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Political Parties : दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में जनसेवा या फिर सत्ता की दौड़ के खेलवीर



बात करते हैं दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत के बारे में। यूरोप खंड जितना भौगोलिक विस्तार रखने वाला भारत... और इसीलिए सैकड़ों बैठकों वाला विशाल मतक्षेत्र।

इतने बड़े लोकतंत्र के इतने विशाल मतक्षेत्र के लिए छीट-पुट या इक्का-दुक्का राजनीतिक दल हो ये जायज थोड़ी है? 2014 के दौरान भारत में मुख्य रूप से 6 राष्ट्रीय राजनीतिक दल थे,  तकरीबन 50 प्रादेशिक दल थे और... 700 के करीब छोटे-मोटे अन्य दल थे!!! और ये सब सत्ता की दौड़ में शामिल थे। चुनाव आयोग के अनुसार भारत में 300 से अधिक राजनीतिक दल तो ऐसे हैं, जो कभी चुनाव नहीं लड़े। शायद इसे मल्टीपार्टी ऑपरेटिंग सिस्टम नाम देना चाहिए! सच ही तो है, क्योंकि वो एक ऐसी पद्धति का संचालन कर रहे हैं जहां एक से अधिक आधार पद्धतियां उपलब्ध हैं और साथ में सभ्यताएं भ्रमित होकर शून्य हो जाएं ऐसे अंदरुनी आदेश भी हैं! यानी कि वे लोग एक ऐसी सिस्टम को ऑपरेट करते हैं जहां मल्टीपार्टी सपोर्ट सिस्टम है और उनके उपभोक्ता भ्रमित होकर सिस्टम रिस्टार्ट कर दे ऐसे इनबिल्ट कमांड भी है।

भारत प्रदेश में 1947 में आजादी के सालों या दशकों तक कांग्रेस और समाजवादी दल और अन्य एक या दो राजनीतिक दल ही राष्ट्रीय स्तर पर नजर आया करते थे। जवाहरलाल नेहरू के नाम पर कोंग्रेस सालों तक चुनाव जीतती आई थी। एक दौर वो भी रहा जब गठबंधन दलों ने सरकारें चलाई। 2014 में भाजपा ने बाजी मारी और बहुमत आधारित सरकार फिर सत्ता में आई। कांग्रेस और भाजपा आज भारत के मुख्य राजनीतिक दल हैं। लेकिन इन दोनों दलोंं को भी अनगिनत राजनीतिक दलों के पैर पकड़ने पड़ते हैं। सोनिया गांधी या मनमोहन सिंह की कांग्रेस सरकार यूपीए के नाम से जानी जाती थी। वाजपेयी या अब मोदी की भाजपा सरकार एनडीए के नाम से पहचानी जाती है। ये बात और है कि भाजपा के कांग्रेस मुक्त भारत अभियान ने आज देश के सबसे पुराने राजनीतिक दल कांग्रेस को झकझोर के रख दिया है और केंद्र में सत्ता गंवाने के बाद राज्यों में भी सत्ता के लिए कांग्रेस तरस रही है।

दलों का बनना... बिखरना...
एक ऐसा दौर भी चला था जब भारत में हर एक हफ्ते में एक नया राजनीतिक दल खड़ा हो जाता था। हालांकि उनमें से किसी भी दल के पास खुद की कोई स्वतंत्र शैली या विचारधारा नहीं है। इतने सारे दल होने के पीछे सत्ता का असंतोष या मौकापरस्ती मुख्य वजह रही थी। वही सैकड़ों राजनीतिक दल तो ऐसे भी हैं जिनके फर्जी होने की आशंकाएं ज्यादा हैं। फंड या अन्य राजनीतिक पैतरों के लिए इन कथित फर्जी दलों का इस्तेमाल ज्यादा होता है।

