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Chilcot Report on Iraq War: चिलकॉट आयोग की रिपोर्ट, कहा - इराक युद्ध एक छलावा और गैरजरूरी कदम, देश-संसद और नागरिकों के साथ किया गया धोखा

 
यूँ तो चिलकॉट आयोग की यह रिपोर्ट तथा उससे संबंधित यह लेख इनसाइड इंडिया के मानदंड के भीतर नहीं आता। किंतु यह रिपोर्ट फिलहाल तो अनेक देशों तथा उन देशों के नागरिकों के लिए गौर करने लायक विषय बन चुका है। युद्ध, विदेश नीति, राष्ट्रनेताओं या सत्ताधारियों द्वारा की जा रही अक्षम्य और आपराधिक मनमानी, व्यक्तिगत इच्छा के मुताबिक पर पूरे देश को चलाना, नागरिकों को अंधेरे में रखना या गुमराह करना, वगैरह द्दष्टिकोण से यह रिपोर्ट तमाम देशों और उन देशों के तमाम नागरिकों के लिए चिंतन और चिंता, दोनों का जरिया बना हुआ है। इस रिपोर्ट ने साबित कर दिया है कि युद्ध एक व्यापार है।
 
वैसे हमें यक़ीन है कि चिलकॉट आयोग की इस रिपोर्ट ने दुनिया के देशों और उन देशों के नागरिकों के लिए जितने भी सबक सामने रखे हैं, ज़्यादातर तो यह बहुत जल्द भुला दिए जाएँगे। खास करके उन देशों में, जहाँ सत्ताधारी लोग भावनात्मक तौर तरीकों से सत्ता का लाभ उठाने में सफल होते रहेंगे।
 
चिलकॉट रिपोर्ट क्या है, इसे देखने से पहले जिस घटनाक्रम के चलते यह सारी माथापच्ची हुई, उस घटनाक्रम को बहुत संक्षेप में देख लेते हैं। 2003 के दौरान अमेरिका तथा ब्रिटेन की संयुक्त सेनाओं ने इराक पर सशस्त्र हमला किया था, जिसे Iraq War के नाम से जाना जाता है। इस युद्ध ने अरब दुनिया की तस्वीर ही बदल दी। तानाशाह सद्दाम हुसैन के शासन का अंत हुआ। लंबे, थका देने वाले और भयानक युद्ध के बाद उसे अमेरिकी सेना द्वारा गिरफ्तार किया गया और 30 दिसंबर 2006 के दिन फांसी पर लटका दिया गया।
 
Weapons of Mass Destruction, यानी कि सामूहिक विनाश के शस्त्रों के नाम पर ब्रिटेन तथा अमेरिका की संयुक्त सेनाओं ने 20 मार्च 2003 के दिन इराक पर धावा बोल दिया। जैविक तथा रासायनिक हथियारों के आरोप लगाकर इराक को दोनों सेनाओं ने तबाह कर दिया। इसे 'मानवता के लिए जंग' या 'नयी दुनिया के लिए जंग' जैसे भावनात्क नामकरण के साथ लड़ा गया। नारों और भावनात्मक तौर तरीकों से बहुत बड़े नागरिक समाज का साथ लिया गया।
 
