“छुप गए सारे नज़ारे
ओए क्या बात हो गई,
तुने दीवार जो चुनवाई
मेरी सेल्फी भी
इंदुबेन से इवान्का हो गई”
छुप गए सारे नज़ारे...। दरअसल इस एक कथन में दो बड़ी घटनाएं शामिल हैं। पहली घटना
उन दिनों की जब पेट्रोल पंप (सॉरी डोनाल्ड ट्रंप) अहमदाबाद आए तो उनसे जो छिपाना था
वो छुप गया। दूसरी यह कि ट्रंप चले गए फिर चिल्लम-चिल्ली करनेवाले भी झुग्गीवालों
का दर्द भूल कर कही छुप गए। दोनों स्थितियों में... छुप गए सारे नज़ारे!!!
भारत में बहुत ही ‘आम’ मानी जानेवाली बात का इतनी बड़ी खबर बन जाना!!! क्योकि बात किसी आम राज्य की भी नहीं थी, आम शख्स की भी नहीं थी। वैसे मुझे इस ‘आम’ लफ्ज़ को ज्याछा
छेड़ना नहीं चाहिए, क्योंकि समूचे देश को पता है कि ‘आम’ कैसे खाया जाता
है!!! खैर, किंतु भारत
में बहुत ही आम मानी जानेवाली बात (सॉरी सामान्य सी माने जानेवाली बात), गरीबों को
ढकना या चुनवाना सामान्य सी बात है यह कहा तो इससे सामाजिक कार्यकर्ता या बुद्धिजीवी
वर्ग उग्र ना हो, क्योकि भारत में ऐसी चीजें सामान्य सी ही मानी जाती है, खास नहीं!!! मुकेश अंबानी, अमिताभ बच्चन, सचिन तेंदुलकर या किसी नेता या उन नेताओं के
दामादों के महल खास माने जाते है, झुग्गियां तो सामान्य ही होती है। है न? अब ‘दामाद’ का ज़िक्र कर लिया तो सोनपापड़ियों से निवेदन है कि इसे अपने दामाद के संदर्भ
में ज़रूर ले, किंतु वहां तक सीमित ना रखे, ऐसे दामाद हर जगह पाए जाते हैं!
दूसरी बात यही कि मैंने वॉल ऑफ गुजरात लिखा, जिसका संबंध उन दिनों गरीबी को
ढकना, झुग्गियों को छिपाना आदि से हुआ था। अब इसे कुछ चालाक लोग गुजरात की अस्मिता
से जोड़ देंगे। कहेंगे कि यह गुजरात का अपमान है, गुजरात के लोगों का अपमान है वगैरह वगैरह। इन ‘चालाक मेंढकों’ को उनकी ‘मूर्खतापूर्ण चालाकी’ मुबारक हो। मैं अपना ही अपमान क्यों करूंगा भाई? पहली और दूसरी बात तो कर ली, अब तीसरी बात। तीसरी बात यह कि जिन लोगों को उनके
घर समेत दुनिया के नजरों से बचाने के लिए दीवार बनवाकर छुपा दिया गया वे लोग हंगामा
करनेवालों को अपना हमदर्द ना माने। दीवार के पीछे जो लोग थे वो समझ ले कि हंगामा
करनेवालों को आप से कोई भी लेना-देना नहीं था, नरेंद्र मोदी को लेकर मौका मिला था तो
हंगामा कर रहे थे, वर्ना आप से इनका किसी प्रकार से कोई विशेष लेना-देना नहीं था।
एक विशेष बात यह भी नोट करे कि ऊपर जो टूटी-फूटी शायरी है उसमें इंदुबेन नाम एक
प्रतीक मात्र है। वहीं इवान्का नाम भी एक प्रतीक ही है। इंदुबेन वाले नाम से किसी
भी इंदुबेन का लेना-देना नहीं है, खाखरा-समोसा-पातरा वाले का भी नहीं या किसी का भी
नहीं। इंदुबेन तो केवल एक नाम के लिए इस्तेमाल किया है, जिससे उस नाम से एक सामान्य
सी जनता का प्रतिबिंब दिखाई दे। (‘सामान्य’ सी जनता लिखा है,
‘आम’ जनता नहीं!!!) जबकि इवान्का
नाम भी उसी हेतु इस्तेमाल किया है, जिससे एक विशेष तरह का प्रतिबिंब सामने आए। धारावाहिक
वाले करते है वैसे – यदि इस शायरी में किसी का नाम संयोग से किसी जीवित या मृत
व्यक्ति, घटना या प्रसंग से जुड़ता है तो यह केवल एक संयोग है, प्रयोग नहीं है। उसी
दिन इवान्का ट्रंप के साथ सेल्फी खींचवाने को उत्सुक कई लोगों को देखा था। दीवार के
इस पार इंदुबेन, उस पार इवान्का। हर किसीको इवान्का ही दिख रही थी, दीवार के इस
पार वाली इंदुबेन नहीं। सेल्फी भी इंदुबेन से इवान्का हो गई भाई!!!
