “कांग्रेस देश को विदेशियों के हाथों में सौंप रही है।” पार्टी ने 2012 में इस मुद्दे पर सरकार को पीछे धकेलने के लिए महाबंद भी बुलाया
था। उस दौरान नितिन गडकरी ने कहा था, “यह एक शुरुआत है, हम तब तक संघर्ष करेंगे जब तक सरकार कदम वापस नहीं खींच लेती।” अरुण जेटली ने कहा था कि, “भाजपा आखिरी सांस तक एफडीआई का विरोध करेगी।”
बीजेपी के नेता 20 सितंबर 2012 की वो
तारीख शायद भूल चुके होंगे जब उन्होंने एफडीआई के विरोध में भारत बंद बुलाया था। उमा
भारती भी शायद भूल चुकी होगी, जिन्होंने कहा था कि वो सबसे पहली शख्स होंगी जो वॉलमार्ट
की दुकान में आग लगाएगी। सुषमा स्वराज को शायद याद न हो लेकिन लोकसभा की कार्यवाही
में रिकॉर्ड है कि भारत बंद के कुछ हफ्तों बाद तब की विपक्ष की नेता एफडीआई के खिलाफ
संसद में प्रस्ताव लेकर आई थीं।
7 मार्च 2013 को तत्कालीन
भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने खुदरा कारोबारियों की तरफ से दिल्ली के रामलीला मैदान
में आयोजित सम्मेलन में कहा था कि, “अगर भाजपा सत्ता में आती है तो मल्टीब्रांड रिटेल में एफडीआई की अधिसूचना को वापस
ले लिया जाएगा।” मल्टीब्रांड रिटेल में एफडीआई के विरोध में
अरुण जेटली, मुरली मनोहर जोशी सरीखे वरिष्ठ नेता संसद में अपनी आवाज बुलंद कर चुके थे। यहां
तक कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी मल्टीब्रांड रिटेल में एफडीआई के विरोध में
14 सितंबर 2012 को ट्वीट किया था। यूपीए सरकार के दौरान इस मसले पर बीजेपी ने संसद
की कार्यवाही को कई दिनों तक बाधित किया था।
अब भाजपा के नेतृत्व
वाली सरकार मल्टीब्रांड रिटेल में एफडीआई के पक्ष में आ गई थी। डिपार्टमेंट ऑफ इंडस्ट्रियल
पॉलिसी एंड प्रमोशन (डीआईपीपी) की तरफ से जारी प्रेस सर्कुलर में मल्टीब्रांड रिटेल
में 51 फीसदी एफडीआई को जारी रखा। सर्कुलर में कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार
की तरफ से मल्टीब्रांड रिटेल में 51 फीसदी एफडीआई की इजाज़त को लेकर जो भी नियम व शर्तें
तय की गई थीं, उनमें कोई बदलाव नहीं किया गया। मोदी अब 49 प्रतिशत के कैप को भी भूल चुके थे।
10 जनवरी 2017 के दिन कैबिनेट ने एयर इंडिया समेत भारतीय एयर लाइन कंपनियों में 49
फीसदी विदेशी निवेश का रास्ता साफ कर दिया!!! इसीके साथ सिंगल ब्रांड रिटेल ट्रेडिंग
में 100 फीसदी विदेशी निवेश को हरी झंडी दे दी!!!
कमाल
की बात यह थी कि संसदीय समिति ने अपनी रिपोर्ट में एयर इंडिया में विनिवेश नहीं
करने की सिफारिश की थी, लेकिन सरकार ने यू-टर्न का जैसे कि फैसला ही ले लिया था।
उसने संसदीय समिति की रिपोर्ट को भी नहीं माना था!!! नेता तो ठीक है, सन्यासी कहे जाने वाले
रामदेव महाराज ने भी कहा था कि, “एफडीआई में 80 फीसदी काला
धन होता है।” अब वो अपने इस बयान को ना ही सच कहते हैं और ना ही झूठ! सच
माने तो क्या क्या माने और झूठ माने तो रामदेवजी को क्या माने?
एफडीआई
पर सीएम नरेन्द्र मोदी के ट्वीट थे, जिसमें वे एफडीआई से रोजगार को बुरा असर, छोटे
व्यापारियों के व्यापार का खात्मा और मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर को झटका वाले ज्ञान दे
रहे थे। अरुण जेटली ने कहा था कि आखिरी सांस तक भाजपा एफडीआई का विरोध करेगी। उमा
भारती ने तो विदेशी दुकानों में आग लगाने की बात कही थी। भाजपा के अनुसार कांग्रेस
एफडीआई के जरिए देश विदेशियों के हाथों में सौंप रही थी। लेकिन फिर कांग्रेस का ही
मेनिफेस्टो लागू हो गया!!! लेकिन लागू करने वाली कांग्रेस नहीं, बल्कि स्वयं भाजपा ही
थी!!!
भारत में कभी सफल नहीं हो सकता जीएसटी... से लेकर... जीएसटी देश को
तरक्की के रास्ते पर ले जाएगा ! यूपीए लाए तो खराब, एनडीए लाए तो अच्छा
मोदी सरकार के
कार्यकाल में जीएसटी पर यू-टर्न से ज्यादा विचित्र था जीएसटी को लागू करने का
तरीका। आजाद हिंदुस्तान के इतिहास में अब तक केवल तीन बार आधी रात को संसद का
विशेष सत्र बुलाया गया था। जब आजादी मिलने जा रही थी तब, आजादी की 25वीं सालगिरह पर
और आजादी के 50 वर्ष पुरे होने के मौके पर। तीनों मौके वाकई ऐतिहासिक थे। लेकिन
मोदी सरकार ने तो जीएसटी लागू करने के लिए आधी रात को संसद का विशेष सत्र बुला
लिया, वो भी उस जीएसटी के लिए, जिसका वे विरोध किया करते थे!!! मोदी सरकार के इस
तरीके को गुजरात में लोग ‘फूलणजी काका’ कहते हैं, जबकि कई लोग लिखते हैं कि राफेल का एकाध नट-बोल्ट भी देश में आया तो
ये लोग उसका भी जश्न मना लेंगे!
यूपीए-2 के दौरान
जब जीएसटी बिल पेश किया गया तब नरेन्द्र मोदी शासित गुजरात सरकार के वित्तमंत्री
सौरभ पटेल ने विरोध किया था। जीएसटी को सीएम नरेन्द्र मोदी “देश को बर्बाद करने वाली टैक्स प्रथा” बता चुके थे। इसके वीडियो भी यूट्यूब पर मौजूद है, जब उन्होंने गुजरात से
जीएसटी विषय पर इंटरव्यू दिये थे। उन्होंने जीएसटी को “गैरज़रूरी” और “देश के लिए खतरनाक टैक्स प्रवृत्ति” बताया था। इतना ही नहीं भाजपा ने जीएसटी का सरेआम विरोध किया था। भाजपा का
जीएसटी विरोध जगजाहिर है।
कांग्रेस अपने शासनकाल
में जीएसटी लागू करना चाहती थी। भाजपा ने संसद और उसके बाहर इसका जमकर विरोध किया
था। यहां तक कि भाजपानीत सभी राज्य सरकारों ने इसे अपने यहां लागू करने से साफ मना
कर दिया था। जीएसटी पर विपक्षी भाजपा ने कहा था कि, “जीएसटी का सवाल है
तो गुजरात और बीजेपी का रवैया शुरू से ही साफ है। जीएसटी कभी सफल नहीं हो सकता।” लेकिन फिर वो दौर
भी आया, जब संसद में आधी रात को जीएसटी लागू होने का जश्न मनाया गया। “गैरज़रूरी” और “देश के लिए खतरनाक टैक्स प्रवृत्ति” अब कानूनी और संवैधानिक रूप से वे पूरे देश में लागू कर चुके थे!!!
अगर भाजपा या
नरेन्द्र मोदी ये दलील देते हैं कि उन्होंने जीएसटी का विरोध नहीं किया था, बल्कि यह
मांग की थी कि बिना तैयारी के जीएसटी लागू करना घातक सिद्ध होगा, तब भी उन्हें जवाब
देना चाहिए। क्योंकि नरेन्द्र मोदी सरकार ने जीएसटी को आनन-फानन में ही लागू किया
था। हर दिन इसके नियम को लेकर बयान जारी करने पड़ रहे थे, अधिकारियों और व्यवसायी तक
को ट्रेनिंग या जानकारी कानून पारित होने के बाद दी गई थी, पहले नहीं!!! दिनों तक असमंजस
ही था कि क्या करना है, कैसे करना है, कैसे होगा। बेसिक्स पर तो आपने भी पूरा काम
नहीं किया और कानून पारित कर लिया था। हाल यह हुआ कि जीएसटी लागू होने के एक साल
बाद तक भी हर दिन समीक्षाएँ आ रही थी।
कुल मिलाकर, अगर
कांग्रेस वाले जीएसटी लाते तो उनका जीएसटी खराब था, हमारा वाला अच्छा है!!! इतिहास उतना पुराना नहीं है, जब यूपीए काल में यही बीजेपी और उसकी सत्ता वाले राज्य
इस बिल के पास होने में सबसे बड़ा रोड़ा बने थे। लेकिन फिर सत्ता में आए तो वित्त मंत्री
अरुण जेटली जीएसटी बिल को 1947 के बाद का सबसे बड़ा आर्थिक सुधार का कदम बता गए!!! सीएम
नरेन्द्र मोदी ने कहा था कि, “भारत में जीएसटी
कभी सफल नहीं हो सकता।” पीएम नरेन्द्र
मोदी कह गए कि, “जीएसटी से भारत की तरक्की के रास्ते
खुलेंगे।”
आधार देश के लिए खतरा है, आतंकियों की घुसपैठ बढ़ेगी... से लेकर... आधार न बनवाना अपराध है,
देश की सुरक्षा में सह्योग मिलता है ! आधार पर विरोध किया, फिर आधार लागू करवाने के लिए
कानूनी लड़ाई लड़ी
सोचिए, कोई
राजनीतिक दल और उसका मुख्य चेहरा किसी योजना को देश के लिए खतरा बताता हो वही लोग
उसी योजना को लागू करवाने के लिए सुप्रीम कोर्ट तक अपनी कानूनी लड़ाई लड़ते दिखे तो
फिर आप क्या कहेंगे? आधार की कहानी भी
यही थी। आधार से आतंकियों की घुसपैठ बढ़ेगी, देश के लिए खतरा है... और फिर आधार लागू
करवाने के लिए सुप्रीम कोर्ट तक में वे लोग भिड़ गए। कह गए कि आधार न बनवाना तो
अपराध है!!!
