आयोजित
बहिष्कार, व्यक्तिगत बहिष्कार और सरकारी नीतियाँ... हम नागरिक बहिष्कार करते हैं और
सरकार करार करती है। गलत तो कोई नहीं है। लेकिन सवाल यह है कि ज्यादा सही कौन है?
अब तो दीवाली आती है तब लगता है
कि चीन की चीजों के बहिष्कार का मौसम आ गया। कभी कभार तो बहिष्कार से याद आ जाता है
कि दीवाली आ गई। इस बहिष्कार की प्रक्रिया के अंदर मैं भी शामिल हूँ, आप भी शामिल
हैं तथा सैकड़ों अन्य लोग भी शामिल होंगे। कई और लोग शामिल नहीं भी होंगे। लेकिन एक
बात साफ कर दूँ कि जो शामिल नहीं हैं, उन्हें मैं देशद्रोही बिलकुल नहीं मानता। ऐसा मानना
या उन्हें सुने बिना या समझे बिना ऐसा मानना बेवकूफी के अलावा और कुछ नहीं होगा। मैं
बहिष्कार की प्रक्रिया में इसलिए शामिल हूँ, क्योंकि व्यक्तिगत तौर पर ज़रूरी लगता
है। हमारे बाज़ार चीनी चीजों से बुरी तरह से प्रभावित होते हैं। हमारी निर्मित चीजें
उसके सामने टक्कर ले रही हैं। हमारी योग्यता और हमारी मेहनत उन चीनी चीजों के ढेर
सारे माल के नीचे दब जाते हैं। मानता हूँ कि व्यक्तिगत रूप से मैं ये चीजें न ख़रीदकर
अपने तौर पर कुछ अच्छा कर रहा हूँ।
लेकिन एक चीज़ ज़ेहन में हमेशा से
साफ रही है। और वो यह कि जो हम सोचते हैं, ज़रूरी नहीं कि वो ही देश सोचता हो। और
साथ में यह भी कि अगर दूसरे लोग अलग सोचते हैं तब यह ज़रूरी नहीं कि मैं सही हूँ और वे गलत हैं। उन्हें देशद्रोही नहीं मानता, क्योंकि हर साल मैं इस बहिष्कार को देखता हूँ।
सोचता हूँ कि हर साल क्यों करना पड़ता है? इसलिए नहीं कि दूसरे लोग विरोध नहीं करते। बल्कि इसलिए कि वो चीजें धड़ल्ले से हमारे बाजारों में लाई जाती हैं। दूसरे देश जबरन तो भेजते नहीं होंगे। हम लाते हैं, हमारी सरकारें लाती
हैं, हमारे उद्योगपति लाते हैं। मैं तो उन्हें भी अपराधी नहीं मानता। क्योंकि दूसरी तरफ अंतरराष्ट्रीय व्यापार है। पता है कि आज का युग पूर्व काल जैसा नहीं है। आज हमें
किसी दूसरे देश के बिना नहीं चल सकता। हम ज़िद पर आकर या कुछेक पहलुओं को सोचकर सब
कुछ रोक नहीं सकते। हमारी चीजें दूसरे देशों में जाती हैं। दूसरों की हमारे यहाँ आती हैं।
हम तो पाकिस्तान के साथ भी व्यापार करते हैं।
हम नागरिक बहिष्कार करते हैं और
सरकार करार करती है। गलत तो दोनों नहीं हैं। लेकिन सवाल यह है कि ज्यादा सही कौन है? और
मुझे तो ये क्वेश्चन पेपर बड़ा हार्ड लगता है। 'आयोजित
बहिष्कार' की बात हो तब सरकार ज्यादा सही है। क्योंकि आयोजित
बहिष्कार में ये सत प्रतिशत मुमकिन है कि लोग अपने दिमाग से नहीं, बल्कि औरों के
दिमाग से सोचते हैं। लेकिन हम बात 'व्यक्तिगत
बहिष्कार' की कर रहे हैं, जहाँ लोग अपने अपने तौर पर बहिष्कार
को ज़रूरी मानते हैं। वे लोग जो किसी पार्टी विशेष, किसी व्यक्ति विशेष या संगठन
विशेष के बहकावे में आए बगैर सोचते हैं, उनकी बात कर रहे हैं हम। इस लिहाज से मुझे तो ये क्वेश्चन पेपर हार्ड ही लगता है कि ज्यादा सही कौन है?
