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Suicides by Soldiers: हमारे फ़ौजी जवानों की ख़ुदकुशी की वारदातें... एक गंभीर समस्या

 
नारों से मन भर लेने वाले नागरिकों के इस देश में बड़ा ख़ूबसूरत नारा है जय जवान जय किसान। इस नारे में से किसानों की ख़ुदकुशी इस देश के कलंकित प्रकरण सूची की अग्रीम पंक्ति है। और अब हमारे सैनिकों की ख़ुदकुशी उस सूची को और गंभीर रूप दे रही है।
 
किसी देश की सेना के सैनिक जंग से ज़्यादा दूसरी घरेलू तथा मानसिक समस्याओं के चलते मारे जाए यह यक़ीनन विकराल समस्या है। उस देश की सेना के लिए यह एक ऐसी ख़ामोश लड़ाई है जिसकी क्षति असहनीय है।
 
वैसे फ़ौज की नौकरी मुश्किल होती है। अपने घर से, परिवार से, रिश्तेदारों से, सपनों से, आशाओं से दूर रहना, सरहद पर किसी भी मौसम व परिस्थिति का सामना करते हुए दिन-रात वहाँ डटकर फ़र्ज़ निभाना, और अंत में अपनी ज़रूरतें, सहूलयितें पूरी की जाए उसके लिए राजनीतिक व्यवस्था की तरफ़ देखते रहना। शब्दों में यह सब जितना आसान दिखता है उतना आसान नहीं है।
 
हर वो मुद्दा और हर वो समस्या उन जवानों के मोरल को, उनकी क्षमता को, दिमाग़ को, दिल को तार-तार करते आए हैं। इन सब वजहों से भारतीय सेना में सैनिकों की ख़ुदकुशी की वारदातें बढ़ती जा रही हैं। यक़ीनन समस्या गंभीर है, बड़ी है, किंतु इसे निरंतर और आयोजित प्रयासों से अंकुश में लिया जा सकता है। अगर समय रहते इस समस्या का समाधान नहीं किया जाता तो यह कुछ और बड़ी समस्याओं की दस्तक ज़रूर हो सकती है।
 
साल 2009 से लेकर 2013 तक भारतीय सेना के तीनों अंगों में 600 जवानों ने अपनी ड्युटी के समय ख़ुदकुशी की थी। जिसमें थल सेना के 498, वायु सेना के 83 और नौ सेना के 19 जवान शामिल थे। वर्ष 2001 से 2012 तक पत्र सूचना कार्यालय यानी पीआईबी के अनुसार थल सेना में 1,082 सैनिक आत्महत्या कर चुके थें, वहीं 80 सैनिक अपने ही सहयोगी की गोली का शिकार हो गए थें।
गंभीर मसला यह भी है कि सेना में वीआरएस ले लेना और नयी भरती में कमी भी एक समस्या बनती जा रही है। 2009 से 2013 तक सेना के 2215 अधिकारियों ने वीआरएस के लिए एप्लीकेशन दी थी और उनमें से 1349 एप्लीकेशन को अप्रूवल मिली थी। हालाँकि सैन्य चिकित्सा विभाग और नर्सिंग सर्विस में ऐसी स्थिति देखने के लिए नहीं मिली।
 
हालाँकि भारतीय सेना अपने तरीक़े से इन ख़ुदकुशी और वीआरएस को रोकने के लिए कदम उठा रही है तथा भर्ती के लिए अपनी तरफ़ से कार्यक्रम लेकर आगे आ रही है। किंतु राजनीतिक सहकार उपलब्ध नहीं होने के कारण इन मामलों में जितनी तेज़ी से कमी आनी चाहिए थी वह नहीं हो पाया है।
 
ग़ौरतलब है कि 2002 से अब तक हर साल 100 (औसत आँकड़ा) सैनिकों ने ख़ुदकुशी की। सेना में हो रही ख़ुदकुशी को रोकने के लिए 2007 में रक्षा मंत्रालय ने डिफेंस इंस्टीट्यूट ऑफ़ साइकोलॉजिकल रिसर्च को एक संशोधन करने के लिए इजाज़त दी थी। इस संशोधन के दौरान जो रिपोर्ट पेश की गई उसमें सैनिकों के साथ उनके सिनियर्स के द्वारा किया जा रहा ग़ैर ज़िम्मेदाराना व्यवहार, छुट्टी न मिलने की समस्या, वर्कलोड, कठिन क्षेत्रों में पोस्टिंग, तैनाती का कार्यकाल, वेतन और भत्ते की चिंता, शिकायतों का निवारण नहीं होना, वगैरह वजहों को ज़िम्मेदार बताया गया था।
 