आज की कांग्रेस एक दौर में भारत की महासत्ता मानी जाती थी और अखंडित दल था। लेकिन मोरारजी देसाई और इंदिरा गांधी के बीच अहम की जंग छिड़ी और कांग्रेस दो हिस्सों में बंट गई। मोरारजी के साथ जो रहे वो दल सिंडीकेट कांग्रेस बना और इंदिरा गांधी की कांग्रेस इंडीकेट कांग्रेस (कांग्रेस आई) के नाम से जाना गया। वक्त बीता और ये दोनों दल फिर से अपने मूल दल कांग्रेस में विलिन हो गए, क्योंकि कोई भी स्वतंत्र सरकार बना नहीं सका था या चला भी नहीं सकता था।

कांग्रेस के फिर तो अनगिनत हिस्से होते चले गए। सिर्फ कांग्रेस ही नहीं, नया राजनीतिक दल लेफ्ट भी चार हिस्सों में बंट चुका है। दूसरी तरफ उमा भारती जैसे गाइडेड मिसाइल नेता व्यक्तिगत वजहों से भाजपा से अलग होकर नया दल बना के बैठ गए और फिर वक्त रहते वापस भाजपा में शामिल भी हो गए। तमिलनाडु में भी सत्ता के लिए डीएमके हिस्सो में बंटी हुई है। वहां डीएमके का एक खेमा काले चश्मेवाले और चालाक राजनेता करुणानिधी का है, वही दूसरा डीएमके जयललिता का है। महाराष्ट्र के चीनी सम्राट और एक दौर के कृषिप्रधान और साथ ही दुनिया के सबसे धनवान क्रिकेट बोर्ड के मुखिया शरद पवार ओरिजनल कांग्रेसी माने जाते थे। लेकिन सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे पर उन्होंने कांग्रेस से किनारा कर लिया। उन्होंने एनसीपी नाम का दल बनाया और महाराष्ट्र में गठबंधन सरकारें भी चलाई। प्रधानमंत्री बनने के शौकीन शरद पवार वक्त रहते वापस कांग्रेस के साथ जुड़ते से नजर आए। क्योंकि उन्होंने देखा कि फिलहाल तो कांग्रेस का अस्तित्व सोनिया गांधी के कारण ही है और वो ही कांग्रेस को सत्ता पर ला सकती है। और उन्होंने विदेशी मूल का मुद्दा कब्र में दफना दिया और कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार में कृषि प्रधान भी रहे।

शिवसेना के पास दो मुद्दें थे और हैं। एक है हिंदुत्व का मुद्दा और दूसरा है मराठाओं का मुद्दा। इन्हीं दो मुद्दों ने शिवसेना के भी दो हिस्से कर दिए। एक हिस्से का नेतृत्व कर रहे हैं उद्धव ठाकरे और दूसरे हिस्से का नेतृत्व राज ठाकरे कर रहे हैं। राजनीतिक वारिस के मुद्दे ने शिवसेना को दो हिस्सों में विभाजित किया हुआ है। वे हिंदुत्व के नाम पर आवाम को एक करने की बात करते रहे, वहीं मराठा के नाम पर परप्रांतियों को खदेड़ते भी रहे!!!

कुछ कुछ इसी तर्ज पर देखा जाए तो, लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह जयप्रकाश नारायण के चेले थे। और आज दोनों एक दूसरे को काटने के लिए दौड़ पड़ते हैं। दोनों अपने अपने राजनीतिक दल बनाकर बैठे हुए हैं। लेकिन दोनों में से किसी के पास जयप्रकाश नारायण की विचारधारा के एक भी अंश मौजूद नहीं है। लालू प्रसाद यादव अपने घोटाले और बिहार के बदतर हालात के लिए बदनाम है। दूसरी तरफ मुलायम सिंह सूटकेस मैन के तौर पर जाने जाते हैं और सांसदों के सौदे करने की कथित प्रक्रिया के चलते ख्यातनाम हुए नेता अमर सिंह के नजदीकी माने जाते हैं। नीतीश कुमार के घोर विरोधी रहे लालू प्रसाद यादव ने बाद में उन्हीं के साथ मिलकर राज्य सरकार भी बनाई। वही मुलायम सिंह की पार्टी भी अंदरुनी तौर पर हिस्सों में बंटी हुई है। अब ये उन पर है कि वो इसे संभाले या फिर जनसेवा का राजनीतिक प्रेत उनको ही झकझोर दे!

