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BJP & RSS after 2014 : नरेन्द्र मोदी ने देश को बदला हो या ना बदला हो, भाजपा और संघ तो बदल ही चुके हैं?




कइयों को ये बात ग़लत लग सकती है कि 2014 के बाद देश बदला हो या ना बदला हो, किंतु बीजेपी और संघ में बड़ा बदलाव हुआ है। जिन्हें लगता है कि ये ग़लत है तो फिर वे सही हो सकते हैं और हम ग़लत। या फिर वे ग़लत हो सकते हैं और हम सही। इससे इतर हम तो यह भी नोट करना चाहता हैं कि बीजेपी और संघ के साथ साथ देश के सबसे पुराने राजनीतिक दल कांग्रेस में भी बड़ा बदलाव देखा जा रहा है। बीजेपी, संघ या कांग्रेस वगैरह के जिस बदलाव की बात हम कर रहा हैं वो केवल गठबंधनों, दोस्तों, दुश्मनों वगैरह को लेकर नहीं है, ना ही नई सरकार आने से जो पारंपरिक बदवाल देखे जाते हैं उसकी बात है, बल्कि इससे भी आगे है।

नोट – हो सकता है कि कइयों को ये बातें पूरी की पूरी बेकार लगे या थोड़ी सी ठीक भी लगे। लेकिन नोट करे कि ये उसी चौखट से आई है। जिस चौखट से ये बातें आई, हो सकता है कि वो महज़ चुनावी जीत या चुनावी हार को लेकर हो या उससे भी आगे की हो। लेकिन लिखने वाले के लिए ये महज़ चुनावी जीत या हार को लेकर नहीं है, बल्कि भारतीय राजनीति के तानेबाने को लेकर है। राजनीति और संगठन ख़ुद को किस तरह से मथते हैं, किस तरह से दूसरों को मथते हैं, मथने का ये मंथन समझना बुरी बात नहीं है। 

इस लेख का संघ या बीजेपी के कथित बदलाव को लेकर जो शीर्षक है उसे लेकर कुछ सख़्त आलोचक यह भी कहते हैं कि शीर्षक ही ग़लत है, बदलाव तो है ही नहीं, दरअसल असली आत्मा के उजागर होने की प्रक्रिया भर है। विभाजनकारी और सांप्रदायिकता से बुनी हुई मूल और पुरानी राजनीति को लेकर भी दलीलें उन सख़्त आलोचकों की तरफ़ से आई। लेकिन यह चर्चा किसी दूसरी पटरी की ओर ले जाएगी। बहरहाल यह असली चेहरे का दर्शन है, पुनरावर्तन है या परिवर्तन है, इस बहस को यहीं छोड़ देते हैं।

हो सकता है कि जो बदलाव हुआ है, वो अल्पकालीन हो या दीर्घकालीन भी हो। क्योंकि इस बदलाव से सत्ता को कितना फ़ायदा पहुंचने वाला है इसी आकलन पर बदलाव को वे आगे स्वीकार करेंगे या फिर बदलाव नुक़सानदेह हो तब उसे अस्वीकार भी करेंगे। जनसंघ के दौर से लेकर आडवाणी युग, अटल युग और मोदी का दौर... सभी को जहन में रखना ज़रूरी है। हिन्दू महासभा से लेकर गरम हिंदुत्व घारण करके आगे बढ़े सैकड़ों समुदाय और इस बीच कभी गरम तो कभी नरम हिंदुत्व के साथ साथ ख़ुद को समाज के सरोकार से तथा संस्कृति से जोड़कर रखनेवाला संघ... सभी की यात्रा नज़रों के सामने से गुज़रनी चाहिए। कभी भारत की राजनीति में शून्यता से लेकर भारतीय राजनीति को प्रभावित करने तक का सफ़र इतना तो आसान नहीं रहा होगा। और फिर राम मंदिर से लेकर सत्ता की चौखट, गठबंधनों से लेकर स्पष्ट बहुमत और फिर अचानक से सैकड़ों दलों का साथ... सालों के सफ़र की चर्चा चंद पन्नों में सिमटना नामुमकिन है।

संघ... जिसका मानना था या फिर मानना है कि भारत की कोई भी घटना हो, उसके साथ संघ को जुड़ना चाहिए... संघ चुनाव से प्रभावित होने में नहीं बल्कि चुनाव को प्रभावित करने में यक़ीन रखता था और शायद रखता भी हो
संघ ने सदैव ख़ुद को एक ग़ैरराजनीतिक संगठन के तौर पर प्रस्तुत किया। बावजूद इसके कि संघ जानता था कि देश यह भी जानता है कि बीजेपी की किसी भी राज्य में सरकार हो या केंद्र में हो, बिना संघ के आर्शीवाद के एक कदम भी आगे चलना नामुमकिन है। संघ को शायद महसूस होता होगा कि देश यह जानता है कि संघ ही सब कुछ है, बीजेपी नहीं। फिर भी वो ग़ैरराजनीतिक संगठन के तौर पर ख़ुद को पेश किया करता था। शायद आज भी ऐसे ही पेश करता होगा। क्योंकि संघ के मेरे एक मित्र ने नरेन्द्र मोदी सरकार बनने के दो-ढाई साल बाद भी मुझसे कहा था कि हमें सत्ता और राजनीति से कोई लेनादेना नहीं है। उन्हें भी पता होगा कि वो जो बोल रहे थे वह कमज़ोर तथ्य है, बावजूद इसके वो यह कह गए। संघ ने सदैव ख़ुद को राजनीति के केंद्र में रखा, सरकारें बनाई, मुख्यमंत्री बनाएँ, प्रधानमंत्री बनाएँ। पर्दे के पीछे उससे भी आगे की कहानियाँ रही, जिसने संघ को सत्ता का केंद्र बनाए रखा।
संघ की एक शैली यह भी रही कि वो भारत की किसी भी घटना से ख़ुद को जोड़े रखना चाहता था। शायद आज भी ऐसा ही चाहता हो। भारत में घटनेवाली हर घटना से संघ ख़ुद को जोड़ता है और चाहता है कि बिना उसके कोई घटना परिणाम तक ही ना पहुंचे। संघ हमेशा चुनाव को प्रभावित करने की स्थिति में रहा। बीजेपी के कार्यकर्ता और संघ के स्वयंसेवक, इन दोनों का काम लगभग लगभग एक है, लेकिन दोनों में अंतर भी बहुत है। सबसे बड़ा अंतर तो यही कि संघ का स्वयंसेवक सत्ता की आलोचना कर लेता है, बीजेपी का कार्यकर्ता ये नहीं करता। यह स्थिति आज कितनी बदली है, या नहीं बदली, ये सारी चीज़ें उसी चौखट से सुनना ठीक रहेगा, किसी और घर के तर्क हम दरकिनार कर देते हैं।

ऐसा क्या हुआ कि वाजपेयी से शुरू हुआ विकास का सफ़र मोदी ने अपनाया, बहुमत मिला और फिर उसी चौखट पर जाकर खड़े हो गए, जहाँ से सफ़र शुरू हुआ था
कुछ चीज़ें वाक़ई दिलचस्प है। राम मंदिर आंदोलन ने बीजेपी को विस्तार दिया था, पहचान दी थी, पहुंच दी थी, लेकिन सत्ता नहीं!!! अटल बिहारी वाजपेयी उदारवादी चेहरे के दम पर तथा राम मंदिर जैसे मुद्दों को छोड़कर दिल्ली की सत्ता तक पहुंचे। उसी वाजपेयी की छाया में तथा उसी विकास के नाम पर नरेन्द्र मोदी ऐतिहासिक बहुमत लेकर संसद की चौखट तक पहुंचे। विकास और प्रगति का नया अध्याय शुरू हुआ, लेकिन 2019 के चुनावों में विकास, योजनाएं, नीतियां... कुछ भी मुद्दे में नहीं था। इनमें से कुछ भी प्रचार में नहीं था। बल्कि उग्र हिंदुत्व और राष्ट्रवाद ही हथियार बना। ज़रूरत पड़ी तो जातिवाद का छाता भी खोल दिया गया। ऐसा क्या हुआ कि वाजपेयी से शुरू हुआ विकास का सफ़र मोदीजी ने अपनाया, बहुमत मिला और फिर उसी चौखट पर जाकर खड़े हो गए, जहाँ से सफ़र शुरू हुआ था।
संघ से मेरे कई वरिष्ठ मित्र हैं। उनके काम क्या हैं उसे हम छोड़ देते हैं। हम कई दफा अलग अलग माध्यमों से एक साथ मिलते रहते हैं। 2018 और 2019 में ऐसे ही कई वरिष्ठ मित्र, जो संघ में लंबे अरसे से अपना सब कुछ झोंके हुए हैं, उनसे कई दफा अलग अलग तरीक़ों से मुलाकातें हुई। बातें होती रहती थी और वो बिलकुल सहिष्णुता से बातें करते थे। ऐसी ही एक चर्चा के दौरान उनमें से एक वरिष्ठ मित्र से मैंने यह सवाल पूछा तो उन्होंने हंसते हुए लेकिन भीतर से ही जवाब दिया कि, लौट के बुद्धू घर को आए। मैंने उनसे पूछा कि, इसका मतलब क्या है? मतलब कि अब तक वे ग़लत रास्ते पर थे या अब ग़लत रास्ते पर जा रहे हैं?” उन्होंने इस संबंध में लंबीचौड़ी मन की बातें कही। मैंने उनसे यह ज़रूर कहा कि, आपने लौट के बुद्धू घर को आए कहावत का इस्तेमाल किया, लेकिन इनमें से कोई बुद्धू नहीं है। क्योंकि मोदी हो, भागवतजी हो या राहुलजी हो, इन सबमें वो काबिलियत है कि दूसरे कई सारे बुद्धू इन पर ही निर्भर है। वो हंस पड़े और कहने लगे कि, जी बात सही है, लेकिन मैंने तो कहावत कही थी, उसमें बुद्धू लफ्ज़ को आप यूँ अहमियत मत दें। मैंने उनसे कहा भी कि, तो फिर इस कहावत में जो अहम है उसी पर समझा दीजिए।

उन सबसे जो बातें होती रही उनमें से कुछ चीज़ें जो स्वयं उन्होंने कही वो इस प्रकार थी कि... मंडल-कमंडल, आडवाणी, रथयात्रा, बाबरी मस्जिद, अयोध्या, राम मंदिर और बाबरी मस्जिद को गिरा देना... बीजेपी और संघ तथा उनके अनेकों-अनेक संगठनों की यही पहचान थी। लेकिन दिलचस्प यह रहा कि जिस यूपी में इन्होंने हिंदुत्व और राम मंदिर के नाम पर ये कारनामा करके दिखाया उसी यूपी में चुनाव दर चुनाव बीजेपी सत्ता से कोसो दूर रही! 1992 के क़रीबन 25 सालों के लंबे इंतज़ार के बाद, अयोध्या-राम मंदिर और हिंदुत्व की उस चौखट पर, यानी कि यूपी में, नरेन्द्र मोदी ने विकास के नाम पर बीजेपी को ऐतिहासिक बहुमत दिला दिया! राम मंदिर की लहर से भी ज़्यादा सीटें विकास के नाम पर बीजेपी ले आई! लेकिन फिर सीएम चुनने का समय आया तो कट्टर हिंदुत्व के प्रतीक योगी आदित्यनाथ यूपी के सीएम बनाए गए!!!

गुजरात मॉडल, मोदी मॉडल और योगी मॉडल, क्या इसके ज़रिए विकास और राम मंदिर, दोनों नावों में एक एक पैर रखकर समंदर में तैरा जा सकता है?
सीधा सवाल पूछा गया कि, क्या सारे मॉडल को ध्वस्त करके अब विकास और हिंदुत्व, दोनों नावों में एक-एक पैर रखकर समंदर पर तैरने की कोशिशें की जा रही हैं? लेकिन समीक्षा तो कहती है कि विकास का नारा पंक्चर हो चुका है और हिंदुत्व के लिए नये जोशीले चाहिए, पुराने मायूस हो चुके हैं। मैंने उनसे पूछा कि, मोदीजी तो विकास के नाम पर जातीय समीकरणों को तोड़कर, सबका साथ सबका विकास के नारे पर चलकर इतना भारी बहुमत ले आए। यूपी में तो राम मंदिर आंदोलन के बाद भी जो बीजेपी को नसीब नहीं हुआ वो विकास के नाम पर मोदीजी ले आए। तो फिर योगी आदित्यनाथ जैसे कट्टर हिन्दू चेहरे को मैदान में लाना, इसे किस तरह से समझा जाए? प्रज्ञा ठाकुर का आना किस तरीक़े से देखा जाए?”

जवाब देने से पहले उन्होंने योगी आदित्यनाथ के ऊपर मीडिया में दिनों तक चले श्रृंगार कार्यक्रमों का ज़िक्र ज़रूर किया। कहा कि, शुरुआत में इस कट्टर हिन्दू चेहरे को एक ऐसे राजपुरुष के रूप में दिखाने के प्रयास हुए जो सबका साथ सबका विकास वाले मोदी मॉडल के साथ चलने का भरोसा दिलाता हो। वो कह गए कि, कोई मीडिया चैनल ऐसे तो दिनों तक किसी सीएम के सुबह से लेकर दोपहर, दोपहर से लेकर शाम, शाम से लेकर रात और फिर रात से लेकर सुबह... तक की दिनचर्या को दिखाया नहीं करता। तो फिर क्या मीडिया को ऐसा कहा गया था इसका जवाब उन्होंने दिया कि, “मैं वही बात करूंगा जो करनी चाहिए, इसे रहस्य ही रहने दे, क्योंकि मेरे लिए भी यह रहस्य ही है। लेकिन उन्होंने यह ज़रूर स्पष्ट कर दिया कि योगी आदित्यनाथ के साथ उनका जो अतीत चल रहा था उसे भुलाने के मीडिया के द्वारा प्रयत्न ज़रूर किए गए। मैंने उन्हें बीच में ही टोका और पूछा कि, कहते हैं कि योगी आदित्यनाथ की एंट्री या तो मोदीजी की रणनीति थी या फिर संघ की, क्या ये सही है? या फिर ये दोनों की ही रणनीति थी?” वो कह गए कि, मोदी मॉडल तो देश में है ही, अब योगी मॉडल आ गया तो फिर रणनीति तो होगी ही। लेकिन मोदी और योगी मॉडल में राम मंदिर फंसकर रह गया इसका अफ़सोस वो ज़रूर जता गए।

वो कहते हैं, प्रज्ञा को लाना नया प्रयोग है भी और नहीं भी। क्योंकि 2014 के बाद लोकसभा में कई हिन्दू चेहरे पहुंचे। एक दफा मोदीजी को कहना पड़ा कि साध्वीजी नयी है उन्हें माफ कर दीजिए। सब राम की संताने हैं, रामजादे-हरामजादे से लेकर आगे भी बहुत कुछ होता गया। धर्म को लेकर राजनीति में 2014 के बाद बहुत कुछ हुआ। कइयों ने लिख दिया कि सरकार देश को धार्मिक संकीर्णता की ओर ले जा रही है। लेकिन शायद ये प्रयोग की शुरुआत थी। लेकिन ठाकुर देश के लिए विवादास्पद तो है ही। ऐसे हथियारों के साथ उतरना आख़िरी लड़ाई है या फिर नयी लड़ाई की शुरुआत। मोदी मॉडल और योगी मॉडल, दोनों का मिश्रण नया राजनीतिक पैंतरा ही कह लीजिए। या यूं कहे कि जितने मॉडल अभी मौजूद है, सभी अपने अस्तित्व को लेकर राजनीति को नये तरीक़े से मथ रहे हैं।

मैंने उनसे सालों से उठ रहे उस सवाल को भी पूछ लिया कि, संघ और बीजेपी से ज़्यादा कट्टर हिंदुत्व तो शिवसेना में है, लेकिन उसी शिवसेना को बिहार या यूपी के संघ स्वयंसेवक पसंद नहीं किया करते। ऐसा क्यों?” उन्होंने उल्टा मुझसे ही सवाल पूछ लिया कि, आपको क्या लगता है?” मैंने भी हंसकर जवाब दिया कि, यही कि कभी कभी सवाल के सामने सवाल दाग देने से जवाब देने की जिम्मेदारी से बचा जा सकता है। वो भी हंस दिए। इस मुद्दे को लेकर विचारधारा और रोटी की ज़रूरत के ऊपर थोड़ी सी चर्चा हुई। मैंने इससे इतर सवाल यह भी पूछ लिया कि, मॉडल की बात होती थी तो गुजरात मॉडल की बात होती थी। लेकिन अब मोदी और योगी मॉडल का ज़िक्र होता है। राम मंदिर का मॉडल इनमें कहाँ है?” वो बोल गए कि, किसी एक राज्य का मॉडल समूचे देश में नहीं चल सकता ये सच है। लेकिन इससे इतर किसी एक व्यक्ति का मॉडल देश में चल रहा है यह भी सच है। राम मंदिर का मॉडल बोलकर आप संघ का ज़िक्र करके यह कहना चाहते है कि एक व्यक्ति संघ से भी ऊपर हो चुका है, तो फिर संघ का मॉडल कहाँ खो गया यह सवाल भी ग़लत है।

मैंने कई संघ स्वयंसेवकों से उनकी मन की बातें जानी जिसे यहाँ लिखना ठीक नहीं होगा। क्योंकि यह उनकी मन की बातें थी, वो किसी मंच पर सार्वजनिक नहीं होनी चाहिए। या यूं कहे कि पूरी की पूरी बातें उनके नाम के साथ लिखना ठीक नहीं होगा। बिना नाम लिए स्थितियों को समझने की कोशिशें की जा सकती हैं। उधर दूसरों ने भी कई संघ स्वयंसेवकों की मन की बातें सार्वजनिक मंच पर लिखी हैं। हम इन सभी का मिला-जुला स्वरूप यहाँ रखकर आगे बढ़ने की कोशिश करते हैं।

योगी मॉडल, मोदी मॉडल, गुजरात मॉडल... ये नारे हैं या फिर विचारधारा?
योगी आदित्यनाथ दीपावली के दिन राम मंदिर को लेकर कौन सा एलान करने वाले थे? दिल्ली में दो दिन तक अखिल भारतीय संत समिति को बैठक करने की ज़रूरत क्यों पड़ी? और दशहरा के दिन अचानक नागपुर में सरसंघचालक मोहन भागवत की जुबान पर राम मंदिर निर्माण कैसे आ गया? इस बीच आख़िर सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई जनवरी तक टाली तो संघ से लेकर संत और बीजेपी सांसदों से लेकर विहिप तक सुप्रीम कोर्ट को ही देरी के लिये कटघरे में खड़ा क्यों करने लगे? सवाल कई सारे थे, जिसके सीधे जवाब नहीं मिल पाए। लेकिन क्या विकास के बाद समाज और देश में राम मंदिर के नाम पर उबाल पैदा करने की कोशिश की जा रही थी? तो अगला सवाल ये भी था कि क्या इस राजनीतिक उबाल से 2019 में मोदी सत्ता बरकरार रह जाएगी? असल उलझन यही है कि निशाने पर हर किसी के 2019 है, लेकिन अलग अलग खेमों के लिए रास्ते इतने अलग हो चुके है कि राम मंदिर का जाप करने वाले और राम मंदिर के निर्माण में फ़ैसला लेने में अहम भूमिका निभाने वाले ही आपस में लड़ रहे हैं। विकास का नारा पंक्चर हो रहा है। इकोनॉमिक मॉडल सत्ता और सत्ता से सटे दायरों को भ्रष्ट कर चुका है। तो फिर वह कौन सा रास्ता बचा था जो 2019 में जीत दिला दें। जाहिर है लोकतंत्र कभी फ़ैसला नहीं चाहता। वह सिर्फ़ फ़ैसले से पहले सियासी उबाल चाहता है, जिससे वोटर इस भ्रम में फंसा रह जाए कि सत्ता बदलती है तो क्या होगा। या सत्ता बरकरार रहेगी तो ये ये हो जाएगा।

क्या संघ परिवार ही अपने सियासी डिजाइन को लागू कराने में लग गया था? इसीलिए दिल्ली में जब अखिल भारतीय संत समिति ने राम मंदिर निर्माण के लिए धर्म सभा शुरू की तो उसके पीछे संघ खड़ा हो गया। यानी जिस संत समिति के रिश्ते संघ या विहिप से अच्छे नहीं हैं, उस संत समिति की दो दिनों की धर्म सभा में संघ के बेहद क़रीबी दो शख़्स पहुंचे। पहले, प्रयाग के वासुदेवानंद सरस्वती और दूसरे पुणे के गोविंददेव गिरी। दोनों ही इस आशय से आये होंगे कि धर्म सभा आख़िर में ये मान जाए कि बीजेपी की सत्ता 2019 में बनी रहनी चाहिए। और ध्यान दीजिए तो दूसरे दिन धर्म सभा ये कहने से नहीं हिचकी कि, "अगर जीवित रहना है, मठ-मंदिर बचाना है, बहन-बेटी बचानी है, संस्कृति और संस्कार बचाने हैं तो इस सरकार को दुबारा ले आना है।" कहीं नरेन्द्र मोदी का नाम नहीं लिया गया, लेकिन बीजेपी सरकार बनी रहनी चाहिए ये एलान ज़रूर कर दिया। मंदिर नहीं तो मोदी नहीं का नारा, जो अभी अभी शुरू हुआ था वो गायब हो गया!

दो सवाल उठ सकते हैं। पहला, क्या बिना मोदी इस सरकार की बात हो नहीं सकती? और दूसरा, बीजेपी की सत्ता बरकरार रहे चाहे माइनस मोदी सोचना पड़े। 1984 से 2014 तक कभी संघ ने राम मंदिर निर्माण के लिए अदालत के फ़ैसले का ज़िक्र नहीं किया। यानी अदालत फ़ैसला देगी तभी राम मंदिर की तरफ़ बढ़ेंगे ऐसा ना तो 1984 में विहिप के आंदोलन शुरू करने समय उभरा, और ना ही 1990 में लालकृष्ण आडवाणी जब सोमनाथ से अयोध्या के लिए रथयात्रा लेकर निकले तब सोचा या कहा गया। बात तो यही होती रही कि राम मंदिर हिन्दुओं की भावनाओं से जुड़ा है और सरकार को ऑर्डिनेंस लाना चाहिए। लेकिन झटके में 2014 में नरेन्द्र मोदी ने विकास शब्द सियासी तौर पर इस तरह क्वाइन किया कि राम मंदिर शब्द ही लापता हो गया। और मोदी सत्ता के साढ़े चार बरस बीतने के बाद झटके में उसे उभारा गया। फिर दो सवाल उठते हैं। संघ साढ़े चार बरस खामोश क्यों रहा? और साढ़े चार बरस बाद भी मोदी खामोश क्यों है? और योगी राम मंदिर पर किसी बड़े एलान की बात क्यों करने लगते हैं?