आँकड़ों पर ग़ौर करने से पता चलता है कि पिछले कुछ सालों से ऐसी घटनाओं में कमी आने के बजाय बढ़ोतरी हुई है। ऐसा भी नहीं है कि केंद्र या राज्य सरकारों ने सेना, अर्ध सैनिक बलों या पुलिस कर्मियों की लगातार बढ़ी आत्महत्या की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने का प्रयास नहीं किया है। केंद्र और राज्य सरकारें सीमा की सुरक्षा करने वाले सैनिकों, अर्ध सैनिक बलों और राज्यों में आंतरिक शांति व्यवस्था को क़ायम रखने वाले पुलिस कर्मचारियों को काम करने के लिए तनाव रहित माहौल मिले, काम की तथा रहने की बेहतर सुविधाओं के साथ-साथ परिवार के साथ रहने की सुविधा अलग से मिले ऐसे कार्यक्रम करती रही हैं। छुट्टियाँ देने में लचीला रवैया अपनाने का भी सरकारी दावा होता है।
 
अगर प्रयास हो रहे हैं तो फिर आत्महत्या दर सैनिकों में बढ़ता क्यों जा रहा है? क्यों हमारे सैनिक जंग के बजाय इन कारणों से जान गँवा रहे हैं?
रज्ञा विशेषज्ञ करीम बताते हैं, "मुझे अच्छी तरह याद है कि जब मैं सेना में था तो मेरे कमांडर ने मुझे एक सामाजिक उत्तरदायित्व दिया हुआ था। मैं हर रोज 15 सैनिकों का साक्षात्कार कर उनके पारिवारिक हालात का पता लगाया करता था। उनकी ज़मीन-जायदाद या परिवार संबंधी कोई समस्या होती थी तो संबंधित अधिकारियों को पत्र लिखता था, टेलीफ़ोन करता था। परेशानियों के समाधान भी निकलते थे। अधिकारी ध्यान देते थे। सैनिकों का तनाव दूर होता था।"
 
सीधी बात है कि सीमा पर तैनात सैनिक के परिवार की कोई प्रशासनिक समस्या हो, परिवार के बच्चों के शिक्षा संबंधित मसले हो, या करीम ने जैसा बताया वैसी दूसरी समस्याएँ हो, अगर वे जायज़ मसले हैं तो उसके समाधान की कोई ठोस व्यवस्था होनी चाहिए। सरकारी और सामाजिक नीतियों में सैनिक कल्याण को लेकर कमजोरियाँ दूर होनी चाहिए, सतही उपायों से ठोस परिणाम नहीं मिल सकते।
 
नेतृत्व गुणवत्ता की कमी, अत्यधिक प्रतिबद्धताओं का बोज, अपर्याप्त संसाधन, तैनातियों एवं पदोन्नति में निष्पक्षता एवं पारदर्शिता का अभाव, घर और परिवार की चिंता, बहुत कम समय के लिए परिवार के साथ रहने का अवसर, सामाजिक रस्मों से दूर रहना, घरेलु समस्याएँ, जल्दी जल्दी तैनाती की जगह बदल जाना, समेत अनेक मसले सैनिकों को परेशान करते हैं।
 
सेना जैसी संस्थाओं की जो अन्य समस्याएँ हैं, जैसे कि उनकी ज़रूरतें पूरी करना, समय पर पूरी करना, बेहतर खाने-पीने समेत दूसरी सहूलयित मुहैया कराना, सैन्य सामान नियत समय में उपलब्ध कराना, उनकी माँगें जो फ़ाइलों में पड़ी रहती हैं उन्हें पूरा करना, मौसम तथा जगह के अनुसार उनको सहूलयित देना, सर्च या रेस्कयू अभियानों के दौरान उनको नवीनतम उपकरण तथा हथियार मुहैया कराना, यह सूची और भी लंबी है। इन सारी समस्याओं से सैनिक जूझ रहे होते हैं।
 
