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Dandi March: दांडी मार्च... भारत की वो तस्वीर जो कभी भुलाई नहीं जा सकती, जिसने ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिला दी थी

 
सौ से भी कम स्वयंसेवकों के साथ संसार की सबसे ताक़तवर महासत्ता के ख़िलाफ़ एक बूढ़ा आदमी सत्याग्रह करने के लिए निकलने वाला था। उस समय किसी ने नहीं सोचा था कि मुठ्ठी भर लोगों के साथ चला यह आदमी भारत की लाखों-करोड़ों जनता को एकजुट कर जाएगा। किसी ने कल्पना नहीं की थी कि इस सत्याग्रह की गुँज भारत की सीमाओं से पार जाकर दुनिया में फैलेगी और भारतीय इतिहास का अमिट पन्ना बन जाएगी।
 
वो यात्रा नहीं थी, वो तो कूच थी। सार्वजनिक हित का उद्देश्य, परोपकार की भावना, अन्याय के ख़िलाफ़ आवाज़, लोह सत्ता के विरुद्ध अचंभित करने वाला आंदोलन, अनुशासन, सत्य का आग्रह, नैतिकता। नोट करें कि मानव जाति के इतिहास में दस सबसे महत्वपूर्ण मार्च में दांडी मार्च शामिल है।
 
12 मार्च 1930 की तारीख़। ये दिन भारतीय इतिहास में दांडी कूच के लिए जाना जाता है। एक ऐसा आंदोलन, जिसका ज़िक्र उस ज़माने में दुनिया भर में होने लगा था। "दांडी कूच" भारत की वो तस्वीर है जो कभी भुलाई नहीं जा सकती। इसे "नमक सत्याग्रह" भी कहा जाता है।
 
12 मार्च 1930 से 5 अप्रैल 1930 तक 387 किमी (कुछ शोधकर्ताओं के मुताबिक़ 425 किमी) लंबा दांडी का ये सफ़र भारत के उस महान स्वतंत्रता संग्राम का एक सुनहरा और अमिट पन्ना है।
 
भारत में 18वीं शताब्दी के मध्य में ईस्ट इंडिया कंपनी व्यापार हेतु आ धमकी। इस कंपनी ने भारत में राजनीतिक परिस्थितियाँ सहित अन्य चीज़ों का फ़ायदा उठाकर कोलकाता बंदरगाह पर भी व्यापारिक कोठी शुरू की। मुफ़्त के दामों में माल ख़रीदकर उसे इंग्लैंड में बड़ा मुनाफ़ा लेकर बेचा जाने लगा। इन्हें समंदर के रास्ते ले जाया जाता था।
भारत से जाते वक़्त ये जहाज़ माल से लदे हुए होते थे, जो आते समय लगभग खाली अवस्था में होते थे। लगभग खाली जहाज़ों को समंदर में संतुलन संबंधित समस्याएँ सताती थीं। अंग्रेज़ों ने इसका समाधान ढूंढा। उन्होंने जहाज़ों में नमक की बोरियां भरना शुरू कर दिया। इसका संतुलन के लिए तकनीकी रूप से इस्तेमाल किया जाता था। ये तकनीक उनके लिए फ़ायदेमंद रही। ऐसे अनेक जहाज़ रोज़ाना लिवरपूल से कोलकाता के बीच आने जाने लगे।
 
स्थितियाँ ऐसी हो गईं कि कोलकाता के बंदरगाह पर नमक इक्ठ्ठा होने लगा। अंग्रेज़ व्यापारी इस विदेशी नमक को मुफ़्त में बर्बाद करना नहीं चाहते थे। उन्होंने बंगाल के समंदर किनारे गृहउद्योग के नज़रिए से पैदा किए जा रहे स्वदेशी नमक के ऊपर शुल्क लगा दिया।
 