दो तथ्यों पर गौर करना ज़रूरी है। पहला - योगी आदित्यनाथ संघ परिवार के सदस्य नहीं रहे हैं, बल्कि सावरकर के हिन्दू महासभा से जुड़े रहे हैं। और दूसरा - संघ ने हमेशा ख़ुद के विस्तार को ही लक्षाय माना है, जिससे भारत में घटने वाली हर घटना के साथ वह जुड़े या बिना उसके कोई घटना परिणाम तक पहुंचे ही नहीं। यहाँ कह सकते हैं कि राम मंदिर भी संघ परिवार के लिए एक औजार की तरह रहा है। और सत्ता भी संघ के लिए एक हथियार भर है। पर दूसरी तरफ़ हिन्दू महासभा पूरी तरह हिन्दुत्व का नगाड़ा पीटते हुए उग्र हिन्दुत्व की सोच को हमेशा ही पाले रहा है। और 2013 में जब गोरखपुर में गोरक्षा पीठ में संघ की बैठक हुई तो योगी आदित्यनाथ के तेवर राम मंदिर को लेकर तब भी उग्र थे। क्या संघ के लिए ये बेहतरीन मॉडल था कि दिल्ली में मोदी मॉडल काम करे और अयोध्या की ज़मीन, यानी यूपी में योगी मॉडल काम करें?
लेकिन अब जब 2019 का प्रचार आधा ख़त्म हो चुका है, मोदी और योगी, दोनों अमूमन एक ही सड़क पर हैं। योगी कट्टर हिंदुत्व की धार पर है और मोदी कट्टर राष्ट्रवाद के समंदर में उतर चुके हैं। कुछ जगहों पर संघ के पुराने स्वयंसेवकों के हवाले से लिखा गया कि मोदी सरकार को लेकर संघ की सबसे बड़ी चिंता यही है कि सत्ता अगर गंवा दी तो संघ ने बीते साढ़े चार बरस के दौर में सत्ता से सटकर जो जो किया उसका कच्चा-चिट्ठा भी खुलेगा। और अगर सत्ता गंवाने के बदले बीजेपी माइनस मोदी की सोच के सामानातंर योगी मॉडल उभारा जाए तो फिर 2019 में हार बीजेपी या संघ परिवार या साधु-संतों की नहीं होगी, बल्कि ठीकरा नरेन्द्र मोदी पर फोड़ा जा सकता है। लेकिन योगी मॉडल के साथ साथ गडकरी मॉडल का रहस्य कहीं से पकड़ में नहीं आ रहा। 

जाहिर है आज की तारीख में संघ के भीतर इतनी हिम्मत किसी की नहीं है कि वह नरेन्द्र मोदी से टकराये तो दूर जवाब भी देने की स्थिति में हो। तो क्या संघ की बिसात पर योगी मॉडल वजीर के तौर पर दो दृश्टी से रखा जा सकता है? पहला तो मोदी मॉडल, जिस मॉडल को विकास और आधुनिकता के साथ जोड़ा गया है, उस मॉडल से देश का वो तबका प्रभावित हो जो विकास को तवज्जो देता हैं। और दूसरा योगी मॉडल, जिस मॉडल में हिंदुत्व है, जिससे वो तबका प्रभावित हो जो हिंदुत्व को प्राथमिकता देता हैं।

1992 में बाबरी विध्वंस के बाद 1996 के चुनाव में, जब हिन्दुत्व का उबाल पूरे यौवन पर था तब भी बीजेपी की सरकार बन कर चल नहीं पाई। यानी जोड़-तोड़ कर वाजपेयी ने सरकार तो बनाई, लेकिन बहुमत फिर भी कम पड़ा तो 13 दिनों में सरकार गिर गई। पर मौजूदा वक्त में बहुमत से ज़्यादा जीत मोदी सत्ता के पास है, लेकिन वह मंदिर के हवन में हाथ जलाने को तैयार नहीं है। शायद इसलिए कि वे विकास मॉडल की नाव में सवार होकर बहुधा लोगों को जोड़ना चाहते हैं। यानी संघ की ज़रूरत है राम मंदिर के नाम पर समाज में उबाल कुछ ऐसा पैदा हो, जिससे मोदी-योगी मॉडल, दोनों ही चले। विकास और हिंदुत्व नाम की दो नावों में एक ही आदमी के दो अलग-अलग पैर रखकर चलना ठीक होगा या दोनों नावों में एक-एक आदमी बिठाकर तैरना ठीक होगा, यह अंदरूनी रणनीति है जिसका जवाब स्वयंसवेक महोदय या तो देना नहीं चाहते थे या दे नहीं पाए।

बीजेपी का भविष्य क्या है, विज़न क्या है?
देश आगे चला है या फिर सालों पीछे मुड़ गया है, कह नहीं सकते। किसी पुराने स्वयंसेवक के मुंह से निकली हुई यह बात कई चीज़ें कह जाती हैं। ऐसा नहीं हो सकता कि वो अफ़सोस कर रहे है, बल्कि ऐसा भी हो सकता है कि वो ये स्वीकार कर रहे हो कि हिंदुत्व, राम मंदिर, जातिगत समीकरण वगैरह को लेकर बीजेपी और संघ उसी दौर में वापस लौट चुके हैं, जब वो विस्तार की प्रक्रिया के दौर में थे। लेकिन सवाल उठा कि, उस दौर ने विस्तार दिया था, लेकिन सत्ता नहीं। आज आपके पास सत्ता है और विस्तार तो हो ही रहा है। तो फिर उसी चौखट पर लौटने का मतलब क्या है? क्या 2019 जीतने के लिए 2014 के मुद्दे ठीक नहीं है या फिर वो मुद्दे ही बड़े सवाल बनकर सीने में चुभ रहे हैं?”

अयोध्या और फैजाबाद वाले मसले पर वो एक चीज़ यह भी बोल गए कि, बनारस ही देख लीजिए। इस सच को हर कोई जानता है कि संकटमोचन मंदिर के बाहर फूल-माला, रुद्राक्ष तक की दुकानें मुसलमान चलाते हैं। यही हाल अयोध्या का है। उन्होंने धड़ल्ले से स्वीकार किया कि, धर्म या राष्ट्र का उबाल पलभर का है। लोगों को बेहतरी चाहिए, अच्छा जीवन चाहिए। मैंने उनसे पूछा कि, तो क्या संघ और बीजेपी इस दुविधा में हैं कि हिंदुत्व, राष्ट्रवाद और विकास, इन तीनों के पहिए से शानदार रथ कैसे बनाया जाए या फिर फ़िलहाल ऑटो से काम चला लिया जाए। वो हंस दिए और कह गए कि, आप भी सवाल बड़े हल्के अंदाज़ में लेकिन गहरे पूछ लेते हैं। लेकिन मंदिर भी चाहिए और रोटी भी। हमें दोनों नावों में सवार होना ही है।

लेकिन उनका एक जवाब वाक़ई अप्रत्याशित था, जब उन्होंने कह दिया कि, आप विस्तार की बात कर रहे हैं, मैं तो फ़िलहाल संघ को सिमटते हुए देख रहा हूँ। कल कोई दूसरी सत्ता आएगी तो वो भी हमें डराएगी। संघ का काम बाँटना नहीं है। वो आगे कह गए, मैं मोदी या योगी मॉडल की बात नहीं कर रहा। मैं हालातों का ज़िक्र कर रहा हूं। जब कोई विज़न नहीं होगा तो परिणाम क्या होंगे?” फिर उनसे जो बातें हुई उसका सार कुछ ऐसा था, आडवाणी की रथयात्रा से क्या निकला?” कहीं पर इसका जवाब था कि, रथयात्रा ने बीजेपी को राजनीतिक तौर पर स्थापित कर दिया। और उसके बाद संघ के स्वयंसेवक अटल बिहारी वाजपेयी देश के प्रधानमंत्री बन गए। और फिर वाजपेयी ने राजनीति को इस तरह मथा कि आपातकाल के बाद जो जनता पार्टी आधा दर्जन राजनीतिक दलों से निकले नेताओं को भी नहीं जोड़ पाई थी, वाजपेयी की अगुवाई में बीजेपी दो दर्जन से ज़्यादा दलों को साथ लेकर कांग्रेस का विकल्प बनकर उभरने लगी।

इसके सामने संघ के ही वे लोग कहने लगे कि, जी, ये सब कुछ हुआ। लेकिन इसी लकीर को हमारे नज़रिए से समझे तो रथयात्रा संघ की नहीं राजनीति की ज़रूरत थी। संघ बाँटने की विचारधारा के ख़िलाफ़ था। सहमती की वजहें रही होंगी उसी वक्त। लेकिन फिर समाज बंटा। वोट बंटा। फिर क्या हुआ? जिस रथयात्रा ने बीजेपी और संघ को विस्तार दिया उसी रथयात्रा के दम पर सत्ता नहीं मिली। 1992 के चुनाव के बाद बीजेपी को कहाँ कहाँ और कैसै कैसे सत्ता मिली ख़ुद ही देख लीजिए। लगा कि भले ही हमारा विस्तार हुआ हो, लेकिन लोगों के मन में हमारे प्रति भावनाएँ लोकतंत्र के अनुकूल नहीं है। ये भाव पलने लगा कि हम बाँटने की विचारधारा लेकर चलते हैं। 1996 में सत्ता मिली तो वो भी तेरह दिनों के लिए। 1998 में ही हम लड़खड़ाने लगे थे। वो तो कारगिल ने राहत दे दी। पर आपने कभी ये ध्यान दिया क्या कि रथयात्रा बीजेपी का नाम लोगों की जुबां पर ले ज़रूर गई, लेकिन लोकतंत्र और मततंत्र के नज़रिए से हम उतना अच्छा नहीं कर पाए। तभी तो वाजपेयी सत्ता से बाहर थे तब उनके बोल अलग थे और जब सत्ता संभ्हाल रहे थे तब उनकी जुबां अलग बोल दिया करती थी। वो सत्ता संभ्हाल कर रखना चाहते थे और इसीलिए उन्होंने संघ के एजेंडे को ठुकरा दिया। शायद उन्हें अहसास हो चला था कि संघ भारत नहीं है बल्कि भारत संघ से सैकड़ों गुना बड़ा देश है। सबको साथ लेकर चलना उनकी मजबूरी थी।
वो आगे कहते हैं कि, वाजपेयी ने अपने सत्ता काल में बीजेपी को कांग्रेस की तर्ज पर एक राजनीतिक पार्टी के रूप में गढ़ा। ये वो दौर था जहाँ बीजेपी कांग्रेस की जगह लेने के लिए तैयार हो रही थी। वो बोल गए कि, वाजपेयी ने कांग्रेस मुक्त भारत का नारा दिए बगैर कांग्रेस का विकल्प बनने की रणनीति अपनाई। क्योंकि शायद वो जानते थे कि राजनीति समाज से सरोकार रखती है और समाज में कई विचारधाराएँ व्याप्त हैं। किसी दूसरी विचारधारा को नकार कर आप अपनी विचारधारा को बेहतर स्थापित नहीं कर सकते। वो वाजपेयी का अंदाज़ था, जहाँ रथयात्रा और कट्टर हिंदुत्व की वजह से जो लोग बीजेपी से दूर रहते थे वे अब बीजेपी के साथ आने को तैयार हो रहे थे। यूं समझ ले कि हर नेता वाजपेयी के साथ खड़ा होने के लिए तैयार था। याद कीजिए वो दौर, जब एक तरफ़ बीजेपी थी और दूसरी तरफ़ कांग्रेस। वो विचारधारा का सफल प्रस्तुतिकरण था। लेकिन अब हम किसी एक विचारधारा को प्रस्तुत ही नहीं कर पा रहे। कभी विकास की बात करते हैं तो कभी राम मंदिर की। देखिए, एक बात समझ लीजिए कि भारत जैसे लोकतंत्र में दोनों चीज़ें एक साथ चलाना वाक़ई नया प्रयोग है, जो मोदी मॉडल और योगी मॉडल में हो रहा है। ये प्रयोग सफल रहता है या विफल ये तो वक्त बताएगा। लेकिन मान लीजिए कि अगर विफल रहा तो फिर बीजेपी उसी जगह पहुंच जाएगी जहाँ से वो भारतीय राजनीति के लिए निकली थी।

वो कहते हैं कि, संकट देश के लिए नहीं है, बल्कि बीजेपी और संघ के लिए है। थ्यौरी बहुत सारी है, लेकिन रिसर्च नहीं है। वाजपेयी के दौर में कांग्रेस एक विचार के रूप में स्थापित थी। वाजपेयी ने उस विचारधारा को खारिज़ नहीं किया, बल्कि उस विचारधारा के समानांतर बीजेपी की अपनी एक ठोस विचारधारा देश के सामने रखी। लेकिन अभी जो हो रहा है, चाहे वो मोदी कर रहे हो या योगी, उसका कोई छोर आप पकड़ नहीं पाएंगे। सत्ता तो आएगी या जाएगी, लेकिन भविष्य क्या होगा? वाजपेयी के दौर में जो फ्रिंज एलीमेंट अलग-थलग हो चुके थे वो अब इक्ठ्ठे हो रहे हैं। वो प्रभावी भी हो रहे हैं। यानी बीजेपी जीतती है तो क्या होगा ये भी एक बड़ा सवाल है और हारती है तो वो कितने पीछे जाएगी या किस तरह से आगे बढ़ेगी ये बहुत बड़ा सवाल है।

उन्होंने बड़े ही गहरे अंदाज़ में गहरी बात कह दी कि, 2014 में बीजेपी की पहचान 2019 वाली थी। लेकिन अब 2019 में बीजेपी 1990 की बीजेपी बनकर रह गई है। वो नपे-तुले अंदाज़ में कहने लगे कि, जो हाल वाजपेयी का था, अब वही हाल कांग्रेस का है। फ़िलहाल दोनों के हालात मेल खाते हैं। लेकिन फिर वाजपेयी जैसे आगे बढ़े, अगर कांग्रेस उसी रास्ते पर चल पड़ी तो फिर बीजेपी के लिए ये महज़ 5-10 साल का सत्ता का खेल बनकर रह जाएगा। क्योंकि फिर बीजेपी को ठोस नीति और एक स्पष्ट विचारधारा चाहिए होगी। मंदिर और विकास की दोनों नांवे कैसे रंग दिखाएगी ये तो कोई नहीं जानता, लेकिन चिंता यही है कि ऐसा क्यों है कि इस नयी रणनीति का बीजेपी और संघ के लिए क्या भविष्य होगा ये कोई नहीं जानता। वो कहते हैं कि, कांग्रेस को पटरी पर आना है तो उसे खास मशक्कत नहीं करनी पड़ेगी, लेकिन अगर बीजेपी को पटरी पर आना है तो उसका मदार इसी बात पर है कि उसके भीतर कौन सा नेतृत्व निकलेगा या जो मौजूदा नेतृत्व है वो कैसे आगे बढ़ेगा। वो कहते हैं कि, इसके लिए सत्ता नहीं बल्कि नेतृत्व जिम्मेदार है। वो बीजेपी और संघ को कौन से नये तरीक़े से गढ़ रहे हैं या गढ़ना चाहते हैं इसका कोई छोर ही नहीं है।

वो बड़े शांतभाव से कहते हैं कि, केशुभाई, लालजीभाई, संजय जोशी, प्रवीण तोगड़िया, हरेन पंड्या की हत्या, सोहराबुद्दीन एनकाउंटर... ये सब घटनाएँ भी थी और दिल्ली की सत्ता तक पहुंचते हुए जो सफ़र तय किया गया उसका साया भी था। विपक्ष तो ठीक है, लोग भी संस्थानों के ख़त्म होने की बातें करने लगे हैं। संघ को लोगों से लेना-देना है। ऐसा क्यों है कि कांग्रेस काल में भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ आवाज़ उठती थी, लेकिन संस्थानों के ख़त्म होने का हौवा नहीं हुआ करता था। आज संस्थानों की बात करते करते बात आरबीआई तक क्यों जा पहुंची है? इस स्थिति को ही सोच लीजिए कि बीजेपी के पास डिजिटलाइज पैसे की भरमार है और सरकारी खजाने में पैसा नहीं है!!! सत्ता रिजर्व बैंक से पैसा क्यों मांग रही है? लोगों के सामने भ्रम फैलाने की नीतियां क्यों है? क्योंकि जब पैसा मांगने की बात आई, तो पैसे मांगे थे फिर भी कह दिया कि हमने पैसे नहीं मांगे। फिर पाकिस्तान पर एयर स्ट्राइक के बीच आरबीआई से पैसे ले लिए गए। सरकारी खजाने ने पैसे कहाँ कहाँ उड़ाए इसके ब्यौरे समझने चाहिए होगे।

वो आगे कहते हैं, अगर तोते की जान गुजरात में फंसी है तो फिर ये ठीक नहीं है। गुजरात देश नहीं हो सकता। किसी एक राज्य में ऐसा इकोनॉमिक मॉडल काम कर सकता है कि सीएम फ़ैसला ले और तमाम संस्थान उसी दिशा में काम करने लगे। लेकिन देश में ऐसा करना खिलवाड़ होगा।

अगर वाक़ई कोई संकट है तो फिर मंथन चुनाव पर है या संकट पर? पूंजीवाद नई पहचान क्यों है? पूंजीवाद के साथ साथ हिन्दुत्व वाली नाव एक है या फिर नाव ही दो है और आदमी एक है?
तो फिर संघ इस दिशा में बीजेपी को अपनी चिंता से अवगत क्यों नहीं करवाता? इस सवाल पर वो कहते हैं, बीजेपी में महासचिव कौन है? राष्ट्रीय नेता कौन है? बीजेपी को चलाता कौन है? दूसरी कतार के नेता कौन है? दो नामों के अलावा तीसरा कौन सा नाम आपकी जुबां पर आएगा? गुजरात मॉडल में गुजरात के ही पुर्जे लगाए गए हैं। चाहे वो नेता हो या नौकरशाह। कॉर्पोरेट हो या व्यापारी। छोटे पर्दे के अभिनेता हो या कोई और मंच हो। जन-सरोकार ख़त्म हो चला है। जब दिल्ली में नया हेडक्वार्टर बना तो सभी को आमंत्रित किया गया था। लेकिन जैसे ही पीएम का क़ाफ़िला पहुंचने वाला था, संघ के वरिष्ठ हो या बीजेपी के वरिष्ठ, सभी की गाड़ियाँ रोक दी गईं।

उन्होंने ठीक से जवाब नहीं दिया तो फिर एक बार पूछा गया कि संघ बीजेपी को क्यों नहीं समझाता कि सियासत सिर्फ़ और सिर्फ़ रुपयों से नहीं चलती। वो कहने लगे, अभी थोड़े महीनों पहले ही कर्णाटक उपचुनाव के परिणाम आए। बेल्लारी में तो ख़ूब पैसा है। पार्टी के पास भी और उम्मीदवार के पास भी। पिछली बार बीजेपी 70 हज़ार वोटों से जीती थी। इस बार क़रीब ढाई लाख वोटों से हार गई। मंथन होना चाहिए कि तो फिर पैसे और बूथ मैनेजमेंट कहाँ गया? लेकिन फिर इससे इतर कहीं बीजेपी जीती है तो इसके उदाहरण सामने आएंगे, कहेंगे कि यहाँ तो बीजेपी सीट निकाल लाई है।

वो मंथन करते हुए कहते हैं, फंडिग का मोर्चा तो फतेह कर लिया, लेकिन छापेमारी की सियासत कब तक चलेगी और कौन सी राह पर ले जाएगी? सवाल सिर्फ़ हिन्दू आतंकवाद शब्द के आसरे संघ को योगी या प्रज्ञा जैसे मसलों पर लेने भर का नहीं है। बल्कि संघ के लिए सवाल यह भी है कि बीजेपी ने अपने कार्यकर्ताओं का दायरा कितना बड़ा कर लिया है। यानी संघ के स्वयंसेवकों की भी तादाद छोटी पड़ गई है बीजेपी की दस करोड़ सदस्यता के सामने। और इस संख्याबल की ताक़त पर मोदी-शाह संघ को आईना दिखाने की स्थिति में है। पारंपरिक बीजेपी का तानाबाना कितना बदल चुका है यह भी समझना ज़रूरी है। संघ का स्वयंसेवक बिना वेतन काम करता है, लेकिन बीजेपी का कार्यकर्ता सुविधाओं से लेस होकर काम करता है। स्वयंसेवक और कार्यकर्ता, दोनों जीत दिला रहे हैं। लेकिन किसे?”

वो कह गये कि, जहाँ जहाँ चुनाव ख़त्म हुए, हमारे ही स्वयंसेवकों के फेसबुक पर पोस्ट लिखे कि मैंने मोदीजी को वोट कर दिया। वो यह नहीं कहते कि मैंने बीजेपी को वोट किया। अगर बीजेपी बदली है तो फिर संघ को भी बदलना होगा। या यूं कहे कि संघ भी बदल रहा है। कल तक संघ का इशारा बीजेपी सत्ता के लिए काफी होता था। लेकिन आज बीजेपी सत्ता का इशारा संघ के लिए जीवन-मरण का सवाल बन चुका है। देखिए न, हमारे स्वयंसेवक बीजेपी को नहीं बल्कि मोदीजी को जीताने के लिए अपना पसीना बहा रहे हैं। शायद संघ बदल रहा है, तभी तो इस स्थिति को अभी स्वीकार किया जा चुका है। राजनीति को संघ प्रभावित किया करता था, आज संघ राजनीति से प्रभावित है।

आगे वे मन की बात कहते हैं कि, पहले हिन्दू होते थे। आज दो प्रकार के हिन्दू हो चुके हैं। संघ समाज को बाँटने का काम नहीं करता था, लेकिन बदलती परिस्थितियों ने हिन्दुओं के भी दो प्रकार बना दिए हैं। जनसंघ की स्थापना हो रही थी तबसे लेकर 2019 तक बीजेपी का हिन्दुत्व भी कई मोड़ से गुज़रता हुआ ख़ुद ही बदल चुका है। अब दो तरह के हिन्दू वोटर हैं। एक शांत है, और दूसरा उग्र। दूसरे वर्ग के लिए मोदी भगवान हो चुके हैं। संघ का मतलब संगठन है, व्यक्ति नहीं। लेकिन अब यह व्यक्तित्ववाद हमें कहाँ ले जाएगा पता नहीं।
वो कहते हैं, अटल बिहारी वाजपेयी का हिन्दुत्व और नरेन्द्र मोदी के समय का हिन्दुत्व, इन दोनों में बहुत फर्क है। इस फर्क ने सोच बदली है। विचारधारा को भी बदला है। अटल बिहारी वाजपेयी बीजेपी का ट्रांसफॉर्मेशन कांग्रेसी तर्ज पर कर रहे थे। इसलिए ध्यान दीजिए कि हिन्दू शब्द की गूंज वाजपेयी के दौर में नहीं थी। दलित-मुसलमान सब बीजेपी के साथ खड़े हो रहे थे। मुझे नहीं पता कि संघ और नरेन्द्र मोदी यह समझ पाए हैं या नहीं कि 2014 में बीजेपी को जिन दलित और मुसलमानों का वोट मिला वो बीजेपी की उसी पुरानी पहचान और वाजपेयी की साया से मिला था। कांग्रेस के भ्रष्टाचार से लोग त्रस्त थे उसी वजह से भी वो लोग बीजेपी की ओर खींचे चले आए। लेकिन जिस तरह से हो पाया उसके पीछे वाजपेयी काल की ख़ुशबू और धूंधली पहचान थी। मोदी काल को लेकर उम्मीद थी। लेकिन 2014 के बाद उग्र हिन्दुत्व की राजनीति के आसरे जिस तरह सत्ता ने समाज में सेंघ लगाई, उसमें बीजेपी कहीं पीछे छूट गई। असर यह हुआ कि कटघरे में तो संघ ही खड़ा हो गया। हमारी जो सालों की मेहनत थी उससे हम भी तो पीछे चले गए हैं ऐसा मुझे लगता है। हमारी शाखाएँ बढ़ी हैं, हमारा विस्तार हुआ है, लेकिन हमारी जो मेहनत थी वो रंग नहीं ला रही।

वो दोबारा उसी बात का ज़िक्र करके कहते हैं कि, जिस रास्ते बीजेपी निकल पड़ी है, अगर मोदी चुनाव हार गए तो बीजेपी को बहुत पीछे जाना होगा। पार्टी या संगठन विचारधारा हो सकते हैं, सत्ता विचारधारा नहीं हो सकती। जिस तरह से ख़ौफ़ दिखाकर सबको समेटने की चाहत ही विचारधारा हो चुकी है उससे सवाल तो अब उठेंगे ही कि मोदी हार गए तो बीजेपी का क्या होगा? चुनाव जीतना विचारधारा नहीं हो सकता। तो फिर सवाल यह है कि अब कौन सी नयी विचारधारा होगी? मोदी जीतेंगे तो क्या ऐसे ही चलता रहेगा जो अब चल रहा है? अगर वो हारेंगे तो फिर कौन सी नयी सोच या कौन सी नयी विचारधारा बीजेपी के पास बचेगी? वैचारिक तौर पर चुनावी हार के बाद किसी पार्टी को खड़ा करने के लिए अनुभवी नेता की ज़रूरत होती है। और पार्टी जब अनुभव को ही मान्यता नहीं दे रही तो फिर बीजेपी को पटरी पर लाएगा कौन? जो पटरी पर ला सकते थे उन्हें खारिज़ करके हाशिये पर धकेल दिया गया है।

वो कहते हैं, दिक्कत तो यह है कि इस माथापच्ची के बीच कांग्रेस ने उन्हीं मुद्दों को अपना लिया है जिन मुद्दों के आशरे संघ और बीजेपी दोनों कांग्रेस को खारिज़ किया करते थे। मसलन, किसान की कर्जमाफी, न्यूनतम आय, बेरोजगारों को राहत, कॉर्पोरेट का विरोध वगैरह वगैरह। उधर मोदी कॉर्पोरेट प्रेम और पॉलिटिकल फंडिग को लेकर इतने आगे बढ़ चुके हैं कि बीजेपी कार्यकर्ताओं की पार्टी है, बीजेपी संगठन है ये सब गायब ही हो गया है। जो कांग्रेस ने ग़लती करी थी, मोदी आज वही ग़लती किए जा रहे हैं। राहुल गांधी को पप्पू साबित तो कर दिया, लेकिन हमें नब्ज पकड़नी होगी कि उस पप्पू ने बीजेपी कॉर्पोरेट पार्टी है उस दिशा में कई लोगों को सोचने पर मजबूर कर दिया है।

2014 के बाद 2019 में जो आसान होना चाहिए था, वो आज मुश्किल क्यों है? मंथन संगठन कर रहा है या फिर संगठन को अब आदेश लेने हैं, देने नहीं हैं?
वो इस बात को समझाने के लिए आगे कहते हैं कि, 2014 में सत्ता जीती तो फिर हिंदुस्तान का लोकतंत्र कैसे चला ये भी समझ लीजिए। 2019 में सत्ता हारती है तो बीजेपी का तंत्र क्या करेगा ये संघ और बीजेपी को समझना है। लेकिन लोकतंत्र में आरबीआई, ईडी, सीबीआई, चुनाव आयोग, प्रसार भारती, मीडिया सभी का चुनावी जीत के लिए इस्तेमाल करना और ख़ौफ़ की राजनीति करना, यही कांग्रेस की पहचान बन चुकी थी। बीजेपी की सत्ता भी तो वही कर रही है। राष्ट्रवाद अब उनका हथियार है। लेकिन आपको समझना होगा कि क्यों राष्ट्रवाद उनका हथियार है? वो विकास का नारा कहाँ गया? क्योंकि वहाँ कुछ बचा नहीं है बोलने के लिए? कांग्रेस संस्थाओं को सत्ता के आगे का रोड़ा समझती थी। मोदी सत्ता भी तो वही करती दिख रही है।

बनारस के मुद्दे पर वो कहते हैं कि, पिछली बार केजरीवाल की छवि और मोदी की छवि, दोनों की छवि टकराई। मोदी के बाद केजरीवाल को भी ढेरों वोट मिल गए। इस बार केजरीवाल दागदार है। लेकिन मोदीजी के सामने भी समस्याएँ खड़ी हैं। इस बार वो बनारस के बाद दूसरी कौन सी सीट पर दांव खेलेंगे यह देखने लायक होगा। मोदीजी आख़िरी दम तक हार नहीं मानते। हो सकता है कि वो दिल्ली से भी चुनाव लड़ ले। क्योंकि दिल्ली महज़ दिल्ली नहीं है। देखिए न, केजरीवाल ने दिल्ली जीती तो फिर क्या हुआ। दक्षिण या दूसरी जगह से केजरीवाल जीतता तो न्यूज़ नहीं बनता। दिल्ली से मोदीजी लड़े तो काफी असर होगा।

वो कह गए कि, ये कलयुग है। कलयुग में रामायण, महाभारत या गीता का पाठ संभव नहीं है। यहाँ ताक़त ही सब कुछ है। जब तक ताक़त है आप पर कोई उंगली नहीं उठाता। संघ और बीजेपी की ताक़त मोदीजी ही है। लेकिन ढंग से जीत नहीं मिली या फिर हार मिली तो फिर आगे कौन सा मोर्चा होगा ये कहना असंभव है। वो आगे बोल दिए कि, मुझे नहीं पता कि प्रज्ञा को उतारने के पीछे क्या विचारधारा है? कौन सा भविष्य है? क्या पता संघ हिन्दू आतंकवाद के ज़रिए चुनावी परीक्षण कर रहा हो। लेकिन हार के हालात में संघ और बीजेपी को ज़िंदा रखने का कोई प्लान किसीके पास है क्या?”