खैर, हम अपनी बात
पर लौटते है। दरअसल, झुग्यियों को छिपाना, ढकना भारत में एक सामान्य सी प्रक्रिया
मानी जाए तो यह चिंतन का विषय है। मामला गुजरात का था लेकिन बिन पर्दा कई राज्य ऐसे ही है, 70 सालों बाद भी!!! ढकनेवाली यह प्रवृत्ति
कई दफा देखी गई है। भारत में इसे सामान्य सी प्रक्रिया ही माना जाता है। यदि इसे
लेकर ‘कोई’ सचमुच चितिंत होता तो यह नहीं होता। इस ‘कोई’ में इंदिरा भी आती है और नरेंद्र मोदी भी,
इन दोनों के मध्यकाल वाले भी! गुजरात और गुजरात
में अहमदाबाद। यह दोनों कोई सामान्य सी पहचानवाले नाम नहीं है। अब इसमें नरेंद्र मोदी
का नाम जुड़ गया है तो फिर यह खास तो थे, अब खासम-खास पहचान बना चुके है। खासम-खास
पहचान से याद आया कि नरेंद्र मोदी ने तो अपना ही नाम खास बनाया तो इसी गुजरात के
सहारे। गुजरात मॉडेल, गुजरात मॉडेल, गुजरात मॉडेल। इसी मॉडेल के सहारे दिल्ली का
तख्त हासिल किया तो फिर गुजरात की दीवार को लेकर सवाल तो उठने ही थे।
नरेंद्र मोदी पहली
कतार के नेता है। उनके बाद कोई दूसरी-तीसरी या चौथी कतार भी तो नहीं है!!! फिर तो बात पांचवी कतार तक जाती है! पहली कतार का इतना बड़ा नेता ऐसी हरकत करे जो वाकई ठीक नहीं थी, ऐसे में तो वो नेता
पांचवी कतारवालों को प्रेरित कर जाएगा। पहली कतार से ही ऐसा उदाहरण मिलेगा तो फिर
पांचवी कतारवाले तो न जाने क्या-क्या कर जाएंगे? पहली कतार से ही हरकत ठीक नहीं हुई, उदाहरण ही अच्छा नहीं मिला।
जो नेता 12 सालों
तक गुजरात का सीएम रहा हो, जिस गुजरात मॉडेल को उसने देश के विकास के लिए ज़रूरी
बताकर पेश किया हो, जो नेता 6 सालों से देश का पीएम हो, उसे अपने राज्य के प्रमुख
शहर में गरीबी को, बदहाली को, झुग्गियों को, गरीब बस्तियों को, गंदगी वाले रास्तों
को... पक्की दीवार चुनवाकर या कभी-कभी हरे कपड़े डलवाकर ढकना पड़ जाए, ऐसे में इन
चीजों को लेकर बहस तो होनी ही चाहिए थी। वैसे होनी चाहिए थी बहस और हो गई
चिल्लम-चिल्ली!!! कहते हैं न कि
डिबेट और गोसीप में फर्क होता है। मशहूर व्यंगकार संपत सरल कहते हैं वैसे, बहस करनी
थी गरीबी रेखा पर और करने लगे रेखा की गरीबी पर!!! ना ही मोदी को छाते से ढकनेवालों में और ना ही मोदी से छाता छीनने वालों में कोई
गंभीरता थी। बस, अपने नेता को छुपाओ या फिर वो अपना नहीं है तो भला-बुरा कहो। बात
इतनी सी ही थी। जो मसला था उसमें किसीकी कोई दिलचस्पी नहीं थी।
ढकने की प्रवृत्ति का इतिहास लंबा हैं, कुछ ताज़ा मामले अब भी सुनने-पढ़ने को मिल
जाते हैं, नेता गरीबी नहीं ढकता है, वो तो अपनी विफलता को ढकता है
ढकना या छिपाना,
यह कोई पहली दफा हुआ कारनामा नहीं था। वैश्विकरण की नीति लागू होने के बाद ‘ग्लोबल’ के सामने ‘लोकल’ को ढकते हुए कई सरकारों को देखा है। दरअसल
नेता कपड़े डलवाकर या दीवारें चुनवाकर गरीबी नहीं ढकता है, अपनी विफलता को ढकता है।
अब नरेंद्र मोदी जैसे अवतारी पुरुष ने यह कर दिया तो फिर अब से इसे विफलता नहीं बल्कि राजनीति की नयी संस्कृति का आधिकारिक सर्टिफीकेट मिल जाएगा। यह संस्कृति है
दशकों पुरानी, लेकिन अब तक बेचारी थी। अब इस बेचारी को मजबूत सहारा मिल गया है। अब
इसे आधिकारिक रूप से प्रमाणित कर दिया गया है।
गुजरात में सितम्बर
2017 में जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आंबे आए थे। जी हां, वही गंगा आरती और बुलेट