उसी दौर में एक नागरिक समुदाय, जो काफी ज्यादा बड़ा भी था, और निष्पक्ष भी, वो इराक युद्ध को 'गैरजरूरी' तथा 'संदेहात्मक' मानता रहा। अमेरिका-ब्रिटेन द्वारा इराक के साथ खेले गए इस युद्ध को उसी दौर में 'तेल का खेल' कहा गया। दरअसल, उस समुदाय की जो मान्यता थी, वह मान्यता सख़्त और मजबूत तर्कों के आधार पर बनी थी। और इसके पीछे सालों पुराना घटनाक्रम जवाबदेह था। सद्दाम हुसेन, उसके द्वारा अमेरिका और ब्रिटेन का गाहेबगाहे विरोध, तेल का व्यापार, तेल के कुएँ वाले देशों को साथ मिलाकर सद्दाम हुसेन द्वारा अमेरिका और ब्रिटेन के आर्थिक साम्राज्य को टक्कर देना, डॉलर के सामने नयी करेंसी को लागू करना, 1991-92 का खाड़ी युद्ध। बहुत सारी चीजें मिलकर इस मान्यता को जन्म दे रही थीं।
फिर तो स्वयं इतिहास ही उस बात का गवाह बना कि सद्दाम हुसैन या इराक पर जो भी इल्जाम लगाए गए थे, जैविक या रासायनिक हथियार के उत्पादन के, उसके प्रचार-प्रसार के, सामूहिक विनाश के शस्त्र वगैरह के, उनमें से किसी भी एक आरोप को ब्रिटेन या अमेरिका सिद्ध नहीं कर पाया! अंत में तो सद्दाम को शिया मुस्लिमों की सामूहिक हत्या के आरोप में फांसी दी गई। दोनों देश ना इराक से कोई ऐसा हथियार ढूंढ पाए, और ना ही इराक या उसके शासक पर लगाए गए किसी आरोप को सिद्ध कर पाए! जैसे कि क़रीब 150 शिया मुस्लिमों की हत्या के आरोपी को पकड़ने के लिए दो जगत जमादारों ने एक पूरे देश को बर्बाद कर दिया!!! और इसके लिए इन जगत जमादारों ने अनेक दावे किए, अनेक आरोप लगाए, अनेक तर्क सामने रखे!
 
अब देखते हैं कि चिलकॉट रिपोर्ट क्या है। दरअसल, अमेरिका और ब्रिटेन द्वारा इराक के ख़िलाफ किए गए युद्ध को उन्हीं देशों के अनेक नागरिकों ने सवालों के घेरे में ले लिया था। अमेरिका और ब्रिटेन के अनेक नागरिक समुदायों, विचारकों तथा चिंतकों ने इस युद्ध पर सवाल उठाए। अमेरिका में तो आखिरकार कुछ नहीं हुआ, किंतु ब्रिटेन में जस्टिस चिलकॉट की अध्यक्षता में इस युद्ध के ऊपर उठ रहे सवालों के संबंध में एक कमिटी बनाई गई, जिसे संबंधित सवालों की जाँच करनी थी।
 
साल 2009 में इस आयोग का गठन ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री गॉर्डन ब्राउन ने किया था। आयोग की अध्यक्षता Sir John Anthony Chilcot कर रहे थे। पूरे 7 साल तक जाँच चली और इसी साल, 6 जुलाई 2016 के दिन समिति की अंतिम रिपोर्ट पेश हुई। यह 6000 पन्नों का एक विस्तृत जाँच अहवाल है, जो 12 खंडों में है, 2.6 मिलियन शब्दों के साथ!
 
जस्टिस चिलकॉट की रिपोर्ट ने तानाशाह सद्दाम हुसैन को मारने के पीछे गढ़ी गई फर्जी कहानी की धज्जियाँ उड़ा दी हैं! 2009 में बने सर जॉन चिलकॉट युद्ध जाँच समिति ने 150 से ज़्यादा गवाहों से बातचीत की और ये पता लगाया कि क्या वाक़ई ब्रिटिश सरकार और ख़ुफ़िया एजेंसियों के पास सद्दाम हुसैन के पास जनसंहार के हथियार होने की पुख्ता सूचना थी? इन गवाहों में राजनेता, आक्रमण के समय के कई कैबिनेट मंत्री, वकील, ख़ुफ़िया प्रमुख, ख़ुफ़िया और सुरक्षा अधिकारी, वरिष्ठ सिविल सेवक, राजदूत, उच्च पदस्थ सैन्य अधिकारी, रक्षा स्टाफ और प्रमुख, वरिष्ठ परिचालन कमांडर जैसे साक्ष्य सम्मिलित हैं।
 