वो कहते हैं, संघ भीष्म की तरह तीर खाकर गिरने की तैयारी में है क्या? जीत मिलती है तो फिर मेरी सारी बातें बेकार हो जाएगी। लेकिन कभी न कभी तो हार मिलेगी। तब क्या? संघ की जो ताक़त बीजेपी को मिला करती थी, मौजूदा दौर में वो उलट हो चुका है। कल तक संघ सांस्कृतिक-सामाजिक कार्यक्रमों के ज़रिए राजनीतिक परीक्षण किया करता था। लेकिन उसे आज परीक्षण के लिए बीजेपी की ज़रूरत पड़ रही है!!! सच तो यह भी है कि कांग्रेस सत्ता के दौर में बीजेपी को हिन्दू आतंकवाद शब्द डरा नहीं रहा था। क्योंकि बीजेपी के पास संघ की ताक़त हुआ करती थी। बीजेपी को संघ की उस क्षमता पर भरोसा था, जिसमें संघ समाज को प्रभावित करने की ताक़त घारण किए हुआ था। बिना संघ की सक्रियता के बीजेपी की जीत मुश्किल होती थी। आज भी यही है, लेकिन बाल की रेखा जितना फर्क यह है कि स्वयंसेवक संघ या बीजेपी के लिए नहीं बल्कि मोदी सत्ता के लिए लड़ रहे हैं। संगठन व्यक्ति के लिए लड़ता है यह बुरी बात नहीं। लेकिन इस परिस्थिति को भी सोचना होगा।
वो आगे कहते हैं, सत्ता के लिए सबसे बड़ा डर यही होता है कि कल को उसके हाथ से सत्ता खिसक ना जाए। सत्ता बरकरार रखने के लिए सभी को जोड़ने के लिए कोई बड़ा डर दिखाना, ये कहाँ तक सफल होगा इसका कोई तथ्यात्मक सिरा ही नहीं है। डर और ख़ौफ़ को सत्ता हमेशा हथियार बनाती है। लेकिन डर और ख़ौफ़ ही बचा-खुचा हथियार रह जाए ये स्थिति विकट ही मान लीजिए। पारंपरिक तौर-तरीक़ों को खारिज़ करके नये तरीक़े से डर की परिभाषा को गढ़ने की नौबत आख़िरी लड़ाई में ही आती है।

मनी फंडिग का ज़िक्र करते हुए वे कहते हैं, हर कोई जानता है कि 2013 के बाद से कॉर्पोरेट फंडिग में जबरदस्त इज़ाफ़ा हुआ है। आलम ये रहा कि सिर्फ़ 2013 से 2016 के बीच 900 करोड़ की कॉर्पोरेट फंडिग हुई, जिसमें बीजेपी को 705 करोड़ मिले। इसी तरह 2017-18 में अलग अलग तरीक़े से पॉलिटिकल फंडिग में 92 फ़ीसदी तक बीजेपी को मिले। यहाँ तक कि 221 करोड़ के चुनावी बॉन्ड में से 211 करोड़ तो बीजेपी के पास गए। लेकिन जब बैंक में जमा पार्टी फंड दिखाने की स्थिति आई तो 6 अक्टूबर 2018 तक बीजेपी ने सिर्फ़ 66 करोड़ रुपये दिखाए। और जिन पार्टियों की फंडिग सबसे कम हुई वह बीजेपी से ऊपर दिखे। मसलन बीएसपी ने 665 करोड़ दिखाए और वह टॉप पर रही। तो सपा ने 482 करोड़ और काग्रेस ने 136 करोड़ दिखाए।

अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए वो कहते हैं, बीजेपी के पास अरबों रुपया कॉर्पोरेट फंडिग का आया। अगर उसके बैंक खाते में सिर्फ़ 66 करोड़ है, जो कि 2013 में जमा 82 करोड़ से भी कम है, तो इसके दो ही मतलब हैं। पहला, चुनाव में ख़ूब धन बीजेपी ने लूटाया है। दूसरा, फंडिग को किसी दूसरे खाते में बीजेपी के ही निर्णय लेने वाले नेता ने डाल कर रखा है। यानी कालेधन पर काबू करेंगे या फिर चुनाव में धनबल का इस्तेमाल नहीं होना चाहिए। इसे खुले तौर पर ख़त्म करने की बात कहते कहते बीजेपी संभालने वाले इतने आगे बढ़ गए कि वह अब खुले तौर पर बीजेपी के सदस्यों को भी डराने लगे हैं।

डराने लगे हैं वाले शब्द पर वो आगे बढ़ते हैं और कहते हैं कि, डराने का मतलब है कि बीजेपी के भीतर सत्ता संभाले दो-तीन ताक़तवर लोगों ने बीजेपी के पूर्व के कद्दावर नेताओं तक को एहसास करा दिया दिया है कि उनके बगैर कोई चूं नहीं कर सकता। या फिर जो चूं करेगा उसका क्या किया जाएगा। इस कतार में आडवाणी, जोशी या यशंवत सिन्हा सरीखों को शामिल करना ज़रूरी नहीं है। बल्कि समझना ये ज़रूरी है कि अभी जो सत्ता है उसके भीतर ताक़तवर वही हुए जिसकी राजनीतिक ज़मीन सबसे कमज़ोर थी!!! सीधे कहे तो हारे, पीटे और खारिज़ कर दिये लोगों को सत्ता ने कैबिनेट मंत्री बनाया!!!। और धीरे धीरे इसकी व्यापकता यही रही कि समाज के भीतर लुपंन तबके को सत्ता का साथ मिला तो वह हिन्दुत्व का नारा लगाते हुए सबसे ताक़तवर नज़र आने लगा।

वो आगे बढ़ते हैं, दरअसल हालात ऐसे बना दिए गए कि सत्ता से भागेदारी करते तमाम संस्थानों के प्रमुखों को भी लगने लगा कि मोदी हार गए तो उनके ख़िलाफ़ भी नयी सत्ता कार्रवाई कर सकती है। तो आख़िरी लड़ाई संवैधानिक संस्थाओं समेत मोदी सत्ता से डरे सहमे नौकरशाहों की भी है। क्या ये असरकारक होगी, कहना मुश्किल है। लेकिन खेल इसके आगे का है। इसलिए लास्ट असाल्ट के तौर पर इस चुनाव को देखा जा रहा है और संघ इससे हैरान-परेशान भी है।

संकट है या धर्मसंकट? या फिर सत्ता देश को जो बता रही है वो घर को भी समझा रही है? बदलाव हुआ है तो कौन सा हुआ है?
वो फिर एक बार संघ के ऊपर गर्व से कहते हैं कि, संघ राजनीति से प्रभावित नहीं होता बल्कि राजनीति को प्रभावित करने की क्षमता रखता है। लेकिन पहली बार संघ के सामने चुनौती है कि वे अपने मुद्दों पर कम बल्कि मोदी सत्ता के मुद्दों पर चुनाव में शिरकत करे। इसे आप धर्मसंकट ना समझे, लेकिन संकट तो है। खामोश रह नहीं सकते और बोलते है तो संघ का समाज नहीं लेकिन मोदी का विकास ही निकलेगा। वो आगे कहते हैं, जी ये ज़रूर है कि मोदी का विकास और संघ के मुद्दे, दोनों मिसमैच कर रहे हैं। वाजपेयी के काल में भी यही होता था, लेकिन फिर भी हम संभल गए थे। आज ये चुनौती उससे भी बड़ी है। लेकिन संगठन है, विस्तार है, संध के पास अनुभव है तो संभलने में दिक्कतें नहीं आएगी। समस्या बीजेपी के लिए है, जहाँ एक-दो के बाद दूसरे कोई नहीं हैं। जो हैं वो हारे हुए, पीटे हुए और बिना जनाधार के लोग हैं।

वो अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं, संघ के सामने दूसरा विकल्प नहीं है। क्योंकि फ़िलहाल जो स्थितियां हैं उसके मुताबिक़ दूसरा कोई नहीं है जो सत्ता दिला सके। लेकिन 2014 के बाद जो हुआ वो यही हुआ कि जिस रास्ते बीजेपी को चलना था उस रास्ते पर कांग्रेस चल पड़ी है और कांग्रेस की दुनिया को बीजेपी ने अपना लिया है। जो मोदी ने कहना था, वो राहुल गांधी कह रहे हैं और जो राहुल गांधी के बारे में कहा जा रहा था, मोदी वो बोल रहे हैं।

अपनी इस बात को समझाते हुए वे कहते हैं, कांग्रेस ने अपना पारंपरिक चेहरा बदल लिया है। ध्यान दीजिए कि कांग्रेस कॉर्पोरेट पर निशाने साध रही है। किसान कांग्रेस के मेनिफेस्टो के केंद्र में आ गया है। कांग्रेस ग़रीब-बेरोजगार और मजदूरों की आवाज़ बनने की कोशिशों में लगी हुई है। यूपी में सपा-बसपा को छोड़ अकेले चुनाव लड़कर वो अपने कार्यकर्ताओं के लिए ज़मीन तैयार कर रही है। दिल्ली में वो अपने बड़े नेताओं की सलाह नहीं मान रही। बल्कि इससे उलट वो अपने कार्यकर्ताओं के फीडबैक पर चलती दिख रही है। उधर बीजेपी कांग्रेस सरीखी बनती जा रही है। विजय माल्याजी को चोर नहीं कहना चाहिए, अंबानी के साथ रिश्ते, अडाणी का मसला, उद्योगपतियों के पुत्रों के साथ बीजेपी नेताओं के व्यवसायिक रिश्ते, अजीत डोभाल पर काले धन का कारखाना वाला मसला, नयी डी कंपनी हो या रफाल पर अनिल अंबाणी की मदद करने का इल्ज़ाम हो, देश छोड़कर भागने वाले व्यवसायी हो या फंडिग के मामले हो, बीजेपी उसी रास्ते चल पड़ी है। मोदी का कॉर्पोरेट प्रेम किसीसे छुपा नहीं है। उद्योगपति और सेना के जवान की समानता कर मोदी और शाह क्या कह गए सब जानते हैं। बीजेपी में भी गांधी परिवार की तरह ही मोदी-शाह ही सब कुछ हैं। राज्यों में परिवारवाद चल रहा है। उम्मीदवार और गठबंधन के सारे फ़ैसले स्वयंसेवकों या कार्यकर्ताओं के फीडबैक के आधार पर नहीं लिए जाते। बल्कि चौंकाने वाले गठबंधन करके स्वयंसेवकों और कार्यकर्ताओं को विरोधी तर्कों के सामने निहत्था छोड़ दिया जाता है। अरुण जेटली समेत सारे नेता, जो चुनाव हारे थे, उनकी पहचान अपने विभागों को लेकर नहीं बल्कि मोदी की छवि बेहतर बनाने को लेकर ज़्यादा है। हाँ, ये बात ज़रूर है कि अगर मोदी जीते और कांग्रेस हारी तो फिर उसे (कांगेस को) और ज़्यादा टूटने में देर नहीं लगेगी।

वो स्थिति को समझते हुए कहते हैं, आडवाणीजी की ज़रूरत किसी चुनाव में नहीं पड़ी। आडवाणी, जोशी, सिंह और दूसरे साइड लाइन हो गए। राजनीति में यही होता है। जिसकी ज़रूरत है वही हैं, बाकी नहीं हैं। लेकिन जीत के बाद का समय और हार के बाद का चिंतन, दोनों अलग अलग सिरे हैं। शिवराजसिंह चौहाण, रमन सिंह, वसुंधरा राजे सिंधिया, इन सबकी भी अबतक कोई ज़रूरत महसूस नहीं होती। कभी लगता है कि मोदी कांग्रेस को परास्त कर रहे हैं या ख़ुद बीजेपी को? लेकिन जीत के आगे सारी चीज़ें शून्य हैं। समय के हिसाब से राजनीति चलती है। संघ को राजनीति से लेना-देना है तभी तो वो भी समय के हिसाब से बदल रहा है।
वो आगे कहते हैं, लगभग तमाम राज्यों में बीजेपी का कोई चेहरा नहीं है। मोदी ही चेहरा है। मोदी के नाम पर ही वोट आते हैं। इस बीच मंथन तो यह भी होना चाहिए कि काम पर आते हैं क्या? राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ में चुनावी हिसाब-किताब मुनाफ़ा आधा दिखाता है। यूपी में इससे भी आगे हो सकता है। बिहार में नीतीश चेहरा थे, लेकिन है नहीं। लोकसभा चुनाव प्रचार में उन्हें किसीने भाषण देते नहीं सुना। वही जनाधार वाले नेता थे, जो आज चुप बैठा दिए गए हैं। जो बोल रहे हैं उनमें से किसीके पास अपना कोई जनाधार नहीं है। राजनाथसिंह लखनौ की सीट तक सिमट चुके हैं। सुषमाजी पहले से क्विट कर चुकी हैं। दूसरों को सारे देश में घुमाया जा रहा हैं।

बीच में वो चुनावी हिसाब-किताब की बात करने लगते हैं, राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तरप्रदेश, बिहार में हिसाब आधा हो गया तो फिर अपने बूते पर सत्ता मिलेगी क्या? बीजेपी तो चुनाव लड़ ही नहीं रही। चुनाव मोदी और शाह लड़ रहे हैं! संघ बीजेपी को जिताने में नहीं लगा, वो तो मोदी – शाह के सिर सहरा बंधवाने में लगा है! तभी तो हमारे ही स्वयंसेवक लिखते हैं कि मैं और मेरा परिवार मोदीजी को वोट कर आया।

वो कुछ आगे का भी सोच लेते हैं, बीजेपी सत्ता मोदी–शाह की है। अगर माइनस मोदी करने की ज़रूरत आन पड़ी तो क्या होगा? कौन होगा? मंथन तो यह करना ज़रूरी है कि मंडल-कमंडल के दौर में जो ज़मीन कांग्रेस गंवा चुकी थी, एक-दो लोगों की नीतियों ने वही ज़मीन कांग्रेस को वापस लौटा दी है। वो कुछ यूं कहते हैं कि, 2014 का चुनाव लहर वाला चुनाव था। 2019 का चुनाव संघ के लिए सबसे मुश्किल दौर का सबसे मुश्किल चुनाव है।

स्वयंसेवक कह गए कि कांग्रेस तो 2014 में ही हार चुकी थी, बीते पाँच बरस में तो बीजेपी और संघ हार रहे हैं, उनकी इस बात में आकलन है या महज़ भावना?
वो आकलन से होते हुए भावना की तरफ़ गए या आकलन की तरफ़ ही थे यह हमें नहीं पता, लेकिन वे बोलते गए कि, मोदीजी कांग्रेस को तो 2014 में ही परास्त कर चुके थे। बीते पाँच बरस में वे बीजेपी और संघ परिवार को ही हरा रहे थे। इस चुनाव में कांग्रेस के साथ साथ बीजेपी और संघ से भी संघर्ष है। बहरहाल, संघ हो या बीजेपी हो, जो है उसे स्वीकार करने के अलावा कुछ नहीं बचा है। वो हार की स्थिति से चिंतित ज़्यादा दिखते हैं, कहते हैं, मोदी मायनस बीजेपी की धारणा कर लीजिए। मुश्किल है कि उनके बिना कोई सत्ता दिला नहीं सकता। साथ ही उन्होंने ही सत्ता के सामने संकट खड़ा किया है। सोचिए कि जिस प्रकार का बहुमत मिला था, जिस प्रकार की शैली थी, ऐसे सुवर्ण समय में कोई एक-एक वोट के लिए क्यों तरस रहा है? ऐसा क्यों है कि बीजेपी ढंग से जीत पाएगी क्या ये सवाल उठ रहा है? अगर जीतते है तो संकट और बड़ा होगा। हारते है तो उससे भी बड़ा।

वो कहते हैं, बीजेपी माइनस मोदी-शाह की आवाज़ का नज़ारा सोच लीजिए। मौजूदा समय में बीजेपी के जो हालात है, दूसरे कतार का कोई नेता है ही नहीं। जो कैबिनेट मंत्री हैं, जो अख़बारों में चमकते हैं, जो मीडिया में आते हैं, उन सबमें से किसीके पास अपनी कोई राजनीतिक ज़मीन है ही नहीं। कह सकते हैं कि जो कहीं से अपने नाम पर जीत नहीं सकते उन्हें ही ताक़त दी गई! वे सारे मोदी के चेहरे में ही अपनी ताक़त देखते हैं या दिखाते हैं। आडवाणी - जोशी - सुषमा - राजनाथ के दर पर लौटने की नौबत आएगी तो क्या होगा?”

बीजेपी के इतर संघ के बारे में वो ज़्यादा भावुक है ऐसा लगा और कहने लगे कि, फिर तो संघ को सांस्कृतिक-सामाजिक तौर पर अपनी ज़मीन ढूंढने निकलना पड़ेगा। उस स्थिति में सबसे बड़ा संकट यही होगा कि कौन सी सड़क पकडे? पारंपरिक या नई?”

इस बीच एक बात वो भी निकली जब किसी वरिष्ठ पत्रकार ने उस वरिष्ठ को पूछ लिया कि, अहमदाबाद में ### भाई मिले थे, कह रहे थे कि मोदी कभी संघ के प्रचारक नहीं रहे। ओटीसी की कोई परीक्षा उन्होंने पास नहीं की। दूसरा, भोपाल से ### कुमार यानी ### जी, जो किसान संघ से जुड़े हैं, कह रहे थे कि कांग्रेस राक्षस है, लेकिन इस बार बड़े राक्षस को हराना है। दशकों से संघ से जुड़े रहे, अभी बीजेपी छोड़ कांग्रेस में शामिल हो चुके जयपुर के ###  तिवारी से बात हुई। कह रहे थे कि जिस तरफ़ मोदी-शाह निकल चुके हैं, बीजेपी-संघ की बात करना ही अपराध हो गया है। उस पत्रकार की उस व्यक्ति के साथ की गई इस बात का ज़िक्र मैंने इनसे किया और इस बारे में कुछ स्पष्टीकरण के लिए कहा।
वो तिलमिला उठे, लेकिन संभलते हुए कह भी गए कि, मोदीजी को ऐसा नहीं करना चाहिए था। मतलब कि वो देश के प्रधानमंत्री है। उनकी शिक्षा के बारे में जो भी विवाद हो, अंतिम सिरा तो यही है न कि उनकी शिक्षा के ऊपर कोई अंतिम सिरा ही नहीं है!!! मोदी और बीजेपी को शिक्षा के इस विवाद पर पूरे तथ्यों के साथ सफाई दे देनी चाहिए थी। ताकि ये मसला बीजेपी और संघ के लिए बारबार उठनेवाला सवाल ना बने। उन्हें अपनी शादी की जानकारी भी पहले दायर किए गए हलफनामों में देनी चाहिए थी। पहले नहीं दी और 2014 में दी। देश तो यही कहेगा न कि वो इसे छुपा गए। कई सारी बातें हैं जो उन्हें अंतिम सिरे तक पहुंचानी चाहिए थी। क्योंकि कोई हर सुबह उनसे सवाल नहीं पूछता। सड़कों पर, नुक्कड़ों पर हमींको सिरदर्द झेलना पड़ता है। वो उस सत्तानीति से भी खफा दिखे, और कहते गए कि, संघ जाति की राजनीति नहीं करता। धर्म की ज़रूर करता है। मोदी को हर चुनाव में ख़ुद को कभी पिछड़ा, कभी ग़रीब, कभी चायवाला, कभी ये, कभी वो, ये सब कहकर ख़ुद को बेवजह पीड़ित बताकर भावनाएँ लूटनी नहीं चाहिए थी। क्योंकि इसमें भी वही हाल है। किसीमें हिम्मत नहीं है कि उनसे जाकर इस बारे में पूछे। लेकिन मैंने कहा वैसे, नुक्कड़ों पर हमींको इससे रुबरु होना पड़ता है। वो कह गए कि, तिवारी ने कहा इससे मालूम तो यही पड़ता है कि बीजेपी या संघ की जो छवि थी, उसमें मोदी-शाह और उनके साथ जुड़े नये नये नेताओं ने मजा थोड़ा किरकिरा किया है। ज़रूरत से ज़्यादा आक्रमकता राजनीति में लंबा साथ नहीं दे सकती। लोग अब पूछते हैं कि कांग्रेस ने क्या किया ये तो सभी को पता है, बीते पाँच बरस का ब्यौरा किससे मांगे? लोग उबने लगे हैं ये संघ और बीजेपी को समझना पड़ेगा।

वो ताज़ा मामले में शिकायत वाले भाव से कहते हैं, गुजरात को भी नहीं पता था कि वो चायवाले है। गुजरात को पता नहीं था कि उनकी पत्नी का नाम क्या है। गुजरात को नहीं पता था कि उन्होंने एमए करने के बाद भीख मांगी थी। ये सब क्यों? सवाल उनसे नहीं पूछे जाते, इसलिए?”

