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Accountability Shirking: गौरव, अभिमान और सनक के चक्रव्यूह में पहलगाम आतंकी हमले के जवाबों से भी बच निकले पीएम मोदी


बात पहलगाम आतंकी हमले और उस हमले से जुड़े मूल सवालों की है, जिसके जवाबों से पीएम मोदी सदैव की तरह इस बार भी बच निकले हैं। और इस कार्य में उनकी संपूर्ण मदद उस मेनस्ट्रीम मीडिया ने की है, जिसे गोदी मीडिया या मोदी मीडिया के नाम से जाना जाता है।
 
भारतीय सेना ने पहलगाम आतंकी हमले पर अपनी मज़बूत ज़मीनी प्रतिक्रिया दे दी है। किंतु यहाँ उस मूल विषय (आतंकी हमले) की बात है। जायज़ और ज़रूरी सवाल पूछना जिस सरकार में अपराध सरीखा माना जाता हो उससे ज़्यादा चिंतित करने वाला नज़ारा है रोज़मर्रा की देश से जुड़ी राजनीति और पत्रकारिता, दोनों का मर जाना, और भव्य, दिव्य तथा सुंदरीकरण को ही संस्कृति बना देना।
 
यूँ तो नरेंद्र मोदी सरकार का जो रंग और रूप है उसका एक प्रमुख बिंदु है जवावदेही से दूर भागना तथा सवालों को आपराधिक कृत्य क़रार दे देना। बतौर प्रधानमंत्री अपने पिछले दो कार्यकाल तथा वर्तमान तीसरे कार्यकाल के दौरान ऐसे अनेक मौक़े हैं, जिसमें नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार जवाबदेही से दूर भागती नज़र आई। और इसमें मेनस्ट्रीम मीडिया ने मोदी सरकार का जमकर साथ दिया।
 
भारत के प्रधानमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी ने पिछले 11 सालों में एक भी प्रेस कॉन्फ्रेंस नहीं की है! राष्ट्र के नाम संबोधन के दौरान अनर्गल प्रलाप या किसी चौक-चौराहे या मैदान से माइक पर लंबे चौड़े भाषण देने वाले पीएम मोदी ने मीडिया इंटरव्यू के नाम पर बॉलीवूड अदाकार अक्षय कुमार को इंटरव्यू दिया! या फिर ऐसे पत्रकारों को इंटरव्यू दिया, जिन्हें सरकार के चाटुकार के तौर पर जाना जाता है।
 
2008 के मुंबई हमले के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 11 दिसंबर 2008 को संसद में खड़े होकर देश से माफ़ी माँगी थी। उन्होंने कहा था, "मैं पूरे देश से माफ़ी माँगता हूँ, क्योंकि हम इस तरह की घटना को रोकने में असफल रहे।" तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री शिवराज पाटिल से इस्तीफ़ा ले लिया गया था। महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख ने भी इस्तीफ़ा दे दिया था।
 
नरेंद्र मोदी के शासन काल में पहले पठानकोट एयरबेस पर बहुत बड़ा आतंकी हमला, फिर उरी में बटालियन मुख्यालय पर हमला और उसके बाद भारतीय नागरिकों पर आतंकी हमला हुआ, क्या पीएम मोदी ने एक बार भी अपने गृहमंत्री का इस्तीफ़ा लिया? क्या पीएम मोदी ने एक बार भी इन तमाम हमलों के मूल सवालों के जवाब देने की हिम्मत दिखाई? पीएम मोदी लोकतंत्र की मूल प्रक्रिया सवाल-जवाब के मामले में शायद सबसे कमज़ोर प्रधानमंत्री हैं।
यह बात बिलकुल याद रखी जानी चाहिए कि नोटबंदी जैसा विवादित फ़ैसला लेने वाले पीएम मोदी ने नोटबंदी की घोषणा करते समय यह दावा तक कर दिया था कि नोटबंदी का एक लक्ष्य यह भी है कि इससे आतंकवाद ख़त्म हो जाएगा। दुनिया में पहला मौक़ा था जब किसी राष्ट्राध्यक्ष ने आतंकवाद को ख़त्म करने के लिए नोटबंदी का सहारा लिया हो!
 
नोटबंदी से आतंकवाद तो ख़त्म होना ही नहीं था, क्योंकि पीएम मोदी का वह दावा विशेष तथ्यों से कोसों दूर था। यूँ तो नोटबंदी जिन वजहों से की जाती है उनमें से एक में भी भारत को सफलता नहीं मिली। आतंकवाद तो छोड़ दीजिए, काला धन, नकली नोट और भ्रष्टाचार को ख़त्म करने के दावे पीएम मोदी के जुमलों की सूची में शामिल हो गए।
 
2019 में तमाम वादों और आश्वासनों के साथ अनुच्छेद-370 को निष्प्रभावी किया गया। पीएम मोदी और उनके भक्त गणों की सबसे बड़ी ग़लती यही रही है कि वे दोनों (स्वयं मोदी तथा उनके भक्त गण) ज़रूरत से ज़्यादा अधिक दावे कर देते हैं, जिसे आम भाषा में फेंकना कहते हैं। अनुच्छेद-370 को निष्प्रभावी करते समय भी वही अति हुई। बहुत सारे आसमानी दावे और आश्वासनों की बरसात हुई। साथ ही आतंकवाद अब जड़ से ख़त्म हो जाएगा वाला बेतुका दावा भी।
 
