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America over India : तथाकथित मैत्रीपूर्ण रिश्ते और अमेरिका का व्यापारिक इतिहास... आर्थिक हितों के लिए अमेरिका ने भारत को भी नहीं छोड़ा


तमाम देशों की कूटनीति की अंतिम व्याख्या यही हो सकती है कि घर भर लो। हां, जो मिलता है उसके लिए कितनी क़ीमत चुकानी पड़ेगी यही महत्वपूर्ण होता है। कहा जा सकता है कि कोई भी मित्र या दुश्मन स्थायी नहीं होता।
 
विश्व के तमाम देशों की विदेशनीति में एक अलिखित नियम है कि कोई भी देश स्थायी मित्र या स्थायी दुश्मन नहीं होता। या यूँ कह लीजिए कि हर मौके पर खुद को क्या मिलेगा यह सोचना ही तमाम देशों की खुद की देशसेवा होती है। फिर भले वैश्विक शांति की बातें करके मिल जाए या फिर दुनिया में अमन चैन के जुमले ठेलकर मिले। हां, जो मिलता है उसके लिए कितनी क़ीमत चुकानी पड़ेगी यही महत्वपूर्ण होता है। कहा जा सकता है कि कोई भी मित्र या दुश्मन स्थायी नहीं होता।
 
हर जगह हर दौर में यही होता आया है। तमाम देशों की कूटनीति की अंतिम व्याख्या यही हो सकती है कि घर भर लो। इसके उदाहरण जगजाहिर हैं, लिहाजा दोहराने की ज़रूरत नहीं है।
 
फिलहाल बात करते हैं अमेरिका और भारत के बीच तथाकथित मैत्रीपूर्ण रिश्ते की। विदेशनीति के उसी अलिखित नियम के हिसाब से हम भी वही सोचेंगे जो दुनिया सोचती है। वैसे यह रिश्ता भी अजीब है। जहाँ अमेरिका आतंकवाद के मुद्दे पर भारत के साथ है और दुनिया में खुद को आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई का नेता बताता है, वहीं वो खुल्लेआम पाकिस्तान को हथियार और पैसे भी बाँटता रहता है! इन पैसों और हथियारों का क्या इस्तेमाल हुआ है ये उसे और हमें, सभी को पता ही है। "अमेरिका और पाकिस्तान के रिश्ते कौन सी अवस्था में तल्ख़ होंगे इस पर भी सभी राय लगभग एक जैसी ही है।"
 
वैसे अमेरिका का भारत के साथ व्यापारिक तथा अन्य इतिहास ग्रंथों में भी शायद समेटा जाए। कई वाक़ये और घटनाएँ जगजाहिर हैं। हम बात करते हैं हाल ही के दौर की...
 
पोल्ट्री बाज़ार के लिए अमेरिका ने भारत के विरुद्ध विश्व व्यापार संगठन में खोल दिया था मोर्चा, जून 2015 में अमेरिका के पक्ष में आया फ़ैसला
वर्तमान समय में चीन और अमेरिका एक दूसरे के विरुद्ध तने हुए नजर आते हैं। जबकि भारत के साथ अमेरिका के रिश्ते तथाकथित रूप से काफी उष्मापूर्ण बताए जाते हैं। इतनी गर्मजोशी है इस रिश्ते में कि पोल्ट्री विवाद में अमेरिका World Trade Organization (WTO) में भारत पर व्यापारिक प्रतिबंध लगाने की वकालत कर रहा है!
 
भारत और अमेरिका के बीच यह पोल्ट्री विवाद सन 2012 से चल रहा है। विश्व व्यापार संगठन में अमेरिका ने भारत के विरुद्ध मामला दर्ज करवा दिया। उस मामले में स्थितियाँ अमेरिका के ही अनुकूल बनती नजर आ रही हैं।
 
अमेरिका पोल्ट्री मीट का सबसे बड़ा विक्रेता है। भारत अमेरिका के लिए पोल्ट्री मीट का सबसे बड़ा बाज़ार है। दरअसल मसला यह था कि बर्ड फ्लू की आशंका के चलते भारत ने सन 2007 में अमेरिका से आने वाले पोल्ट्री मीट पर प्रतिबंध लगा दिया था। सन 2012 में अमेरिका ने विश्व व्यापार संगठन के सामने भारत के विरुद्ध मामला दर्ज करवा दिया। दरअसल, भारत के प्रतिबंध के चलते अमेरिका को सालाना 30 करोड़ डॉलर का धंधा गवाना पड़ रहा था। दूसरी तरफ़ भारत में हर साल पोल्ट्री मीट का इस्तेमाल बढ़ता जा रहा है। अमेरिका के लिए यह बहुत बड़ा बाज़ार है। इस बाज़ार में घुसने के लिए अमेरिका विश्व व्यापार संगठन के सामने चला गया। जून 2015 में इस विवाद का फ़ैसला अमेरिका के पक्ष में आया। संगठन ने अमेरिका के पोल्ट्री मीट, अंडे और जिंदा सुव्वर के ऊपर भारत द्वारा लगाए गए प्रतिबंध को गलत करार दिया। सीनाजोरी तो यह है कि अमेरिका भारत से मुआवजा भी मांग रहा है।
 