फिर वो कहने लगे कि आपने दूसरी चीज़ों को इसमें मिला दिया। फिर वो अपनी मूल बात पर लौटते हुए कहने लगे, हम बात कर रहे थे सड़क के उस संकट की। मैं उनकी इस बात से सहमत हूँ कि कभी कभी लगता है कि मोदी-शाह अपनों को पटखनी देते देते इतने आगे निकल चुके हैं कि उन्हें कांग्रेस नहीं हराएगी। बल्कि वो समाज ही उन्हें हरा देगा, जिसके साथ जुड़े रहनी मसक्कत संघ ने हमेशा की है। वो कहते रहे कि, संघ ने ही बीजेपी को राजनीतिक ज़मीन दी, जीत दी, सत्ता दी, सत्ता संम्हालने में मदद भी की। दोबारा संघ बीजेपी की जीत के लिए उतर चुका है। हज़ारों स्वयंसेवक हैं और अभी चौथा चरण ख़त्म हुआ है। रिपोर्ट ठीक नहीं है तो दूसरे हज़ारों स्वयंसेवकों की मदद बीजेपी लेने जा रही है। लेकिन मैंने कहा वही मंथन का विषय है कि संघ इस बार मोदी को जीता रहा है या बीजेपी को? मैंने पहले ही कहा कि हमारे ही स्वयंसेवक मोदी को वोट कर आए ऐसा लिख रहे है।

वो कहते गए, 2014 में जो बीजेपी थी, आज 2019 में वो बीजेपी नहीं है। दरअसल, संघ भी तो थोड़ा-बहुत बदल चुका है। बदलाव की बड़ी वजह विचारधारा का गायब हो जाना है। एजेंडा बदल जाना भी वजह है। संघ समाज से जुड़ता है। मोदी-शाह किससे जुड़ रहे हैं पता नहीं। वो जिस तरह से प्रचार में निकले हैं, क्या यह प्रचार है? लगता है कि वे शिकार पे निकले हैं। संघ का स्वयंसेवक बड़बोला नहीं होता, मुश्किल यह है कि बीजेपी का कार्यकर्ता बड़बोला हो चुका है। और बीजेपी तथा संघ में बहुत ही कम अंतर लोग महसूस करते हैं। ऐसे में स्वयंसेवक बिना बोले ही बड़बोला करार दिया जा रहा है।

भावना हो, आहत होना हो या इनमें से कुछ नहीं बल्कि जागरूकता हो, राजनीति के तानेबाने उसी चौखट से समझना दिलचस्प है, स्वदेशी का नारा और विदेशी निवेश की उत्सुकता के बीच का सफ़र
लगा कि जो बदलाव हो रहा है उससे वो आहत थे। लेकिन संघ और बीजेपी का जो सफ़र था, जो उनके लफ्जों से छलक रहा था, उनके आहत होने के दुख के साथ साथ कुछ चीज़ें जानकारी भी देती जा रही थी। बीजेपी के 40 साल पूरे होने के उपलक्ष में कहीं लिखा हुआ पढ़ा था कि – बीजेपी आज क्या है? और बीजेपी का मतलब क्या था? सबके अपने अपने मत होंगे, तर्क होंगे। बीजेपी आज क्या है वो नौजवानों को पता है। लेकिन क्या थी, बीते कल का झरोखा समझना भी ज़रूरी है। वाजपेयी की वो साया, जहाँ हर कोई आने को तैयार था। उनकी सादगी हर किसीका स्वागत करती थी। वाजपेयी से इतर आडवाणी, उनकी मनन मुद्रा हंसी-ठहाके के बीच गंभीर खामोशी ओढ़ लेती थी। मुरली मनोहर जोशी का चिंतन, जो बिना किसी रेफरेंस के बात नहीं करते थे। भैरो सिंह शेखावत का वो गले लगाने का अंदाज़। विरोधियों को शालीनता से लेकिन झटके के साथ जवाब देती हुई सुषमा स्वराज। खुराना का बात बात पर ठहाके लगाना। ज्योर्ज की उग्रता हो या फिर जसवंत सिंह की कठोरता। राजनाथ का वाजपेयी की तरह बोलना और चलना। 2 सीटों से लेकर 1989 में 85 सीटों पर कब्जा करने का जश्न। 1990 में आडवाणी की रथयात्रा और उग्र हिन्दुत्व का वो दौर। फिर हिन्दुत्व को दूसरे हाथ की मुठ्ठी में भींचकर उदारवादी वाजपेयी की अगुवाई में बीजेपी की नयी यात्रा। 13 दिन में भी बहुमत जुटा ना पाने के समय 1996 में वाजेपयी का वो कथन – सब कहते हैं कि वाजपेयी तो अच्छा है, पर बीजेपी ठीक नहीं है। वाजपेयी सत्ता के ख़िलाफ़ दत्तोपंत ठेंगडी का स्वदेशी राग तथा अर्थनीति के तौरतरीक़ों पर वाजपेयी का खुल्ला विरोध। वाजपेयी द्वारा संघ को नसीहत देना और धर्मसंसद में वाजपेयी सत्ता के ख़िलाफ़ आक्रोश। ये वो दौर था जब 11, अशोका रोड पर वाजपेयी या आडवाणी की आंखों में आंखें डालकर बोला जा सकता था। अब नया हेडक्वार्टर सात सितारा वाला पाँच मंजिला है, जहाँ देखना हो तो सिर उठाना पड़ता है।

उग्र हिन्दुत्व के दम पर भी बीजेपी 1992 के बाद खास सीटें जुटा नहीं पाई। 1998-99 में 182 सीटों पर सिमटने के बाद आडवाणी को भारत के लोकतंत्र का मिज़ाज समझ में आने लगा। तभी तो वो ब्लॉग में मोदी को सीख दे गए कि भारत का लोकतंत्र न सिर्फ़ अनेक रंगों में रंगा है, बल्कि यहाँ की हवाओं में भी लोकतंत्र समाया हुआ है। कहते हैं कि वाजपेयी सत्ता के ख़िलाफ़ आडवाणी ने भी कुछ चालें चली थी। आडवाणी प्रधानमंत्री बनना चाहते थे। वाजपेयी ने उनसे पार पा लिया। लेकिन इस बीच आडवाणी को पता नहीं चल पाया कि उन्होंने जिसके सिर पर हाथ रखा है वो शख़्स उनसे भी पार पा लेगा। इस नयी परंपरा के बीच यह भी मुमकिन है कि कोई मोदी को भी हाशिये पर धकेल दे। पत्रकार विजय त्रिवेदी की किताब हार नहीं मानूंगा के मुताबिक़ सन 2000 में जब वाजपेयी अमेरिका यात्रा पर थे तब उन्हें पता चला कि नरेन्द्र मोदी भी अमेरिका में है। किताब के मुताबिक़ वाजपेयी मोदी से मिले और कहा कि ऐसे भागने से काम नहीं चलेगा, दिल्ली आओ। फिर दिल्ली... फिर शंकरसिंह के साथ मिलकर प्रसार में जुटना... फिर गुजरात का भूचाल... केशुभाई की जगह मोदी... फिर गुजरात... गोधरा कांड... फिर वाजपेयी की राजधर्म निभाने की सलाह... कथित रूप से आडवाणी का मोदी को बचा लेना... गुजरात के स्थानिक बीजेपी दिग्गजों को हाशिये पर धकेल कर एकसूत्रीय सत्ता की शुरुआत... पॉलिटिकल फंडिग और उद्योगपतियों से निकटता... आडवाणी को ही धकेलकर फिर दिल्ली तक पहुंचना...। बीजेपी का ये सफ़र इससे इतर भी है, इसके अंदर भी है। लाजमी है कि कइयों ने अपना खून बहाया, पसीना बहाया, ज़िंदगियाँ दी। कभी 2 सीटों से लेकर आज बहुमत तक पहुंचना और फिर धड़ाम से 40 से भी ज़्यादा दलों के पैर पकड़ना। कहीं लिखा हुआ पढ़ा तो एक नज़र में मेरे बचपन से लेकर अब तक के उस सफ़र का सफ़र भी आँखों के सामने से गुज़रने लगा।

हम उनकी बातों पर लौटते हैं, जो कहते हैं, बीजेपी सत्ता के लिए जिस तरह से मोदी की आगोश में लिपटी है और संघ ने जिस तरह से मोदी को मान्यता दी है, स्थितियां यह बनी कि कांग्रेस को पहली बार समझ आ गया कि हिन्दू वोटों में सेंघ लगाना ज़रूरी है। सत्ता के बगैर किसी नेता की पहचान नहीं होती। बीजेपी के लिए मोदी ही सत्ता है। संघ को भी लगता है कि सत्ता के बगैर उसके सामने मुश्किल होगी। और जब सत्ता का मतलब ही मोदी है, तो फिर बात उनकी ही होगी।

वो कहते हैं, जब भारत की इकोनॉमी मजबूत नहीं थी तब इंदिरा गांधी अमेरिका से दो-दो हाथ करने को तैयार थी। आज जब भारत की इकोनॉमी उस दौर से काफी बेहतर हो चली है, भारत अमेरिका की कॉलोनी बनने को तैयार है। गुटनिरपेक्ष आंदोलन को हमींने ख़त्म कर दिया। यानी जिसके ज़रिए हम दुनिया के ताक़तवर देशों के साथ सौदेबाजी या जवाब देने की स्थिति में होते थे, उस ज़रिए को हमने रोक दिया। पड़ोसियों के साथ अच्छे रिश्ते स्थापित किए बगैर आप आगे कैसे बढ़ सकते हैं? विदेश नीति, इकोनॉमी से लेकर तमाम नीतियों में पड़ोसियों से अच्छे रिश्ते ही महत्व रखते है। इस दिशा में काम किया गया, लेकिन बिना विज़न के। कोई स्पष्ट नीति ही नहीं थी। आज ज़मीनी हालात क्या है सब जानते हैं।
वो इस बात पर आगे कहते हैं, विदेश नीति का मतलब बिजनेस हो चला है। भारत ख़ुद को बाज़ार मानकर डॉलर के सामने ख़ुद का ही नुक़सान कर रहा है। क्या आप स्वदेशीकरण की तो बात नहीं कर रहे। इस दलील पर वे कहे गए, जी बिलकुल। जरा सोचिए, हमारे वो रक्षा कार्यक्रम कहाँ हैं, जो बिना नारों के भी चुपचाप अपना काम किया करते थे। हमारा मिसाइल कार्यक्रम किस राह जा रहा है? हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड को कभी इतना कमज़ोर नहीं दिखाया गया, जितना मोदी सत्ता के दौर में कैबिनेट मंत्रियों ने दिखा दिया। मुश्किल यह नहीं है कि हम दुनिया की किस ताक़त के साथ खड़े हैं। मुश्किल यह है कि हमारी ताक़त क्या है। पाकिस्तान अमेरिका को छोड़ चीन की कॉलोनी बन चुका है। नेपाल, बांग्लादेश, मालदीव और अब तो श्रीलंका में भी संसद को इसलिए भंग किया जा रहा है, ताकि चीन की परियोजनाओं को आगे बढ़ाया जा सकें। वर्ना पूरे देश में गुजरात पहला है, जो चीन से सबसे ज़्यादा रॉ मटेरियल लाता है। भारत की विदेश नीति बिजनेस की राह चलकर डगमगा क्यों रही है।

वो ताज़ा मामले पर कह देते हैं कि, मसूद अजहर पर बैन कामयाबी है, लेकिन इसमें अल-कायदा का ही ज़िक्र क्यों है? जैश का क्यों नहीं? पुलवामा पर पाकिस्तान और चीन की शर्तें आख़िर मानी ही क्यों? ईरान से नाता तोड़कर कितनी क़ीमत चुकाई? चीन की जिन योजनाओं का विरोध भारत करता था, उस पर चीन ने भारत को मनवा लिया, पुलवामा को भी छोड़ने को तैयार हुआ भारत और मसूद अजहर पर अल-कायदा के संबंध में अमेरिका ने बैन लगवाया। ये सारा खेल है तो खेल इतना लचीला क्यों है? सीधा क्यों नहीं? बालाकोट में मसूद अजहर मर चुका था, मीडिया के ये रिपोर्ट सबको याद है। वो मीडिया अब अजहर बैन का एपिसोड सूट करता है! कहना यही है कि सत्ता ने हर मामले में जो किया, आख़िरकार सवाल उठ़े तो कोई आगे नहीं आया। आगे सवाल उठेंगे तो कौन आएगा? जो सत्ता अब है वो आगे होगी तो फिर जवाब की नौबत नहीं आएगी, क्योंकि वो जवाब का जवाव सवाल से देते हैं, जवाब से नहीं।

वो कुछ हटकर आगे बढ़ते हैं, सत्ता से सवाल पूछना चाहिए कि वो ऐसे मुद्दे क्यों फैला रहे हैं, जिनका कोई आधार ही ना हो। उधर राजनाथ कह देते हैं कि मुझे नहीं पता कि लव जिहाद क्या है। इधर पूरी पार्टी लव जिहाद पर उग्र है। राजनाथ देश के गृहमंत्री हैं। वो कुछ और कहते हैं, पार्टी कुछ और ही कहती है!!! हो सकता है कि राजनाथ अपनी उदारवादी छवि को नुक़सान पहुंचाना नहीं चाहते। लेकिन विज़न क्या है? क्या मीडिया को गोद में बिठा लेने से लोग विज़न की बात भूल कर टेलीविज़न ही देखते रहे, यही भविष्य के लिए विचारधारा है?”

मीडिया को लेकर वो कहते हैं, मीडिया की भूमिका क्या है? सत्ता कोई भी हो, अपने बोस के आगे जाकर यही कहना कि मैं एड ले आया। सेना को लेकर स्टैंडिंग कमेटी की रिपोर्ट को मीडिया ने नहीं दिखाया। खंडूरीजी और जोशीजी ने सेना को लेकर रिपोर्ट में क्या लिखा है? दुनिया के अख़बारों ने छापा, हमारे यहाँ बात नहीं हुई। सेना भी हालात समझ रही हैं। रिपोर्ट संसद में रखी जा चुकी है, लेकिन इसकी सूचना देश को नहीं है। तथ्यों की जानकारी लोगों तक पहुंच ना पाए यह हर सत्ता की ख्वाहिश होती है। लेकिन उससे उलट दूसरी ही ग़लत जानकारी लोगों तक पहुंचा दी जाए, और फिर जब ज़मीनी सच मुंह फाडे खड़ा होगा, तो फिर आपके विज़न पर सवाल उठेंगे। तब कोई एक-दो से सवाल नहीं पूछेगा। सवाल पार्टी से और संघ से पूछे जाएंगे। नीति यही रही कि सवाल के जवाब ही नहीं देने, तो फिर घीरे धीरे छवि उसी कांग्रेस सरीखी बन जाएगी, जिसे 2014 में लोगों ने सिरे से नकार दिया था।
वो कह देते हैं, जंतर-मंतर पर पूर्व सैनिकों को पीटा गया ये कौन सा राष्ट्रवाद था ये आज भी लोग हमसे पूछ लेते हैं। उस घटना पर संघ की चुप्पी से संघ पर भी सवाल उठे थे। एक विशेष तबका आज भी उस शर्मनाक घटना को लेकर नाराज़ है। ओरोप पर आज भी वो सैनिक धरणे पर है। 32 साल तक सेना में रहे रिटायर्ड कैप्टन राजेन्दर क्यों पीएम को इतनी सख़्त नसीहत देते दिखते हैं। पहली सर्जिकल स्ट्राइक के बाद पर्रिकर को ये कतई नहीं कहना चाहिए था कि ये संघ की ट्रेनिंग का नतीजा था। उस बयान ने हमें बहुत परेशान किया था। व्यापारी का काम सैनिकों से ज़्यादा मुश्किल होता है, हम नेता सैनिकों से ज़्यादा मुश्किलों में होते हैं... ये दोनों बयान नेतृत्व ने ही तो दिए थे। क्या क्या नहीं सुनना पड़ा है हमें देश से। अब तो पुलवामा के शहीदों के परिजन ही जांच की मांग कर देते हैं। ये दिल मांगे मोर पर कारगिल हीरो के परिवार ने ही तो मोदी को चिठ्ठी लिख दी थी। सर्जिकल स्ट्राइक के हीरो हुड्डा कहने लगते हैं कि सैन्य कार्रवाई का यूं राजनीतिकरण मत करिए। हो सकता है कि कांग्रेस को हुड्डा के रूप में अपना अजित डोभाल मिल जाए। लेकिन मोदी की सेना, मेरी एयरफोर्स जैसे स्तर तक नहीं जाना चाहिए था। सेना से जुड़े कई लोग नाराज़ हैं। सबको पता है कि मनमोहन काल में सर्जिकल स्ट्राइक हुए थे। लेकिन सत्ता का यह कहना कि नहीं, उस वक्त सर्जिकल स्ट्राइक नहीं हुए थे। सेना के साथ इस तरह की राजनीति क्यों?” वो कहते हैं, हर ग़लती का जवाब यह नहीं हो सकता कि कांग्रेस ने ये किया था। ये जवाब हमारे समर्थकों को अच्छा लगता है। लेकिन पिछली बार हमें 31-32 फ़ीसदी वोट मिला था लोकसभा में। हमें ये क्यों नहीं समझ आ रहा कि 68-69 फ़ीसदी लोग हमसे नहीं जुड़े थे। ऐसा तो नहीं है कि हम 30 फ़ीसदी को ख़ुश करने के लिए 70 फ़ीसदी की नाराज़गी मौड़ ले रहे हैं।

वो कहते हैं, आप ही देख लीजिए। कोई भी संस्थान हो, चाहे वो संवैधानिक हो या सरकारी हो या अर्धसरकारी हो या निजी हो। तमाम जगह वही लोग स्थापित है जिसका ख़ुद का कोई जनाधार नहीं है, साथ ही वो सत्ता के क़रीब है। वहाँ क्या काम होगा ये सोच लीजिए। ये सब कांग्रेस ने किया था। तो क्या उसने जो किया था वही दोहराना है? जब संशोधन का काम उसी लोगों को दिया जाए जो अपने रिश्तेदार है या सत्ता के क़रीब है, तो फिर कौन सा संशोधन आएगा ये सोच लीजिए। आगे सोचिए कि उससे कौन सी सोच देश में विकसित होगी? जाहिर है, सोच वही ज़िंदा रहेगी जो सत्ता की सोच है।

वो कुछ गुस्से के भाव से कहते हैं, बीजेपी और संघ दोनों के पास बुद्धिजीवी हैं। लेकिन सत्ता को लगता है कि वो या तो कांग्रेसी है, या वामपंथी या फिर नरम हिन्दुत्व वाले हैं। इसी शून्यता को भरने के लिए सत्ता का कोर्ष बीजेपी बदलने लगी है। कभी चैप्टर बदलता है तो कभी पूरा का पूरा सिलेबस। नई नई लकीरें खींचकर ख़ुद को ज्ञानी कैसे मनवा ले, सारी मेहनत इसीकी तरफ़ जाती है।

वो स्वदेशी वाले मुद्दे पर लौटते हैं, कहते हैं, संघ सांस्कृतिक मूल्यों और भारत के स्वर्णिम इतिहास को समझाता है। संघ अपने ही प्रधानमंत्री की आलोचना करने की ताक़त देता है। संघ ज़मीन से जुड़े तबके के साथ खड़ा होता है। मजदूरों, किसानों के साथ जीता है संघ। स्मार्ट सिटी के बजाय स्मार्ट विलेज संघ की मूल विचारधारा है। संघ तक्षशिला-नालंदा की बात करता है, सेवन स्टार निजी शिक्षा संस्थानों की नहीं। गुजरात में फिस का मामला जिस तरह चला, लटका और लोगों की नाराज़गी आई, पहले समझ जाना चाहिए था। पेप्सिको ने गुजरात के किसानों पर मामला दर्ज किया, विवाद हुआ और फिर केस हटवा लिया। लेकिन इससे हासिल क्या हुआ? मीडियम स्केल इंडस्ट्रीज के साथ संघ खड़ा होता था। लेकिन वो लोग क्यों परेशान हैं? काशी को संघ काशी ही बनने देता तो ठीक था, क्योटो बनाने की ज़रूरत ही क्या थी? काशी को क्योटो बनाना है, घोलेरा को शंघाई। तो फिर स्वदेशी का राग है कहाँ?”
बुलेट ट्रेन वाले मसले पर वो कहते हैं, जापान के राष्ट्रपति आबे को गंगा आरती करवाने मोदीजी ले गए थे। ये दो राष्ट्रों के नेताओं के बीच की निजी और सांस्कृतिक निकटता दर्शाने का प्रयास था। लेकिन ऐसा क्यों है कि वही आबे मोदी के क़रीबी रहे एक शख़्स से जानकारी हासिल करना चाहते है कि आख़िर मोदी सत्ता बुलेट ट्रेन परियोजना को लेकर क्या सोचती है। ये वही शख़्स था जो मोदी को उस वक्त जापान यात्रा पर ले गया था, जब अमेरिका ने उन्हें वीजा देने से इनकार किया था। बुलेट ट्रेन परियोजना नॉर्थ ईस्ट से मुंबई तक की थी, उसे मुंबई से अहमदाबाद कर दिया गया। काशी को क्योटो बनाने की भी योजना थी। बुलेट योजना और काशी क्योटो वाली योजना कागजों पर उतर चुकी थी, लेकिन अब कहीं फंस चुकी है।

वो इन दो योजनाओं को मिक्स करके कहते हैं, पुलिस और प्रशासन आनन-फानन में बिना सोचे-समझे भौगोलिक तौर पर साफ-सफाई करवाने लगे। राजनीतिक बिचौलिये क्योटो-क्योटो कहते हुए वसूली में लगे हैं। जब उनसे पूछा गया कि मोदी के क़रीब रहा वो शख़्स, जो मोदी को जापान ले गया, वो मोदी के क़रीब है, आबे के क़रीब है, तो फिर दिक्कत क्या है? वो बोले, परेशानी यह है कि पीएम बनने के बाद उसे अपने से दूर कर दिया गया। जब सीएम थे तो ज़रूरत थी, पीएम है तो फिर पीएम की सबको ज़रूरत होती है, पीएम को किसीकी थोड़ी होगी?” वो कहते हैं कि उस शख़्स के संपर्क जापान ही नहीं, दुनिया के दूसरे देशों तक भी है। उनका नाम भी दूसरे मंचों पर लिखा गया है। लेकिन हम उस अध्याय को छोड़ ही देते हैं।

वरिष्ठ स्वयंवेक महोदय कहते हैं, रिजर्व बैंक का तीन लाख करोड़ रनिंग में आ गया तो महंगाई तो बढ़ेगी ही। ये ज़रूर है कि सरकार उस रिजर्व का इस्तेमाल कर सकती है। लेकिन कब? जब सब डामाडोल हो। तो फिर सब ठीक ही है ऐसा क्यों दिखाया जा रहा है? अगर सब डामाडोल है तो जनता को परीक्षण करना है। नौकरशाह तो सत्ता के साथ ही रहेंगे। उन्हें अगली सरकार के साथ भी काम करना है। वो कहते हैं, मोदी सत्ता शुरू से ही चुनावी मोड में चल रही है। राज्यपालों, संवैधानिक संस्थान इन सबको अपने अनुकूल बनाने का काम कांग्रेस किया करती थी। बीजेपी इसका विरोध करती थी। आज बीजेपी वही काम कर रही है और कांग्रेस विरोध कर रही है। लेकिन जनता का परीक्षण भी तो एक सत्य है। जो काम वो जापान वाला शख़्स कर रहा था, वही काम अजित डोभाल और राम माधव इंडिया फाउंडेशन बनाकर करने लगे। जिसमें पर्रिकर भी जुड़े और दूसरे मंत्री भी।

पतंजलि, रामदेव, ट्रस्ट और स्वदेशी सियासत तथा विदेशी आश, मिथ्या है या फिर कुछ और?
वो पतंजलि पर भी अपनी राय रख देते हैं। कहते हैं, भारत स्वाभिमान ट्रस्ट को काले धन के ख़िलाफ़ आंदोलन के बाद उछाल मिली। बाबा रामदेव का अभियान राजनीतिक और मार्केटिंग, दोनों नज़रिए से कमाल का रहा है। मनमोहन सिंह के दौर में जिस तरीक़े से राजनीतिक मकसदों के साथ बाबा दिल्ली पहुंचे, उन्होंने दिल्ली की सत्ता बदलवाने में अपना बड़ा योगदान दे दिया। सत्ता बदली तो बाबा भी बदल गए। लेकिन जिस तरह से भारत स्वाभिमान ट्रस्ट को उसके बाद उछाल मिला, संघ के सामने संघ की ही विचारधारा के रूप में एक नया संगठन खड़ा होते हुए नज़र आने लगा। इस खेल की डोर किसके हाथ में है ये समझने में देर नहीं लगेगी। ये वाक़ई बड़ा पेंच है कि संघ समेत संघ के सैकड़ों संगठन खड़े हैं तो फिर नया संगठन खड़ा करने की ज़रूरत क्या है?”