ट्रेन वाले चच्चा! उनकी पत्नी थी साथ मे। तब बहुत ही बड़े, लंबे
और विशाल नीले-हरे कपड़ों से शहर की उस तस्वीर को ढक दिया गया था। जनवरी 2017 के
वाइब्रेंट गुजरात ग्लोबल समिट में भी लोकल को ग्लोबल के सामने छिपा दिया गया था! तभी गुजरात सरकार के अधिकारी ने कहा था कि झुग्गियों को ढकना किसी प्रकार से
गलत नहीं है। चीन के शी जिनपिंग भी अहमदाबाद आए और फिर इज़रायल के नेतन्याहू भी यहां
आए। उन दौरों के समय भी हरे पर्दे से पूरे झुग्गी को छुपा दिया गया था।
दिल्ली में 2010 के
कॉमनवेल्थ गैम्स के दौरान झुग्गियां, गरीबी, गंदकी वाले इलाकों को ढक दिया गया था।
तब की मनमोहन सरकार के अधिकारी ने इस विवाद के दौरान सफाई में ऐसी बस्ती को “unpleasant
sights” कहा था!!! उन दिनों केंद्र
सरकार ने दिल्ली में बहुत बड़ी कार्रवाई की और सफाई और खूबसूरती के बहाने गरीबों को
ढक दिया, हटा दिया या टेंपररी शिफ्ट करवा दिया था!!! दिल्ली के भिखारियों को एंटी बैगरी कानून के तहत कार्रवाई का सामना करना पड़ा
था उन दिनों!!! सन 2000 में
क्लिंटन परिवार आया तब भी यही हाल था। तब भी आगरा को इन्हीं तरीकों से खूबसूरत
बनाया गया था। तब भी रेहड़ी-पटरीवालें, झुग्गियोंवाले टेंपररी हटा दिए गए थे या
छिपा दिए गए थे।
हम जब ऐसी चीजों की
चक्काचोंध से विश्वगुरू बनने का एहसास किया करते थे तब पिछली शताब्दि का दौर था।
सुना है कि राजीव गांधी के जमाने से ऐसे बीग इवेंट का चलन शुरू हुआ था, जिसे
चक्काचौंध वाले आयोजन कहे जाते है। बीच में नरसिम्हा राव के समय यह सब बंध हो गया
था। फिर शुरू हुआ। व्यक्तिगत रूप से हमने तो पहली बार विश्वगुरु बनने का अहेसास क्लिंटन
के समय किया, जब वो परिवार समेत इंडिया आए थे। हिलेरी और चेल्सी क्लिंटन के बारे
में मीडिया में ऐसे ही लिखा या दिखाया गया था, जैसा मेलानिया-इवान्का का छापा गया।
मुलायम सिंह यादव की सरकार ने भी तामझाम और भारी भरखम खर्चे के साथ अमेरिकी
राष्ट्रपति का स्वागत किया था। ऐसे आयोजन हर देश करता है और हर देश के
राष्ट्राध्यक्षों के लिए भारत भी करता है। कोई आपत्ति जताता है तो कोई ज़रूरी मानता
है। इसके फायदे बताए जाते है, नुकसान भी। वैसे एक फायदा तो ज़रूर पहुंचता है। यही
कि भारत को पता चलता है कि चाहे तो एक दिन में यहां का नकशा (हालात) बदल सकता है!
इंडिया के सामने
भारत सदैव हांफता रहता है। देखिए न, हमारे यहां सरकारी अस्पतालों में बिना ऑक्सीजन के
बच्चे मरे तो मरे, लेकिन दौरों में लाखों-करोड़ों फूंकना ज्यादा ज़रूरी हैं। ट्रंप चच्चा
ताज को देखने के लिए जानेवाले थे। यमुना में गंग नहर से पानी भेजा जाने लगा तो लोग
अचंभित थे। कई सौं क्यूसेक गंगाजल मथुरा से छोड़ा गया, जो दो दिनों की यात्रा कर आगरा
पहुंचा! तय किया गया कि यमूना का पानी भले पीने
योग्य ना हो, पर मेलानिया-इवान्का को बदबू ना आए! सिंचाई का पानी किसानों को मिले ना मिले, ट्रंप को बदबू ना लगे और नदी साफ
दिखे!!! अब ऐसे में क्या
योगी को कोसोगे? आज से 20 सालों पहले जब क्लिंटन फैमिली
यहां आया था तब भी यही हाल था। यह सब सालों से चलती आ रही प्रक्रियाएं है। शुक्र है
कि सब आते रहते है तो शहर व नदियां साफ होती रहती है, वर्ना यहां गंगा साफ करवाते
करवाते भारत के दो भागीरथ शहीद हो चुके है!