सात साल की जाँच के बाद आई इस रिपोर्ट में कहा गया है कि, "इस हमले के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर के पास ऐसे पर्याप्त सबूत नहीं थे, जिससे यह बात सिद्ध हो कि ब्रिटेन को सद्दाम हुसैन से ख़तरा है।" रिपोर्ट के मुताबिक, "इस बात के भी कोई साक्ष्य नहीं थे कि सद्दाम हुसैन के पास परमाणु हथियार हैं।" जाँच रिपोर्ट ने बताया कि, "उस वक़्त इराक में विनाशकारी हथियारों की रिपोर्ट को बढ़ा चढ़ाकर पेश किया गया। टोनी ब्लेयर ने सिर्फ कुछ लोगों से सलाह लेकर इस हमले के लिए हामी भर दी थी, जो कि गैरकानूनी थी।"
चिलकॉट कमिटी ने साफ तौर पर इराक युद्ध को "गैरजरूरी" तथा "ब्रिटेन के लोगों से किया गया छल" बताया! चिलकॉट रिपोर्ट में जो बातें कही गई है, उसने दुनियाभर के नागरिकों को झकझोर के रख दिया है। कहा गया कि, "इराक पर जिन जिन वजहों के आधार पर हमला किया गया था, वो सारी वजहें निराधार थीं। ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर ने अपने देश से, अपनी संसद से, अपने अधिकारियों से सब कुछ छुपाते हुए, केवल अपने तरीके से अमेरिका को इराक हमले में साथ देने का फ़ैसला ले लिया था। ब्रिटेन की सेना को जिन जिन वजहों का हवाला दिया गया, वो सारी चीजें सेना के साथ एक छलावा थी।"
 
उस समय के ब्रिटिश विदेश मंत्री जैक स्ट्रॉ ने कमिटी के सामने गवाही के दौरान यह खुलासे किए। रिपोर्ट में बताया गया कि, "2003 में इराक युद्ध दोषपूर्ण ख़ुफ़िया जानकारी पर आधारित था।" इस रिपोर्ट में कहा गया कि, "युद्ध कोई आख़िरी विकल्प नहीं था।" इस रिपोर्ट में टोनी ब्लेयर के उस फ़ैसले को, जिसमें उन्होंने अमेरिका के साथ जाने का निर्णय किया था,  सबसे विवादित फ़ैसला बताया गया है।
 
बता दें कि ब्लेयर को दो बार जाँच के लिए चिलकॉट आयोग के सामने पेश होना पड़ा था। ब्लेयर से 29 जनवरी 2010 को और फिर 21 जनवरी 2011 को सार्वजनिक रूप से पूछताछ की गई थी। रिपोर्ट में युद्ध को लेकर बुश और ब्लेयर के बीच जो भी संवाद हुआ उसका ज़िक्र भी किया गया है। वर्ष 2001 से वर्ष 2007 के बीच बुश और ब्लेयर ने युद्ध को लेकर जो भी बातें कीं, उन्हें इस 6,000 पेज की रिपोर्ट का हिस्सा बनाया गया है।
 
बुश ने अमेरिका पर 11 सितंबर को हुए आतंकी हमले के ठीक एक माह बाद, यानी 11 अक्टूबर 2001 को ब्लेयर को चिट्ठी लिखी थी, जिसमें उन्होंने ब्लेयर से कहा था कि अमेरिका और ब्रिटेन को सद्दाम हुसैन से निपटना होगा। बुश ने लिखा था कि इराक पर हमला करने के बाद अरब के देशों के साथ ही साथ रूस और यूरोपियन यूनियन का एक बड़ा हिस्सा उनसे अलग हो जाएगा। लेकिन युद्ध की वजह से पाकिस्तान पर होने वाले असर से वह काफी परेशान थे।
 