आतंकवाद और अनुच्छेद-370 का कोई सीधा और चिरकालीन रिश्ता तो था नहीं कि एक अनुच्छेद को निष्प्रभावी करने भर से आतंकवाद जड़ से ख़त्म हो जाता। किंतु सरकार ने वातावरण ऐसा बनाया और आश्वासन दिया गया कि कश्मीर अब वैसा नहीं रहेगा, पूरा बदल जाएगा। भक्त गण सोशल मीडिया पर दावा करने लगे कि कश्मीर में प्लोट लेंगे।
 
अति तत्व वाले दावे और भाषण, चुनाव और चुनाव जीतना-हराना, सरकार बनाना-गिराना, इसी काम में सालों से लगी मोदी सरकार भूल गई कि उन्होंने कोई वादा जनता से किया था। सरकार यह भी भूल गई कि नागरिकों की सुरक्षा उसका दायित्व है, नागरिक ख़ुद अपनी सुरक्षा का ज़िम्मा नहीं ले सकता।
 
पहलगाम को लेकर जिस तरह की रिपोर्टें प्रकाशित हुईं उससे पता चलता है कि सरकार की तरफ़ से सुरक्षा में भारी चूक हुई थी। ऐसे में यह सवाल ज़रूरी हो जाता है कि कश्मीर में सुरक्षा किसका दायित्व है? यहाँ हुई चूक और इसकी वजह से गई जानों के लिए कौन ज़िम्मेदार है? जो भी ज़िम्मेदार है क्या उसके ख़िलाफ़ कोई कार्यवाही की गई है?
 
लोकप्रिय पर्यटन स्थल बैसरन में सुरक्षा क्यों नहीं थी?
जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में 22 अप्रैल 2025 के दिन दोपहर 2-15 बजे बहुत बड़ा आतंकी हमला हुआ। बीते तीन दशक में जम्मू-कश्मीर में यह सबसे बड़ा आतंकी हमला था जिसमें पर्यटकों को निशाना बनाया गया हो। यह हमला पहलगाम बाज़ार से क़रीब छह किलोमीटर दूर बैसरन में हुआ।
 
पहलगाम बाज़ार से बैसरन तक का रास्ता पथरीली पहाड़ियों और घने जंगलों से होकर जाता है। वहाँ जाने वाले पर्यटक या तो घोड़े पर बैठ कर जाते हैं या फिर पैदल। बीबीसी रिपोर्ट में एक सूत्र बताते हैं कि बैसरन में हमले से पहले वहाँ 1092 पर्यटक थे, हमले के वक़्त क़रीब 250 से 300 पर्यटक मौजूद थे। उनके मुताबिक़ हमले से पहले तक हर दिन क़रीब 2500 पर्यटक बैसरन आते थे।
 
इस हमले में 26 लोग मारे गए, जिनमें 25 पर्यटक थे और 1 स्थानीय युवक। इसके बाद कई वीडियो सामने आए। इनमें से एक वायरल वीडियो गुजरात की शीतल कलाठिया का था। शीतल के 44 साल के पति शैलेशभाई कलाठिया भी इस हमले में मारे गए थे।
 
वहाँ न कोई सैनिक था, ना कोई पुलिस
बीबीसी हिंदी की एक रिपोर्ट की माने तो, केंद्रीय मंत्री सीआर पाटिल सूरत में उनके परिवार से मिलने गए। शीतल उनके सामने ख़ुद पर क़ाबू नहीं रख सकीं और अपना दुख बताने लगीं। शीतल ने कहा, "आपके पास इतनी सारी वीआईपी कारें हैं। उस व्यक्ति का क्या जो टैक्स देता है? वहाँ न कोई सैनिक था और न ही कोई मेडिकल टीम।"
 
अंग्रेज़ी के अख़बार 'द हिंदू' ने महाराष्ट्र के पारस जैन से भी बात की। वे इस हमले में बच गए हैं। उन्होंने कहा कि यह हमला 25-30 मिनट तक चला। उनका दावा है कि वहाँ न तो कोई पुलिसकर्मी था और न ही कोई आर्मी का कोई जवान। रिपोर्ट के मुताबिक़ केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ़) का कैंप हमले की जगह से छह या सात किलोमीटर दूर था, जबकि सेना के राष्ट्रीय राइफल्स (आरआर) का कैंप पाँच या छह किलोमीटर दूर।

 
सबसे अहम सवाल उठाया गया जिसका जवाब मोदी सरकार ने नहीं दिया, वह यह है कि पहलगाम के इस लोकप्रिय पर्यटन स्थल बैसरन में सुरक्षा क्यों नहीं थी? पत्रकार और कश्मीर मामलों की जानकार अनुराधा भसीन बीबीसी हिंदी को बताती हैं कि जहाँ तक उनकी याददाश्त है, उन्होंने हमेशा ही जम्मू-कश्मीर में सैन्य बल की भारी तैनाती देखी है।
 
भसीन कहती हैं, "1990 के दशक से ही, मुझे ऐसी कोई सार्वजनिक जगह याद नहीं जहाँ सुरक्षा न हो। हर जगह कुछ न कुछ सुरक्षाकर्मी या सुरक्षा के इंतज़ाम दिखेंगे ही। इसलिए यह चौंकाने वाली बात है कि इस इलाक़े में सुरक्षा नहीं थी।"
 