आधार को देश के लिए खतरा बताने वाली बीजेपी ने इसे
लगभग तमाम जगहों पर लागू किया। यहां तक कि मिड-डे मील के लिए बच्चों को आधार
अनिवार्य करने का वाक़या भी हुआ, जिसमें विवाद होने के बाद उसे रोका गया। डोमेस्टिक
फ्लाइट में टिकट के लिए भी आधार या पासपोर्ट ज़रूरी बनाने की कवायद तेज होने लगी।
अप्रैल 17 में तो निर्देश दिये गये कि 30 अप्रैल तक अपने बैंक खाते आधार से लिंक कर दीजिए, वर्ना खाता ब्लॉक कर दिया जाएगा। मोबाइल और आधार, दोनों की शादी करवा दी
गई। बाद में अदालत ने बैंक और मोबाइल दोनों के साथ आधार की शादी रोक दी।
बेंगलुरु (तब बैंगलोर) में एक
चुनावी सभा के दौरान नरेन्द्र मोदी ने 8 अप्रैल 2014 को कहा था कि, “मैंने आधार पर राष्ट्रीय सुरक्षा के सवाल उठाए, कोई जवाब नहीं मिला। यह राजनैतिक नौटंकी है।” हमारे नेता अपने बयान का बचाव यही तर्क के साथ करते आये हैं कि उनके बयान का
गलत मतलब निकाला गया। मोदीजी भी अब कह सकते हैं कि उन्होंने तो आधार को नहीं लेकिन
मनमोहन सरकार की शैली को राजनीतिक नौटंकी कहा था। बहरहाल जो भी हो, लेकिन वो भी
2014 के बाद आधार को लेकर अपनी राजनीतिक नौटंकी को डंके की चोट पर सार्वजनिक ही कर
रहे थे। जब नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे तब उन्होंने आधार कार्ड के लिए तत्कालीन यूपीए सरकार पर हमला करते हुए कहा था कि, “अगर वो लोग इसी तरह से अंधाधुंध आधार बांटते रहेंगे तो हमारे गुजरात में आतंकियों
के घुसने का खतरा बढ़ जाएगा।” सीएम मोदी ने कहा
था कि, “आधार यूपीए सरकार की राजनैतिक नौटंकी है,
जिसका कोई विजन नहीं है।” जबकि पीएम मोदी
ने कह दिया कि, “आधार योजना से सरकार को सालाना 70 हजार करोड़ रुपये की बचत करने में मदद मिलेगी।”
अक्टूबर 2013 के
दौरान स्मृति ईरानी का बयान था कि, “संसद की स्थायी समिति ने बिल खारिज कर दिया है। आधार निजता के संवैधानिक अधिकार
का उल्लंघन है।” यूपीए सरकार के
दौर में अपने एक बयान में भाजपा की तत्कालीन प्रवक्ता निर्मला सीतारमण ने कहा था कि, “आधार का कोई कानूनी
आधार नहींं है, क्योंकि इसे संसद ने नहीं बनाया। सरकारी योजनाओं का लाभ देने के लिए विशिष्ट पहचान
संख्या को अनिवार्य नहीं किया जा सकता। सुप्रीम कोर्ट ने भी इस पर सवाल उठाया है।”
लेकिन दौर बदला,
सरकार बदली और यूपीए की जगह भाजपा सत्ता में आई। फिर क्या था, बड़ी साफगोई से
उन्होंने अपना स्टैंड बदल लिया। अगस्त 2017 में वित्तमंत्री अरुण जेटली ने कहा था
कि, “देश के विकास में आधार का बड़ा योगदान है।” मोदी सरकार के पेट्रोलियम प्रधानमंत्री धर्मेंद्र प्रधान अब कहने लगे थे कि, “नागरिकता और पहचान अलग अलग विषय है। हमने
दोनों को अलग अलग रखा है।” वे कहने लगे कि
यूपीए की तैयारी आधी-अधूरी थी। कई सारी दलीलें वे देने लगे थे और बड़ी चालाकी व
बेशर्मी से अपने स्टैंड से पलटने लगे थे।
2014 से पहले आधार
को देश के लिए खतरा, निजता के लिए खतरा बताने वाली भाजपा ने अपनी सत्ता के दौरान
सुप्रीम कोर्ट में यहां तक कह दिया था कि, “नागरिकों का अपने शरीर के अंगों पर संपूर्ण अधिकार नहीं है”.... “आधार न बनवाना अपराध है”... “'निजता का अधिकार' भारतीय नागरिकों को प्राप्त मौलिक अधिकारों में शामिल ही नहीं है” ये सारी चीजें बीजेपी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कही थी!!! एक लफ्ज़ में कहे तो,
कभी देश के लिए खतरा, कभी देश के लिए एक मात्र आधार!!! बस यही तो आधार की आधारभूत कहानी रही। आगे की कहानी तो ज्ञात ही होगी।
मनरेगा यूपीए की असफलता का स्मारक है... मनरेगा राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक है ! मनरेगा को असफलता बताया, फिर खुद अपनाया
प्रधानमंत्री नरेंद्र
मोदी ने महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) को कांग्रेस सरकार
की असफलता का जीता जागता स्मारक बताया था। मगर बाद में खुद के बजट में इस योजना के
लिए सरकार ने 38,500 करोड़ रूपए आवंटित कर दिए। यही नहीं, प्रधानमंत्री नरेंद्र
मोदी ने इस योजना को राष्ट्रीय गौरव का कार्यक्रम तक बता दिया!!!
मनरेगा योजना को
लेकर मोदी सरकार का रवैया वाकई गजब था। सरकार बनने से पहले नहीं, बल्कि सरकार बनने
के बाद मनरेगा को इन्होंने आलोचना का मुद्दा बना दिया। खबरें तो यह भी आई थी कि मोदी
सरकार इस योजना को समाप्त करने जा रही है। मनरेगा को एक असफल योजना बताया गया। साल
2015 में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर चर्चा का जवाब देते हुए लोकसभा में पीएम
नरेंद्र मोदी ने कहा था कि, “हम विरासत में मिली पुरानी समस्याओं के समाधान की कोशिश कर रहे हैं। मेरी
राजनीतिक सूझबूझ कहती है कि मनरेगा कभी बंद मत करो। मैं ऐसी गलती कभी नहीं कर सकता, क्योंकि मनरेगा आपकी विफलताओं का जीता-जागता स्मारक है। आज़ादी के 60 साल बाद आपको
लोगों को गड्ढे खोदने के लिए भेजना पड़ा। यह आपकी विफलताओं का स्मारक है और मैं
गाजे-बाजे के साथ इस स्मारक का ढोल पीटता रहूंगा। दुनिया को बताऊंगा, ये गड्ढे जो तुम
खोद रहे हो, ये 60 सालों के पापों का परिणाम हैं।” यह भाषण ही अपने आप में गजब भाषण था। देश के पीएम किसी
योजना को विफल योजना बताते हैं, लेकिन फिर भी कहते हैं कि मैं उस योजना को बंद नहीं करूंगा!!! इसलिए कि वे पिछली सरकार की विफलताओं की याद दिलाती रहे!!! पिछली सरकारों का बुरा काम इसलिए जारी
रखो, ताकि वो दुनिया को याद रहे!!! गजब पर गजब तर्क था यह! लेकिन गजब होना तो अभी बाकी था।
1 अगस्त 2017 को राज्यसभा में एक प्रश्न के जवाब में सरकार
ने कहा कि, “कठिनाई के समय में होने वाले पलायन को रोकने के लिए कई कदम उठाए गए हैं और
मनरेगा से इसमें मदद मिली है।” ग्रामीण राज्य विकास मंत्री राम कृपाल यादव ने कहा, “स्वतंत्र
आकलनकर्ताओं के जरिए मंत्रालय द्वारा कराए गये अध्ययन में पाया गया कि महात्मा
गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के परिणाम स्वरूप विशेष
मौसम में होने वाले पलायन में कमी आई है। अन्य अध्ययनों में भी दर्शाया गया है कि
घर के नजदीक काम देने और कार्यस्थल पर उचित माहौल उपलब्ध कराने से पलायन कम करने
में मनरेगा का प्रत्यक्ष और सकारात्मक प्रभाव पड़ा है।”
अपने पहले ही बजट
में मनरेगा के लिए करीब 37 हजार करोड़ रुपये आवंटित किए गए। यानी यूपीए से करीब 4,000
करोड़ ज्यादा!!! देश के पीएम कहते थे कि यह असफलता का प्रतीक है, तो फिर असफलता के
प्रतीक को इतनी तवज्जो क्यों? यही नहीं मनरेगा
योजना को साल 2017-18 के बजट में 48,0000 करोड़ रुपये के कोष का आवंटन किया गया। यानी सरकार ने मनरेगा के लिए आवंटन में
11 हज़ार करोड़ रुपये का इज़ाफ़ा करते हुए इसे 48 हज़ार करोड़ रुपये कर दिया। पिछले बजट में मोदी सरकार ने
मनरेगा का कोष आवंटन 36,997 करोड़ रुपये दिया था। जो कि इससे पहले 33,000 करोड़ रुपए था।
कुल मिलाकर,
विपक्ष में थे तब नहीं, बल्कि सत्ता में आए उसके शुरुआती दिनों में आधिकारिक रूप से कहा
गया कि मनरेगा असफलता का प्रतीक है और फिर जल्द ही आधिकारिक रंग-ढंग बदल गए। एक
दफा तो कह दिया गया कि मनरेगा राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक है!!! आधार देश के लिए खतरा है फिर आधार से
आतंकवाद रूकने के दावे, जीएसटी कभी सफल नहीं हो सकता और फिर जीएसटी से देश की
तरक्की होगी, एफडीआई राक्षस है से लेकर अब एफडीआई से तरक्की के रास्ते खुलेंगे...
फिर मनरेगा किस खेत की मूली थी!!!
कांग्रेस भारत माता की भूमि को बांग्लादेश के चरणों में डाल रही है... से लेकर... भारत-बांग्लादेश का यह समझौता ऐतिहासक है ! भारत-बांग्लादेश भूमि हस्तांतरण समझौता (एलबीए)
मनमोहन सिंह की
सरकार थी। भारत-बांग्लादेश के बीच सीमा विवाद से संबंधित समझौते को मनमोहन सरकार
अंतिम रूप देने जा रही थी। लेकिन तभी विपक्ष भाजपा ने इसमें अडंगा डाला। बांग्लादेश
की तत्कालीन प्रधानमंत्री शेख हसीना और भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन
सिंह, दोनों पर भाजपा ने जमकर वार किया। कहा कि मनमोहन सरकार भारत माता की भूमि
बांग्लादेश के चरणों में डाल रही है। फिर नरेन्द्र मोदी की सरकार सत्ता में आई। अब
मौका था एक और यू-टर्न का। मनमोहन सरकार को जिस समझौते से रोका जा रहा था, मोदी
सरकार ने वही काम डंके की चोट पर कर दिया!!! अब भाजपा ने कहा कि, “एलबीए का यह संविधान संशोधन ऐतिहासिक है,
जिसने भारत-बांग्लादेश के बीच 41 साल पुरानी सीमा की तस्वीर बदल दी है।” संसद में बेंचें थपथपाई गई और भाजपा सरकार ने लोकसभा से एलान किया कि उन्होंने
पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के काम को आगे बढ़ाया है। भारत माता की भूमि को
मोदी सरकार ने बांग्लादेश के चरणों में डाल दिया था, जिसका उन्हें अब गर्व था!!!
6 मई, 1974 को भारत
और बांग्लादेश के बीच हुए जमीन हस्तांतरण समझौते को प्रभावी बनाने के लिए संविधान की
पहली अनुसूची को संशोधित किया गया। समझौते के लागू होने पर अगर बांग्लादेशी इलाके में
रहने वाले भारतीय नागरिक वहीं पर रहना चाहते हैं तो उन्हें बांग्लादेश की नागरिकता
दी जाएगी और अगर वे भारतीय इलाके में आते हैं तो उनका स्वागत किया जाएगा। इसी तरह भारतीय
क्षेत्र में रहने वाले बांग्लादेशी नागरिक वहीं पर रहना चाहते हैं तो उन्हें भारत की
नागरिकता दी जाएगी। इस विधेयक में बांग्लादेश के साथ असम, पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा और मेघालय
के क्षेत्रों के आदान-प्रदान के समझौते को क्रियान्वित करने का प्रावधान भी शामिल है।
यू-टर्न लेना
अभिमान माना जाता होगा मोदी सरकार के लिए, तभी तो जिस संविधान संशोधन का वे विरोध
करते थे, उसी विधेयक को उन्होंने पारित करवाने का श्रेय लिया। जिस समझौते का वो
विरोध करते थे, पारित होने के बाद पीएम मोदी सोनिया गांधी के पास पहुंचे और उनका
शुक्रिया अदा किया! मोदी ने 6 जून के अपने ट्वीट में कहा,
“भूमि समझौते को मंजूरी प्रदान करने के दस्तावेजों के आदान-प्रदान
से इतिहास रच गया है।” इस समझौते के चलते करीब तीस हज़ार लोगों को भारत की नागरिकता मिलने वाली थी।
पहले यही चीज़ पर वे कहते थे कि विदेशियों को भारत की नागरिकता देना वोट बैंक की राजनीति
है। लेकिन अब यह मानवता और ऐतिहासिक, दोनों को परिपूर्ण करनेवाला कार्य बन चुका था!
गजब कहिए कि उस
दौर में भाजपा ने ममता बनर्जी के साथ मिलकर हंगामा और विरोध किया था, लेकिन अब
विरोध ममता बनर्जी का ही हो रहा था, समझौते का विरोध अब ऐतिहासिक काम बन चुका था!!!
पाकिस्तान को उसी की भाषा में जवाब देंगे... एक युद्ध से पाकिस्तान नहीं सुधरेगा,
उसके लिए वक्त चाहिए ! पाकिस्तान नीति पर
शीर्षासन
पाकिस्तान... यह
भाजपा की राजनीति का महत्वपूर्ण विषय रहा है। लेकिन जब वे विपक्ष में हो तब!!! सीएम मोदी के पाकिस्तान पर आक्रमक भाषा के साथ हर दिन ट्वीट आते रहते थे। जब
भी आतंकी हमला होता, सरहद पर सीजफायर की घटना होती, सीएम मोदी अपने मन के मिसाइल
ट्विटर पर दाग देते। कहते कि, “अगर उनकी सरकार बनी तो पाकिस्तान को उसी की भाषा में जवाब देंगे।” लेकिन फिर पाकिस्तान नीति पर मोदी सरकार के इतने ज्यादा यू-टर्न आ गए कि फिर
लोग पीएम मोदी पर तंज कसने लगे और कहने लगे कि, “शायद मोदी सरकार उर्दू सीख रही है, ताकि
पाकिस्तान को उसी की भाषा में जवाब दिया जा सके।”
सीएम मोदी की एक
ही भाषा थी, युद्ध की भाषा... आक्रमण की भाषा। सीएम मोदी मनमोहन सरकार को कमजोर कहते
और लिखते कि, “पाकिस्तान को लव लेटर लिखने का क्या फायदा?” पाकिस्तान के साथ बातचीत तक का वे विरोध किया करते थे। लेकिन शायद मोदी सरकार
का सबसे पहला यू-टर्न पाकिस्तान नीति को लेकर ही रहा। क्योंकि अपने शपथ समारोह में पाकिस्तान के वजीर-ए-आजम को आमंत्रित करके इन्होंने यू-टर्न पॉलिसी की शुरुआत कर दी
थी। मनमोहन सरकार को लव लेटर लिखने से मना किया, लेकिन फिर इन्होंने तो “प्रेम पत्र” की जगह “प्रेम ग्रंथ” ही लिख दिया!!! अचानक पाकिस्तान जा पहुंचे, गले मिले, खाना खाया, पाकिस्तानी पीएम की माता के
पैर भी छू लिए!!! एक वो भी दिन
रहा, जब पठानकोट में आईएसआई को जांच के लिए बुला लिया!!! आतंकी हमला किया था पाकिस्तान ने, आईएसआई का उस हमले में शामिल होने का शक था,
लेकिन गजब पीएम का गजब कारनामा यह रहा कि आईएसआई को पठानकोट पर आने का न्यौता दे
दिया!!! ताकि वे जांच कर
सकें। प्रेम-पत्र छोड़कर प्रेम-ग्रंथ लिखा जा रहा था!!!