जाँच के निष्कर्षों को सार्वजनिक करते हुए कमिटी के चेयरमैन जॉन चिलकॉट ने कहा कि, "सैन्य कार्रवाई कानूनी आधार पर की जाती है, न कि व्यक्तिगत इच्छा पर।" रिपोर्ट कहती है, "मार्च 2003 में सद्दाम से ऐसा कोई ख़तरा नहीं था, जिसके चलते उन्हें तत्काल सत्ता से हटाना ज़रूरी था।" रिपोर्ट में कहा गया है कि, "ब्रिटेन बिना शांति की कोशिश किए ही कार्रवाई में शामिल हो गया, जो नियमत: गलत था। कार्रवाई के पड़ने वाले असर का आकलन नहीं किया गया था। युद्ध और उसके बाद की स्थितियों के लिए कोई योजना तैयार नहीं की गई थी।" 
रिपोर्ट के अनुसार, "टोनी ब्लेयर ने देश को तथा संसद को अंधेरे में रखकर युद्ध में उतरने का फ़ैसला ले लिया था। एक ऐसा युद्ध, जो गैरजरूरी था।"
 
इस युद्ध के दौरान क़रीब ढाई लाख लोग मारे गए, जबकि युद्ध से पीड़ित और बाद में प्रभावित हुए लोगों की तादाद क़रीब दो करोड़ थी। विश्लेषकों की माने तो, इराक पर हमला तेल के पैसों के लिए किया गया था और इराक से सद्दाम हुसैन को हटाने के बाद इराक के भविष्य के लिए किसी देश ने कोई योजना तक नहीं बनाई थी! हमले से पहले टोनी ब्लेयर या जॉर्ज बुश जैसे बड़े बड़े राजनीतिज्ञों की योजना केवल और केवल इराक पर अधिकार करना था। उन्हें सद्दाम की सत्ता का अंत करके अपने अपने अर्थतंत्र को दुनिया में ज़्यादा शक्तिशाली बनाना था।
 
रिपोर्ट में लिखा गया है कि, "युद्ध के दौरान सीएनएन या बीबीसी जेसे बड़े बड़े मीडिया घराने तथा कई नामी अखबारों तक को प्रभावित किया गया, जिन्होंने युद्ध की ऐसी तस्वीरें पेश की, जिससे इस जंग को मानवता के लिए जंग का मोहरा पहनाया जा सकें। कई पत्रकारों को सुरक्षा के साथ युद्ध के मैदानों में लाया गया। उन्हें टैंकों और बुलेटप्रूफ जैकेट पहनाकर, उनकी जान को सुरक्षित करके, मैदानों में उतारा गया। उन्होंने युद्ध की तस्वीरें ली, वीडियो बनाए और रिपोर्टींग की। बाद में ये सारे फुटेज और जानकारियाँ वे अपने अन्य वैश्विक सहयोगी मीडिया सेंटरों को बाँटने लगे। दुनिया में युद्ध के दौरान ब्रिटेन-अमेरिका के शस्त्रों का प्रदर्शन हो उसका भी खयाल रखा गया था।"

 
कमिटी की रिपोर्ट के मुताबिक, "इराक में थल सेना की टुकड़ियों को तैनात करने से पहले तैयारी के लिए लिया गया समय काफी कम था। इस आक्रमण के जोखिमों का न तो ठीक से अंदाज़ा लगाया गया और न ही इनको लेकर पूरी तैयारी की सूचना मंत्रियों को दी गई, जिसके फलस्वरूप वहाँ हथियारों व उपकरणों की कमी हुई। कई चेतावनियों के बावजूद आक्रमण के परिणामों को नज़र अंदाज़ किया गया। जिन परिस्थितियों में इराक पर हमले का कानूनी आधार दिया गया था उसे भी सही नहीं ठहराया जा सकता।"
 
चिलकॉट कमिटी की रिपोर्ट प्रकाशित होने के बाद कुछ मीडिया हाउस ने थोड़ी बहुत हिम्मत दिखाई है और उनके पास जो जानकारी थी उसे पेश किया है। इन मीडिया रिपोर्टों की माने तो, ब्रिटेन के प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर ने जॉर्ज बुश से कहा था कि कुछ भी हो जाए, मैं आप के साथ हूँ। लेकिन उन्होंने अपने देश की संसद, अपना मंत्रीमंडल या अपने देश तक को भरोसे में नहीं लिया था!
 