ये साल ई.स. 1762 था। नमक पैदा करने के लिए समंदर इलाक़े के इजारेदारों से भारी क़ीमत वसूली जाने लगी। इसका सीधा असर उत्पादन पर पड़ा। नमक का दाम बढ़ने लगा। सन 1835 में ब्रितानी हुकूमत ने लिवरपूल का नमक बेचा जा सके इस इरादे से स्वदेशी नमक के उत्पादन पर नियत शुल्क लागू किया। हर साल आने वाले नमक की वजह से कोलकाता में नमक की तादाद बढ़ गई थी। भारत में शुल्क की वजह से स्वदेशी नमक का उत्पादन ख़र्च तीन गुना बढ़ गया। नमक का दाम पाँच आना पहुंचा। यानी उत्पादित ख़र्च से बीस गुना बाज़ार दाम!

 
सन 1891 वो साल था, जब गाँधीजी के मन में नमक कर के ख़िलाफ़ प्रतिकार करने का विचार पनपा। उन दिनों वे लंदन में बैरिस्टर की पढ़ाई कर रहे थे। 22 साल के युवा गाँधी ने लंदन से प्रकाशित होने वाले सामयिक "द वेजिटेरियन" में लिखा, "हिन्दुस्तान में ग़रीबी प्रवर्तमान है। लोग रोटी और नमक खाकर ज़िंदगी गुज़ार रहे हैं। ये नमक भारी सरकारी कर के अधीन है।"
 
उसके बाद गाँधी जब दक्षिण अफ़्रीका में थे तब उन्होंने "इंडियन ओपिनियन" में नटाल के गवर्नर वाल्टर फ्रांसिस को अभिनंदन दिए, क्योंकि फ्रांसिस ने ब्रितानी सरकार द्वारा भारत में लागू किए गए नमक कर को शर्मनाक बताया था। फ्रांसिस ने नमक कर को जंगली क़ानून बताया और ब्रितानी सरकार से आग्रह किया कि वे इस कर क़ानून को निरस्त करें।
कह सकते हैं कि 1930 में जो नमक सत्याग्रह हुआ वो किसी एक रात में लिया गया फ़ैसला नहीं था। नमक कर के ख़िलाफ़ गाँधीजी का मन बहुत पहले ही प्रतिकार कर चुका था। 1929 के दिसंबर माह में लाहौर कांग्रेस अधिवेशन में 'पूर्ण स्वराज' का प्रस्ताव पारित हुआ और 'सविनय अवज्ञा आंदोलन' के राष्ट्रीय आंदोलन की कमान गाँधीजी को दी गई। गाँधीजी ने इंग्लैंड के प्रधानमंत्री रैमसे मैक्डोनाल्ड को पूर्ण स्वराज की मांग के समर्थन में 11 मुद्दों का आवेदन पत्र दिया। इस आवेदन पत्र में चौथा मुद्दा नमक कर को निरस्त करने का था।
 
भारत के लोगों के लिए नमक कितना ज़रूरी था यह गाँधीजी समझते थे। नमक कर का मुद्दा ऐसा था, जो आज़ादी के संधर्ष को भारत के हर गाँव में पहुंचाने की ताक़त रखता था। विदेशी कपड़े, व्यापार, लश्करी खर्चा या ऐसे अन्य मुद्दे किसी विशेष वर्ग को प्रभावित कर सकते थे, लेकिन नमक कर का मुद्दा भारत के गाँवों से जुड़ा हुआ था। नमक एक ऐसा पदार्थ था, जो धर्म-जाति-भाषा और दूसरी सामाजिक विभिन्नताओं को पीछे धकेल कर लोगों को इकठ्ठा कर सकता था। यह मुद्दा भारत के 7 लाख गाँवों और 30 करोड़ नागरिकों को आज़ादी की लड़ाई से जोड़ सकता था।
 
गाँधीजी ने नमक कर और इससे जुड़े सत्याग्रह के पीछे इस एक वजह के अलावा दूसरी अनेक वजहें देखी होगी। वैसे हरेक वजह सार्वजनिक हित, भारत की स्वतंत्रता और मौन समाज को नयी आवाज़ देना, जैसे परोपकारी उद्देश्यों से संबंधित थीं।
 