वरिष्ठ महोदय ने बहुत कुछ कहा इस पर जिसे लिखा नहीं जा सकता। लेकिन कहीं पर ये ज़रूर लिखा गया है कि, सियासत की उस बारीक लकीर को भी समझना होगा कि बाबा रामदेव अब भ्रष्टाचार के मुद्दे पर खामोश क्यों हो गए? बाबा रामदेव जिस भारत स्वाभिमान आंदोलन की अगुवाई करते है जब उसका नारा ही विदेशी कंपनियों का सौ फ़ीसदी बॉयकॉट है तो फिर वह मोदी सरकार के ख़िलाफ़ हल्ला बोल के हालात में क्यों नहीं आते? और प्रधानमंत्री मोदी जब दुनिया में घूम घूम कर शिक्षा और स्वास्थ्य सेक्टर को भी विदेशी हाथों में देने की वकालत करते हैं तो फिर बाबा रामदेव, जो स्वदेशी शिक्षा और स्वदेशी चिकित्सा का नारा लगाते हैं तो सरकार का विरोध क्यों नहीं कर पाते? असल में बाबा रामदेव के भारत स्वाभिमान ट्रस्ट के पन्नों को खोल कर देखे तो विचारों के लिहाज़ से आरएसएस की सोच के काफ़ी क़रीब नज़र आएगा। यानी अधिकतर क्षेत्रों में तो संघ और स्वाभिमान ट्रस्ट एक सरीखे लगेंगे। दोनों के बीच अंतर सिर्फ़ हिन्दुत्व को लेकर ही है।

संघ हिन्दुत्व को हिन्दु राष्ट्र के तौर पर भी देखता समझता है और बाबा रामदेव का स्वाभिमान ट्रस्ट हिन्दुत्व के बदले राष्ट्रीयता का ही प्रयोग करता है। जिसमें सभी धर्म की जगह है। इस्लाम की भी। असल खेल यहीं से शुरू होता है। बाबा रामदेव की अपनी ताक़त है और योग के जरीये देशभर में लोकप्रिय बाबा रामदेव जिस स्वदेशी और राष्ट्रीयता का सवाल उठाते है उससे संघ को परहेज नहीं है। लेकिन संघ क्या कभी ये चाहेगा कि उसके समानांतर राष्ट्रीयता का नारा लगाते हुये कोई संगठन बड़ा हो? याद कीजिए तो अन्ना आंदोलन के वक्त भी आरएसएस अन्ना के संघर्ष को सफल बनाने के लिए साथ खड़ा हो गया था। लेकिन रामलीला मैदान में जब भारत स्वाभिमान मंच तले बाबा रामदेव भ्रष्टाचार को ही लेकर संघर्ष करने उतरे तो संघ ने ख़ुद को पीछे कर लिया। जबकि मुद्दा अन्ना के सवाल को आगे ले जाने वाला था। राजनीतिक तौर पर रामदेव भी अन्ना की तर्ज पर उस वक्त किसी सियासी पार्टी बनाने या चुनाव में संघर्ष करने का कोई एलान नहीं कर रहे थे। लेकिन रामदेव की लोकप्रियता रामलीला मैदान में ही दफन हो जाए इसका प्रयास संघ ने बख़ूबी किया। और शायद रामलीला मैदान हादसे के बाद बाबा रामदेव भी संघ की इस लक्ष्मण रेखा को समझ गए।

लेकिन अब देश की सत्ता पर क़ाबिज़ प्रधानमंत्री मोदी की ज़रूरत और आने वाले वक्त में ख़ुद को कहीं ताक़तवर बनाने के लिए बाबा रामदेव की उपयोगिता या संघ से टकराव ना हो इसकी व्यूह रचना को समझना ज़रूरी है। प्रधानमंत्री मोदी आरएसएस को बख़ूबी समझते हैं। ठीक उसी तरह जैसे प्रधानमंत्री बनने के बाद अटल बिहारी वाजपेयी समझ रहे थे। संघ से कितनी दूरी और कितनी निकटता रहनी चाहिये इसे बीजेपी के जिस भी राजनेता ने समझा वह झटके में देश की राजनीति में सर्वमान्य बनने लगता है। और इस सच को हर कोई समझता है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में संघ परिवार जिस ताक़त के साथ मोदी के हक में खड़ा हुआ उसने चुनाव का मिज़ाज ही बदल दिया। और बीजेपी इस सच को भी जानती है कि 2004 में जब हिन्दू ताक़तें घर पर बैठ गई तो वाजपेयी को हार मिली। यानी नरेन्द्र मोदी को आने वाले वक्त में सियासत उस तलवार की धार पर करनी है जहाँ उनके आर्थिक विकास की डोर का परचम भी लहराए। राष्ट्रवाद आहत भी ना हो। हिन्दुत्व के रंग भी दिखाई दे। और मोदी की पहचान सर्वमान्य नेता के तौर पर बनती चली जाए।
ध्यान दें तो नीतियों को लेकर हर मोड़ पर मोदी सफल हो रहे हैं। मसलन विदेशी निवेश पर अब संघ खामोश है। आर्थिक नीतियों को लेकर भारतीय मजदूर संघ चुप है, चाहे मजदूरों के ख़िलाफ़ नीतियों को खुले तौर पर अपनाया जा रहा हो। किसान विरोधी सरकार का ठप्पा खुले तौर पर मोदी सरकार पर लग रहा है, लेकिन किसान संघ कहीं बिल में जा घुसा है। और यह सब हो इसलिए रहा है क्योंकि संघ को लग रहा है कि अगर केंद्र में मोदी सरकार का विरोध वह करने लगे तो फिर सरकार ही ना रहेगी, तो आरएसएस जिस विस्तार की कल्पना अपने लिए किये हुए है, वह कैसे होगा?”

इस मसले को लेकर वरिष्ठ महोदय से वही सवाल पूछे गए, जो कमरों में पूछे जाते हैं। लेकिन पतंजलि, रामदेव, स्वाभिमान ट्रस्ट, संघ वगैरह को लेकर सवाल कई सारे हैं। मसलन, क्या कोई इस सच को वाजपेयी से कहीं आगे की समझ से समझने लगा है कि सवाल अब यह नहीं है कि संघ को कितनी ढील दी जाए? सवाल यह है कि संघ के समानांतर कैसे कोई बड़ी लकीर खींच दी जाए? क्या बाबा रामदेव का बढ़ता कारोबार और भारत स्वाभिमान ट्रस्ट का विस्तार इसीकी कडियां हैं?

बाबा रामदेव के विस्तार के दौर में घर वापसी और अल्पसंख्यक मसलों पर किसीको दुनिया के मंचों पर वैसी सफाई देनी नहीं होगी जैसे संघ परिवार को लेकर देनी पड़ रही है। सवाल सिर्फ़ यह नहीं है कि 2014 के बाद बाबा रामदेव का टर्नओवर 67 फ़ीसदी बढ़कर 2000 करोड़ तक जा पहुंचा। सवाल यह है कि संघ के समानांतर बाब रामदेव का विस्तार हो कैसे रहा है और इस विस्तार के पीछे कौन है? आरएसएस के पास कैडर स्वयंसेवक होते हैं। जबकि बाबा रामदेव का कैडर उनके स्वयंसेवक और नौकरी करने वाले इंसेंटिव पर टिका है। कॉर्पोरेट को लेकर दोनों का नज़रिया स्वदेशी है। दोनों ही बहुराष्ट्रीय कंपनियों के ख़िलाफ़ हैं। आज की तारीख में संघ के देशभर में क़रीब 10 से 15 करोड़ स्वयंसेवक होंगे। जबकि भारत स्वाभिमान ट्रस्ट के साथ 5 करोड़ लोग जुड़े हैं। संघ की देशभर में 50 हज़ार शाखाएँ लगती हैं। जबकि बाबा रामदेव के पतंजलि स्टोर 5 हज़ार हैं। संघ अपने विस्तार को ब्लॉक स्तर पर ले जाता है। यानी ब्लॉक स्तर पर ही स्वयंसेवक सारी ज़रूरतों की व्यवस्था करता है। जबकि स्वाभिमान ट्रस्ट हर गांव में पाँच व्यक्ति को तैयार कर रहा है। जो स्टोर खोलकर उसके सामानों को बेचेंगे। संघ के विस्तार में सिर्फ़ विचार मायने रखते हैं। लेकिन भारत स्वाभिमान ट्रस्ट हर गांव में एक इमारत ले रहा है। जिसमें कंप्यूटर भी होगा और सामानों को लाने या बाँटने के लिए मोटरसाइकिल भी रखी जाएगी। स्वाभिमान ट्रस्ट के साथ अभी 15 लाख लोग सक्रिय हैं। यानी वह गांव में सामानों को ला ले जा रहे हैं। संघ वैचारिक तौर पर हिन्दुत्व का ज़िक्र कर हिन्दू राष्ट्र की परिकल्पना को मूर्त रूप देने में लगा है। जबकि बाबा रामदेव राष्ट्रीयता का सवाल उठा कर अपने प्रोडक्ट को बेचते हुए योग को ही विस्तार का जरीया बना रहे है। दोनों की मंशा सौ फ़ीसदी मतदान की है।

यानी संघ अपनी मनपसंद सत्ता के रहते हुये विस्तार को अमली जामा पहनाता है। लेकिन जहाँ उसे लगता है कि उसके विचारों को सत्ता महत्व देना बंद कर रही है तो उसकी सक्रियता केंद्र सरकार के ख़िलाफ़ भी एक वक्त के बाद हो सकती है। लेकिन बाबा रामदेव के साथ अमूर्त विचार नहीं बल्कि मूर्त धंधा है। योग है। और विस्तार के लिहाज़ से समझे तो संघ 2004 से 2014 के दौरान इस हद तक सिमटा कि उसकी शाखाएँ घटकर 30 हज़ार हो गई थी। वहीं बाबा रामदेव के पंतजलि का टर्नओवर धीरे धीरे रफ्तार से बारह सौ करोड़ और फिर अचानक से दो हज़ार करोड़ हो गया। संघ से टकराना शायद आसान सी बात नहीं है, रामदेव को कभी भी आईना दिखाया जा सकता है। रामदेव का कैडर राजनीति से कहीं नहीं जुड़ा है, जबकि संघ का कैडर तो बीजेपी को ना सिर्फ़ प्रभावित करने के हालात में रहता है बल्कि बीजेपी में उसकी एंट्री भी होती है।

इन सब बातों पर कई जगहों पर लिखा भी गया है, वरिष्ठ स्वंयसेवकों से गरम और नरम, दोनों चर्चा भी हुई। कुछ बातें लिखनी नहीं चाहिए। लिखनेवाले सब कुछ नहीं लिखते। इस लिहाज़ से हम वरिष्ठ स्वंयसेवक की दुनिया में लौट आते हैं।

मंदिर मुद्दे पर समाज तो नहीं बदला, आंदोलन से जुड़े संगठनों के विचार ज़रूर बदलते रहे, कभी किसीने किसीके मुद्दे चुराए, तो कहीं कोई किसीकी राजनीतिक ज़मीन ले गया
मंदिर मुद्दे से दोबारा शुरू करते हुए वो कहते हैं, अयोध्या में मोदी नहीं जा रहे। योगी अयोध्यावासी हो गये हैं। दोनों नावों में पैर रखकर समंदर में तैरना है। लेकिन देखे तो अब अयोध्या जाकर करेंगे भी क्या? जो ढहाना था ढहा चुके हैं। अब वहाँ जाकर कुछ और क्या गिराएंगे? अयोध्या की चाबी तो केंद्र के पास है और केंद्र में जिसने बिठाया है वो संघ सुप्रीम कोर्ट पर निशाने साध रहा है। अयोध्या की चाबी किसने छुपायी है ये महत्व नहीं रखता। मंथन तो यह होना चाहिए था कि चाबी क्यों छुपाई जा रही है? चाबी नहीं निकाली तो सत्ता चली जाएगी और चाबी निकाली तो भविष्य शून्य हो जाएगा, क्या इसी मंथन में कोई फंसा है? या फिर अयोध्या के बाद मथुरा या फिर लव जिहाद जैसी कोठरी पर मंथन हो रहा है। विहिप में सालों से जुड़े लोगों को आप कैसे समझा पाएंगे कि प्रवीण तोगड़िया को क्यों निकाल दिया गया? तोगड़िया का नया संगठन भी राम राम पुकारनेवालों को आकर्षित कर रहा है। बजरंगदल कहाँ है और उसके कुछ लोग भी क्यों तोगड़िया के पीछे खड़े दिखाई दे रहे हैं। संघ कान को ना देख कौए के पीछे क्यों पड़ा है? क्या वो इस स्थिति की राह देख रहा है, जैसी स्थिति आज बीजेपी के भीतर है?”

वो आगे बोलते हैं, 1989 में ही पालमपुर प्रस्ताव में बाकायदा बीजेपी ने ही संसद में कानून बनाने का प्रस्ताव पारित किया था। और उस दौर में संघ के अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा के प्रस्ताव को भी पढ़ लीजिए। रास्ता सिर्फ़ यही माना या बनाया गया कि बहुमत मिला नहीं कि राम मंदिर निर्माण करेंगे। अमित शाह से कोई भी मुश्किल सवाल करें तो जवाब यही आता है कि जनता ने हमें चुना है, हम आपके सवालों का जवाब क्यों दें? फिर जब मोदी सत्ता से ये पूछ दीजिए कि जनता ने क्या आपको राम मंदिर के लिए नहीं चुना है। तो चुप्पी साध ली जाती है। और बिना ज़मीन वाले कैबिनेट मंत्री ही कहने लगते हैं कि सबका साथ सबका विकास का नारा तो दिया है ना।

वो कहते हैं, 2014 के सपनों के बारे में मीडिया में भले ना दिखाया जाए, जनता सवाल तो पूछती ही है कि क्या हुआ? काले धन पर सवाल आते हैं, पंद्रह लाख वाले पर आते हैं। शाह तो जुमला बताकर भाग गए, लेकिन संघ पर भी जुमलेबाज का थप्पा लगने लगता है। नोटबंदी को सारे लोग बेतुका फ़ैसला बताते हैं। जीएसटी से लेकर तमाम आर्थिक नीतियां धराशायी हो रही हैं। महंगाई बढ़नेवाली है। ग्रामीण लोग परेशान हैं, तभी तो इस दफा कार्यकर्ताओं व स्वयंसेवकों को गांवों में भेजा जा रहा हैं। सत्ता पूंजी पर टिकी हुई है। बीजेपी के पास पूंजी है। जिसे चाहा खरीद लिया, जो ना बिका उसे पूंजी के ज़रिए बिठा दिया। लेकिन फिर मंजिल है क्या यही सवाल बड़ा होता जा रहा है।

वो इससे इतर यह भी कहते हैं कि, कांग्रेस काफी बदल चुकी है। बीजेपी और संघ के मुद्दों को राहुल गांधी हाईजैक कर रहे है। कांग्रेस बूथ लेवल मैनेज करना सीख गई है। लेकिन उसका जो संगठन है उस पर अभी भी पुराना लेप लगा हुआ है। ये बात ज़रूर सच है कि कांग्रेस अपने नेताओं से नहीं बल्कि अपने कार्यकर्ताओं से पूछने लगी है। लेकिन राहुल गांधी अभी भी संगठन के निचले पायदान तक नहीं पहुंचे है। वो पायदान गांवों में है। समूचा ग्रामीण भारत सत्ता की नीतियों से मुश्किल में है। लेकिन मजे की बात देखिए। वहाँ तक संघ और बीजेपी की पहुंच है, राहुल गांधी की नहीं। हो सकता है कि सत्ता के ख़िलाफ़ जो नाराज़गी और गुस्सा है, राहुल गांधी के हाथ आया सुनहरा मौक़ा वो खो दें। मतबल कि जिस तरीक़े से ज़मीन वापस लेनी चाहिए थी, कांग्रेस ले ना पाए। लेकिन ज़मीन तो बीजेपी की ही जा रही है।

जिस तरीक़े से जीत मिलनी चाहिए थी उस तरीक़े के हालात ना हो तो यह हार ही तो है, 50 साल तक की सत्ता के सपने की नींव महज़ पाँच बरस में क्यों हिल रही है?
वो आगे कहते हैं, मोदी प्रचारक है। प्रचारक बख़ूबी जानता है कि बिना नदी के पुल कैसे बांधा जाए। 2014 से अब तक, यानी 2019 तक, सच कहे तो इस देश ने पीएम देखा ही नहीं है। देश जिस मोदी को देख रहा हैं, वो पीएम नहीं है प्रचारक है! लेकिन वही प्रचारक 25 नवम्बर 2018 को मन की बात कार्यक्रम में कहता है कि मोदी आएगा और चला जाएगा, लेकिन यह देश अटल रहेगा, अमर रहेगा। ऐसा क्यों हुआ कि प्रचारक को अपने जाने की बात का ज़िक्र छेड़ना पड़ा? अब तक तो वो किसी और से देश को मुक्त करवाने का आह्वान किया करते थे। वो एक और बात जोड़ देते हैं, देखिए, कांग्रेस जैसी पार्टी भी हिस्सों में बंटी थी। लेकिन आज कांग्रेस को इंदिरा की कांग्रेस, राजीव की कांग्रेस, सोनिया की कांग्रेस जैसे नामों में बाँटा नहीं जाता। जबकि बीजेपी को लोग वाजपेयी की बीजेपी और मोदी की बीजेपी, इन दो नामों से मथते हैं। गौर कीजिएगा कि इस अंतर के साथ साथ सोच और विचारधारा का फ़ासला भी परोसा जा रहा है।

वो आगे बढ़ते हैं, अमित शाह 50 साल तक सत्ता बरकरार रखने का दावा करते है, मोदी जाने का ज़िक्र छेड़ते है! समझना होगा कि जिस तरह से 2014 में सत्ता मिली थी। जिस तरह से मोदी के चरित्र और लोकप्रियता को गढ़ा गया था। 2019 आसान होना चाहिए था। लेकिन सबकुछ दांव पर है। युवाओं के सपने, रसोईघर में औरतों का जूझना, किसानों का दर्द, रुपये का गिरता स्तर, इंधन के बढ़ते दाम, सीबीआई, आरबीआई, सुप्रीम कोर्ट, इकोनॉमी और राम मंदिर भी। ऐसा क्यों है कि आज से तीन साल पहले ही लोग कहने लगे थे कि 2019 में मोदी सत्ता के पास सरहद पर जाने का एक मात्र रास्ता बचेगा। और होता भी यही है। वो शिकायत वाले भाव से कहते हैं, आतंकी हमले पहले की सरकारों के दौरान भी हुए। इस सरकार के दौर में भी हुए। ये सच है कि मोदी सत्ता के दौरान सेना पर हमले बढ़े हैं, लेकिन सिविलियन इलाकों में सीरीजवाइज धमाके रुक से गए हैं। लेकिन फिर भी, जब पहले हमले होते थे तो कोई यह नहीं कहता था कि मनमोहन ने हमले करवाए हैं। लेकिन आज ऐसा क्यों है कि पुलवामा हमले को आज भी एक तबका मोदी सत्ता का षडयंत्र मानने लगा है। ऐसा नहीं है फिर भी ऐसा मानने लगा है ये मंथन का विषय है।

वो आगे कहते हैं, विकास, नीतियां, योजनाएं, परियोजनाएं... सब कुछ हवा हो चुका है। पाकिस्तान, राष्ट्र, सुरक्षा और हिंदुत्व, इन्हीं के आसरे आख़िर क्यों जाना पड़ रहा है। जैसे पहले कहा वैसे, 2014 के नज़रिए से देखे तो 2019 आसान होना चाहिए था। लेकिन स्थितियों ने इसे सबसे मुश्किल दौर का सबसे मुश्किल चुनाव बना दिया है। ये सच है कि मोदी सत्ता ने बीजेपी को ढेरों राज्य दिए हैं। जो वाजपेयी नहीं कर पाए, मोदी वो करते जा रहे है। बीजेपी के पास अधिक सत्ता है। लेकिन ये सच भी देखा जाना चाहिए कि केजरीवाल के सामने दिल्ली में मोदी का मैजिक नहीं चला। बिहार में लालू आगे निकल गए, फिर नीतीश को पाले में लाना पड़ा। मोदी नाम के नीचे ही शिवराज, वसुंधरा राज्य गंवा बेठे। छत्तीसगढ़ चला गया। गोवा, कर्णाटक में भी अंतर कम रहा। गुजरात में मुश्किल से जीते।

मथते मथते मंथन के साथ कह गए कि, मोदी के नाम पर वोट आ रहे हैं। ये सत्ता के लिए, विस्तार के लिए अच्छी बात है। लेकिन नाम पर वोट आ रहे हैं, काम पर क्यों नहीं? ये सच है कि सोशल मीडिया पर मोदी को ही चाहनेवाले लोग मोर्चा खोले हुए है। लेकिन उनके तर्क भी काम को लेकर नहीं, नाम को लेकर है! खतरा यह नहीं है कि कांग्रेस हारी थी तो बीजेपी भी हारेगी। खतरा यह है कि कांग्रेस के पास पटरी पर लौटने के लिए जो था, बीजेपी के पास बचा है क्या? जिन दस करोड़ कार्यकर्ताओं को शाह ने तैयार किया है, वो 2019 में कहाँ है कोई बता दीजिए! गुजरात या राजस्थान में बैठकर वो कार्यकर्ता फेसबुक के ज़रिए वाराणसी की जनता को आह्वान कर रहा है! ये क्या है? मोदी कैबिनेट में बिना ज़मीन के नेता बैठे हैं, जो ख़ुद मोदी के आसरे है।
स्थिति को मथते हुए वे कहते हैं, अब मोदी ख़ुद ही परशेप्शन है, ख़ुद ही प्लेयर है। शुरू में ऐसी ही ग़लती राहुल गांधी ने की थी। लेकिन अब उनके साथ उनका थिंक टैंक काम करने लगा है। ये बात और है कि फ़िलहाल वो उस स्तर तक नहीं पहुंचे है। उनके लिए बात तो यह भी है कि अगर कांग्रेस फिर फिसड्डी साबित होती है तो फिर उसके लिए वापसी करना बेहद ही मुश्किल होगा। लेकिन सोचना यह है कि लोग मोदी को जुमलेबाज, फेंकू, अनपढ़ फकीर जैसे नामों से क्यों बुलाते हैं? मनमोहन के सामने भारत के लोगों की इतनी नाराज़गी थी कि मनमोहन और कांग्रेस को भारत ने 50 से भी कम सीटों पर लाकर पटक दिया था। मोदी के सामने इतना गुस्सा नहीं है कि बीजेपी उस जगह पर आकर ठहर जाए। बावजूद इसके मनमोहन से भी ज़्यादा अपमानजनक नामों से मोदी को बुलाया जाता है। ये सच है कि भाषा की शालीनता, मर्यादा, पीएम पद का गौरव, सभी को मोदी ने नुक़सान पहुंचाया है। हो सकता है कि इसका ये रिएक्शन हो। लेकिन अगर मोदी इतने लोकप्रिय है, जितना अलग अलग सर्वे में दर्शाया जाता है, तो फिर ये मुश्किल चुनाव है क्यों?”

वो ख़ुद ही एड करते हैं, आपको लगेगा कि मैं वाजपेयी का प्रशंसक हूँ और मोदी की नीतियों से ख़ुश नही हूँ। आप क्या सोचते हैं ये आपकी समस्या है, मेरी नहीं। लेकिन मैं बीजेपी और संघ के लिए चिंतित हूँ ये सच क्यों नहीं दिखता आपको? वाजपेयी भी प्रचारक थे, लेकिन बीजेपी हारी तब भी बीजेपी पीछे जाती नहीं दिखती थी। तब भी उसकी विचारधारा, सोच लोगों के सामने स्पष्ट थे, जिससे ज़्यादा से ज़्यादा विविधिताएँ सरोकार रखती थी। अभी ज़्यादा लोग सरोकार रखे ऐसी स्थिति होगी, लेकिन ज़्यादा विविधताओं से जुड़ना अलग सड़क है। वो कहते हैं, वाजयेपी के दौर में बीजेपी का कांग्रेसीकरण हुआ था। तभी तो कई सारी विविधताएँ बीजेपी के साथ खड़ा रहने के लिए तैयार थी। लेकिन मोदी सत्ता के दौरान बीजेपी का कांग्रेसीकरण अतिरेक से भी ज़्यादा हो चुका है। विज़न की कमी तो है ही। देखिए न, जिन नीतियों को अपनाया गया उसके कोई अच्छे परिणाम नहीं मिल रहे। उलट यह रहा कि एक के बाद एक, नई नई योजनाओं का एलान करना ज़रूरी बनाया गया। जिससे सत्ता को सफलता और उम्मीदों के साथ जोड़ने का काम जारी रखा जा सके। एलान करना ही नीतियां है क्या?”

वो कहते हैं, आनेवाले काल में मोदी जितनी सफलता कोई दूसरा नहीं दिला सकता ये सच है। लेकिन जिन रास्तों पर बीजेपी और संघ जा रहे हैं, वो जीत का रास्ता है। जीत मिलती है तो सारा चिंतन दब जाता है। हार की स्थिति में चिंतन करनेवाला कौन बचा है?” वो आगे बढ़ते हैं, 2014 में विकास के नाम पर और कांग्रेस के भ्रष्टाचार पर उन्होंने ख़ुद को जिताया नहीं, बल्कि प्रतिपक्ष को हरा दिया था। लेकिन 2019 में ख़ुद के ही काम, नीतियाँ, योजनाएँ गायब हैं!!! बीते पाँच बरस में हर भाषण में एक ही तर्क चल रहा है। कांग्रेस के नेता, कांग्रेस की ग़लतियाँ, कांग्रेस का भ्रष्टाचार! 2019 में भी कांग्रेस का भ्रष्टाचार और राम मंदिर का कॉकटेल इस्तेमाल हो रहा है। काम पर नहीं, मोदी के नाम पर वोट मांगे जा रहे हैं! दूसरा कुछ हो रहा है तो यही कि कांग्रेस बहुत खराब थी, इसलिए हम बेहतर है! इससे लोगों को जोड़ा नहीं जा सकता, हां भ्रमित ज़रूर किया जा सकता है। लेकिन सवाल यही है कि बीते पाँच बरस की सत्ता के बाद भी आपको इन्हें भ्रमित करने की ज़रूरत क्यों आन पड़ी है? जोड़ने की बात क्यों नहीं है?"