ब्रिटेन में युद्ध कमीशन ने ये पर्दाफाश किया है कि इराक की सद्दाम हुसैन की सरकार को उखाड़़ फेंकने के लिए 2003 की सरकार ने देश की जनता से झूठ बोला, उसे अंधेरे में रखा और देशभक्ति की भावना का गलत इस्तेमाल किया! युद्ध से पहले ऐसा प्रचार-प्रसार किया गया कि सद्दाम हुसैन सिर्फ 45 मिनट में लंदन पर रासायनिक बमों से हमला कर देगा, जबकि सद्दाम के पास ऐसे हथियार थे ही नहीं! कहा गया कि इराक में एक ऐसी जंग छिड़ी गई, जिसकी बुनियाद ही झूठ, फरेब और नकली देशभक्ति पर गढ़ी गई थी!
गौरतलब है कि उस जंग के दौरान ही, कई सारी जगहों पर, दुनिया के सैकड़ों शहरों में हजारों की तादाद में लोग सड़क पर निकले थे और उन्होंने इराक आक्रमण का विरोध किया था। लेकिन इन सारे विरोध प्रदर्शनों को योजना के तहत मीडिया में जगह नहीं दी गई। उल्टा मीडिया में इराक के जंग की ऐसी ऐसी तस्वीरें पेश की जाती रही, जिसने आम लोगों को भरोसा दिला दिया कि ये आतंकवाद के विरुद्ध या जैविक हथियारों से मानवता को बचाने का ऐतिहासिक प्रयत्न है!
 
6000 पेज और लाखों शब्दों के इस रिपोर्ट के पेश होने के बाद पूरा ब्रिटेन सकते में है। ब्रिटेन के अनेक नागरिकों ने टोनी ब्लेयर को दुनिया का बड़ा आतंकवादी तक कह दिया है! ब्रिटेन की सेना ने टोनी ब्लेयर से माफी मांगने की मांग की है। उस युद्ध में मारे गए सैनिकों के परिवारों ने इसे त्रासदी बताया और कहा कि, "हमारे सैनिक एक ऐसी जंग में मारे गए, जो ज़रूरी ही नहीं थी।"
 
सेना को अंधेरे में रख कर सैनिकों को इराक ले जाने पर तथा एक तरीके से उनकी जान का व्यापार सरीखे इस कृत्य पर ब्रिटेन के नागरिक काफी ख़फ़ा दिख रहे हैं। ब्रिटेन में मांग उठाई जाने लगी है कि युद्ध के संदर्भ में कुछ ठोस मार्गदर्शिका बनाई जाए। गौरतलब है कि दूसरे विश्वयुद्ध के बाद ये पहला मौका था, जब ब्रिटेन ने किसी युद्ध में सीधी भूमिका निभाई हो।
 

United States Army Special Forces के पूर्व कमांडर माइकल फ्लिन ने कहा कि, "दुनिया के लिए चुनौती बन चुके आतंकी संगठन इस्लामिक स्टेट्स ऑफ इराक एंड सीरिया के गठन के लिए अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश जिम्मेदार हैं।"
 
नोबेल पुरस्कार विजेता आर्कबिशप डेसमंड टूटू ने कहा कि, "इराक में जनसंहार के हथियारों की मौजूदगी के बारे में झूठ बोलकर सद्दाम हुसैन शासन के ख़िलाफ हमला करने के मामले में पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश और पूर्व ब्रिटिश प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर को अंतरराष्ट्रीय अपराध न्यायालय (आईसीसी) का सामना करना चाहिए।"
 
अमेरिका की पूर्व विदेश मंत्री मेडेलीन अलब्राइट ने कहा है कि, "इराक युद्ध अमेरिका की सबसे बड़ी भूल थी।"
लेबर पार्टी के नेता जेरेमी कॉर्बिन ने वेस्टमिंस्टर में एक भाषण में कहा, "मैं अब विनाशकारी निर्णय के लिए अपनी पार्टी की ओर से ईमानदारी से माफी मांगता हूँ।"
 