लगता है कि देशभक्ति और व्यापार
अलग चीज़ है। वैसे इस चीज़ को अलग तब ही माना जा सकता है जब बात वैश्विक तौर पर
वैश्विक सत्यता की हो। कभी कभी लोग कन्फ्यूज भी हुए जा रहे हैं कि हर साल उनके
द्वारा की जा रही इस प्रक्रिया का अर्थ क्या है? पाकिस्तान के
साथ व्यापार के संबंध में हम पाकिस्तान को प्रभावित कर सकते हैं, लेकिन क्या चीन के
मामले में यह मुमकिन है? मुमकिन से ज्यादा महत्वपूर्ण सवाल यह
है कि क्या ये ज़रूरी है? देखिए न, अपने दुश्मन जापान के साथ
चीन ने 70 या 80 के दशक से व्यापार संबंध शुरू किए। ये वो दौर था जब चीन अपने दम
पर उतना मजबूत राष्ट्र नहीं था, जितना आज है। उसने अपनी चीजें वहाँ भेजी और ऊनकी चीजें
व सेवा अपने देश में लाए। धीरे धीरे तकनीक, मूलभूत ढाँचा और उत्पादन या अन्य ऐसी
महत्वपूर्ण चीजों पर चीन मजबूत होने लगा। उसने समय की मांग को समझा और अपने दुश्मन
माने जाने वाले राष्ट्र के साथ आर्थिक और व्यापारिक संबंधों को अहमियत दी। उसने
समझा था कि अगर उसे जापान के साथ उसके स्तर पर आना है तो पहले अपने ढाँचे को
दुरुस्त करना होगा, और उसने यही किया।
एक सर्वसामान्य सत्य हम सभी
समझते भी हैं, लेकिन सार्वजनिक रूप से स्वीकार नहीं करते। हमें यह स्वीकार करना होगा
कि हम चीन के साथ उस स्तर पर आज नहीं है। अगर आप यह किसके कारण हुआ था उसकी चर्चा
पर जाएंगे, तब तो बात आगे नहीं बढ़ेगी। हमें समझना होगा कि हमें खुद के ढाँचे को
मजबूत करना है। हमें उन कमियों पर काम करना है जो आज बाधित कर रही हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार संबंधित विषयों पर हमें खुद को आगे ले जाना होगा। और आज
के युग में यह चीजें ज़िद पर अड़ जाने से या अकेले दम पर संभव ही नहीं है। इसके लिए दूसरे राष्ट्रों की ओर देखना ही पड़ता है। दूसरे राष्ट्र भी हमारे तरफ भी देखते तो
हैं ही। भारत आज कई देशों के उपग्रह लांच करता है। हम पाकिस्तान के साथ भी व्यापार
करते हैं, जबकि उसके और हमारे रिश्ते जनजन को पता है। इसीलिए लगता है कि वैश्विक
परिप्रेक्ष्य में देशभक्ति का रूप अलग सा है।
दूसरे देश पर भरोसा कर लेना और
दूसरे देश के साथ आर्थिक संबंध रखना, दोनों में अंतर रहे तब नुकसान होने की संभावना कम ही होती है। जैसे आगे कहा वैसे, हम बहिष्कार करते हैं और सरकार करार करती है।
गुजरात की ही बात करे तो (क्योंकि घर से ही शुरुआत की जाती है), गुजरात सरकार का
चीन के साथ व्यापार का प्रयास पिछले कुछ सालों से बढ़ा है। यहाँ चाइना एसोसिएशन फोर
स्मॉल एंड मीडियम एंटरप्राइज़ (सीएएसएमई) ने साणंद में सचाना के नजदीक 988 एकड़
जमीन ख़रीदने की प्रक्रिया शुरू की है। अप्रैल 2019 तक यहाँ चाइना टाउन खड़ा करने का
लक्ष्य है। चीनी चीजों के नागरिकी बहिष्कार के बीच अक्टूबर 2016 में ही गुजरात सरकार
का प्रतिनिधिमंडल चीन जाकर वापिस आ गया। सीएएसएमई ने 2015 के समिट में गुजरात में 500 करोड़ का इंडस्ट्रियल पार्क बनाकर चाइनीज़ मैन्युफैक्चरिंग यूनिट शुरू करने के
लिए एमओयू साइन किए थे। अगस्त 2016 में उसने साणंद के पास जमीन ख़रीदने की