पंजाब में भी अकालीदल हिस्सों में बंट चुका है और जनतादल भी इसी हालात से गुजरा हुआ राजनीतिक दल है। जो पार्टियां एकजुट दिखती है वो भी उतनी एकजुट होगी ही, ऐसा दावा करना भी मुश्किल है। मोटे तौर पर देखा जाता है कि सत्ता एकजुट रखती है और विफलता बिखेर देती है। शायद सेवा करने के मौके पर सब एकजुट रहते होंगे, लेकिन जब सेवा करने का मौका जनता छीन ले तब कुनबा हिलडुल जाता होगा! आमतौर पर तो यही देखा जाता है कि विपक्षों से पार पाने से पहले अंदरुनी विरोध व कालिन के नीचे के पेंच से रुबरु होना पड़ता है! शायद इसीलिए बाहरी विपक्षों से बखूबी टकराने की शैली इनमें कूटकूट कर भरी होगी!!!

वहीं परिवारवाद का प्रेतात्मा हमारे यहां बहुत हद तक प्रभावी रहता है। इसके सबसे बड़े आरोप कौन कौन सी पार्टियों पर लगते रहे हैं वो सभी को ज्ञात है। कह सकते हैं कि हमारे यहां परिवार राजनीति को पालता है या राजनीति परिवारों को, ये काफी पेचीदा विषय है!!! कहीं स्पष्ट परिवारवाद है, कही अस्पष्ट। कुछ पार्टियां ऐसी हैं जहां मुखिया से लेकर छोटे कार्यकर्ता तक एक ही परिवार के लोग मिल जाएंगे, कहीं ये काफी कम है। अब परिवारवाद होने से ये भी नहीं मान सकते कि वहां ज्यादा एकजुटता होगी। देखा तो यह गया है कि परिवारों के झगड़े और अंदरुनी कशक सरकारें तक को प्रभावित कर जाते हैं।

भारत में 1995 के बाद भाजपा ने राममंदिर के मुद्दे पर दिल्ली का तख्त हासिल किया, तो कांग्रेस ने विकास के लुभावने वादों पर दिल्ली को भुगता। ताज्जुब है कि बाद में इसी विकास के मुद्दे पर भाजपा ने सत्ता हासिल की और कांग्रेस के हालात खराब होते चले गए। शिवसेना ने मराठा के मुद्दों पर महाराष्ट्र में शासन किया, तो समाजवादी पक्षों ने खेती और किसानों के मुद्दों पर। मायावती ने दलितों को अपना हथियार बनाया, तो किसी ने धर्म को। लेकिन सच्चाई यही रही कि ये सारे मुद्दें सत्ता के हस्तांतर के तौर पर ही रह गए। 2009 में रेड्डी की मृत्यु के बाद उनके पुत्र जगन रेड्डी ने कांग्रेस से अलग होकर वायएसआर कांग्रेस की स्थापना की।

यह दौर यहीं नहीं थमता। भ्रष्टाचार के विरुद्ध जनआंदोलन के बाद आम आदमी पार्टी का उदय हुआ। कहने वालों ने कहा कि जेपी आंदोलन का इतिहास राजनीतिक रूप से यहां दोहराया गया था। खैर... लेकिन तुरंत स्वराज या सिद्धांतों के नाम पर इनमें भी दो रास्तें बन गए। हालांकि दूसरा रास्ता अभी खुलकर राजनीति में नहीं उतरा है, लेकिन उन्होंने अपना दूसरा मंच ज़रूर तैयार किया हुआ है। आंदोलन में शामिल लोग अलग अलग दलों में चले गए और सत्ता सुख भोगने लगे।

भारत में 1990 के बाद जीतने भी चुनाव जीते गए उनके वादे या धोषणाएं काफी दिलचस्प रही थी और उतना ही चौंकाना उन वादों से उन सभी का मुकरना भी रहा। चुनावों में वादों पर अलग से संस्करण लिखा जा सकता है, जो दिलचस्प भी रहेगा। चुनाव प्रचार के तरीकें व पद्धतियां भी कितने रास्तों से मुड़ती हुई कहा जा पहुंची थी यह भी एक दिलचस्प विश्लेषण है।