अनेक चिंतकों ने रिपोर्ट प्रकाशित होने से बहुत पहले साफ लफ्जों में कहा था, "अगर वहाँ तेल नहीं होता, तो वहाँ न अमेरिका जाता, न ही ब्रिटेन।" इराक युद्ध पर किताब लिखने वाले ब्रिटिश अख़बार 'द इंडिपेंडेंट' के पूर्व पत्रकार जस्टिन हगलर कहते हैं, "इराक युद्ध हमेशा से तेल को लेकर जुड़ा हुआ है। साल 2003 में जब बगदाद में कोहराम मचा था, तभी अमेरिकियों ने तेल मंत्रालय को सबसे पहले महफूज़ किया था, क्योंकि तेल ही पावर है।"
 
ब्रिटेन तथा अमेरिका के अलावा दूसरे देशों को भी इस रिपोर्ट ने झकझोरा है। किसी एक नेता की मानसिकता को पूरा करने के लिए वो कैसे अपने पुरे तंत्र और देश से झूठ बोलते हुए आगे बढ़ सकता है ये खयाल संवेदनशील नागरिकों को झकझोर गया है। भावनात्मक तरीका, झूठी देशभक्ति, अपनी विचारधारा के लिए प्रोपेगेंडा करना, मीडिया को बलात अपने साथ जोड़ लेना, संसद-व्यवस्था-सेना और नागरिकों को अंधेरे में रखना, चिलकॉट कमिटी की रिपोर्ट ने सभी की मान्यताओं की नींव हिलाकर रख दी है।
 
दुनिया की महासत्ता माने जाने वाले देश अपने फायदे के लिए किसी भी देश को तबाह कर देते हैं, 21वीं शताब्दी में ही इतिहास का ये पुनरावर्तन, हजारों-लाखों नागरिकों को भीतर से हिला चुका है। दुनिया जिस पर भरोसा करती है उन मीडिया हाउस की कार्यशैली पर फिर से सवाल उठने लगे हैं। कहा जा रहा है कि, "आगे जब भी आप टेलीविजन पर किसी पत्रकार को माइक पकड़े हुए जंग के मैदान में देखें, तब ये मत समझना कि वो बहादुर है। मुमकीन है कि उसे योजनाबद्ध तरीके से वहाँ लाया गया हो, किसी योजना के मनचाहे प्रदर्शन के लिए।"
 
रिपोर्ट के आधार पर अब तो सीधा सीधा कहा जा रहा है कि, "इराक युद्ध ही वो कारण था, जिसने इस्लामिक स्टेट को खड़ा करने में भूमिका निभाई। एक ऐसा युद्ध, जो वाक़ई गैरजरूरी था, छलावा था।"
 
याद यह भी रखना चाहिए कि चिलकॉट आयोग की अंतिम रिपोर्ट पेश होने से पहले ही, अक्टूबर 2015 के महीने में ही, टोनी ब्लेयर ने मीडिया साक्षात्कार में इराक युद्ध और उन गलतियों को स्वीकार किया था और माफ़ी मांगी थी। हालाँकि ब्लेयर इस रिपोर्ट के तमाम दावों से सहमति नहीं जताते।
टोनी ब्लेयर ने अमेरिकी न्यूज़ चैनल सीएनएन से कहा था कि, "इराक युद्ध के चलते आईएस का उदय हुआ, इस बात में कुछ हद तक सच्चाई है।" आईएस, यानि इस्लामिक स्टेट, जो अब इराक और सीरिया के बड़े हिस्से को अपने नियंत्रण में ले चुका है।
 
ब्लेयर ने यह भी स्वीकार किया कि इराक युद्ध गलत ख़ुफ़िया जानकारी के चलते हुआ। उन्होंने 2015 में ही माना था कि, "ख़ुफ़िया एजेंसियों का यह दावा कि सद्दाम हुसैन के पास व्यापक जनसंहार के हथियार थे, गलत निकला।"
 
