ये मत सोचिएगा कि सभी कश्मीर पर
बात करते हैं तो मैं भी करूंगा। सभी कश्मीर पर बात कर रहे हैं, मैं कश्मीरियों पर बात करूंगा। जब भी कश्मीर
की बात की जाती है तो न जाने क्यों लेकिन पूरी कश्मीरियत पर पाकिस्तानियत को हम जबरन
खींच कर ले आते हैं।
एक दौर था जब कहा जाने लगा था कि
पाकिस्तान के हाथों से कश्मीर मुद्दा निकल चुका है। मुझे पता नहीं कि ये सच था या
नहीं। क्योंकि मैं भारत के किसी राज्य में बैठे बैठे कश्मीर का विशेषज्ञ बनने का दावा
नहीं करता। लेकिन, हम चुनाव करवाने
लगे थे। उनकी भाषा में कहे तो जमुरियत सिर चढ़ के बोलने लगी थी। सेना भी ऑपरेशन सद्भावना या भारत दर्शन के जरिये सरकारों का काम कर रही थी। जी हां, सरकारों का। अमरनाथ यात्रा पर जाते वक्त दिल
में वो खौफ नहीं रहता था, जो पहले
रहा करता था।
वैसे हर जुम्मे पर पत्थरबाजी होना
वहां की आम घटना तो थी ही। हो सकता है कि यह वारदातें या विरोध प्रदर्शन कुछेक इलाकों
में हो। लेकिन, सवाल तो यह है कि
जमुरियत के सिर चढ़ने के बावजूद ऐसा क्या हुआ कि पीछले 2 दशकों का सबसे बड़ा जनाजा निकल
आया। सेना के भारत दर्शन या सद्भावना मिशनों के बाद भी ऐसा क्या हो गया कि लाखों कश्मीरी
अपनी भावनाओं को लेकर सुरक्षा बलों को पीटने लगे,
उनकी गाड़ियां जलाने लगे। और तो और उन्हें नदियों में ठेलने लगे। कभी पर्दे के पीछे
छुपने वाले वो लड़कें आज खुद को मिलीटेंट कहलाने में हिचकते नहीं। सोशल मीडिया में अपने सही
नाम और सही पहचान के साथ कूदते हैं।
आज कहां कहां हिंसा हुई, कितने मरे, कितने अस्पताल में हैं, ये सब बातें करके फायदा ही क्या? क्योंकि मूल सवाल होना चाहिए कि ऐसा हुआ
क्यों? कुछ लोग होंगे
जो कहेंगे कि मैं नेगेटीव बातें कर रहा हूं। अगर मेरी इन तथाकथित नेगेटीब बातों के चलते
वहां ये सब हो गया हो तो मुझे नाईक से पहले जेल में ठेल दीजिए। हम दाऊद को तो नहीं ला
सके, पर अपने ही देश
में रहनेवाले नाईक को क्यों इतना वक्त दे रहे हैं?
दिल्ली में पढ़ रहे एक कश्मीरी युवा
ने अपनी बात एक मीडिया चैनल के सामने रखी। उसने कहा, “मैं भारतीय हूं और भारतीय बने रहने में मुझे ज्यादा फायदा दिख
रहा है। जब हम कश्मीर में पढ़ाई करते हैं तब कुछ खास दिक्कतें सामने नहीं आती। लेकिन जब
हम बाहर पढ़ने जाते हैं तो हमें कश्मीरी या आतंकी की नजरों से देखा जाता है। हम अच्छी शिक्षा
प्राप्त करते हैं, लेकिन उस रुतबे को हासिल नहीं कर पाए जो आम भारतीयों को हासिल है।
हम कश्मीर वापिस जाते हैं तब उसके एक सिरे पर चीन दिखता है तो दूसरे सिरे पर पाकिस्तान।
जिस देश में रहते हैं उस देश में हमें शक की नजरों से देखा जाता है। हमें न तो चीन पर भरोसा
है और ना ही पाकिस्तान पर। भारत ही हमारा एकमात्र सहारा है। लेकिन चीजें ऐसी होती हैं कि हम गुमराह होकर या तो आतंकवादी बन जाते हैं या केवल कश्मीरी। भारतीय बनने के हमारे
तमाम प्रयास हमें विफल बना देते हैं।”
हम मानते हैं कि किसी इक्का-दुक्का
कश्मीरी की बात कश्मीर की आवाज नहीं हो सकती। लेकिन बिल्कुल हो नहीं सकती ऐसा लैपटोप
के जरिये मान लेना भी कुछ नेगेटीव बात ही तो है।
हमें पाकिस्तान की नहीं सुननी चाहिए, क्योंकि कश्मीर हमारा आंतरिक मामला है। लेकिन
क्या हमें इस कश्मीरी की भी नहीं सुननी चाहिए?