राजनीतिक दल... जिन पर परिवार का एकाधिकार छाया रहा
ऊपर देखा वैसे, परिवारवाद का प्रेतात्मा हमारे यहां बहुत हद तक प्रभावी रहता है। इसके सबसे बड़े आरोप कौन कौन सी पार्टियों पर लगते रहे हैं वो सभी को ज्ञात है। कह सकते हैं कि हमारे यहां परिवार राजनीति को पालता है या राजनीति परिवारों को, ये काफी पेचीदा विषय है!!! कहीं स्पष्ट परिवारवाद है, कहीं अस्पष्ट। कुछ पार्टियां ऐसी है जहां मुखिया से लेकर छोटे कार्यकर्ता तक एक ही परिवार के लोग मिल जाएंगे, कहीं ये काफी कम है। अब परिवारवाद होने से ये भी नहीं मान सकते कि वहां ज्यादा एकजुटता होगी। देखा तो यह गया है कि परिवारों के झगड़े और अंदरुनी कशक सरकारें तक को प्रभावित कर जाते हैं।

हमारे यहां राजनीतिक दलों में परिवारवाद का मुद्दा उठाने वाले विरोधी कहते हैं कि राजनीतिक दल देश को समर्पित होते हैं और इसी लिहाज से उनमें देश के तमाम वर्गों या बुद्धिजीवियों का हक़ बनता है, ना कि किसी एक परिवार का। वैसे विरोधी ये चीजें संजीदगी से कहते ज़रूर है, लेकिन खुद उतनी संजीदगी से लेते भी नहीं है! उनका तर्क कि राजनीतिक दल देश को समर्पित होते हैं, इसी में उनकी कथनी और करनी में फर्क दिखता है। बावजूद इसके, परिवारवाद भारत के राजनीतिक दलों में बड़ा मुद्दा रहा है।

इसमें देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस, मुख्य राजनीतिक दल भाजपा के खास निशाने पर रही है। एक दौर में कांग्रेस की सरकार को मां-बेटे की सरकार भी कहा गया। जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी, फिरोज गांधी, संजय गांधी, राजीव गांधी, सोनिया गांधी, राहुल गांधी, प्रियंका गांधी, मेनका गांधी, वरुण गांधी.. ये वो मुख्य नाम हैं जो देश की राजनीति से जुड़े रहे। हालांकि यह निर्विवाद सच है कि विरोधीयों द्वारा सत्ता प्राप्ति हेतु ही परिवारवाद का मुद्दा उठाया जाता रहा है। क्योंकि विरोधी भी स्वयं की सत्ता के दौरान किसी पद या किसी लाभ में परिवारवाद से पीछे नहीं रहे।

कांग्रेस के बाद परिवारवाद को लेकर उत्तरप्रदेश राज्य विशेष चर्चा में रहता आया है। मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी में ये वाद इस कदर हावी रहा कि समय समय पर पारिवारिक कलह ने प्रदेश की सरकार तक को अस्थिर कर दिया। मुलायम सिंह यादव के परिवार को देश का सबसे बड़ा राजनीतिक परिवार कहा जाता है। उनके परिवार के 25 से ज्यादा सदस्य राजनीति में प्रवृत्त है! उनके पुत्र अखिलेश, उनकी पुत्रवधू डिम्पल, भाई शिवपाल या रामगोपाल आदि इसमें मुख्य चेहरे रहे हैं। इसके अलावा भी मुलायम के परिवार के कई सदस्य राजनीति में सक्रीय हैं तथा सत्ता भुगत रहे हैं।