सर्जिकल स्ट्राइक
करके उन्होंने वाहवाही बटोरी। लेकिन सर्जिकल स्ट्राइक में शामिल रहे बड़े अफसर ने ही
सालों बाद कह दिया कि मोदी सरकार ने सर्जिकल स्ट्राइक का ज़रूरत से ज्यादा प्रचार कर
दिया था। सर्जिकल स्ट्राइक पाकिस्तान को सबक सिखाने के लिए किया गया था, या फिर
खुद की बिगड़ती हुई छवि को साफ करने के लिए, यही चर्चा चलती रही। सर्जिकल स्ट्राइक
पर भाजपा और मोदी सरकार, दोनों ने जमकर बेफिजूल की राजनीति की। पोस्टर लगाए गए, सब
कुछ हुआ। इतना ही नहीं, कहा गया कि मनमोहन सरकार ने कोई सर्जिकल स्ट्राइक नहीं की
थी। लेकिन फिर पता चला कि मनमोहन काल में भी ऐसी चीजें हुआ करती थी। ये कोई बड़ी बात
नहीं थी। जिन चीजों को शांति से और गुपचुप तरीके से किया जाता था, उसीको मार्केटिंग
वाले स्टाइल में करने का काम किया। इस मार्केटिंग का सरहदों पर ज्यादा फायदा नहीं हुआ।
2014 से पहले शहीद
हेमराज और शहीद सुधाकर के सिर के बदले सौ सिर काट लाने के जुमले खूब चलाए गए। आरोप
लगाते रहे कि मनमोहन सरकार पाकिस्तान को लेकर ढुलमुल रवैया लेकर चल रही है। कहा
गया कि हम सत्ता में आएंगे तो पाकिस्तान को करारा जवाब देंगे। लेकिन फिर मोदी सरकार
निंदा सरकार बन कर रह गई। भारतीय सैनिकों की नृशंस हत्याओं का दौर सरहदों पर यूं ही
चलता रहा। भारतीय सैनिकों के सिर काटने की घटना तक होती रही। बदले में हर बार कड़ी निंदा हुई। मोदी सरकार निंदा सरकार बन कर रह गई।
2014 से पहले कहा
करते थे कि, “हमारी सरकार आएगी तो एक के बदले दस सिर लाएंगे।” लेकिन देश के बजाय सेना के साथ ही धोखा हो गया। मनमोहन काल में भारतीय सैनिकों के सिर काटने की घटना हुई थी। उस वक्त भाजपा और नरेन्द्र मोदी, दोनों ने जमकर सेना
का साथ दिया और मनमोहन सरकार को कमजोर सरकार कहा। सुषमा स्वराज ने उस वक्त मांग
की थी कि, “हमें एक के बदले दस सिर चाहिए।” लेकिन जब सरकार
बनी तो बाकायदा लिखित में रिपोर्ट दी और कहा कि, “उस घटना के वक्त मनमोहन सरकार ने जो कदम
उठाए थे वो पर्याप्त थे।” बताइए, गजब सरकार
के गजब कारनामे!!! इतना ही नहीं,
वाजपेयी शासन के दौरान हुए कारगिल युद्ध के बाद बनी समिति की रिपोर्ट भी मोदी
सरकार के दौर में आई। सरकार ने कहा कि, “ओवरएज (बुड्ढे) कर्नलों के कारण हमें कारगिल में क्षति उठानी पड़ी थी।” सोचिए, बुड्ढे
नेता फौज को बुड्ढा कह रहे थे। सेना में कोई ओवरएज कैसे हो सकता था? क्योंकि उम्र और फिटनेस के नियम का पालन सेना में सख्ती से होता है, जबकि
राजनीति में क्या हाल है सभी को पता है।
पाकिस्तान को
उसी की भाषा में जवाब देंगे... से लेकर 2019 में पीएम मोदी ने कहा कि पाकिस्तान एक
युद्ध से नहीं सुधरनेवाला, उसके लिए समय लगेगा। पाकिस्तान को लेकर शपथ समारोह वाले दौर से 2019 तक कोई ठोस नीतियां नहीं दिखी। सड़कों से भाषण होते रहे। एक दौर वो भी था
जब फैंस लिखा करते थे कि पाकिस्तान तीसरे टुकड़े में बंट जाएगा... पीओके में अगले साल
तिरंगा फहरा देंगे... वगैरह वगैरह। वैसे फैंस भी यू-टर्न में माहिर है। वे अब तीसरे
टूकड़े की बात नहीं करते, अगले साल तिरंगा फहरा देंगे याद नहीं करते। बस जो भी सरकार
के खिलाफ बोलता है उसे पाकिस्तान भेजने की गटरछाप वकालत ज़रूर किया करते हैं।
चीन को भी आंख दिखाएंगे... से लेकर... पडोसी देशों के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध ही विकास का
रास्ता है ! चीन नीति पर
शीर्षासन
पाकिस्तान नीति को
लेकर जिस प्रकार का यू-टर्न लिया गया, वही हाल चीन को लेकर भी रहा। चीन की
घुसखोरी, भारतीय सरहदों में चीन का अतिक्रमण, भारतीय चौकियों पर चीनी सेना के छिटपुट
हमले... मनमोहन सरकार में यह सब होता तब ब्रह्मोस मिसाइल सरीखे ट्वीट सीएम मोदी की
तरफ से ज़रूर आते थे। भाषण होते और चीन-पाकिस्तान को लेकर आक्रामक नीति अपनाने की
नसीहतें यूपीए सरकार को दी जाती। लेकिन फिर उनकी सरकार बनी। डोकलाम से लेकर सब कुछ
हुआ। नीति वही रही जो यूपीए सरकार की थी। चीन की घुसखोरी बंद नहीं हुई। भारतीय
सरहदों पर चीन का अतिक्रमण जस का तस बना रहा। भारतीय चौकियों पर हमले भी होते रहे।
चीन उत्तराखंड में
घुसा, अरुणाचल में घुसा, लद्दाख में घुसा, डोकलाम में घुसखोरी की, मसूद अजहर, जैश-ए-मोहम्मद,
लश्कर-ए-तैयबा पर भी चीन वैसे ही अड़ा रहा जैसे पहले अड़ता था, नदियों पर चीन की
आक्रामकता बदली नहीं, मालदीव-बांग्लादेश-नेपाल-श्रीलंका-पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर
सभी जगहों पर चीन की पैठ बढ़ती चली गई, अरुणाचल पर भी वही हाल रहा। चीनी सैनिक भी
भारतीय सीमाओं में घुसते रहे, उसके ड्रोन भी और उसके सैन्य हेलीकॉप्टर भी।
कहा था कि, “चीन की आंखों में आंख डालकर हमारी सरकार
बात करेगी।” लेकिन बात यह बताई कि, “पडोसी देशों के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध ही विकास का रास्ता है, युद्ध की भाषा से
समाधान नहीं हो सकता।” 2014 में लोगों ने
सोचा था कि अब तो पाकिस्तान और चीन, दोनों हाथ जोड़कर हमसे बात करेंगे। लेकिन इतिहास
ताज़ा है। पाकिस्तान और चीन को लेकर नीतियां वही रही, जो पहले थी। थोड़ा-बहुत अलग
हुआ उसीको लेकर फैंस और पीएम मोदी, दोनों अपनी पीठ थपथपाते रहे। लेकिन मूल रूप से
पूर्व सरकार की ही चीजें इसी सरकार में दोबारा देखी गई।
धारा 370... पांच साल हुए लेकिन धारा 370 को ना ही सरकार ने याद किया, ना ही
समर्थकों ने
धारा 370... इसे
लेकर भाजपा और नरेन्द्र मोदी दोनों की शैली याद होगी। धारा 370 पर सीएम मोदी और
भाजपा ने जिस तरह का आक्रामक प्रचार किया, लगा कि सरकार बनते ही धारा 370 रद्द हो
जाएगी। लेकिन चार साल के बाद धारा 370 तो रद्द नहीं हुई, बल्कि धारा 377 का सफाया ज़रूर हो गया। हालात यह रहे कि इन सालों में धारा 370 को ना ही सरकार ने गंभीरता से
लिया, ना ही समर्थकों ने।
भाजपा ने अपने
घोषणा पत्र में यह वादा किया था कि सत्ता में आने पर जम्मू कश्मीर से धारा 370 हटाया जाएगा।
उन्होंने खुद कहा था कि, “इस पर सभी पक्षों
से बात की जाएगी और वह इसे हटाने के लिए प्रतिबद्ध हैं।” गजब था कि इनकी प्रतिबद्धता तीन तलाक को लेकर दिखी, जीएसटी को लेकर दिखी,
एफडीआई को लेकर दिखी, आधार को लेकर दिखी... लेकिन धारा 370 को लेकर नहीं दिखी।
जीएसटी, एफडीआई, आधार... जैसे विषयों को, जिन्हें वे रद्द करने के वादे कर रहे थे,
लागू करवाने के लिए इन्होंने हर लड़ाई लड़ी! लेकिन धारा 370 से लेकर कश्मीर के पंडित, सब कुछ हवा हो गया।
मोदी सरकार सत्ता
में आई और जम्मू कश्मीर चुनाव के बाद जब पीडीपी के साथ सरकार बनाने की बात चली तब मोदी
शासित सरकार ने कहा कि, “जम्मू-कश्मीर से
धारा 370 नहीं हटाई जाएगी।” दिलचस्प यह है कि
राज्य के विधानसभा चुनाव के दौरान भाजपा ने अपने विजन डॉक्यूमेंट में धारा 370 का
ज़िक्र तक नहीं किया था! 15 जुलाई 2017 को जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती ने गृहमंत्री राजनाथ
सिंह से मुलाक़ात की। मुलाकात के बाद मीडिया से अनौपचारिक बातचीत में भाजपा गठबंधन
सरकारी की सीएम मुफ्ती ने कहा कि, “जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 नहीं हटेगा।” 29 जुलाई 2017 के दिन जम्मू-कश्मीर की सीएम महबूबा मुफ्ती ने कहा कि, “अगर आर्टिकल 35ए में छेड़छाड़ की गई तो कश्मीर में ऐसा कोई नहीं बचेगा जो तिरंगे को पकड़ सके।”
लगभग आधे रास्ते
यूं ही साथ निभाने के बाद भाजपा ने पीडीपी के साथ अपना ‘विवादास्पद गठबंधन’ तोड़ दिया। लेकिन
गठबंधन से पहले, गठबंधन के दौरान और गठबंधन तोड़ने के बाद, तीनों दौर में धारा 370 का
मुद्दा सरकार की तरफ से कभी ढंग से उठाया नहीं गया। कहते हैं कि धारा 370 या 35ए को लेकर कुछ चल रहा है, लेकिन अब तक नहीं चला यह भी तो मुद्दा है।
भारत-चीन युद्ध के दस्तावेज जनता के सामने होने चाहिए... दस्तावेज सार्वजनिक
करना देशहित नहीं है ! हैंडरसन ब्रुक्स
रिपोर्ट पर यू टर्न
केंद्र सरकार में
वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कांग्रेस की सरकार के समय भारत-चीन लड़ाई से जुड़ी
गोपनीय हैंडरसन ब्रुक्स रिपोर्ट को सार्वजनिक करने की मांग की थी। उन्होंने तब
अपने ब्लॉग में लिखा था कि, “क्या आर्काइव में रखे रिकॉर्ड्स अनंतकाल के लिए जनता की नजरों से दूर रखे
जाएंगे? इन दस्तावेज को अनिश्चितकाल के लिए ‘टॉप सीक्रेट’ बनाए रखना जनहित
में नहीं होगा।”
अरुण जेटली ने
सरकार बनने के बाद अपना वह ब्लॉग ही डिलीट कर दिया जिसमें तीन महीने पहले उन्होंने
हैंडरसन रिपोर्ट को सार्वजनिक करने का समर्थन किया था!!! अरुण जेटली का यह ब्लॉग
उनकी साइट arunjaitley.com पर उपलब्ध था, लेकिन अब यह ब्लॉग
वहां नहीं है। सत्ता में आने के बाद अरुण जेटली ने इस मसले पर कहा कि, “सरकार इस टॉप सीक्रेट रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं कर सकती क्योंकि यह देशहित
में नहीं होगा।”
नोटबंदी से काला धन, आतंकवाद, जाली नोट खत्म होंगे... से लेकर...किसी एक कदम से आतंकवाद
और काले धन का खात्मा नहीं होगा ! नोटबंदी पर सरकार ने 75 से ज्यादा संशोधन कर दिए थे,
बड़े बड़े दावे करनेवाले पीएम मोदी ने 2 साल बाद कहा – नोटबंदी के बाद घर सस्ते में
मिलने लगे !!!