एक अलग और ताज़ा स्थिति ही देख लीजिए। जिस कोरोना कोविड19 को लेकर डब्ल्यूएचओ सीरियस अलार्म बजा चुका है, जिसे वैश्विक महामारी घोषित भले ना किया गया हो लेकिन मान ज़रूर लिया गया है, जिसे लेकर डब्ल्यूएचओ ने मार्गदर्शिका घोषित कर दी है, उसे लेकर हमारी केंद्र सरकार के ही मंत्री कह रहे है कि कोरोना के डर को बढ़ा चढ़ाकर पेश किया जा रहा है, उससे घबराने की ज़रूरत नहीं है!!! सरकार के दावे के मुताबिक मोटेरा में लाखों लोग इकठ्ठा हुए थे और यह डब्ल्यूएचओ की मार्गदर्शिका का सीधा उल्लंघन है। उधर दुनियाभर के रिपोर्ट्स को हमने देखा है और अंदाजा है कि कोविड19 भारत के लिए भी एक बड़ी त्रासदी साबित होगा। लेकिन मोदीजी और ट्रंपजी, दोनों गहरे दोस्त है। हमारे मोदीजी महामारी को भी उत्सव में बदल सकते है! ट्रंप बाबू क्या कर सकते है वो अमेरिकावालों को पता होगा। जो विफलताओं को ढकने में माहिर हो वो कई चीजों में माहिर होते है यह ज़रूर याद रखे।
दीवार तो हीट हुई, कितने आएंगे वाला गीत तो सुपरहीट हो गया, हिसाब-किताब की
बात ना करे भाई, छगन ने थोड़ी न दिया था कि मगन भी देगा!
डोनाल्ड ट्रंप ने
यात्रा शुरू करने से पहले कोलोराडो स्प्रिंग्स में एक रैली के दौरान दावा किया कि
उन्हें पीएम मोदी ने कहा कि उनके आगमन में रोड शो के दौरान 1 करोड़ लोग मौजूद रहेंगे।
यार, डोनाल्ड ट्रंप है या डोनाल्ड डक? हमारे मोदीजी को तो पता ही है कि पांच करोड़ की जनता है। उनका फेवरीट डायलोग
रहा है यह। ऐसे में 1 करोड़ लोग अहमदाबाद की सड़कों पर कैसे आ सकते है यह मोदीजी को
पता ही होगा, डोनाल्ड ट्रंप ने ही कुछ ज्यादा कर दिया। उनका मीडिया उनके 10 हज़ार
झूठ की गाथा तो लिख ही चुका है। खामखा मोदीजी को बीच में ले आए। मोदीजी बदनाम हुए
ट्रंप तेरे लिए! फिर 60 लाख से 1 करोड़ आएंगे तक ट्रंप
पहुंचे!!! गलती सुधार ली। अहमदाबाद
नगर निगम से पत्रकारों ने पूछा तो कहा गया कि 1 लाख लोगों के आने की उम्मीद है। फिर
क्या था? रोड शो में कितने आएंगे, स्टेडियम के
भीतर कितने आएंगे इसीका मैथेमेटिक्स चल पड़ा!
जिस अहमदाबाद की
जनसंख्या एक अनुमान के मुताबिक 80 लाख के आसपास हो वहां 1 करोड़ लोग, फिर 60 लाख लोग
और फिर 1 से 1.5 लाख का आंकड़ा!!! ट्रंप ने 1 करोड़
से ही शुरू कर दिया, इसीलिए बवाल हो गया। खामखा मोदीजी का नाम लेकर ट्रंपजी कह
गए। खैर, वो दोनों तो ‘तूं-तडाक’ से बात करते है तो दोनों में कोई हंसी-मजाक हो रहा होगा तूं-तडाक में। ट्रंप ने
सिरियसली ले लिया होगा, जबकि कुछ बातें तो यूं ही कह दी जाती है!!! अरे भाई, देश के साथ झूमलेबाजी करते है तो अपने परम मित्र के साथ ना करे क्या? परम मित्र को समझना चाहिए था यह। कोई आंकड़े को लेकर मजाक उड़ाए तो बता देना कि सिर्फ अहमदाबाद की गिनती करना
छोड़ दो, हमारे यहां सरकारी वाहनों को लगाकर सैकड़ों किलोमीटर दूर दूसरे शहरों से लोगों
को लाया जाता है। ट्रंप अमेरिका अपने चुनाव प्रचार में जाएंगे तो वो इस मॉडेल को
अपना सकते है, फायदा ही होगा!
3 जून 2017 को
अमेेरिका के न्यूयोर्क टाइम्स और वोशिग्टन पोस्ट जैसे प्रतिष्ठित अख़बारों ने ट्रंप
द्वारा बोले गए झूठों की एक सूचि को छापा था। न्यूयोर्क टाइम्स ने लिखा था कि अमेरिका
के इतिहास में ऐसा कोई भी राष्ट्रपति नहीं पैदा हुआ है जिसने झूठ बोलने में इतना वक़्त
गंवाया हो। इन दो अखबारों के अलावा दूसरे अमेरिकी अखबारों ने भी ट्रंप द्वारा बोले गए
झूठों की पूरी एक श्रृंखला बनाई थी, जिसके मुताबिक डोनाल्ड ट्रंप ने 10 हज़ार से भी
ज्यादा झूठ बोले थे!!! हमारे नजरिए से
वे ‘दसहज़ारी’ बन चुके है! सचिन तेंदुलकर और रिकी पोंटिंग के लिए ख़तरा!!!