उन्होंने कुछ और भी सवाल उठाए। उन्होंने पूछा कि हमले के कुछ घंटों के अंदर ही हमलावरों के नाम कैसे सार्वजनिक कर दिए गए? वह कहती हैं, "सुरक्षा बलों को वहाँ पहुँचने में समय लगा। लेकिन कुछ समय बाद ही उनके पास हमलावरों के स्केच थे। वे इस नतीजे पर कैसे पहुँचे? ये जाँच बहुत विश्वसनीय नहीं लगती। ऐसी घटनाओं का इतिहास रहा है, जिनकी जाँच पर सवाल उठते रहे हैं। ये कुछ सवाल हैं जो मेरे ज़हन में हैं।"
वह कहती हैं कि साल 2019 में अनुच्छेद 370 के हटाए जाने के बाद भी कश्मीर में इस तरह की घटनाएँ होती रही हैं, भले ही वे बहुत बड़ी न हों। वह कहती हैं कि यह घटना दुनिया के सबसे अधिक सैन्यीकृत इलाक़ों में से एक में हुई और इससे गंभीर सवाल उठते हैं।
 
अनुराधा भसीन कहती हैं, "पिछले पाँच सालों में कुछ घटनाएँ घटी हैं। यह नहीं कहा जा सकता कि मिलिटेंसी ख़त्म हो गई है। यहाँ तक कि सुरक्षा से जुड़े अफ़सर भी जब इस मुद्दे पर बात करते हैं तो 'नियंत्रित' जैसे शब्द का इस्तेमाल करते हैं। वे मिलिटेंसी के 'ख़ात्मे' जैसे शब्द का इस्तेमाल नहीं करते। यह एक राजनीतिक नैरेटिव ज़्यादा है कि मिलिटेंसी ख़त्म हो गई है। पिछले पाँच सालों में जो भी शांति बनी है, वह ज़्यादा सैन्य नियंत्रण की वजह से है।"
 
प्रोफ़ेसर अमिताभ मट्टू जेएनयू के स्कूल ऑफ़ इंटरनेशनल स्टडीज़ में पढाते हैं और अंतरराष्ट्रीय संघर्ष और सुरक्षा के विशेषज्ञ हैं। बीबीसी हिंदी के समक्ष भसीन के सवालों का जवाब देते हुए वह कहते हैं, "पिछले कुछ सालों में पर्यटन स्थलों पर सैन्य बल की भारी तैनाती न करने का रुझान रहा है।'' वह कहते हैं, "ऐसी रणनीति अपनाई गई जो असरदार तो हो लेकिन बहुत ज़्यादा खुले रूप में दिखाई न दे। लेकिन किसी भी सूरत में यह एक बड़ी सुरक्षा चूक थी।"

 
बीबीसी ने जम्मू-कश्मीर के पूर्व पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) एसपी वैद से भी बात की। उन्होंने कहा कि चूँकि पर्यटकों को एक दूरदराज़ के इलाक़े में ले जाया जा रहा था, इसलिए वहाँ पुलिस कर्मियों की तैनाती होनी चाहिए थी।
 
वैद कहते हैं, "मुझे लगता है कि वहाँ सशस्त्र पुलिस की मौजूदगी होनी चाहिए थी। पुलिस या अर्धसैनिक बलों को वहाँ होना चाहिए था। अगर वे वहाँ होते तो वे आतंकवादियों से निपट सकते थे। यह भी सच है कि पुलिस कर्मी हर जगह नहीं हो सकते। संसाधन सीमित होते हैं। हाँ, अगर पर्यटक दूरदराज़ के इलाक़े में जा रहे थे तो वहाँ कुछ न कुछ पुलिसकर्मी ज़रूर होने चाहिए थे।"
 
सरकार कह रही थी कि अब कश्मीर सुरक्षित है, हमें पता नहीं था कि वहाँ हमारी दुनिया ख़त्म हो जाएगी
नीतू सिंह की रिपोर्ट में आतंकी हमले में अपने पति शुभम द्विवेदी को खोने वाली ऐशान्या की बात दर्ज़ है। हमले के दौरान इनकी आँखों के सामने ही इनके पति की हत्या कर दी गई थी। ऐशान्या कहती हैं, "हमारे देश ने, हमारी सरकार ने हमें उस जगह (पहलगाम) पर अनाथ छोड़ दिया था। हम जिनके भरोसे वहाँ घूम रहे थे, वो उस वक़्त वहाँ मौजूद ही नहीं थे।"
 
जिस वक़्त घटना हुई थी उस वक़्त वहाँ की सुरक्षा व्यवस्था क्या थी? इस सवाल के जवाब में ऐशान्या कहती हैं, "कोई सिक्योरिटी गार्ड नहीं था, आर्मी का कोई सिपाही नहीं था। वह कहती हैं, "सरकार तो कह रही थी अब कश्मीर सुरक्षित है। वहाँ 370 हट चुका है। हम लोग तो वहाँ बिना किसी चिंता के घूमने गये थे हमें नहीं पता था कि वहाँ हमारी दुनिया ही ख़त्म हो जाएगी।"
 
बीबीसी हिंदी की एक दूसरी रिपोर्ट में पहलगाम के रहने वाले घोड़ा चालक एसोसिएशन के प्रमुख अब्दुल वहीद वानी का दावा छपा है, जो कथित रूप से ऐसे पहले स्थानीय थे, जो बैसरन में घटनास्थल पर पहुँचे थे। बीबीसी के साथ बातचीत में वे दावा करते हैं कि उन्हें पुलिस की तरफ से एक फ़ोन कॉल आया था।
 
वे बीबीसी को बताते हैं, ''मैं उस समय गनशिबल में था। पुलिस का पहला फ़ोन मुझे 2 बजकर 35 मिनट पर आया था। पुलिस ने मुझसे कहा कि बैसरन में कुछ हो गया है। आप वहाँ जाकर देखो। मैंने अपने भाई सज्जाद को साथ लिया और बैसरन की तरफ दौड़ने लगा। मैं क़रीब 3-15 बजे वहाँ पहुँच गया। उस समय मेरे अलावा वहाँ कोई भी नहीं था। मैंने हर तरफ़ लोगों को ख़ून में लथपथ देखा। पुलिस हमारे बाद वहाँ पहुँची।"
 