क्योंकि कश्मीर हमारा आंतरिक मामला है। हमने मणिपुर, नागालैंड, छत्तीसगढ़ के इतिहास और वर्तमान से कोई अनुभव नहीं लिया है। शायद
हम विदेशों से या बड़े बड़े देशों से आजकल प्रेरणा लेते है। एक नया फैशन है यह। लेकिन क्या
हमने अमेरिका या ब्रिटेन जैसे देशों से भी कोई अनुभव प्राप्त किया? क्योंकि अमेरिका और रशिया ओसामा या बगदादी
को मार गिराने का दावा करते आये हैं। उन्होंने अफगानिस्तान या सीरिया को झकझोर दिया।
लेकिन, मूल सवाल यह है
कि आतंकवादी मारने से क्या आतंकवाद खत्म हो जाता है?
उन्हें जहां से मदद मिलती है, पैसे मिलते हैं, हथियार मिलते हैं उन स्त्रोत को मुझे नहीं लगता कि शायद ही किसी ने छुआ हो। जानबूझकर नहीं छुआ या अंजाने में, मुझे नहीं पता। लेकिन सबसे बड़ी बात तो यही
उठती है कि उन्हें जहां से सोच मिलती है उस विषय को शायद ही छेड़ा गया हो। सारा मामला
विचारधारा को लेकर है। जब भी हम कश्मीर की बात करते हैं, तो पाकिस्तान की तरफ मुंह ताक कर करते हैं।
कश्मीर की बात कश्मीरियों के साथ की जानी चाहिए।
दिक्कत यह है कि दिल्ली या नोएडा
में बैठे बैठे हमारा मीडिया कश्मीर को लेकर नीतियां बनाने की कुचेष्टा करता है। वैसे
तो यह लोग गार्जियन पढ़कर दो दिन में ब्रिटेन को समझने लगे हो तब मुमकिन है कि यह कुचेष्टा हो ही जाए। हमें
ये नये सिरे से सोचना होगा कि हमें आतंकवादी और आतंकवाद दोनों से जूझना है। और इन दोनों में फर्क तो है। जाहिर है कि आतंकवादियों से सेना जूझती है। और आज सेना पर लोग या विशेषज्ञ
सवाल उठाते हैं, उनसे पूछते हैं।
लेकिन हे विशेषज्ञों, आप समझे कि सेना
नीति निर्धारण नहीं करती। या फिर उनका काम बातचीत करना कम और एक्शन लेना ज्यादा होता
है। उनका काम आतंकवादियों से लड़ना है। वैसे सद्भावना या ऐसे मिशनों से वो उस विचारधारा
को लेकर संजीदा भी ज़रूर है।
लेकिन आतंकवाद से लड़ने का काम तो
सरकारों का है। राजनीतिक गलियारों का है। देश के नीति निर्माता तो वो ही लोग है। वो ही
माईक पकड़कर देश के भविष्य के सपनें दिखाते हैं। अब यह तो सेना के साथ नाइंसाफी ही है
कि उन्हें आतंकवादियों और आतंकवाद, दोनों से लड़ने का काम दे दिया जाए। बंदूकें भी उठाने
का कहा जाए और संवाद का भी कहा जाए! संवाद में विशेषज्ञ
होने का दावा हमारे राजनेता करते हैं। तो फिर आगे आकर ये काम उन्हें हाथ में ले लेना चाहिए
था। हमें यह समझना होगा कि बंदूक से पाकिस्तान वाले कश्मीर का हल निकलेगा, भारत वाले कश्मीर का नहीं। अगर आप इस विषय
के साथ सहमत नहीं हो तो आप को कश्मीर जाकर वहां कुछ दिन गुजारने चाहिए। या फिर हमारे
अन्य राज्य, जहां असंतोष की भावनाएं फली फूली है उसका विश्लेषण करना चाहिए।
हमें यह समझना होगा कि जब हम पाकिस्तान