बिहार में लालू प्रसाद यादव भी परिवारवाद की सूची में शुमार होते हैं। चारा घोटाले में फंसे लालू ने अपनी पत्नी राबड़ी देवी को ही प्रदेश की मुख्यमंत्री बना दिया था! उनके दोनों पुत्र तेजस्वी तथा तेजप्रताप, उनकी पुत्री मीसा भारती समेत इनके कई संबंधी सरकार में या सरकार संबंधित संस्थाओं में जुड़े हुए हैं। उनकी पुत्री राजलक्ष्मी की शादी मुलायम सिंह के परिवार में हुई है।

आंध्रप्रदेश में भी राजनीति में परिवार का दबदबा रहा है। 2009 में रेड्डी की मृत्यु के बाद उनके पुत्र जगन रेड्डी ने कांग्रेस से अलग होकर वायएसआर कांग्रेस की स्थापना की। उनकी माता विजयम्मा, उनकी बहन शर्मिला तथा भाई अविनाश रेड्डी भी राजनीति में सक्रीय हैं। 1982 में एनटी रामाराव ने तेलुगू देशम पार्टी बनाई, जिसे फिलहाल चंद्रबाबू नायडु संभाल रहे हैं। चंद्रबाबू नायडु एनटी रामाराव के दामाद है। उनकी पुत्री पुरंदेश्वरी भी राजनीति में हैं। वे पहले कांग्रेस में थी और फिर भाजपा में चली गई। तेलंगाना की राजनीति पर केसीआर परिवार की ज्यादा चलती है।

तमिलनाडु भी इस सूची में शुमार है। करुणानिधि परिवार ने तमिलनाडु की राजनीति में लंबे वक्त तक केंद्र में रहकर काम किया। उनकी पत्नी, उनके बेटे तथा उनके परिवार के कई सदस्य प्रदेश से लेकर केंद्र की राजनीति में सक्रिय रहे। अलागिरी, स्टालिन, कनिमोझी, दयानिधि मारन जैसे चेहरे इसी परिवार से आए।

पंजाब में बादल परिवार ने राजनीति में अपनी पैठ जमाए रखी। प्रकाश सिंह बादल प्रदेश के सीएम बने, उनके पुत्र सुखबीर सिंह डिप्टी सीएम बने तथा उनकी पुत्रवधू केंद्र में मंत्री भी रही। उनके दामाद राज्य में मंत्री रहे। देश का सबसे बड़ा राजनीतिक परिवार कांग्रेस के बाद भले समाजवादी पार्टी हो, लेकिन मंत्रीपद के मामले में बादल परिवार आगे रहा। विक्रम सिंह मजीठिया, जो सुखबीर सिंह के साले हैं, वे भी फायदे में रहते दिखे।

वहीं महाराष्ट्र में ठाकरे परिवार राज्य से लेकर केंद्र तक अपनी पैठ जमाए हुए है। बाल ठाकरे, उद्धव ठाकरे, राज ठाकरे तथा ठाकरे परिवार के कई सदस्य महाराष्ट्र से लेकर केंद्र की राजनीति में अपनी मौजूदगी दर्ज करवाते रहे।

दूसरे दलों में भी परिवारवाद नाम की जड़ें जमी हुई है। भले गहरी ना हो, लेकिन प्रदेश स्तर पर जमकर विकसित हुई है। भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टियों में भी राज्य स्तर की राजनीति में मुख्यमंत्री या कद्दावर नेताओं के पुत्र या स्वजन टिकट पाते रहते हैं या सत्ता तक पहुंचते रहे हैं। परिवारवाद का विरोध करते-करते भाजपा में भी प्रादेशिक स्तर पर परिवारवाद की जड़ें काफी गहरी हो चुकी है!

मुफ्ती परिवार, अब्दुल्ला परिवार, पवार परिवार... ये सूची बहुत लंबी है। शायद कहा जा सकता है कि तमाम राजनीतिक पार्टियों में परिवारवाद का प्रेतात्मा अमर अवस्था में पाया जाता है। कही पर दृश्य अवस्था में, तो कही पर अदृश्य अवस्था में!