इसी रिपोर्ट में पत्रकार कहते हैं कि एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने उन्हें बताया कि पुलिस एक घंटे के बाद बैसरन घटनास्थल पर पहुँच गई थी। इस रिपोर्ट में पत्रकार अपने दूसरे सूत्र के ज़रिए कहते हैं कि पुलिस कम से कम एक घंटे के बाद घटनास्थल पर पहुँची थी। इसी सूत्र ने उन्हें बताया कि पुलिस के घटनास्थल पर पहुँचने के बाद सेना और सीआरपीएफ़ भी पहुँच गई थी।
 
अमरनाथ यात्रा का रास्ता, न सैनिक, न पुलिस, ऊपर से सीसीटीवी कैमरे भी नहीं
हर साल लाखों श्रद्धालु पहलगाम बाज़ार से होकर अमरनाथ गुफ़ा तक पहुँचते हैं। पहलगाम के नुनवन में यात्रा का बेस कैंप होता है। इसी बेस कैंप से हर दिन यात्री जत्थों की शक़्ल में गुफ़ा के लिए निकलते हैं। अमरनाथ यात्रा के दौरान पहलगाम से लेकर गुफ़ा तक कड़ी सुरक्षा के इंतज़ाम होते हैं। बैसरन घाटी पूरे साल पर्यटकों के लिए खुली रहती है। सिर्फ़ साल 2024 में अमरनाथ यात्रा के दौरान बैसरन पार्क को पर्यटकों के लिए बंद किया गया था।
 
बीबीसी की रिपोर्ट में स्थानीय सूत्र के हवाले से लिखा गया है कि साल 2015 तक अमरनाथ यात्रा के दौरान बैसरन में सुरक्षाबल तैनात रहते थे। यात्रा से इतर बाक़ी पूरे साल यहाँ सुरक्षाबल तैनात नहीं होते थे। हालाँकि साल 2015 के बाद बैसरन में सुरक्षाबलों की तैनाती का सिलसिला भी साल 2024 तक बंद रहा।

 
इसी रिपोर्ट में बैसरन में सुरक्षा के इंतज़ाम पर पहलगाम के कई स्थानीय लोगों से की गई बातचीत दर्ज़ है। स्थानीय लोगों का कहना था कि यह हमला सरासर सुरक्षा की चूक का नतीजा है। स्थानीय लोगों का दावा है कि जिस पार्क में इतनी बड़ी संख्या में पर्यटक जाते हों, वहाँ एक सीसीटीवी कैमरा भी नहीं लगा है! एक दूसरे स्थानीय इस रिपोर्ट में कहते हैं कि जहाँ दिनभर पर्यटक आते हैं, वहाँ एक भी सुरक्षाकर्मी नहीं रखा गया था! हालाँकि, बैसरन पार्क के ट्रेक पर कभी-कभार सेना गश्त करती है।
 
एक पुलिस अधिकारी ने भी बीबीसी के समक्ष इस बात की पुष्टि की कि बैसरन में सीसीटीवी कैमरे नहीं लगे हैं। एक दूसरे वरिष्ठ सुरक्षा अधिकारी बीबीसी को कहते दर्ज़ हुए कि उस दिन बैसरन के ट्रेक पर या बैसरन पार्क के आसपास या पार्क के अंदर कोई भी सुरक्षाकर्मी मौजूद नहीं था। सीआरपीएफ़ के एक वरिष्ठ अधिकारी इस रिपोर्ट में कहते हैं कि सीआरपीएफ़ को कहीं भी तैनात करने से पहले या तो पुलिस की इजाज़त लेनी पड़ती है या सेना की।
 
टूरिस्ट असिस्टेंट गाइड के हवाले थे तमाम पर्यटक
अंग्रेज़ी के अख़बार 'द हिंदू' के रिपोर्ट की माने तो पहलगाम में सीआरपीएफ़ की एक कंपनी हमेशा तैनात रहती है, जो बाज़ार से कम से कम छह या सात किलोमीटर की दूरी पर है। इसके अलावा सेना के जवान भी पहलगाम में तैनात रहते हैं। पहलगाम बाज़ार से सेना की यह टुकड़ी कम से कम पाँच या छह किलोमीटर की दूरी पर है। हालाँकि सेना की संख्या ज़्यादा नहीं है।
 
पहलगाम में पुलिस का एक थाना भी है। थाना के अलावा वहाँ विशेष टास्क फ़ोर्स भी है। बीबीसी रिपोर्ट के मुताबिक़ कुल मिलाकर पुलिस के कम से कम 40 लोग हैं।
 
पहलगाम की 50 साल की एक महिला बीबीसी को बताती हैं कि वो कुछ साल पहले तक बैसरन के रास्ते लकड़ी लाने के लिए जंगल जाती थी, लेकिन उन्होंने कभी इस इलाक़े में सुरक्षाकर्मी नहीं देखे। एक पुलिस अधिकारी बीबीसी को बताते हैं कि पहलगाम बीते कई सालों से शांत रहा है, यही वजह है कि पुलिस या सुरक्षाबलों को अंदाज़ा नहीं था कि ऐसा भी हो सकता है।