नवम्बर 2016 के
दौरान भाजपा सरकार ने नोटबंदी लागू की और इसे कालेधन के खिलाफ बड़ी जीत करार दिया।
लेकिन यूपीए सरकार ने जब ऐसा करने का प्रयास किया था तो भाजपा को यह रास नहीं आया
था। आरबीआई ने जब 2005 से पहले के नोट बंद करने की बात कही थी, तो भाजपा ने इसे गरीब
विरोधी कदम बताते हुए कहा था कि इसका कालेधन से कोई लेना देना नहीं है। उस वक़्त भाजपा
प्रवक्ता रहीं मीनाक्षी लेखी ने कहा था, “यह काले धन के मुद्दे से ध्यान हटाने की साज़िश है। सरकार गरीब और ऐसे लोगों को
निशाना बना रही है जिनके पास बैंक खाता नहीं है।” लेकिन जब खुद उन्होंने ही ये कर दिया तो उनका कहना था कि, “इस कदम ने कालाधन जमा करने वालों के साथ-साथ टेरर फंडिंग पर भी चोट की है।” पार्टी के जो नेता पहले नोटबंदी शब्द सुनते ही हल्ला करने लगते थे अब वही इसे
देशहित करार देने में लगे रहे।
नोटबंदी... मोदी
सरकार का ऐसा फैसला जो इतिहास में विवादित फैसलों में शामिल हो चुका है। तर्कों,
तथ्यों, आंकड़ों के हिसाब से नोटबंदी एक फेल योजना रही। विवाद हो सकते हैं, लेकिन फेल
की तरफ पलड़ा ज्यादा झुकता दिखाई देता है। बहरहाल, उसे छोड़कर नोटबंदी की बात करे तो,
नोटबंदी लागू करने के बाद सरकार ने पहले 100 दिनों में ही 75 से ज्यादा संशोधन किए
थे!!! यानी कि करीब डेढ़ दिन में एक नया नियम... एक नया बदलाव!!! इतने ज्यादा
संशोधन से उस तर्क को बल मिलता है कि नोटबंदी पूर्वतैयारी के बिना लागू की गई
योजना थी।
नोटबंदी से
आतंकवाद खत्म होगा वाले दावे पर तंज कसा गया कि शायद दुनिया में पहली दफा आतंकवाद
को खत्म करने के लिए नोटबंदी का सहारा लिया गया है!!! आतंकवाद तो खत्म नहीं हुआ,
बल्कि आतंकवादियों के पास से ही नये नोट के डुप्लीकेट नोट मिलने लगे!!! वो भी पहले 100 दिनों के भीतर ही!!! नोटबंदी के बावजूद, जाली नोट और काले धन
का कारखाना, दोनों चीजों का जमकर विकास हुआ। नोटबंदी से लेकर अब तक सरकार ने इस
मामले में सैकड़ों यू-टर्न लिये। इतने यू-टर्न कि इसके लिए अलग से संस्करण लिखा जा
सकता है। इसके लिए नोटबंदी-नोटबदली के ऊपर लिखे गए तीन अलग संस्करण देख ले। काला
धन, आतंकवाद, जाली नोट, किसानों की दुर्दशा, टैक्स पेयर के आंकड़े, रोजगार के आंकड़े,
मीडियम और स्मॉल स्केल इंडस्ट्रीज के आंकड़े, 75 से ज्यादा बार बदले गए नियम, जमा
किए गए नोटों की जानकारी... अमूमन सैकड़ों चीजों पर सरकारी जानकारी महीने भर में अलग
अलग मोड़ पर जाकर रूकती थी।
कभी कहा कि
नोटबंदी का किसानों पर बुरा प्रभाव पड़ा था, कभी कहा कि ऐसा नहीं था!!! कभी रोजगार के
आंकड़े पहले अलग दिए, कुछ दिनों बाद आंकड़े बदल गए। टैक्स पेयर के आंकड़े सरकार की तरफ
से पांच अलग अलग जगहों से आए और पांचों आंकड़े अलग थे!!! नोटबंदी, जिसे बेतुका फैसला
कहा जाता है, एक लंबी टर्निंग ट्रेन बनकर सामने आया।
नोटबंदी के दौर में बहुत बड़े बड़े दावे करनेवाले पीएम मोदी की हालत यह थी कि जनवरी 2019 के दौरान
इन्होंने कह दिया कि नोटबंदी के बाद लोगों को सस्ते में घर मिलने लगे थे!!! बताइए...
लोगों को घर सस्ते में मिलने लगे उसके लिए नोटबंदी जैसा बड़ा फैसला करने की क्या ज़रूरत
थी!!! उससे बड़ा यह कि तो फिर उन दिनों में आतंकवाद, काला धन और
जाली नोट पर लिमिट क्रॉस करके दावे आसमान में उड़ाने की भी क्या ज़रूरत थी!!!
शहीद हेमराज-सुधाकर के मामले में कांग्रेस ने देश को शर्मसार किया है... से लेकर... यूपीए
ने जो किया पर्याप्त था ! शहीद के मामले पर भी सरकार ने टर्निंग ट्रेन पकड़ ली
हैंडरसन ब्रुक्स
रिपोर्ट के बाद मोदी शासित एनडीए सरकार ने शहीद हेमराज और शहीद सुधाकर के मामले को
लेकर भी यू-टर्न ले लिया। सत्ता में आने से पहले भारतीय सेना के जवान हेमराज और
सुधाकर का सिर पाकिस्तान सेना द्वारा काटकर ले जाने वाली घटना पर भाजपा ने पूरे
देश में कांग्रेस को खूब घेरा था। नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज ने कहा था कि, “हमें एक के बदले दस सिर चाहिए।” सीएम नरेन्द्र
मोदी से लेकर भाजपा के कई बड़े नेताओं ने मनमोहन सिंह की सरकार को कमजोर सरकार कहा और
उसे भारतीय सेना के स्वाभिमान से जोड़ा। प्रचार किया कि अगर भाजपा की सरकार बनती है
तो पाकिस्तान एक सिर काटेगा तो हम दस सिर काटकर ले आएंगे।
लेकिन भाजपा की
टर्निंग ट्रेन इसमें भी छायी रही। बाकायदा लोकसभा से एलान ही कर दिया कि, “यूपीए सरकार ने जो कदम उठाए थे वो पर्याप्त थे। अब इसमें आगे कोई कदम उठाने की ज़रूरत नहीं है।” भारत का या भारतीय सेना का स्वाभिमान और
एक के बदले दस सिर... सारी चीजें जुमलेबाजी साबित हुई। न केवल जनता को, अपितु भारतीय
सेना को भी सत्ता के लिए प्रचार के अतिरेक से प्रताड़ित होना पड़ा।
नेताजी की फाइलें सार्वजनिक होनी चाहिए... फाइलें गोपनीयता की सूची में है ! सुभाष चंद्र बोस पर यू-टर्न
भारत-चीन युद्ध के
दस्तावेजों की तरह विपक्ष के रूप में भाजपा का एक और मुद्दा था नेताजी सुभाष चंद्र
बोस की फाइलें। विपक्ष के रूप में भाजपा ने जमकर वकालत की थी कि नेताजी की फाइलें
सार्वजनिक होनी चाहिए। कहते थे कि जनता को जानने का अधिकार है। लेकिन सत्ता आई तो
सुर बदल गए।
नरेन्द्र मोदी
सरकार ने 2014 में नेताजी सुभाष चंद्र बोस के लापता होने और इससे जुड़ी 39 गोपनीय
फाइलों को सार्वजनिक करने से इनकार कर दिया। प्रधानमंत्री कार्यालय ने एक आरटीआई
के जवाब में स्वीकारा कि बोस से जुड़ी 41 फाइलें हैं, जिनमें से 2 गोपनीयता की
सूची में नहीं है। पीएमओ ने आरटीआई कार्यकर्ता सुभाष अग्रवाल को दिए जवाब में कहा
कि इन फाइलों में दर्ज दस्तावेजों के खुलासे से दूसरे देशों के साथ रिश्तों पर
बुरा असर पड़ सकता है। नेताजी की कुछ फाइलें सार्वजनिक हुई, लेकिन सार्वजनिक फाइलों
पर ना ही भाजपा ने कभी चर्चा की और ना ही विपक्ष ने!!! जिन गोपनीय फाइलों की बातें होती थी, वो गोपनीय तरीके से गोपनीयता की श्रेणी में रखी गई!!!
रेल किराया वापस करने के लिए प्रदर्शन किए... सत्ता में आते ही जिसके लिए
यूपीए को कोसा था वही किया
7 मार्च 2012 को नरेंद्र
मोदी ने एक ट्वीट करके कहा था कि संसद सत्र से ठीक पहले रेल किराया बढ़ाना अनुचित है।
उन्होंने कहा था कि वो इस मसले पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को चिट्ठी लिखेंगे। लेकिन
फिर सत्ता में आते ही खुद की सरकार ने जब यही काम किया तो शायद उन्हें अपना ट्वीट भी
याद नहीं रहा। एनडीए सरकार ठीक उसी तरह अपनी बात से मुकर गई जैसे कि बेपटरी होती कोई
रेल।
मोदी सरकार से पहले
तक ज्यादातर गठबंधन सरकारों का दौर रहा और इन सरकारों ने अपने साथी दलों की मजबूरी
के चलते ही सही रेल किराया बढ़ाने से परहेज किया। जिस बात के लिए बीजेपी ने मनमोहन
सरकार को जमकर कोसा, सत्ता में आने के तुरंत बाद उस पर यू टर्न ले लिया। मनमोहन पीएम थे तब एक बार
रेल किरायों में 2 रुपये की बढ़ोतरी हुई थी और तब भाजपा ने रेल रोको आंदोलन चलाकर
विरोध किया था।
नरेंद्र मोदी जब गुजरात
के मुख्यमंत्री थे तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को एक चिट्ठी लिखी थी और रेल बजट से
ठीक पहले बढ़ाए हुए रेल किराए को वापस लेने की भी मांग की थी। नरेंद्र मोदी ने तब आरोप
लगाया था कि सरकार ने संसद को अनदेखा कर रेल किराया बढ़ाया है।
लेकिन मोदी सरकार जब
स्वयं सत्ता में आई तो खुद के रेल बजट से पहले रेल किराए में बढ़ोतरी का एलान कर दिया!!! मोदी सरकार के वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा था, “रेलवे तभी जीवित रह सकती है जब यात्री मिलने वाली सुविधाओं के
लिए भुगतान करें, ये कठिन लेकिन सही फैसला है।” बाद में तो रेल किरायों के साथ साथ प्लेटफॉर्म
टिकट से लेकर दूसरे तमाम दरों में वृद्धि होती रही। जब सरकार से पूछा गया तो बड़े ताव से जवाब दिया था कि रेल किराया बढ़ाना सही कदम है, देश को आगे बढ़ाने के लिए
कड़वी दवाई की ज़रूरत है!!! सत्ता हथियाने के लिए मीठी गोलियां... फिर कड़वी दवाई!!! इनक्रेडिबल इंडिया!!!
एक साल में संसद को गुनहगारों से मुक्त कर देंगे... से अब... आरोपी सांसदों को चुनाव लड़ने
से रोका नहीं जाना चाहिए ! राजनीति में अपराधीकरण धड़ल्ले से बढ़ता चला गया
राजनीति में
अपराधीकरण को लेकर देश को एक और सपना दिखाया गया था। पीएम उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी
ने कहा था कि, “अगर हमारी सरकार बनती है तो एक साल के
भीतर संसद को गुनहगारों से मुक्त कर देंगे।” पीएम बनने के बाद भी उन्होंने पहले आधे साल में कई दफा इसी वादे को दोहराया।
लेकिन एडीआर का रिपोर्ट आया तो पता चला कि पिछले लोकसभा की तुलना में इस लोकसभा में
दागदार सांसद ज्यादा है!!! राज्यों से भी बढ़ोतरी के रिपोर्ट आते रहे!!!