जो सबसे आसान होना चाहिए था वो आज मुश्किल क्यों दिख रहा है? आँकड़ों के लिहाज़ से विस्तार लेकिन फिर भी इतना सिकुड़ा हुआ प्रचार क्यों करना पड़ रहा है?
शायद वो हर मंच से खबरें लेकर मंथन का काम करते थे। तभी तो वो कह गए कि, 23 मार्च, गुजरात में मतदान का दिन। उसी दिन से मीडिया की भाषा क्यों बदलने लगी है? तारक मेहता का उल्टा चश्मा, जहाँ नोटबंदी से लेकर स्वच्छता अभियान की मार्केटिंग होती थी, जहाँ बीते पाँच बरस में महंगाई, भ्रष्टाचार, रोजगार, किसान आदि पर बोलने की मनाही थी, वहाँ क्यों अचानक से ऐसे एपिसोड आने लगते हैं? वो स्क्रिप्ट, जो उछला करती थी, वो क्यों गिरती है?" वो कहते हैं, “ऐसा कयों है कि मिशेल को लाना पड़ता है बीच में? ऐसा लगता है जैसे अपना पाँच बरस के विकास का बही खाता खोलने की हिम्मत मोदी में नहीं है। भ्रष्टाचार का मुद्दा विपक्ष उठाता है, लेकिन जब स्वंय सत्ता ही इन मुद्दों पर जाती है, तो कई परतें उधेड़ती है। सत्ता मिशेल से जो बुलवाना चाहती है, क्या मिशेल वह बोल देगा? राहुल गांधी की नागरिकता को लेकर अदालत में एकबार जो तय हो चुका है, क्या दोबारा वही चैप्टर खोल देने से अदालत का फ़ैसला बदल जाएगा? दरअसल, सत्ता लोगों के परशेप्शन के साथ खेलती है। कांग्रेस ने भी यही किया, बीजेपी भी यही कर रही है।"

वो अपने इस मंथन के बारे में स्पष्ट करते हैं कि, इससे कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन चुनाव ख़त्म होने के बाद भी, बीते पाँच बरस में आप देख ले, यही चुनावी मोड जारी है। इससे मिला क्या? यही कि आप अपने काम पर चुप है, दूसरों के कारनामों पर ही बोलना पड़ रहा है।" वो योगी-मोदी पर फिर लौटते हैं, कहते हैं, प्रयोग हो चुके हैं, दोबारा हो रहे हैं। गुजरात के प्रयोग से मोदीजी निकले। यूपी के प्रयोग से योगीजी। मोदी के वक्त वाजपेयी राजधर्म निभाने की सलाह देते थे। योगी के समय यही काम मोदीजी को करना है। लेकिन वो नहीं कर पाएंगे। गज़ब है कि मायावती और राहुल गांधी, दोनों एक दूसरे के साथ लड़ रहे हैं। दोनों को मिलकर बीजेपी से लड़ना था। चुनाव नतीजों के बाद कुछ भी अप्रत्याशित हो सकता है। लेकिन मायावती का गढ़ ढह जाएगा तो कांग्रेस को मायावती की काट मिल जाएगी और मायावती मजबूत होकर लौटी तो फिर या तो बीजेपी को उसके सामने हाथ जोड़कर अपने पाले में लाना होगा या फिर इसके ज़रिए कांग्रेस बीजेपी की काट ढूंढकर ख़ुश हो जाएगी।"

वो कहते हैं, अगर मोदी कमज़ोर हो रहे हैं तो फिर सौदेबाजी का काम कौन करेगा? जो शख़्स मोदी को जापान ले गया था, उसी पर मोदी सत्ता के दौर में ईडी के छापे पड़ते हैं, उनके क़रीबियों पर डीआईआई छापे मारती है। जीएसटी से हालात यह है कि व्यापारी परेशान तो है ही, साथ में एक जीएसटी अधिकारी भी वसूली करने में लग गया है। ऐसे में सत्ता से जो लोग पहले जुड़े थे, वो यही मानने लगे हैं कि सत्ता उन्हें दबा रही है। फिर सत्ता के पास नये महोरे खोजने का जरिया है। नये मोहरे नई चालें चलेंगे, नये साथी लाएंगे, नये रास्ते खोजेंगे। क्या इसी तरह बीजेपी महज़ चुनाव जीतने की मशीन बन गई है? क्या बीजेपी जैसे-तैसे सत्ता हथियाने का जरियाभर बनकर रह गई है?"

वो कुछ अलग भाव के साथ बोलते हैं, बीजेपी आँकड़ों के लिहाज़ से विस्तार पाती रही, लेकिन अपने ही दायरे में इतनी सिमटी कि मोदी-शाह या जेटली के आगे कुछ और देख नहीं पाई। राहुल को पप्पू-पप्पू कहते रहे और बड़ी चालाकी से राहुल ने पप्पू से आगे का सफ़र तय कर लिया। कांग्रेस और नेहरू की कथा करने में व्यस्त रहे, उधर राहुल ने बीजेपी और संघ के ही मुद्दों को हथिया लिया। चौकीदार चोर है और मोदी फेंकू है का नारा सबकी जुबां पर आ गया। दाव पर दिल्ली थी, वहीं बीजेपी बुरी तरह से हार गई। हो सकता है कि जहाँ जहाँ सत्ता गई, वहाँ बीजेपी की पुरानी सरकारें थी। और सरकारें जितना ज़्यादा समय रहेगी, लोग उससे उतना नाराज़ होंगे ही। जिन राज्यों में बीजेपी का किला ध्वस्त हुआ, सवाल है कि क्या उधर कांग्रेस ने वाक़ई पसीना बहाया था या फिर लोगों का उब जाना बड़ी वजह थी? लेकिन अगर लोगों का उब जाना वजह थी, तो फिर पाँच सालों के भीतर लोगों की नाराज़गी को राष्ट्रवाद, देशभक्ति और सुरक्षा के ज़रिए अपने पाले में करने की नीति ही आख़िरी हथियार है तो फिर आगे की राह क्या होगी? मतलब यही कि बीते पाँच बरस में जिन नीतियों की वजह से यह स्थिति आई है, क्या उस पर मंथन होगा?"
वो कहते हैं, 2014 में एक सितारा चमका था, जो 2019 में मुश्किलों में है। चकाचौंध करनेवाला विकास का रंग फिका पड़ रहा है। मोदी को पीड़ित बनने का अभिनय बख़ूबी आता है। 2019 में अगर वो सितारा जैसे-तैसे लौटा भी, तब भी वो रोना रोएगा, ख़ुद को पीड़ित बताएगा। कहेगा कि विपक्ष ने मुझे नष्ट करना चाहा, लेकिन आपके प्यार ने मुझे बचा लिया। और फिर वही दौर चलेगा, जो अभी चल रहा है। संघ को ये स्थिति भाएगी नहीं, लेकिन सत्ता तो बची रह जाएगी। लेकिन इससे उलट हुआ तो क्या होगा? मतलब की ढंग से जीत ना मिली तब भी मोदी पीड़ित का अभिनय करके, स्वंयसेवकों और संघ की मेहनत की बदौलत जो कुनबा बच गया उसका श्रेय ख़ुद ही ले लेंगे। और हाथ से बाजी चली गई तो फिर कौन है जो आगे आएगा? कौन है जो स्थिति को संभालेगा?"

वो बोलते हैं, मीडिया जो भी कहे लेकिन भारत के संसदीय इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ है कि कोई इतने भारी बहुमत के साथ सत्ता पर आए और उसके पाँच बरस की सत्ता पूरी हो उससे पहले तो उसकी पार्टी के तीन किले (तीन राज्य) ढह जाए!!! भारत के 70 साल के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है कि इतना भारी बहुमत और इतने लोकप्रिय पीएम का आधा कार्यकाल ख़त्म हो उससे पहले ही देश की राजधानी दिल्ली में ही उसकी पार्टी इतनी बुरी तरह से हार जाए, वो भी नयी नवेली पार्टी के हाथों!!! बूथ मैनेजमेंट, पन्ना प्रमुख हो या माइक्रो मैनेजमेंट, सारे गणित घरे के घरे ही तो रह गए थे। वो कहते हैं कि ये तो विधानसभा के चुनाव थे, लोकसभा का नहीं था। उनकी बात ठीक है, लेकिन वही बता दे कि ये विधानसभाओं को चुनाव था या मोदी का चुनाव था? क्योंकि तमाम राज्यों में मोदी ही चेहरा थे।

वो कहते हैं, तीन राज्यों की हार ने बीजेपी के चार खंभों को हिला दिया है, जिस पर मोदी-शाह की बीजेपी सवार रही। पहला, अमित शाह चुनावी चाणक्य नहीं है। वो दिल्ली में केजरीवाल जैसे नेता के सामने भी हार चुके हैं और तीन किलो को भी नहीं बचा पाए। ठीक है कि बीजेपी ने विस्तार पाया, लेकिन जो गंवाया उसकी बात कौन करेगा? दूसरा, नरेन्द्र मोदी चंद्रगुप्त मौर्य नहीं है। क्योंकि दिल्ली, बिहार समेत दूसरे तीन बीजेपी किलो में बीजेपी जीतती तो मोदी जीतते, बीजेपी हारी है तो मोदी ही हारे हैं। तीसरा, हिन्दुत्व और राम मंदिर को जनता सिर्फ़ किसी एक चेहरे के भरोसे ढोने को तैयार नहीं है। चौथा, सत्ता सिर्फ़ नारों से नहीं चलती और सरकार जातीय समीकरणों के सहारे चल भी जाए तो वो सरकार मुश्किलों में ही फंसती है।

वो कहते हैं, हाल की स्थिति यही है कि मोदी-शाह के बिना बीजेपी की कल्पना नहीं हो सकती। जैसे राहुल-प्रियंका के बिना कांग्रेस की नहीं होती। दुनिया का सबसे बड़ा सेवादल संघ, जो संगठन है, वो व्यक्तिवाद में फंस चुका है। चाहे-अनचाहे बीजेपी उसी सड़क पर है, जहाँ कांग्रेस थी। जो कदावर पदों पर हैं उनकी पहचान ही मोदी है। कॉर्पोरेट फंड का मतलब मोदी है। मोदी के आस-पास जो हैं वो चुनावी गणित में फिट नहीं बैठते और जो फिट बैठते हैं वो आस-पास नहीं है। कॉर्पोरेट की पीठ पर बैठकर मोदी ने जो चक्काचौंध वाली दुनिया बनाई, कांग्रेस सिर्फ़ हारने वाली थी, लेकिन बहुत ही पीछे चली गई, यूं कहे कि पीट गई। ठीक इसी तरह कई राज्यों की हार ने संघ-बीजेपी को जगाना चाहा, लेकिन कौन जागा? गडकरी माल्या को चोर कहने के लिए तैयार नहीं है, राहुल अनिल और मोदी, दोनों को मिलाकर, चोर कह रहे हैं!!! गडकरी कॉर्पोरेट के नए डार्लिंग बनने को तैयार हो सकते हैं। जो प्रचार हो रहा है वो संघ की सोच या बीजेपी की विचारधारा पर नहीं, सत्ता की सहूलियत के हिसाब से हो रहा है। राज्यों में हार के बाद नयी सोच नहीं है, बल्कि जो सड़क पकड़ी है उस पर दुम दबाकर या तो दौड़ना है या फिर भागना है।
आगे कहते हैं, जिन राज्यों में हार मिली उनमें से बहुधा बीजेपी के किले थे। वसुंधरा, रमन, शिवराज... सब अच्छा कर रहे थे। उनका गवर्नेंस अच्छा था। ये बात ठीक है कि लंबी सत्ता के बाद लोगों में सत्ता के ख़िलाफ़ नाराज़गी होती है। नोटबंदी-जीएसटी वगैरह का असर एक साल बाद होगा ही होगा ये तो पहले से कह रहे थे। क्योंकि नोटबंदी-जीएसटी वगैरह लागू करने के तुरंत बाद सपनों की चकाचौंध थी, लेकिन उसका नेगेटिव इंपेक्ट तो महीनों के बाद होना ही था। नोटबंदी बेतुका फ़ैसला साबित हुआ। मीडिया मैनेजमेंट की वजह से बहुत कुछ छाते के नीचे छुप गया। जीएसटी ने चोट की। पाँच राज्य हाथ से छूटे तो मंथन के नाम पर कहा जाने लगा कि मोदी-शाह के चेहरे की वजह से हार का अंतर कम था, वर्ना हार बड़ी होती। मोदी के नाम और शाह के बूथ मैनेजमेंट ने इज्जत बचा ली, यही मंथन में से निकला!!! यानी, राज्यों में शिवराज, वसुंधरा, रमन आदि चेहरे कुछ है ही नहीं।

आगे कहते हैं, 2014 में मोदी-शाह ने जो स़डक बिछाई, बीजेपी का कार्यकर्ता और संघ का स्वंयसेवक, दोनों आंखों पर पट्टी बांधकर दौड़ने को तैयार था। क्या 2019 में भी वही पुनरावर्तन हो रहा है? देखिए न, महाराष्ट्र की अगुवाई मोदी की चौखट से पीयूष गोयल कर रहे है। तमिलनाडु की अगुवाई निर्मला सीतारमण, उड़ीसा की अगुवाई धर्मेन्द्र प्रधान... उधर गडकरी का महत्व फडणवीस के ज़रिए सिमटाने की कोशिशें होती रहती हैं, जेटली और ईरानी हारकर भी मंत्री बने, जिनमें से जेटली का कोई अपना बेस नहीं है, ईरानी अपने टेलीविज़न वाली छाप और मोदी के भरोसे चली है, राजनाथ लखनऊ तक सीमित है। वो अपनी उदारवादी छवि को स्थापित ज़रूर किए हुए है और तमाम के साथ मेल-जोल ज़रूर रखते है। हां, ये ज़रूर है कि अरुण जेटली बीजेपी के अहमद पटेल है, यानी लुटिंयस वाली दिल्ली के सूत्रधार।

वो राजनाथ को लेकर कहते हैं, सारा देश, बीजेपी और संघ, तमाम लव जिहाद लव जिहाद कर रहे थे। राजनाथ ने उस दौर में पत्रकारों से कह दिया था कि यह लव जिहाद क्या है मुझे नहीं पता। देश के गृहमंत्री, जिनके जिम्मे इन सारे कारनामों की फाइलें होती हैं, वही यह कह दे तो इसके दो मतलब होते हैं। पहला, बीजेपी और संघ लव जिहाद पर देश से झूठ बोल रहे हैं और दूसरा, देश के गृहमंत्री को कोई फाइलें नहीं मिलती होगी, गृहमंत्रालय के सारे काम बीजेपी और संघ ही करते होंगे। कौन सा मतलब सच के क़रीब है ये समझने में कोई दिक्कत नहीं है। राजनाथ उतने आसमानी बयान नहीं देते, जितने मोदी-शाह के क़रीबी मंत्री देते हैं। सुषमा भी राजनाथ की सड़क पर चली, लेकिन विदेश में फंसे और मारे गए भारतीयों के मामले में तथा ललित गेट वाले कांड में सुषमा थोड़ी सी पिछड़ी, फिर संभल गई। वसुंधरा और शिवराज भी ललित, विजय माल्या और व्यापमं की वजह से कट ऑफ हो गए। जो मोदी के साथ है उन पर कोई बात नहीं होती, जो साथ रहकर साथ नहीं है उन पर मीडिया ने थोड़ी बातें कर ली।

बदला हुआ मौसम वाले शब्द के साथ वो कहते हैं, मोदी ख़ुद ही लकीर है और मोदी की लकीर के सामने कोई दूसरा अपनी लकीर ना खींचे इसके लिए शाह है। जब वो घर की राजनीति में इतने माहिर है तो फिर कौन कहेगा इनसे कि सड़क ग़लत है। दूसरी पंक्ति के सारे नेताओं की स्थिति क्या है सब जानते हैं। सुना है कि 2015 में संघ के लोगों की फ़ाइलें भी नज़र में थी। विहिप हो या दूसरे संगठन हो, तमाम जगहों पर अनुकूलनता वाला सिद्धांत लागू हो रहा है। जबकि वो सारे पक्ष हैं, विपक्ष नहीं। उधर गुजरात में मोदी और शाह के दो अलग अलग गुट है यह भी सामने आता रहता है। केंद्र में या चुनाव जीतने में दोनों साथ हैं। गुजरात में ऐसे चेहरे को सीएम बनाया, जो अनुकूलनता के सिद्धांत के साथ साथ बिना ज़मीन का नेता हो। संघ का स्वयंसेवक दिन में जितनी संघ की बातें नहीं करता, उतनी मोदी की करता है। घर के विपक्षों से पार पाने वाले बाहरी विपक्षों से पार पा लेंगे। लेकिन फिर मानना तो पड़ेगा कि देश बदला हो या ना बदला हो, संघ और बीजेपी को बीते पाँच बरस में बदलने पर मजबूर किया गया है।
वो आगे कहते हैं, 2014 में मोदी कुछ नहीं थे। इसीलिए कुछ भी बोलने या पूछने के लिए उनके पास खुली छूट थी। आसमान में उड़कर वो इल्जामों और सवालों की कारपेट बॉम्बिंग किया करते थे। 2019 में वो सत्ता है, लेकिन अंदाज़ वही है। सत्ता ख़ुद ही विपक्ष बना हुआ है। ऐसे में सवाल यह है कि जो विफलताएँ मिली, जो सवाल लोगों ने पूछे, इसका जवाब कौन देगा? मोदी जिम्मेदारी को मत्थे लेने में नहीं मानते। तभी तो आज नीतियों की बात नहीं होती। काम पर वोट नहीं मांगते, नाम पर मांगते हैं। वो अगर देश को सपना बेच सकते हैं, तो फिर ख़ुद के लिए सपना बुन भी सकते हैं। हिंदुत्व, राष्ट्रवाद, पाकिस्तान ब्रह्मास्त्र है। लेकिन पुलवामा पर शहीद के परिवार ही सवाल पूछने लगे हैं। मीडिया मैनेजमेंट है इसलिए कई सारी बातें सामने नहीं आ रही। लेकिन पुलवामा और बालाकोट का असर जितनी तेज़ी से आसमान की तरफ़ गया, उतनी ही तेज़ी से वापस नीचे आ रहा है। 2014 में जो वोटर बीजेपी के साथ जुड़ा था, वो छिटक रहा है उसमें कोई दो राय नहीं हो सकती। बचे-खुचे वोटरों को छिटकने ना दिया जाए यही नीति है तो फिर इसे क्या कहेंगे?”

वो फिर एक बार इतिहास में लौटते हैं, बाबरी विध्वंस के बाद जो उग्र हिन्दुत्व का नारा बीजेपी और संघ ने पकड़ा, बीजेपी को इससे सत्ता नहीं मिली। यूपी में भी नहीं, केंद्र में भी नहीं। लोकतंत्र का असली मिज़ाज समझ में आया तो धारा 370, राम मंदिर, कॉमन सिविल कोड सब ठंडे बस्ते में डालना पड़ा। क्योंकि वाजपेयी ने समझ लिया कि बीजेपी अछूत हो चुकी है। सारे मुद्दे छोड़े तब सारे बीजेपी के साथ खड़े हुए। 2014 में मोदी भी यही बात करते थे, थोड़ी बहुत गहमागहमी हुई, जो वाजपेयी काल में नहीं हुई थी। लेकिन कॉमन सिविल कोड मुमकिन नहीं है यह सरकारी महकमे ने ही बोल दिया। राम मंदिर अधर में लटका हुआ है। धारा 370 पर अंदर से काम ज़रूर हो रहा होगा, पर कभी भी ठोस बात ही नहीं हुई। लेकिन मोदी-शाह की सत्ता पर जब भी खतरा मंडराता है, वो तुरंत कोई न कोई तुरुप का इक्का निकाल देते हैं, ताकि सत्ता बची रहे। सत्ता को बचाने की इसी माथापच्ची में बीजेपी और संघ का मूल ख़त्म सा हो चला है।

हर किसीके पास तुरुप के इक्के हैं, तो फिर तास के दूसरे पत्ते भी इतने महत्व क्यों रखने लगे हैं? अगर सफल है तो सफलता किसीको समझ नहीं आ रही है क्या? या फिर समझ-समझ में ही भेद-भरम बस गया है?
वो कहते हैं, ग्रामीण भारत मुश्किलों में है। उनकी नाराज़गी भारी पड़ सकती है। रिजर्व बैंक का पैसा लेना पड़ेगा। ग्रामीण भारत को अंतरिम राहत सत्ता को देनी होगी। किसानों को लुभाना होगा। गाँवों में फ़ौज उतारनी होगी। उधर जीएसटी से शहरी इलाका त्रस्त है। उन्हें मोदी कह रहे है कि मेरे अलावा सारे बेकार है। यही चुनावी प्रचार की नीति है, तो फिर नीतियों का भार क्यों ढोए? गडकरी को कोई पीछे से धक्का दे रहा होगा, लेकिन गडकरी के पास वो तुरुप का इक्का नहीं है। लेकिन ढंग से ना जीत पाए तो फिर वही होगा जो अभी विपक्ष में हो रहा है। सुना है कि मोदी-शाह को यह महसूस हो चला है, तभी वो अपनों से पार पाने की कोशिशें अभी से करने लगे हैं। ये वाक़ई विकट स्थिति है, जहाँ सत्ता दूसरों से और अपनों से भी लड़ रही है। इसके मतलब समझने बैठे तो स्थिति विकट ही लगती है। पाँच बरस के बाद अपनों से लड़ना, ये पार्टी और संगठन के लिए है, या सिर्फ़ सत्ता के लिए।

वो बोलते हैं, वो 95 मिनट का इंटरव्यू था। वो भी किसी पत्रकार को नहीं, अभिनेता को!!! सुना है कि जी न्यूज़ के ज़रिए उसका आकार तय हुआ। दिनों पहले जी न्यूज़ की टीम ने उसे सजाया और फिर सरकारी तथा निजी चैनलों को बेच दिया गया। लेकिन क्यों? शायद इसलिए कि मोदी सफल है लेकिन उनकी सफलता किसीको समझ ही नहीं आ रही! मोदी ने सोचा कि मैं ही मेरी सफलता लोगों को समझा दूं! आम और भीख के ज़रिए उन्होंने वातावरण बनाने की कोशिशें की। बीच चुनाव में ग़ैरराजनीतिक इंटरव्यू पूरा का पूरा राजनीतिक तो था ही, लेकिन संघ और बीजेपी का रिसर्च ख़त्म हो चला होगा, तभी तो मोदीजी ने ख़ुद का ही रिसर्च ख़ुद ही किया! लेकिन उनके बीते पाँच बरस देखिए। वो नेहरू-सरदार की कहानियां सुनाकर ये जताना चाहते है कि नेहरू ने सरदार को प्रताड़ित किया, देश का नुक़सान किया। गांधी का नाम इतना भारी है कि गोडसेवाले सत्ता पर पहुंचकर गांधी के चरणों में झुकने के अलावा कुछ कर ही नहीं पाएंगे। इन्होंने भी वही किया। अतीत के सवाल, अतीत का हिंदुस्तान, कमज़ोर तर्क, ग़लत आँकड़े, कमज़ोर तथ्य... इन सबके सहारे आज के बारे में लोगों का ध्यान हट जाए।

वो इसे लेकर टिप्पणी कर देते हैं, दुनिया जानती है कि भारत में बरस भर के भीतर 1 करोड़ 9 लाख लोग रोजगार से दुर हो गए। बीते 14 सालों में पहली बार आर्थिक पायदान पर निवेश सबसे कम हो रहा है। लेकिन मोदी सत्ता में वो ताक़त है कि वो बेरोजगारों को ही रोजगार पर सवाल करवाना भुला देते हैं!!! काम नहीं है तो कोई दिक्कत नहीं, पाकिस्तान को जवाब मोदी ही दे सकता है... यह शब्द बेरोजगार कब बोलेगा यह सत्ता को पता है। बीजेपी दुनिया की सबसे रईस पार्टी बन चुकी है। जब लोकतंत्र के सारे स्तंभ ही मोदीमय हो चुके हैं, तो फिर बेरोजगारों को भी मोदीमय होना पड़ेगा। वो नये वोटर ढूंढने निकले हैं। उन्हें पता है कि 2014 वाले कुछेक वोटर छिटक रहे हैं, तभी वो नये वोटर को राष्ट्रवाद की परिभाषा सीखा रहे हैं।

वो मंथन करते हुए कहते हैं, रास्ते पर चलते हुए साहब ने ख़ुद को ही रास्ता बना लिया। राफेल, सीबीआई, सुप्रीम कोर्ट, आरबीआई, ईडी, सीवीसी, चुनाव आयोग के बारे में बहुत कुछ है जो मीडिया मैनेजमेंट के ज़रिए इज्जत बचा रहा है। भीतर का सवाल यह घूम रहा है कि सत्ता बदली तो कौन किसे बक्षेगा?”
वो कहते हैं, मैं यह नहीं कहता कि सब ख़त्म हो जाएगा। राजनीति में कभी भी कुछ भी ख़त्म नहीं होता। देखिए न, 2014 में कांग्रेस अपने सबसे बुरे वक्त में पहुंची। कइयों को लगा कि अब तो कांग्रेस ख़त्म होती चली जाएगी। लेकिन 2019 में कांग्रेस अपने दम पर चुनाव लड़ रही है और अब दोगुना अच्छा प्रदर्शन करने की स्थिति में पहुंच चुकी है। आम आदमी पार्टी के ऊपर हमारे ही लोग कहते थे कि झाडू कैसा भी हो, छह महीने से ज़्यादा नहीं चलता। लेकिन वो मोदी-शाह की जोड़ी को ही हराकर दिल्ली की सत्ता पर क़ाबिज़ है। बिहार में जिस लालू का युग चला गया था, उसी लालू ने सबसे ज़्यादा सीटें जीती। ये बात और है कि राजनीति और अपने पापों की वजह से वो अंदर है।" वो इतिहास को भी टटोल लेते हैं, आपातकाल जैसी बड़ी त्रासदी के बाद इंदिरा जैसा राजनेता चुनाव हार जाता है। सबको लगता है कि इंदिरा का दौर चला गया। लेकिन वो इंदिरा दोबारा मजबूती से लौटती है और फिर इतिहास सबको पता है।"

वो एक और बात जोड़ते हैं, मैं यह नहीं कहता कि मोदी सत्ता जाएगी तो मोदी और शाह या बीजेपी का क्या होगा? मैं किसी संगठन या पार्टी को लेकर बात कर रहा हूं, व्यक्ति को लेकर नहीं। वर्ना आप ही देख लीजिए। आपातकाल जैसी आपराधिक त्रासदी के बात इंदिरा को घर बैठना पड़ा तो सबको लगा कि अब इंदिरा और संजय के ख़िलाफ़ कार्रवाई होगी, जेल भेजे जाएंगे। कुछ नहीं हुआ। उल्टा हुआ यह कि ऐसा करने के प्रयत्न शुरू हुए तो इंदिरा ने ख़ुद को ही पीड़ित बताकर जनता की भावना फिर से जीत ली। मोदी भी पीड़ित बनने में माहिर है। लेकिन सवाल सत्ता को लेकर नहीं है, सवाल इससे इतर भी है। पुरानी चीज़ें छोड़ दीजिए। ख़ुद मोदी सत्ता को ही देख लीजिए। हमारे ही लोगों को लगता था कि मोदी आएंगे तो सोनिया, राहुल, वाड्रा जेल जाएंगे... टूजी के आरोपियों को सख़्त सज़ा मिलेगी। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। मोदी ने इन सबको बक्ष दिया तो ये लोग भी मोदी को बक्ष देंगे। लेकिन कांग्रेस ने अपनी बीजेपीकरण किया तो क्या मोदी-शाह की जोड़ी कांग्रेसीकरण के लिए तैयार है?"