 
जम्मू-कश्मीर पर्यटन विभाग के एक अधिकारी के हवाले से रिपोर्ट किया गया कि हमले के दिन उस इलाक़े में तीन टूरिस्ट असिस्टेंट गाइड (टीएजी) तैनात किए गए थे और वे बैसरन पार्क के बाहर थे। टीएजी का काम पर्यटक को रास्ता दिखाना होता है, या अगर कोई उनसे धोखाधड़ी करने की कोशिश करे तो उस पर नज़र रखनी होती है। सुरक्षा व्यवस्था के साथ इनका कोई लेना-देना नहीं होता है। उनके पास किसी तरह के हथियार नहीं होते हैं।
 
यह गाइड स्पेशल पुलिस अफ़सर के तौर पर पुलिस विभाग में भर्ती किए गए हैं। पहलगाम में ऐसे टूरिस्ट असिस्टेंट गाइड की संख्या क़रीब 30 है। बीबीसी रिपोर्ट में ज़िक्र है कि आज तक इनको सुरक्षा से जुड़ी कोई भी ट्रेनिंग नहीं दी गई है।
 
क्या यह ख़ुफ़िया तंत्र की एक विफलता थी? आतंकवाद ख़त्म होने की जगह उसका दायरा जम्मू के उन इलाक़ों तक कैसे पहुँचा जहाँ बीते बीस वर्षों से शांति थी?
यह सच है कि कोई भी आतंकी हमला, कोई हादसा या दुर्घटना जानबूझकर नहीं करवाई जाती, बल्कि हो जाती है। किंतु उसके होने के पीछे के कारण तलाशना, चूक और असफलताओं की जवाबदेही और ज़िम्मेदारी तय करना देश को सशक्त बनाती है।
 
पहलगाम में पर्यटकों पर हमला बीते तीन दशकों में सबसे बड़ा हमला है। किसी ने कल्पना भी नहीं की थी कि कश्मीर में पर्यटकों पर इस तरह का हमला हो सकता है। साल 2019 में नरेंद्र मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370 को निष्प्रभावी करते समय दावा किया था कि आतंकवाद ख़त्म करने में यह अनुच्छेद बड़ी रुकावट था।
 
हालाँकि मोदी सरकार का वह दावा तथ्यों से कोसों दूर था। अनुच्छेद के निष्प्रभावी होने के बाद भी जम्मू-कश्मीर में आतंकी घटनाएँ रुकी नहीं। यही नहीं, आतंकवाद की घटनाओं का दायरा जम्मू के उन इलाकों तक फैल गया, जहाँ बीते बीस वर्षों से शांति थी!
 
अमिताभ मट्टू बीबीसी हिंदी को कहते हैं कि उन्हें इस हमले में पाकिस्तान का हाथ होने में कोई संदेह नहीं है। तब यह सवाल उठता है कि क्या यह एक बड़ी ख़ुफ़िया नाकामी थी?
वे कहते हैं, "... मुझे एक पल के लिए भी पाकिस्तान के इसमें शामिल होने पर संदेह नहीं है।" मट्टू कहते हैं, "यह एक ख़ुफ़िया नाकामी है। क्यों हमें कोई ऐसी इलेक्ट्रॉनिक जानकारी नहीं मिली, जिसके ज़रिए हम इस हमले का अंदाज़ा लगा पाते और उसे नाकाम कर सकते थे?"
 
सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट जनरल सतीश दुआ भी मानते हैं कि ख़ुफ़िया नाकामी बड़ी चूक है। दुआ इस रिपोर्ट में कहते हैं, "क्या हम कुछ बेहतर कर सकते थे? हाँ। मैं यह नहीं कहता कि कोई चूक नहीं थी। हम बेहतर ख़ुफ़िया जानकारी जुटा सकते थे। इस घटना से कुछ दिन पहले पाकिस्तान के आर्मी चीफ़ ने एक बयान दिया था।"

 
वे आगे कहते हैं, "कोई भी हाई-प्रोफ़ाइल आतंकवादी हमला हमेशा शीर्ष स्तर पर मंज़ूर होता है। पाकिस्तानी आर्मी चीफ़ जानते थे कि वह क्या कर रहे थे। इसलिए हमें ऐसी चीज़ों के प्रति अधिक सावधान रहना चाहिए था। हमें ज़मीन पर कान और आँखें ज़्यादा सजग रखनी चाहिए थीं।"
 
उनका कहना है, "देश को ह्यूमन इंटेलिजेंस जानकारी में सुधार करने की ज़रूरत है। हम अब बहुत ज़्यादा इलेक्ट्रॉनिक ख़ुफ़िया जानकारी पर निर्भर हो गए हैं। दोनों का एक बेहतर मेल होना चाहिए।"
 
आम लोगों को क्यों निशाना बनाया गया? धार्मिक भावनाओं को भड़काने के इस हिंसक षडयंत्र की पर्ते कब खुलेगी?
पहलगाम हमले में आम नागरिकों को निशाना बनाए जाने से जुड़ा सवाल भी उठा है। इस हमले में वह तरीक़ा अपनाया गया जो अन्य हमलों से अलग था। 2008 में मुंबई में आम जनता पर हुए हमले के बाद यह संभवत: पहली बार था। किंतु फिर भी इस आतंकी हमले का पैटर्न अलग था।
 