सीएम मोदी ने 22
अप्रैल, 2014 को एक चुनावी रैली के दौरान संसद को असामाजिक तत्वों से मुक्ति
दिलाने का वादा किया था। उन्होंने कहा था कि, “अगर वह पीएम बनते हैं तो उनका पहला काम नये सांसदों के खिलाफ चल रहे केसों की
जांच के लिए एक पैनल गठित करना होगा, उसमें जो दोषी होंगे उन्हें जेल भेजा जाएगा।” लेकिन मोदी सरकार जब सत्ता में आई तो उनकी मंत्रीपरिषद में 21 ऐसे चेहरे थे
जिनके खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज थे!!! पांच साल पुरे हो रहे हैं, लेकिन सरकार ने न ही कोई समिति बनाई है और न ही
पार्टी ने इनके खिलाफ अंदरूनी जांच की है। उल्टा राज्यों में अपनी जीत के बाद वहां राज्यों के सीएम वही लोग चुने गए, जिनके ऊपर आपराधिक मामलों की लंबी सी सूची थी!!!
1 साल के भीतर
संसद को गुनहगारों से मुक्त करने का वादा कुछ इस कदर यू-टर्न ले गया कि उनके ही
नवनिर्मित कैबिनेट में 21 चेहरे दागदार थे!!! उससे आगे जाकर जब अदालती लड़ाई की बात आई तो सितम्बर 2017 के दौरान केंद्र सरकार
ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दाखिल कर कहा कि, “कोई भी विधायक या सांसद अगर किसी आपराधिक
मामले में दोषी पाया जाता है तो वह अयोग्य घोषित नहीं होंगे। उनकी सीट को तत्काल प्रभाव
से ख़ाली घोषित नहीं किया जा सकता, क्योंकि कानून उन्हें खुद को दोषी ठहराए जाने के फैसले के खिलाफ अपील करने और उस
पर रोक हासिल करने का एक मौका देता है।” केंद्र सरकार ने कहा कि, “ये नीतिगत मामला है, इसमें कोर्ट को दखल
नहीं देना चाहिए।” एक दफा सुप्रीम कोर्ट ने तंज से पूछ
लिया कि, “आप दोषियों के चुनाव लड़ने के पक्ष में हैं
या विरोध में?” जिसके जवाब में सरकारी आयोग ने कहा था कि, “वह दोषियों के आजीवन पाबंदी के पक्ष में नहीं है।”
2014 और 2014 के
बाद कई राज्यों में चुनाव हुए, नये कैबिनेट के गठन हुए। तमाम पर एडीआर ने अपनी
रिपोर्ट दी। रिपोर्ट में पाया गया कि राजनीति में अपराधीकरण पहले से ज्यादा हो रहा
था। एक साल के भीतर संसद को गुनहगारों से मुक्त करवाने का वादा पैराशूट पहनकर
कूदा था, लेकिन आसमान से कूदा तो खजूर के पेड़ में अटक गया!
यूपीए के दौरान कहा - जनता और जनलोकपाल के बीच संसद
राक्षस की तरह खड़ी है... सत्ता में आए तो
सुप्रीम कोर्ट में पांच साल तक फटकार खाती रही सरकार
जनलोकपाल का वो दौर सभी को याद होगा। उस दौर में संसद
में नेता प्रतिपक्ष के तौर पर सुषमा स्वराज ने कहा था कि, “लोगों में यह भाव
है कि हम (सदन) लोग और जनलोकपाल के बीच राक्षस के तौर पर खड़े हैं, हमें यह भाव बदलकर
आगे बढ़ना होगा।” अब 2014 से 2018 तक वे लोग कितना आगे बढ़े यह सभी को
भली-भांति ज्ञात है। सर्वोच्च न्यायालय तक ने कुछेक बार एनडीए शासित मोदी सरकार को याद
दिलाया, लेकिन इनका भी दिल कांग्रेस सरीखा हो गया कि अब तक माना नहीं है!!! हर चीज़ के लिए अध्यादेश लाएंगे लेकिन लोकपाल की बेड़ियां नहीं पहनेंगे। उस दौर की
यूपीए सरकार और अब की एनडीए सरकार, दोनों जैसे कि जनलोकपाल को सचमुच जोकपाल बनाकर
ही लागू करना चाहते हो ऐसा हाल है। हाल में नयी सरकार बहाना बनाती रही कि कांग्रेस
के पास उतनी सीटें नहीं है और इसलिए लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष का स्थान रिक्त है,
लिहाजा जनलोकपाल पर आगे बढ़ना संभव नहीं है। जबकि बिना आम सहमती के अब तक कई चीजें लागू हो चुकी है। सुप्रीम कोर्ट ने 27 अप्रैल 2017 के दिन
साफ लफ्जों में कहा कि, “लोकपाल की नियुक्ति को ठंडे बस्ते में डालने का कोई कारण नजर नहीं आता है। यह मौजूदा
परिस्थितियों में भी काम कर सकता है।” सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र की उस दलील को अपर्याप्त माना जिसमें नेता विपक्ष
के रिक्त स्थान का हवाला दिया गया था। बावजूद इसके जनलोकपाल जैसे कि जोकपाल बनकर
रह गया है। कहा जा सकता है कि... कांग्रेस कभी नहीं जाती, जो सत्ता में आता है वही
कांग्रेस बन जाता है!
अन्ना तो बैठ गए, बीच में कभी कभी आंदोलन को लेकर सूचना जारी करते रहे, सूचनाएँ बदलती रही, इधर मोदी शासित सरकार ने लोकपाल को ठंडे बस्ते में डाल दिया। सुप्रीम
कोर्ट में सरकार लोकपाल क्यों लागू नहीं किया जा सकता उसकी लड़ाई लड़ती रही, जबकि कुछ
सालों पहले यूपीए सरकार को कोसा जाता था। मनमोहन सरकार के वक्त सीएम मोदी ने कहा था
कि, “पिछले 40 सालों से कांग्रेस ने इस बिल को
कानून नहीं बनने दिया।” लेकिन अब वही
सरकार अदालत की दहलीज पर लोकपाल की ट्रेन लेट करने के लिए लड़ाई लड़ रही थी!!! अदालत
निर्देश देती रही, सरकार फटकार खाती रही, तीन तलाक पर अध्यादेश आया, आरक्षण पर
अधिसूचना जारी कर दी गई, लेकिन लोकपाल पीएमओ की अलमारी से बाहर नहीं निकला!!! लोग
कहने लगे कि एक साल में संसद को गुनहगारों से मुक्त करने का वादा मोदीजी ने किया
है, लेकिन जनलोकपाल मूल रूप में लागू हुआ तो उनकी ही सरकार अल्पमत में आ जाएगी!!! उधर विशेषज्ञों का कहना है कि जब भी जनलोकपाल आएगा, सरकार इसका जोकपाल बनाकर ही उसे
मैदान में उतारेगी।
यूपीए लाए तो खराब, हम लाए तो जिंगा लाला... ! एनसीटीसी पर बदल दिया स्टैंड
सीएम रहते हुए नरेंद्र
मोदी ने जिस प्रस्ताव को खारिज कर दिया था, सत्ता संभालने के 3 साल बाद उसे ही अमल
में लाने की तैयारी शुरू कर दी!!! प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बतौर गुजरात के मुख्यमंत्री
केंद्र सरकार के जिस प्रस्ताव को ठुकरा दिया था, सत्ता में आने के बाद केन्द्रीय गृह
मंत्रालय ने उसी एनसीटीसी का गठन करने की तैयारी शुरू कर दी!!! एनसीटीसी का प्रस्ताव
साल 2008 में मुंबई हमले के बाद तब के गृह मंत्री पी चिदंबरम ने पेश किया था, लेकिन
बतौर मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसका विरोध किया था। उस समय राज्यों ने इस प्रस्ताव
को देश के संघीय ढांचे के लिए खतरा बताते हुये खारिज कर दिया था। लेकिन बतौर पीएम
उनकी सरकार इसके गठन को लेकर एक विशेष वर्किंग पेपर तैयार करने लगी थी। अपने इस
नये यू-टर्न का बचाव करते हुए केंद्रीय गृह मंत्रालय ने कहा कि इस प्रस्ताव को इस तरह
से लागू किया जा रहा है जिससे राज्य सरकारें मना न कर सकें।
घोषणापत्र में कहा और फिर अदालत में 2015 में शपथ पत्र देकर एमएसपी डेढ़ गुना करने
से किया इनकार, फिर 2018 के बजट के दौरान इसी फैसले को लागू करने की बात कही
भाजपा ने लोकसभा 2014
के चुनाव घोषणापत्र में उपज की लागत का डेढ़ गुना लाभकारी मूल्य देने की बात की थी।
लेकिन इसी केंद्र सरकार ने वर्ष 2015 में न्यायालय में शपथ पत्र देकर लागत मूल्य से
डेढ़ गुना ज्यादा एमएसपी देने से इनकार किया था। इसके बाद 2018 का बजट पेश करते
वक्त वित्तमंत्री ने कहा कि हम लागत मूल्य से डेढ़ गुना न्यूनतम समर्थन मूल्य
(एमएसपी) देने की घोषणा करते हैं। इतने सारे मोड़ क्यों ये उन्हें पता होगा। हालांकि
बजट 2018 में यह बात कही गई कि नीति आयोग और राज्य आयोग चर्चा करके इस पर निर्णय
लेंगे। नोट करे कि बजट में इसके लिए राशि का प्रावधान नहीं किया गया था।
नरेन्द्र मोदी ने न्यूनतम समर्थन मूल्य को 50 फीसदी तक बढ़ाने का कोई वचन दिया
ही नहीं था – केंद्रीय कृषि
मंत्री
लोकसभा में किसानों के बदतर हालात तथा खुदकुशी के मामले पर चर्चा के दौरान 20 जुलाई 2017 को केंद्रीय
कृषि मंत्री राधामोहन सिंह ने कहा कि पीएम मोदी ने 2014 के चुनाव प्रचार के वक्त
किसानों के न्यूनतम समर्थन मूल्य को 50 फीसदी तक बढ़ाने का कोई वचन दिया ही नहीं था।
उन्होंने कहा कि 2014 में लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान किसानों को कृषि उत्पाद के
मुनाफे के तौर पर इनपुट खर्च की जो राशि है उसे 50 फीसदी तक बढ़ाने की बात कही गई
थी। उन्होंने आरोप मड़ते हुए कहा कि न्यूनतम समर्थन मूल्य पर भाजपा ने ऐसा कोई वचन
दिया था ऐसा झूठ फैलाकर विपक्ष किसानों को भ्रमित कर रहा है। अब आप कृषि मंत्री को
गलत ठहरा नहीं सकते, क्योंकि बहुत हद तक मुमकिन है कि वह जो बात कर रहे थे वो सच भी
हो। लेकिन हमने पहले ही सरकारों या राजनीतिक दलों की बयानबाजी वाली परंपरा को देख लिया
कि कैसै वो लंबे-चौड़े भाषणों से किसी एक विशेष मुद्दे को हवा देते हैं और उसीके दम
पर मतदाता को रिझाते हैं। फिर कुर्सी पर बैठने के बाद जब उसी मुद्दे को लेकर सवाल
उठे तब लंबे-चौड़े भाषणों का टेप दोबारा देखने के लिए कह दिया जाता है!!!