खर्चे को लेकर भी खूब हंगामा हुआ। देखिए भाई, देश के लिए खर्चा नहीं देखा करते! विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रवीश कुमार ने बता दिया था कि प्रोटोकॉल, सिक्योरिटी, सड़क, संसाधन से जुड़े खर्च सरकार उठा रही थी, लेकिन मोटेरा स्टेडियम में आयोजन का खर्च डोनाल्ड ट्रंप अभिनंदन समिति ने उठाया। डोनाल्ड ट्रंप नागरिक अभिनंदन समिति तो बनाई थी। जो ‘लाभार्थी’ थे उन्होंने पैसा दिया! लाभार्थी हिसाब नहीं मांगते तो दूसरे कौन होते है मांगनेवाले? रही बात सरकारी खर्चे की, अरे भाई कितना सुंदरीकरण किया शहर का, खर्चा तो होगा ही न? मुफ्त में थोड़ी न कुछ होता है?
खर्चे को लेकर भी खूब हंगामा हुआ। देखिए भाई, देश के लिए खर्चा नहीं देखा करते! विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रवीश कुमार ने बता दिया था कि प्रोटोकॉल, सिक्योरिटी, सड़क, संसाधन से जुड़े खर्च सरकार उठा रही थी, लेकिन मोटेरा स्टेडियम में आयोजन का खर्च डोनाल्ड ट्रंप अभिनंदन समिति ने उठाया। डोनाल्ड ट्रंप नागरिक अभिनंदन समिति तो बनाई थी। जो ‘लाभार्थी’ थे उन्होंने पैसा दिया! लाभार्थी हिसाब नहीं मांगते तो दूसरे कौन होते है मांगनेवाले? रही बात सरकारी खर्चे की, अरे भाई कितना सुंदरीकरण किया शहर का, खर्चा तो होगा ही न? मुफ्त में थोड़ी न कुछ होता है?
इतनी सजगता क्या
काम की, जहां देश के हित के सामने लोग पच्चीस पैसे के चिल्लर का हिसाब मांगने लगे!!! समिति क्या है, समिति में कौन है, इसका कोई वेबसाइट नहीं है, कोई सोशल मीडिया अकाउंट नहीं है, अध्यक्ष कौन है, सदस्य कौन है, न जाने क्या क्या पूछने लगे कुछ
आलसी लोग। कहने लगे कि यदि आयोजक अभिनंदन समिति है और इसका सरकारी स्तर पर
लेना-देना नहीं है तो स्टेडियम के पास एएमसी और क्लेक्टर ऑफिस से क्यों मिल रहे है।
क्या निजी समिति को देश हित के लिए सरकारी ऑफिस सह्योग भी ना दे? फिर वेबसाइट को लेकर चिल्लाने लगे कि आयोजक कोई समिति है तो वेबसाइट सरकार ने
क्यों बनाई? अरे भाई, पहले पूछते है कि वेबसाइट नहीं है, सोशल मीडिया अकाउंट नहीं है और जब बनाते है तो चिल्लाते है कि इसने क्यों
बनाया, उसने क्यों नहीं बनाया! ‘बनाया’ तो सही न? तो फिर पूछने लगे कि अगर आयोजक कोई समिति है तो किसी बैनर पर, पास पर, पत्रकों में, इस्तेहारों में इसका नाम क्यों नहीं है। अरे भाई, उदार समिति है, अपना नाम नहीं रखना चाहती कही पर!!! इसमें कौनो आपत्ति
है? कुछ तो इवेंट मैनेजमेंट को लेकर निजी संस्थाएं, जो किसी
नेता-नेता पुत्र-उद्योगपति-बड़े सरकारी ओहदेवालों के बेटे-बेटियों की होती है, उसको
लेकर भी बात करने लगे। अरे भाई, ऐसी छोटी-मोटी चीजों को लेकर ही देश विश्वगुरु नहीं बन सका अब तक! उदार बनो, दिलदार बनो, मेहमान तो भगवान
होते है!!!
ट्रंप के दौरे के
समय जो करोड़ों का खर्च हुआ उसको लेकर भी कुछ दिनों तक चिल्लम-चिल्ली हुई। अरे भाई,
देशहित के कामों में हिसाब नहीं मांगा करते। छगन ने थोड़ी न हिसाब दिया था क्या कि मगन
देगा! कौनो सरकार ने हिसाब दिया है कि मोदीजी
को देना चाहिए। अभिनंदन समिति तो बनी और उसने शहर को नंदनवन बनाया तो फिर इसमें
किसको पेट में दर्द होता है भाई? आपने फंड दिया था
कि हिसाब मांग रहे हो! जिसने दिया था वो
भी नहीं मांग रहा होगा! वो सारे मिल-जुल
कर ‘हिसाब’ कर लेंगे! धबराना मत, कोई हिसाब मांगे तो अमिताभ बच्चन का डायलोग चिपका देना। कह देना
कि जाओ, पहले उसका हिसाब लेकर आओ!!!