बीबीसी हिंदी रिपोर्ट में सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट जनरल सतीश दुआ इस बारे में विस्तार से समझाते हैं, "पिछले पाँच सालों में कश्मीर घाटी में हालात बेहतर हुए हैं और सकारात्मक बदलाव आया है। लोग फिर से सामान्य जीवन की ओर लौटने लगे थे। पर्यटन भी बहुत तेज़ी से बढ़ने लगा था। आतंकवादी कभी भी पर्यटन वाले इलाक़े को निशाना नहीं बनाते। यह बात दुनिया भर में सच है और कश्मीर में ख़ासकर। क्योंकि अगर आतंकवादी ऐसा करते तो वे स्थानीय कश्मीरियों की आजीविका को निशाना बनाते। वे इन स्थानीय लोगों से ही समर्थन की उम्मीद करते हैं। इससे उनका ही समर्थन ख़त्म होता। यही वजह है कि घरेलू इलाक़ों में हमारी हमेशा यह समझ रही है कि आतंकवादी आम लोगों को निशाना नहीं बनाएँगे।"

 
उन्होंने बताया, "जब मैं कोर कमांडर था तो लोग मुझसे पूछते थे कि क्या वे (पर्यटन के लिए) कश्मीर आ सकते हैं। मैं हमेशा उनसे कहता था, कृपया आइए। आप डल झील के पास बैठ सकते हैं या पर्यटन स्थलों पर घूम सकते हैं क्योंकि इन जगहों पर हमले नहीं होते।"
 
प्रोफ़ेसर अमिताभ मट्टू इस हमले में आम नागरिकों को निशाना बनाने के कारण पर इस रिपोर्ट में कहते हैं, "आतंकी समूहों ने नागरिकों को निशाना क्यों बनाना शुरू कर दिया? पहले यह मुख्य रूप से सैन्य ठिकानों को निशाना बनाते थे। इस बार उन्होंने कश्मीरी लोगों की भावनाओं का कोई ख़्याल नहीं किया। क्या यह हालात सामान्य होने के विचार को नकारने का एक तरीक़ा है?"
"पहले आतंकवादी समूहों की रणनीति यह थी कि वे सैन्य ठिकानों और उन टारगेट के बीच अंतर करते थे, जिनका स्थानीय आबादी पर असर पड़ सकता था। अब वह अंतर ग़ायब सा हो गया है। हाँ, सिवाय इसके कि उन्होंने इस बार हिंदुओं को निशाना बनाया।"
 
दुआ भी मानते हैं कि नागरिकों को निशाना बनाने का एक कारण यह हो सकता है कि इसके ज़रिए देश के बाक़ी हिस्सों में भावनाओं को भड़काया जा सके। वे बीबीसी हिंदी को कहते हैं, "आतंकवादियों ने क्या किया? उन्होंने हिंदू पुरुषों को अलग किया और उन्हें मार डाला। इसका मक़सद था कि महिलाएँ अपने-अपने शहर वापस जाएँ और इन सबकी कहानी सुनाएँ। एक महिला की दर्दनाक़ चीख़ हर जगह असर डालती है और फिर इससे देश के अलग-अलग हिस्सों में भावनाएँ भड़केगी। भारत को यह तय करना होगा कि हम उनके जाल में न फँसें।"
 
उनके मुताबिक़ यह साल 2023 में इसराइल पर हमास के हमले जैसा है। वह कहते हैं, "उन्होंने हमास के तौर-तरीक़े को अपनाया है। वैसा ही कुछ किया है जैसा उन्होंने नोवा म्यूजिक फ़ेस्टिवल (इसराइल) में किया था। इसका कारण यह है कि निर्दोष आम नागरिकों, विशेष रूप से पर्यटकों को मारना, सुरक्षा बलों को मारने से ज़्यादा लोगों पर असर डालता है।"
 
पूरा देश एकजुट हुआ उघर पीएम मोदी चुनावी सभा में भाषण करते रहे, तमाम विपक्षी दल सरकार के साथ खड़े हुए लेकिन सर्वदलीय बैठक में स्वयं पीएम नहीं पहुँचे
पीएम नरेंद्र मोदी की यह विवादित शैली पिछले बड़े आतंकी हमलों के बाद भी दिखी थी, साथ ही कोविड-19 जैसी अभूतपूर्व महामारी के दौरान भी। उरी और पठानकोट जैसे बड़े आतंकी हमलों के तुरंत बाद पीएम मोदी चुनावी रैलियाँ संबोधित कर रहे थे! कोविड-19 के दौरान जान है तो जहान है का नारा देकर वे हज़ारों-लाखों लोगों को इकठ्ठा कर चुनावी भाषण करते रहे! जैसे कि कह रहे हो कि जान है तो जहान है, लेकिन चुनाव में ही बसी मेरी जान है।
 
22 अप्रैल को बेसरन में जब आतंकी हमला हुआ तब पीएम मोदी विदेश यात्रा पर थे। हमले की ख़बर मिलते ही उन्होंने अपना वो दौरा तुरंत रद्द कर दिया और भारत की तरफ़ रवाना हो गए। भारत पहुँचने के बाद बिहार चले गए! वहाँ 24 अप्रैल को मधुबनी में चुनावी मौड़ में रैली को संबोधित किया! वहाँ जाकर पाकिस्तान को चेतावनी वाला भाषण दिया!
 