भूमि अधिग्रहण पर बड़ा फैसला लिया, किसानों की सहमती
वाला संशोधन, भारी विरोध हुआ तो फिर लिया यू-टर्न
यूपीए सरकार ने साल
2013 में पारित किए भूमि अधिग्रहण बिल के अधीन अधिग्रहण होने वाली जमीन में किसानों
की सहमति को अनिवार्य कर दिया था, लेकिन मोदी सरकार ने इसमें संशोधन करते हुए सहमति को पूरी तरह खत्म कर दिया!!! साथ
ही कई अन्य संशोधन विधेयक में कर डाले!!! इसका विपक्ष ने जोरदार विरोध किया, लेकिन सरकार ने अध्यादेश
लाकर इसे पारित करवाने का फैसला किया!!! हालांकि बाद में किसानों और विपक्ष के भारी विरोध
के चलते सरकार ने इस मामले पर भी यू टर्न ले लिया और इस बिल के छह बड़े संशोधन वापस
लेने को राजी हो गए। इसमें सहमति संबंधी प्रस्ताव भी शामिल था। इस तरह 2013 का कानून
जस का तस ही रहेगा। सरकार इस विवादास्पद विधेयक पर फिर से अध्यादेश नहीं लाने को
भी तैयार हो गई।
ईपीएफ पर टैक्स, विरोध हुआ तो पलटी
सरकार ने बजट के दौरान
ईपीएफ़ से पैसा निकालते समय उसके 60 फ़ीसदी हिस्से पर कर लगाने की घोषणा की थी। इसका
व्यापक विरोध हुआ। सरकार की तरफ से कहा गया था कि 1 अप्रैल, 2016 के बाद ये कर
कर्मचारियों की तरफ़ से जमा कराए गए पैसे के 60 फ़ीसदी हिस्से पर मिलने वाले ब्याज
पर लागू होगा। बाद में विरोध के बाद सरकार ने यू टर्न ले लिया। वित्त मंत्री ने कहा
कि वह इस नीति की समीक्षा करेंगे।
नारंगी पासपोर्ट का विवादित फैसला महीने भर में सरकार ने वापस खींचा
जनवरी 2018 के
अंतिम दिनों में केंद्र सरकार ने नारंगी पासपोर्ट जारी करने का फैसला वापस ले लिया। सरकार
की यह योजना थी कि जिन्होंने 10वीं की परीक्षा पास नहीं की है, उन्हें नारंगी रंग का
पासपोर्ट दिया जाएगा। इसमें पासपोर्ट के आखिरी पन्ने को खत्म करने का प्रावधान था, जिसमें धारक का पता जैसी तमाम जानकारियां होती हैं। सरकार के इस फैसले का
विपक्ष और विशेषज्ञों ने विरोध किया था और इसे भेदभावपूर्ण नीति करार दिया था।
लेकिन जनवरी माह के आखिरी दिनों में विदेश मंत्रालय ने नया बयान जारी कर नारंगी
पासपोर्ट वाले पुराने फैसले को वापस लेने की जानकारी दी। सरकार के इस फैसले का यह
भी अर्थ था कि पासपोर्ट का अंतिम पन्ना पहले की ही तरह छापा जाएगा।
रक्षा मंत्रालय ने सैन्य अधिकारियों के रैंक और स्टेटस में कमी से जुड़ा विवादित
आदेश वापस लिया
5 जनवरी 2018 के
दिन रक्षामंत्री निर्मला सीतारमण ने एक बड़े फैसले के तहत सशस्त्र बलों से जुड़े सरकार
के एक विवादित आदेश को वापस लेने की घोषणा की। इस विवादित आदेश को दो साल पहले सैन्य
अधिकारियों और उनके असैन्य समकक्षों के बीच समान दर्जा करने को लेकर जारी किया गया
था। ये आदेश सशस्त्र बलों के रैंक और स्टेटस में कमी करने को लेकर था। 2016 के आदेश
के मुताबिक, सशस्त्र बल सिविल सेवा के एक प्रधान निदेशक को ब्रिगेडियर बनाए जाने के बजाय एक
मेजर जनरल के बराबर की रैंक पर लाया गया था। उस वक्त ही मंत्रालय के कदम से सशस्त्र
बलों में व्यापक रोष पैदा हो गया था। सैन्य अधिकारियों में इस बात को लेकर असंतोष बढ़
रहा था कि मौजूदा समान दर्जा त्रुटिपूर्ण है और सरकार को अवश्य ही उनकी चिंताओं का
हल करना चाहिए।
5 जनवरी 2018 को रक्षा
मंत्रालय ने कहा कि, “सशस्त्र बल अधिकारियों
और सशस्त्र बल मुख्यालय असैन्य सेवा (एएफएचक्यू सीएस) अधिकारियों के बीच समानता के
मुद्दे पर रक्षा मंत्रालय के 18 अक्टूबर 2016 की तारीख वाले पत्र को वापस ले लिया गया
है।” मंत्रालय ने यह भी कहा कि, “केंद्रीय मंत्रिमंडल ने एएफएचक्यू सीएस के कैडर पुनर्गठन की जो मंजूरी दी है उसे
पूरी तरह से लागू किया जाएगा। पदों को कैबिनेट द्वारा मंजूर अतिरिक्त पदों के अनुरूप
सृजित किया जाएगा।”
प्रति माह रसोई गैस के दाम बढ़ाने की घोषणा सरकार ने वापस खींच ली
केंद्र सरकार ने 1
जून 2016 से सरकारी तेल कंपनियों को प्रति माह एलपीजी सिलेंडर के दामों में 4 रुपये
का इज़ाफ़ा करने की छूट दी थी। इसके पीछे सरकार की मंशा रसोई गैस की सब्सिडी कम करने
की थी। लेकिन अपनी ही दूसरी योजनाओं में यह योजना आपत्ति बनती जा रही थी, साथ ही कुछ
जगहों पर राजनीतिक विरोध भी झेलना पड़ रहा था। लिहाजा दिसम्बर 2017 के आखिरी सप्ताह
में केंद्र सरकार ने अपनी इस योजना को वापस खींच लिया। योजना को वापस लेते समय
बताया गया कि यह योजना सरकारी की दूसरी योजना, जिसका नाम उज्जवला योजना था, को
बाधित कर रही थी।
अब की बार महंगाई खुद-ब-खुद
बढ़ रही है, इसमें सरकार का कोई
रोल नहीं है ! रुपये का स्तर मनमोहन का स्तर गिराता था, हमारा स्तर तो
इससे ऊंचा होता है !
मनमोहन सिंह वाली यूपीए सरकार के दौर में लोगों को भाजपा जैसे मजबूत विपक्ष का
सहारा था। ईंधन हो, धान हो, किराया हो, फल या सब्जी के दाम हो... दाम में इज़ाफ़ा होता तो पूरा देश चक्काजाम कर दिया जाता था। लोगों की तकलीफों पर भाजपा और उनके
सैंकड़ों संगठन हर राज्यों में, हर सड़कों पर नये-नये और नायाब तरीकों के साथ महंगाई का
विरोध करते थे। वो दौर, वो तस्वीरें, वो मंजर ताज़ा इतिहास है। इतना भी पुराना नहीं है कि उसके लिए 10 साल तक किसी दस्तावेज का अनुवाद करना पड़े।
महंगाई... अब जाकर महंगाई के पीछे की वजहें, वैश्विक परिप्रेक्ष्य, अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियां जैसा ज्ञान बांटकर महंगाई का बचाव करना किसी गेलसप्पाई
के अलावा और कुछ नहीं है। उस वक्त बैलगाड़ी लेकर सड़कों पर उतरना, ट्रेन रोकना, बीच
बाज़ार वरिष्ठ राजनेताओं का नाचना, पुतले जलाना और फिर आज बचाव के लिए अर्थतंत्र का
ज्ञान बांटते फिरना... शायद विपक्ष में रहते हुए उनका धर्म हर चीज़ का विरोध करना ही
था, और आज हर चीज़ का बचाव करना है। मनमोहन सरकार में दाल 80 तक पहुंची तो सड़कों पर
कपड़े फाड़कर विरोध-प्रदर्शन किया, लेकिन फिर मोदी सरकार में यही दाल 100 को पार कर
गई। सीएम मोदी ने एक गुजराती चैनल को आधे धंटे तक यह समझाया था कि महंगाई बहुत
सरलता से कैसे कम हो सकती है। लेकिन उस आधे घंटे का फायदा देश को पांच सालों तक तो
नहीं हुआ!!!
रुपये का स्तर गिरने पर मनमोहन सरकार का स्तर गिरता था, हमारे यहां रुपया
ऑल टाइम हाई पहुंच गया, इससे हमारा स्तर भी ऑल टाइम हाई साबित होता है!!! श्री श्री रविशंकर तो दिखाई ही नहीं दिए, क्योंकि उनका 40 का आंकड़ा 80 तक जा
पहुंचा था!!! काले धन के
आंदोलनकारी बाबा रामदेवजी ने महंगाई पर नया ज्ञान दे दिया कि दाल खाने से जोड़ों का
दर्द होता है!!!
महंगाई अब मुद्दा नहीं था, बल्कि महंगाई की शिकायतें करनेवाले लोगों को देशद्रोही
कहना नया ट्रेंड बन गया!!! सिनेमा और खान-पान के शौकीन लोगों को दोष दिया जाने लगा!!! जो
भक्त ये मानते थे कि मनमोहन की वजह से किमतें बढ़ रही हैं, वे लोग कहने लगे कि
अंतरराष्ट्रीय स्थितियों की वजह से दाम बढ़ते हैं, इसमें मोदी सरकार का कोई रोल नहीं है!!!
गुजरात चुनाव, मनमोहन पर पीएम मोदी का विवादित बयान, चुनाव खत्म होने के बाद
कहा- हमें मनमोहन की देशभक्ति पर संदेह नहीं
दिसम्बर 2017 के गुजरात
विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान पीएम मोदी से लेकर कांग्रेस के दिग्गज, सारे के
सारे चुनाव प्रचार को गजब के निचले स्तर तक ले गये। इसी दौरान पीएम मोदी ने मनमोहन सिंह पर विवादित बयान दिया, जिसमें मनमोहन सिंह की देशभक्ति पर सवाल उठाया गया। चुनाव के
नतीजे आने के बाद कांग्रेस ने पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर दिए गए विवादित
बयान को लेकर सदन में खूब हो-हल्ला किया। दिनों तक सदन शोरगुल से सराबोर होता रहा।
लेकिन स्टोरी में गजब का यू-टर्न तब आया, जब वित्तमंत्री अरुण जेटली ने सदन से कहा
कि हमें मनमोहन सिंह की देशभक्ति पर कोई संदेह नहीं है। बताइए, दोनों दलों के समर्थकों ने फेफड़े फाड़े और अंत में एक हलके-फुलके बयान ने सारा कीचड़ साफ कर दिया!!!
मवेशियों की अधिसूचना पर अपनों से ही घिरी सरकार, अधिसूचना को बदलने के सरकार ने
दिये संकेत
मई-जून 2017 के
दौरान मवेशियों की खरीद-बिक्री पर रोक लगाने वाली अपनी अधिसूचना को लेकर केंद्र
अपने ही राज्यों या नेताओं से घिरते नजर आई। विरोधी दल के राज्य तो विरोध कर ही रहे
थे, लेकिन किरण रिजिजू जैसे अपने ही केंद्रीय मंत्री, मेघालय यूनिट समेत कुछ
राज्यों के अपने ही नेताओं के विरोध के चलते बीजेपी सरकार अपनी ही अधिसूचना को लेकर
असमंजस में दिखी। बीफ की राजनीति इतनी हुई कि अपनी ही सरकारों के मंत्री या नेताओं ने
अपने अपने प्रदेशों में अपने अपने वोटरों को नाराज करने के बजाय केंद्र की अधिसूचना
पर ही बवाल करना शुरू कर दिया। विरोधियों से निपटना तो सरकार को आता ही था, लेकिन
अपनों से निपटने की ज़रूरत आन पड़ी थी।
केंद्र अपनी
अधिसूचना में बदलाव के संकेत दिये जा रही थी, वहीं 30 मई के दिन मद्रास हाईकोर्ट की
मदुरै बेंच ने इस अधिसूचना पर रोक लगा दी। हाईकोर्ट ने चार सप्ताह के लिए रोक
लगाई और केंद्र तथा राज्य सरकार से जवाब मांगा। 11 जुलाई 2017 के दिन सुप्रीम कोर्ट
ने केंद्र सरकार के नोटिफिकेशन पर देशभर में रोक लगाने के मद्रास हाईकोर्ट के फैसले
पर मुहर लगाई। सुप्रीम कोर्ट के सामने केंद्र सरकार ने अधिसूचना को लेकर जो कहा वो
सरकार की कमजोर तैयारियों को स्पष्ट कर गया। सरकार ने कहा कि इन नियमों को लेकर राज्य
सरकारों से कई सुझाव और आपत्ति जताई है जिन पर विचार किया जा रहा है। केंद्र सरकार
फिलहाल नियमों को लागू नहीं कर रही है और इनमें बदलाव करने में करीब तीन महीने का वक्त
लगेगा।
आरक्षण देश के विकास में बाधा है... से लेकर... सवर्णों को भी आरक्षण देंगे ! सोशल मीडिया पर आरक्षण हटाओ की मुहिम चलवाई, फिर मुहिम वालों को ही हटा दिया
आरक्षण को लेकर
भाजपा और आरएसएस, दोनों के अनेकों अनेक बयान है, जिसमें आरक्षण का सूचित विरोध किया
जाता था। आरक्षण को देश के विकास में बाधा बताया गया। ऐसे कई मौके हैं जहां पर भाजपा
और संघ ने मिलकर आरक्षण के खिलाफ मुहिम चलाई। इससे घबराकर दूसरी पार्टियों ने
आंदोलन या विरोध किए। बिहार में मोहन भागवत ने आरक्षण को लेकर बयान दिया तो फिर
पीएम मोदी को कहना पड़ा कि आरक्षण को कोई हटा नहीं सकता।
फिर वो दौर आया जब सरकार ने सवर्णों को ही आरक्षण का तोहफा दे दिया!!! रोजगार नहीं दे पाए तो आरक्षण!!! नौकरियां थी नहीं, लेकिन आरक्षण आ चुका था!!! वाट्सएप या फेसबुक पर आरक्षण हटाओ ग्रुप
वाले अचानक ही गायब हो गए! जो धड़ा पहले आरक्षण हटाओ वाला नारा बोलता था वो भी
आरक्षण और विकास के संबंधों को स्थापित करने में जुट गया! लठैत पहले कहा करते थे
कि मोदीजी आएंगे तो देश को इतना मजबूत बनाएंगे कि देश में आरक्षण की ज़रूरत ही नहीं होगी, लेकिन जब आरक्षण की गोलियां बटी तब लठैत मनमोहन सिंहजी की आत्मा के साथ साधना
में बैठे थे!!!