ट्रंप आए तो बहार आई... दीवार बनाकर हक़ीक़त भी बाहर आई और धूल-मिट्टी से भरी
सड़कों के लिए नयी रौनक में भी बहार आई
ट्रंप आए तो बहार
आई...। फिर एक बार इस एक कथन में दो घटनाएं शामिल है। एक तो गुजरात की दीवार बना दी
तो फिर गुजरात की विफलता बाहर आई। दूसरा, जो सडकें सालों से इंतज़ार कर रही थी
मरहम-पट्टे के लिए, ना सिर्फ सर्जरी हुई बल्कि सड़कों के रोनक में भी बहार आई। अब दो
प्रकार की चीजें बाहर आई। हर किसीके पास अपने-अपने लठैत है, लिहाजा किसके लिए कौन
सी ‘बहार’ बाहर आई यह तो
वहीं पर देख लिया। अहमदाबाद के इंदिरा ब्रिज से लेकर एरपोर्ट के रास्ते तक 7-8 फीट ऊंची दीवार बनाने का काम शुरू हो गया। ताकि पीछे बसी झुग्गियों को ढक दिया जाए,
गंदगी वाले इलाकों को छिपा दिया जाए। 2010 में मनमोहन सरकार के दौरान कहा गया था
वैसे, शहर को खूबसूरत दिखाने के लिए! विवाद हुआ तो फिर दीवार का काम आधे से रोक दिया गया था। ऊंचाई भी कम करना
शुरू हो गया था फिर तो। यह देव सरन या सरनियावास इलाका था। आधे किलोमीटर से ज्यादा
इलाके में यह काम किया जा रहा था। काम के लिए वहां दोनों तरफ जो बांस के तथा अन्य
प्रकार के पेड़ थे, काट दिए गए! हमारे नेता ऐसे
ही होते है। पहले पेड़ कटवाकर, पौधों को उजाड़कर मैदान बनाओ, फिर वहीं से पर्यावरण
बचाओ पर उपदेश दो!!! लोग सुन भी लेते
है!!!
ट्रंप से छिपाने
के चक्कर में जो छिपाना था वो सबको दिख गया!!! इससे तो अच्छा था कि कही से देशी मदिरा लाकर पिला देते, झोंपडी भी महल दिखाई
देती!!! अमेरिका वाले तो
पीते ही है न। बताइए, इतनी तो अमिताभ बच्चन की भी दीवार हीट नहीं हुई थी, जितनी यह
दीवार हो गई! यूपी में जाकर ताजमहल दिखाना, दिल्ली में
जाकर सरकारी स्कूल के दर्शन करवाना, इधर गुजरात में छिपाना पड़ गया!!! एक हद तो और है भाई। जब भी कोई विदेशी मेहमान आता है तो उसे साबरमती आश्रम ही
क्यों ले जाया जाता है, गोडसे-वोडसे के घर का भी दौरा होना चाहिए।
महानगरपालिका के
अपने सूत्र से एक अख़बार ने लिखा है कि मनपा के एक अधिकारी ने बताया कि यहां वीआईपी
मूवमेंट ज्यादा रहती है और हर बार इस इलाके को ढकना पड़ता था, लेकिन अब दीवार बन
जाने से यह करना नहीं पड़ेगा!! मतलब कि नारे से
जंग जीतेंगे लेकिन समस्या का इलाज समस्या को छिपाकर कर देंगे, ताकि समस्या किसीको
ना दिखे और ना दिखने से लगे कि समस्या है ही नहीं!!!