पूरा देश एकजुट हो चुका था और देश के तमाम विपक्षी दलों ने मोदी शासित सरकार के साथ खड़े होने का ऐलान कर दिया था। लेकिन 29 अप्रैल 2025 तक पीएम ने देश को संबोधित नहीं किया! यहाँ तक कि सर्वदलीय बैठक बुलाई गई, लेकिन पीएम मोदी इस बैठक में शामिल तक नहीं हुए! पीएम की इस शैली की काफी आलोचना हुई।
एक तरफ़ देश के तमाम विपक्षी दल मोदी शासित सरकार को समर्थन दे रहे थे, एकजुटता का प्रदर्शन कर रहे थे, लेकिन सर्वदलीय बैठक में स्वयं पीएम मोदी नहीं थे! ऐसा नहीं कि वे बहुत ज़्यादा व्यस्त थे। वे बिहार में रैली कर चुके थे, मुंबई जाकर बॉलीवूड कलाकारों के साथ घंटों तक बतिया चुके थे, अलग अलग राज्यों में घूम आए थे! लेकिन इतनी महत्वपूर्ण बैठक में नहीं पहुँचे! जबकि उनको वहाँ हर हाल में होना ही चाहिए था।
 
मोदी सरकार ने माना कि सुरक्षा में चूक हुई है, लेकिन किसी भी अधिकारी या मंत्री को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया गया। इतनी बड़ी चूक के लिए कोई जवाबदेह नहीं था!
 
इतना ही नहीं, विपक्ष की संसद का विशेष सत्र बुलाने की माँग को अनसुना किया गया। जीएसटी जैसे टैक्स सुघार की सामान्य घटना पर आधी रात को संसद का विशेष सत्र बुलाने वाले पीएम मोदी ने इस महत्वपूर्ण मौक़े पर यह नहीं किया और उन्हें समर्थन दे रहे विपक्ष की माँग को अस्वीकार कर दिया।
 
इतना ही नहीं, आतंकी हमले के बहुत दिनों के बाद देर से राष्ट्र के नाम संबोधन किया। लेकिन पूरे संबोधन में पीएम मोदी ने पाकिस्तान को हमले के लिए ज़िम्मेदार नहीं ठहराया। उनके संबोधन में आश्चर्यजनक रूप से यह नदारद था!
 
विपक्षी दल के अध्यक्ष का चौंकाने वाला दावा, पीएम मोदी को पहलगाम हमले की तीन दिन पहले से जानकारी थी, बीजेपी और सरकार ने इस दावे पर कोई ठोस जवाब क्यों नहीं दिया?
तमाम विपक्षी दलों ने मोदी शासित सरकार को समर्थन दिया। पीएम को लिखित रूप से तथा सार्वजनिक तरीक़े से कहा गया कि आप आतंकवाद और पाकिस्तान के ख़िलाफ़ जो भी कदम उठाएँगे उसे हमारा समर्थन होगा। इसके बाद सर्वदलीय बैठक से पीएम मोदी का दूर रहना, संसद का विशेष सत्र बुलाने की माँग को अनसुना कर देना समेत अनेक विवादित शैली के बाद कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे का गुस्सा फूट पड़ा।
 
6 मई को इन्होंने चौंकाने वाला दावा किया कि पीएम मोदी को तीन दिन पहले से ही पहलगाम हमले की जानकारी थी, लेकिन उन्होंने इसे सुरक्षा बलों से साझा नहीं किया। मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा कि पहलगाम हमले से तीन दिन पहले, यानी 19 अप्रैल को ख़ुफ़िया एजेंसियों ने प्रधानमंत्री मोदी को संभावित आतंकी हमले की चेतावनी दी थी। खड़गे ने दावा किया कि इस जानकारी के आधार पर पीएम ने अपनी श्रीनगर यात्रा रद्द कर दी, लेकिन इस ख़ुफ़िया जानकारी को पुलिस, सुरक्षा बलों या सीमा सुरक्षा बल के साथ साझा नहीं किया गया।

 
देश के सबसे पुराने और राष्ट्रीय राजनीतिक दल के अध्यक्ष ने बाक़ायदा यह दावा किया, जिसके लिए उन्होंने अख़बारो में छपे रिपोर्ट का हवाला दिया। यह सनसनीखेज़ आरोप था। छिटपुट और सामान्य सी आलोचनाओं पर उबलने वाली मोदी सरकार और उनकी पार्टी ने इस दावे के विरुद्ध कोई 'ठोस प्रतिक्रिया' नहीं दी। बीजेपी ने खड़गे के बयान की आलोचना ज़रूर की और उन्हें देशद्रोही और आधुनिक मीर जाफ़र जैसा कहा।
 
इसके अलावा नरेंद्र मोदी सरकार ने मुख्य विपक्षी दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष के इस चौंकाने वाले आरोप पर कोई ठोस जवाब नहीं दिया! यह सनसनीखेज़ इल्ज़ाम था। सीधा आरोप था कि पीएम ने राष्ट्रीय सुरक्षा से खिलवाड़ किया था। इसका ठोस उत्तर पीएम मोदी और उनकी सरकार को देना चाहिए था। लेकिन ऐसी कोई मज़बूत प्रतिक्रिया नहीं हुई!
 
मोदी सरकार की शैली ने उठाए सवाल, क्या सुरक्षा चूक से जुड़े सवाल पूछना अपराध है? जवाबदेही से दूर भागती सरकार की आलोचना करना देशद्रोह कैसे हो गया?
2014 से पहले कांग्रेस शासित सरकार की खुलकर आलोचना की जा सकती थी। कांग्रेस दुध की धुली नहीं थी और ना है, किंतु उसकी शैली की, उसकी नीतियों की, उसकी सत्ता के दौरान घटित होने वाली घटनाओं की, उसके मंत्रियों, प्रधानमंत्रियों की मीडिया से लेकर आम जनता में खुलकर आलोचना की जा सकती थी। सवाल पूछे जा सकते थे। जवाब नहीं मिलने पर फिर से पूछे जा सकते थे। किंतु मोदी और आरएसएस के इस नये भारत में यह अपराध माना जाता है!
 