प्रक्रिया शुरू कर दी। माना जा रहा है कि मार्च 2017 तक इस प्रक्रिया को पूरा किया
जाएगा।
पहले दौर में सीएएसएमई ने 496.23
एकड़ जमीन ख़रीदने के लिए प्रक्रिया शुरू की है। इसे 988 एकड़ तक पहुंचाया जाएगा।
एपरल, टैक्स्टाइल्स, रिफाइंड पेट्रोलियम प्रोडक्ट, केमिकल्स, फार्मा रिलेटेड
केमिकल्स, बेसिक मटेरियल्स, वुडन प्रोडक्ट, फर्निचर, नोन मेटालिक मटेरियल प्रोडक्ट,
मास कम्युनिकेशन, इलेक्ट्रॉनिक्स, इलेक्ट्रीक्ल इक्विपमेंट्स, मोबाइल, टीवी,
कंप्यूटर, रबड़, प्लास्टिक, फ्रूट, मशीनरी इक्विपमेंट, प्रिंटींग, रिप्रोड्क्शन ऑफ रेकोर्डेड मीडिया, लेधर प्रोडक्टस, फेब्रिकेटेड मेटल प्रोडक्ट, टोबेको प्रोड्कट
इत्यादि सेक्टर में चीन के निवेशकर्ताओं ने अपनी दिलचस्पी दिखाई है। प्रयोजित चाइना
टाउन में चाइना का स्कूल भी बनेगा, जिसमें चाइनीज़ भाषा के विषय होंगे। मातृभाषा या
राष्ट्रभाषा की दोड़ में यह भी एक ऐसा पहलू है जो हम नागरिकों को सोचने पर मजबूर कर
सकता है।
ऐसा नहीं है कि सिर्फ साणंद में ही
चीन की कंपनियाँ उत्पादन या सेवा संबंधित उद्योग शुरू करेगी। साणंद के अलावा
गुजरात के दहेज तथा अलंग में भी चाइना टाउन के लिए जगह देखी जा रही है। सितम्बर व
अक्टूबर 2016 के दौरान ही गुजरात चेम्बर ऑफ कॉमर्स इंडस्ट्रीज ने केमिकल और फार्मा
कंपनियों के लिए माल चाइना से ही ख़रीदा। गुजरात में सालाना 12,000 करोड़ का रो
मटेरियल चीन से आता है। देश में जितना रो मटेरियल चीन से आता है, गुजरात अकेले ही
उसका 25 फ़ीसदी आयात करता है। गुजरात का सिरामिक एसोसिएशन चाइना के माल
पर स्थायी एंटी डंपिंग ड्यूटी लगाने की मांग कर चुका है। विरोध बढ़ता देख गुजरात
सरकार ने 6 महीने के लिए लागू किया, और फिर अक्टूबर 2016 के दौरान हटा दिया।
सिरामिक उद्योग का कहना है कि उसे चीन के सामने नुकसान झेलना पड़ रहा है।
नागुपर मेट्रो का ठेका चीन की
कंपनी को दिया गया। चीन की कंपनी चाइना रेलवे रोलिंग स्टॉक कॉर्पोरेशन (सीआरआरसी)
को अक्टूबर 2016 में नागपुर मेट्रो रेल कोच बनाने का ठेका दे दिया गया। नागपुर मेट्रो रेल कॉर्पोरेशन लिमिटेड तथा चीन की कंपनी चीन रेलवे
स्टॉक कॉर्पोरेशन के बीच 16 अक्टूबर को 1,500 करोड़ रुपयों के समझौते पर हस्ताक्षर
हुए। जिसके तहत चाइना रेलवे स्टॉक कॉर्पोरेशन नागपुर में भारत की पहली मेट्रो रोलिंग
स्टॉक मैन्युफैक्चरिंग यूनिट लगाएगी। गुजरात में बन रही सरदार पटेल की मूर्ति में
भी संभवत: चीन की मदद ली जा रही है। कहा जा रहा है कि
रिलायंस जियो के कार्ड चीन से ही ख़रीदे गए थे। कहा गया कि 4 लाख से ज्यादा 4जी
जियो सीम कार्ड चीन से मंगाए गए थे। इस बात का खुलासा टेलीकॉम टॉक ने किया था।
एक इम्पोर्ट ट्रेकिंग वेबसाइट Zauba. com पर प्रकाशित आंकड़ों के मुताबिक टेल्को ने ये सिम कार्ड्स
22 रुपये प्रति के हिसाब से ख़रीदे थे। हालाकि इस पर रिलायंस की तरफ से कोई
स्पष्टीकरण नहीं आया। कुछेक प्रयोजित स्मार्ट सिटी भी ऐसे हैं जिसके लिए चीन की
कंपनियों से मदद ली जा रही है।
इससे पहले मई 2015 में भी भारत ने
