1 सितम्बर, 2014 के
दिन भारत को दो अच्छी ख़बरें मिली थीं। पहली तो यह थी कि भारत के मंगलयान ने अंतरिक्ष में 300 दिन पूरे किए और दूसरी यह कि प्राचीन भारत की पहचान रही नालंदा यूनिवर्सिटी में 800 साल से भी लंबे अंतराल के बाद पुन: शिक्षा का कार्य
शुरू हुआ।
नालंदा महाविहार या नालंदा विश्वविद्यालय
के तौर पर प्रसिद्ध इस परिसर की स्थापना 5वी शताब्दी में हुई थी। ऑक्सफर्ड,
कैम्ब्रिज जैसे संस्थान को तो छोड़ दे, लेकिन युरोप की सबसे प्राचीन बोलोग्ना यूनिवर्सिटी
भी जब स्थापित नहीं हुई थी, तब से नालंदा में विद्या एवं ज्ञान की शिक्षा दी जाती थी।
एक दौर था जब यहाँ 10,000 से भी ज़्यादा अभ्यासी शिक्षा लेते थे।
उस दौर में भी आसमान के साथ बातें करने
वाली इस इमारत की 9 मंजिलें थीं। उस संस्थान के पुस्तकालय की भव्यता का वर्णन दुनिया
की कई किताबों में लिखा गया है। बोद्धधर्मी द्वारा स्थापित इस संस्थान ने इतनी ऊंचाई
और इतनी व्यापक्ता प्राप्त की हुई थी कि उस दौर में देश या धर्म की दीवारे इसके सामने
बोनी हो चुकी थी। बोद्ध धर्म के स्थापित इस संस्थान का निर्वाह गुप्त वंश और हिंदु
राजवी भी करते आये थे और उन्होंने इस संस्थान का संरक्षण भी किया था।
1193 में इस्लामी आक्रमणखोर बख्तियार
खिलजी ने इस गरिमा का नाश किया और उसके बाद वो जीता-जागता दौर खंडहर में तब्दील हो गया।
1 सितम्बर, 2014 के दिन, यानी कि 8 शताब्दी के लंबे
अंतराल के बाद यहाँ शिक्षा का कार्य फिर शुरू हुआ।
कहा जाता है कि 21वीं शताब्दी एशिया की
शताब्दी है। और इसके पीछे भारत, जापान और चीन के विशाल अर्थतंत्र और फौजी शक्तियां छुपी
हुई है। एशिया के पास आर्थिक और संरक्षण के अलावा ज्ञान और विद्वता के सुपर पावर बनने
का मौक़ा था। और वो मौक़ा था नालंदा विश्वविद्यालय। आज से 8 से 10 साल पहले इस विचार
को प्रस्तुत किया गया था और उसके साकार करने का ठोस प्रयास वर्ष 2006 से शुरू हुआ।
2006 में भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति
अब्दुल कलाम ने अपने संवैधानिक पद से नालंदा यूनिवर्सिटी को फिर से जीवित करने का प्रस्ताव
पेश किया और फिर उसके ऊपर ठोस रणनीति और कार्यवाही शुरू हुई।
नवनिर्मित
नालंदा विश्वविद्यालय का लोगो
नालंदा की उस पुरानी रोशनी को वापस
लाने के प्रयासों में एशिया के अन्य देशों ने भी अपना पूरा योगदान प्रदान किया। 2006 में चीन, जापान, सिंगापोर, थाइलैंड
और भारत समैत अन्य देशों ने (12 देश) नालंदा के नवसर्जन पर एक करार किया। नालंदा के
नवसर्जन के प्रस्ताव पर ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, रशिया और
अमेरिका ने भी अपना अपना समर्थन दिया। जापान ने नालंदा को पुनर्जिवीत करने के लिए उसका
पूरा ख़र्चा उठाने की तैयारी दिखाई और जापान के अलावा अन्य देशों ने भी अपना आर्थिक सहयोग
देने की पेशकश की।
लेकिन 2008 में
विश्व में चल रहे आर्थिक संकटों के कारण इस योजना को बड़ा धक्का लगा। इसके अलावा एशियाई
देशों के अंदरुनी मामलों के कारण भी इस योजना को इतनी अहमियत नहीं मिल सकी। चीन और थाइलैंड
ही आर्थिक मदद प्रदान कर पाए। ये पूरी योजना 50 करोड़ अमेरिकी डॉलर की है। इसका पूरा
ख़र्चा उठाने के लिए तैयार जापान ने अब तक एक भी येन नहीं दिया। लेकिन भारत सरकार
2006 में राष्ट्रपति ने जो प्रस्ताव पेश किया था उस पर जमी रही और नवम्बर-2011 में नालंदा
यूनिवर्सिटी क़ानून को संसद में पारित किया गया और इसी क़ानून के आधार पर यूनिवर्सिटी
के लिए 455 एकड़ जमीन मुहैया कराई गई। कई सारे विद्वान और बुद्धिजीवी लोगों के दल ने
इस योजना को धीरे धीरे लेकिन ठोस तरीक़े से आगे बढ़ाया। अहमदाबाद की वास्तु शिल्प फाउंडेशन इस इमारत का नकशा बनाने में लगी हुई है।
नालंदा का जो मूल स्थान है उससे थोड़ी दुर राजगीर नामक स्थल पर शिक्षा का कार्य आरंभ हुआ है। इसमेें पहले दौर में 1000 से भी ज़्यादा अर्जियाँ आईं, जिसमें से 15 अभ्यासी को प्रवेश दिया गया। जिनमें कुछ विदेशी भी
है। 11 अध्यापक पर्यावरण और इतिहास के दो विषयों पर अपना शिक्षाकार्य शुरू कर चुके हैं।
नालंदा यूनिवर्सिटी के नये वाइस-चांसलर डॉ. गोपा सभरवाल बताते हैं कि आने वाले 1 साल
में अन्य 5 विषयों की शिक्षा शुरू की जाएगी।
कुछ लोग सवाल भी उठाते हैं कि क्यां
विश्व के श्रेष्ठ विद्वान और मह्त्वाकांक्षी अभ्यासी इस ग्रामीण इलाके तक जाएँगे? कुछ लोग ऐसी आशंकाएं भी जताते हैं कि क्यां नालंदा पहले जैसी भव्यता फिर से प्राप्त कर सकेगी? लेकिन...
परिवर्तन और अलग सोच से हमेशा दुनिया डरती आई है... लेकिन एक सच्चाई यह भी है कि इन्हीं चीजों से दुनिया आगे बढ़ी थी। भारत के पूर्व राष्ट्रपति के प्रशंसनीय प्रयास और उन विद्वान
दल एवं उन बुद्धिजीवियों की वो ही तत्परता तथा भारत सरकार का उसी तरह आगे आकर समर्थन
एवं वैश्विक चीजों को हल करने से आगे सफलता मिल जाए तो उसमें किसीको कोई आपत्ति होनी
भी नहीं चाहिए।
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