जिन्हें सेना, सेना की व्यवस्था और ढाँचा, रोज़ाना सैन्य प्रक्रिया, उनके द्वारा किए जाने वाले सैनिक अभियान, इन सबके ऊपर थोड़ी-बहुत जानकारी है वे लोग इन बातों को बेहतर ढंग से समझ सकते हैं। उन समस्याओं के त्वरित समाधान के लिए या उन मुद्दों पर कोई ठोस संशोधन किया गया हो ऐसी कोई जानकारी कहीं नहीं मिलती।
पीने के पानी से लेकर बेहतर भोजन, बेहतर आवास, रात्रि खोजी अभियान ज़रूरते, सब फ़ाइलों में सालों तक बंद रहता हैं। 'वन बॉर्डर वन फोर्स' का सूत्र महज़ चुनावी नारा बन कर रह गया है। सैन्य सामान, लड़ने की तकनीक, रणनीतियाँ बनाने के लिए जानकारी जुटाने का ढाँचा, संचार के लिए बेहतरीन प्रणाली, राजनीतिक सहयोग, लंबे समय तक आतंक के ख़िलाफ़ ज़मीनी लड़ाई, युद्धविराम उल्लंधन का बेहतर प्रत्युत्तर, सरकार और नागरिकों का मानसिक रूप से उनके साथ रहना, सारी चीज़ें इन ख़ुदकुशी के क़िस्सों में अपनी भूमिका निभा रही हैं।
 
तमाम समस्याओं के अलावा मूल रूप से आवास व्यवस्था, परिवार के लिए व्यवस्था, यात्रा सुविधाएँ, बच्चों के लिए स्कूली शिक्षा, मनोरंजन, वरिष्ठों तथा राजनीति द्वारा हो रहा उत्पीड़न, तमाम समस्याएँ अंत में अनसुलझे व्यक्तिगत मुद्दों से और भी बढ़ जाती हैं, जैसे संपत्ति या धन पर पारिवारिक विवाद, जो अक्सर अनसुलझे रह जाते हैं।
 
अतीत में, बटालियन कमांडर ऐसे विवादों में मध्यस्थता करने के लिए हस्तक्षेप कर सकते थे, लेकिन यह प्रथा काफी हद तक लुप्त हो गई है। अनेक संशोधनों तथा दावों में कनिष्ठ सैनिकों के ख़राब मनोबल के लिए नेतृत्व की उदासीनता को ज़िम्मेदार ठहराया गया है। रहने की स्थिति, घटिया भोजन और राशन यदि सैनिकों की मुख्य दिक्कतों में शामिल हो तो फिर यह शर्मदेह है।
 
इन तमाम समस्याओं, मसलों और प्रक्रियाओं के बीच गुस्से में आकर अपने सैनिक साथी की हत्या कर देना, वीआरएस ले लेना या नयी भरती की तरफ़ उत्साह की कमी पैदा होना कोई आश्चर्य पैदा नहीं करता।
 
देश के सैनिकों का वीर गति को प्राप्त होना नागरिकों के लिए बड़ा झटका होता है वो हम सब जानते हैं। अगर हम सब नागरिकों के लिए यह इतना बड़ा झटका होता है तो उन सैनिकों के परिवारों के लिए, उनके साथी सैनिकों के लिए यह ज़िंदगी भर का घाव होता है। और यदि वही सैनिक इन कारणों की वजह से या तो अपनी जान दें या स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति का विकल्प पसंद कर लें तो यह उससे भी ज़्यादा दुखदायी है।
 
सेना में बढ़ती आत्महत्या की दर केवल सैन्य सेवा के साथ आने वाले सामान्य तनाव का परिणाम नहीं है, बल्कि वे सेना की कठोर संस्कृति में समाहित अधिक गहन और व्यापक सरकारी और सामाजिक मुद्दों के संगम से प्राप्त हुआ नतीजा है। आपके सैनिक युद्ध में नहीं बल्कि शांति काल में भीतरी समस्याओं के कारण अपनी जान दे रहे हैं, यह परिणाम अति पीड़ादायक है।
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)