कुछेक किताबों की माने तो, हालाँकि नेहरू को यक़ीन नहीं था कि नमक विरोध सफल होगा। सरदार पटेल ने भूमि राजस्व बहिष्कार का सुझाव दिया। किंतु गाँधीजी को अपने फ़ैसले पर पूरा यक़ीन था।
 
इस समयावधि के दौरान कमलादेवी चट्टोपाध्याय की भूमिका का भी ज़िक्र है। कमलादेवी को ख़बर मिली कि महात्मा गाँधी दांडी मार्च के ज़रिए नमक सत्याग्रह की शुरुआत करने वाले हैं, जिसमें देशभर में समुद्र किनारे नमक बनाया जाएगा। इस आंदोलन में महिलाएँ दूर रहेगी ऐसी बातें छन कर कमलादेवी तक पहुंच रही थीं।
अपनी आत्मकथा Inner Recesses Outer Spaces में कमलादेवी लिखती हैं, "मुझे लगा कि महिलाओं की भागीदारी 'नमक सत्याग्रह' में होनी ही चाहिए और मैंने इस संबंध में सीधे महात्मा गाँधी से बात करने का फ़ैसला किया।"
 
कमलादेवी के मुताबिक़ महात्मा गाँधी उस वक़्त सफ़र कर रहे थे, लिहाज़ा वो उसी ट्रेन में पहुंच गईं जिसमें गाँधीजी थे और वो उनसे मिलीं। ट्रेन में गाँधीजी से उनकी मुलाक़ात छोटी थी, लेकिन इतिहास बनने के लिए पर्याप्त थी। कमलादेवी के अनुसार पहले तो गाँधीजी ने उन्हें मनाने की कोशिश की, लेकिन उनके तर्क सुनने के बाद गाँधीजी ने 'नमक सत्याग्रह' में महिला और पुरुषों की बराबर की भागीदारी पर हामी भर दी। महात्मा गाँधी का ये फ़ैसला ऐतिहासिक था। इस फ़ैसले के बाद महात्मा गाँधी ने 'नमक सत्याग्रह' के जो दल बनाए उसमें बंबई से कमलादेवी और अवंतिकाबाई गोखले शामिल थीं।
 

सरदार पटेल और नेहरू ने भले दूसरे सुझाव दिए थे, लेकिन गाँधीजी अपने विचार पर कायम रहे, और फिर उसके बाद इन दोनों ने प्रस्तावित दांडी मार्च अपने उद्देश्य को पूरा करे इस दिशा में काम करने में अपना सब कुछ झोंक दिया।
 
सरदार पटेल की कर्मभूमि करमसद और बारडोली से इस आंदोलन की नींव पड़ी। सरदार पटेल ने दांडी मार्च से पहले पूरे क्षेत्र का दौरा किया। गाँधीजी ने नमक सत्याग्रह की पूरी बागडोर सरदार को सौंप दी। सरदार पटेल की रणनीति से घबराए अंग्रेज़ों ने 7 मार्च को उन्हें गिरफ़्तार कर लिया, ताकि गाँधीजी का मनोबल टूट जाए। लेकिन ऐसा हुआ नहीं।
 
इस बीच 2 मार्च, 1930 के दिन गाँधीजी ने विशेष दूत के ज़रिए वायसराय लॉर्ड इरविन को एक पत्र भेजा। इस पत्र में उन्होंने नमक को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर आंदोलन का अपना इरादा जता दिया। गाँधीजी ने लिखे गए पत्र में प्रस्तावित आंदोलन के लिए 11 मार्च की तारीख़ भी निर्देशित की।
गाँधीजी ने जिस विशेष दूत के ज़रिए यह पत्र भेजा था वह एक युवा अंग्रेज़ था, जिसका नाम रेमजनाल्ड रेनाल्ड था। यह युवक गाँधीजी के साथ आश्रम में रह चुका था और गाँधीजी की नीतियों में उसे पूरा यक़ीन था।
 