वो इसे लेकर एक बात यह भी जोड़ देते हैं, इंदिरा के जाने के बाद लगा कि इंदिरा का युग ख़त्म हुआ। लेकिन नयी गठबंधन सरकार को इंदिरा ने ही तोड़ दिया और फिर दोबारा वो सत्ता पर लौटी। मोदी पीएम ना बन पाए तब भी मोदी-शाह की जोड़ी ग़ैर तो क्या, अपनों की सरकार को भी ठीक से रहने नहीं देगी। क्या उस स्थिति में नया नेतृत्व पुराने चेहरों की बातें मानेगा या फिर सत्ता का नशा अब भी हावी रहेगा?”

वो कहते हैं, मीडिया मैनेजमेंट के ज़रिए सत्ता ने काफी कुछ संभाला है। सोचिए, मीडिया मैनेजमेंट ना होता और मीडिया सही स्थिति देश को पहुंचाता तो क्या होता? मुझे तो लगता है कि अगर मीडिया ढंग से काम करता तो 2019 के चुनाव में बीजेपी को पहले ही चेहरा बदल देना पड़ता। मैं यह ज़मीनी हकीकत के संदर्भ में बता रहा हूं। वो आगे कहते हैं, देखिए न, योगी-साध्वी समेत जितने भी विवाद हैं, सत्ता उन्हें ही चेहरा बनाने पर तुली है। गुजरात विधानसभा चुनाव में मनमोहन पर बड़े गंभीर आरोप मोदी ने लगा दिए। फिर क्या हुआ? नतीजे आने के बाद लोकसभा में अरुण जेटली ने कह दिया कि हमें मनमोहन की देशभक्ति पर संदेह नहीं है!!! नेहरू को हर दिन भला-बुरा कहा जा रहा है। राजीव गांधी पर इस प्रकार से हमला बोलना मोदी की निराशा नहीं है, किंतु सत्ता के लिए पागलपन ज़रूर है। राजीव गांधी की देशभक्ति पर संदेह नहीं है यह कब कह दे, पता नहीं। मोदी अब चुनावी प्रचार को बहुत ही विवादास्पद बना रहे है। शालीनता, मर्यादा के हर चुनावों में चिथड़ें उड़ते हैं, लेकिन मोदी जैसा शख़्स, जो पीएम है, वही इसकी अगुवाई करने लगा है यह बहुत कुछ चिंताजनक स्थिति है।
वो कहते हैं, “ऐसा क्यों है कि जिस मोदी को ज़्यादा से ज़्यादा स्वीकार्य होना चाहिए था, वो एक फिक्स डिपॉजिट की तरह हो चुके हैं। ऐसा क्यों है कि उन्हें आचार संहिता तोड़नेवाले, बिना तथ्य के और बिना आँकड़ों के बात करनेवाले पीएम के रूप में जाना जाता है।

वो कहते हैं, सबको पता हो चला है कि बीते पाँच बरस के कार्यकाल पर सत्ता में बात करने की हिम्मत नहीं बची है। सबको महसूस हो चला है कि 2014 का मेनिफेस्टो हो या 2019 का, सत्ता के पास कुछ नहीं है। हर भाषणों में सत्ता का अंदाज़ विपक्ष का हो चला है। आप पन्ने उलट कर देख लीजिए। भारत के चुनावी इतिहास में प्रचार के दौरान जितनी शिकायतें मोदीजी के ख़िलाफ़ आयोग को मिली, उतनी कब किस पीएम को मिली थी? आयोग प्रेशर में काम कर रहा है। क्लीन चिट का पिटारा खोला है। वर्ना आप ही देख लीजिए, जिन मुद्दों पर आयोग ने बोलने से मना किया था, वो तमाम मुद्दों पर मोदी बोले हैं। हर रैली में पीएम अपनी जाति क्यों बदल लेते हैं? ऐसा क्यों हो चला है कि जब भी पीएम का भाषण होता है, सबको पता होता है कि क्या बोला जाएगा। विपक्ष ने ये किया था, विपक्ष ने वो किया था, वो मुझे बुरा बोलता है, वो मुझे जान से मारना चाहता है। फांसी पर लटका देना, लात मारकर भगा देना, उसे नहीं मुझे मारो, मेरी मां बर्तन मांजती थी, मैंने हिमालय पर तपस्या की, पैंतीस साल तक मैंने भीख मांगी, मैं लाइब्रेरी जाकर किताबें पढ़ता था, मैं भारत में घूमा और भारत को जाना, मेरा यहाँ से रिश्ता है, वहाँ से रिश्ता है। साध्वी को बीजेपी या संघ नसीहत दे सकता है कि करकरे को ऐसा मत बोलो। लेकिन सत्ता को नसीहत कौन देगा? कौन कहेगा कि आपने जो बोला उसकी सूची बनाए तो आप ही हर बातों में संदेहास्पद साबित हो रहे हैं। अभी कल ही एक बंदे ने मुझसे पूछ लिया कि पैंतीस साल तक भीख मांगनेवाला आदमी लाइब्रेरी में जाकर किताबें पढ़ता हो ये तो पहली बार देख रहा हूं। आप ही बताइए, उसके तंज को किस तरह कसे। राजनीति का स्तर गिरता रहता है, लेकिन इसमें पीएम सरीखे आदमी को हिस्सेदार नहीं होना चाहिए ये बात किसीको तो बतानी पड़ेगी। किसी और से बुलवा सकते हैं, पीएम को ख़ुद क्यों बोलना?”

वो आगे कहते हैं, देखिए, कांग्रेस मुक्त का नारा समय के हिसाब से ठीक था। लेकिन लोकतंत्र में सत्ता को कुछ नारे छोड़ देने चाहिए। वो विपक्ष के रूप में हमारा नारा था। भारत जैसे लोकतंत्र में सत्ता विपक्षी पार्टी से मुक्त समाज का निर्माण करती दिखनी नहीं चाहिए। मैंने कहा कि दिखनी नहीं चाहिए। बंद कमरे में जो करना है करते रहो, लेकिन सत्ता को ऐसे नारों से अपनी छवि नहीं बनानी चाहिए। अगर आप अपने से अलग विचार वालों से मुक्त समाज चाहते है ऐसे नारे आप सत्ता के रूप में समाज में उछालेंगे तो फिर ये देश बहुत बड़ा है। संदेश यही जाएगा कि आप लोकतंत्र को ख़त्म करके संविधान को अपने हिसाब से बदलकर एकछत्रीय सत्ता चलाना चाहते हैं। बचा-खुचा काम विपक्ष कर लेगा। ये बात और है कि अभी विपक्ष जैसा कुछ है नहीं।

वो बोल देते हैं, कार्यकर्ता और स्वयंसेवक दिन-रात अपना खून-पसीना बहाते हैं। फिर अचानक से कोई पैराशूट आकर मंत्री बन जाता है। हमने जिन कांग्रेसियों का जी-जान से विरोध किया उनका बीजेपी में आना इस कदर बढ़ा कि हैरानगी होती है। हमारे एक स्वयंसेवक ने मुझसे नाराज़ होकर कहा था कि हम मुद्दों और विचारधारा पर वोट नहीं मांग रहे, हम तो मोदी के नाम से भीख मांग रहे हैं।

वो एक बात यह भी नोट करते हैं, कांग्रेस के जमाने में नचनिया अभिनेता-अभिनेत्री उनके टिकट से चुनाव लड़ते थे। आज यह हाल बीजेपी का हो चला है। परिवारवाद के ख़िलाफ़ हम थे, आज हमारे यहाँ वही समस्या सिर उठा रही है। बीजेपी कांग्रेस क्यों बनती जा रही है? ऐसा क्यों है कि गुजरात में कुछ युवा और इधर कन्हैया कुमार जैसे लड़के सिर उठाकर सत्ता के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद किए जा रहे हैं।
वो यह भी कह लेते हैं, ये बात सच है कि सत्ता ने इस दफा मीडिया मैनेजमेंट में सारी हदें पार की है। कुछ मंत्रालयों में बाकायदा यही काम हो चला है। लेकिन मीडिया का क्या है। सत्ता बदलेगी तब वे भी पाला बदल लेंगे। उनका काम भी तो यही है। अभी किसीको चमका रहे हैं, कल किसी दूसरे को चमकाएंगे। विश्लेषण बदल जाएंगे, पैनल बदल जाएंगे। विपक्ष जल्द से जल्द राष्ट्रपति के पास सरकार बनाने के प्रस्ताव पर काम कर रहा है, क्योंकि उसे पता है कि राष्ट्रपति दूसरे राज्यों में राज्यपालों ने जो किया वैसा तो नहीं करेंगे न। उधर बीजेपी के सह्योगी ही मोदी के बजाय दूसरे नामों की पसंद का नफ़ा-नुक़सान तय करने में लगे हैं। सत्ता हर क़ीमत पर दोबारा सत्ता चाहती है।

वो कहते हैं, विपक्ष सत्ता को भ्रष्टाचार पर चर्चा करने की चुनौती देता है, बदले में सत्ता कहती है कि बोफोर्स पर चर्चा कर लेते हैं। इन सबका मतलब है क्या? क्योंकि लोग कहने लगते हैं कि सत्ता ही विपक्ष और सत्ता, दोनों बन जाए तो फिर लोग सत्ता का विकल्प तलाशने ही लगेंगे। आगे यह भी कह देते है, देश के सामने कोई सामाजिक-राजनीतिक नैरेटिव नहीं है। बौद्धिक जगत के सामने मोदी-शाह एक संकट के रूप में उभरे हैं। विपक्ष का मैनेजमेंट ठीक नहीं है, वर्ना सारी ताक़तें एकजुट होने में देर नहीं लगती, जो वाजपेयी काल में तितर-बितर थी।

मीडिया मैनेजमेंट के साथ साथ वो दूसरे मैनेजमेंट का भी ज़िक्र कर लेते हैं, कहते हैं, पावर मैनेजमेंट और मनी मैनेजमेंट ही बीजेपी की नयी पहचान है। वर्ना सबसे ज़्यादा पैसा लेने वाली पार्टी के खाते में महज़ 60-65 करोड़ नहीं होते। अगर कल स्थितियां कुछ और होती है और मोदी के अलावा किसी और को पीएम बनाने की नोबत आती है, तो फिर बाकी का पैसा किसके खाते में है? इसका मैनेजमेंट कहाँ से हो? अगर मनी का मैनेजमेंट कहीं और से होता है, तो फिर पावर का मैनेजमेंट भी वहीं से होगा। सोनिया-मनमोहन की तरह।

ईवीएम विवाद पर वो नपेतुले लहजे में कहते हैं, "देखिए, ईवीएम हैक हो सकता है या नहीं, ये पुरानी बहस है। हमारे ही नेता ने पूरी किताब लिख डाली थी ईवीएम हैकिंग पर। कुछ तर्क आते हैं कि ईवीएम डिवाइस ही इधर-उधर पाया जाता है, किसी भी मंत्रालय का वेबसाइट तक सुरक्षित नहीं है, आधार में भी गड़बड़ियां हो रही हैं, अमेरिका समेत दुनिया के सिस्टम हैक होते रहते हैं, पीएमओ के डिवाइस बंद हो सकते हैं, पीएम का मिनटों तक संपर्क भी नहीं हो सकता, उपग्रह तक को नियंत्रित करने की तकनीकें मौजूद हैं, आप मिसाइल का रास्ता बदल सकते हैं। तब ईवीएम में ऐसा क्या है कि वो हैक नहीं हो सकता। इसके जवाब भी दिए जाते हैं। हारता है वो ईवीएम पर ठिकरा फोड़ता है। जीतनेवाला जनादेश का सम्मान करके आगे बढ़ जाता है। नजाकत यही है कि इस बहस से मैं निकल जाऊं। ईवीएम एक डिवाइस है। उसमें तकनीक है, इंजीनियरिंग है। अच्छा है कि इस पर बहस इंजीनियर लोग करे।" वो आगे यह भी कहते हैं, "आप ही ने देखा है। दिल्ली में 67 सीटें मिली तब ईवीएम ठीक था! कई राज्यों में विपक्ष आगे बढ़ा, कहीं पर सत्ता मिली, तो कहीं पर अच्छा-खासा प्रदर्शन किया विपक्ष ने, तब ईवीएम ठीक थे! अच्छा है कि इंजीनियर ही बहस कर ले।"

वो आगे कहते हैं, कांग्रेस का मतलब नेहरू-गांधी खानदान है। बीजेपी का मतलब संघ है। नेहरू-गांधी पर वार करके संघ और बीजेपी दायरा बढ़ाती रही। कांग्रेस के पास सत्ता थी, मौक़े थे, फिर भी उसने संघ को भारत में ज़मीन दी। शायद इसलिए, ताकि हिन्दू तुष्टिकरण की सोच उनके जहन में होगी। उधर बीजेपी मुस्लिम तुष्टिकरण का आरोप कांग्रेस पर लगाती रही। धीरे धीरे संघ और बीजेपी ने अपना दायरा बढ़ाया। लेकिन हिन्दू-मुस्लिम, मंदिर-मस्जिद ने सत्ता नहीं दिलाई तो संघ और बीजेपी वाजपेयी के आशरे चले। आडवाणी पीछे छूटे, वाजपेयी आगे निकले। लोकतंत्र का मिज़ाज भांपते हुए वाजपेयी ने जिस सड़क को पकड़ा उस पर कई लोग बीजेपी से जुड़ने लगे। एक मौक़ा वह भी आया, जब आडवाणी को भी समझ आया। लेकिन इस ढंग से समझ आएगा ये पता नहीं था। जिन्ना की मजार पर मत्था टेक आए। संघ को पसंद नहीं आया और फिर आडवाणी का क्या हुआ सब जानते हैं। हमने वो पूरा सफ़र देखा, जहाँ बीजेपी फिर एक बार उसी चौखट पर लौटी है। लेकिन उधर राजनाथ भोपाल में मुसलमानों से कह रहे हैं कि कुछ ग़लत हुआ हो तो मैं माफी मांगता हूँ, मुझे माफ करें। लव जिहाद के बारे में अज्ञानता दिखाना उनकी रणनीति हो सकती है, क्योंकि भोपाल में 22-23 फ़ीसदी वोट बैंक उन्हीं चीज़ों पर टिका हुआ है।

इस बीच वो स्मृति ईरानी का ज़िक्र भी कर लेते हैं, स्मृति ईरानीजी के पास वो संभावनाएँ है कि उनका जनाधार वो बढ़ा पाए। अगर वो किसीके साये से निकल पाई तो। लेकिन इस बार हमें लगता हैं कि बीजेपी अमेठी में बहुत बड़ा उलट-फेर कर सकती है। 2014 का वो दौर अलग था, 2019 की स्थितियां अलग है। पहले से ज़्यादा मुश्किलियाँ तो हैं। लेकिन पिछली बार बीजेपी यहाँ हारी थी उसके बाद भी स्मृति ईरानी की मौजूदगी यहाँ राहुल गांधी से भी ज़्यादा है। बीजेपी वहाँ रही है, ईरानी ने दौरे किए हैं, काम भी किए हैं। वहाँ के लोगों के पास दूसरा विकल्प नहीं था, बीजेपी अमेठी को विकल्प दे रही है। ये वाक़ई बड़ी जीत है। अगर कांग्रेस मोदी के सामने हारती है तो उसकी वजह होगी कि कांग्रेस विकल्प नहीं दे पा रही, जबकि बीजेपी ने उनके किले में ही एक विकल्प खड़ा कर दिया है। कहते हैं कि इस बार वो शायद जीत भी सकती है। अगर हारेगी तब भी बहुत ही कम अंतर रहेगा। लेकिन अगर जीती तो फिर कांग्रेस भले देशभर से 100 सीटें ले आए, लेकिन उसका किला ही वे हार जाएंगे। फिर बीजेपी को पता है कि इस जीत का जश्न किस तरह मनाना है।
 
पश्चिम बंगाल पर वो ज़्यादा आश्वस्त दिखते हैं, "हम पश्चिम बंगाल में सरप्राइज ज़रूर दे सकते हैं। जैसे मोदी सत्ता के बारे में मैंने कहा, वही हाल ममता सत्ता को लेकर है। हालांकि ये ज़रूर है कि पश्चिम बंगाल में पंचायत चुनाव तक हिंसा से बच नहीं सकते। लेकिन इस बार ममता घबराई हुई है। वहाँ ममता विरोधी वोट बैंक को बीजेपी के रूप में विकल्प मिल रहा है। मोदी-शाह की जोड़ी और संघ की मेहनत ने बंगाल में बीजेपी के लिए जगह बना दी है। हम यहाँ नुक़सान भरपाई कर सकते हैं।" वो आगे कह देते हैं, "ममता को पीएम की रेस में देखा जा रहा है, लेकिन उसी जगह से विपक्ष को नुक़सान हो सकता है। वहीं से बीजेपी सरप्राइज देने की तैयारी में है।" वो बंगाल की बात करते करते प्रणब मुखर्जी का ज़िक्र ज़रूर कर लेते हैं। कहते हैं, "वो सर्वमान्य नेता हैं, अनुभवी हैं, सबके साथ रिश्ते अच्छे हैं। कुछ लोग नतीजों के बाद स्थिति अनुकूल बनी तो उनका भी नाम आगे करने की सोच रहे हैं।"

वो कहते हैं, 2014 में केजरीवाल मोदी के सामने उतरे थे। 2019 में मोदी मुश्किलों में है फिर भी केजरीवाल नहीं उतरे। क्योंकि उन्हें अंदाज़ा है कि दिल्ली में उनकी छवि पहले की तुलना में गिरी है। 2014 में वो स्थितियाँ नहीं थीं। स्मृति ईरानी को राहुल गांधी के सामने उतारना रणनीती ही है, तो फिर ये रणनीति किसके फ़ायदे जाएगी? वो शायद जीतने वाली हैं, लेकिन उससे फ़ायदा सत्ता को ज़्यादा मिलेगा या स्मृति को?” वो कह देते हैं, देखिए, जहाँ तक केजरीवाल की बात है, वो हमारे प्रतिद्वंदी हैं। उनकी सोच और उनकी विचारधारा, उनकी शैली हमें नहीं पसंद। लेकिन एक कड़वी सच्चाई देखिए। अभी केंद्र में जो सत्ता है उसके क़रीबी जितने भी नेता या मंत्री है, सुषमा या राजनाथ को छोड़ दीजिए तो दूसरे जितने भी नेता है, जिन्हें सत्ता ने मंत्रीपद दिया है, उनमें से कोई भी दिल्ली में 70 में से 67 सीटें निकाल सकता था? बिलकुल नहीं। तो फिर यही मान ले न कि दूसरे पायदान वाले तमाम मंत्री या नेता केजरीवाल की तुलना में फेल है। केजरीवाल ने गंदी राजनीति की, नौटंकियां की। जनता उसका जवाब दे देगी। लेकिन हमारे दूसरे पायदान पर बैठे कौन से नेता में दम है कि वो 70 में 67 सीटें निकाले। मैं केजरीवाल की तारीफ नहीं कर रहा, लेकिन अगर सीटों की गिनती ही सब कुछ है तो फिर उस नज़रिए से दिल्ली की हार से ही सही मंथन हो जाना चाहिए था।

वो एक ज़िक्र यह भी कर देते हैं, अभी आधा चुनाव ख़त्म होने को है। अभी से कुछ बातें मिल रही हैं कि जो तीसरा मोर्चा ख़त्म माना जा रहा था वो खड़ा कर रहा है ख़ुद को। उन्हें लगता है कि बीजेपी और कांग्रेस, दोनों बहुमत से दूर रह जाए ऐसी स्थिति बन भी जाए। तीसरा मोर्चा वाले ख़ुद को उस स्थिति के लिए तैयार कर रहे हैं। बीजेपी और कांग्रेस के नेता भी उसी दिशा में अब आगे बढ़ेंगे। सवाल यह उठता है कि बीते पाँच बरस में क्षेत्रीय दलों को सबसे ज़्यादा प्रताड़ित किसने किया। उससे बड़ा सवाल यह निकलेगा कि अगले पाँच बरस में उन्हें कौन हथेली पर रखेगा। राजनीति में कुछ भी हो सकता है। मायावती मोदी के साथ मिल भी सकती है। लेकिन अभी जो स्थिति है, क्षेत्रीय दलों का राज आएगा क्या, यह सवाल टटोला जा रहा है। और चुनाव के दौरान अंदर ही अंदर जो राजनीति हो रही है, वो नतीजों के बाद हैरान कर भी सकती है।

वो कहते हैं, हिन्दुत्व की छतरी तले बीजेपी को संघ से ऑक्सीजन मिलता रहा। कांग्रेस नेहरु, नेहरू से लेकर इंदिरा, इंदिरा से राजीव, राजीव से सोनिया और सोनिया से राहुल-प्रियंका, इन्हीं के करिश्मा की बदौलत सत्ता को चखती रही। इस बीच जनसंघ जनता पार्टी होते हुए बीजेपी बन गया। इसी बीजेपी ने कांग्रेस को 50 से कम आँकड़ों पर पहुंचा दिया। लेकिन महज़ पाँच बरस में सौ साल पुरानी पार्टी फिर एक बार अपने दो सदस्यों की बदौलत पटरी पर लौटने को तैयार है। ये बात ज़रूर है कि मोदी में अब भी वो करिश्मा है। हिंदुस्तानी लोगों में जो आधारहिन मान्यता है कि अकेला आदमी भ्रष्टाचार क्यों करेगा, इसका फ़ायदा मोदी के पास है। लड़ाई वाक़ई दिलचस्प होनी चाहिए थी, लेकिन ऐसा नहीं हो पाना, इसके भीतर ही सारा संकट समाया हुआ है। कैप्टन के हाथों जहाज़ डगमगाने लगा है। बहुमत मिला तो राम मंदिर बनाएंगे... हिन्दुओं को दिलाया गया ये भरोसा टूट चुका है। चौबीस घंटे में मंदिर का प्रस्ताव पारित होगा, पाँच बरस बीत चुके हैं, सत्ता बुर्के और तलाक के पीछे पड़ी है।