2018 के अंत तक गंगा साफ नहीं हुई तो गंगा में ही जल समाधि ले लूंगी, गंगा में तो
उमाजी नहीं कूदी बल्कि गंगा के एक और भगीरथ की जान चली गई
उमा भारती ने डंके
की चोट पर कहा था कि 2018 के अंत तक गंगा साफ नहीं हुई तो गंगा में ही कूद जाऊंगी।
वैसे उमा भारती ने यह भी कहा था कि वो पहली होगी जो वॉलमार्ट की दुकान में आग
लगाएगी। उनका एक और बयान था कि एनडीए की सरकार बनते ही वाड्रा को जेल भेज देंगे।
ना कहीं आग लगी, ना वाड्रा जेल गया और ना ही गंगा साफ हुई।
गंगा तो साफ नहीं हुई, उल्टा सुप्रीम कोर्ट से फटकार ज़रूर खानी पड़ी! खुद कोर्ट ने सरकार को फटकार लगाते
हुए कहा कि, “आपके चुनावी घोषणापत्र में ये था तो अब तक इसकी शुरुआत क्यों नहीं हो रही है?” कोर्ट ने यहां तक कहा कि, “सरकार फाइलों को घुमाना ना पड़े इसके लिए मंत्रीमंडल के स्वरूप में पहले से ही
भारी बदलाव कर चुकी है तो फिर फाइलें अब भी क्यों मंत्रालयों के बीच घूम रही हैं?” सरकार नहीं सुधरी तब अदालत को कहना पड़ा कि, “ऐसी कार्यपद्धति से युगों तक भी गंगा साफ नहीं हो सकती।” सुप्रीम कोर्ट ने फटकार लगाते हुए टिप्पणी कर दी कि, “एक ऐसी जगह सरकार बता दे जहां गंगा की सफाई हो पाई हो।”
सिर्फ गंगा ही
नहीं, बल्कि पर्यावरणीय मामलों में भी मोदी सरकार की ढीलाई को लेकर कोर्ट ने कहा था कि, “सरकार कुंभकर्णी
नींद में सोई हुई है।” कोर्ट ने सरकार की तुलना 19वीं सदी की एक मशहूर कहानी के कामचोर किरदार रिप वैन विंकल से की थी। गजब था कि
जहां देश की अदालत इन्हें पर्यावरणीय मामलों में कुंभकर्ण का खिताब देती है, वहीं
इन्हें विदेश से कोई पर्यावरण से संबंधित कोई सम्मान दे जाता है!
गंगा तो साफ नहीं हुई, लेकिन गंगा नदी की सफाई को लेकर इस साल एक और संत श्री स्वामी सान्नद का
देहान्त हो गया। दुखद यह था कि उनका देहान्त किसी बीमारी के चलते या उम्र की वजह
से नहीं, बल्कि गंगा सफाई अभियान के प्रयत्नों के चलते हुआ था। गंगा नदी के शुद्धिकरण
को लेकर आमरण अनशन पर बैठे स्वामी सानन्द का देहान्त हो गया। दरअसल, स्वामी सानन्द
एक प्रोफेसर थे, जिनका नाम प्रो. जीडी अग्रवाल था। उमा भारती तो गंगा में नहीं कूदी,
लेकिन स्वामी सान्नदजी के जीवन को बचाने के लिए भी वो या उनकी सरकार ने कोई यत्न
नहीं किए!!!
पारदर्शिता, जवाबदेही, अहम नियुक्तियां और आरटीआई... सभी पर मनमोहन सरकार को नसीहत गुजरात से आती
थी, लेकिन आज सारी नसीहत गायब है
नरेन्द्र मोदी की
एक शैली रही कि वे हर चीजों पर यूपीए सरकार को सार्वजनिक नसीहतें देते थे। इसके पीछे
उनकी राजनीतिक मंशा गुजरात राज्य से उठकर पूरे देश में छा जाने की रही होगी। जो भी
हो, बहरहाल उन तमाम नसीहतों को वे खुद ही गड्ढे में दफना चुके हैं।
नरेंद्र मोदी का शायद
ही कोई ऐसा भाषण हो जिसमें वो ट्रांसपेरेंसी (पारदर्शिता) और एकाउंटेबिलिटी की बात न
करते हों। पर उनकी सरकार का अब तक का जो प्रदर्शन रहा, पारदर्शिता और जवाबदेही
नाम के दो विषय चर्चा में ही नहीं होते। मुख्य सूचना आयुक्त यानी सीआईसी और केंद्रीय
सतर्कता आयुक्त यानी सीवीसी, दोनों पर एक साल बाद भी मोदी सरकार ने कोई काम नहीं किया था!!! सीआईसी और सीवीसी, दोनों पर वो मनमोहन सरकार को खूब घेरते थे, लेकिन फिर
सीआईसी और सीवीसी, दोनों को कही घेरकर कोने में रख दिया गया। बहुत कुछ हो-हल्ला हुआ
तो सीआईसी और सीवीसी का देर रहते श्रृंगार हुआ। लेकिन श्रृंगार भी ऐसा, जिसमें पारदर्शिता और जवाबदेही का ही कॉमेडी शो हो गया। हाल यह हुआ कि अपनी सरकार के आखिरी
दौर में सीबीआई का अब तक का सबसे बड़ा विवाद हुआ और उसमें सीवीसी पर ही खुलकर इल्ज़ाम
लगने लगे!!!
मोदी सरकार पर
आरटीआई अधिनियम को निष्प्रभावी बनाने के प्रयास के आरोप लगते रहे। सीआईसी का पद
लंबे वक्त तक रिक्त पड़ा रहा!!! तीन सूचना आयुक्तों के पद भी एक साल से ज्यादा समय तक
खाली थे!!! एक चौंकानेवाला आंकड़ा आया था कि 40 हज़ार से ज्यादा मामले लंबित पड़े हैं!!! सूचना के अधिकार और सूचना उपलब्ध करवाने में देरी के मामले आते रहे।
आखिर में राष्ट्रीय
सांख्यिकी आयोग के दो अधिकारियों ने यह कहकर इस्तीफ़ा दे दिया कि सरकार आंकड़े छुपा
रही है या बदल रही है!!! अधिकारियों को सरकार जैसे-तैसे मना भी लेगी, लेकिन आंकड़े छिपाना या बदल देना पारदर्शिता है या लंपटता, यह मैट्रिक पास आदमी भी समझ सकता है।
पारदर्शिता की
बातें धरी की धरी रह गई, उल्टा सत्ता में आने के बाद कानून पास करवा दिया कि कौन
चंदा देगा अब कोई नहीं जान सकेगा!!! पारदर्शिता, जवाबदेही और सुशासन के चुनावी नारे
जुमले बनकर रह गए यह कहना गलत नहीं होगा।
ये सारे वो प्रमुख यू-टर्न थे जो चर्चा में रहे। मिनिमम कैबिनेट का नारा भी
जुमला साबित हुआ और कैबिनेट का कद पिछली सरकारों के कैबिनेट कद तक जा पहुंचा, वीआईपी
सुरक्षा में लगे जवानों की संख्या कम करने का नारा भी चला और उल्टा यह हुआ कि जो
संवैधानिक पद पर नहीं थे उनके इर्द-गिर्द सैकड़ों बंदूकें दिखने लगी, कैग रिपोर्ट के
आधार पर यूपीए सरकार पर हमले किए और फिर जब सत्ता में आए तो अरुण जेटली ने कह दिया
कि कैग रिपोर्ट पर हल्ला मचाना ठीक नहीं है, अमित शाह ने बाकायदा कह दिया कि पंद्रह
लाख वाली बात तो जुमला थी, स्वयं पीएम मोदी ने कह दिया कि चुनावी बातों पर ध्यान ना
दें क्योंकि कुछ बातें यूं ही कह दी जाती हैं, रॉबर्ट वाड्रा समेत कई लोग सीजनेबल
सब्जेक्ट बन गए, दिवालिये लोगों के विदेश गमन पर आंदोलन करने वाली बीजेपी के काल में
ही एक दर्जन से ज्यादा लोग विदेश गमन कर गए।
मजबूर सरकारें... जहां सरकार बनने से पहले तो सैकड़ों पीएम देश को मिल चुके होते
हैं !!!
“यू-टर्न सरकार” के संबंध में कई
विषय छूट गए हो, कई मुद्दे रह गए हो इसकी पूरी संभावना है। अब बात करते हैं “मजबूर सरकार” के संबंध में।
मजबूर सरकारों की मुख्य पहचान यही है कि यहां सरकार बने उससे पहले तो कई लोग देश के
पीएम बन चुके होते हैं। हालिया दौर में तो हर हफ्ते एक नया पीएम देश को मिलने लगा
है। कभी राहुल गांधी, कभी शरद पवार, कभी मायावती, कभी ममता बनर्जी, कभी कोई और...।
हर हफ्ते नये नये पीएम देश देख रहा है।
मजबूर सरकार किसे
कहते है इसकी चर्चा पहले होनी चाहिए। लेकिन पेंच यह है कि विरोधियों को ही मजबूर
सरकार कहते है, अपनी वाली तो हमेशा मजबूत ही होती है! खैर, लेकिन मोटे तौर पर कई दलों को लेकर चल रही सरकार मजबूर सरकार होती होगी।
वैसे मजबूर पीएम देखे हैं, कितने दलों को लेकर चल रहे थे ये तो याद नहीं। खैर,
मनमोहन सिंह याद आ गए तो याद कर लिया, हम इससे आगे बढ़ते हैं।
पहले बंधन होता
होगा, फिर गठबंधन होने लगे। लेकिन अब की बार महागठबंधन वाला लफ्ज़ चारों तरफ सुनाई
दे रहा है। सीधी सी बात है। इसमें कई सारे दल होते हैं। लिहाजा कई सारे जनसेवक होते
हैं, जो जन-सेवा करने के लिए किसी न किसी ‘पोर्टफोलियो’ पर अपना ‘पेटेंट’ चाहते हैं!!! कोई कैबिनेट में जगह मांगता होगा, कोई उससे नीचे, कोई उससे भी नीचे जाकर सेटल
हो जाता हो जागा। 'सेटल' लफ्ज़ आने से आपत्ति ना जताए, क्योंकि सेटलमेंट ही गठबंधन की
आत्मा है। सुना तो यह भी है कि बैसाखी बने दलों या नेताओं के पैर तो पकड़ने ही होते
हैं, साथ ही उनके फूफा-भतीजे-जीजा-कार्यकर्ता, सबकी 'आकांक्षाओं' को परिपूर्ण करना
पड़ता है। किसी को निगम देना पड़ता है, ताकि उसका गम भुलाया जा सके!!! किसी को कोई ठेका देना पड़ता है, ताकि उसका ठेका हमारे यहां बना रहे!!! सरकार चलाने के लिए सेटलमेंट मंत्रालय खोलना पड़ता है। जहां असंतुष्ट प्रजाति
के लोग अपनी अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति हेतु चले जाए।
कुछ कहते हैं कि ऐसी सरकारों से एक फायदा भी होता है। वो यह कि कुछ ऐसे फैसले रुक जाते हैं, जो देश
को नुकसान कर रहे हो, क्योंकि कइयों की रजामंदी लेनी होती है। जबकि कुछ कहते हैं कि ऐसी परिस्थितियों में देशहित के भी फैसले रुक जाते हैं, क्योंकि कइयों की रजामंदी
लेनी होती है। उधर मजबूत सरकारों ने भी कई गलत फैसले लिए हैं। आपातकाल हो, राम मंदिर का
ताला खोलना, शाह बानो वाला संस्करण हो, नोटबंदी जैसा बेतुका फैसला हो, इससे भी
अधिक मामले हैं, जिसमें मजबूत सरकारों ने गलत फैसले लिए थे। दूसरी तरफ मजबूत सरकारों
के दौर में ऐसे भी फैसले हैं जो तत्काल लिये गये, जिसने देश को फायदा पहुंचाया। मजबूर
सरकारों में भी यही हाल है, साथ में कई ऐसे मामले हैं, जिसमें कुछ गलत फैसले मजबूरी की
वजह से टाल दिए गए। कमजोर सरकार के दौरान मंडल आयोग की सिफारिशें लागू हुई, अल्पमत
वाली सरकार ने आर्थिक उदारीकरण का जीवनदान दिया, रिमोट सरकार ने सूचना का अधिकार
और मनरेगा जैसे काम किए। कुल मिलाकर, इसका अंतिम सिरा सभी अपने अपनी हिसाब से
निकाल लेते हैं। लिहाजा हम सिरा निकालने की कोशिशें करने के बजाय जो है उसी को ही
देखेंगे।
पीएम मोदी विपक्षों का जो गठबंधन या महागठबंधन है उसके बारे में आज-कल कहते हैं कि गठबंधन की राजनीति
देशहित के खिलाफ है। लेकिन वो खुद ऐसा बोलकर एक नहीं किंतु सैकड़ों तथ्यों को छुपा
देते हैं। उनकी भी सरकार दरअसल गठबंधन की सरकार है। अपने एनडीए के गठबंधन को वो
क्या कहेंगे? इससे पहले वाजपेयी की सरकार भी गठबंधन
की सरकार ही थी। वो क्या ये कह सकते हैं कि वाजपेयी की सरकार देशहित के खिलाफ थी? यानी कि पीएम सिर्फ भाषण दे रहे हैं, यही मान लिया जाए। गठबंधन की राजनीति को
सफलतापूर्वक किसने लागू किया ये तो पता नहीं, लेकिन भारतीय राजनीति का अजीब मंजर है
कि जिस कांग्रेस ने सबसे ज्यादा समय अकेले दम पर देश की सत्ता का लुत्फ उठाया, उसी
कांग्रेस के नाम सबसे ज्यादा समय तक गठबंधन सरकार चलाने का रिकॉर्ड है। यूपीए
सरकार का कार्यकाल 10 साल रहा, जो कि गठबंधन सरकार थी। इंदिरा गांधी के खिलाफ सबसे
पहले महागठबंधन बना। जीता और सरकार बनाई। लेकिन वो सरकार ज्यादा समय तक टिक नहीं पाई। 1995 के बाद अब तक का दौर गठबंधनों का दौर रहा।
मोदी कहते हैं कि
विपक्ष मिलकर मुझे हराना चाहता है। लेकिन इसमें भी कोई नयी बात नहीं है। क्योंकि
विपक्ष यही चाहता है, तभी तो 2014 से पहले मोदी और उनकी पार्टी इसी दिशा में काम
करती थी। कल को कोई क्रिकेट टीम कह देगी कि सामने वाली टीम हमें हराना चाहती है। किसी
लोकतंत्र में यह नहीं सुना कि विपक्ष सत्तादल को जीताना चाहता हो, लिहाजा विपक्ष
मुझे हराना चाहता है वाली लाइन हम छोड़ ही देते हैं। इन सब हलकी-फुलकी राजनीतिक
दलीलों को छोड़ दे तो, अभी जो मोर्चा बना है, वो गजब का है। महागठबंधन नाम है, लेकिन
राज्य स्तर पर गठबंधन की रणनीतियां ज्यादा दिखाई देती हैं। राष्ट्रीय स्तर पर जो
गठबंधन दिखाई देता है उसमें अभी से इतने सारे पीएम देश को मिल चुके हैं कि एक-एक साल
तक का सेटलमेंट करना पड़ेगा!!!