पत्र के उत्तर में वायसराय के निजी सचिव ने लिखा, "गाँधी के प्रस्तावित कदम से शांति का भंग होगा और क़ानून का उल्लंघन होगा उस विषय का वायसराय खेदपूर्वक संज्ञान लेते हैं।" इस उत्तर के बाद गाँधीजी के सामने आंदोलन के सिवा दूसरा कोई विकल्प नहीं बचा।
 
मीरा बेन (मेडेलीन स्लेड) ने इस घटना का वर्णन करते हुए लिखा है, "11 मार्च, 1930 की दरमियानी रात पूरा साबरमती आश्रम जागा हुआ था। पूरा गाँव एक जगह एकत्रित था और वहाँ वाहनों की लंबी कतारें लग गई थीं। सरदार पटेल और जवाहर लाल चिंतित और व्याकुल थे। पूरी रात यही चर्चा होती रही कि कल क्या होगा? क्योंकि हर कोई जानता था कि दांडी मार्च के शुरू होते ही गाँधीजी को निश्चित रूप से गिरफ़्तार कर लिया जाएगा।"
 
वह लिखती हैं, "जब सारा आश्रम जाग रहा था, तब एकमात्र इंसान जो गहरी नींद में सोया था, वो महात्मा गाँधी थे!" कल क्या होना है उसकी चिंता क्यों की जाए? अब मुझे सोने दो!! और वे सो गए!
 
दांडी कूच या नमक सत्याग्रह के लिए 78 स्वयंसेवकों को चुना गया था। इसमें गुजरात से 31, महाराष्ट्र से 13, संयुक्त प्रांत से 8, कच्छ से 6, केरल से 4, पंजाब से 3, राजपूताना से 3, मुंबई से 2 और संध, नेपाल, तमिलनाडु, आंध्र, उत्कल, कर्णाटक, बिहार और बंगाल से एक एक प्रतिनिधि को चुना गया। बाद में इनकी संख्या 81 हुई थी।
सबसे कम उम्र का सत्याग्रही 16 साल का था, जबकि सबसे बड़ी उम्र स्वयं गाँधीजी की थी, जो उस समय 61 साल के थे। इस ऐतिहासिक आंदोलन में गाँधीजी की तीन पीढ़ियाँ भी समर्पित थीं। स्वयं गाँधीजी, उनके पुत्र मणिलाल और प्रपौत्र कांतिलाल।
 
गाँधीजी की अनुमति के साथ सत्याग्रहियों के लिए एक प्रतिज्ञा पत्र बनाया गया। इस पत्र की शर्तों में शामिल था कि सत्याग्रही जेल जाने के लिए तैयार होंगे और इस आंदोलन में जो सज़ा-यातना दी जाएगी उसे सहर्ष स्वीकार और सहन करेंगे।
 
ब्रितानी सरकार के नमक पर लगाए गए कर को गाँधीजी ने दुनिया का सबसे अमानवीय कर करार दिया। गाँधीजी ने दांडी जाकर नमक क़ानून तोड़ने का फ़ैसला किया।

 
यह महज़ एक शुरुआत थी। सौ से भी कम स्वयंसेवकों के साथ संसार की सबसे ताक़तवर महासत्ता के ख़िलाफ़ एक बूढ़ा आदमी सत्याग्रह करने के लिए निकलने वाला था। उस समय किसी ने नहीं सोचा था कि मुठ्ठी भर लोगों के साथ चला यह आदमी भारत की लाखों-करोड़ों जनता को एकजुट कर जाएगा। किसी ने कल्पना नहीं की थी कि इस सत्याग्रह की गुँज भारत की सीमाओं से पार जाकर दुनिया में फैलेगी और भारतीय इतिहास का अमिट पन्ना बन जाएगी।
 
दरअसल गाँधीजी का विरोध या आंदोलन करने का जो तरीक़ा था, वो दुनिया और स्वयं ब्रितानी सरकार के लिए भी उन दिनों नायाब था। सादगी, शांति और ज़िद के साथ आंदोलन कर बड़े समाज को एकजुट करना, अब तक असफल रहा गाँधीजी का यह प्रयोग इस बार सफल होने वाला था।
 