नरेंद्र मोदी शासित सरकार की कार्यशैली ने फिर वही पुराना सवाल ज़िंदा किया। पहलगाम आतंकी हमले से जुड़े जायज़ सवाल पूछना, सुरक्षा में कथित चूक को लेकर सवाल पूछना, यह अपराध कैसे हो गया? यह तो देश और लोकतंत्र को ज़्यादा मज़बूत करने की मूलभूत प्रक्रिया है।
 
आतंकी हमला होने के बाद भारतीय सेना के ज़रिए भारत मज़बूत प्रतिक्रिया देगा यह स्पष्ट था। किंतु इसे लेकर पीएम स्तर से लेकर मंत्री स्तर तक उस संभावित सैन्य प्रतिक्रिया का प्रचार करना, मेनस्ट्रीम मीडिया पर भारत की संभावित तैयारियों को सार्वजनिक करना, यह विशुद्ध राजनीतिक प्रक्रिया थी।

 
इसे लेकर अपनी चिंता प्रक्ट करना तथा आतंकी हमले को लेकर मूल सवालों को पूछना, लोकतांत्रिक देश की मूल आत्मा सरीखी इस प्रक्रिया को दमनकारी नीति के ज़रिए कुचलना ही अपराध है। सुरक्षा चूक पर सवाल उठाना, आतंकी हमले को लेकर सवाल पूछना, संभावित सैन्य कार्रवाई के हो रहे राजनीतिकरण की आलोचना करना, इसे यदि अनाप-शनाप आरोप लगाकर कुचला जाता है तो यह भारत जैसे देश में स्वीकृत शैली नहीं हो सकती।
 
पहलगाम आतंकी हमले बाद से आज तक न जाने कितनों को राष्ट्रद्रोह, सामाजिक वैमनस्य फैलाना, राष्ट्रीय सुरक्षा को ख़तरा, राष्ट्रीय अखंडता को नुक़सान, भावनाएँ आहत होना, सरीखे हथकंडे अपनाकर रोका गया। मेनस्ट्रीम मीडिया, जिसे गोदी मीडिया या मोदी मीडिया कहा जाता है, वह अपने काल्पनिक और हास्यास्पद रिपोर्टींग के ज़रिए बेखौफ़ होकर वह तमाम काम करता रहा, जिसने सामाजिक वैमनस्य-राष्ट्रीय सुरक्षा को ख़तरा स्तर को छू लिया। उन्हें पूरी छूट थी, जबकि सवाल पूछने वालों का दमन होने लगा!
मोदीजी पीएम हैं, स्वयं देश नहीं है कि उनकी या उनकी सरकार से सवाल या आलोचना देश की आलोचना माना जाए। मोदीजी भले ख़ुद को नॉन बायोलॉजिकल कह चुके हों, लेकिन वे हैं नहीं। हर जायज़, संवैधानिक, नीतिगत और नैतिक सवालों को पूछना और उसके जवाब देना, ज़िम्मेदारी को स्वीकारना और जवाबदेही तय करना, यह मूल कर्तव्य पीएम मोदी के भीतर कभी दिखा नहीं है।
 
अगर आतंकी हमले के बाद पीएम मोदी या उनकी सरकार की आलोचना की जाए, उनसे सवाल पूछे जाए और इसे उनके हिसाब से अपराध, देशद्रोह या राष्ट्रीय सुरक्षा को ख़तरा माना जाता है, तब तो ऐसा अपराध और देशद्रोह स्वयं मोदीजी और उनकी पार्टी 2008 मुंबई हमले के बाद मनमोहन सरकार को घेर कर कर चुकी है।
 
पीएम मोदी, उनकी पार्टी बीजेपी और उन दोनों को यहाँ तक पहुँचाने वाला और वहाँ स्थायी रखने वाला आरएसएस, सभी की करनी दर्शाती है कि वे तमाम यह भूल चुके हैं कि लोकतंत्र का मतलब सिर्फ़ चुनाव जीतना ही नहीं है। असल में लोकतंत्र तब मूर्तरूप लेता है जब एक उत्तरदायी/जवाबदेह सरकार का जन्म होता है।
 
2014 के बाद से 'जवाबदेही' नामक शब्द सरकार की डिक्शनरी से ग़ायब ही हो चुका है। यह सही है कि आतंकी हमले कोई जानबूझकर नहीं करवाता, हो जाते हैं। लेकिन लोकतांत्रिक देश ऐसे नहीं चलते। यहाँ चूक और असफलताओं के लिए ज़िम्मेदारी लेनी होती है तभी लोकतंत्र सशक्त होता है। हर गंभीर से गंभीर अपराध पर चुप्पी साध लेना, जिन लोगों पर ज़िम्मेदारी है उनसे सवाल ना पूछना यह सब अपराधों की निरंतरता और गंभीरता को बढ़ाता है।
 
भारतीय सेना के साहस की आड़ में नरेंद्र मोदी छिपते नज़र आ रहे हैं। नरेंद्र मोदी बेशक स्वतंत्र भारत की चुनावी राजनीति के सबसे बड़े खिलाड़ी हैं। चुनाव लड़ना, लड़ाना, जीतना, हराना, इसमें नरेंद्र मोदी का शायद कोई सानी नहीं है। किंतु इस एक बात के सिवा उनके पास कोई विशेष चिरकालीन सिद्धी नहीं है। भारतीय सेना के शौर्य और साहस के पीछे छिपते पीएम मोदी पहले भारतीय प्रधानमंत्री होंगे, जो राष्ट्रीय सुरक्षा के विषय पर तमाम हदों और नैतिकताओं को तोड़ कर राजनीति करते हैं।
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)