चीन के साथ 63,000 करोड़ रुपये के 24 समझौतों पर दस्तखत किए थे। इनमें रेलवे, माइनिंग, पर्यटन, अंतरिक्ष
अनुसंधान तथा वोकेशनल एजुकेशन से जुड़े समझौतें भी शामिल थे। इस समझौते में चीन भारत
में चेन्नई शहर के अंदर तथा भारत चीन के शहर शेंग्दू में वाणिज्य दूतावास खोलने पर
संमत हुए थे। इसी दौरान दूरदर्शन और सीसीटीवी के बीच प्रसारण को लेकर समझौता हुआ
था।
वहीं, अक्टूबर 2016 के महीने में
चाइना के मोबाइल हैंडसेट की बिक्री में इज़ाफ़ा होने की बातें सामने आई। बहिष्कार के
बीच लोगों ने दिल खोलकर चाइना के मोबाइल हैंडसेट ख़रीदे। मोबाइल एक्सेसरीज़, जो चाइना
से आती हैं, उसकी बिक्री भी जमकर हुई। फ्लिपकार्ट, अमेज़न इंडिया, स्नैपडील तथा
टाटा प्लेटफॉर्म से चाइना के इलेक्ट्रॉनिक आइटम्स की ख़रीदी में इज़ाफ़ा देखा
गया।
विश्व बैंक के ताज़ा रिपोर्ट के
अनुसार, भारत में चीन से आयात होने वाली चीजों में एक साल में 10 अरब अमेरिकी डॉलर का
इज़ाफ़ा हुआ है। 2013-14 में चीन से आने वाली चीजों का वॉल्यूम 51 अरब अमेरिकी डॉलर था,
जो 2015-16 में 61.7 अरब डॉलर जा पहुंचा। वहीं, चीन जाने वाली चीजों का वॉल्यूम, यानी
कि निकास में हम पिछड़ते नजर आए। 2013-14 में भारत से चीन जाने वाली चीजों का वॉल्यूम
14.9 अरब अमेरिकी डॉलर था, जो 2015-16 में 9 अरब डॉलर रह गया।
भारत सरकार के मिनिस्ट्री ऑफ कॉमर्स के आंकड़ों के मुताबिक, चीन से भारत आने वाली चीजों में आईटी-टेक्निकल,
केमिकल्स, मशीनरी, बेसिक मेटल्स, एपरेल-टेक्स्टाइल्स, मोटर व्हीकल, रबड़ और नोन
मेटालिक चीजें अग्रीम हैं।
पाकिस्तान का ही देख लीजिए।
सितम्बर 2016 में ही भारत ने 400 करोड़ से अधिक की दाल पाकिस्तान से आयात की। इसी महीने ही सीमेंट का आयात पाकिस्तान से दोगुना हुआ था।
कपास के 20,000 बेलन अक्टूबर 2016 में पाकिस्तान से आयात किए गए। नमक भी
पाकिस्तान से ही लाया जाता है, साथ ही भेजा भी जाता है। भारत और चीन के बीच आर्थिक
व व्यापारिक समझौते, चीन की कंपनियों के भारत में निवेश, कई राज्यों में चीन की
कंपनियों की मौजूदगी, भारत व चीनी कंपनियों के साहस जैसे तथ्यों को देखे तब आसानी
से समझ आता है कि उस नीतियों में मामला क्या है।
वैसे एक बात सन 2016 की दीवाली
के दौरान देखी गई कि इस साल चाइना आइटम्स के बहिष्कार को ज्यादा लोगों ने सपोर्ट
किया। इसके पीछे तत्काल वजहें ज्यादा जवाबदेह रही थीं। चाइना का एनएसजी की सदस्यता
पर भारत के विरुद्ध जाना, मसूद अजहर जैसों को आतंकी घोषित होने से बचाना, भारत के
विरुद्ध चाइना अखबारों के रिपोर्टस, उरी हमला, सर्जिकल स्ट्राइक, चीन का पाकिस्तान
का खुलकर पक्ष लेना तथा कुछ राजनीतिक व सामाजिक संगठनों के प्रयत्न जैसी कई तत्काल चीजें इस साल अभियान
को प्रेरित करते हुए नजर आई। लेकिन हर साल या हर दफा तो इस प्रकार के माहौल की
उम्मीद नहीं की जा सकती।
वैसे भी इस साल अन्य उत्पादों में
चीन को उतना नुकसान नहीं हुआ था। ज्यादातर तो बात दिया-बाती, झालर और पटाखे तक
सीमित रही। चीन का अर्थतंत्र या चीन का व्यापार उन चीजों से प्रभावित हुआ हो ऐसी