साल 1930 के दौरान ही टाइम मैगजीन ने महात्मा गाँधी को पर्सन ऑफ द ईयर के ख़िताब से नवाज़ा था। यह दर्शाता है कि यह सत्याग्रह दुनिया भर में चर्चा का विषय बन गया था।
अगली रात आश्रम में प्रार्थऩा सभा के दौरान गाँधीजी ने इस मार्च को लेकर लोगों को संबोधित किया। इसी प्रार्थना सभा के दौरान गाँधीजी के मुँह से वो कथन निकला, जो उनकी प्रतिज्ञा के रूप में याद किया जाता है।
 
78 स्वयंसेवकों के साथ 12 मार्च, 1930 की सुबह 6 बजकर 10 मिनट पर क़रीब दस हज़ार लोगों की जनसंख्या के बीच अहमदाबाद के साबरमती आश्रम से गाँधीजी ने दांडी के लिए प्रस्थान किया। सत्याग्रह के बीच गाँधीजी ने अपने उस कथन को प्रतिज्ञा के रूप में दोहराया। दांडी कूच के 18वें दिन, यानी 29 मार्च 1930 के दिन भटगाँव में रात्रि सभा में इन्होंने कहा, "मैं कौवे-कुत्ते की मौत मर जाऊँगा, लेकिन स्वराज लिए बिना आश्रम में पैर नहीं रखूँगा।"
 
महात्मा गाँधी पर चर्चित किताब Gandhi: An Illustrated Biography लिख चुके प्रमोद कपूर के मुताबिक़, ''गाँधीजी ने एक-एक कार्यकर्ता का इंटरव्यू लिया और ख़ुद चुना। उस यात्रा के सबसे छोटे सदस्य थे 16 साल के विट्ठल लीलाधर ठक्कर और सबसे वरिष्ठ सदस्य थे ख़ुद गाँधीजी, जिनकी उम्र उस समय 61 साल की थी। एक ऐसा शख़्स भी था, जिस पर हत्या का आरोप था। उसका नाम था खड़ग बहादुर सिंह। गाँधीजी ने जब उसकी कहानी सुनी कि किन परिस्थितियों में उसने ख़ून किया था, उन्होंने उसे मार्च में शामिल कर लिया।''
 
बाद में खड़ग बहादुर सिंह को अहमदाबाद में गिरफ़्तार किया गया। उसने जेल में तब तक घुसने से इनकार कर दिया जब तक जेल का मुख्य गेट पूरी तरह से खोला नहीं जाता, ताकि वो राष्ट्रीय झंडे को सीधा, बिना झुकाए जेल के अंदर प्रवेश कर सकें। (उस समय राष्ट्रीय झंडा आज जिस रूप, रंग के साथ है वैसा नहीं था)
 
जानकारी के लिए बता दें कि गाँधीजी ने जब दांडी मार्च शुरू किया तो दुनिया भर के पत्रकार इस ऐतिहासिक पल का गवाह बनने सत्याग्रह आश्रम साबरमती पहुंचे थे। यूरोप और अमेरिका के पत्रकार ज़्यादा थे। इस मौक़े पर उस वक़्त 27 साल के छगनलाल जाधव भी मौजूद थे। उन्होंने इस पूरे मार्च को रेखाचित्रों के ज़रिए दर्ज किया था, जिसे स्वतंत्रता के पश्चात एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया गया है।
हो सकता है कि उस ज़माने में जिनकी ब्रितानी साम्राज्य के विरुद्ध किसी प्रकार की कोई नीति रही हो, उन सभी देशों ने कूटनीति के तहत उन पत्रकारों को भारत भेजा हो। हो तो यह भी सकता है कि अनेक पत्रकार सिर्फ़ नीति के तहत आए हो, कूटनीति के लिए न भी आए हो। किंतु सच यह भी रहा कि यूरोप और अमेरिका समेत दूसरे भूभागों से आए पत्रकारों ने भारत की आज़ादी की लड़ाई को सीमा पार पहुंचाया। अमेरिका के मशहूर युद्ध संवाददाता वेब मिलर, इनके अलावा लुई फिशर, विलियम शरर, विन्सेंट सीन, मारग्रेट बर्क ह्वाइट जैसे संवाददाता भी शामिल थें।
 