जनवरी 2019 के
दौरान भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने विपक्ष पर जो तंज कसा वो ठीक ही तो था। अमित
शाह ने कहा था कि सोमवार को बहनजी प्रधानमंत्री होगी, मंगलवार को अखिलेशजी, बुधवार को ममताजी, गुरुवार को शरद
पवारजी होंगे, शुक्रवार को देवेगौड़ा, शनिवार को स्टालिन बन जाएंगे और रविवार को देश छुट्टी पर चला जाएगा!!! अमित शाह
की यह बात सच जैसी ही तो है। अभी से हर हफ्ते नया पीएम वहां से निकल रहा है। अमित
शाह ने दिन की बात कह दी, लेकिन एक-एक साल का सेटलमेंट जैसे हालात तो है ही।
वैसे उधर अमित शाह
भी गजब के भाषण करके सरकार मोदीजी की बने उसके लिए प्रयत्न कर रहे हैं। अमूमन क्या काम
किए, कितनी योजनाएँ पूरी हुई, देश का क्या फायदा हुआ वगैरह बताकर वोट मांगे जाते
हैं। लेकिन अमित शाह तो डराकर वोट मांग रहे हैं। शाह कहते हैं कि मोदीजी पीएम नहीं बने
तो देश में अराजकता फेल जाएगी!!! अरे शाहजी... मान लिया भाई। मोदीजी पीएम नहीं बने तो
भारत के आसपास समंदर सूख जाएगा, पंछी मर जाएंगे, जानवर लुप्त हो जाएंगे, मौसम का
चक्र बदल जाएगा... अब तो शाहजी खुश हो लो। डराकर वोट मांगने के साथ साथ ऑल टाइम
हिट वाला जुमला - हिंदू खतरे में हैं - का नारा तो चलना ही था। सबसे पुराने धर्मों में से एक, जिस धर्म का हजारों साल का इतिहास है, जिसका सैकड़ों शताब्दियों का लंबा सफर
है, वो हिंदू धर्म महज 68 साल के मोदीजी के ना होने से खतरे में आ जाएगा!!! गजब के नेता, गजब के तर्क, गजब के लठैत और गजब का विपक्ष। इनक्रेडिबल इंडिया…!!!
इतिहास तो किसीका शानदार
नहीं है। 40 के आसपास सिमट जाने वाली कांग्रेस के पुराने घोटालों पर आज भी अदालत में तारीख पर तारीख आती रहती है। अखिलेश को याद करते हैं तो कुकुरमुत्तों का पूरा जमघट
दिखाई देता है। मायावती को देखकर लगता है कि फिर तो देशभर में हाथियों के ही पुतले
होंगे। ममता की सोचते है तो टोटल ब्लैक आउट दिखाई देता है। महज 4 सांसदों वाली आम
आदमी पार्टी के समर्थक भी केजरीवाल को पीएम बनाना चाहते हैं!!! उनकी यह चाहत भी तो
बीजेपी के जुमलों जैसी है, इसमें कोई शक है क्या?
मायावती और अखिलेश
का गठबंधन राजनीतिक गहराइयों का नहीं, बल्कि राजनीतिक छिछोरापन का नमूना कहना बेहतर
होगा। पीएम मोदी की भाजपा भी जिसे आतंकवादी पार्टी कहती थी उसी पीडीपी के साथ बंधन
में बंधी थी! बीच में एनसीपी को चारा डालना चाहा, जिसे वे कभी नेचुरल करप्ट पार्टी
कहा करते थे! नीतीश कुमार की अंतरात्मा कितनी फ्लेक्सिबल है सभी ने देखा। इधर
मायावती और अखिलेश का गठबंधन अतीत से बिल्कुल उलट है। दूसरे राज्यों में भी कई ऐसे
बंधन या गठबंधन हैं, जो मोदी के रथ को रोकने के लिए इकठ्ठे हो रहे हैं। मीडिया या
विशेषज्ञ इन बंधनों को कितना भी श्रृंगार करे, ये सारे राजनीतिक ढकोसले ही तो है।
सभी सीटों के
बंटवारे में उलझे हुए हैं और कहते हैं कि देश की समस्याओं को सुलझा देंगे!!! सभी के एक-दूजे के साथ हितों के टकराव है, फिर भी कहते हैं कि देशहित के लिए
सभी साथ आए हैं!!! अतीत के अविश्वास
हैं, भविष्य में कितना विश्वास होगा उसकी कोई गारंटी नहीं है, बावजूद इसके सभी देश का
विश्वास बनने की कोशिशों में लगे हैं!!! अलग अलग स्तर पर एनडीए या मोदी के खिलाफ जितने भी बंधन या गठबंधन हैं, सभी में अनिश्चितताएँ है, फिर भी सभी के दावे हैं कि वे देश को निश्चित नीतियां देंगे!!! इधर एनडीए में शिवसेना रोज भाजपा को गालियां देती है। फिर अचानक ही चाहत पुरी
होती है तो फिर हार पहनाने निकलते हैं! अकाली दल कहता है कि ईंट से ईंट बजा देंगे
भाजपा की, अगर वो हमारी मांगे नहीं मानती। पासवान, राजभर या दूसरे भी इसी रास्ते
चलते नजर आते हैं। हितों के टकराव, सीटों का बंटवारा, अनिश्चितता, सारे मसले एनडीए
में भी है।
मोदी हटाओ और मोदी
बचाओ... यही दो मुख्य मुद्दे हैं। दूसरे कोई मुद्दे तो है ही नहीं!!! फिर भी देश कहता है कि लोकतंत्र का सबसे बड़ा उत्सव आया है!!! किसीको हटाओ या किसीको बचाओ... ये लोकतंत्र का उत्सव है या फिर लोकतंत्र का
मजाक? सत्ता पक्ष मोदी बचाओ के नारे के साथ
उतरा है, विपक्ष मोदी हटाओ के नारे के साथ! इंदिरा युग का पुनरावर्तन विकास है तो फिर यह मंजर सही मान लीजिए। ‘मीडिया की दुकानें’ अपनी ‘कमाई के सबसे बड़े सीजन’ के लिए सज चुकी
हैं। पुरुष या महिला एंकरें, सारे के सारे अपनी अपनी दुकानों से चिल्लम-चिल्ली कर रहे
हैं!
भ्रष्टाचार,
गरीबी, महंगाई, किसान, बेरोजगारी, ईंधन के दाम, रुपये का स्तर, नोटबंदी, जीएसटी,
आर्थिक असमानता, सामाजिक साझेदारी, सुशासन, विकास, बिजली, पानी... ये सारे मुद्दे गायब
हैं। एक ही मुद्दा है। इसे हटाओ या इसे बचाओ!!! ऊपर वाले मुद्दे आएंगे ज़रूर। क्योंकि
भारतीय लोकतंत्र में इनका अपना एक समय है। लेकिन सभी जानते हैं कि ज्यादातर तो
वोटिंग किसी न किसी दूसरे मुद्दों से प्रेरित होता है।
वैसे 2014 में मोदी
सरकार बनी तब से देश चुनावी मोड़ में ही चल रहा है!!! मीडिया की कृपा से यही हो रहा है। मुद्दा यही होता है कि कौन बनेगा
मुख्यमंत्री!!! अब आखिर में महीनों से एक ही शो चल रहा है
कि कौन बनेगा प्रधानमंत्री!!! मीडिया की कृपा
से दूसरा कोई मुद्दा है ही नहीं इस देश में! मोदी सरकार हो या विपक्षों का जमघट हो, कोई नीतियों की बात नहीं करता, योजनाओं की चर्चा नहीं करता। सारे एक दूसरे को झाड़ कर ही वोट मांगते हैं। किसी को-ऑपरेटीव
सोसायटी का चुनाव लगता है, जहां सास-बहू मिलकर एकदूसरे के साथ लड़ते हैं, कभी दोनों मिलकर दूसरों के घर के बर्तन गिराते हैं।
सभी वाकयुद्ध में
उतर चुके हैं। मीडिया भी तरकश का तीर, मास्टर स्ट्रोक, तुरुप का इक्का, ब्रह्मास्त्र,
सिंहासन, राजगद्दी, सज चुका रणक्षेत्र, आर-पार की लड़ाई... न जाने क्या क्या बोलकर बात
का बतंगड़ बना रहा है। नेता भी पीछे नहीं हैं। कहते हैं कि यह पानीपत की लड़ाई से भी
बड़ी लड़ाई है!!! फिर तो मीडिया और लठैतों ने सोचा कि
चुनाव तो पानीपत की लड़ाई से भी बड़ी लड़ाई है, इसलिए तलवारें लेकर निकल पड़े हैं! कोई नेता कहता है कि हमें दुनिया की कोई ताकत नहीं हरा सकती। समझ नहीं आता कि
चुनाव भारत में है या फिर दुनिया में? किसी को पचास साल तक राज करना है, कोई दो सौ साल की चेतावनी देता है!!! एक तरफ यू-टर्न के रूप में मशहूर सत्तारुढ़ सरकार है, दूसरी तरफ वो भावी सरकार
है जहां हर हफ्ते नया कुकुरमुत्ता प्रधानमंत्री बनता दिखाई देता है!!! कभी अखिलेश, कभी राहुल, कभी ममता, कभी मायावती। कोई इस ताक में भी है कि उसका
नसीब इंदरकुमार गुजराल या देवगौड़ाजी जैसा हो!!! ऐसे आशावादी भी कम नहीं हैं। हर हफ्ते
नये नये पीएम हैं यहां।
अभी तो ऐसा लगता
है कि सभी के नरेन्द्र मोदी, राहुल गांधी, अखिलेश, मायावती, ममता बनर्जी,
प्रियंका गांधी से पर्सनल रिलेशन होंगे। क्योंकि पिछली रात को यह तय हुआ, उसने
यह कहा, उसने वो कहा, आधी रात को बैठक हुई थी तो यह तय किया गया था, उसको ऐसा करना
चाहिए, ऐसा क्यों किया वैसा करना चाहिए था... यही चल रहा है। चुनाव है... कोई न
कोई तो जीतेगा। अभी जितने भी विशेषज्ञ हैं, उनके जितने भी तर्क या ज्ञान है, नतीजों के बाद बदल जाएंगे। ये जीत सकता है वाला सीन चल रहा है, उसके बाद चलेगा कि जो जीत
सकता था वो क्यों हारा!!! हमारे यहां नेताओं से ज्यादा दोगले नागरिक होते हैं, जो यह शिकायतें करते हैं कि देश को नेता धर्म और
जाति के नाम पर बांटते हैं, जबकि वोटिंग तो धर्म और जाति देखकर ही होता है।
लोकतंत्र का यह ढकोसला मुबारक हो।
(इंडिया इनसाइड,
मूल लेखन 15 जनवरी 2019, एम वाला)