अब अमेरिका की कंपनियाँ पोल्ट्री मीट से लेकर जिंदा सुव्वर भारत में ठेल सकेगी। बर्ड फ्लू फैल जाए तो उसमें उनकी कोई जवाबदेही नहीं बनेगी। ज़रूरी है कि भारत सरकार भी सख़्त कदम उठाए और अपने ही देश में लगाए गए प्रतिबंध को सही ठहराए। गौरतलब है कि सौर ऊर्जा के मामले में भी अमेरिका भारत को विश्व व्यापार संगठन में खींच कर ले गया है। इस विवाद में भी भारत की ही हार हुई है। कहा जाता है कि भारत सरकार फिर से अपील करेगी।
 
भारत में पोल्ट्री का सालाना व्यापार 90,000 करोड़ का है। 38 लाख टन बॉयलर चिकन तथा 6,500 करोड़ अंडे का सालाना उत्पादन है। चिकन की 80 फ़ीसदी ज़रूरतें शहरी इलाकों में है। पोल्ट्री व्यापार के साथ मकई (भुट्टा) तथा सोयाबीन के उद्योग भी जुड़े हुए हैं। भारत में पोल्ट्री के व्यापार में मकई का सालाना इस्तेमाल 120 लाख टन है। जबकि सोयाबीन का इस्तेमाल 40 लाख टन तक पहुंचता है।
 
कइयों का मानना है कि पोल्ट्री मीट में अमेरिका अगर भारत के बाजारों में कुदेगा, तो इसके चलते पोल्ट्री के साथ जुड़े हुए भारत के किसानों और व्यापारियों को ही नुकसान होगा। भारत को डर यह भी है कि अमेरिका के पोल्ट्री मीट की वजह से बर्ड फ्लू फैलेगा, और इसके चलते भारत के पोल्ट्री उद्योग को ही नुकसान झेलना पड़ेगा।
 
सौर ऊर्जा को लेकर भी भारत से विश्व व्यापार संगठन में जाकर भिड़ गया अमेरिका, सितम्बर 2016 में सोलर पैनल को लेकर अमेरिका से केस हारा भारत
सबसे पहले फ़रवरी 2014 में अमेरिका ने इस विवाद को जन्म दिया। उसका कहना था कि इस कार्यक्रम में अमेरिकी विनिर्माताओं के साथ भेदभाव हो रहा है, क्योंकि इसमें भारत में ही बने उपकरणों का प्रयोग करने की अनिवार्यता है और इस पर परियोजना सब्सिडी का प्रावधान है।
 
अमेरिका ने इस प्रॉजेक्ट को लेकर इस बात की शिकायत की थी कि भारत इस प्रॉजेक्ट में घरेलू कॉन्टेंट का अधिक इस्तेमाल कर रहा है, जो वैश्विक व्यापार नियमों का उल्लंघन है। भारत का तर्क था कि आने वाले पाँच सालों में उसकी ऊर्जा की मांग आज से लगभग दोगुनी हो जाएगी। वर्तमान में यह मांग 1,40,000 मेगावॉट है। इस मांग को पूरा करने के लिए भारत 1 लाख मेगावॉट बिजली सोलर पैनल्स के जरिए पूरी करना चाहता है, जिसमें 8,000 मेगावॉट बिजली घरेलू सेल्स से ही तैयार होगी।
 
भारत सरकार की मेक इन इंडिया नीति के कई ऐसे नियम हैं, जिससे अमेरिका को आपत्ति है। दरअसल, सौर ऊर्जा तकनीक में अमेरिका को विशेषज्ञता हासिल है। अमेरिका इसके लिए सस्ते-सस्ते उत्पाद बनाता है। इधर भारत के निर्माता भी सौर ऊर्जा उपकरण को बनाने लगे हैं। लेकिन भारतीय कंपनी को इसे बनाने में ज़्यादा लागत आती है। इसलिए पहले अमेरिकी उत्पाद ही भारत में लोग ख़रीदते थे। पर भारत सरकार ने 2013 में घरेलू उत्पादों को प्रोत्साहन देने के लिए नया नियम बनाया। जिसके तहत सौर ऊर्जा के लिए स्वदेशी सोलर सेल और उसका मॉडय़ूल भारतीय होना अनिवार्य कर दिया। इसके साथ ही भारत ने सौर ऊर्जा उपकरण के लिए अमेरिकी उत्पादों पर भारी सीमा शुल्क लगा दिया।
 

अमेरिका ने फ़रवरी 2014 में World Trade Organization (WTO) में इसकी शिकायत की। संगठन ने किसी भी विदेशी आयतित वस्तुओं के साथ भेदभाव का भारत पर आरोप लगाया। अमेरिका चाहता है कि सौर ऊर्जा नीति में भारत बदलाव करे, लेकिन भारत अपने रुख पर कायम रहा।
 