के साथ कश्मीर की बात करते हैं तब मामला कुछ और है। लेकिन जब भारत में कश्मीर को लेकर
बात करते हैं तब मामला दूसरा हो जाता है। अल कायदा या ओसामा या बगदादी कहा से पैदा हुए
ये जानने में कई दशक आप बर्बाद कर लिये, लेकिन वो
कभी मरते क्यों नहीं है, ये समझने
में भी थोड़ा वक्त बर्बाद कर ले।
हमें यह समझना होगा कि हम जब कश्मीर
की बात भारत के लिए करते हैं तब कश्मीरी की बात करते हैं, तब कश्मीरियत की बात करते हैं, उनको मुख्य धारा से जोड़ने की बात करते हैं, उनके भविष्य की बात करते हैं, उनके नौकरी की, धंधे की बात करते हैं, उनकी शिक्षा की बात करते हैं। हम भारत के
अन्य राज्यों में लैपटोप के सामने बैठे बैठे या मोबाइल में पढ़कर कश्मीर को समझ लेने का
दावा करते हैं। लेकिन कश्मीर के लोग, कश्मीर
का मीडिया, कश्मीर की सोच किसी
लैपटोप या मोबाइल के जरिये समझ ली जाती, तो फिर वहां किसी सरकार की ज़रूरत ही क्या होती?
मुझे भी नहीं पता था कि, लेकिन मैंने जब यह जाना, बार बार जाना और फिर आज भी जाना तब फिर से
चौंकने का वक्त आ गया। मैंने जब जाना कि पिछले 8 महीने से पाकिस्तान के साथ बातचीत बंद
है उसका असर कश्मीर पर हुआ है तब मैं चौंक गया। आप भी चौंक सकते हैं। लेकिन अपनी धारणाओं
के पहाड़ मत बना लेना। दरअसल, कश्मीर
की शिकायत यह रही है कि जब भी घाटी में शांति होती है तब कश्मीर को भुला दिया जाता है।
सरकारें तब कुछ नहीं करती। देश तभी कश्मीर के बारे में सोचता है, जब वहां कुछ बुरा घटित
हो जाए। इसके अलावा दूसरे पहलू भी है यह भी नोट कर ले।
हमारे प्रधानमंत्री ने कश्मीर के
लिए पैकेज दिए हैं, कश्मीर में रैलियां
भी की और कुछ योजनाएं भी बनाई। लेकिन नेता की योजनाओं को जमीन पर विष्णु के अवतार में
देखे तभी तो आवाम को भरोसा होगा। आप जान कर चौंक जाएंगे कि हजारों या लाखों के स्कॉलरशिप की जो योजनाएं थी, उनमें जिन्हें जिन्हें स्कॉलर मिली, उन्हें फिर पता चलता
है कि जिस कॉलेज के लिए मिली है वो कॉलेज या तो बन रही है या कागज पर है! मूल बात
यह है कि मूल चीजों को मूल रूप से मूल्यांकन किये बिना हम उन्हें लोलीपोप नहीं दे सकते।
बात किसी भाजपा या कांग्रेस की नहीं है, बल्कि बात
भारत और कश्मीर की है। मुझे यह समझ नहीं आता कि सरकारें बदलने पर कश्मीर क्यों बदल जाता
है।
मुझे प्रधानमंत्री की उस बात से सहमत
होने में कोई दिक्कत नजर नहीं आती कि जब उन्होंने कहा कि मीडिया ने बुरहान को ज्यादा
कवरेज दे दी। सच ही तो है। आप बुरहान की बात कर रहे हैं या कश्मीर की ये मीडिया को समझना
चाहिए था। कश्मीर का मसला था तो मुफ्ती या मोदी की बात करनी चाहिए, ना कि बुरहान की। उसकी तस्वीरों को मीडिया
पूरा दिन ऐसे ठेलता रहा कि जितनी तो विश्वकप के समय धोनी की नहीं ठेली गई!!!