प्रियंका के बारे में वो कहते हैं, उनमें इंदिरा का अक्स है और इंदिरा भारतीय जनमानस में बहुत सम्मानीय और लोकप्रिय नेता अब भी है। प्रियंका की हिन्दी राहुल और मोदी, दोनों से अच्छी है। भले वो घर में जीन्स पहनती हो, लेकिन लोगों के बीच वो जिस परिधान में और जिस अंदाज़ में जाती हैं, लोगों को यही लगता हैं कि इंदिरा लौट आई। प्रियंका 2019 के लिए नहीं, 2022 के लिए उतरी हैं। आप भारत के भावनात्मक लोगों को जानते हैं। करिश्माई चेहरा और भावनात्मक जुड़ाव के आगे बड़े से बड़े संगठन छोटे पड़ जाते हैं। वो भारत का सबसे पुराना राजनीतिक परिवार है, जिनके खून में ही राजनीति है, संयम है। वो लंबी सड़क नापने के लिए उतरे हैं। प्रियंका कितनी सीटें 2019 में लाएगी ये सवाल कांग्रेस के भीतर नहीं है, लेकिन कांग्रेस यही उम्मीद में है कि अगले पाँच सालों में प्रियंका यूपी में किस तरह से कांग्रेस को पुनर्जीवित करेगी। वो लोग शालीनता और मर्यादा के साथ ख़ुद को पेश कर रहे हैं, नफरत की राजनीति के ख़िलाफ़ मुहब्बत का व्यापार चल रहा है। वो मोदी पर आक्रामक है, लेकिन कभी वाजपेयी, आडवाणी को बुरा शब्द तक नहीं बोलते। वो गांव, किसान, देहात, दलित, रोजगार, सड़कें, बिजली, पानी, रोटी को लेकर आगे बढ़ रहे हैं। यानी उनके पास विज़न है। तभी तो वो इसे विचारधारा की लड़ाई के रूप में पेश किए जा रहे हैं। राजनीति टाइमिंग का खेल है। कभी किसीका टाइमिंग गड़बड़ हो सकता है, लेकिन लड़ाई ही सोच और विचारधारा की हो, तब समय अपने समय पर अपना रंग दिखाता है। संघ और बीजेपी का सबसे बड़ा संक्ट यही है कि वो कौन सी दिशा में बढ़ना चाहते हैं यही तय नहीं है। यानी कि महज़ पाँच बरस में विकास की सड़क अब उसी चौराहे पर लौटती दिखाई दे रही है। हां, राहुल-प्रियंका के लिए लंबी लड़ाई की शुरुआत है, और यही मौक़ा मोदी-शाह के पास है।
वो कहते हैं, 2014 के सपने पूरे नहीं किए है तो हवा उल्टी बहेगी इसका अंदाज़ सत्ता को है। संघ को भी अहसास है कि बिना सत्ता के उसका विस्तार मुश्किल है। तो फिर क्या विचारधारा - सोच - कार्यकर्ता - स्वयंसेवक आदि इसीमें फंसे हैं? भीतर दो तरह के अंदाज़ है कि 2019 में मोदी या तो अलख नहीं जगा पाएंगे या फिर बड़ा चमत्कार कर जाएंगे। किंतु यह तय है कि वो कभी अपने आरोपों का जवाब नहीं देंगे, उल्टा सवाल ही करेंगे। सत्ता या राजनीति में यही ज़रूरी है। अगर सत्ता हर सवालों के जवाब देने लगेगी तो यह ख़ुदकुशी होगी। किंतु यहाँ सत्ता के साथ एक संगठन भी खड़ा है। राफेल, बेरोजगारी, महंगाई, शिक्षा, अर्थतंत्र, निवेश, हेल्थ... सवाल ही सवाल खड़े हैं, जिसका जवाब पाकिस्तान के कंधे पर बंदूक रखकर दिया जाएगा। कार्यकर्ताओं और स्वयंसेवकों, दोनों को ही भ्रमित किया जाना हैं, ताकि वे दूसरों को भ्रमित करें!!! चेन सिस्टम तो लागू होगा ही! लेकिन परशेप्शन ने ही तो संकट खड़ा किया है। फिर एक बार परशेप्शन की सड़क पर चलकर बीजेपी और संघ जाना कहाँ चाहते हैं?”

वो कहते हैं, चुनाव तो मोदी-शाह ही लड़ेंगे। लेकिन किरदार नेहरू से लेकर सोनिया तक के आएंगे। सोचा न था कि राजीव का भी किरदार आएगा। उधर कांग्रेस किसी पूर्व बीजेपी नेता को प्रताड़ित नहीं कर रही। उसका फोकस बस मोदी पर है। राजीव पर मोदी सत्ता के गज़ब के इल्ज़ाम पर राहुल गांधी वाजपेयी सरकार का नाम लेकर कह सकते थे। लेकिन मोदी की चालों में चलकर वो फंस नहीं रहे। वो तो उन्हीं मुद्दों पर कायम है, जो आवाम से सरोकार रखते है। वो इस बार तो अब तक मोदी के झांसे में नहीं फंसे। हां, प्रियंका ने मोदीजी को दुर्योधन ज़रूर कह दिया। राहुल की रणनीति को प्रियंका इस मामले में तोड़ती दिखी। वो मीडिया को लेकर कहते हैं, दिल्ली से पत्रकार भेजे जा रहे हैं। वो लोगों के सामने माईक लेकर खड़े हो जाते हैं। वो मोदी लहर ढूंढने निकले हैं। कुछ नहीं मिलता तो एकाध प्रतिक्रिया, जो सत्ता के अनुकूल हो, उसे लेकर दिल्ली लौट जाते हैं। दिल्ली जाकर कह देते है कि मोदी का करिश्मा अब भी मौजूद है।

राजनीति की बातें याद करते हुए वे कहते हैं, अगर किसी नेता के पास अपने काम का कोई जवाब ना हो तब राजनीति उसे कहती है कि देश के झंडे में ख़ुद को लपेटो और चल पड़ो, कोई तुमसे सवाल नहीं पूछेगा। मेरे हिसाब से यह हार ही है। क्योंकि संघ और सत्ता यही आश लगाकर बैठी है कि बेनीफिट ऑफ डाउट मिल जाए। मोदी को संदेह का लाभ देकर लोग दूसरा कार्यकाल दे दें। ये तो हार ही है न? बेनीफिट ऑफ डाउट का चक्कर ही है कि मोदी को लार्जर दैन लाइफ के रूप में हमारा स्वयंसेवक ही पेश कर रहा है। एक परशेप्शन बनाया गया कि यही है तारणहार, यही पाकिस्तान से हमें बचाएगा। मीडिया का अधिकतर हिस्सा छोटी-मोटी लहर पैदा करने में लगा है। मीडिया पर भी कोई ऐसा नहीं दिखता जो मोदी विरोधी हो। लेकिन फिर ज़मीनी हालात ऐसे क्यों है? पाकिस्तान को सबसे ज़्यादा याद सत्ता ही करती है। डर, ख़ौफ़, धारणा ही इनका काम बचा है। तो फिर बीजेपी और संघ की जो बातें हमने की वो कहाँ हैं। अगर सब ठीक है तो अच्छे दिन पर क्यों मार्मिक बात नहीं की जा सकती?”

वो ये ज़रूर कहते हैं कि, मोदी-शाह में वो चीज़ें हैं कि वो मुश्किल से मुश्किल चुनाव जीता सकें। लेकिन यह मुश्किल दौर का सबसे मुश्किल चुनाव है। टिकट को लेकर मोदी-शाह के होते हुए बीजेपी में दूसरों की तरह झगड़े नहीं होते। लेकिन झगड़े नहीं होते इसी तर्कभर से मंजिल थोड़ी न पार पाई जा सकती है? ऐसा क्यों है कि जुमला-भक्त आदि शब्द सुनते हैं तो आज-कल बीजेपी और सत्ता, दोनों की ही छवि बनती है? ये नैरेटिव किसने बनाया? इससे बड़ा सवाल यह है कि मीडिया और सत्ता के मैनेजमेंट की मेहनत के बाद भी यह नैरेटिव बना ही क्यों?”
वो कहते हैं, हम उग्रता और कट्टरतावाद की सड़क पर थे तब हमें सत्ता नहीं मिली। उदारवाद को पकड़ा तो सत्ता मिली। सत्ता को बरकरार रखने के लिए उसी उदारवाद को सीने से लगाना पड़ा, दूसरे पारंपरिक मुद्दे छोड़ने पड़े। आज फिर हम उसी चौराहे पर जाकर खड़े हो चुके हैं। हमारे स्वयंसेवकों में सहनशीलता है, लेकिन कार्यकर्ताओं में काफी कम है। सत्ता की आलोचना के समय वो जिस तरह से भड़क जाते हैं, अनर्गल प्रलाप करने लगते हैं, माँ-बहन तक पहुंचते हैं, ये सारी चीज़ें पार्टी को सिकुड़ रही हैं, विस्तार नहीं दे रही। अतिवादी समर्थकों को समझना होगा कि ये हिंदुस्तान है और यहाँ की फिजाओं में लोकतंत्र बहता है। हम हर विचार, हर सोच, हर तर्क को ना भी अपनाए, लेकिन उसे अपमानित या प्रताड़ित नहीं कर सकते। वर्ना हमारी पहचान का स्तर गिरेगा ही गिरेगा। वो कहते हैं, हमारे जिस कार्यकर्ता का ये मानना हो कि उग्रता और कट्टरवाद हमें आगे ले जाएगा, तो फिर उनको मैं हिन्दू महासभा, बजरंगदल से लेकर शिवसेना तक के नाम दे सकता हूं। उनकी राजनीतिक हैसियत किसी एक इलाके तक सीमित है। अगर उन्हें इलाके के बाहर जाकर भारत का सामना करना पड़े, तो उन्हें अपनी हेकड़ी छोड़नी होगी। वर्ना भारत उनको स्वीकार नहीं करेगा। आप समझे कि भारत कोई छोटा-मोटा देश नहीं है।

वे (महोदय) कार्यकर्ता और स्वयंसेवक के फर्क को समझाते समय इस आलोचना वाले तर्क को अनेकों बार पेश किए जा रहे थे। मैंने उनसे बीच में ही पूछ लिया कि, "अच्छी और वाक़ई ज़रूरी चीज़ है यह। हमारे अपने धार्मिक-सामाजिक इतिहास में, संस्कृति में तथा लोकतंत्र में भी आलोचना ज़रूरी अंग है। आंखें या मुंह बंद रखने की संस्कृति संकीर्णता का प्रतीक है। मैंने बीजेपी कार्यकर्ता को अपने पीएम की आलोचना करते नहीं देखा है, लेकिन स्वयंसेवक को यह करते हुए ज़रूर देखा है। किंतु कभी संघ के किसी प्रचारक को या स्वयंसेवक को संघ के किसी शीर्ष नेता की आलोचना करते हुए भी नहीं देखा। यह संस्कृति समझ में नहीं आई कभी।" उन्होंने इसे लेकर अनुशासन और मर्यादा को लेकर मुझे समझाया, तुलनात्मक उदाहरण तथा समीकरण भी दिए, कुछ दूसरे उदाहरण भी पेश किए, सामाजिकता-समरसता आदि को लेकर भी बातें की।

बात फिर आगे बढ़ी और वे कहने लगे, हम तो पिछले साल से ही आशंकित है और अपनी चिंताएँ प्रकट कर रहै हैं। लेकिन कोई सुन नहीं रहा। हां, ये बात सच है कि 90 फ़ीसदी मीड़िया सत्ता को खुला समर्थन दे रहा है। नैरेटिव बनाने का काम मीडिया को दिया गया है। मीडिया ने अपने कार्यक्रमों को ऐसे चलाया, जैसे वो नागरिकों को बतला रहा हो कि कुछ दिक्कतें हैं, समस्याएँ हैं, लेकिन छोड़िए उन चीज़ों को। उन सब चीज़ों को नतीजों के बाद यही सत्ता सुलझाएगी। यही है वो, जो हमें पाकिस्तान से, आतंक से बचा सकता है। यही है वो जो देश को बहुत कुछ देगा। यही मीडिया का नैरेटिव था।

वो बड़े तांव से बोलते हैं, 2017 तक हम यही सोच रहे थे, जो भी हो, लेकिन बीजेपी और मोदी आसानी से दोबारा सत्ता में लौटेंगे। लेकिन 2018 के मध्यकाल से हम वही कह रहे हैं जो आप सुन रहे हैं, लेकिन जिन्हें सुनना चाहिए वो नहीं सुनते। हमें संकट की आहट तभी से दिखती है। वो आश्चर्य के भाव के साथ कहते हैं, एक परिवार के दो लोग कांग्रेस को पुनर्जीवित करने के प्रयासों में लगे हुए हैं। उधर एक बड़ा परिवार अपने ही दो स्वयंसेवकों के हाथों ऑपरेशन टेबल पर जाने के लिए तैयार हो रहा है।

वो आगे कहते हैं, हम 23 अप्रैल 2019 की सुबह से गुजरात के स्थानिक अख़बारों को देख रहे थे। जो अख़बार सत्ता का नैरेटिव बना रहा था, वो अचानक से रंग बदलने लगा। तारक मेहता जैसे सत्ता प्रेमी धारावाहिकों को देख रहे हैं। उसने तो बाकायदा अनेक इशारे किए एक हज़ार मोबाइल और सेवकलाल वाले एपिसोड में। एपिसोड में नेता का नाम सेवकलाल रखा। सोचिए, वो कौन सा नेता है जो ख़ुद को सेवक कहता है? मोबाइल वाली कहानी दिनों तक चली। मुझे किसीके मोबाइल याद आ गए। जो धारावाहिक नोटबंदी के फ़ायदे का सरकारी प्रचार कर चुका था, वो अचानक से बोलने लगा। दिनों तक चले उस एपिसोड में देशभक्ति, राष्ट्र, रक्षा में से कुछ नहीं आया। उल्टा, संविधान - लोकतंत्र - नागरिकी अधिकार जैसी चीज़ें किरदारों ने बार बार कही। एपिसोड के किरदारों ने वही मुद्दे उठाए, जिस पर वो बीते पाँच बरस से चुप थे। वो मुद्दे नहीं उठाए, जिसे अभी सत्ता की चौखट से परोसा जा रहा था। भाबी जी घर पर है ने तो वफादारी निभाई, लेकिन तारक मेहता वालों ने सरकार, संविधान, लोकतंत्र, जागरूकता, चुनावी वायदों पर ही ध्यान दिया। मैं तो सकते में था कि एंटरटेनमेंट मीडिया भी स्थिति को समझ रहा है, या फिर उनके संपर्क वहाँ तक है, जहाँ तक मेनस्ट्रीम मीडिया के होते हैं। मीडिया के दूसरे सूत्र भी अपना रंग बदलते हुए दिखाई दिए। शेयर बाज़ार के कुछ स्क्रिप्ट भी। सत्ता के क़रीबी स्क्रिप्ट पहले से ही घबराए हुए हैं। अब बीजेपी मायावती को खुल्ला ऑफर कर रही है डिफेन्स मिनिस्ट्री का। पवार भी स्थिति बयां कर रहे हैं। राजनाथ नपे-तुले दिख रहे हैं। गडकरी को जैसे कि इंतज़ार है। मायावती भी बाद की स्थिति पर कुछ ऐसा कह रही है। राम माधव जैसा शख़्स भी। 400 सीटों से 300 पर आए और अब उससे भी नीचे की स्थिति पर जाने को हम तैयार है ऐसा जता रहे हैं।
वो कहते हैं, 2014 के बाद जिस तरह का मौक़ा मिला था मोदी-शाह को, जिस तरह का जनाधार, आशाएँ, भरोसा जनता का रहा, जिस प्रकार से खुली छूट थी सरकार को, 2019 में जीतने की चुनौती हो ही नहीं सकती। लेकिन यहाँ ढंग से कैसे जीते इसी माथापच्ची में संघ और बीजेपी डूबे हैं। मैं तो कहता हूँ कि ढंग से जीतने का सोचना ही हार है। पाँच बरस में इस स्थिति पर पहुंचना ही विफलता का पर्याय है। वे आगे कहते हैं, मोदी पीड़ित बनने का काम बख़ूबी करते है। वो उस स्थिति में भी यही शैली अपनाकर चलेंगे तो फिर ये सोचना दोबारा होगा कि फिर से वही सड़क क्यों?”

वो बड़े गहरे अंदाज़ में चिंता व्यक्त करते हैं, जब नदी में उफान हो और बांध ही भरभरा कर गिरने की स्थिति में हो, तो क्या सीमेंट की दो बोरियों से बांध को बचाया जा सकता है? मान लीजिए कि जैसे-तैसे बचा लिया, तो फिर वो बांध कब तक काम करेगा और कैसे करेगा? इतर सवाल तो यह है कि आख़िर बांध भरभरा क्यों रहा है?"

वो कहते हैं, ध्यान दीजिए। जब आप सत्ता का मतलब पूछेंगे तो एक ही नाम आएगा। सरकार का नाम पूछेंगे तो दो का नाम आएगा। बीजेपी का अर्थ समझेंगे तो तीन-चार नाम ही आएंगे। देश कौन चला रहा है ये सोचने बैठेंगे तो दस नाम लेने में भी सांसें फूल जाएगी। वो यह भी जोड़ते हैं कि, वाजपेयी अच्छा भाषण देते थे, लेकिन वोट में तब्दील नहीं कर पाते थे। मोदीजी के भाषण को चाहे लोग अच्छा कहे, लेकिन उतना अच्छा नहीं है, लेकिन वो वोट में तब्दील हो जाते हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि संगठन काम नहीं कर रहा है। संघ काम नहीं कर रहा ऐसा नहीं है। इतने राज्यों में जीत संगठन और बूथ लेवल पहुंच की वजह से है। जो तीन-चार जनों का काम नहीं है। लेकिन मामला यह है कि रास्ता कौन सा है, और वो किस दिशा में ले जा रहा है? सत्ता लक्ष्य हो सकता है, सोच नहीं।

वो कहते हैं, मोदी-शाह की जोड़ी कामयाब है तो रणनीति है, नाकामयाब होती तो तिकड़म होता। लेकिन प्रचार जिस आसरे चल रहा है, उससे कार्यकर्ता और स्वयंसेवक का विस्तार नहीं हो रहा, वो कुंद हो रहे हैं। ये सच है कि नरेन्द्र मोदी जैसा चेहरा है और अमित शाह जैसा रणनीतिज्ञ है तो दूसरों को कुछ करने की ज़रूरत ही क्या है? जिन राज्यों में बीजेपी के पास सत्ता नहीं थी, आज वहाँ पर सत्ता है तो फिर परेशानी क्या है? राजनाथ - सुषमा - आडवाणी - जोशी किसीकी ज़रूरत किसी विधानसभा में नहीं पड़ी। आपने सुना क्या कि इनमें से कोई नेता किसी राज्य में गया और चुनावी धारा बदल दी? नहीं सुना न? इतनी मेहनत करनेवाला कोई नेता दूसरा नहीं है ये भी सच है। ऐसी ऊर्जा और ऐसी अथक मेहनत किसीने नहीं दिखाई ये भी सच है। लेकिन उस नब्ज़ को भी समझना होगा जहाँ रणनीति और तिकड़म मिल रहे हैं।

वो इस विषय पर कहते हैं, अमित शाह किसी भी राज्य में चुनाव प्रचार के दौरान सबसे पहले पता लगाते हैं कि वह किस सीट को जीत नहीं सकते। उन सीटों को अपने दायरे से अलग कर राज्यों के कद्दावरों को कहते हैं कि आप इन सीटों पर जीत के लिए उम्मीदवार बताइए। जीत के तरीक़े बताइए। तो राज्य स्तर की पूरी टीम जो कल तक ख़ुद को बीजेपी का सर्वेसर्वा मानती रही, वह हार की सीटों को जीत में बदलने के दौरान अपने ही अध्यक्ष के सामने नतमस्तक हो जाती है। दूसरे स्तर पर जिन सीटों पर बीजेपी जीतती आई है उन सीटों पर अपने क़रीबी या कहे अपने भक्तों को टिकट देकर सुनिश्तिच कर लेते हैं कि राज्य में सरकार बनने पर उनके अनुसार ही सारी पहलकदमी होगी। और सारा ध्यान उन सीटों पर होता है जहाँ कम मार्जिन में जीत-हार होती है। या फिर कोई मुद्दा बीजेपी के लिए परेशानी का सबब हो और किसी इलाके में एकमुश्त हार की संभावना हो। जैसे, गुजरात में सूरत या राजकोट के हालात बीजेपी के लिए ठीक नहीं थे। पटेल तो इन दोनों जगहों पर अमित शाह की रैली तक नहीं होने दे रहे थे। लेकिन चुनाव परिणाम इन्हीं दोनों जगहों पर बीजेपी के लिए सबसे शानदार रहे।
वो यह भी कहते हैं कि, हिन्दूवादी छवि धारण करनेवाले मोदी कभी अयोध्या नहीं गए। बीच चुनाव वो अयोध्या के पास गए थे, अयोध्या नहीं। मोदी अयोध्या नहीं जाते और योगी अयोध्यावासी हो जाते हैं। इससे मंदिर की चाहत रखनेवाले तबके में आशा जीवंत रहती है। लेकिन मंदिर तो केंद्र को भी बनाना है। लेकिन जादू देखिए। जो तबका कल तक कहता था कि मंदिर नहीं तो मोदी नहीं। वही लोग फिर एक बार मोदी सरकार के नारे को फूंक रहे हैं। कहना यही है कि कार्यकर्ताओं और स्वंयसेवकों के साथ भी यही रणनीति या यही तिकड़म करने की मंशा है क्या?”

वो बहुत सारे तर्कों के साथ एक बात कह जाते हैं, वाजपेयी ने बीजेपी का कांग्रेसीकरण किया। राहुल गांधी कांग्रेस का बीजेपीकरण कर रहे हैं। लेकिन सत्ता ने तो संघ का ही बीजेपीकरण कर दिया है। जबकि ख़ुद बीजेपी आज कोई निश्चित सड़क या सोच को लेकर गंभीर नहीं है। तो फिर संघ का बीजेपीकरण कितना ठीक है यह मंथन तो होना ही चाहिए। अच्छे दिन आने वाले हैं का नारा 2014 में था, 2019 बीजेपी के लिए बुरे दिन क्यों दिखा रहा है यह कौन सोचेगा?”

वो गहरी सांसें लेते हुए कहते हैं, देशभक्ति का गुर सदैव ज़िंदा रहता है, राष्ट्रवाद का नशा चिरकालीन नहीं होता। अगर दोबारा सत्ता मिलती है तो जीत से भी ज़्यादा ज़रूरी यह देखना है कि फिर भगत सिंह का हिंदुत्व चलेगा या फिर सावरकर का?” हिंदुत्व के इस नये वर्गीकरण को लेकर उनकी बातें यहाँ लिखना फ़िलहाल तो ठीक नहीं है। वो आगे स्पष्ट करते गए कि, बीजेपी के पास दस करोड़ कार्यकर्ताओं की फ़ौज है। संघ से भी ज़्यादा। लेकिन सच यह भी है कि भारत के जिस कोने में संघ की पहुंच है, इन कार्यकर्ताओं में वो ताक़त नहीं है। वर्ना वो लोग अपने 10 करोड़ कार्यकर्ताओं को झोंक देते। भक्त नामका लफ्ज़ बीजेपी से जुड़ा है, लेकिन शर्मसार संघ को कर रहा है। हमारे यहाँ हम भक्त नहीं बनाते। हम तो हमारे स्वयंसेवकों को अपने ही प्रधानमंत्री की आलोचना करना भी सीखाते हैं। अगर बीजेपी हारती है तो उनके दस करोड़ कार्यकर्ताओं की फ़ौज तास के पत्तों की तरह ढह जाएगी। हमारे यहाँ ऐसा नहीं होगा। लेकिन बुनियाद हिलेगी तो फिर कौन सा सीमेंट इस्तेमाल करना है यही बड़ा सवाल है। अगर बीजेपी जीतती है तो फिर सारी चिंताएँ कुछ देर के लिए बेइमानी साबित होगी। लेकिन कुछ देर के लिए, हमेशा के लिए नहीं। अगर हारे तो 200 के नीचे जाएँगे और अगर जीते तो 300 के ऊपर। बीच का कुछ नहीं होगा। लेकिन चिंताएँ और सवाल नशा उतरने के बाद तैरेंगे ही।

कहने वाले यह भी कह सकते हैं कि यहाँ तो आलोचना ही आलोचना है। एक ही साइड है जो नकारात्मक है, जो अच्छी चीज़ें हुईं उसका तो ज़िक्र ही नहीं है। कहने वालों की यह बात सही है। लेकिन जिस चौखट से यह बातें आई, हमें यह लगता है कि उनकी ये बातें आलोचना नहीं, बल्कि चिंता थी, मंथन था। यह चिंता और यह मंथन उस आलोचना से थोड़ा-बहुत दूर है। ग़ैरों की चौखट से प्रकट होने वाली चिंताएँ कोरी आलोचना होती है ये मान लेना चाहिए, लेकिन उसी चौखट से आने वाले मंथन को महज़ कोरी आलोचना मान लेना, यह भी शायद बदलाव का नया दौर ही मान लीजिए।

(इनसाइड इंडिया, एम वाला)