उम्मीद कम ही की जानी चाहिए। कुछ दावे यह कहते थे कि 60 से 70 प्रतिशत चाइना
आइटम्स कम बिके हैं। कुछ जगहों पर ये दावा 30 से 40 प्रतिशत का था। कई रिपोर्टस में
कहा गया कि चाइना आइटम्स की बिक्री में कमी आई थी। चाइना आइटम्स का बड़ा बाज़ार माने
जाने वाले हिमाचल प्रदेश से मिट्टी के दिये और अन्य भारतीय वस्तुओं का व्यापार बढ़ने
की बातें सामने आई। कई जगहों पर चीन के पटाखे से लोगों ने दूरी रखी, जबकि कई जगहें ऐसी भी पायी गई जहाँ प्रतिबंध होने के बावजूद व्यापारियों ने चीनी पटाखें बेचे। वहीं लोगों ने भी इसे ख़रीदा।
कई जगहों पर यह दावा कुछ और कहानी
बयां करता था। दावे भी बंटे हुए थे। लेकिन तमाम दावों में चाइना आइटम्स का ज़िक्र
होता था, जबकि ये आइटम्स दिया-बाती, लाइटिंग और पटाखें ही थे। याद यह भी रखना होगा
कि दीपावली के दौरान कम बिकी ये चीजें साल भर में बिक ही जाएगी!!!
शादियाँ, फंक्शन और अन्य उत्सव के दौरान यही चीजें इस्तेमाल होती हैं। ये भी एक कटु
सत्य ही है। जैसे कि इस दीपावली के दौरान कई राजनीतिक पार्टियों की ऑफिसों की सजावट
इसी चाइना लाइटिंग्स से हुई थी!!!
हालांकि, चाइना के अखबारों की
बेचैनी तथा चीन के बयान उस बात की ओर इशारा कर रहे थे कि 2016 की दीवाली चीन के
लिए उतनी अच्छी नहीं रही होगी। भारत में चीन निर्मित सामान के बहिष्कार को लेकर चीन
ने कहा कि इस तरह के कदमों से दोनों देश के रिश्ते तो बिगड़ेंगे ही, साथ ही चीन की
कंपनियों द्वारा भारत में किए गए निवेश को भी भारी नुकसान होगा। नई दिल्ली स्थित
चीनी दूतावास की ओर से बाकायदा बयान जारी किया गया था। चीन का ये बयान इशारा करने
के लिए काफी है कि दीवाली संबंधित चीजों की बिक्री में कमी हुई होगी।
जो लोग सीधा सवाल दागते हैं कि
सरकार को तय करने दीजिए, जब सरकार ही नहीं कह रही कि चीन से माल नहीं आएगा, तो फिर
एफबी या व्हाट्सएप गिरोह का फ़ैसला माने या सरकार का? ऐसे
सवालों को देशद्रोह या मिर्ची लगी या चीनी लगी से उत्तर दिया जाता है। ज्यादातर
उत्तर तो ऐसे ही होते हैं। इन उत्तरों से सार्वजनिक रूप से साबित हो जाता है कि
विरोध करने वालों के पास अपना कोई ठोस आधार नहीं है या फिर अपने दिमाग से विरोध नहीं करते, क्योंकि वो गिरोहों का आयोजित विरोध है। जो व्यक्तिगत विरोध करते हैं, उन्हें तो दोनों तरफ से झेलना पड़ता है। सवाल भी आहत करते हैं और गिरोहों के जवाबों का स्तर
भी।
सवाल भी वाजिब से लगते हैं।
उद्योगपतियों का या अरबों की आयात करने वालों का विरोध नहीं होता, बल्कि पटाखों और
झालरों का होता है!!! जो व्यक्तिगत रूप से अभियान छेड़े हुए हैं वे तो दिल से छेड़ते हैं।
लेकिन आखिरकार उनके प्रयासों से सार्वजनिक फायदा कितना मिला वो भी सवाल ही है।
व्यक्तिगत रूप से तो मुझे फायदा मिलता है, आत्मसंतोष रहता है, लेकिन मेरे इस
प्रयास से संतोष के अलावा और क्या मिला ये सोच भी ज़ेहन में आती है। क्योंकि चौराहों
पर छिटपुटियें चीनी सामान जलाए जाते हैं, लेकिन स्मार्ट फोन की होली होती हुई नहीं देखी। हां, उसकी बिक्री होती हुई ज़रूर देखी है!