इस यात्रा में गाँधीजी के लिए एक घोड़े का भी इंतज़ाम किया गया था, लेकिन वे उस पर कभी नहीं बैठे। उनका कहना था कि उनके लिए दिन में 24 किलोमीटर चलना, वो भी बिना किसी सामान के, बच्चों का खेल था। गाँधीजी रोज़ाना 15 किलोमीटर चलते थे और बकरी का दूध या नींबु पानी लिया करते थे। इस यात्रा के दौरान गाँधीजी के पैरों में छाले पड़ गए थे, लेकिन उन्होंने चलने के लिए न तो पालकी का सहारा लिया, और न ही घोड़े का।

 
इस कूच को ''सफ़ेद बहती नदी'' के रूप में भी संबोधित किया गया है, क्योंकि सभी सत्याग्रही सफ़ेद खादी में थे। 78 सत्याग्रहियों के साथ शुरू हुई इस कूच में बाद में हज़ारों लोग स्वत: जुड़ गए।
 
दांडी मार्च के दौरान प्रत्येक दिन यह समूह मार्ग पर आने वाले गाँवों से गुज़रता और सभाएँ करता। मार्च के दौरान गाँधीजी ने जनसमुह को न केवल एकजुट बनाने की दिशा में कदम उठाए, बल्कि समाज को सत्याग्रह और आंदोलनों के लिए तैयार करने के प्रयत्न भी किए। ईमानदारी, विश्वास, वफ़ादारी, श्रम, समानता, आत्मनिर्भरता, सार्वजनिक सह्योग, परोपकार, अन्याय को नकारना, अनुशासन, सत्य, नैतिकता, मानवता जैसे मूल्यों के लिए प्रेरित किया। गाँधीजी इस मार्च के दौरान भविष्य के आंदोलनों के लिए जनसमाज को नैतिक रूप से तैयार करने का कार्य भी करते रहे।
 
चार या पाँच अप्रेल की शाम छह बजे गाँधीजी अपने अनुयायियों के साथ दांडी पहुंचे। पाँच अप्रैल के दिन खादी धारण किए हुए सैकड़ों सत्याग्रही दांडी तट पर एकत्र हुए। दांडी में प्रेस वार्ता भी आयोजित की गई। सरोजिनी नायडू, डॉ. सुमंत, अब्बास तैयबजी, मिट्ठूबेन पेटिट गाँधीजी से मिलने आए। अपने संबोधन में गाँधीजी ने अगले दिन सुबह नमक क़ानून तोड़ने की जानकारी दी।
गाँधीजी किनारे पर स्थित सैफ़ी विला में रुके। पूरी रात भजन कीर्तन चला। सुबह सूर्योदय से पहले सबने समुद्र में स्नान किया।
 
6 अप्रैल वो तारीख़ थी, जब सुबह गाँधीजी ने समुद्र के किनारे उस हिस्से की तरफ़ बढ़ना शुरु किया, जहाँ नमक तैयार होता था। वे झुके और नमक की मुट्ठी भर ली। गंभीरता के साथ हाथ उठाकर उन्होंने मुट्ठी खोल दी। नमक के सफ़ेद रवे बिखर गए। भारतीय आज़ादी का नया संबल नमक बन चुका था।
 
तकनीकी रूप से ब्रितानी सरकार का नमक क़ानून टूट चुका था। औपचारिक रूप से गाँधीजी ने सभी देशवासियों को नमक बनाने की सविनय आज्ञा दी।
 