एक आंकड़े के मुताबिक देश में 15 राजनीतिक दल किसी न किसी प्रदेशों में हमेशा केंद्र में रहा है। इनमें से 28 फीसदी राज्य किसी परिवार के हाथों में हैं। 2009 के दौरान 29 फीसदी सांसद ऐसे थे, जो किसी न किसी वंशानुगत राजनीति से आते थे। 2009 में जितनी महिला सांसद थी, उनमें से 70 प्रतिशत राजनीतिक परिवारों से संबंधित थी। 2009 के लोकसभा आंकड़ों को देखा जाए तो, सबसे पहला नंबर समाजवादी पार्टी का आता था, जिसके 100 फीसदी सांसद किसी राजनीतिक परिवार से आते थे, 48 प्रतिशत के साथ कांग्रेस दूसरे नंबर पर थी। भाजपा का प्रतिशत 15 था।

संस्करण समापन
दलों का बनना, फिर उनका टूटना, टूटे हुए दलों का किसी के साथ जुड़ना या फिर मूल दल में विलिन हो जाना। ये सब ऐसी प्रक्रिया रही है जो लगभग तमाम दलों के राजनीतिक जीवन में आई। इसके अलावा गठबंधन करने के मामलों में भी दल पीछे नहीं रहे। जिन्हें चुनाव प्रचार में कोसा जाता या विरोधी बताकर उनकी खिंचाई की जाती, उन्हीं के साथ मिलकर सरकार बनाने में भी कोई पीछे नहीं रहा!

ये अनगिनत दल कब किसके साथ बैठ जाए वो भी नहीं कहा जा सकता। और ऐसा करने के पीछे उनका अपना एक सामाजिक या राष्ट्रीय तर्क भी होता है। ये एक दूसरे को कोसते हैं और सरकार बनाने के लिए एक दूसरे के साथ भी आ जाते हैं! स्वाभाविक है कि भारत जैसे देश को दोबारा चुनाव करवाना महंगा और असुविधानजक हो सकता है और इसीलिए ऐसे गठबंधन को अमूमन स्वीकार करना पड़ता है।

समीक्षक कहते हैं कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के इस बेरंग सफेद फूलों के पीछे उस प्रदेश की सभ्यताओं की कमजोरी जिम्मेदार है। दुनिया के हर देशों में, फिर वो लोकशाही देश ही क्यों न हो, ऐसी चीजें सामान्य रूप से मौजूद ही है। और हर जगह ये पाया गया है कि राजनीतिक क्षेत्र ने उन सभ्यताओं को भ्रमित करने में महारत हासिल की हुई है। और कुछ बुद्धिजीवी लोग हैं जिनके लिए कागज के ऊपर आंकड़ों की मायाजाल रची जाती है, जो संविधान या परंपरागत व्यवस्थाओं के आधीन होने के कारण स्वीकृत भी करनी होती है।

हालांकि, दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के इस सफेद और बगैर खुश्बु वाले फूलों के ऊपर लिखने बैठे तो पूरा ग्रंथ लिखा जा सकता है। इन सारे सफेद फूलों में से कोई न कोई फूल दिल्ली तक पहुंचने में या खुद का प्रभाव जमाने में कामयाब रह चुका है। कई फूलों ने कभी कभी भारत को खुश्बु से सराबोर कर दिया तो कभी कभी बेरंग भी किया।

और इन सभी की जनसेवा की तत्परता भी लाजवाब है। ये लोग जनसेवा या देशसेवा के लिए इस कदर उतावले हैं कि टिकटों के नाम पर कभी भी दल बदले जा सकते हैं। सेवा करने के लिए ये लोग पैसे पानी के माफिक बहा देते हैं। पार्टी के अंदर ही हंगामे होते हैं। और फिर चुनकर जिस सदन में जाते हैं वहां पर भी माइक या कुर्सी, किसी को ये लोग नहीं छोड़ते। शायद ये सेवा ऐसी है, जिसे कोई भी अपने हाथ से जाने देने के लिए तैयार नहीं है। इकलौती सेवा, जिसे हर कोई जबरन करना चाहता है। शायद ही कहीं और ऐसी आक्रमक सेवा-तत्परता देखी जाती हो।

(इनक्रेडिबल इंडिया, एम वाला)