हमारे पास देशप्रेम दिखाने के
लिए अन्य तौरतरीके भी हैं, हमारे पास अपनी व्यवस्थाओं को दुरुस्त करने के मौके भी
हैं, हम वहाँ उतने प्रयास नहीं करते!!! कहा जाता है कि चीन से प्रतिस्पर्धा करनी है तो
इन विरोधों से नहीं होगी। बल्कि इसके लिए हमें अपने बेसिक्स पर काम करना होगा। विशेषज्ञों के मुताबिक हमें बहिष्कार से ज्यादा ज़रूरत तो हमारी कमियां दूर करने की है।
हमारा एजुकेशन सिस्टम, हमारी यूनिवर्सिटी का स्तर से लेकर हर उस मामले को देखने की
ज़रूरत है जो हमें विश्व में आगे ले जाएगी। कुपोषण, गरीबी, रोजगारी, कौशल, प्लेसमेंट
से लेकर हर उस मामले पर इतना मुखर होने की ज़रूरत है जो ज्यादा फायदेमंद है। आज की
दुनिया में और आज के अर्थतंत्र में हमें दायरा बढ़ाने के लिए बेसिक्स पर सोचने की
ज़रूरत ज्यादा है। अब इस दलील में भी वजन तो दिखता है। जिन्हें नहीं दिखता उन्हें विरोध
प्रदर्शनों को जारी रखना चाहिए। छोटा मोटा फायदा तो होता ही होगा। बेफिजूल की चीज़ तो
नहीं है वो।
ज्यादा ताज्जुब तो तब होता है जब
हम लोग बहिष्कार तभी करते हैं जब कोई त्यौहार आते हैं और बाज़ार पूरी तरह से सजे हुए
होते हैं। पटाखों या झालरों का विदेशी व्यापार अन्य चीजों के सामने कितना है ये तो हमें
नहीं पता। इतना ज़रूर पता है कि मिनिस्ट्री ऑफ कॉमर्स के आंकड़ों के मुताबिक पहले 10
स्थानों में यह कहीं पर नहीं है। जो पहले 10 स्थानों पर हैं उसका समावेश इन बहिष्कार
अभियानों में नहीं होता!!! देखिए न, इसी साल विदेशी चीजों के विरुद्ध अभियान के बीच
मोबाइल फोन की ब्रिक्री कितनी बढ़ी थी।
लोग दलील देते हैं कि अगर हमें
चीनी सामान नहीं ख़रीदना है तो हम व्यापारियों के माल का विरोध क्यों करते हैं? आयात
नीति का ही विरोध क्यों नहीं कर लेते? अफसोस कि
व्यक्तिगत बहिष्कार करने वाले अपने तौर पर विरोध करते हैं और उनका मकसद कुछ अलग और
सरल सा है। इसलिए वे इस तर्क से दूर रहते हैं। जो आयोजित विरोध में झुटे हैं, उनके
पास तो अपना खुद का तर्क है नहीं। इसलिए वे सरकारी कमिटमेंट का तर्क देकर मामले
को ज्यादा हास्यास्पद बना देते हैं। जैसे कि सरकारों को ख़रीदना ज़रूरी है और हमें
विरोध करना ज़रूरी है!!!
हम चीन से जो चीजें आयात करते हैं,
उसमें अग्रीम 10 आयातों को हमने देखा। उसके सामने बहिष्कार करने का जो नियमित मौसम
है उसको देखे तो बहिष्कार में शामिल चीजों का अंदाजा लगाया जा सकता है। तब तो सीधा
बोलकर ही विरोध करना चाहिए कि विरोध की शर्तों के अनुसार हम पटाखों और झालर का ही
बहिष्कार करते हैं तथा इसमें अन्य चीजों का स्थान उतना महत्वपूर्ण नहीं है! सारी
चीजें, आंकड़े और परिस्थितियां देखकर लगता है कि बहिष्कार या विरोध के वक्त लिख देना
चाहिए कि चाइना या विदेशी चीजों का विरोध... terms & conditions
apply!!!