नमक क़ानून भारत के और भी कई भागों में तोड़ा गाया। सी. राजगोपालाचारी ने त्रिचनापल्ली से वेदारण्यम तक की यात्रा की। असम में लोगों ने सिलहट से नोआखली तक की यात्रा की। वायकोम सत्याग्रह के नेताओं ने के. केलप्पन एवं टी. के. माधवन के साथ कालीकट से पयान्नूर तक की यात्रा की। इन सभी लोगों ने नमक क़ानून को तोड़ा।
 
उस दिन कोई गिरफ़्तारी नहीं हुई और गाँधीजी ने अगले दो महीनों के लिए नमक कर के ख़िलाफ़ अपना सत्याग्रह जारी रखा। सविनय अवज्ञा के माध्यम से नमक क़ानूनों को तोड़ने के लिए अन्य भारतीय भी प्रोत्साहित हुए।
दांडी मार्च से संबंधित कुछ और स्पष्टीकरण भी ज़रूरी हैं। उसमें से एक उस ऐतिहासिक मार्च के रूट का विवरण, या नक़्शा है। (यहाँ तस्वीर में दिखाया गया नक़्शा प्रतीक मात्र है, यह बिलकुल सही है ऐसा दावा नहीं है)
 
वरिष्ठ पत्रकार मधुकर उपाध्याय के मुताबिक़ दांडी मार्च की उस ऐतिहासिक यात्रा मार्ग का नक़्शा ग़लत है और अब तो वह थोड़ा और ग़लत हो गया है। मधुकर कहते हैं, "सरकार द्वारा प्रकाशित 'कलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ महात्मा गाँधी' में छपे दांडी मार्च के नक़्शे में भी त्रुटियाँ हैं और आज तक उसमें सुधार नहीं हुआ, बल्कि राष्ट्रीय राजमार्ग ने उसे कुछ और ग़लत कर दिया।"
 
मधुकर के मुताबिक़, गाँधीजी का जो दांडी मार्च था, उसका बिलकुल सही के क़रीब रास्ता नापे तो वह दूरी 425 किमी होती है। गौरतलब है कि दांडी मार्च को लेकर अनेक जगहों पर यह दूरी 387 किमी लिखी हुई है। मधुकर ने साल 1995 में यह सफ़र पैदल तय किया था। इससे पहले ऑस्ट्रेलिया के इतिहासकार थॉमस वेबर ने ये सफ़र पैदल तय किया था।
 
मधुकर अपनी रिपोर्ट में लिखते हैं, "दांडी मार्च से जुड़ी एक और बड़ी ग़लती नमक उठाते हुए महात्मा गाँधी की तस्वीर को उस दिन का बताना है, जिस दिन उन्होंने नमक क़ानून तोड़ा था। सच्चाई ये है कि धोती लपेटे, चप्पल पहने गाँधी की वो तस्वीर दो या तीन दिन बाद की है और दांडी की नहीं है।"
 
यूँ तो महात्मा गाँधी पर अनेक प्रकार के आरोप लगते रहे हैं, जिनमें से ज़्यादातर आरोप आधारहीन साबित हुए हैं। गाँधीजी पर मुस्लिम प्रेमी होने का आरोप भी लगता रहा है, किंतु इन दिनों गाँधीजी पर हिन्दू नेता होने के आरोप लगते थे! गाँधीजी पर 1930 के दौरान कहा जाता था कि वे मुस्लिम गाँवों में नहीं जाते, उनके घर नहीं ठहरते, हिन्दू नेता हैं, वगैरह वगैरह। दांडी मार्च के समय भी यह चीज़ें हो रही थीं।
गाँधीजी ने मार्च के दौरान पूरे रास्ते इन आलोचनाओं का कोई जवाब नहीं दिया। दांडी पहुंचकर सैफ़ी विला गए और नमक क़ानून तोड़ने समंदर किनारे वे इसी घर से गए। यह बोहरा समुदाय के 51वें धर्मगुरु सैयदना ताहेर सैफ़ुदिन का घर था। सैफ़ी विला अब राष्ट्रीय धरोहर है, जहाँ ठहकर गाँधीजी ने सार्वजनिक और ऐतिहासिक आंदोलन के समय चल रही जातिवाद की चर्चाओं को निरर्थक प्रवृत्ति क़रार दिया।
 