जब हम पाकिस्तान के साथ कश्मीर की
बात करते हैं तब कश्मीर एक समस्या है। लेकिन जब हम आपस में कश्मीर को लेकर बात करते हैं तब वो विचारधारा है। हमें इन दोनों के बीच जो बड़ा अंतर है उसे समझना ही होगा। क्योंकि
हम सेना के जरिये आतंकवादियों को मार गिरा सकते हैं, लेकिन विचारधारा या सोच बंदूकों से हैंडल की गई हो ऐसा इतिहास
मैंने तो नहीं पढ़ा। जो काम सेना का है ही नहीं,
उस काम को हम उन पर क्यों थोप रहे हैं? हमें यह
समझना होगा कि हमें आतंकवादी खत्म करने हैं या आतंकवाद को। कम से कम कश्मीर के मसले पर
तो यह सोचना ही होगा। क्योंकि वो भारत का अविभाज्य अंग है, ऐसा दावा हम करते हैं।
एक विचारधारा है जो किसी आतंकवादी
के मौत को मानवाधिकारों के साथ जोड़ती है और उस विचारधारा के साथ बातचीत कम, एक्शन ज्यादा काम आती है यह दुनिया का इतिहास
है। यह विचारधारा पाकिस्तान है। एक विचारधारा है जो कहती है कि उन आतंकवादियों के सामने जूझ रहे सुरक्षा जवानों के भी अपने मानवाधिकार है। यह विचारधारा भारत है। लेकिन, इन दोनों के बीच कश्मीरियों की विचारधारा
है, यह भी तो भुलाया
नहीं जा सकता।
कश्मीर के वो भारतीय, जिन्हें कश्मीरी
कहा जाता है। कश्मीर में टेरर के साथ ट्रिगर और कश्मीरियों के साथ टोक... इन दोनों का
सहज रूप से चलना संभव करना होगा। हमें कश्मीर का सोचना है, लेकिन मणिपुर, नागालैंड और इरोम शर्मिला जैसों के संदर्भ
के साथ। क्योंकि... जब हम पाकिस्तान के साथ कश्मीर की बात करते हैं तब कश्मीर एक समस्या
है। लेकिन जब हम आपस में कश्मीर को लेकर बात करते हैं तब वो विचारधारा है। हमें इन दोनों
के बीच जो बड़ा अंतर है उसे समझना ही होगा।
और यही बात उन कश्मीरियों को भी
समझनी होगी कि भारत में एक ऐसा बड़ा तबका भी है जो उनकी समस्याओं के बारे में सोचता
है। यहां बात उन लोगों की नहीं है जो किसी आतंकी के जनाजे में भीड़ बनकर आ जाते हैं।
उनके बारे में समझना या उन्हें समझाना ये बातें कतई नहीं है। क्योंकि अगर वो समझते तो
उस भीड़ का हिस्सा नहीं बनते। बात उन लोगों की है जो ना खुद को उन जनाजों से जोड़ते हैं और ना ही खुद को भारत के साथ जोड़ पाते हैं। उन्हें भी यह समझने की ज़रूरत है कि
बुरहान जैसे लोग अगर सचमुच हीरो होते तो वो मलाला के साथ खड़े रहते, ना कि उन लोगों
के साथ जो किसी बच्ची के स्कूल जाने पर भी डर जाते हैं। जैसे कि इससे दुनिया का अंत
होने वाला हो। फिर धमाके करके उन्हें डराते हैं। उन्हें समझना होगा कि जब जब उन पर
संकट आया तब तब इसी सेना ने उनका हाथ थामा था। उसी सेना पर कुछ लोग पत्थर फेंकते
हैं तो उन शेष कश्मीरियों को उन हमलावरों की खिलाफत करके खुद को उस विचारधारा के साथ
जोड़ने के लिए दो कदम आगे आना होगा। कोई आप को किसी विचारधारा या सोच के साथ जोड़ने की कोशिशों में लगा हो, तो फिर उत्तरदायित्व उन्हें भी निभाना होता है जो उसी मसले को लेकर खुद को दो गुटों के बीच पीसा हुआ बताते हैं। रही अन्याय की बात... तो यह चीज़ दुनिया भर में है।
दुनिया की छोड़ दो, भारत के हर राज्यों में है। तभी तो सरकारें बदलती हैं।
(इंडिया इनसाइड, 10 जुलाई 2016,
एम वाला)
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