एक समिति ने भारत के ख़िलाफ़ फ़ैसला देते हुए कहा कि सौर कंपनियों के साथ सरकार का बिजली ख़रीद समझौता अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप नहीं है। फ़रवरी 2016 में आए फ़ैसले में जजों ने कहा था कि भारत ना तो इस आधार पर छूट पाने का दावा कर सकता है कि उसके राष्ट्रीय सौर ऊर्जा क्षेत्र में सरकारी ख़रीद भी शामिल है, और ना ही इस आधार पर कि सौर ऊर्जा से जुड़े सामानों की आपूर्ति यहाँ कम है। साथ ही यह कहना भी उचित नहीं है कि भारत पारिस्थितिकी तंत्र के अनुरूप टिकाऊ विकास सुनिश्चित कर रहा है या जलवायु परिवर्तन से मुकाबला कर रहा है।
 
भारत ने डब्ल्यूटीओ की समिति के फ़ैसले को चुनौती देते हुए अप्रैल 2016 में डब्ल्यूटीओ की अपीलीय संस्था में मामला दायर किया था। अपीलीय संस्था ने सौर ऊर्जा मामले में अमेरिका के साथ विवाद में भारत के ख़िलाफ़ दिये गए समिति के फ़ैसले को सितम्बर 2016 में सही ठहराया। वैश्विक निकाय ने इस बार भारत के सौर ऊर्जा कार्यक्रम में घरेलू सामग्री के प्रयोग की शर्तों को अंतरराष्ट्रीय नियमों के ख़िलाफ़ पाया।
 
भारत के ख़िलाफ़ फ़ैसला देते हुए डब्ल्यूटीओ ने कहा कि सोलर फर्मों के साथ सरकार के बिजली ख़रीद समझौते अंतरराष्ट्रीय नियमों से असंगत रहे। भारत ने जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय सौर ऊर्जा मिशन 11 जनवरी 2010 को शुरू किया था। भारत ने 2022 तक सौर ऊर्जा उत्पादन का महत्वाकांक्षी लक्ष्य रखा है।
 
क्रायोजेनिक इंजिन का प्रचलित इतिहास, जब अमेरिका ने अड़ायी थी टांग
1980 और 90 का दशक कौन भूल सकता है। भारत क्रायोजेनिक इंजिन के लिए परेशान था। सोवियत संघ से हासिल करने की कोशिश कर रहा था। उसमें वह सफल भी रहा था। तय हो गया था कि क्रायोजेनिक इंजिन भारत को मिल जाएगा, लेकिन अमेरिका ने टांग अड़ा दी।
 
कैसे? यह जानने से पहले क्रायोजेनिक इंजिन को समझना ज़रूरी है। यह एक विशेष प्रकार का इंजिन होता है। इसमें बतौर ईंधन ऑक्सीजन या हाइड्रोजन का प्रयोग किया जाता है। इसके लिए उन्हें तरल अवस्था में लाना होता है। लिहाजा तापमान को कई डिग्री माइनस में ले जाना होता है। इस तरह की तकनीक के बिना सुरक्षा और संचार संबंधी उपग्रह को अंतरिक्ष में भेजना संभव नहीं होता। मिसाइल निर्माण में भी इस तकनीक की ज़रूरत होती है। इसलिए भारत को क्रायोजेनिक इंजिन की ज़रूरत थी। सोवियत संघ तैयार भी था।
 
किंतु 1990 के दशक में सोवियत संघ के विघटन से सब कुछ बदल गया। रूस की ख़राब आर्थिक स्थिति का फायदा उठाते हुए अमेरिका ने उस पर दबाव डाला। लिहाजा रूस से मदद नहीं मिल सकी। हालाँकि भारतीय वैज्ञानिकों ने हार नहीं मानी थी और इसरो ने क्रायोजेनिक इंजिन पर काम शुरू कर दिया था। लेकिन माना जाता है कि भारतीय वैज्ञानिकों के प्रयासों को बाधित करने के प्रयास भी अमेरिका ने किए थे।
 
इस पूरे प्रकरण पर इसरो के वैज्ञानिक जे. राजशेखरन नायर ने एक किताब लिखी, जो 1999 में आई। उसका नाम Spies From Space: The Isro Frame-Up है। उसमें उन्होंने दावा किया है कि क्रायोजेनिक कार्यक्रम को रोकने के लिए अमेरिका ने साज़िश की थी। नायर के दावे में कितनी सच्चाई है यह एक अलग विषय है। अमेरिका को लेकर दूसरा खुलासा मिसाइल मैन अब्दुल कलाम ने अपनी किताब में किया था। अपनी किताब में उन्होने लिखा था कि अग्नि मिसाइल के परीक्षण से कोई तीन घंटे पहले उनके पास एक फोन आया था। वह फोन कैबिनेट सचिव टीएन शेषन का था। वह मिसाइल के परीक्षण को आगे बढ़ाने की बात कह रहे थे। उनका कहना था कि अमेरिका काफी दबाव डाल रहा है।
 
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)