सरकारी आंकड़ों में
हेराफेरी या उलट-पुलट से आसमां के सितारे चमकते है। लेकिन कभी-कभी आसमां से चांद
इतना ज्यादा चमकता है कि जमीन का असली रंग दिखाई देता है। जुलाई 2019 में गुजरात
राज्य सरकार ने विधानसभा में बताया था कि गुजरात में 30 लाख 94 हज़ार परिवार ग़रीबी
रेखा से नीचे गुजर-बसर कर रहे हैं। अब यदि एक परिवार में पाँच सदस्य भी मान लिए जाएँ
तो गुजरात में क़रीब डेढ़ करोड़ से ज़्यादा लोग ग़रीबी रेखा से नीचे हैं। गुजरात की
आबादी क़रीब साढ़े छह करोड़ है। इस हिसाब से क़रीब 20 फ़ीसदी लोग ग़रीबी रेखा से नीचे
हुए।
साक्षरता के मामले
में 2001 में गुजरात 16वें नंबर पर था और 2012 में और बुरी स्थिति हो गई। तब गुजरात
में 79.31 फ़ीसदी लोग साक्षर थे और इसके साथ ही गुजरात साक्षरता के मामले में देश में
18वें नंबर पर था। ऐसोचैम के मुताबिक़ वर्ष 2007-08 से 2013-14 के बीच, यानी मोदी शासन
के दौरान गुजरात में शिक्षा पर किया गया खर्च मह़ज 3.3 प्रतिशत था, जो बीस राज्यों
में न्यूनतम था। इस सूची में अपने जीडीपी की 11 फ़ीसदी राशि खर्च करके बिहार और असम
पहले स्थान पर रहे थे! राष्ट्रीय अपराध
ब्यूरो के आंकड़े भी गुजरात के संदर्भ को लेकर चौंकाते है। शिक्षकों की कमी को लेकर
स्कूल छोड़नेवाले बच्चों का आंकड़ा हो, बाल विकास सूचकांक हो सब चौंकाता है। 2008-13
तक का कैग रिपोर्ट शौचालय और स्वच्छता, पोर्ट पोलिसी, शिक्षा का अधिकार, प्राथमिकी
शिक्षा और सरकारी स्कूलों के बुरे हालात जैसी चीजों को लेकर काफी कुछ कहता था। कुपोषण
के मामले में भी स्थिति ख़राब है। सितंबर 2012 में मोदी ने वॉल स्ट्रीट जनरल को दिए
इंटरव्यू में कहा था कि यहाँ कुपोषण इसलिए है क्योंकि गुजराती शाकाहारी होते हैं और
मध्य वर्ग सेहत से ज़्यादा अपने लुक्स और वेट को लेकर चिंतित रहता है। मोदी के इस तर्क
की तब कड़ी आलोचना भी हुई थी।
कहीं दीवार बनाकर
छिपाना तो इधर स्टेडियम के आसपास बसे झुग्गीवालों को नोटिस दिया गया कि हट जाइए। यह
सच है कि अवैध कब्जा या अतिक्रमण एक समस्या है, लेकिन उसका मूल राजनीति और विकास
की लंपटता में छिपा है। वैसे साधू बेट का मामला अतिक्रमण नहीं था, फिर भी उनको वहां से हटा दिया गया था!
हमने ऊपर देखा
वैसे चीन, जापान, इजरायल सभी के राष्ट्राध्यक्ष के दौरे के समय गुजरात मॉडेल को
दिखाने की जगह ‘कुछ’ छिपाना पड़ गया! ट्रंप सबसे
ताकतवर राष्ट्राध्यक्ष थे, सो इनके लिए कपड़ा नहीं चला, दीवार ही चलनी थी! दीवार के पीछे 5 ट्रिलियन वाला अर्थतंत्र था, ट्रंप से छिपाना था! वर्ना हमारा स्मार्ट शहर देखकर ट्रंप अमेरिका का विकास कर देता! गुजरात के इतिहास की कहानियों में एक कहानी यह है कि कोई राजा उस वक्त शहर में घूमने
निकला, उसे पैरों में कंकर लगे तो उसने रास्ता बनाने का फरमान सुना दिया। आज का वक्त है
कि कोई सालों तक सीएम रहता है, खूबसूरत रिवर फ्रंट बनवाता है, किंतु पक्के घर नहीं! करोड़ों परिवारों को पक्के घर की चाबी देना एक नारा है, नारों से जी लेता है
देश। दरअसल, सब ज़रूरी है, लेकिन पहले क्या ज़रूरी है यह सोचना यहां ज़रूरी नहीं माना
जाता। तभी तो मनमोहन सरकार ने करोड़ों बहाकर कॉमनवेल्थ का शानदार आयोजन कर दिया,
लेकिन दिल्ली के झुग्गीवालों का जीवन स्तर सुधारने का नहीं सोचा! सब कुछ नेहरूजी का ही किया-धरा है, वर्ना गुजरात में गरीबी हट गई होती! नहीं हटाई तो छिपानी तो पड़ेगी ही न?
गरीबी के नारे से
चुनाव जीत जाते है, लेकिन सरकारों को गरीबी से शर्म आती है! विदेशी मेहमान का काफ़िला वहां से गुजरे तो उन्हें विफलता नजर नहीं आनी चाहिए और
सब खूबसूरत दिखना चाहिए। सड़क किनारे बनी झुग्गियां किसी राज्य का वो चहरा है, जो
उस राज्य के प्रशासन की विफलता दिखाता है। वो चेहरा नहीं दिखना चाहिए, चाहे पर्दे
डालो या दीवारें चुनवा दो। मूर्ति बनवानी है इसलिए पूरा का पूरा टापू खाली कर दो
हुआ था, ट्रंप और मोदी को तो एकाध पद्मश्री दे देना चाहिए कि दीवार ही बनवाई, खाली
करकें बाहर नहीं फेंका। शौचालय बंधवाने के चक्कर में घर के घर का वादा गलती से रह
गया! गलती से मिस्टेक हो जाती है भाई! 2024 तक भारत के हर लोगों को अपना पक्का धर दे देगी सरकार!