अप्रैल में जवाहर लाल नेहरू सहित हज़ारों लोगों को गिरफ़्तार किया गया और जेल में बंद कर दिया गया। दांडी जाने पर रास्ते में कराड़ी गाँव पड़ता है। वही कराड़ी गाँव, जिसे गाँधीजी अपना स्थायी पता बताते थे। नमक क़ानून तोड़ने के बाद गाँधीजी यहीं रहे थे, जब तक उनकी मई महीने में गिरफ़्तारी नहीं हुई।

 
गाँधीजी लगभग 20 दिनों तक कराड़ी रहे। गाँधीजी ने जो प्रतिज्ञा ली थी उस पर वे कायम थे। उन्होंने आंदोलन का विस्तार करते हुए कराड़ी से धरासणा कूच करने का ऐलान किया। धरासणा में नमक का कारखाना था। इससे अंग्रेज़ सरकार सकते में आ गई और 4 मई की आधी रात को कराड़ी की झोंपड़ी से गाँधीजी को गिरफ़्तार कर लिया।
 
फ्रंटियर मेल को दो स्टेशनों के बीच रोककर उन्हें उस पर चढ़ा दिया गया था, ताकि उनकी गिरफ़्तारी की ख़बर लोगों तक पहुँचने से पहले उन्हें गुजरात से बाहर पहुँचा दिया जाए। गाँधीजी की गिरफ़्तारी की ख़बर ने अधिक लोगों को सत्याग्रह में शामिल होने के लिए प्रेरित किया।
 
सरदार पटेल तो पहले ही गिरफ़्तार हो चुके थे। सी राजगोपालाचारी, पंडित नेहरू समेत बड़े नेताओं के गिरफ़्तार होने के बाद 21 मई को सरोजिनी नायडू के संरक्षण में योजनाबद्ध तरीक़े से नमक सत्याग्रह को आगे बढ़ाया गया। वर्ष के अंत तक ब्रितानी हुकूमत ने अनेक नेताओं और नागरिकों को कारावास में भेज दिया।
यह आंदोलन एक साल तक चला और 1931 में गाँधी-इरविन समझौते के बाद ख़त्म हुआ। किंतु दूसरी तरफ़ 'पूर्ण स्वराज' और 'सविनय अवज्ञा आंदोलन' मज़बूती के साथ शुरू हो चुका था। दांडी मार्च ने संपूर्ण देश में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ 'व्यापक और समर्पित जनसंघर्ष' को जन्म दिया।
 
दांडी मार्च या नमक सत्याग्रह स्वतंत्रता संघर्ष का वो महत्वपूर्ण पड़ाव था, जिसने भविष्य के आंदोलनों के लिए लोगों में चेतना का संचार किया और समग्र समाज को एकजुट करने का काम किया। इस अभूतपूर्व सत्याग्रह ने ब्रितानी सरकार की नींव हिला दी। इसी आंदोलन ने आगे जाकर मार्टिन लूथर किंग तथा जेम्स बेवल जैसे दिग्गजों को प्रेरित किया।
 
यूँ तो महात्मा गाँधी, सरदार पटेल और शहीद भगत सिंह, तीनों के जो आदर्श-कर्म-सपने-सिद्धांत थे, उनका कोई हिस्सा अब हम भारतीय नागरिकों के बीच नहीं रहा है। दांडी मार्च के दौरान गाँधीजी ने 11 नदियाँ पार की थीं। उनमें से दो नदियाँ हमारे बीच से चली गईं हैं। मधुकर के शब्दों में, "पहले हमारी आँखों का पानी मरा, फिर नदियाँ मर गईं। उन पर अब रिहायशी बस्तियाँ बन गई हैं।" किंतु जब भी भारत को अपने महान स्वातंत्र संग्राम को याद करना पड़ेगा तब तब यह अमिट पन्ना अपनी उपस्थिति दर्ज कराता रहेगा।
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)