इराक युद्ध की क़ीमत ब्लेयर की लेबर पार्टी को 2010 के चुनावों में चुकानी पड़ी। ब्लेयर ने इराक युद्ध के लिए माफी मांगते हुए सीएनएस ने अक्टूबर 2015 में कहा था, "मैं इस तथ्य के लिए माफी मांगता हूँ कि हमें जो ख़ुफ़िया सूचना मिली, वह गलत थी। सत्ता को उखाड़ने के बाद क्या होगा, खास तौर पर इसकी योजना बनाने में हुई गलतियों के लिए मैं माफी मांगता हूँ।"
 
हालाँकि टोनी ब्लेयर ने यह भी कहा है कि, "उस समय हमें जो सही लगा, हमने वही किया। प्रधानमंत्री के नाते इराक युद्ध में जाने का फ़ैसला मेरे लिए एक बेहद कठिन फ़ैसला था।" ब्लेयर ने आगे कहा, "यह बात गलत है कि मैंने बुश से कोई गोपनीय वादा किया था।"
 
ब्लेयर ने कहा, "हमने इराक में सेना उतारी और दखल देने की कोशिश की। हमने लीबिया में बिना सेना के दखल देने की कोशिश की। हमने सीरिया में कोई दखल नहीं दिया, लेकिन सत्ता परिवर्तन की मांग की। मेरी नज़र में यह साफ नहीं है कि अगर हमारी (2003 की) नीति कारगर नहीं रही, तो क्या उसके बाद वाली नीतियां असरदार रहीं?"
2 जुलाई 2016 के दिन प्रसारित हुए इंटरव्यू में टोनी ब्लेयर ने इराक युद्ध से जुड़ी गलती स्वीकार करते हुए कहा, "आप यह नहीं कह सकते कि हममें से जो लोग 2003 में सद्दाम हुसैन को हटाने के लिए जिम्मेदार हैं, वे 2015 के हालात के लिए जिम्मेदार नहीं हैं।"
 
उधर अमेरिका में राष्ट्रपति पद के दावेदार डॉनल्ड ट्रंप लगे हाथ बहती गंगा में हाथ धोने लगे हैं! ट्रंप ने एबीसी से कहा, "इस देश ने (अमेरिका ने) कई गलतियाँ की हैं और इराक में युद्ध लड़ना उनमें से ही एक है।" उन्होंने कहा, "वहाँ जनसंहार का कोई हथियार नहीं था। वहाँ कुछ भी नहीं था।" ट्रंप ने कहा, "हमने लड़ाई की, हमने पूरे मध्य पूर्व (पश्चिम एशिया) को अस्थिर कर दिया।"
 
उधर ब्रिटेन में बड़ा नागरिक समुदाय अपने पूर्व प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर की सफाई से बहुत नाराज दिख रहे हैं। वे तो यहाँ तक कह रहे हैं कि, "ब्लेयर को इस तरह सफाई का मौका नहीं देना चाहिए। वो सिर्फ तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश के समर्थन के चक्कर में इराक में घुसे। उन्होंने इराक युद्ध के लिए ब्रिटिश जनता, संसद और कानूनी विशेषज्ञों से मशविरा लेने में कोई दिलचस्पी नहीं ली।"
 
चिलकॉट कमिटी के रिपोर्ट के खुलासों के बाद कुछ प्रमुख हस्तियों ने ब्लेयर को द हेग की अंतरराष्ट्रीय युद्ध अपराध अदालत में पेश करने की मांग कर दी हैं।
 
चिलकॉट कमिटी की रिपोर्ट ने बहुत सारे तथ्यों को उजागर कर दिया है। किंतु जैसे सबसे ऊपर लिखा वैसे यक़ीन भी है कि यह सब बहुत जल्द भुला दिया जाएगा। खास करके उन देशों में, जहाँ सत्ताधारी लोग भावनात्मक तौर तरीकों से निरंतरता के साथ काम करेंगे।
(इंडिया इनसाइड, एम वाला)