भारत के इतने
गांवो में हमने बिजली पहुंचाई, इतने शौचालय बनवाए, घर धर में सीवर की व्यवस्था की,
पानी दिया, कहनेवाली 12 प्लस 6 साल पुरानी सरकार से इतना बड़ा इलाका छूट गया था, सो
छिपा लिया! बस छिपा ही रहे थे कि भारत को दिख गया! लोग चिल्लम-चिल्ली करने लगे कि छिपाया क्यों? अरे भाई, ट्रंप यहां से निकलते और इन्हें यह दिख जाता तो क्या वो ग्रांट दे देता? घरवालों ने ही ग्रांट नहीं दी तो क्या सात समंदर पार वाला दे देता? खामखा इवान्का पूछ लेती कि वाट्स घेट? फिर कहना पडता कि इवान्का बहन, हमारे यहां तो व्हाट्सएप ही चलता है, व्हाट्सघेट
नहीं!
तंज कसे जाने लगे
कि पिछले 20 सालों से गुजरात में सरकार है लेकिन स्कूल इनको 5 साल पुरानी सरकार का
दिखाना है! गुजरात में लोग कहने लगे कि भाई अमेरिका के
सैटेलाइट तो आसमान से भी झुग्गियां देख सकते है, दीवार बनवाई तो साथ में तिरपाल भी
डलवा देना! अरे भाई, सैटेलाइट देखेगा तो वो थोड़ी न
मीडिया को कैसेट भेजेगा? तिरपाल का खर्चा
बचा लिया वो काफ़ी नहीं है क्या? 2022 का वादा
किया था, अभी तो 2020 है, तब तक को छिपाना पड़ेगा न भाई! और हंगामा काहे को करना? जब हमारे घर कोई
मेहमान आता है तो हम उसे ड्राइंग रुम में ही तो ले जाते है, स्टोर रुम थोड़ी न
दिखाते है? वैसे भी राजनीति ‘दीवार’ खड़ी करने में माहिर होती है। और तिरपाल
का जितना भी खर्चा बचा है, सूरत में लंबी सीढ़ी के लिए खर्च कर देना।
दौरे से पहले
सुंदरीकरण तो भारत के हर छोटे-मोटे शहर की पहचान है। लोकल नेता आता है तभी सड़कें
साफ होती है, ठीक होती है, रंग वगैरह डिवाइडर पर लग जाते है। लोग तो कहते हैं कि
छह-बारह महीनों में एकाध नेता अपने शहर में आता रहना चाहिए! वैसे लोग इसे किस तरीके से कहते हैं मुझे नहीं पता। लेकिन लोगों के इस कथन में यह
तो ज़रूर छलकता है कि लोगों को अपना प्रशासन तभी काम करता हुवा दिखता है, जब कोई आ
रहा हो! यानी कोई नहीं आएगा तो काम नहीं होगा! कोई आएगा तभी होगा! सरकारें-प्रशासन
की यही कार्यशैली है तो फिर ऐसे गुरु कैसे देश को विश्वगुरु बनाएंगे?
और वेसे भी हरा
कपड़ा टेंपररी सोल्युशन था, दीवार परमेनेंट सोल्युशन है! इतना तो विकास हो गया भाई, अब कितना करना है? साधू बेट की तरह सब उठवा देना है क्या? वैसे कुछ लोग ट्रंप को भी देखने चले गए थे। कुछ नहीं जा रहे थे, लेकिन फिर पता
चला कि मेलानिया और इवान्का भी है, तो चल दिए! कुछ लोग यह देखने गए थे कि दस हज़ार से भी ज्यादा झूठ बोलनेवाला इंसान होता
कैसा है! कुछ काफ़िला देखने गए, कुछ लंबी लंबी
कारें। कुछ गए नहीं ले जाए गए! लेकिन फिर भी कुछ
तो खुद से ही गए थे स्टेडियम में। वे बोल रहे थे कि वैश्विक संबंध ज़रूरी है, सौदे
होंगे, समझौते होंगे, कुछ देंगे, कुछ मिलेगा देश को। पता नहीं, शायद स्टेडियम में
समझौते होनेवाले होंगे या फिर समझौता होगा कि लाखों लोग दिखेंगे तो सौदा होगा! जो खुद से चल दिए थे उन्हें पता होगा वैश्विक संबंधों का। हमें थोड़ी न पता हो
सकता है। पता नहीं क्यों, मेहमान के लिए इतना कुछ करने के बाद भी मेहमान ने तो आने
से पहले ही कह दिया था कि भारत ने हमसे अच्छा व्यवहार नहीं किया, कोई बड़ा समझौता
अभी नहीं होगा! अब इन्हें ट्रंपजी नहीं तो पंपजी ही कहे न? आपके लिए यहां इतना कुछ कर रहे थे हम लोग और आप आने से पहले ही कहते हैं कि
भारत ने अच्छा व्यवहार नहीं किया! खैर, रंगारंग इवेंट
तो हो गया न भाई? देश को इससे फायदा ही पहुंचेगा। देखिए
न, हमारे कॉलेज के दिनों में क्लिंटन आए थे तब से लेकर अब तक कई राष्ट्राध्यक्ष आ
गए। हरे कपड़े से दीवार तक तो पहुंच गए हम लोग! फायदा ही तो हुआ है! है न?
(इनसाइड इंडिया,
एम वाला)