दिया-बाती, पटाखें और लाइट्स का विरोध किया जाएगा, मोबाइल
या अन्य तमाम लंबी लंबी सूची वाली चीजों का नहीं। ऐसी स्पष्टता हो तब हमारे प्रयत्न
कितने सफल हुए हैं उसका सही आकलन हो पाए। ऐसा इसलिए, ताकि जो लोग दिल से और
सच्चे मन से दिया-बाती, लाइटींग्स और पटाखों को लेकर विरोध करते हैं, उन्हें बाकी
आंकड़े देखकर शर्मिंदा न होना पड़े। या फिर चीनी सामान तथा चीनी माल के बीच की
व्याख्या करके बचाव करने की नौबत न आए।
आखिर में वहीं पर फिर से समापन
कि... हम नागरिक बहिष्कार करते हैं और सरकार करार करती है। गलत तो दोनों नहीं है।
लेकिन सवाल यह है कि ज्यादा सही कौन है? और मुझे तो ये
क्वेश्चन पेपर बड़ा हार्ड लगता है। 'आयोजित
बहिष्कार' की बात हो तब सरकार ज्यादा सही है। क्योंकि आयोजित
बहिष्कार में यह सत प्रतिशत मुमकिन है कि लोग अपने दिमाग से नहीं, बल्कि औरों के
दिमाग से सोचते हैं। लेकिन हम बात 'व्यक्तिगत
बहिष्कार' की कर रहे हैं, जहाँ लोग अपने अपने तौर पर बहिष्कार
को ज़रूरी मानते हैं। वे लोग जो किसी पार्टी विशेष, किसी व्यक्ति विशेष या संगठन
विशेष के बहकावे में आए बगैर सोचते हैं, उनकी बात कर रहे हैं हम। इस लिहाज से मुझे तो ये क्वेश्चन पेपर हार्ड ही लगता है कि ज्यादा सही कौन है?
जब सारे तर्क खत्म हो जाते हैं तब
एक ही तर्क बचता है कि ऐसे सवाल की ज़रूरत ही नहीं थी। ये बेफिजूल का सवाल है। यह
व्यर्थ चर्चा है वगैरह वगैरह। फिर तो एक नया सवाल उठ जाता है कि क्या यह
प्रक्रिया जारी रहनी चाहिए? ताकि विदेश पर मानसिक दबाव बना रहे? लेकिन
सवाल है कि विरोध के लिए जिन चीजों को चुना जा रहा है वो मानसिक दबाव बनाने के
लिए कारगर है? क्या सही में उन इक्का-दुक्का चीजों की बिक्री कम
होती है? मान भी ले कि एकाध साल कम होती होगी, लेकिन क्या
निरंतर होती है?
यह भी कहा जा सकता है कि जो लोग विरोध में नहीं जुटते, वो तो सरकार के साथ ही हुए न। क्योंकि सरकार तो अपनी प्रस्थापित नीतियों पर ही चलती है। और वो लोग उसी नीति को सपोर्ट भी कर रहे हैं। कुल मिलाकर, यह एक ऐसा
चक्र है, जिसमें फँसने से कई सारे तर्क, कुतर्क, आरोप, प्रत्यारोप निकलते हैं और
शायद क्वेश्चन पेपर हार्ड न हो, तब भी हार्ड बना ही दिया जाता है। हां, सवाल उठाने
भर से या कुछ तर्क देने भर से जो लोग देशद्रोही, चीनी लगी या मिर्ची लगी जैसे महान
तर्कों तक पहुंच जाते हैं, उनके लिए यही दुआ कि आने वाले उत्सवों में ऐसी चक्रिय
कोशिशों में फिर से झुटने के लिए उन्हें शक्ति मिलें। मैं तो व्यक्तिगत विरोध जारी
रखूंगा, लेकिन इस चक्रिय कोशिशों के चक्र को समझने में बुराई भी नहीं है। पता तो चलना
चाहिए न कि कितने ग्राम का संतोष मिला है!!!
(इंडिया इनसाइड, एम वाला)
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